कुषाण राजवंश (The Kushan Dynasty) या कुषाण साम्राज्य (The Kushan Empire)

भूमिका

मौर्योत्तर काल में पश्चिमोत्तर से विदेशी आक्रमणकारियों का जो सिलसिला प्रारम्भ हुआ उसमें जो क्रम है वह इस प्रकार है – हिन्द-यूनानी, शक, पार्थियन और कुषाण। इस तरह इतिहास के इस काल में सबसे पहले हिन्द-यूनानी और और सबसे बाद में कुषाण। कुषाण जाति को यूची (Yuechis) और तोखानियन (Tocharians) कहा जाता है।

इतिहास के साधन

साहित्य

कुषाण राजवंश के प्रारम्भिक इतिहास के ज्ञान के लिये हमें मुख्य रूप से चीनी स्रोतों पर निर्भर करना पड़ता है। ये चीनी स्रोत हैं :

  • ‘पान-कु’ (Pan-Ku) कृत ‘सिएन-हान-शू’ [(Tsien-Han-Shu) (Annals of the First Han Dynasty)] : यह प्रथम हनवंश के इतिहास को बताता है।
  • फान-ए (Fan-ye) कृत ‘हाऊ- हान-शू’ [(Hou-Han- Shu) (Annals of the Second Han Dynasty)] : परवर्ती हनवंश के इतिहास का स्रोत है।

‘सिएन-हान-शू’ से ‘यू-ची’ जाति के हूण, शक तथा पार्थियन राजाओं के साथ संघर्ष का विवरण मिलता है और साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि यू-ची जाति पाँच कबीलों में विभक्त थी।

‘हाऊ-हान-शू’ से २५ ईस्वी से लेकर १२५ ईस्वी तक यू-ची जाति का इतिहास ज्ञात होता है। इससे ज्ञात होता है कि यू-ची कबीला कुई-शुआँग (कुषाण) सर्वाधिक शक्तिशाली था। कुई-शुआँग (कुषाण) कबीले के सरदार ‘कुजुल कडफिसेस’ ने अन्य कबीलों को जीतकर एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण किया था।

कनिष्क तथा उनके उत्तराधिकारियों का इतिहास हमें मुख्य रूप से तिब्बती बौद्ध स्रोतों, संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों के चीनी अनुवाद तथा चीनी यात्रियों — फाहियान तथा हुएनसांग — के विवरण से ज्ञात करते हैं।

तिब्बती स्रोतों से ज्ञात होता है कि कनिष्क खोतान के राजा ‘विजयकीर्ति’ का समकालीन था तथा उसी की सहायता से उसने साकेत को विजित किया था।

संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों — श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र, संयुक्तरत्नपिटक तथा कल्पनामण्डिटीका — के चीनी भाषा में हुए अनुवाद से हम कनिष्क की पूर्वी तथा उत्तरी भारतीय विजयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

कुषाण : स्रोत

पुरातत्त्विक स्रोत

इसके तहत अभिलेख, सिक्के व उत्खनित पुरातात्त्विक स्थलों का उल्लेख किया जा सकता है।

अभिलेख

इसमें प्रमुख अभिलेख हैं :

सिक्के

कुषाण शासकों में ‘विम कडफिसेस’ ने ही सर्वप्रथम भारत में स्वर्ण सिक्के प्रचलित करवाये थे।

उत्तर प्रदेश, बिहार तथा बंगाल के विभिन्न स्थानों से कनिष्क तथा उसके वंशजों के सिक्के प्राप्त हुये हैं।

अभिलेखों तथा सिक्कों के प्रसार से जहाँ एक ओर उनका साम्राज्य विस्तार सूचित होता है वहीं दूसरी ओर राज्य की आर्थिक समृद्धि तथा धर्म के विषय में भी जानकारी मिलती है।

पुरातात्त्विक स्थल

तक्षशिला (पाकिस्तान) तथा बेग्राम (अफगानिस्तान) से किये गये उत्खननों से भी कुषाण इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये उपयोगी सामग्रियाँ मिलती हैं।

तक्षशिला का उत्खनन १९१५ ई० में जॉन मार्शल द्वारा करवायी गयी थी। यहाँ से कुषाणकालीन सिक्के तथा स्मारक मिलते हैं। इन्हीं के आधार पर यह निश्चित करने में सहायता मिली कि कनिष्क कुल ने कडफिसेस कुल के बाद शासन किया था।

बेग्राम में पहले हाकिन (Hackin) तथा फिर घिर्शमन द्वारा उत्खनन करवाये गये। यहाँ से कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के सिक्के प्राप्त हुये हैं। इनके आधार पर कनिष्क कुल के इतिहास से सम्बन्धित कुछ तथ्य ज्ञात होते हैं।

उत्पत्ति तथा प्रसार

कुषाणों की उत्पत्ति तथा उनकी राष्ट्रीयता का प्रश्न इतिहासकारों के मध्य विवाद का विषय है।

उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रमुख मत इस तरह हैं :

  • कुछ विद्वान् ‘कुषाण’ शब्द को कुल अथवा वंश का सूचक मानते हैं।
  • कुछ विद्वानों का विचार है कि कुषाण नामक व्यक्ति इस वंश का संस्थापक अथवा आदि पुरुष था तथा उसी के नाम पर उसके वंशजों को कुषाण कहा गया।
  • चीनी स्रोतों में कुषाण शब्द को प्रादेशिक संज्ञा माना गया है।

इसी प्रकार कुषाणों की राष्ट्रीयता का प्रश्न भी विद्वानों के मध्य विवाद का विषय है। विभिन्न विद्वान् उन्हें तुर्कों, शकों, मंगोलों, हूणों आदि के साथ सम्बन्धित करते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी कह सकने की स्थिति में नहीं है।

कुषाण ‘यू-ची’ (Yuch-chi) जाति की एक शाखा थे। ‘यू-ची’ जाति प्रारम्भ में चीन के सीमावर्ती प्रदेशों ‘कानसू’ तथा ‘निंग-सिया’ — में निवास करते थे। दूसरे शब्दों में यूची जाति के लोग मध्य-एशिया के उत्तर में हरित प्रदेश (Steppes) मैदानों में चीन के पश्चिमोत्तर में निवास करते थे।

१६५ ईसा पूर्व के आसपास ‘हुंग-नु’ (हूण) नामक एक अन्य पड़ोसी जाति द्वारा उनपर (यूची जाति) पर आक्रमण किया गया। इस संघर्ष में यूची जाति पराजित हुई और उनका राजा मारा गया। पराजित किये जाने पर वे अपना मूल निवास स्थान छोड़कर विस्थापित होने को बाध्य हुये और इस विस्थापन का नेतृत्व स्वयं विधवा महारानी ने किया।

अपने मूल निवास स्थान से दक्षिण-पश्चिम की ओर जाते हुए इन्होंने ‘इली नदी घाटी’ में निवास करने वाली ‘वु-सुन’ (Wu-sun) नामक एक अन्य जाति पर आक्रमण कर उन्हें परास्त किया तथा उसके राजा की हत्या कर दी। पराजित ‘वु-सुन’ जाति ने उत्तर की ओर भाग कर हुंग-नु (हूण) राज्य में शरण लिया।

तदुपरांत यू-ची लोग और आगे पश्चिम की ओर बढ़े। वे दो शाखाओं में बँट गये —

  • छोटी शाखा / छोटी यू-ची (Little Yue-tchi/ Yuechi) – यह दक्षिण की ओर गयी और तिब्बत की सीमा में बस गयी।
  • मुख्य शाखा – यह दक्षिण-पश्चिम में आगे बढ़ती हुई सीर-दरया घाटी में रहने वाली शक जाति से जा टकरायी। उसने वहाँ से शकों को विस्थापित कर दिया और वहाँ रहने लगी।

परन्तु सीर-दरया में यू-ची लोग अधिक दिन तक नहीं रह सके। ‘वु-सुन’ जाति, जिसके राजा की यू-ची जाति ने इली घाटी में हत्या की थी, ने हुंग-नु की सहायता से मृत राजा के पुत्र के नेतृत्व में यू-ची जाति पर सीर-दरया घाटी में आक्रमण किया। इस बार यू-ची परास्त हुए तथा उन्हें सीर-दरया घाटी से विस्थापित कर दिया। यहाँ से वे सुदूर पश्चिम की ओर बढ़ते हुए ‘ताहिया’ (बैक्ट्रिया) पहुँचे। ताहिया के निवासियों को उन्होंने बड़ी आसानी से परास्त कर अपने अधीन कर लिया। यू-ची ने यहाँ अपना राज्य स्थापित किया तथा आक्सस नदी (आमू दरया) के उत्तर में आधुनिक बोखारा (प्राचीन सोग्डियाना) में अपनी राजधानी बसायी। १२५ ई०पू० के लगभग चांगकियेन (Chang-Kien) नामक चीनी राजदूत ने इसी स्थान में स्थित यू-ची राज्य की राजधानी की यात्रा की थी।

