शक या सीथियन (The Shakas or the Scythians)

भूमिका

मौर्योत्तर काल में यवनों के बाद पश्चिमोत्तर भारत से दूसरे आक्रमणकारी शक थे। शकों ने यवनों से अधिक विस्तृत भारतीय भूभाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। शकों (Shaka) को सीथियन (Scythian) भी कहते हैं।

इतिहास के साधन

शकों के प्रारम्भिक इतिहास की जानकारी के लिये हमें मुख्यरूप से ‘चीनी-स्रोतों’ पर निर्भर रहना पड़ता है। इनमें प्रमुख हैं

  • ‘पान-कू’ कृत सिएन-हान-शू (Tsien-Han-Shu) अर्थात् प्रथम हान वंश का इतिहास।
  • ‘फान-ए’ कृत हाऊ-हान-शू (Hou Han- Shu) अर्थात् परवर्ती हान वंश का इतिहास।

इनके अध्ययन से यू-ची (कुषाण), हूण और पार्थियन जाति के साथ शकों के संघर्ष तथा उनके प्रसार की जानकारी प्राप्त होती है।

चीनी ग्रन्थ तथा लेखक शकों को ‘सई’ (Sai) अथवा ‘सई वांग’ (Saiwang) के नाम से पुकारते हैं।

शक : इतिहास के साधन

भारतीय साहित्य में भी शकों का यत्र-तत्र उल्लेख प्राप्त होता है। रामायण और महाभारत में यवन, पह्लव आदि विदेशी जातियों के साथ शकों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। कात्यायन तथा पतंजलि भी शकों से परिचित थे।

  • मनुस्मृति* में हम इनका उल्लेख पारद, द्रविड़, पह्लव आदि के साथ पाते हैं।

“पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजायवनाः शकाः।

पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराताः दरदाः खशाः॥”*

  • पुराणों में भी शक, मुरुण्ड, यवन आदि जातियों का का उल्लेख किया गया है। इनके अतिरिक्त कई अन्य भारतीय ग्रन्थ; जैसे – गार्गीसंहिता, विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्तम्, बाणभट्ट कृत हर्षचरित, राजशेखर कृत काव्यमीमांसा आदि भी में भी शकों का उल्लेख मिलता है।
  • जैन स्रोतों में शकों के विषय में विस्तृत विवरण दिया गया है। जैन ग्रन्थ ‘कालकाचार्य कथानक’ में उज्जयिनी के ऊपर शकों के आक्रमण तथा विक्रमादित्य द्वारा उनके पराजित किये जाने का विवरण सुरक्षित है। भारतीय साहित्य में शकों के प्रदेश को ‘शकद्वीप’ अथवा ‘शकस्थान’ कहा गया है।

भारत में शासन करने वाले शक तथा पह्लव शासकों का ज्ञान हमें मुख्य रूप से उनके अभिलेखों तथा सिक्कों से प्राप्त होती है। शकों के प्रमुख लेख निम्नलिखित हैं-

सातवाहन राजाओं के अभिलेखों से शकों के साथ उनके संघर्ष व सम्बन्ध का ज्ञान होता है। इन अभिलेखों के अतिरिक्त पश्चिमी तथा उत्तरी पश्चिमी भारत के बड़े भाग से शक नरेशों के बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त हुये हैं। कनिष्क के लेखों से पता चलता है कि कुछ शक क्षत्रप तथा महाक्षत्रप उसकी अधीनता में देश के कुछ भागों में शासन करते थे।

उपर्युक्त स्रोतों के आधार पर इतिहासकारों ने शकों के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया है, जिसका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है।

उत्पत्ति तथा प्रसार

शक या सीथियन मूलतः सिर दरया (Jaxartes) के उत्तर में निवास करने वाली एक खानाबदोश तथा बर्बर जाति थी। चीनी ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि १६५ ईसा पूर्व के लगभग ‘यू-ची’ नामक एक अन्य जाति ने उन्हें परास्त कर वहाँ से विस्थापित कर दिया। शकों ने सिर दरया (Syr Darya) पार कर बल्ख (बैक्ट्रिया) पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ के यवनों को परास्त कर भगा दिया। परन्तु ‘यू-ची’ जाति ने वहाँ भी उनका पीछा किया तथा शक पुनः परास्त हुये।

शक : उद्भव व प्रसार

पराजित शक जाति दो शाखाओं में विभाजित हो गयी :

  • उनकी एक शाखा दक्षिण की ओर आयी तथा कि-पिन (कपिशा) पर अधिकार कर लिया।
  • दूसरी शाखा पश्चिम में ईरान (पार्थिया) की ओर गयी। वहाँ उसे शक्तिशाली पार्थियन सम्राटों से युद्ध करना पड़ा। शकों ने दो पार्थियन राजाओं — फ्रात-द्वितीय (१२८ ईसा पूर्व) तथा आर्तबान (१२३ ईसा पूर्व) को पराजित कर पूर्वी ईरान तथा एरियाना (हेरात) के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। परन्तु पार्थियन नरेश मिश्रदात द्वितीय (१२३-८८ ईसा पूर्व) ने शकों को बुरी तरह परास्त कर ईरान के पूर्वी प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया। वहाँ से भागकर शक हेलमन्ड घाटी (दक्षिणी अफगानिस्तान) में आये तथा वहीं बस गये। इस स्थान को शकस्थान (सीस्तान) कहा गया। यहाँ से कान्धार और बोलन दर्रा होते हुये वे सिन्धु नदी-घाटी में जा पहुँचे। उन्होंने सिन्ध प्रदेश में अपना निवास स्थान बना लिया। शकों के साथ सम्पर्क के कारण इस स्थान को ‘शक-द्वीप’ कहा गया।

