सूत्र काल

भूमिका

उत्तर-वैदिक काल के अन्त तक वैदिक साहित्य अत्यन्त व्यापक एवं जटिल हो चुका था। अतः एक व्यक्ति के लिये सम्पूर्ण वैदिक साहित्य को कण्ठस्थ करना दुष्कर होता जा रहा था। इसलिये वैदिक साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये उसे संक्षिप्त करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु सूत्र साहित्य का प्रणयन किया गया। इसमें अधिक सामग्री को कम शब्दों में पिरो दिया गया जिससे वैदिक साहित्य को कण्ठस्थ करना सरल हो गया। दूसरे शब्दों में में वैदिक साहित्य को ‘सूत्र रूप’ ( ब्राह्मी लिपि ) में संकलित किया गया इसलिये इसको ‘सूत्र साहित्य’ और जिस काल में यह रचना हुई उसे ‘सूत्र काल’ की संज्ञा दी गयी है। सूत्र साहित्य में मुख्यतः ‘वेदांग’ और ‘उपवेद’ सम्मिलित हैं। सूत्रकाल का समय मोटेतौर पर ६०० ई०पू० से ३०० ई०पू० तक निर्धारित किया जाता है।

सूत्र साहित्य

सूत्र साहित्य का उद्देश्य वैदिक साहित्य का संरक्षण, उनकी व्याख्या तथा उसे व्यावहारिक प्रयोग के लिये उपयोगी बनाना था। सबसे महत्वपूर्ण सूत्र-ग्रन्थ भाषा सम्बन्धी हैं। ये शिक्षा, शब्द, निरुक्ति तथा व्याकरण आदि विषयों का विवरण प्रस्तुत करते हैं।

इस प्रकार के ग्रन्थों में यास्क कृत निरुक्त तथा महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रमुख है। यास्क का निरुक्त क्लासिकल संस्कृत गद्य का सर्वप्राचीन ग्रन्थ है, जबकि अष्टाध्यायी वेदोत्तर संस्कृत साहित्य की सबसे प्रारम्भिक रचना है।

प्रमुख सूत्रकारों में गौतम, बौद्धायन, आपस्तम्भ, वशिष्ठ आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

वेदांग

सर्वप्रथम वैदिक साहित्य का विभाजन छ: अंगों में किया गया। इन्हें वेदांग कहा जाता है। ये छः वेदांग हैं –

(१) शिक्षा : उच्चारण शास्त्र

(२) कल्प : कर्मकाण्डीय विधि

(३) निरुक्त : शब्दों की व्युत्पत्ति का शास्त्र

(४) व्याकरण

(५) छन्द

(६) ज्योतिष।

पाणिनि कृति ‘अष्टाध्यायी’ में इन छः वेदांगों की तुलना शरीर के विभिन्न अंगों से की गयी है :-

वेदांग तुलनीय अंग
शिक्षा नासिका
कल्प हाथ
निरुक्त श्रौत ( कान )
व्याकरण मुख
छन्द पैर
ज्योतिष नेत्र

शिक्षा

शिक्षा वैदिक साहित्यों के ‘शुद्ध उच्चारण’ से सम्बन्धित है, इसलिये इसको ‘उच्चारण शास्त्र’ भी कहते हैं। वैदिक स्वरों के शुद्ध उच्चारण के लिये इसकी रचना की गयी। इसका अध्ययन ‘स्वन विज्ञान’ कहलाता है। वामज्ज कृत गाएलम इसका प्रचीनतम् ग्रंथ है।

कल्प

कल्प का सम्बन्ध वैदिक ‘कर्मकाण्डों’ से है। इसमें वैदिक कर्मकाण्डों का विवरण मिलता है। कल्प साहित्यों को ‘कल्प सूत्र’ कहा जाता है। कल्प सूत्रों तीन भागों में बाँटा गया है –

  • श्रौत सूत्र
  • गृह सूत्र
  • धर्म सूत्र

श्रौत सूत्र : इसमें यज्ञादिक विधि-विधानों से विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है। इसी का भाग  ‘शुल्व सूत्र’ है। शुल्व सूत्र में वेदियों के निर्माण का उल्लेख है। इसी से ‘रेखागणित’ की उत्पत्ति मानी जाती है।