चीनी इतिहासकार पान-कू (Pan-Ku) कृत ‘सिएन-हान-शू’ (जिसने २४ ईसा पूर्व तक का प्रथम हनवंश का इतिहास मिलता है) से ज्ञात होता है कि अब यू-ची लोग खानाबदोश न रहे और उनका साम्राज्य पाँच प्रदेशों या शाखाओं में विभक्त हो चुका था (Age of Imperial Unity, p. 137) :

  • एक; हिऊमी : यह सम्भवतया पामीर के पठार तथा हिन्दूकुश के बीच बसा हुआ वाकहान (Wakhan) प्रदेश था।
  • दो; शु-आँग-मी : वाकहान तथा हिन्दूकुश के दक्षिण में स्थित चित्राल प्रदेश था।
  • तीन; कुई-शुआंग (कुषाण) : यह चित्राल तथा पंजषिर के बीच बसा हुआ था।
  • चार; हि-तुन (हित-हुन) : यह पंजषिर में स्थित परवान (Parwan) था।
  • पाँच; काओ-फु : इससे तात्पर्य काबुल घाटी के प्रदेश से है।

फान-ए कृत ‘हाऊ-हान-शू’ से हमें परवर्ती हनवंश का इतिहास पता चलता है इसके अनुसार विभाजन के १०० वर्षों के बाद कुई-शुआंग के सरदार (याबगू) क्यु-त्सियु-क्यो (K’ieou-tsiou-K’io) ने अन्य चारों राज्यों को विजित कर उन्हें एक शक्तिशाली राजतन्त्र के अन्तर्गत संगठित कर दिया तथा स्वयं राजा (बांग) बन बैठा।

क्यु-त्सियु-क्यो का समीकरण कुजुल (कुसुलक) से किया जाता है जो कडफिसेस प्रथम की एक उपाधि थी। अतः कुषाण शाखा का यह राजा कुजुल कडफिसेस अथवा कडफिसेस प्रथम ही था। इस शाखा के राजाओं ने भारतीय राजनीति में मह्त्त्वपूर्ण निभायी।

कुषाणों का प्रारम्भिक इतिहास

भारत में कुषाणों के दो राजवंशों ने शासन किया :

  • एक — कडफिसेस (Kadphises) वंश और
  • दूसरा — कनिष्क (Kanishka) वंश।

कडफिसेस राजवंश में दो शासक हुए — कडफिसेस प्रथम और विम कडफिसेस। इस राजवंश ने कुल २८ वर्ष (५०-७८ ई०) तक शासन किया।

कुषाण राजवंश का संस्थापक कनिष्क था। कनिष्क के बाद इस राजवंश में कई शासक हुए; यथा — वाशिष्क, हुविष्क, कनिष्क द्वितीय और वासुदेव। वासुदेव इस राजवंश का अंतिम नरेश था जिसने ९८ ई० तक शासन किया।

कुषाण राजवंश

विशेष : वासुदेव के बाद कुषाणों का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो जाता है। मुद्राओं पर कुछ कुषाण राजाओं के नाम मिलते हैं जिनको इतिहास में “परवर्ती कुषाण” (Later Kushanas) कहा गया है। इसके शासकों के नाम हैं — कनिष्क तृतीय और वासुदेव द्वितीय। वासुदेव द्वितीय ने २३० ई० तक शासन किया।

कडफिसेस राजवंश

कुजुल कडफिसेस

‘कुजुल कडफिसेस’ (Kujula Kadphises) इतिहास में ‘कडफिसेस प्रथम’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। उसकी विजयों के विषय में ‘फान-ए कृत’ ‘हाऊ-हान-शू’ (Hou-Han-Shu) तथा उसके सिक्कों से सूचना मिलती है। ज्ञात होता है कि कुजुल कडफिसेस ने पार्थियनों पर आक्रमण कर किपिन तथा काबुल पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार वह भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश का शासक बन बैठा। कुजुल के दो प्रकार के सिक्के मिलते हैं :

  • प्रथम प्रकार के सिक्कों के मुखभाग पर काबुल के अन्तिम हिन्द-यवन शासक हर्मियस का नाम यूनानी लिपि में तथा पृष्ठभाग पर कुजुल का नाम खरोष्ठी लिपि में खुदा हुआ है। इन पर उसकी कोई राजकीय उपाधि नहीं है।
  • दूसरे प्रकार के सिक्कों पर उसकी राजकीय उपाधियाँ; यथा — ‘महाराजस महतस् कुषण-कुयुल कफस’ (महाराज महान् कुयुल कफ कुषाण का) उत्कीर्ण हैं।

इस आधार पर इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रारम्भ में कुजुल कडफिसेस हिन्द-यवन नरेश हर्मियस के अधीन शासक था। परन्तु कालान्तर में वह स्वतन्त्र हो गया।

हर्मियस के पश्चात् काबुल क्षेत्र में पह्लवों की सत्ता कायम हुई। इससे ऐसा लगता है कि पह्लवों को परास्त करके ही कुजुल कडफिसेस ने काबुल तथा कान्धार पर अधिकार कर किया था।

इस तरह कुजुल कडफिसेस के समय में कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत सम्पूर्ण अफगानिस्तान तथा गन्धार के प्रदेश सम्मिलित हो गये थे। पार्थिया तथा काबुल की विजय से पश्चिमी विश्व के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गया। कुजुल ने केवल ताँबे के सिक्के ही प्रचलित करवाये। उसके सिक्कों पर ‘धर्मथिदस’ तथा ‘धर्मथित’ (धर्म में स्थित) अंकित है। इस आधार पर कुछ विद्वानों ने मत व्यक्त किया है कि उसने ‘बौद्ध धर्म’ ग्रहण कर लिया था। साधारणतः कुजुल कडफिसेस का शासन काल १५ ईस्वी से ६५ ईस्वी के मध्य माना जाता है। उसकी मृत्यु ८० वर्ष की दीर्घायु में हुई थी।

विम कडफिसेस

कुजुल कडफिसेस की मृत्यु के पश्चात् ‘विम कडफिसेस’ (Wima Kadphises) राजा हुआ। इतिहास में वह ‘कडफिसेस द्वितीय’ के नाम से भी जाना जाता है। चीनी ग्रन्थ ‘फान-ए’ कृत ‘हाऊ-हान-शू’ से ज्ञात होता है कि उसने ‘तिएन-चू’ की विजय की तथा वहाँ अपने एक सेनापति को शासन करने के लिये नियुक्त किया। ‘तिएन-चू’ का समीकरण सिन्धु द्वारा सिंचित पंजाब क्षेत्र से स्थापित किया गया है। इस तरह कहा जा सकता है कि सर्वप्रथम विम कडफिसेस के समय में ही भारत में कुषाण सत्ता स्थापित हुई थी।

विम कडफिसेस ने ‘स्वर्ण’ और ‘ताँबे’ के सिक्के ढलवाये थे। इन सिक्कों पर यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों में लेख मिलते है। सिक्कों का विस्तार पश्चिम में आक्सस-काबुल घाटी से लेकर पूर्व मे सम्पूर्ण सिन्ध क्षेत्र तक है। कुछ सिक्के भींटा, कौशाम्बी, बक्सर तथा बसाढ़ (बिहार) से मिले हैं। सिक्कों के पृष्ठभाग पर खरोष्ठी लिपि में ‘महाराजस राजाधिराजस सर्वलोगइश्वरस महिश्वरस विम कडफिसेस त्रतरस’ (महाराज राजाधिराज सर्वलोकेश्वर महेश्वर विम कडफिसेस त्राता का) अंकित मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि वह एक शक्तिशाली राजा था। उसके सिक्कों पर शिव, नन्दी तथा त्रिशूल की आकृतियाँ मिलती हैं। इससे उसका “शैव” मतानुयायी होना भी सूचित होता है। उसने ‘महेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। उसके विशुद्ध स्वर्ण सिक्कों से साम्राज्य की समृद्धि एवं सम्पन्नता सूचित होती है।

प्लिनी के विवरण से पता चलता है कि उसके समय में भारत तथा रोम के व्यापारिक सम्बन्ध अत्यन्त विकसित थे। चीन के साथ भी उसका व्यापारिक सम्बन्ध था।

मथुरा के पास माट नामक स्थान से सिंहासन पर विराजमान एक विशाल प्रतिमा प्राप्त हुई है जिस पर ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कुषानपुत्र षाहि वेम तक्षम’ लेख खुदा हुआ है। काशी प्रसाद जायसवाल इस लेख के वेम की पहचान विम कडफिसेस से ही करते हैं। यदि यह समीकरण स्वीकार कर लिया जाय तो यह कहा जा सकता है कि उसके समय में कुषाण साम्राज्य मथुरा तक फैल चुका था। विम कडफिसेस ने सम्भवतः ६५ ईस्वी से ७८ ईस्वी तक शासन किया।

सोटर मेगस (?)

