महापाषाण संस्कृति
भूमिका नवपाषाण युग की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण में जिस संस्कृति का उदय हुआ, उसे वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण संस्कृति (Megalithic Culture) कहा जाता है। इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग करते थे। वृहत्पाषाण को अंग्रेजी में मेगालिथ (Megalith) कहा जाता...
Read Moreउत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड (Northern Black Polished Ware, NBPW)
भूमिका ये मिट्टी के पात्र ईसा पूर्व छठी शताब्दी अथवा बुद्ध काल के विशिष्ट मृद्भाण्ड हैं जिन्हें सामान्यतः उत्तरी कृष्ण मार्जित मृद्भाण्ड अथवा काली पॉलिश के बर्तन कहा जाता है। इन मृद्भाण्डों से द्वितीय नगरीकरण के प्रारम्भ की सूचना मिलती है। संक्षेप में इन्हें एन० बी० पी० डब्ल्यू० ( NBPW –...
Read Moreकृष्ण लोहित मृद्भाण्ड ( Black and Red Ware – BRW )
भूमिका कृष्ण लोहित मृद्भाण्ड के समय और स्थान दोनों में बहुत व्यापकता है। इसको काले और लाल मृदभाण्ड और नील-लोहित मृदभाण्ड ( अथर्ववेद ) भी कहा जाता है। इसको संक्षिप्त रूप से BRW ( Black & Red Ware ) कहा जाता है। काले और लाल मृदभाण्ड को सर्वप्रथम सर मार्टीमर व्हीलर...
Read Moreचित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW )
भूमिका चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware ) नाम से ही विदित है कि इस पात्र परम्परा के पात्र प्रधानतः धूसर अथवा स्लेटी रंग के हैं जिन पर काले रंग में चित्रण किया गया है। कहीं-कहीं काले अथवा चाकलेटी रंग के बर्तन भी मिलते हैं। इस पात्र परम्परा का सम्बन्ध...
Read Moreगैरिक मृद्भाण्ड ( Ochre Coloured Pottery – OCP )
भूमिका गैरिक मृद्भाण्ड एक विशेष प्रकार के मिट्टी के बर्तन हैं जो अधिकांशतः गंगा घाटी क्षेत्र से मिलते हैं। गैरिक मृदभाण्ड को गेरुवर्णी या गेरुए रंग के मृदभाण्ड भी कहते हैं। गैरिक मृद्भाण्डों को खोज सर्वप्रथम पुराविद बी० बी० लाल ने १९४९ ई० में बिसौली (बदायूँ) तथा राजपुरपरसू (बिजनौर) के पुरास्थलों...
Read Moreमृद्भाण्ड परम्परायें ( Pottery traditions )
भूमिका प्रारम्भ में मृद्भाण्डों के महत्त्व को नहीं समझा जाता था। उत्खनन के दौरान जो मृदभाण्डों के जो टुकड़े प्राप्त होते थे उन्हें महत्त्वहीन समझकर फेंक दिया जाता था। सर्वप्रथम फ्लिंडर्स पेट्री ( Flinders Petry ) नामक पुरातत्ववेता ने मिस्र में उत्खनन के दौरान प्राप्त मृद्भाण्डों के महत्त्व का आकलन करते...
Read Moreलौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ
भूमिका ताम्र तथा कांस्य के प्रयोग के पश्चात् मानव ने लौह धातु का ज्ञान प्राप्त कर इसका प्रयोग अस्त्र-शस्त्र एवं कृषि उपकरणों के निर्माण में किया। इसके फलस्वरूप मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उत्खनन के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी, पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी भागों के लगभग ७०० से भी अधिक...
Read Moreभारत में लोहे की प्राचीनता
भूमिका भारतीय सन्दर्भ में लोहे की प्राचीनता द्वितीय सहस्राब्दी तक ले जाया जा सकता है परंतु यह आम प्रयोग में १००० ई०पू० के आसपास से प्रारम्भ माना जाता है। भारतीय उप-महाद्वीप में लोहे के प्रयोग के स्वतंत्र प्रयोग के कई क्षेत्र हैं; जैसे गंगा घाटी, पश्चिमोत्तर, मध्य व दक्षिण भारत। मानव...
Read Moreगैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति ( Ochre Coloured Pottery Culture )
भूमिका हड़प्पा की परिपक्व सभ्यता के उत्तरकाल में, गंगा के मैदान के ऊपरी भागों में एक ऐसी संस्कृति फल-फूल रही थी, जो अपने चमकीले लाल लेप वाले और काले रंग से चित्रित मृद्भांडों के लिए पहचानी जाती है। इसको गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति या गेरुवर्णी मृद्भाण्ड संस्कृति ( Ochre Coloured Pottery Culture...
Read Moreताम्र संचय संस्कृति
खोज ताम्र संचय संस्कृति ( Copper Hoards Culture ) की जानकारी तब मिली जब १८२२ ई० में बिठूर ( कानपुर ) से ताँबे के काँटेदार बरछे ( Copper Harpoon ) मिले। अब तक लगभग एक हजार ताँबे की वस्तुएँ भारत के विभिन्न भागों में लगभग ९० पुरास्थलों से प्राप्त की जा...
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