गृह सूत्र : ये गृह्य-कर्मकाण्डों और यज्ञों से सम्बन्धित है जिसका अनुष्ठान गृहस्थ के लिये आवश्यक है। इसमें आश्रम व्यवस्था, संस्कार, पुरुषार्थ इत्यादि का विवरण मिलता है। ‘आश्वलायन गृहसूत्र’ अत्यन्त प्रसिद्ध है। महाभारत का उल्लेख सर्वप्रथम अश्वलायन गृहसूत्र में मिलता है।

धर्म सूत्र : इसमें राजनीतिक, सामाजिक ( विधि व व्यवहार ) और आर्थिक विषयों से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। धर्म सूत्रों में ही ‘जाति व्यवस्था’ का सर्वप्रथम जानकारी प्राप्त होती है। ‘आपस्तम्ब धर्मसूत्र’; ‘गौतम धर्मसूत्र’; ‘वशिष्ठ धर्मसूत्र’ इत्यादि प्रसिद्ध धर्मसूत्र हैं। ‘गौतम धर्मसूत्र’ सबसे प्राचीन धर्मसूत्र है। ‘वसिष्ठ धर्मसूत्र’ में महिलाओं के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है कि – ‘बाल्यावस्था में पिता के अधीन, यौवनावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन होती है।’

व्याकरण

व्याकरण वह विद्या है जिसके अन्तर्गत बोलचाल और साहित्य में प्रयुक्त भाषा के स्वरूप, उसके गठन, अवयवों और प्रकारों, उनके पारस्परिक सम्बन्धों और रचनाविधान एवं रूप परिवर्तन का विवेचन किया जाता है। अर्थात् व्याकरण भाषा को मानक स्वरूप प्रदान करता है। पाणिनि कृत ‘अष्टाध्यायी’ व्याकरण सम्बन्धित प्राचीनतम् रचना है। इसकी रचना ई०पू० चौथी शताब्दी में हुई थी। इसके बाद में कात्यायन कृत ‘वार्त्तिक’ प्रसिद्ध व्याकरण रचना है। शुंगकाल में महर्षि पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ लिखा। पाणिन, कात्यायन और पतंजलि को मुनित्रय या मुनित्रयी कहा जाता है।

निरुक्त

निरुक्त का सम्बन्ध शब्दों की व्युत्पत्ति से है, इसलिये इसको ‘शब्द शास्त्र’ या ‘व्युत्पत्ति शास्त्र’ भी कहते हैं। इसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति बतायी गयी है। निरुक्त के प्रथम आचार्य ‘कश्यप ऋषि’ थे। कश्यप ऋषि ने ‘निघण्टु’ नामक पुस्तक की रचना की थी परन्तु वर्तमान में यह अनुपलब्ध है। यास्क कृत ‘निरुक्त’ क्लासिकल संस्कृति की प्राचीनतम् रचना मानी जाती है और इसका रचनाकाल लगभग ५०० ई०पू० बताया गया है।

छन्द

पद्यों को चरणों में सूत्रबद्ध करने के लिये छन्दों की रचना की गयी। इसको ‘फिटसूत्र’ और ‘चतुष्पदी वृत्त’ कहा जाता है। पिंगल कृत ‘छन्दशास्त्र’ इसका प्रचीनतम् ग्रन्थ है।

ज्योतिष

आकाशी पिण्डों अर्थात् तारों और नक्षत्रों देखकर भविष्य बताने की कला ज्योतिष का विषय है। इससे सम्बन्धित प्राचीनतम् ग्रंथ है — लगथ मुनि कृति ‘वेदांग ज्योतिष’। ज्योतिष से सम्बन्धित अन्य रचनाएँ हैं – गार्गी संहिता, वृहद् संहिता, ब्रह्म सिद्धान्त, नारद संहिता इत्यादि।