पंजाब, कन्धार तथा कम्बुल घाटी क्षेत्र से अनेक ऐसे सिक्के मिले हैं जिनसे ‘सोटर मेगस’ (Soter Megas) की उपाधि वाले किसी अज्ञातनामा शासक के अस्तित्व की सूचना देते हैं। इस शासक की पहचान अनिश्चित है। कुछ विद्वान् इस शासक की पहचान विम कडफिसेस से ही करते हैं। अधिक सम्भावना यह है कि वह विम कडफिसेस का राज्यपाल था जो तक्षशिला में शासन करता है। विम कडफिसेस की मृत्यु के उपरान्त वह कुछ समय के लिये स्वतन्त्र हो गया तथा इसी बीच उसने अपने नाम के सिक्के चलवा दिये होंगे। कनिष्क के उदय के साथ उसकी स्वतन्त्रता का अन्त हो गया।

कनिष्क राजवंश

कनिष्क प्रथम : कुषाण-शक्ति का चरमोत्कर्ष

कनिष्क का प्रारम्भिक जीवन

विम कडफिसेस के पश्चात् कुषाण शासन की बागडोर कनिष्क राजवंश के हाथों में आयी। कनिष्क निश्चित रूप से भारत के कुषाण राजाओं में सबसे महान् है। उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका नाम प्रभामण्डल से युक्त है। कनिष्क के लगभग १२ अभिलेख तथा बहुसंख्यक स्वर्ण एवं ताम्र मुद्रायें प्राप्त होती हैं। बौद्ध साहित्य, अभिलेख तथा सिक्कों के आधार पर हम कनिष्क के इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।

कनिष्क की उत्पत्ति, वंश तथा प्रारम्भिक जीवन अन्धकारपूर्ण है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि पूर्ववर्ती कडफिसेस राजाओं से कनिष्क का कोई सम्बन्ध था अथवा नहीं। स्टेनकोनो जैसे कुछ विद्वानों का मत है कि कनिष्क यू-ची की छोटी शाखा से सम्बन्धित था तथा भारत में खोतान से आया था। परन्तु चीनी ग्रन्थों में कनिष्क के वंशज वासुदेव को ‘ता-यू-ची’ (बड़ी यू-ची) का शासक बताया गया है।

इस तरह कनिष्क की उत्पत्ति तथा वंश-परम्परा पूर्णतया अनुमानपरक ही है। हाल ही में उत्तरी अफगानिस्तान के रवाता (Rawata) नामक स्थल से कनिष्क का एक लेख मिला है जिसमें उसकी वंशावली दी गयी है। लेख में कनिष्क की उपाधि ‘देवपुत्र’ मिलती है तथा इसमें उसे विम कडफिसेस का पुत्र कहा गया है।’ उसे साकेत, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र आदि का विजेता बताया गया है। कनिष्क द्वारा सम्वत् प्रवर्तन का भी उल्लेख मिलता है। यदि इस लेख को प्रामाणिक माना जाय तो कनिष्क की वंशावली सम्बन्धित विवाद समाप्त हो जायेगा।

राज्यारोहण की तिथि

दुर्भाग्यवश हमें किसी भी साक्ष्य से कनिष्क के राज्यारोहण की निश्चित तिथि का ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। इसलिये कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि का निर्धारण भारतीय इतिहास के सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्नों में से एक रहा है। इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख विचार इस प्रकार हैं :

एक; फ्लीट तथा कनेडी के अनुसार कनिष्क दोनों कडफिसेस राजाओं का पूर्ववर्ती है। वह ५८ ईसा पूर्व में सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने अपने राज्यारोहण पर जिस सम्वत् की स्थापना की कालान्तर में वह विक्रम सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मत के समर्थनकर्ता विद्वानों में प्रमुख हैं : कनिंघम, डॉउसन, फ्रैंक इत्यादि। कनेडी महोदय का तो यहाँ तक कहना है कि ५८ ई०पू० में ही चौथी बौद्ध संगीति हुई और इसी उपलक्ष में कनिष्क ने विक्रम सम्वत् की शुरुआत की।

परन्तु उपर्युक्त मत का खंडन पुरातत्त्व व साहित्यिक दोनों ही स्रोतों से हो जाता है।

  • पुरातत्त्व : मार्शल द्वारा तक्षशिला के उत्खनन में प्राप्त हुए पुरातत्त्विक प्रमाणों के प्रकाश में खण्डित हो जाता है। तक्षशिला के उत्खनन में ऊपरी सतह से कनिष्क-परिवार की तथा निचली सतह से कडफिसेस-परिवार की मुद्रायें मिली हैं जिससे कनिष्क परिवार कडफिसेस परिवार से परवर्ती सिद्ध होता है।  मुद्रा-शास्त्री एलन महोदय का एक तर्क है कि – “कनिष्क के स्वर्ण सिक्के रोमन सम्राटों के सिक्कों से प्रभावित हैं। अतः कनिष्क की तिथि रोमन सम्राट टाइटस (७८-८१ ई०) और ट्रोजन (९८-११७ ई०) के पहले की नहीं हो सकती है।”
  • साहित्य : पुनश्च कनिष्क के लेख, मुद्राओं तथा हुएनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि कनिष्क का गन्धार प्रदेश (किपिन) पर अधिकार था। परन्तु चीनी साक्ष्यों द्वारा प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के द्वितीय चरण में गन्धार प्रदेश पर ‘इन-मो-फू’ (Yin-mo-Fu) का अधिकार प्रमाणित होता है। चीनी ग्रन्थ कडफिसेस प्रथम को ही कुषाण शाखा का पहला राजा बताते हैं।

दो; रमेशचन्द्र मजूमदार के अनुसार कनिष्क २४८ ईस्वी में सिंहासन पर बैठा था और उसने त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् का प्रवर्तन किया। आर० जी० भंडारकर कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि २७८ ईस्वी में रखते हैं।

  • परन्तु कनिष्क को इतना बाद में ले जाने के लिये पर्याप्त आधार नहीं है। कुषाण लेखों से ज्ञात होता है कि कनिष्क काल के ९८वें वर्ष में वासुदेव मथुरा पर शासन कर रहा था। यदि इस तिथि को त्रैकुटक-कलचुरि-चेदि सम्वत् की तिथि माना जाय तो इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि ३४६ (९८+२४८) ईस्वी में वासुदेव मथुरा का शासक था। परन्तु गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि मथुरा इस तिथि के पूर्व ही गुप्तों के अधिकार में आ चुका था। पुराणों के विवरण से ज्ञात होता है कि गुप्तों के पूर्व यहाँ नागवंश का शासन था। तिब्बती अनुश्रुतियों में कनिष्क को खोतान नरेश विजयकीर्ति का समकालीन बताया गया है। विजयकीर्ति का समय द्वितीय शताब्दी ईस्वी के पहले का है। इन प्रमाणों के प्रकाश में हम कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि २४८ या २७८ ईस्वी नहीं मान सकते हैं।

तीन; मार्शल, स्टेनकोनों तथा स्मिथ आदि कुछ विद्वान् कनिष्क के सिंहासन पर आसीन होने की तिथि १२५ ईस्वी बताते हैं। इसी प्रकार घिर्शमन् नामक विद्वान् ने कनिष्क की तिथि १४४ ईस्वी बतायी है। यह मत पूर्वी अफगानिस्तान के बेग्राम नामक स्थान के उत्खनन से प्राप्त हुए कुषाण अवशेषों पर आधारित है। यहाँ से वासुदेव नामक राजा के सिक्के मिलते हैं जिसकी पहचान वासुदेव प्रथम से की गयी है। घिर्शमन् के अनुसार यह नगर ससानी नरेश शापुर प्रथम द्वारा २४० ईस्वी से २५० ईस्वी के बीच किसी समय विनष्ट कर दिया गया। इसके साथ ही कुषाण साम्राज्य का अन्त हुआ। वासुदेव की तिथि ७४ से ९८ तक मिलती है। इस प्रकार कनिष्क द्वारा प्रवर्तित सम्वत् की तिथि १४४ ईस्वी के लगभग निकलती है। बैजनाथ पुरी ने इस तिथि का समर्थन किया है।