इस तरह भारत में शक पूर्वी ईरान से होकर आये थे। उन्होंने पश्चिमोत्तर प्रदेशों से यवन-सत्ता को समाप्त कर उत्तरापथ एवं पश्चिमी भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया।

शकों की शाखाएँ

भारतीय उपमहाद्वीप में शकों की पाँच शाखाएँ स्थापित हुई:

  • एक; अफगानिस्तान में बसी
  • दूसरी; पंजाब में बसी और तक्षशिला अपनी राजधानी बनाया
  • तीसरी; मथुरा शाखा
  • चौथी; सौराष्ट्र व महाराष्ट्र की शाखा
  • पाँचवीं; मध्य भारत (मालवा) शाखा जिसने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया

शक : शाखाएँ

कुछ विद्वानों ने चौथी और पाँचवीं शाखा को एक साथ समाहित करके ‘पश्चिमी शाखा’ कहा और पुनः इसे महाराष्ट्र के क्षहरात वंश और कामर्दक (चष्टन) वंश में विभाजित कर दिया। जो भी हो शाखाएँ अंततः पाँच हो जाती हैं।

शक नरेशों के भारतीय प्रदेशों के शासक ‘क्षत्रप’ कहे जाते थे।

शकों की प्रमुख शाखाओं का परिचय इस प्रकार है :-

तक्षशिला के शक शासक

सिंधु और पंजाब का शकवंश या तक्षशिला के शक

तक्षशिला के प्रारम्भिक शक शासकों में मेउस (Maues) या मउज या मोग  का नाम सर्वप्रमुख है। सामान्यतः उसका समय २० ईसा पूर्व से २२ ईस्वी तक माना जाता है। पश्चिमोत्तर प्रदेशों से उसके अनेक सिक्के मिलते हैं। उनकी पहचान तक्षशिला ताम्रपत्र के ‘महाराज मोग’ से की जाती है।

अल्टेकर का मत है कि मेउस पहले पार्थियनों का सामन्त था। पार्थियन शासक के निर्बल पड़ जाने पर उसने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। उसके साम्राज्य में पूर्वी गान्धार सम्मिलित था तथा तक्षशिला उसकी राजधानी थी। सिक्कों के आधार पर कहा जाता है कि उसका साम्राज्य पुष्कलावती, कपिशा तथा पूर्व में मथुरा तक विस्तृत था। मेउस भारत का प्रथम शक-विजेता था।

मेउस के पश्चात् एजेज (Azes) तक्षशिला का शक राजा बना। वह भी एक प्रतापी राजा था। उसने पंजाब में यूथीडेमस कुल के यवनों को परास्त कर वहाँ अपना आधिपत्य कायम किया। उसने यवन नरेश अपोलोडोटस द्वितीय तथा हिप्पास्ट्रेटस की मुद्राओं को पुनरंकित करवाया।

एजेज के बाद एजिलिसेज (Azilises) राजा बना। वह सम्भवतः एजेज का पुत्र था तथा कुछ समय तक उसने अपने पिता के साथ मिलकर राज्य किया था। एजिलिसेज के सिक्के दो प्रकार के हैं :

  • प्रथम, मुद्राओं के मुख भाग पर यूनानी लिपि में एजेज का नाम तथा पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी में एजिलिसेज का नाम मिलता है। इन दोनों को ‘महाराज’ कहा गया है।
  • द्वितीय, मुद्राओं के मुख भाग पर यूनानी में एजिलिसेज तथा पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी में एजेज नाम उत्कीर्ण हैं।

इसके आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि एजेज नाम के दो शक शासक हुए। एजिलिसेज के पहले एजेज प्रथम हुआ तथा एजेज द्वितीय एजिलिसेज के बाद राजा हुआ।

एजेज द्वितीय के ही समय से पश्चिमोत्तर भारत से शकों की शक्ति का ह्रास आरम्भ हो गया। इसके लिये दो कारण उत्तरदायी थे —

  • एक; फ्रायोटीज (Phraotes) नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने तक्षशिला पर अधिकार कर लिया।
  • दो; पश्चिम की ओर से गोण्डोफर्नीज ने शक राज्य पर आक्रमण किया तथा बाद में तक्षशिला पर अधिकार कर लिया।

फिलोस्ट्रेटस के विवरण से ज्ञात होता है कि फ्रायोटीज एक शक्तिशाली राजा था तथा सिन्ध प्रदेश के क्षत्रप पर भी उसका अधिकार था। ऐसा प्रतीत होता है कि फ्रायोटीज को पराजित करने के बाद ही पार्थियन गोण्डोफर्नीज ने तक्षशिला पर अपना अधिकार किया था।

इस प्रकार तक्षशिला में शकों का शासन समाप्त हुआ। मेउस से एजेज द्वितीय तक के राजाओं ने लगभग २० ईसा पूर्व से ४३-४४ ईस्वी तक शासन किया।

भारतीय शासनतन्त्र के विकास में उनका मुख्य योगदान यह था कि उन्होंने क्षत्रप शासन-प्रणाली का प्रचलन किया। चुक्ष (तक्षशिला के उत्तर में वर्तमान चच), कपिशा, अभिसार, प्रस्थ, पुरुषपुर (पेशावर), शाकल, मथुरा आदि प्रदेशों में क्षत्रपों की नियुक्ति की गयी थी। इनमें से अधिकांश क्षत्रप कुलों ने शकों के पतन के बाद पह्लवों तथा कुषाणों की अधीनता में शासन किया।

