मौर्यकालीन धार्मिक दशा (The Mauryan Religious Life)

भूमिका

मौर्य काल में अनेकानेक धर्म एवं सम्प्रदायों का सह-अस्तित्व था। मौर्य सम्राटों की धार्मिक विषयों में सहिष्णुता की नीति से विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के विकास का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस समय के मुख्य धर्म एवं सम्प्रदाय वैदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक आदि थे।मौर्यकालीन धार्मिक दशा का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-

वैदिक धर्म

समाज के उच्च वर्गों में वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म) का बोलबाला था। अनेक वैदिक देवताओं की पूजा होती थी तथा विविध प्रकार के यज्ञ किये जाते थे।

चन्द्रगुप्त मौर्य प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म का ही अनुयायी थे। महावंश के अनुसार बिंदुसार ने साठ हजार ब्राह्मणों के प्रति उदारता दिखायी थी। इसी तरह स्वयं अशोक भी ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार अशोक भगवान शिव के उपासक थे।

पुरोहित यज्ञ कराते थे। यज्ञों के अवसर पर पशुओं की बलि भी दी जाती थी। अशोक के प्रथम शिलालेख से पता चलता है कि उसके राज्य में सर्वत्र पशु-बलि होती थी जिसे बन्द कराने के लिये उसने आदेश जारी किये थे।* अर्थशास्त्र में राजप्रासाद के समीप बनी हुई ‘यज्ञशाला’ (इज्या-स्थानम्) का उल्लेख मिलता है।

इध न किंचि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं ( । )*

अशोक का प्रथम बृहद् शिलालेख

मेगस्थनीज के अनुसार ब्राह्मणों का समाज में प्रधान स्थान था। दार्शनिक यद्यपि संख्या में कम थे किंतु वे सबसे श्रेष्ठ समझे जाते थे और यज्ञ-कार्य में लगाये जाते थे।

ब्राह्मणों का एक वर्ग सन्यासियों का था। वे जंगलों में रहकर कठोर साधना एवं तपश्चर्या का जीवन व्यतीत करते थे। सन्यासियों को ‘श्रमण’ कहा जाता था। यूनानी लेखकों ने उनके ज्ञान एवं सदाचरण की बहुत प्रशंसा की है। मेगस्थनीज के अनुसार मंडनिस (मंडनि कौर) नामक एक इसी प्रकार के आश्रमवासी सन्यासी ने अपने ज्ञान से सिकन्दर को बहुत अधिक प्रभावित किया था।

अर्थशास्त्र में अपराजित, अप्रतिहित, जयन्त, वैजयन्त, शिव, वैष्णव, अश्विन्, श्रीमादिरा (दुर्गा), अदिति, सरस्वती, सविता, अग्नि, सोम, कृष्ण आदि देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता है।

उपर्युक्त देवी-देवताओं के अतिरिक्त इस समय अग्नि, नदी, समुद्र, पर्वत, नाग आदि की भी पूजा की जाती थी। लोग तीर्थयात्रा पर जाते थे। ज्योतिषियों, भविष्यवक्ताओं, शकुन विचारकों आदि का भी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था।

आचार्य चाणक्य के अनुसार वेद-त्रयी (ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद) के अनुसार आचरण करते हुए संसार सुखी रहेगा और अवसाद को प्राप्त नहीं होगा। तदनुसार राजकुमार के लिये चौलकर्म, उपनयन, गोदान, इत्यादि वैदिक संस्कार निदिष्ट किये गये हैं। ऋत्विज, आचार्य और पुरोहित को राज्य से नियत वार्षिक वेतन मिलता था।

वैदिक ग्रंथों और कर्मकांड का उल्लेख प्रायः तत्कालीन बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है। कुछ ब्राह्मणों को जो वेदों में निष्णात थे, वेदों की शिक्षा देते थे तथा बड़े-बड़े यज्ञ करते थे, पालि-ग्रंथों में ‘ब्राह्मणनिस्साल‘ कहा गया है। वे अश्वमेघ, वाजपेय इत्यादि यज्ञ करते थे। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से कर-मुक्त भूमि दान में मिलती थी। अर्थशास्त्र में ऐसी भुमि को ब्रह्मदेय कहा गया है और इन यज्ञों की इसलिये निंदा की गयी है कि इनमें पशुबलि दी जाती थी, जो कृषि की दृष्टि से उपयोगी थे।

वैदिक धर्म कर्म-काण्ड प्रधान थी तो वहीं साथ-साथ उत्तर-वैदिक काल से उपनिषदीय विचारधारा भी चलती आ रही थी जिसने की ६ठी शताब्दी ई०पू० में जैन व बौद्ध धर्म जैसे आंदोलनों की पृष्ठभूमि बनायी थी।