  • परन्तु कनिष्क को द्वितीय शताब्दी ईस्वी के मध्य में रखने में विरुद्ध कुछ ठोस आपत्तियाँ हैं जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। शक क्षत्रप रुद्रदामन् (१३०-१५० ईस्वी) के जूनागढ़ अभिलेख से सिन्धु-सौवीर पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। वह महाक्षत्रप था जो किसी अन्य शासक की अधीनता स्वीकार नहीं कर सकता था। साथ ही सुई विहार (सिन्धु-क्षेत्र) से प्राप्त कनिष्क का अभिलेख निचली सिन्धु घाटी पर उसका अधिकार सिद्ध करता है। यदि हम कनिष्क को १२५ अथवा १४४ ईस्वी में शासन करते हुए मानें तो वह रुद्रदामन् का समकालीन सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में दोनों का सिन्ध क्षेत्र पर एक साथ आधिपत्य कैसे सम्भव हो सकता है? जो विद्वान् कनिष्क की तिथि १४४ ईस्वी में निर्धारित करते हैं उनका मत है कि कनिष्क ने सुई विहार को रुद्रदामन् की मृत्यु के बाद (१५० ईस्वी के बाद) जीता होगा। सुई बिहार का लेख उसके राज्यकाल के ११वें वर्ष का है। यदि उसके राज्यारोहण की तिथि १४४ ईस्वी मानी जाय तो तदनुसार सुई बिहार पर उसका अधिकार १४४+११ = १५५ ईस्वी में हुआ था। परन्तु यदि हम रुद्रदामन् के उत्तराधिकारियों के इतिहास पर विचार करें तो यह मत तर्कसंगत नहीं प्रतीत होगा। रुद्रदामन् के बाद दामघसद तथा फिर जीवदामन् प्रथम ने शासन किया। सिक्कों से स्पष्ट है कि वे दोनों रुद्रदामन् के समान ‘महाक्षत्रप’ थे। जीवदामन् ने १८० ईस्वी के लगभग तक स्वतन्त्र शासक के रूप में राज्य किया। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि सुई विहार अथवा रुद्रदामन् द्वारा विजित कोई अन्य प्रदेश इस समय तक शकों के अधिकार से बाहर चला गया हो। ऐसी स्थिति में यह स्वीकार कर सकना कठिन है कि कनिष्क ने सुई बिहार क्षेत्र की विजय रुद्रदामन् के उत्तराधिकारियों को हरा कर की होगी। इसके विपरीत इस बात की संभावना अधिक है कि रुद्रदामन् ने ही कुषाणों से सिन्ध-सौवीर का राज्य छीना होगा। वर्ष ६१ से ६६ तक का कनिष्क कुल का कोई लेख नहीं मिलता है। इससे ऐसा लगता है कि यह कुषाण सत्ता के ह्रास का काल रहा और इसी बीच रुद्रदामन् ने उत्तर भारत की विजय की होगी। परन्तु कनिष्क को दूसरी शती (१३०-१४४) में रखने की स्थिति में यह निष्कर्ष सम्भव नहीं होगा।
  • दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कनिष्क के अभिलेखों में दी गयी तिथियों के क्रम से यह ज्ञात होता है कि वे किसी सम्वत् की तिथियाँ हैं। कनिष्क तथा उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों में हमें तिथियों का एक क्रम प्राप्त होता — कनिष्क १-२३, वाशिष्क २४-२८, हुविष्क २८-६०, वासुदेव ६७-९८। दूसरे शब्दों में कनिष्क के अभिलेख उसे किसी सम्वत् के प्रवर्तन का श्रेय प्रदान करते हैं।
  • परन्तु हमें द्वितीय शताब्दी ईस्वी में प्रचलित होने वाले किसी भी सम्वत् का ज्ञान नहीं है। ऐसी स्थिति में कनिष्क को द्वितीय शताब्दी में रखने का मत निर्बल पड़ जाता है। धिर्शमन् ने जो बेग्राम के सिक्कों वाले वासुदेव की पहचान वासुदेव प्रथम से की है, वह तर्कसंगत नहीं लगती। वासुदेव प्रथम के लेखों से ज्ञात होता है कि उसका राज्य उत्तर प्रदेश में ही सीमित था तथा मथुरा उसका केन्द्र था। बेग्राम से वासुदेव के जो सिक्के मिलते हैं वे उत्तर प्रदेश में नहीं मिलते। यह दोनों वासुदेवों को भिन्न-भिन्न व्यक्ति सिद्ध करता है।
  • इस तथ्य का भी कोई विश्वसनीय आधार नहीं है कि बेग्राम नगर को शापुर प्रथम ने ही नष्ट किया हो। वासुदेव प्रथम कुषाण वंश का अन्तिम राजा रहा हो – यह भी मान्य नहीं है क्योंकि सिक्कों से उसके बाद शासन करने वाले कुछ राजाओं के नाम मिलते हैं; यथा — कनिष्क द्वितीय, वासुदेव द्वितीय आदि।
  • अतः शापुर प्रथम को वासुदेव प्रथम का समकालीन मानकर निकाला गया निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं है। पुनश्च यदि कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि १४४ ईस्वी मानी जाय तो तदनुसार उसका शासन १४४+२३ = १६७ ईस्वी में समाप्त होता है। ऐसी दशा में वह सातवाहन राजाओं — वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी तथा शिवश्री शातकर्णि का – समकालीन होता है। परन्तु हमें ज्ञात होता है कि इन दोनों शासकों का कार्दमक शकों के साथ युद्ध हुआ। यदि कनिष्क १६७ ईस्वी तक शासन करता तो उसका किसी सातवाहन शासक के साथ संघर्ष अवश्यमेव हुआ होता। परन्तु हम उसके लेखों अथवा सातवाहन लेखों में सातवाहन-कुषाण संघर्ष का कोई संकेत नहीं पाते।’ इस प्रमाण से भी यह सिद्ध हो जाता है कि कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि १४४ ईस्वी नहीं हो सकती।

चार; फर्ग्गुसन, ओल्डेनबर्ग, थामस, बनर्जी, रैप्सन, हेमचन्द्र रायचौधरी जैसे कुछ विद्वान् कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि ७८ ईस्वी बतायी हैं। इन विद्वानों के अनुसार कनिष्क ७८ ईस्वी से शक सम्वत् का प्रवर्तक था। चूँकि इस सम्वत् का प्रयोग पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों ने, जो पहले कनिष्क की अधीनता स्वीकार करते थे, अपने लेखों तथा सिक्कों में चतुर्थ शती से अन्त तक किया, अतः उनके साथ निरन्तर सम्बद्ध रहने के कारण इस सम्वत् को बाद में शक सम्वत् कहा जाने लगा। पहले इस सम्वत् का कोई नाम नहीं था तथा केवल संख्या में ही इसका उल्लेख होता था। कुषाण तथा क्षत्रप लेखों एवं सिक्कों में भी इसके लिये केवल संख्या का ही उल्लेख मिलता है। इस सम्वत् को पाँचवी शती के बाद से भारतीय लेखों में ‘शक-सम्वत्’ अथवा ‘शक-काल’ नाम प्रदान कर दिया गया। इस प्रकार मूलतः कनिष्क द्वारा प्रवर्तित सम्वत् ही शक-सम्वत् के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

जे० डूब्रील ने ७८ ईस्वी के मत के विरुद्ध दो मुख्य आपत्तियाँ प्रकट की हैं —

  • कडफिसेस प्रथम ५० ईस्वी में गद्दी पर बैठा। यदि कनिष्क ७८ ईस्वी में राजा बना तो दोनों कडफिसेस राजाओं के लिये मात्र २८ वर्ष का समय शेष रह जाता है। इतने अल्पकाल में दोनों कैसे शासन कर सकते थे।
  • तक्षशिला से प्राप्त चिरस्तूप लेख में १३६ की तिथि अंकित है जो सम्भवतया विक्रम सम्वत् की है। अतः इसका निर्माण ७८ ईस्वी (१३६-५८) में हुआ होगा। यह कडफिसेस द्वितीय के काल का है। इस प्रकार कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि ७८ ईस्वी में नहीं रखी जा सकती।

परन्तु जे० डूब्रील महोदय की उपर्युक्त दोनों आपत्तियाँ निर्बल हैं। इनका खण्डन हम इस तरह कर सकते हैं :