क्षत्रप वंश

मथुरा के शक-क्षत्रप

मथुरा में शकों का शासन कब और कैसे स्थापित हुआ यह निश्चित रूप से बताना कठिन है। टार्न तथा स्टेनकोनो जैसे कुछ विद्वान जैन पुस्तक ‘कालकाचार्य कथानक’ के आधार पर यह मत व्यक्त करते हैं कि मालवा में विक्रमादित्य (५७ ईसा पूर्व) द्वारा पराजित होने के बाद शक मथुरा में आकर बस गये। इतिहास प्रसिद्ध मालवा के विक्रमादित्य को ही ‘मालव’ अथवा ‘विक्रम’ सम्वत् का संस्थापक माना जाता है। जैन साहित्य के अनुसार इसके १३५ वर्ष बाद शक-सम्वत् का प्रारम्भ (७८ ईस्वी में) हुआ।

मथुरा के शक क्षत्रपों का तक्षशिला के शकों के साथ क्या सम्बन्ध था? यह भी ठीक-से पता नहीं है। मथुरा के सिंह-शीर्ष अभिलेख में इस क्षेत्र के अनेक शक सरदारों के नाम मिलते है। संभवतः यह अभिलेख महाक्षत्रप राजूल के काल में उसकी प्रधान महिषी द्वारा उत्कीर्ण करवाया गया था। राजूल का समीकरण महाक्षत्रप राजवुल से किया जाता है जिसका उल्लेख मोरा (मथुरा) से प्राप्त ब्राह्मी में उत्कीर्ण लेख में हुआ है।

मथुरा सिंहशीर्ष अभिलेख से ज्ञात होता है कि राजूल या राजवुल मथुरा का प्रथम शासक था। उसके सिक्कों पर ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि अंकित मिलती है। ये सिक्के सिन्धु नदी घाटी से गंगा के दोआब तक पाये गये हैं। सिक्कों की प्राप्ति-स्थानों से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि राजवुल का अधिकार पूर्वी पंजाब से मथुरा तक था। — COINS OF THE INDO-SCYTHIANS, SAKAS & KUSHANS : by A. CUNNINGHAM

राजवुल के बाद उसका पुत्र शोडास राजा हुआ। मथुरा से उसके अभिलेख तथा सिक्के मिलते हैं। उसके सिक्कों पर केवल ‘क्षत्रप’ का विरुद मिलता है परन्तु अमोहिनी दान-पत्र में उसे ‘महाक्षत्रप’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने पिता (राजवुल) की मृत्यु के बाद वह महाक्षत्रप बना था। पूर्वी पंजाब से उसका कोई सिक्का प्राप्त नहीं होता है। इससे विद्वानों ने ऐसा अनुमान लगाया है कि उसका राज्य केवल मथुरा तक ही सीमित था।

शोडास के उत्तराधिकारियों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। एक सिक्के पर ‘तोरणदास’ नामक किसी शक-सरदार का उल्लेख हुआ है जो अपने को महाक्षत्रप का पुत्र बताता है। सम्भव है कि वह शोडास का ही पुत्र रहा हो। इसके पश्चात् मथुरा से शकों की स्वतन्त्र सत्ता का अन्त हो गया तथा वहाँ कुषाणों का आधिपत्य स्थापित हुआ। अब शक क्षत्रप कुषाण नरेशों की अधीनता में शासन करने लगे।

व्रिक्रम सम्वत् और विक्रमादित्य उपाधि

  • ५७-५८ ई०पू० में उज्जयिनी के प्रतापी महाराज विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करके अपने राज्य से बाहर खदेड़ दिया।
  • उन्हीं के नाम पर “विक्रम सम्वत्” का प्रारम्भ हुआ। इसे मालव सम्वत् और कृत सम्वत् भी कहते हैं। इसका समय ५७ ई०पू० निर्धारित या गया है।
  • विक्रमादित्य की उपाधि भारतीय इतिहास में एक सम्मानित विरुद बन गया। यह ऊँची प्रतिष्ठा व सत्ता का प्रतीक हो गया।
  • जिस भी भारतीय राजा ने उच्च सैन्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया वह इस विरुद को धारण करने लगा।
  • विक्रमादित्य की उपाधि की तुलना हम रोमन राजाओं के “सीजर” (Caesar) से कर सकते हैं।
  • भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य उपाधि धारणकर्ता राजाओं की संख्या लगभग १४ तक पहुँच गयी।
  • गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय सबसे प्रसिद्ध ‘विक्रमादित्य’ हैं।

पश्चिमी भारत के शक

पश्चिमी भारत में दो शक वंशों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं—

  • एक; महाराष्ट्र का क्षहरात वंश।
  • दो; कार्दमक (चष्टन) वंश अथवा सौराष्ट्र और मालवा के शक-क्षत्रप।

इन्होंने कुछ समय के लिये महाराष्ट्र का अधिकांश प्रदेश सातवाहनों से छीन लिया था।

क्षहरात वंश

इस वंश ने सम्पूर्ण महाराष्ट्र, लाट तथा सौराष्ट्र प्रदेश पर शासन किया। क्षहरात वंश का प्रथम राजा भूमक था।