एक ओर जहाँ कर्मकांड-प्रधान वैदिक धर्म अभिजात ब्राह्मण तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। वहीं दूसरी ओर उपनिषदों का अध्यात्म-जीवन, चिंतन तथा मनन का आदर्श खत्म नहीं हुआ था। सुत्तनिपात में ऐसे ऋषियों का उल्लेख है जो पंचेन्द्रिय सुख को परित्याग करके इंद्रियसंयम रखते थे। विद्या और पवित्रता ही इनका धन था। वे भिक्षा में मिलने वाले व्रीहि से यज्ञ करते थे। यूनानी लेखकों ने भी इन वानप्रस्थियों का उल्लेख किया है। इन लेखकों के अनुसार ये वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले ब्राह्मण कुटियों में निवास करते थे। वहाँ संयम का जीवन व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन और मनन करते थे। वे अपना समय गहन प्रवचनों को सुनने और विद्या दान में बिताते थे। मेगस्थनीज ने मंडनि कौर सिकंदर के बीच वार्तालाप का जो वृत्तांत दिया है, उससे मौर्यकालीन ब्राह्मण ऋषियों की जीवनचर्या पर प्रकाश पड़ता है।

लोक (जन-साधारण) धर्म

वैदिक धर्म के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार के धार्मिक जीवन का चित्र भी मिलता है जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। ब्रह्मा, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित, इत्यादि देवताओं का उल्लेख है। इनमें से बहुत से देवताओं के मंदिर थे। स्थानीय तथा कुल देवताओं के मंदिर भी होते थे। इन देवताओं की पूजा पुष्प तथा सुगंधित पदार्थों से होती थी। नमस्कार, प्रणतिपात या उपहार से देवताओं को संतुष्ट किया जाता था। अर्थशास्त्र में देवताध्यक्ष नामक पदाधिकारी का उल मिलता है। यह पदाधिकारी मंदिरों और और देवताओं की देखभाल करता था। इन मंदिरों में मेले और उत्सव होते थे। यह जन-साधारण का धर्म था।

देवताओं की पूजा के साथ भूत-प्रेत तथा राक्षसों के अस्तित्व में उनका विश्वास था। इन्हें अभिचार विद्या में कुशल व्यक्तियों की सहायता से संतुष्ट किया जाता था। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के जादू-टोनों का भी प्रयोग किया जाता था। अक्षय धन, राजकृपा, लंबी आयु, शत्रु का नाश आदि उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अनेक अभिचार क्रियाएँ की जाती थीं। चैत्यवृक्षों तथा नागपूजा का प्रचलन जन-साधारण में था। अशोक ने भी अपने ९वें शिलालेख* में लोगों द्वारा किये जाने वाले मांगलिक कार्यों का उल्लेख किया है। ये मांगलिक कार्य बीमारी के समय, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा यात्रा के अवसर पर किये जाते थे।

“अस्ति जनो उचावचं मंगलं करोते आवाधेसु वा आवाहवीवाहेसु वा पुत्रवाभेसु वा प्रवासंगिहवा एतम्हि च जनों उचावचं मंगलं करौते [ । ] एत तु महिडायो बहुकं च बहुविधं च छुदं च निरथं च मंगलं करोति [ । ] त कतव्यमेवतु मंगल [ । ]”*

अशोक का नवम् बृहद् शिलालेख

बौद्ध धर्म

अशोक के शासन-काल में बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। उसने यह घोषित किया जो कुछ बुद्ध ने कहा है वह सत्य है।*

“विदिते वे भंते आवतके हमा बुधसि धंमसि संघसी ति गालवे चं प्रसादे च [ । ] ए केचि भंते भगवता बुधेन भासिते सवे से सुभाषिते वा [ । ]”*

भाब्रू शिलालेख

सम्राट अशोक ने इस धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य की सारी शक्ति एवं साधनों को नियोजित कर दिया। उसके अथक परिश्रम के फलस्वरूप यह धर्म भारतीय उप-महाद्वीप की सीमाओं का अतिक्रमण कर पश्चिमी एशिया तथा लंका तक फैल गया।

सम्राट अशोक के ही समय में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति हुई जिसकी समाप्ति पर विभिन्न दिशाओं में प्रचारक-मण्डल भेजे गये। देखें — बौद्ध संगीतियाँ या सभायें

परम्परा के अनुसार सम्राट अशोक ने ८४ हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। अशोक के उत्तराधिकारियों में शालिशूक भी बौद्ध मतानुयायी थे जिसने उसी के समान धम्मविजय की थी।