  • कडफिसेस प्रथम की तिथि ५० ईस्वी निश्चित नहीं है। यदि यह मान भी लिया जाय कि कडफिसेस ५० ईस्वी में गद्दी पर बैठा तो भी २८ वर्षों का काल दोनों के लिये कम नहीं है क्योंकि कडफिसेस प्रथम ने ८० वर्ष की दीर्घायु तक राज्य किया। उसका उत्तराधिकारी राजा होने के समय काफी प्रौढ़ रहा होगा। इस प्रकार २८ वर्षों की अवधि दोनों के लिये पर्याप्त थी।
  • तक्षशिला चिरस्तूप लेख में कुषाण शासक को ‘देवपुत्र’ कहा गया है। यह उपाधि कडफिसेस परिवार के शासकों की न होकर कनिष्क परिवार के शासकों की है। अतः यह लेख कडफिसेस द्वितीय के काल का नहीं लगता।

इस प्रकार ७८ ईस्वी के विरुद्ध जो आपत्तियाँ उठायी गयी हैं वे सबल नहीं हैं। अतः विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच ७८ ईस्वी में ही कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि रखना अधिक तर्कसंगत लगता है, वैसे इसे भी अन्तिम रूप से नहीं माना जा सकता है।

इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि ए० एच० दानी ने पेशावर के शैखान-ढेरी (Shaikhan Dheri) नामक स्थान के उत्खनन से प्राप्त कुषाणकालीन अवशेषों के आधार पर जो रेडियों कार्बन तिथियाँ (Radio-Carbon-Dates) निकाली है उनसे भी कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि द्वितीय शताब्दी की अपेक्षा प्रथम शताब्दी ईस्वी में ही निर्धारित होती है।

कनिष्क की तिथि की समस्या पर विचार करने के लिये १९१३ तथा १९६० ई० में लन्दन में दो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किये गये। द्वितीय सम्मेलन में आम सहमति ७८ ई० के पक्ष में ही बनी।

इसके समापन भाषण में ए० एल० बाशम ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि ७८ ई० में रखने के पक्ष में एक नया तर्क प्रस्तुत किया। इसके अनुसार कनिष्क की तिथि ७८ ई० न मानने की स्थिति में यह बता सकना कठिन होगा कि गन्धार तथा पंजाब में किस सम्वत् का प्रचलन था। हमें सम्पूर्ण उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत में, जो दीर्घकाल तक शक-कुषाणों की अधीनता में थे, शक सम्वत् के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। मात्र उपरोक्त दो प्रदेशों में ही इसका प्रचलन नहीं मिलता। किन्तु यदि कनिष्क के लेखों की तिथि को शक सम्वत् से समीकृत कर दिया जाय तो हमें पंजाब और गन्धार में सम्वत् का अभाव नहीं दिखायी देगा।

युद्ध तथा विजयें

कनिष्क एक महान् विजेता था जिसने कडफिसेस साम्राज्य को बहुत अधिक विस्तृत किया। कनिष्क के युद्ध तथा विजयों का विवरण अधोलिखित है –

पूर्वी भारत की विजय

वाराणसी के पास सारनाथ से कनिष्क के शासन के तीसरे वर्ष का अभिलेख मिला है। बिहार तथा उत्तर बंगाल से उसके शासन काल के बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त हुए हैं। ‘श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र’ के चीनी अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे हराया और हर्जाने के रूप में एक बहुत बड़ी रकम की माँग की। परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष लेखक, भगवान बुद्ध का भिक्षा-पात्र तथा एक अद्भुत मुर्गा पाकर ही संतुष्ट हो गया।

स्पूनर ने पाटलिपुत्र के उत्खनन के दौरान कुछ कुषाण सिक्के प्राप्त किये थे। सिक्कों का एक ढेर बक्सर (भोजपुर जिला) से मिला है। वैशाली तथा कुम्राहार से भी कुषाण सिक्के मिलते हैं। बोधगया से हुविष्क के समय का मृण्मूर्तिफलक (Terracotta Plaque) मिला है। ये सब बिहार पर कनिष्क के अधिकार की पुष्टि करते हैं।

बिहार से आगे बंगाल के कई स्थलों; यथा — तामलुक (ताम्रलिप्ति) तथा महास्थान से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं। दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा प्रान्त के मयूरभंज, शिशुपालगढ़, पुरी गंजाम आदि से कनिष्क के सिक्के मिलते हैं।

परन्तु मात्र सिक्कों के प्रसार से ही कनिष्क के साम्राज्य विस्तार का निष्कर्ष निकाल लेना युक्तिसंगत नहीं लगता। सिक्के व्यापारिक प्रसंग में भी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाये जाते थे। फिरभी पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार पर कनिष्क का अधिकार सुनिश्चित है। हाल ही में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ० के० के० सिनहा तथा बी० पी० सिंह के निर्देशन में बलिया जिले के खेराडीह नामक स्थल पर उत्खनन कराया गया है जिसके परिणामस्वरूप एक अत्यन्त समृद्धिशाली कुषाणकालीन बस्ती का पता चला है। घाघरा नदी के तट पर स्थित यह नगर एक प्रमुख व्यापारिक स्थल रहा होगा। इससे भी पूर्वी उत्तर प्रदेश पर कुषाणों का आधिपत्य प्रमाणित होता है और यह कनिष्क के काल में ही सम्भव हुआ होगा।

कौशाम्बी तथा श्रावस्ती से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाओं की चरण-चोटियों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में कनिष्क के शासन-काल का उल्लेख मिलता है। कौशाम्बी से कनिष्क की एक मुहर (Seal) भी मिली है। इन प्रमाणों से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने उपर्युक्त प्रदेशों की विजय की थी।

चीन के साथ युद्ध

चीनी तुर्किस्तान (मध्य एशिया) के प्रश्न पर कनिष्क तथा चीन के बीच युद्ध छिड़ गया। चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि ७३ ईस्वी से ९४ ईस्वी के बीच चीन का प्रसिद्ध सेनापति ‘पानचाऊ’ या ‘पान-चाओ’ (Pan-Chao) अपने हनवंशी राजा ‘हो-ती’ (Ho-Ti) के आदेश पर चीनी तुर्किस्तान की विजय के लिये निकला। ‘पानचाऊ’ ने खोतान, काशगर, कच्छ की विजय की तथा पामीर के उत्तर-पूर्व में चीनी आधिपत्य स्थापित किया।

८८ अथवा ९० ईस्वी में यू-ची नरेश (कनिष्क) ने ७०,००० अश्वारोहियों की एक विशाल सेना सुंग-लिन् पर्वत के पार चीनियों से युद्ध के लिये भेजी। चीनी इतिहासकार इस युद्ध का कारण यह बताते हैं कि कनिष्क ने चीनी सेनापति ‘पानचाऊ’ के पास अपना एक दूत भेजकर हन राजकुमारी से विवाह की माँग की थी। ‘पानचाऊ’ ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसपर रुष्ट होकर कनिष्क ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। परन्तु कनिष्क असफल रहा और पान-चाऊ ने उसकी सेना को परास्त करके नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। कनिष्क की इस असफलता का संकेत एक भारतीय अनुश्रुति में भी किया गया है जिसके अनुसार उसने यह घोषित किया था कि ‘मैने उत्तर को छोड़कर अन्य तीन क्षेत्रों को जीत लिया है।’

परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कनिष्क ने शीघ्र ही अपनी पराजय का प्रतिकार लिया। पान-चाओ की मृत्यु के बाद कनिष्क ने पुनः चीन पर आक्रमण करके काशगर, यारकंद व खोतान को अधिकृत कर लिया। कहा जाता है कि कनिष्क ने कुछ चीनियों को बंधक भी बना लिया जिसमें दो चीनी राजकुमार भी शामिल थे। इस सम्बन्ध में युवान च्वांग का कहना है कि “जाड़े में जहाँ राजकुमार रखे जाते थे वह स्थान ‘चीन-भुक्ति’ (China-Bhukti) के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन्हीं राजकुमारों ने भारत में सर्वप्रथम ‘नाशपाती’ और ‘आड़ू’ से लोगों को परिचित कराया। इन लोगों ने बौद्ध विहारों एवं चैत्यों के लिये दान भी दिये।”

हुएनसांग के अनुसार ‘गन्धार प्रदेश के राजा कनिष्क ने प्राचीन काल में सभी पड़ोसी राज्यों को जीत कर एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया। सुंग-लिन पर्वत के पूर्व में भी उसका अधिकार था।’ यहाँ सुंग-लिन के पूर्व के प्रदेश से तात्पर्य चीनी तुर्किस्तान से ही है जिसमें यारकन्द, खोतान तथा काशगर सम्मिलित थे। प्रो० बेली को खोतान से एक पाण्डुलिपि मिली है जिसमें बहलक (बैक्ट्रिया) के शासक ‘चन्द्र कनिष्क’ का उल्लेख हुआ है। इससे भी कनिष्क का खोतान पर अधिकार प्रमाणित होता है।

