सातवाहन राजवंश (The Satavahana Dynasty)

भूमिका

सातवाहन शासनकाल का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में दो राजनीतिक शक्तियाँ प्रबल हुईं –

१. ऊपरी दकन के सातवाहन राजवंश।

२. कलिंग के चेदि राजवंश।

इनमें से चेदि राजवंश की शक्ति अल्पकालीन थी परन्तु सातवाहन राजवंश का शासनकाल लगभग उतार-चढ़ाव के रूप में किसी न किसी रूप में साढ़े चार शताब्दियों तक बना रहा। इतने दीर्घकाल तक भारतीय इतिहास में किसी भी अन्य राजवंश ने निर्बाध रूप से शासन नहीं किया है।

सातवाहन साम्राज्य के अन्तर्गत लगभग समस्त दक्षिणापथ सम्मिलित था और उत्तर भारत में सम्भवतया मगध तक उसका विस्तार था। एक ओर जहाँ सातवाहनों ने विदेशी आक्रमण के विरुद्ध अपनी स्वाधीनता की रक्षा की वहीं दूसरी ओर साहित्य, कला, व्यापार-वाणिज्य आदि को प्रोत्साहन प्रदान कर अपनी प्रजा की भौतिक एवं सांस्कृतिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त किया था।

सातवाहन  या आन्ध्र-सातवाहन

ऐतिहासिक स्रोत

सातवाहन के इतिहास को जानने के ऐतिहासिक स्रोत

आन्ध्र-सातवाहन राजवंश के इतिहास का अध्ययन हम साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातत्त्व, इन तीनों की सहायता से करते हैं।

साहित्य

  • साहित्य के अन्तर्गत सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों का किया जा सकता है। सातवाहन इतिहास के लिये मत्स्य तथा वायुपुराण विशेष रूप से उपयोगी हैं।
  • पुराण सातवाहनों को ‘आन्ध्रभृत्य’ तथा ‘आन्ध्रजातीय’ कहते हैं। यह इस बात का सूचक है कि जिस समय पुराणों का संकलन हो रहा था, सातवाहनों का शासन आन्ध्रप्रदेश तक ही सीमित था।
  • पुराणों में सातवाहन वंश के कुल ३० राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है। इन ३० राजाओं ने लगभग चार शताब्दियों तक शासन किया था। इनमें से कुछ सातवाहन शासकों के नाम का उल्लेख तत्कालीन अभिलेखों में भी प्राप्त होता है।
  • पुराणों में इस वंश के संस्थापक का नाम सिन्धुक, सिसुक अथवा शिप्रक दिया गया है जिसने कण्व वंश के राजा सुशर्मा को मारकर शुंग राजवंश की अवशिष्ट शक्ति का अन्त करके पृथ्वी पर अपना शासन स्थापित किया था।

पुरातत्त्व

सातवाहन इतिहास के प्रामाणिक साधन अभिलेख, सिक्के तथा स्मारक हैं। सातवाहनकालीन लेखों में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं —

उपर्युक्त अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व के हैं; यथा —

  • नागनिका (नागानिका) के नासिक लेख से शातकर्णि प्रथम की उपलब्धियों का ज्ञान होता है।
  • गौतमीपुत्र शातकर्णि के लेख उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विस्तृत विवरण देते हैं।

सिक्के

  • अभिलेखों के साथ-साथ विभिन्न स्थलों से सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इन मुद्राओं के अध्ययन से सातवाहनों राज्य-विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं।
  • नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थल से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है। इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। यह नहपान के ऊपर उसकी विजय की पुष्टि करता है।
  • यज्ञश्री शातकर्णि के एक सिक्के पर जलपोत के चिह्न अंकित हैं। इससे समुद्र के ऊपर उनका अधिकार अथवा समुद्री-व्यापार की उन्नति प्रमाणित होती है।
  • सातवाहनों के सिक्के सीसा, ताँबा तथा पोटीन में ढलवाये गये हैं। पोटीन में ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन को मिलाकर मिश्रित धातु की मुद्राओं को ढाला गया था।
  • इन पर मुख्यतः वृषभ, गज, सिंह, अश्व, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वस्तिक, कमल, त्रिरत्न, उज्जैन चिह्न आदि का अंकन मिलता है। उज्जैन चिह्न में क्रॉस से जुड़े चार बाल होते थे।