उपवेद

उपवेदों की रचना भी सूत्रकाल में हुई। उपवेद वेदों से ही सम्बन्धित हैं। प्रत्येक वेद से सम्बन्धित कोई न कोई उपवेद है। उपवेदों की संख्या चार है जिनके विवरण इस प्रकार हैं –

उपवेद विवरण
आयुर्वेद ऋग्वेद से सम्बन्धित।

इसमें चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान आता है।

उपनिषदों में ‘श्वेतकेतु’ नामक आयुर्वेदाचार्य का नाम आता है।

परवर्ती काल में जीवक, चरक, सुश्रुत, धन्वन्तरि जैसे प्रमुख आयुर्वेदाचार्य हुए।

धनुर्वेद यजुर्वेद से सम्बन्धित।

यह युद्धकला से सम्बन्धित ग्रथ है।

गंधर्ववेद सामवेद से सम्बन्धित।

यह संगीत कला से सम्बन्धित है।

शिल्पवेद अथर्ववेद से सम्बन्धित।

इसमें शिल्प कला सम्बन्धित ज्ञान मिलता है।

सूत्रकालीन सभ्यता

सामान्यतः सातवीं या छठी शताब्दी ई० पू० से लेकर तीसरी शताब्दी ई० पू० तक का समय सूत्र काल कहा जा सकता है।*

  • V. Kane — History of Dharmasastra Vol. 1, p. 11 *

सूत्रों में गौतम धर्मसूत्र सबसे प्राचीन माना गया है। श्रौत सूत्रों के विषय नितान्त कर्मकाण्डीय होने के कारण ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं है। गृह्य और धर्म सूत्रों का गृहस्थ और सामाजिक जीवन से सम्बन्ध होने के कारण अधिक ऐतिहासिक महत्त्व है। इन दोनों में अनेक बातें समान है। अन्तर केवल यही है कि जहाँ गृह्यसूत्र गृहस्थ जीवन के नियमों का विस्तार से वर्णन करते है वहाँ धर्मसूत्र में ये नियम संक्षेप में दिये गये है तथा धर्म पर विशेष बल दिया है। प्रो० हापकिन्स कृत कै० हि० ऑफ इण्डिया भाग -१ में सूत्रों को विधि-साहित्य के विकास का प्रथम चरण बताया है।*

  • They may be regarded as the first step in the evolution of legal literature. *

‘गृह्य’ सूत्रों का विषय ‘धर्म’ सूत्रों की अपेक्षा सीमित है क्योंकि इसमें केवल व्यक्ति के गृहस्थ जीवन और कर्मकाण्डों से सम्बन्धित वर्णन मिलता है। परन्तु व्यक्ति के परिवार, कौटुम्बिक जीवन और परिवार से सम्बन्धित सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों का जितना विशद वर्णन इनमें मिलता है वह विश्व के किसी भी अन्य साहित्य में प्राप्त होना दुर्लभ है। मनुष्य के गृहस्थ जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सम्पूर्ण कर्तव्यों तथा कर्मों का निर्देश गृह्य सूत्रों में प्राप्त होता है।

सूत्रकालीन साहित्य में वर्णित संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों; यथा — सामाजिक, आर्थिक  राजनीतिक दशा का संक्षेप में विवरण निम्नलिखित है :

सामाजिक जीवन

उत्तर वैदिक काल के समान इस समय के समाज में ‘संयुक्त परिवार’ की प्रथा थी। सबसे वरिष्ठ विवाहित सदस्य परिवार का मुखिया होता था। पारिवारिक सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण हुआ करते थे। कन्याओं की अपेक्षा पुत्र का महत्त्व अधिक था। गृह्य सूत्र में पिता के पुत्रों तथा परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का वर्णन मिलता है। इस बात पर बल दिया गया है कि वह सभी सदस्यों के खा लेने के पश्चात् ही स्वयं भोजन ग्रहण करे। पिता के सम्मानजनक स्थिति का विवरण भी धर्म सूत्रों में मिलता है।