चीनी तुर्किस्तान के अतिरिक्त बैक्ट्रिया, ख्वारिज्म तथा बुखारा पर भी उसका अधिकार था। चीनी स्रोतों से विदित होता है कि पार्थिया के शासक ने कनिष्क के ऊपर आक्रमण किया परन्तु कनिष्क ने उसे पराजित कर दिया था।

पश्चिमोत्तर प्रदेशो की विजय

कनिष्क के शासन काल के ११वें वर्ष का अभिलेख सुई विहार से प्राप्त हुआ है। इससे यह प्रमाणित होता है कि अपने शासन के ११वें वर्ष में उसने निचली सिन्धु घाटी को विजित किया था। इसी वर्ष का एक लेख जेद्दा (उन्द-पेशावर) से मिला है। कपिशा में कनिष्क के अधिकार की पुष्टि हुएनसांग करता है। काबुल के वार्दाक से शक सम्वत् १५१ तिथि वाला हुविष्क का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जो अफगानिस्तान के ऊपर कुषाण सत्ता को प्रमाणित करता है। यह विजय भी कनिष्क के समय में ही की गयी होगी। कल्हण कृत राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि उसका कश्मीर पर अधिकार था। इसके अनुसार उसने यहाँ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया था।

मध्य भारत (मालवा)

साँची से कनिष्क सम्वत् २८ का एक अभिलेख मिला है। यह वाशिष्क का है तथा बौद्ध प्रतिमा पर अंकित है। वाशिष्क की किसी भी उपलब्धि का ज्ञान हमें नहीं है। उसका शासन केवल चार वर्षों का था। इसलिये यह कहा जा सकता है कि इस भूक्षेत्र को कनिष्क द्वारा ही विजित किया गया होगा। साँची लेख में ‘वासु’ नामक किसी राजा का उल्लेख मिलता है। यह सम्भवतया कनिष्क के समय में मालवा का उपराजा रहा होगा। इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण में कम से कम विध्यपर्वत तक कनिष्क का साम्राज्य विस्तृत था। साँची के एक अन्य लेख में ‘वास’ नामक किसी राजा का उल्लेख मिलता है। वह संभवतः कनिष्क के समय में मालवा का उपराजा था।

साम्राज्य तथा शासन

अपनी अनेक विजयों के द्वारा कनिष्क ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। कनिष्क के विभिन्न अभिलेखों तथा सिक्कों के आधार पर हम उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण कर सकते हैं। उसका साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार तक विस्तृत था।

कुषाण साम्राज्य

राजतरंगिणी से जहाँ कश्मीर पर उसका अधिकार सूचित होता है वहीं सुई-बिहार तथा साँची के लेख सिन्ध, मालवा, गुजरात, राजस्थान के कुछ भाग तथा उत्तरी महाराष्ट्र पर उसके अधिकार की पुष्टि करते हैं। इसी प्रकार कौशाम्बी, श्रावस्ती, सारनाथ आदि के लेख पूर्वी उत्तर प्रदेश पर उसके आधिपत्य की सूचना देते हैं। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य था। पुरुषपुर (पेशावर) इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

“उनका साम्राज्य अमुदरिया से गंगा तक, मध्य एशिया के खुरासान से उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक फैल गया। कुषाणों ने पूर्व सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया का अच्छा-खासा भाग, ईरान का हिस्सा, अफगानिस्तान का कुछ अंश, लगभग पूरा पाकिस्तान और लगभग समूचा उत्तर भारत-इन सारे भू-भागों को अपने शासन के साये में कर दिया। इससे नाना प्रकार के लोगों और संस्कृतियों के आपस में घुल-मिल जाने का विलक्षण अवसर मिला और इस सम्मिलन की प्रक्रिया ने एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जो आज के नौ देशों में फैली हुई है।”

“Their empire extended from the Oxus to the Ganges, from Khorasan in Central Asia to Pataliputra in Bihar. A substantial part of Central Asia now included in the Commonwealth of Independent States (in the former USSR), a portion of Iran, a portion of Afghanistan, almost the whole of Pakistan, and almost the whole of northern India were brought under one rule by the Kushans. Because of this, the Kushan empire in India is sometimes called a Central Asian empire. In any case, the empire created a unique opportunity for the interaction of peoples and cultures, and the process gave rise to a new type of culture which embraced nine modern countries.” — India’s Ancient Past; R. S. Sharma

कनिष्क का शासन

कनिष्क के शासन-प्रबन्ध के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है। वह एक शक्ति सम्पन्न सम्राट था। लेखों में उसे “महाराजराजाधिराजदेवपुत्र” कहा गया है। “देवपुत्र” की उपाधि से यह ज्ञात होता है कि वह अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था। यह उपाधि उसने चीनी सम्राटों के अनुकरण पर ग्रहण की होगी क्योंकि चीनी सम्राट भी स्वयं को “स्वर्गपुत्र” कहते थे।

टामस का मत है कि “देवपुत्र” कुषाणों की शासकीय उपाधि नहीं थी वरन् यह प्रजा द्वारा प्रदान की गयी थी। इसी कारण इस विरुद का अंकन हमें सिक्कों पर नहीं मिलता है। आर० एस० शर्मा के अनुसार इसके माध्यम से उन्होंने अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रयास किया।

रोमन शासकों के अनुकरण पर कुषाण राजाओं ने भी मृत शासकों की स्मृति में मन्दिर तथा मूर्तियाँ (देवकुल) बनवाने की प्रथा का प्रारम्भ किया था। “राजाधिराज” की उपाधि से सूचित होता है कि कुषाण सम्राट के अधीन कई छोटे-छोटे राजा शासन करते थे।

समुदगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कुषाण शासक देवपुत्र के अतिरिक्त ‘षाहि’ तथा ‘षाहानुषाहि’ की उपाधियाँ भी धारण करते थे। ‘षाहि’ सामन्त तथा ‘षाहानुषाहि’ स्वामी सूचक उपाधि है।

“दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि” — समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति

इस तरह प्रशासन में सामन्तीकरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ शक-कुषाण-सातवाहन काल (मौर्योत्तर काल) से ही होता दिखायी पड़ता है। कालान्तर में गुप्त सम्राटों ने इसी प्रकार की विशाल उपाधियाँ धारण कीं।

कनिष्क अपने विस्तृत साम्राज्य का निरंकुश शासक था। प्रशासन की सुविधा के लिये उसने साम्राज्य को अनेक क्षत्रपियों में विभाजित किया था। बड़ी क्षत्रपी के शासक को ‘महाक्षत्रप’ तथा छोटी क्षत्रपी के शासक को ‘क्षत्रप’ कहा जाता था। उसके अभिलेखों मे अनेक क्षत्रपों के नाम मिलते हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह अपने साम्राज्य का शासन क्षत्रपों की सहायता से करता था।

सारनाथ के लेख में महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप बनस्पर का उल्लेख मिलता है। खरपल्लान मथुरा में महाक्षत्रप था तथा बनस्पर वाराणसी में क्षत्रप की हैसियत से शासन करता था। पश्चिमोत्तर में लल्ल तथा लाइक उसके क्षत्रप थे।

पश्चिमोत्तर भाग में कपिशा तथा तक्षशिला उसके शासन के केन्द्र रहे होंगे। क्षत्रप के पद पर अधिकतर विदेशी व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती थी, जैसा कि उनके नाम से भी ज्ञात होता है। कुछ क्षत्रप आनुवंशिक होते थे। कभी-कभी एक ही प्रदेश के ऊपर दो क्षत्रप एक साथ शासन करते थे। इस प्रकार एक ही प्रान्त पर दो शासक नियुक्त करने की विचित्र प्रथा का प्रारम्भ कुषाणों के समय देखने को मिलता है।

समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कुषाण राज्य में ‘विषय’ तथा ‘भुक्ति’ जैसी प्रशासनिक इकाइयाँ होती थीं। सामान्य नागरिकों के समान क्षत्रप भी बुद्ध प्रतिमाओं की स्थापना करते तथा दानादि देते थे। परन्तु उनके (क्षत्रपों व महाक्षत्रपों) वेतन तथा कार्यकाल के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। विद्वानों के अनुसार सम्भवतः मथुरा उसके शासन का मुख्य केन्द्र था तथा दूसरा प्रशासनिक केन्द्र वाराणसी में था।