विदेशी विवरण

  • क्लासिकल लेखकों के विवरण भी सातवाहन इतिहास के सम्बन्ध में कुछ जानकारी देते हैं। इनमें प्लिनी, टॉलमी तथा ‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रीयन सी’ के अज्ञात लेखक प्रमुख हैं।
  • प्रथम दो ने तो अपनी जानकारी दूसरों से प्राप्त किया था लेकिन पेरीप्लस के अज्ञातनामा लेखक ने पश्चिमी भारत के बन्दरगाहों की स्वयं यात्रा की थी तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया था।
  • इन लेखकों के विवरण सातवाहनकालीन पश्चिमी भारत के व्यापार-वाणिज्य और शकों के साथ उनके संघर्ष का परिचय मिलता है।
  • इन क्लासिकल लेखकों के विवरण से ज्ञात होता है कि सातवाहनों का पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था जो समुद्र के माध्यम से होता था। यूरोपीय देशों से मालवाहक जहाज भूमध्य सागर, लाल सागर, फारस की खाड़ी तथा अरब सागर से होकर निरन्तर भारत पहुँचते थे। पश्चिमी तट पर भड़ौच इस काल का सबसे प्रसिद्ध बंदरगाह था जिसे यूनानी लेखक बेरीगाजा कहते हैं।
  • सातवाहनकाल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, कार्ले, भाजा आदि स्थानों से प्राप्त किये गये हैं। इनसे तत्कालीन कला एवं स्थापत्य के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

उत्पत्ति

सातवाहनों की उत्पत्ति तथा मूल निवास स्थान के विषय में इतिहासकारों में मतभेद है।

पुराणों में इस वंश के संस्थापक सिमुक को ‘आन्ध्र-भृत्य’ तथा ‘आन्ध्रजातीय’ कहा गया है, जबकि अपने अभिलेखों में इस वंश के राजाओं ने अपने को सातवाहन ही कहा है।

प्राचीन काल में कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच का तेलगुभाषी प्रदेश आन्ध्र प्रदेश कहा जाता था।

ऐतरेय बाह्मण में यहाँ के निवासियों को ‘अनार्य’ बताया गया है। इसके अनुसार विश्वामित्र के पुत्रों ने गोदावरी तथा कृष्णा के मध्य स्थित प्रदेश में जाकर आर्येतर जातियों के साथ विवाह किया। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप ‘आन्ध्र’ उत्पन्न हुए।

महाभारत में आन्ध्रों को म्लेच्छ तथा मनुस्मृति में वर्णसंकर एवं अंत्यज कहा गया है।

इस आधार पर कुछ विद्वान् सातवाहनों को अनार्य अर्थात् निम्नवर्ण का बताते हैं। परन्तु लेखों में इसके विपरीत सातवाहनों को सर्वत्र उच्चवर्ण का ही कहा गया है। अतः केवल पुराणों के आधार पर ही सातवाहनों को हम आन्ध्र जाति का नहीं मान सकते।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ‘सातवाहन’ कुल का नाम है जबकि ‘आन्ध्र’ जाति का परिचायक है। जी० वेंकटराव (दकन का प्राचीन इतिहास) का विचार है कि उस काल में अभिलेखों में केवल कुलनाम लिखने की ही प्रथा थी जैसा कि शालंकायनों, बृहत्फलायनों, विष्णुकुण्डिनों, पल्लवों, गंगों, कदम्बों, चालुक्यों, वाकाटकों आदि के अभिलेखों से स्पष्ट होता है। यह प्रथा इतनी प्रबल थी कि सातवाहनों के अन्तिम लेखों में भी जो आन्ध्र क्षेत्र से मिले हैं उन्हें आन्ध्र नहीं कहा गया है। सातवाहन नामक व्यक्ति इसका संस्थापक था, अतः इस वंश को सातवाहन कहा गया।

हेमचन्द्र रायचौधरी के अनुसार सातवाहन वस्तुतः ब्राह्मण ही थे जिनमें नाग-वंश के रक्त का कुछ सम्मिश्रण था। इस वंश के शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि को नासिक प्रशस्ति में ‘एकबह्मन्’ (अद्वितीय ब्राह्मण) कहा गया है जिसमें क्षत्रियों के दर्प को चूर्ण (खतियदपमानमदनस) कर दिया था। यदि ‘एकबह्मन्’ को ‘खतियदपमानमदनस’ के साथ संयुक्त कर दिया जाय तो इससे यह निःसन्देह सिद्ध हो जाता है कि गौतमीपुत्र न केवल एक ब्राह्मण था, अपितु वह परशुराम की प्रकृति का ब्राह्मण था जिसने क्षत्रियों के अभिमान को चूर्ण किया था।

ऐसा प्रतीत होता है कि शकों द्वारा परास्त होने पर सातवाहन लोग अपना मूल स्थान छोड़कर आन्ध्र प्रदेश में जाकर बस गये और इसी कारण पुराणों में, उन्हें ‘आन्ध्र’ कहा गया।