भूमक के सिक्के हमें गुजरात, काठियावाड़ तथा मालवा के भूभाग से प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों पर ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों में लेख अंकित किये गये हैं। खरोष्ठी लिपि के प्रयोग से ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी राजपूताना तथा सिन्ध के कुछ भागों पर भी उसका अधिकार था। भूमक का कोई अभिलेख अभी तक नहीं मिला है।

नहपान इस वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था। इसके सिक्के अजमेर से नासिक तक के भूक्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। ये सिक्के चाँदी तथा ताँबे के हैं। सिक्के एक निश्चित मानक के है। उसके समय में सोने तथा चाँदी के सिक्के (कार्षापण) की विनिमय दर १ : २८.५७ थी।

“पनरस नियुतं भगवतां देवानं ब्राह्मणानं च कार्षापण-सहस्राणि सतरि ७००० पंचत्रिंशक सुवण कृता दिन सुवर्ण सहस्रणं मूल्यं [ ॥ ]” — नहपानकालीन उषावदत्त का नासिक गुहालेख

अर्थात्

वर्ष ४५ के पन्द्रहवें दिन भगवान ( बुद्ध ), देवताओं और ब्राह्मणों के लिए ७००० कार्षापण और हजार कार्षापण का मूल्य ३५ सुवर्ण के रूप में दिया गया।

सिक्कों पर वह ‘राजन्’ की उपाधि धारण किये हुए है। नहपान के अमात्य अर्यमन् का एक अभिलेख जुन्नार (पूना) से मिलता है। उसके जामाता ऋषभदत्त (उषावदात) के गुहालेख नासिक तथा कार्ले (पूना) से प्राप्त होते हैं।

ऋषभदत्त, नहपान के समय में उसके दक्षिणी प्रान्त — गोवरधन (नासिक) तथा मामल्ल (पूना) का उप-शासक (वायसराय) था। नासिक के एक गुहालेख से ज्ञात होता है कि जब राजस्थान के उत्तमभद्र जाति के लोग मालयों (मालवों) से घिर गये, तो उनकी रक्षा के लिये ऋषभदत्त वहाँ गया था। ऋषभदत्त ने मालवों को बुरी तरह परास्त किया तथा इसके बाद पुष्करतीर्थ में दान दिया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि राजपूताना के पुष्करतीर्थ (अजमेर) क्षेत्र पर भी नहपान का प्रभाव था।

नासिक तथा पूना जिलों को उसने सातवाहनों से जीता था। इस प्रकार उसका राज्य उत्तर में अजमेर से लेकर दक्षिण में उत्तरी महाराष्ट्र तक विस्तृत था। पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी के अनुसार उसकी राजधानी मिन्नगर (भरूच तथा उज्जैन के मध्य स्थित) थी। नहपान ने लगभग ११९ ईस्वी से १२५ ईस्वी तक राज्य किया।

नहपान सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा पराजित हुआ और मार डाला गया। जोगलथम्बी से प्राप्त नहपान के बहुसंख्यक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र ने नहपान के जोगलथम्बी स्थित कोषागार को अधिकृत कर लिया था।

नहपान के उत्तराधिकारी के विषय में हमको ज्ञात नहीं है। ऐसा लगता है कि उसकी मृत्यु के साथ ही पश्चिमी भारत से क्षहरात शकों की शक्ति का अन्त हो गया।

कार्दमक (चष्टन) वंश

क्षहरातों के पश्चात् सौराष्ट्र और मालवा में शकों के एक दूसरे कुल ने शासन किया। यह नया वंश इतिहास में ‘कार्दमक वंश’ के नाम से प्रसिद्ध है। पश्चिमी भारत में इस नवीन वंश की सत्ता स्थापित करने वाला पहला शासक ‘चष्टन’ था। वह ‘यसमोतिक’ का पुत्र था। चष्टन सम्भवतया कुषाणों की अधीनता में पहले सिन्ध क्षेत्र का क्षत्रप था। नहपान की मृत्यु के बाद उसे कुषाण साम्राज्य के दक्षिणी-पश्चिमी प्रान्त का उप-राजा (वायसराय) नियुक्त किया गया।

“The authority of the new family was established in Western India by Chashțana, son of Ysamotika of the Kardamaka family. On the earlier coins of Chashțana he is called a Kshatrapa, and in later issues a Mahakshatrapa; but in all cases he has the additional title Rajan, His father Ysamotika, however, has no royal title. The early home of the Kardamakas is unknown; but Chashțana may have been ruling in the Sind region as a feudatory of the Kushaņas. After Nahapāna’s death Chashtana seems to have been appointed by the Kushāņas viceroy of the south-western province of their empire in place of the Kshaharāta ruler with instructions to recover the lost districts of the satrapy from the Satavahanas.” P. 182; The Age of Imperial Unity

लगता है कि कालान्तर में उसने स्वयं को स्वतन्त्र कर लिया तथा ‘महाक्षत्रप’ की उपाधि धारण कर ली। वृद्धावस्था में चष्टन ने अपने पुत्र जयदामन को क्षत्रप नियुक्त किया। संभवतः उसने सातवाहनों से उज्जयिनी को जीत लिया था। चष्टन के जीवन काल में ही जयदामन् की मृत्यु हो गयी और वह स्वतन्त्र शासक नहीं हो पाया। तदुपरान्त चष्टन ने अपने पौत्र (जयदामन् के पुत्र) रुद्रदामन प्रथम को क्षत्रप नियुक्त किया। अन्धौ (कच्छ की खाड़ी) अभिलेख से ज्ञात होता है कि १३० ई० में चष्टन अपने पौत्र रुद्रदामनके साथ मिलकर शासन कर रहा था।