ब्राह्मणों की सामाजिक प्रतिष्ठा में अत्यधिक वृद्धि हो गयी। उन्हें विविध प्रकार के करों तथा दण्डों से मुक्त घोषित किया गया। प्रशासन में पुरोहित का प्रभाव बहुत बढ़ गया तथा उसे राजा से भी ऊपर बताया गया। गौतम के अनुसार राजा अन्य सभी वर्गों का शासक होता है किन्तु वह ब्राह्मण वर्ग का शासक नहीं है। आपस्तम्ब ने दस वर्ष के ब्राह्मण को सौ वर्ष के क्षत्रिय से श्रेष्ठतर बताया है। ब्राह्मण का मुख्य कार्य अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ-याजन तथा प्रतिग्रह था। किन्तु विषम परिस्थितियों में वह अन्य वर्णों की वृत्ति को भी अपना सकता था।

राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग का प्रमुख कर्तव्य युद्ध तथा शासन करना था। दोनों वर्णों के बीच सामंजस्य बनाये रखने के लिये सूत्रकारों ने यह घोषित किया कि राजा तथा पुरोहित दोनों मिलकर ही संसार में धर्म की रक्षा करते हैं।

समाज में तीसरा स्थान वैश्यों का था जो मुख्यत कृषि, पशुपालन, वाणिज्य के द्वारा अपना निर्वाह करते थे। उनकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति धीरे-धीरे शूद्रों के निकट आती जा रही थी।

शूद्रों को समाज का अत्यन्त निकृष्ट तथा अधिकारविहीन वर्ग माना गया। उन्हें अध्ययन, यज्ञ, मन्त्रोच्चारण आदि का अधिकार नहीं था। वशिष्ठ उन्हें ‘श्मशान के समान अपवित्र’ बताते हैं। उनका एकमात्र कार्य दूसरों की सेवा द्वारा अपना निर्वाह करना था। उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था तथा वे जो कुछ सम्पत्ति कमाते भी थे वह अन्य वर्णों के उपयोग के लिये थी।

ऋग्वेद के १०वें मण्डल के पुरुष सूक्त में जिस वर्ण-व्यवस्था के दैवीय सिद्धान्त का विवरण मिलता है वह उत्तर वैदिक काल में पूर्णतया स्थापित हो गयी और सूत्रकाल तक आते-आते वर्ण जातियों में बदल गये। वैदिक कालीन कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था अब ‘जन्म आधारित’ जाति व्यवस्था के रूप कठोर हो चली थी। ‘धर्मसूत्रों’ में हमें सर्वप्रथम जाति-व्यवस्था का विवरण मिलता है। दूसरे शब्दों में सूत्रकालीन समाज जन्माधारित चार जातियों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में विभाजित था। ऊपर की तीन जातियों का उपनयन संस्कार होता था जबकि शुद्र का उपनयन संस्कार बंद कर दिया गया। शुद्रों का एकमात्र कार्य ऊपर की जातियों की सेवा करना बताया गया।

जिनका उपनयन संस्कार होता था उन्हें द्विज कहा गया। ‘द्विज’ का शाब्दिक अर्थ होता है — ‘दूसरी बार जन्म लेना।’ ऐसा माना जाता है कि जन्म से सभी शुद्र होते हैं परन्तु उपनयन संस्कार के बाद वे द्विज हो जाते हैं।

सूत्र काल तक आते-आते वर्णों का पारस्परिक विभेद काफी बढ़ गया। प्रथम तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को एक साथ मिलाकर ‘द्विज’ कहा गया और इन्हें शूद्रों से अलग माना जाने लगा।

समाज में अस्पृश्यता का उदय हुआ। चाण्डाल अस्पृश्य माने जाने लगे जो नगर के बाहर निवास करते थे। पाणिनि कृत ‘अष्टाध्यायी’ में हमें सर्वप्रथम अस्पृश्य जाति चाण्डाल उल्लेख प्राप्त होता है। चाण्डाल जाति की उत्पत्ति प्रतिलोम विवाह से बतायी गयी है जिसमें ब्राह्मण कन्या और शुद्र पुरुष की सन्तान थे। वर्ण कठोर होकर जाति में बदल गये जिनका आधार कर्म न होकर जन्म माना गया। अन्तवर्ण विवाह एवं खान-पान पर स्पष्ट रूप से प्रतिबन्ध लगा दिया गया। विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों का अलग-अलग स्पष्टत निर्देश किया गया।