अतः ‘आन्ध्र जातीय’ विरुद को प्रादेशिक संज्ञा मानना उचित प्रतीत होता है। मूलतः सातवाहन ब्राह्मण वर्ण/जाति के ही थे। उनका ब्राह्मण धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये शस्त्र ग्रहण करना तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त था। मौर्य युग में वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा गिर गयी थी तथा क्षत्रिय बड़ी संख्या में बौद्ध बन गये थे। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण धर्म की रक्षा के लिये ब्राह्मणों का आगे आना आवश्यक था।

इसी प्रकार की परिस्थितियों में मगध में शुंग तथा कण्व राजवंशों ने सत्ता सम्हाली थी। यही कार्य दक्षिणापथ में सातवाहनों ने किया।

यह तो हो गयी ब्राह्मणवादी व्याख्या। इसका दूसरा पहलू भी है कि यदि मौर्यों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण दिया और ब्राह्मणों की उपेक्षा की। तो क्या कारण था कि शुंग वंश, कण्व वंश और सातवाहन वंश ने क्रमशः सत्ता का बलात् अपहरण किया जबकि ये सभी ब्राह्मण थे? यह अपने आप में मौर्यों पर ब्राह्मण द्वेषी होने के आरोपों को निराधार व तथ्य विहीन बना देता है।

मूल निवास स्थान

उत्पत्ति के ही समान सातवाहनों के मूल निवास स्थान के विषय पर भी इतिहासकारों में पर्याप्त मतभेद है। रैप्सन, स्मिथ तथा भण्डारकर जैसे कुछ इतिहासकार आन्ध्र प्रदेश में ही उनका मूल निवास स्थान निर्धारित करते हैं।

विंसेट स्मिथ ने श्रीकाकुलम् तथा भण्डारकर ने धान्यकटक में उनका मूल निवास स्थान माना है। सुक्थंकर सातवाहनों का आदि स्थान बेलारी (मैसूर) बताते हैं। परन्तु इन मतों के विरुद्ध सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि उपर्युक्त स्थानों में कहीं से भी सातवाहनों का कोई अभिलेख अथवा सिक्का अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है।

यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि सातवाहन राजाओं के बहुसंख्यक अभिलेख और सिक्के महाराष्ट्र के प्रतिष्ठान (पैठन) के आसपास से प्राप्त हुए हैं।

सातवाहन वंश के संस्थापक का एक रिलीफ चित्र तथा शातकर्णि प्रथम की महारानी नागनिका का लेख नानाघाट से मिला है, जो प्रतिष्ठान से करीब १०० मील की दूरी पर स्थित है।

नासिक से दो और लेख मिले हैं। पहले में सातवाहन कुल के दूसरे राजा कन्ह (कृष्ण) तथा दूसरे में इस वंश के तीसरे राजा शातकर्णि प्रथम की प्रपौत्री का विवरण मिलता है।

सातवाहनों का महारठी वंश के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। इससे भी सातवाहनों का महाराष्ट्र से आदि सम्बन्ध सूचित होता है।

अभिलेखों के अतिरिक्त सातवाहनों के सिक्के भी महाराष्ट्र से ही पाये गये है।

अतः अभिलेखीय तथा मुद्रा सम्बन्धी प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सातवाहनों का मूल निवास-स्थान पश्चिमी भारत के किसी भू-भाग में रहा होगा। बहुत सम्भव है कि यह स्थान प्रतिष्ठान (पैठन) ही रहा हो।

आन्ध्र और सातवाहन विवाद

अनेक इतिहासकार इस विचार से असहमत हैं कि आन्ध्र और सातवाहन एक ही थे। ऐसा सोचने का प्रमुख आधार यह है कि सातवाहनों के किसी भी अभिलेख में उन्हें आन्ध्र नहीं कहा गया है।

के० पी० जायसवाल के अनुसार, ‘सातवाहन’ सम्राट अशोक के अभिलेखों में उल्लिखित ‘सत्तियपुत्त’ थे।

एच० सी० रायचौधरी का विचार है कि आन्ध्र नाम इस वंश के राजाओं के साथ बाद में उस समय जुड़ा जब उनके राज्य के उत्तर और पश्चिम के हिस्से उनके अधिकार से निकल चुके थे और वे शुद्ध रूप में आन्ध्र क्षेत्र में ही सिमट गये थे और वे निचली कृष्णा नदी घाटी के आसपास शासन करते थे।

डॉ० सुखठणकर के अनुसार सातवाहन आन्ध्र के नहीं थे। उनकी आरंभिक गतिविधियों का केंद्र पश्चिमी भारत था और राजधानी पैठन थी।