चष्टन का पुत्र जयदामन् कभी महाक्षत्रप नहीं बन सका। मुद्राओं पर उसकी उपाधि केवल ‘क्षत्रप’ की है। इस आधार पर बूलर तथा भण्डारकर ने यह निष्कर्ष निकाला है कि उसके समय में शकों को सातवाहनों के हाथों पराजय उठानी पड़ी थी। परन्तु इस तरह का निष्कर्ष निकालना असंगत है। अन्धौ के अभिलेख से स्पष्ट होता है कि चष्टन तथा रुद्रदामन सह-शासक थे। अतः जयदामन् को स्वतन्त्र रूप से शासन करने का अवकाश ही नहीं मिला। ऐसी स्थिति में सातवाहनों द्वारा उसके समय में शकों की पराजय का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।

महाक्षत्रप रुद्रदामन

महाक्षत्रप रुद्रदामन के विषय में हमको प्रामाणिक जानकारी उसके गिरनार अभिलेख से प्राप्त होती है जिसको रेखाचित्र के माध्यम से संक्षिप्त में इस तरह समझ सकते हैं :

शक : रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख

विस्तृत विवरण के लिये देखें — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

चष्टन की मृत्यु के पश्चात् उसका पौत्र रुद्रदामनपश्चिमी भारत के शकों का राजा हुआ। वह अभी तक भारत में शासन करने वाले शक शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण था। जूनागढ़ (गिरनार) से शक संवत् ७२ (१५० ई०) का उसका एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्रशस्ति के रूप में है। इससे रुद्रदामन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्राप्त होता है।

जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि ‘सभी जातियों के लोगों ने रुद्रदामन को अपना रक्षक चुना था’* तथा उसने ‘महाक्षत्रप की उपाधि स्वयं ग्रहण की थी।’*

“सर्व्व-वर्णैरभिगंम्य रक्षाणार्थं पतित्वे वृतेन [ आ ]”*

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“स्वयमधिगत-महाक्षत्रप-नाम्ना”* — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

इससे ऐसा संकेत मिलता है कि उसके पूर्व शकों की शक्ति क्षीण पड़ गयी थी जिसे अपने बाहुबल से रुद्रदामन ने पुनः प्रतिष्ठित किया। वह एक सफल विजेता था। अभिलेख में अधोलिखित स्थानों की विजय करने का श्रेय उसे प्रदान किया गया है :

  • आकर-अवन्ति : इनसे तात्पर्य पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा से है। आकर की राजधानी विदिशा तथा अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी में थी।
  • अनूप : नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती में यह प्रदेश स्थित था। इस स्थान की पहचान म० प्र० के खरगोन जनपद में स्थित माहेश्वर अथवा मान्धाता से की जाती है। विस्तृत विवरण के लिये देखें — अनूप
  • अपरान्त : इससे तात्पर्य उत्तरी कोंकण से है। इसकी राजधानी सोपारा (शूर्पारक) में थी। प्राचीन साहित्य में इस स्थान का प्रयोग पश्चिमी देशों को इंगित करने के लिये किया गया है। महाभारत में इसे परशुराम की भूमि बताया गया है। विस्तृत विवरण के लिये देखें – अपरान्त
  • आनर्त तथा सौराष्ट्र : इनसे तात्पर्य उत्तरी तथा दक्षिणी काठियावाड़ से है। पहले की राजधानी द्वारका तथा दूसरे की गिरिनगर में थी। ये सभी आजकल गुजरात प्रान्त में हैं।
  • कुकुर : यह आनर्त का पड़ोसी राज्य था। डी० सी० सरकार के अनुसार यह उत्तरी काठियावाड़ में स्थित था।
  • स्वभ्र : गुजरात की साबरमती नदी के तट पर यह प्रदेश स्थित था।
  • मरु : इस स्थान की पहचान राजस्थान स्थित मारवाड़ से की जाती है।
  • सिन्ध तथा सौवीर : निचली सिन्धु नदी घाटी के क्रमशः पश्चिम तथा पूर्व की ओर ये प्रदेश स्थित थे। कनिष्क के सुई-विहार अभिलेख से निचली सिन्धु घाटी पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। ऐसा लगता है कि रुद्रदामन ने कनिष्क के उत्तराधिकारियों को हराकर इस भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया था।
  • निषाद : महाभारत में इस स्थान का उल्लेख मत्स्य के बाद मिलता है जिससे सूचित होता है कि यह उत्तरी राजस्थान में स्थित था। यही विनशन नामक तीर्थ था। बूलर ने निषाद देश की स्थिति हरियाणा के हिसार-भटनेर क्षेत्र में निर्धारित की है।

इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने ‘दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को दो बार पराजित किया। किन्तु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसका वध नहीं किया।’

“दक्षिणा-पथपतेस्सातकर्णेद्विरपि नीर्व्याजमवजीत्यावजीत्य संबंधा [ वि ] दूरतया अनुत्सादनात्प्राप्तयशासा [ वाद ]” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

यह पराजित नरेश वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी था। नासिक अभिलेख से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णि असिक, अस्मक, मूलक, सौराष्ट्र, कुकुर, अपरान्त, अनूप, विदर्भ, आकर तथा अवन्ति का शासक था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मृत्यु के बाद रुद्रदामन ने उसके उत्तराधिकारी वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी से उपर्युक्त में से अधिकांश प्रदेशों को विजित कर लिया था। सिन्ध-सौवीर क्षेत्र को उसने कनिष्क के उत्तराधिकारियों से जीता होगा।