उपर्युक्त चार वर्णों के अतिरिक्त समाज में अन्य अनेक जातियों; यथा — अम्बष्ठ, उग्र, निषाद, मागध, वैदेहक, रथकार आदि का अविर्भाव अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों के फलस्वरूप हो गया।

पाणिनि ने दो प्रकार के शूद्रों का उल्लेख किया है —

  • निरवसित – नगर के बाहर रहने वाले।
  • अनिरवसित – नगर की सीमा में रहने वाले।

इनमें पहले प्रकार के शूद्र अर्थात् निरवसित शूद्र ही अस्पृश्य माने जाते थे।

१२वीं शताब्दी में हमें शुद्रों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं – एक, सत् और दूसरी असत्।

वर्ण-व्यवस्था के साथ-साथ व्यक्ति के जीवन को नियमित करने के उद्देश्य से ‘आश्रम व्यवस्था’ का विधान किया गया। आश्रम चार थे — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के आदर्शों में समन्वय स्थापित करना भी था। एक मनुष्य की आयु १०० वर्ष मानी गयी तथा २५-२५ वर्ष की आयु प्रत्येक आश्रम के लिये निर्धारित की गयी। आश्रमों के नियमपूर्वक पालन पर बल दिया गया।

गृहस्थ आश्रम में अनेक संस्कारों* का भी विधान किया गया। गृह्यसूत्रों में इनका विवरण मिलता है। संस्कार व्यक्ति की शुद्धि के लिये आवश्यक समझे जाते थे। संस्कारों की संख्या के विषय में सूत्रकारों में मतभेद है। गौतम ने इनकी संख्या ४० बतायी है। संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु तक किये जाते थे। इसमें से १६ स्वीकृत संस्कार थे – गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोन्यन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, चूड़ाकर्म, कर्णवेधन, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह और अन्त्येष्टि।

गृहस्थ आश्रम में मनुष्य के लिये ५ महायज्ञों के अनुष्ठान का विधान किया गया। ये ‘पंचमहायज्ञ’ निम्न हैं —

  • ब्रह्मयज्ञ : प्राचीन ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना
  • देवयज्ञ : देवताओं का सम्मान
  • भूतयज्ञ : सभी प्राणियों के कल्याणार्थ
  • पितृयज्ञ : पितरों के तर्पण हेतु
  • मनुष्य यज्ञ : मानव मात्र के कल्याणार्थ

चारों आश्रमों का विधान केवल द्विजों के लिये ही था। शूदों तथा स्त्रियों के लिये गृहस्थ आश्रम बताया गया है।

सूत्रकाल में महिलाओं की दशा वैदिक काल की अपेक्षा हीन थी तथापि परिवार में उन्हें सम्मानित स्थान प्राप्त था। विवाह के आठ प्रकारों — ब्रह्म, दैव, आर्य, प्रजापत्य, गान्धर्व, आसुर, राक्षस तथा पैशाच का उल्लेख आश्वलायन गृह्यसूत्र के साथ-साथ अनेक धर्मसूत्रों में भी मिलता है।

‘गोभिल गृह्यसूत्र’ में पत्नी को ही घर बताया गया है। बहुविवाह का प्रचलन था। सुती-प्रथा का प्रचलन नहीं था। विधवा का अपने पति की सम्पत्ति पर अधिकार माना गया। विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था। ‘वशिष्ठ धर्मसूत्र’ कुछ परिस्थितियों में स्त्री के पुनर्विवाह का विधान करता है। इसमें स्त्रियों को स्वतंत्रता का विरोध इन शब्दों में मिलता है — ‘स्त्री स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। बाल्यकाल में पिता उसकी रक्षा करता है, यौवन में पति रक्षा करता है तथा वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं।’

पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।

रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्वातन्त्र्यमर्हति॥*

वशिष्ठ सूत्र।

जहाँ वैदिक काल की अपेक्षा सूत्रकारों का नारी के प्रति दृष्टिकोण कठोर था तो परवर्ती स्मृतिकारों की अपेक्षा अधिक उदार था। अधिकतर सूत्रकार तलाक प्रथा का विरोध करते हैं। वशिष्ठ किसी भी परिस्थिति में पत्नी त्याग की अनुमति नहीं देते तथा आपस्तम्ब ने इसके अपराध में पति के लिये कठोर दण्ड का विधान करते हैं। कन्या को यह भी अधिकार दिया गया है कि यौवनावस्था प्राप्त करने पर यदि उसका पिता विवाह नहीं करता तो तीन माह प्रतीक्षा करने के पश्चात् वह अपना स्वयं विवाह कर सकती है।

आर्थिक जीवन

सूत्रकाल में अधिकतर लोग गाँवों में निवास करते थे। कृषि और पशुपालन द्वारा वे जीवन-यापन करते थे। सूत्रों में खेती के प्रत्येक स्तर से सम्बन्धित संस्कारों का उल्लेख है। बीज बोते समय, काटते समय, लवनी करते समय तथा अन्न को बोरे में रखते समय अनेक विधि-नियमों के पालन का विधान किया गया है। चावल तथा जौ मुख्य फसलें थीं। पशुओं को अमूल्य सम्पत्ति समझा जाता था।

गृह्यसूत्रों में पशुओं की वृद्धि तथा उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिये अनेक प्रार्थनायें मिलती है। गायों को पवित्र मानने की धारणा तेजी से विकसित होती जा रही थी। वैश्य लोग व्यापार-वाणिज्य करते थे। गृह्यसूत्रों में ‘पण्य सिद्धि’ नामक संस्कार का उल्लेख है जो व्यापार में लाभ पाने के लिये किया जाता था। यही वह समय था जब सिक्कों का प्रचलन हो गया था।

पाणिनि कृत ‘अष्टाध्यायी’ में पाण, कार्षापण, पाद तथा वाह नामक सिक्कों का उल्लेख मिलता है।

आधक, आचित, पात्र, द्रोण और प्रस्थ ‘भार मापक’ के पैमाने थे। ताँबा, लोहा, पत्थर, मिट्टी आदि के बर्तन और उपकरण बनाये जाते थे।

कताई-बुनाई अधिक प्रचलित उद्योग था। वस्त्रों को रंगने का काम भी होता था। शारीरिक श्रम को अत्यन्त श्रद्धेय माना जाता था। दो पहिये वाला रथ सर्वाधिक लोकप्रिय परिवहन का साधन था। बैलों तथा घोड़ों से भार ढोने का काम लिया जाता था। घोड़े, गधे, ऊँट, हाथी आदि वाहन के रूप में भी प्रयोग में लाये जाते थे।

राजनीतिक दशा

धर्मसूत्रों में केवल राजतन्त्र का ही उल्लेख पाया जाता है क्योंकि वे इसी व्यवस्था के पक्षपाती है। वे राज्य को एक ‘धार्मिक संस्था’ के रूप में देखते हैं जिसमें राजा एवं प्रजा दोनों दैवी इच्छानुसार अपना-अपना कार्य करते हैं।

धर्म-सूत्रों में राजा को निरंकुशता पर रोक लगायी गयी है। उनका कथन है कि अत्याचारी राजा इहलोक तथा परलोक दोनों में दण्ड पाता है। इसलिये राजा का कर्तव्य है कि वह जातियों तथा वर्गों की न्यायपूर्वक रक्षा करें। सूत्र काल में धर्म ही राजा की निरंकुशता को विनियामक था। सभा अथवा समिति जैसी कोई संस्था नहीं थी।

राजा कानूनों का निर्माता नहीं, वरन् उनका पालक था। वह प्रजा से अपनी सेवाओं के बदले में कर लेता था जो उसकी वृत्ति होती थी। बौद्धायन के अनुसार कर प्रजा की आय का छठाँ भाग (१/६ भाग) होना चाहिए। वशिष्ठ के अनुसार राजा अपनी प्रजा से वैधानिक करों के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का धन ग्रहण कर सकने का अधिकारी नहीं है। कर को राजा की ‘वृत्ति’ बताया गया है।

