कुषाणों का योगदान (Contribution of the Kushanas)

भूमिका मौर्यों के बाद कुषाणों ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। कई अर्थों में यह साम्राज्य  अपने पूर्ववर्ती मौर्य साम्राज्य से भिन्न था। इस साम्राज्य में एक साथ मध्य एशिया व उत्तरी भारत सम्मिलित था। इसके पूर्व में चीन और पश्चिम में  सासानियन और रोमन साम्राज्य स्थित था। लगभग दो शताब्दियों के दीर्धकालीन शासन […]

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कुषाण-शासनतंत्र (The Kushan Polity)

भूमिका कुषाण-शासनतंत्र मौर्यकालीन व्यवस्था से भिन्न थी। इसमें मौर्ययुगीन केंद्रीकरण की कठोर प्रवृत्ति के स्थान पर सत्ता का विकेंद्रीकरण ही स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कुषाणों की प्रशासनिक व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करने के लिये हमारे पास पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं है, फिरभी अभिलेखीय साक्ष्यों और सिक्कों के आधार पर प्रशासनिक व्यवस्था की कुछ

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कुषाण राजवंश (The Kushan Dynasty) या कुषाण साम्राज्य (The Kushan Empire)

भूमिका मौर्योत्तर काल में पश्चिमोत्तर से विदेशी आक्रमणकारियों का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ उसमें जो क्रम है वह इस प्रकार है – हिन्द-यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाण। इस तरह इतिहास के इस काल में सबसे पहले हिन्द-यूनानी और और सबसे बाद में कुषाण। कुषाण जाति को यूची (Yuechis) और तोखानियन (Tocharians) कहा जाता है। इतिहास

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पह्लव या पार्थियन (The Pahalavas or the Parthians)

भूमिका पह्लवों तथा शकों का इतिहास परस्पर उलझा हुआ है। इन दोनों के इतिहास को स्पष्ट रूप से पृथक करना एक दुष्कर कार्य है। पह्लव मूल रूप से पार्थिया (ईरान) के निवासी थे। पार्थिया, बल्ख (बैक्ट्रिया) के पश्चिम की ओर कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित सेल्युकसी साम्राज्य का सीमावर्ती प्रान्त था। तृतीय शताब्दी ईसा

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शक या सीथियन (The Shakas or the Scythians)

भूमिका मौर्योत्तर काल में यवनों के बाद पश्चिमोत्तर भारत से दूसरे आक्रमणकारी शक थे। शकों ने यवनों से अधिक विस्तृत भारतीय भूभाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। शकों (Shaka) को सीथियन (Scythian) भी कहते हैं। इतिहास के साधन शकों के प्रारम्भिक इतिहास की जानकारी के लिये हमें मुख्यरूप से ‘चीनी-स्रोतों’ पर निर्भर रहना पड़ता है।

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यवन प्रभाव या यवन सम्पर्क का भारत पर प्रभाव

भूमिका जब दो भिन्न संस्कृति व सभ्यता परस्पर सम्पर्क में आती हैं तो वे परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा प्रभावित होती भी हैं और करती थी हैं। यह प्रक्रिया मानव इतिहास में अनवरत चलती रहती है। इस दृष्टि से भारतीयों पर यवन प्रभाव का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। हेलेनिस्टिक सभ्यता हेलेनिस्टिक सभ्यता क्या है? (What is Hellenistic Civilisation?)

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हिन्द-यवन या भारतीय-यूनानी या इंडो-बैक्ट्रियन(The Indo-Greeks or Indo-Bactrians)

भूमिका मौर्योत्तर काल में पश्चिमोत्तर में विदेशी आक्रमण का जो दौर प्रारम्भ हुआ उसमें सबसे पहले आक्रमणकारी युनानी थे। इन युनानी आक्रमणकारियों को इतिहास में विभिन्न नामों से जाना जाता है; यथा — यूनानी, यवन, हिन्द-यवन, भारतीय-यूनानी, हिन्द-यूनानी, इंडो-ग्रीक (Indo-Greeks), बैक्ट्रियन-ग्रीक (Bactrian-Greeks), इंडो-बैक्ट्रियन (Indo-Bactrians) इत्यादि। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकेटर को परास्त करके भारत

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कलिंग नरेश खारवेल या कलिंग का चेदि राजवंश

भूमिका मौर्य सम्राट अशोक ने भीषण युद्ध के पश्चात् कलिंग को जीतकर (२६१ ई०पू०) अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। सम्राट अशोक के देहावसान के बाद मौर्य साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। इस विघटन क्रम में पश्चिमोत्तर भारत, दक्षिण भारत व कलिंग मौर्य साम्राज्य से अलग होने वाले प्रारम्भिक क्षेत्र थे। मौर्य साम्राज्य

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सातवाहनयुगीन संस्कृति

भूमिका लगभग तीन शताब्दियों तक दक्षिणापथ की राजनीति में सातवाहन राजवंश की सत्ता किसी न किसी रूप में बनी रही। उनके शासनकाल में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से दक्षिणी भारत की महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। यह प्रगति जहाँ एक ओर निरंतरता की संवाहक थी वहीं कुछ परिवर्तन ऐसे हए जो परवर्ती काल में समाज

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सातवाहनकालीन भौतिक संस्कृति के तत्त्व

भूमिका सातवाहन काल में दकन की भौतिक संस्कृति में स्थानीय और उत्तर भारतीय तत्त्वों दोनों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। लोहे का प्रयोग दकन के महापाषाण संस्कृति के निर्माता लोहे का प्रयोग और कृषि कार्य दोनों से भलीभाँति परिचित थे। यद्यपि लगभग २०० ई०पू० के पहले हम लौह निर्मित कुछ फावड़े मिलते हैं, तथापि,

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