जूनागढ़ अभिलेख स्वाभिमानी तथा अदम्य यौधेयों के साथ उसके युद्ध तथा उनकी पराजय का भी उल्लेख करता है।*

“सर्व्वक्षत्राविष्कृत-वीर शब्द जा – [ तो ] त्सेकाविधेयनां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन”* — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

यौधेयों ने संभवतः उत्तर की ओर से उसके राज्य पर आक्रमण किया होगा। यौधेय गणराज्य पूर्वी पंजाब में स्थित था। वे अत्यन्त वीर तथा स्वातंत्र्य प्रेमी थे। पाणिनि ने उन्हें ‘आयुधजीवी संघ’, अर्थात् ‘शस्त्रों के सहारे जीवित रहने वाला’ कहा है। यौधेयों को पराजित कर रुद्रदामन ने उन्हें अपने नियंत्रण में कर लिया तथा उसका राज्य उनके आक्रमणों से सदा के लिये सुरक्षित हो गया।

सफल विजेता होने के साथ-साथ रुद्रदामन एक प्रजापालक सम्राट भी था। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके शासन काल में सौराष्ट्र की ऐतिहासिक सुदर्शन झील का बाँध भारी वर्षा के कारण टूट गया और उसमें चौबीस हाथ लम्बी, इतनी ही चौड़ी और पचहत्तर हाथ गहरी दरार बन गयी इसके फलस्वरूप झील का सारा पानी बह गया।

सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त के समय में हुआ था तथा अशोक के समय में इससे नहरें निकलवायी गयी थीं।

“[ स्य ] र्थे मौर्यस्य राज्ञ: चन्द्र [ गुप्तस्य ] राष्ट्रियेण [ वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य [ कृ ] ते यवनराजेन तुष [  ] स्फेनाधिष्ठाय प्रणालीभिरलं कृतं [ । ]” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

अर्थात्

“जन-कल्याण के लिए इस झील को सर्वप्रथम मौर्य वंशी राजा चन्द्रगुप्त के राष्ट्रिक ( राज्यपाल ) वैश्य पुष्यगुप्त ने निर्माण कराया था। तदनन्तर उसमें अशोक मौर्य की ओर से सुराष्ट्र प्रान्त के यवन-शासक तुषास्प ने छोटी-बड़ी नालियाँ बनवायी थीं।”

इस दैवी विपत्ति के कारण जनता का जीवन अत्यन्त कष्टमय हो गया तथा चारों ओर हाहाकार मच गया। चूँकि इसके पुनर्निर्माण में बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी, अतः उसकी मन्त्रिपरिषद् ने इस कार्य के लिये धन व्यय किये जाने की स्वीकृति नहीं प्रदान किया।

“[ अस्मि ] न्नर्त्थे- [ च ] महाक्षत्रपस्य मतिसचिव-कर्मसचिवैरमात्य-गुण-समुद्युक्तैरप्यति-महत्वाद्भेदस्यानुत्साह-विमुख-मतिभिः प्रत्याख्यातारंभ पुनः सेतुबन्ध-नैराश्याहाहाभूतासु” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

अर्थात्

“इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय यह भी है कि झील के दरारों के विकराल रूप को देखकर जब महाक्षत्रप के गुण-सम्पन्न परामर्श देनेवाले अमात्यों और कार्य संपन्न करनेवाले सचिवों में अनुत्साह व्याप्त था और उसके निर्माण कार्य आरम्भ करने के विरुद्ध मत प्रकट करने के कारण बाँध के फिर से बाँधे जाने की आशा टूट गयी थी।”

परन्तु रुद्रदामन ने जनता पर बिना कोई अतिरिक्त कर लगाये ही अपने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बाँध की फिर से मरम्मत करवायी तथा उससे तिगुना मजबूत वाँध बनवा दिया।’

“महाक्षत्रपेण रुद्र-दाम्ना वर्ष सहस्राय गो-ब्रा [ ह्मण ] …… [ र्त्थं ] धर्म्मकीर्ति-वृदध्यर्थ च अपीडयि [ त्व ] कर-विष्टि-प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात्कोशा महता धनौधेन-अनति-महता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारायामं सेतुं विधा [ य ] सर्वत [ टे ] ……सुदर्शनतरं कारितमिति [ । ]” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

अर्थात्

“उन महाक्षत्रप रुद्रदामन ने हजारों वर्ष तक गौ तथा ब्राह्मणों की कल्याण-कामना और पुण्य तथा यश की वृद्धि के निमित्त, नगर तथा ग्रामवासी प्रजाजनों को कर, बेगारी और भेंट आदि की पीड़ा दिये बिना ही अपने राजकोष से अपार धनराशि व्यय कर थोड़े ही समय में पहले की अपेक्षा तिगुने लम्बे-चौड़े तथा सुदृढ़ बाँध को बँधवा कर उस सुदर्शन झील को और अधिक सुन्दर बनवाया।”

वह एक उदार शासक था जिसने कभी अपनी प्रजा से न तो अनुचित धन वसूल किया और न ही बेगार (विष्टि) तथा प्रणय (पुण्यकर) ही लिया।

“अपीडयि [ त्व ] कर-विष्टि-प्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

रुद्रदामन का राजकोष स्वर्ण, रजत, हीरे आदि बहुमूल्य धातुओं से परिपूर्ण था (कानक-रजत-वज्र-वैडूर्य-रत्नोपचय-विष्यन्दमान कोशेन )। उसके शासन में प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं था।