आजीवक

आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना मक्खलिगोसाल ने की थी। वे बुद्ध एवं महावीर के समकालीन थे। मौर्य-युग तक आते-आते यह एक प्रबल सम्प्रदाय बन चुका था। अशोक के सातवें स्तम्भ-लेख में आजीवकों का भी उल्लेख किया गया है तथा महामात्रों को आजीवकों के हितों का ध्यान रखने के लिये कहा गया है। अशोक ने अपने अभिषेक के १२वें वर्ष इस सम्प्रदाय के सन्यासियों के निवास के लिये बराबर पहाड़ी पर दो गुफाओं का निर्माण करवाया था। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुनी पहाड़ी पर कुछ गुहा-विहार बनवाये थे। इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर दोनों ही वर्गों के सन्यासी सम्मिलित थे।

अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रन्थों के साथ-साथ आजीविकों का भी उल्लेख किया है। राज्याभिषेक के १२वें वर्ष में अशोक ने बाराबर की पहाड़ियों में उन्हें दो गुफाएँ प्रदान कीं। संपूर्ण मौर्य काल में आजीवकों का प्रभाव बना रहा। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुनी की पहाड़ियों में कुछ गुफाएँ आजीवकों को भेंट कीं।

निर्ग्रन्थ (जैन धर्म)

निर्ग्रन्थ से तात्पर्य जैन धर्म से है। यह भी श्रमणों का ही एक वर्ग था। अशोक के लेखों में निर्ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है। मेगस्थनीज ने इन्हें ‘नग्न साधु’ कहा है। परम्परा के अनुसार इस सम्प्रदाय के महान् आचार्य भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त को जैन मत में दीक्षित किया था।

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में जैन धर्म के सम्बन्ध एक प्रमुख घटना घटी, जिसने जैनधर्म को दो संप्रदायों में विभक्त कर दिया। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार उनके शासनकाल के उत्तरार्द्ध में मगध में १२ वर्षों का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा। इससे जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया। इस प्राकृतिक प्रकोप से दुःखी होकर चंद्रगुप्त मौर्य ने राज्य त्याग दिया। बड़ी संख्या में जैनभिक्षु भद्रबाहु के साथ मगध छोड़कर श्रमणबेलगोला (मैसूर, कर्नाटक) चले गये। बचे हुए जैन भिक्षुक अब भी मगध में रह गये, उन्होंने स्थूलभद्र को अपना नेता स्वीकार कर लिया। १२ वर्षों के पश्चात, दुर्भिक्ष की समाप्ति पर कर्नाटक से बहुत-से जैन पुनः वापस मगध आये। इनका मगध के जैनों से आचरण-संबंधी नियमों को लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ। पाटलिपुत्र की सभा में इस विवाद को निबटाने की कोशिश की गयी, परन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। इसका परिणाम यह हुआ कि जैनधर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदायों में विभक्त हो गया। मगध के जैन श्वेताम्बर कहलाये और भद्रबाहु के शिष्य दिगम्बर। देखें — जैन संगीतियाँ या सभायें

अशोक का एक उत्तराधिकारी सम्प्रति जैन परंपरा के अनुसार जैन धर्म का संरक्षक था। इस समय जैन धर्म भारत के पश्चिमी प्रदेशों में फैला था। दिव्यावदान के अनुसार निर्ग्रन्थ लोग अशोक के समय में उत्तरी बंगाल के पुण्ड्रवर्द्धन प्रदेश में भी निवास करते थे। परन्तु आजीवकों के समान वे लोग मौर्य राजाओं से दान नहीं पा सके।

भक्ति सम्प्रदाय का उदय

मौर्ययुगीन भारत के धार्मिक जीवन में भक्ति सम्प्रदाय का उदय हो चुका था। बुद्ध को देवता मानकर उनकी धातुओं एवं प्रतीकों की पूजा की जाने लगी। यूनानी लेखकों के अनुसार भारतीय हेराक्लीज और डायोनिसियस की पूजा करते थे। हेराक्लीज का अर्थ वासुदेव श्रीकृष्ण और डायोनिसियस का अर्थ भगवान शिव से है।

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था (The Mauryan Economy)

मौर्यकालीन समाज

मौर्य प्रशासन

मौर्य साम्राज्य का पतन (Downfall of the Mauryan Empire)

अशोक के उत्तराधिकारी (The Successors of Ashoka)

अशोक के अभिलेख

अशोक शासक के रूप में

अशोक का मूल्यांकन या इतिहास में अशोक का स्थान

अशोक की परराष्ट्र नीति

अशोक का साम्राज्य विस्तार

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