कनिष्क के लेखों में किसी सलाहकारी परिषद् का उल्लेख नहीं मिलता। कुषाण अभिलेखों में हमें पहली बार दण्डनायक तथा महादण्डनायक जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है। सम्भवतया वे सैनिक अधिकारी थे।

ग्रामों का शासन ‘ग्रामिक’ द्वारा चलाया जाता था जिसका उल्लेख मथुरा लेख में मिलता है। सम्भवतया उसका प्रमुख कार्य राजस्व संग्रह करके केन्द्रीय राजकोष में जमा कराना होता था। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कनिष्क का शासन अधिकांशतः सैन्य शक्ति पर आधारित था और इसलिये वह स्थायी नहीं हो सका।

कनिष्क का अन्त

कनिष्क के अन्तिम दिनों के विषय में हमें निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों के चीनी अनुवाद में उसकी मृत्यु सम्बन्धी जो अनुश्रुति सुरक्षित है उससे ज्ञात होता है कि उसकी अतिशय लोलुपता, निर्दयता तथा महत्वाकांक्षा से प्रजा में भारी असंतोष व्याप्त हो गया। निरन्तर युद्धों के कारण उसके सैनिक तंग आ गये और उसके विरुद्ध एक विद्रोह उठ खड़ा हुआ। एक बार जब कनिष्क उत्तरी अभियान पर जा रहा था, मार्ग में बीमार पड़ा। उसी समय उसके सैनिकों ने लिहाफ से कनिष्क का मुँह ढँककर मुग्दरों से पीट-पीटटकर उसे मार डाला। यह अनुश्रुति कहाँ तक सही है यह नहीं कहा जा सकता तथापि इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि इस महान् कुषाण सम्राट का अन्त दुःखद रहा।

कनिष्क ने कुल २३ वर्षों तक शासन किया। यदि हम उसके राज्यारोहण की तिथि ७८ ईस्वी मानें तो तदनुसार उसकी मृत्यु १०१ ईस्वी के लगभग हुई।

मूल्यांकन

कनिष्क की उपलब्धियों को देखते हुये हम उसे भारतीय इतिहास के महान् सम्राटों में स्थान दे सकते हैं। वह एक सफल विजेता, साम्राज्य-निर्माता के साथ-साथ विद्या एवं कला-कौशल का संरक्षक भी था।

गंगाघाटी में एक साधारण क्षत्रप के पद से उठकर उसने अपनी विजयों द्वारा एशिया के महान् राजाओं में अपना स्थान बना लिया। कनिष्क एक कुशल सेनानायक तथा सफल प्रशासक था।

सम्राट अशोक के समान उसने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में अपने साम्राज्य के साधनों को नियोजित कर दिया था। उत्तरी बौद्ध अनुश्रुतियों में उसका वही स्थान है जो दक्षिणी बौद्ध परम्पराओं में अशोक का। वह कभी भी धर्मान्ध अथवा धार्मिक मामलों में असहिष्णु नहीं हुआ तथा बौद्ध धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्मों का भी समान रूप से सम्मान किया। इस प्रकार कनिष्क में चन्द्रगुप्त मौर्य जैसी सैनिक योग्यता तथा सम्राट अशोक जैसा धार्मिक उत्साह का सन्निपात एक साथ देखने को मिलता है।

कनिष्क एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति में स्वयं को पूर्णतया विलीन कर दिया। उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान किया। इस प्रकार कनिष्क मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रवेश का द्वार खोल दिया।

कनिष्क के उत्तराधिकारी

वाशिष्क

कनिष्क की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र वाशिष्क कुषाण वंश का राजा हुआ। उसने कनिष्क सम्वत् २४ से २८ (१०२-१०६ ईस्वी) अर्थात् कुल ४ वर्षों तक शासन किया।

वाशिष्क के शासनकाल के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं — मथुरा (कनिष्क सम्वत् २४) तथा साँची (कनिष्क सम्वत् २८)। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य मथुरा से पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। उसका समीकरण ४१ सम्वत् के आरा अभिलेख के ‘वाझेष्क’ तथा राजतरंगिणी के ‘जुष्क’ के साथ किया जाता है। राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के निकट ‘जुष्क’ नामक कुषाण राजा ने ‘जुष्कपुर’ (श्रीनगर के पास जुकर) बसाया था।

हुविष्क

वाशिष्क के पश्चात् हुविष्क (कनिष्क सम्वत् २८ से ६२ तक अर्थात् १०६ से १४० ई० तक) शासक हुआ। उसका साम्राज्य कनिष्क के समान ही विशाल था। उसके सिक्के उत्तर में कपिशा से लेकर पूर्व में बिहार तक के क्षेत्र से प्राप्त होते हैं। स्वर्ण तथा ताम्र के अनेक प्रकार के सिक्कों से उसके साम्राज्य में शान्ति एवं समृद्धि सूचित होती है।

हुविष्क का एक लेख काबुल के पास वर्दक से मिला है जिससे ज्ञात होता है कि पश्चिम में अफगानिस्तान तक का क्षेत्र उसके साम्राज्य में था।

हुविष्क के समय में कुषाण सत्ता का प्रमुख केन्द्र पेशावर से हटकर मथुरा हो गया। उसने मथुरा को अनेक स्मारकों से सजाया। हुविष्क का व्यक्तिगत झुकाव ब्राह्मण धर्म की ओर था। उनके सिक्कों पर शिव, स्कन्द, कुमार, विशाख, महासेन इत्यादि देवताओं की आकृतियाँ उत्कीर्ण मिलती है। वह बौद्ध तथा जैन मतानुयायियों के प्रति भी सहिष्णु रहा। मथुरा में उसने एक सुन्दर विहार का निर्माण करवाया था। राजतरंगिणी के अनुसार उसने कश्मीर में ‘हुष्कपुर’ (बारामुला के पास) नामक नगर की स्थापना करवायी थी।

कनिष्क द्वितीय

हुविष्क के पश्चात् कनिष्क द्वितीय (कनिष्क सम्वत् ६२ से ६७ तक) शासक बना। उसका उल्लेख आरा लेख में हुआ है (यह आरा बिहार का नहीं अपितु वर्तमान पाकिस्तान के कटक के समीप स्थित है)। वह वाशिष्क का पुत्र था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने कुछ समय तक हुविष्क के साथ मिलकर शासन किया था। उसने ‘महाराज’, ‘राजाधिराज’, ‘देवपुत्र’ तथा तत्कालीन रोमीय राजाओं के अनुकरण पर कैसर (सीजर) जैसी उपाधियाँ धारण की थीं।

वासुदेव

कनिष्क-कुल का अन्तिम महान् सम्राट वासुदेव (कनिष्क सम्वत् ६७ से ९८ तक) हुआ। इसके अधिकांश अभिलेख मथुरा तथा उसके निकटवर्ती भागों से ही मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय से पश्चिमोत्तर प्रदेश पर से कुषाणों का प्रभाव क्रमशः कम होने लगा तथा अब कुषाण सत्ता का केन्द्र मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित होने लगा। वासुदेव शैव मतानुयायी था। उसकी मुद्राओं पर शिव तथा नन्दी की आकृतियों का अंकन मिलता है।

वासुदेव के साथ ही कनिष्क कुल का अन्त हुआ। इस वंश के राजाओं ने लगभग ९९ वर्षों तक शासन किया। इनका विशाल साम्राज्य बैक्ट्रिया से बिहार तक फैला था। वे धर्म सहिष्णु थे तथा उन्होंने भारतीय संस्कृति को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया तथा उत्तरी भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना की।

परवर्ती कुषाण (Later Kushanas)

वासुदेव के बाद कुषाणों का इतिहास अन्धकारपूर्ण है। सिक्कों से कुछ कुषाण वंशी राजाओं के नाम ज्ञात होते हैं। उन्होंने द्वितीय शताब्दी के उत्तरार्ध से तृतीय शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक शासन किया। इनको परवर्ती अथवा उत्तर-कुषाण कहा गया है। इन परवर्ती कुषाणों का इतिहास अपने-आप में पूर्ण तथा स्वतन्त्र है।

कनिष्क तृतीय

परवर्ती कुषाण राजाओं में सर्वप्रथम वासुदेव के बाद हमको एक तीसरे कनिष्क का पता चलता है जिसने सम्भवतः १८० से २१० ईस्वी तक राज्य किया। बैक्ट्रिया, अफगानिस्तान, गन्धार, सीस्तान, पंजाब आदि से उसके बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त होते हैं जो इस बात की सूचना देते हैं कि उसने दीर्घकाल तक शासन किया था।