रुद्रदामन ने साम्राज्य को प्रान्तों में विभक्त किया था। प्रत्येक प्रान्त का शासन योग्य तथा विश्वासपात्र अमात्य (राज्यपाल) के अधीन रखा गया था। आनर्त-सुराष्ट्र-प्रान्त का शासक सुविशाख था। *

“आनर्त्त-सुराष्टानां पालनार्थन्नियुक्तेन पह्लवेन कुलैप-पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन”*

अन्य प्रादेशिक शासकों के विषय में हमें कोई सूचना प्राप्त नहीं होती है।

रुद्रदामन की एक मन्त्रिपरिषद थी जिसमें दो प्रकार के मन्त्री होते थे —

  • एक; मतिसचिव – ये उसके व्यक्तिगत सलाहकार (Counsellor) होते थे।
  • द्वितीय; कर्मसचिव – ये कार्यकारी (Executive) मंत्री तथा कार्यपालिका के अधिकारी होते थे।

इन्हीं में से राज्यपाल, कोषाध्यक्ष, अधीक्षक इत्यादि की नियुक्ति की जाती थी।

रुद्रदामन प्रशासनिक कार्य अपनी मन्त्रिपरिषद की परामर्श से ही करता था तथा शक्ति सम्पन्न होते हुये भी निरंकुश नहीं था। जूनागढ़ अभिलेख में उसे ‘भ्रष्ट-राज-प्रतिष्ठापक’ (पदच्युत राजाओं को पुनर्प्रतिष्ठापक) कहा गया है।

इतिहासकारों के अनुसार गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के समान उसने भी पराजित राजाओं के राज्य पुनः वापस कर दिये थे। संभवतः ये शासक वे थे जिन्हें इसके पूर्व गौतमीपुत्र शातकर्णि ने पराजित किया था, क्योंकि नासिक लेख से पता चलता है कि उसने क्षत्रिय राजाओं का मान-मर्दन किया था।*

“खतिय-दप-मान-मदनस” — वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

प्रथम बार इस अभिलेख में हम छः प्रकार के करो का उल्लेख पाते हैं :

  • बलि,
  • शुल्क,
  • भाग,
  • कर,
  • विष्टि और
  • प्रणय।

“बलिशुल्को भागैः (पंक्ति -१४)

कर-विष्टि- (पंक्ति -१५)

प्रणय … (पंक्ति -१६)” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

रुद्रदामन एक सफल विजेता एवं कुशल प्रशासक होने के साथ ही साथ एक उच्च कोटि के विद्वान और विद्या प्रेमी थे। रुद्रदामन “वैदिक धर्मानुयायी” थे तथा संस्कृत भाषा को उन्होंने राज्याश्रय प्रदान किया। रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख अपनी शैली की रोचकता, भाव-प्रवणता एवं हृदयावर्जन के लिये प्रसिद्ध है। वह वस्तुतः एक छोटा गद्य-काव्य ही है। इससे ज्ञात होता है कि रुद्रदामन व्याकरण, राजनीति, संगीति तथा तर्कविद्या में प्रवीण थे। उन्होंने गद्य-पद्य रचना में निपुण बताया गया है। गिरनार अभिलेख में रुद्रदामन के सम्बन्ध में कहा गया है :

“यथार्थ-हस्तो-च्छयार्जितोर्जित-धर्मानुरागेन शब्दार्थ- गान्धर्व्व-न्यायाद्यानां विद्यानां महतीनां पारण-धारण-विज्ञान प्रयोगावाप्त-विपुल-कीर्तिना… स्फुट-लघु-मधुर-चित्र-कान्त-शब्दसमयोदारालंकृत-गद्य-पद्य- [ काव्य-विधान-प्रवीणे ]” — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

अर्थात्

“जो न्याय के आसन से हाथ उठाकर यथार्थ निर्णय लेकर धर्म के प्रति अनुराग उपार्जित करनेवाले हैं, जो व्याकरण, राजनीति, संगीत, न्याय आदि महती विद्याओं के अध्ययन, स्मरण, सम्यक् अनुभूति और व्यवहार से प्रभूत यश प्राप्त करने वाले हैं … जो स्फुट, लघु, मधुर, चित्र, कान्त प्रभृति शब्दों से समुचित रूप से प्रशस्त और अलंकारों से युक्त गद्य-पद्यात्मक काव्य-रचना में निपुण हैं…”

विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ उसका अभिलेख प्राचीनतम अभिलेखों में से एक है तथा इससे उस समय संस्कृत भाषा के पर्याप्त रूप से विकसित होने का प्रमाण मिलता है। उसके समय में उज्जयिनी शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था।

गिरनार अभिलेख के अनुसार वह (रुद्रदामन) अनेक स्वयंवरों में गया था तथा उसने कई राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया था।*

“नरेन्द्र-क [ न्या ] – स्वयंवरानेक-माल्य-प्राप्त-दाम्न [  ]”* — रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख

इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि उसके समय तक शक भारतीय समाज में पूर्णतया घुलमिल गये थे।

इस तरह रुद्रदामन एक सफल विजेता, साम्राज्य-निर्माता, उदार एवं लोकोपकारी प्रशासक तथा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का महान उन्नायक था। रुद्रदामन बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शासक था।

रुद्रदामन का शासन काल १३० ईस्वी से १५० ईस्वी तक सामान्य तौर से स्वीकार किया जाता है। रुद्रदामन का अन्त किन परिस्थितियों में हुआ यह हमें पता नहीं है। १५० ईस्वी के गिरनार अभिलेख के पश्चात् हम उसका उल्लेख नहीं सुनते हैं। निःसन्देह उसका शासनकाल पश्चिमी क्षत्रपों की शक्ति के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है।