सम्राट ब्राह्मण पुरोहितों की सलाह पर कार्य करता था। प्रशासन में ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान था। गौतम के अनुसार राजा तथा वेदज्ञ ब्राह्मण ये दोनों संसार की नैतिक व्यवस्था के विनियामक है। यह भी कहा गया है कि राजा सभी का स्वामी होता है किन्तु ब्राह्मण का नहीं। पुरोहितों के अतिरिक्त प्रसिद्ध ब्राह्मणों की एक परिषद भी होती थी जो धार्मिक, राजनैतिक एवं न्याय सम्बन्धी मामलों में राजा को सलाह देती थी।

राजपद आनुवंशिक होते थे। राजा शुद्ध एवं पवित्र चरित्र वाले प्रथम तीन वर्ण या जाति के व्यक्तियों में से अधिकारियों के एक संघ की नियुक्ति करता था। ये अधिकारी अपने अधीन अधिकारियों और कर्मचारियों की नियुक्ति करते थे जिनका मुख्य काम नगरों तथा ग्राम की चोरों से रक्षा करना था।

गौतम तथा आपस्तम्ब ने यह व्यवस्था दी कि यदि किसी व्यक्ति के चोरी गये माल का पता नहीं लगा पाये तो राज्य का यह कर्तव्य है कि वह उसकी क्षतिपूर्ति करे।

शासन का एक प्रमुख विभाग कर संग्रह करने के लिये होता था। गौतम धर्मसूत्र में करों की एक लम्बी सूची मिलती है। कृषि द्वारा उत्पादित वस्तुओं, व्यापार वाणिज्य की वस्तुओं, आयात-निर्यात की वस्तुओं, पशुओं, फलों, दवाओं आदि सभी पर कर लगते थे। शिल्पियों तथा श्रमिकों को, जो कर नहीं दे सकते थे माह में एक दिन राज्य के लिये विष्टि (बेगार) करना पड़ता था। गौतम के अनुसार विष्टि के बदले वे राज्य से भोजन पाने के अधिकारी थे। विद्वान ब्राह्मण, अनाथ स्त्रियों, विद्यार्थी, संन्यासी, वृद्ध आदि राजकीय करों से मुक्त थे।

युद्धों में सम्राट स्वयं सेना का नेतृत्व करता था। ग्राम शासन को प्रारम्भिक इकाई थी। ग्रामिणी गाँव का मुखिया होता था। ग्रामिणी युद्ध के समय सैनिक और शान्ति के समय नागरिक कर्तव्यों का निर्वाह करता था।

यह स्पष्ट नहीं है कि वह राजा द्वारा नियुक्त पदाधिकारी था अथवा ग्रामीण जनता द्वारा निर्वाचित किया जाता था। उसकी सहायता के लिये अन्य कर्मचारी होते थे। ‘स्थपति’ नामक एक अन्य पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है। यह कार्यपालिका एवं न्यास सम्बन्धी मामलों का अध्यक्ष होता था।

सूत्रों के काल में विकसित न्याय प्रणाली देखने को मिलता है। वेद, स्मृति, विद्वानों के आचरण विधि के स्रोत माने गये हैं। न्याय करते समय विविध जातियों एवं कुलों की प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था।

राजा ही मुख्य न्यायाधीश होता था। अपराधियों को उचित दण्ड देना उसका पवित्र कर्तव्य था। राजा न्याय के लिये अन्य पदाधिकारियों को भी नियुक्त करता था। गूढ़ मामले परिषद् को सौंपे जाते थे। सूत्रकार कठोर दण्ड के समर्थक हैं। परन्तु सूत्रकालीन न्याय-व्यवस्था वर्ग-भेद या वर्ण-भेद पर आधारित थी। एक ही अपराध में शूद के लिये कठोर जबकि द्विज के लिये साधारण दण्ड का विधान किये गये थे।

1 thought on “सूत्र काल”

  1. प्राचीन भारत सूत्रकालीन सभ्यता और संस्कृति के विषय में बहुत अच्छी जानकारी दी है। धन्यवाद

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