सतलज नदी के पूर्व से उसके सिक्के नहीं मिलते। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि अब कुषाणों का शासन मथुरा अथवा उत्तर प्रदेश से समाप्त हो गया था। कनिष्क तृतीय के शासन के अन्त तक कुषाण राज्य केवल पंजाब, कश्मीर, सीस्तान, अफगानिस्तान तथा बैक्ट्रिया तक ही सीमित रहा।

कनिष्क के सिक्कों पर उसके कुछ प्रान्तीय क्षत्रपों के नामांश प्राप्त होते हैं, जैसे ‘वासु’, ‘विरू’, ‘मही’ आदि। अल्तेकर ने इन्हें वासुदेव, विरुपाक्ष तथा महीश्वर बताया है। वासुदेव संम्भवतः उसका पुत्र था तथा विरुपाक्ष और महीश्वर उसके भाई रहे होंगे। वासुदेव सीस्तान में तथा विरुपाक्ष एवं महीश्वर क्रमशः पंजाब और अफगानिस्तान में क्षत्रप थे। इन क्षत्रपों के भारतीय नामों से स्पष्ट है कि इस समय तक कुषाणों के भारतीयकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी थी। साथ ही सिक्कों पर क्षत्रपों का उल्लेख उनके बढ़ते हुए प्रभाव का द्योतक है।

वासुदेव द्वितीय

अल्तेकर के अनुसार कनिष्क तृतीय के बाद वासुदेव द्वितीय राजा हुआ। वह कनिष्क तृतीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। शिव तथा नन्दी प्रकार के सिक्के, जिन पर ‘वासु’ नाम उत्कीर्ण है, बैक्ट्रिया तथा अफगानिस्तान से मिले हैं। इससे ज्ञात होता है कि उसका अधिकार इसी भाग में था तथा सीस्तान और पंजाब में उसके राज्यपाल स्वतन्त्र हो गये थे। उसने सम्भवतः २१० ईस्वी से २३० ईस्वी तक शासन किया।

वासुदेव द्वितीय के समय तक कुषाण साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। भारत में अनेक जातियों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी तथा पश्चिमोत्तर से ससानियनों के आक्रमण आरम्भ हो गये।

इन आंतरिक विद्रोहों व ससानियनों के आक्रमण से मुक्ति पाने के लिये वासुदेव द्वितीय ने २३० ई० के आसपास में अपना राजदूत चीन भेजकर सहायता की माँग की थी परन्तु इसका कोई लाभ नहीं हुआ।

मथुरा तथा प‌द्मावती में नागवंशों का उदय हुआ। नागवंश के अतिरिक्त यौधेय, मालव, कुणिन्द आदि गणराज्यों ने भी अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी।

पश्चिमोत्तर सीमाओं पर ईरान के ससैनियन राजाओं के आक्रमण प्रारम्भ हुये। क्रमशः ससैनियन नरेशों ने पश्चिमोत्तर सीमाओं पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार भारत के आंतरिक तथा उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से कुषाण-सत्ता का अन्त हुआ।

अब यह प्रमाणित हो चुका है कि ससैनियनों द्वारा पराजित कुषाण नरेश वासुदेव द्वितीय ही था, न कि वासुदेव प्रथम। उसके सिक्के प्रथम वासुदेव से इस अर्थ से भिन्न है कि उन पर यूनानी का अधिक विकृत रूप मिलता है, मोनोग्राम भिन्न है तथा क्षत्रपों के नामांश भी अंकित हैं। ससैनियनों ने वासुदेव द्वितीय को परास्त कर उसके शिव तथा नन्दी प्रकार के सिक्कों को ग्रहण कर लिया। इन सिक्कों को ससैनियन-कुषाण-सिक्के कहा जाता है। इनके अग्रभाग ससैनियन तथा पृष्ठ भाग परवर्ती कुषाण सिक्कों की भाँति हैं।

यद्यपि कुषाणों ने गुप्त राजवंश के राजनीतिक उदय के पूर्व तक कुछ क्षेत्रों में अपना स्थानीय प्रभाव बनाये रखा; यथा- पश्चिमोत्तर क्षेत्र में किदार कुषाण। तथापि तृतीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक उत्तर-पूर्वी भारत में कुषाणों का प्रभाव समाप्त हो चुका था।

पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में किदार कुषाण लंबे समय तक राज्य करते रहे। उन्हीं के अवशेषों पर ब्राह्मणशाही या हिंदूशाही (शाहीवंश) का उदय हुआ। इस वंश की स्थापना ९वीं शताब्दी के अंत में हुई। अंतिम कुषाण राजा लगतुर्मान को गद्दी से हटा कर उसके ब्राह्मण मंत्री कल्लार या ललिय ने ब्राह्मणशाही वंश की स्थापना की।

कुषाण साम्राज्य के पतन के कारण

कुषाण साम्राज्य के पतन के कारणों के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। इतना तो निश्चित ही है कि कुषाणों का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था। संक्षेप में इस सम्बन्ध में दिये गये विभिन्न मत-मतान्तर इस प्रकार है :

  • राखाल दास बनर्जी के अनुसार कुषाण सत्ता का विनाश गुप्तवंश के उदय के कारण हुआ था। परन्तु यह मत निराधार है क्योंकि समुद्रगुप्त के प्रयाग-प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उत्तरी भारत में गुप्त साम्राज्य की स्थापना के पहले ही कुषाण शासन समाप्त हो चुका था।
  • काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार पंजाब तथा मध्य प्रदेश में कुषाणों का पतन भारशिव नागों के उदय के कारण हुआ। भारशिव नागों के कार्य को प्रवरसेन प्रथम के नेतृत्व में वाकाटकों ने पूरा किया। परन्तु अल्तेकर ने इस मत का खण्डन किया है तथा बताया है कि भारशिवों अथवा वाकाटकों का कुषाणों से कोई सम्बन्ध नहीं था।
  • अल्तेकर का विचार है कि यौधेयों ने कुणिन्द, अर्जुनायन आदि गणराज्यों की मदद से कुषाणों को परास्त कर सतलज नदी के पार खदेड़ दिया। परन्तु अल्तेकर महोदय का यह मत यौधेयों के सिक्कों पर आधारित है। उनके सिक्कों पर ‘जयमन्त्रधर’ तथा ‘यौधेयानाम् जयः’ मुद्रालेख उत्कीर्ण मिलता है जिससे उनकी विजयों की सूचना मिलती है परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि ये विजयें उन्होंने कुषाणों के विरुद्ध ही प्राप्त की होंगी।
  • घिर्शमन् महोदय ने बेग्राम के उत्खनन में मिले अवशेषों के आधार पर यह निष्कर्ष दिया है कि वासुदेव के शासन-काल के अन्त में ससैनियन नरेश शापुर प्रथम (२४२-२७२ ई०) ने कुषाण साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण में कुषाणों पूर्णतया पराजित करके शापुर प्रथम ने पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। ससैनियनों के आक्रमणों ने पूर्वी प्रदेशों के सामन्तों को विद्रोह करने तथा स्वतन्त्र होने का अच्छा अवसर प्रदान किया। परन्तु घिर्शमन् का मत वासुदेव के साथ ही कुषाणों का अन्त मान लेता है जबकि सिक्कों से उसके बाद के कुछ राजाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। ऐसी स्थिति में कुषाणों के पतन का शापुर प्रथम के आक्रमण के साथ सीधा सम्बन्ध जोड़ना तर्कसंगत नहीं लगता।

कुल मिलाकर कुषाणों के पतन के कारणों को हम संक्षेप में कहें तो :-

  • अयोग्य उत्तराधिकारी (सर्वप्रमुख)
  • प्रशासनिक दुर्बलता
  • अर्थव्यवस्था की दुर्बलता
  • नयी शक्तियों का उदय

निष्कर्ष

इन विभिन्न मत-मतान्तरों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि नागों, यौधेयों तथा ससैनियनों इन सभी ने कुषाण सत्ता की समाप्ति में कुछ न कुछ योगदान दिया था। इसी तरह जुआन-जुआन जाति के उत्तर की ओर से होने वाले आक्रमण से भी कुषाणों को बड़ा धक्का लगा। इस प्रकार इन सभी कारणों के संघात से ही कुषाण साम्राज्य का पतन सम्भव हुआ।

पह्लव या पार्थियन (The Pahalavas or the Parthians)

शक या सीथियन (The Shakas or the Scythians)

हिन्द-यवन या भारतीय-यूनानी या इंडो-बैक्ट्रियन(The Indo-Greeks or Indo-Bactrians)

सातवाहन राजवंश (The Satavahana Dynasty)

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