रुद्रदामन के उत्तराधिकारी तथा शकसत्ता का विनाश

रुद्रदामन की मृत्यु के पश्चात् उज्जयिनी के शकों की शक्ति शनैः शनैः घटने लगी। मुद्रा-सम्बन्धी साक्ष्यों से हमें पता चलता है कि रुद्रदामन के बाद उसका पुत्र दामयसद (दामघसद) गद्दी पर बैठा। वह अपने पिता के समय में क्षत्रप के रूप में शासन-कार्यों में भाग ले चुका था।

महाक्षत्रप उपाधि वाली कुछ मुद्राओं पर उसका वृद्धावस्था का चित्र मिलता है जिससे स्पष्ट होता है कि वह इसी अवस्था में स्वतन्त्र राजा हुआ था और थोड़े समय तक राज्य किया। इसके बाद उसका पुत्र जीवदामन (१७८-१७९ ई०) महाक्षत्रप बना। तदुपरांत लगभग दो वर्षों तक महाक्षत्रप का पद रिक्त रहा। १८१ ई० में रुद्रसिंह प्रथम (दामघसद का भाई) महाक्षत्रप बना। उसने सात वर्षों तक (१८१-१८८ ई०) शासन किया। इसके पश्चात पुनः दो वर्षों तक महाक्षत्रप पद रिक्त रहा। रुद्रसिंह प्रथम १९१ ईस्वी में पुनः महाक्षत्रप बना तथा १९६ ई० तक राज्य करता रहा। इसके बाद जीवदामन पुनः राजा हुआ और १९७-१९९ ई० तक राज्य किया।

इस तरह हम देखते हैं कि महाक्षत्रप पद दो बार (१७९-८१ ई० तथा १८८-९० ई०) रिक्त रहा। इसका कारण आभीरों की शक्ति का प्रबल होना था। १८१ ई० के गुण्डा (गुजरात) के अभिलेख में आभीर सेनापति रुद्रभूति का उल्लेख हुआ है। इससे ऐसा लगता है आभीर सेनापति ने महाक्षत्रप का पद हथिया लिया था तथा रुद्रसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। परन्तु शीघ्र ही रुद्रसिंह पुनः शक्तिशाली हो गया तथा महाक्षत्रप का पद प्राप्त कर लिया। ७ वर्षों के बाद (१८८ ई०) उसे फिर पदच्युत होना पड़ा।

अल्टेकर तथा भंडारकर के अनुसार इस समय एक दूसरे आभीर सेनानायक ईश्वरदत्त का उदय हुआ तथा उसने महाक्षत्रप का पद प्राप्त किया। परन्तु रैप्सन इस मत से असहमत है और वे ईश्वरदत्त की तिथि २२३ से २३९ ई० तक बताते हैं। ऐसा लगता है कि इस समय सातवाहनों के प्रबल हो जाने के कारण शकों को पराभव उठाना पड़ा था। संभवतया सातवाहन नरेश यज्ञश्री शातकर्णि (१७४-२०३ ई०) ने इसी समय शकों को परास्त किया तथा रुद्रसिंह उसकी अधीनता में क्षत्रप हो गया।

यज्ञश्री की मृत्यु के बाद शकों ने पुनः अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली तथा रुद्रसिंह प्रथम महाक्षत्रप बना।

रुद्रसिंह प्रथम ने १९६ ई० तक शासन किया। इसके बाद जीवदामन पुनः महाक्षत्रप बना तथा लगभग १९९ ई० तक राज्य करता रहा। जीवदामन के बाद रुद्रसेन प्रथम (रुद्रसिंह प्रथम का पुत्र) महाक्षत्रप बना। उसने २०० ई० से २२२ ई० तक राज्य किया। सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसके बाद क्रमशः संघदामन् (२२२-२३ ई०) तथा दामसेन (२२२-२२३ ई०) महाक्षत्रप हुए। संघदामन अजमेर-उदयपुर के मालवों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया। इसी समय मालवों, ने शकों की अधीनता से अपने को मुक्त कर लिया। दामसेन के दो वर्षों बाद (२३८ ई०) उसका पुत्र यशोदामन् महाक्षत्रप बना। रैप्सन के अनुसार इन दो वर्षों के बीच आभीर ईश्वरदत्त ने महाक्षत्रप के रूप में राज्य किया। अल्टेकर के अनुसार मालवा में शक क्षत्रपों के सिक्के २५० ई० के बाद नहीं मिलते। उनके विचार में वाकाटक नरेश विन्ध्यशक्ति ने मालवा को शकों से छीन लिया।

इस तरह क्रमशः शक-सत्ता का शनैः शनैः ह्रास होने लगा। मुद्राओं से विश्वसेन, भतृदामन्, यशोदामन् द्वितीय, रुद्रदामन द्वितीय आदि कुछ शक राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं जिनके शासन काल से सम्बन्धित घटनाओं के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है।

पश्चिमी भारत का अन्तिम शक नरेश रुद्रसिंह तृतीय था। गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५-४१५ ई०) ने उसे परास्त कर पश्चिमी भारत से शक सत्ता को समूल उखाड़ फेंका।

सातवाहन राजवंश (The Satavahana Dynasty)

हिन्द-यवन या भारतीय-यूनानी या इंडो-बैक्ट्रियन(The Indo-Greeks or Indo-Bactrians)

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