डॉ० जी० याजदानी का विचार इस समस्या पर ज्यादा तर्कपूर्ण और प्रभावशाली लगता है। उनका मानना है कि ये शासक आन्ध्र-जाति के थे और सातवाहन उनका कुलनाम था। इन्होंने आन्ध्र राजाओं के भृत्यों के रूप में शक्ति पायी थी। वे मौर्य साम्राज्य के पतन के समय से ही महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश पर आधिपत्य जमाये हुए थे। नहपान द्वारा पराजित किये जाने एवं पश्चिमी तट से निकाले जाने के पश्चात वे आन्ध्र प्रदेश सहित अन्य क्षेत्रों पर शासन करते रहे। गौतमीपुत्र द्वारा समस्त दक्कन पर अधिकार जमाने के बाद उसके पुत्र ने दक्षिणाधिपति की उपाधि धारण की। रुद्रदामन द्वारा पराजित होने पर वे पुनः स्वदेश आंध्रप्रदेश वापस हो गये।

राजनीतिक इतिहास

अभिलेखीय साक्ष्यों एवं साहित्यिक स्रोतों के आधार पर आन्ध्र-सातवाहनों के राजनीतिक इतिहास की रूपरेखा तैयार की जा सकती है। सातवाहन वंश के राजाओं एवं उनके शासनकाल की समस्या विवादित है।

  • मत्स्यपुराण के अनुसार इस वंश के ३० राजाओं ने लगभग ४५० वर्षों तक शासन किया।
  • वायुपुराण के अनुसार ३० शासकों में से १९ ने ही ३०० वर्षों तक शासन किया।
  • अनेक इतिहासकारों का मानना है कि सातवाहनों की शक्ति का उदय सम्राट अशोक के देहावसान के पश्चात तृतीय शताब्दी ई०पू० में ही हुआ।
  • जबकि अनेक इतिहासकारों का विचार है कि ई०पू० प्रथम शताब्दी के तृतीय चरण में ही सातवाहनों की शक्ति का उदय हुआ।
  • एक तर्क के अनुसार शुंगों की शक्ति का नाश कर सातवाहनों ने ७५ ई०पू० में सत्ता हासिल की।
  • पुराण यह भी कहते हैं कि कण्व वंश का भी अंत सातवाहनों ने ही किया।
  • कण्वों ने ३० ई०पू० तक शासन किया था।
  • अतः आरम्भिक सातवाहन शासकों की तिथियाँ अस्पष्ट हैं।
  • तृतीय शताब्दी के प्राप्त अभिलेखों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि अशोक की मृत्यु के बाद ही सातवाहन दक्षिण की राजनीति में सक्रिय हो उठे और उन्होंने एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की।

आन्ध्र-सातवाहनों के राजनीतिक इतिहास के सुविधाजनक अध्ययन के निम्न भागों में विभाजित करेगें :

  • प्रारम्भिक इतिहास
  • अन्ध युग
  • पुनरुद्धार – गौतमीपुत्र शातकर्णि
  • शातकर्णि के उत्तराधिकारी
  • सातवाहनों का पतन

प्रारम्भिक इतिहास

सिन्धुक या शिमुक या सिमुक

सातवाहनों का इतिहास शिसुक के समय से प्रारम्भ होता है। शिसुक अन्य नाम भी भी मिलते हैं – शिमुक अथवा सिन्धुक।

वायुपुराण का कथन है कि “आन्ध्रजातीय सिन्धुक (शिमुक) कण्व वंश के अन्तिम शासक सुशर्मा की हत्या कर तथा शुंगों की बची हुयी शक्ति को समाप्त कर पृथ्वी पर शासन करेगा।”

“काण्वायनस्ततोभृत्यः सुशर्माणं प्रसह्यतम्,

शुंगानाम् चैव यच्छेषं क्षपयित्वा तु बलीयसः।

सिन्धुको आन्ध्रजातीयः प्राप्स्यतीमां वसुन्धराम्,

त्रयोविंशत समा राजा सिमुकस्तु भविष्यति।”

— The Purana Text of the Dynasties of the Kali Age : F. E. Pargiter.

इससे ऐसा लगता है कि उसने शुंगो तथा कण्वों से विदिशा के आस-पास का क्षेत्र जीत लिया होगा। पुराणों के अनुसार शिमुक ने २३ वर्षों तक शासन किया। उसके नाम का उल्लेख नानाघाट चित्र-फलक-अभिलेख में मिलता है।

अजयमित्र शास्त्री को अभी हाल ही में उसके सात सिक्के प्राप्त हुए हैं।

नानाघाट के लेख में उसे ‘राजा शिमुक सातवाहन’ कहा गया है। जैन गाथाओं के अनुसार उसने जैन तथा बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया था। अपने शासन के अन्तिम दिनों में वह दुराचारी हो गया तथा मार डाला गया।

शिमुक की तिथि के विषय में विवाद है। सम्भवतया शिमुक ने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के द्वितीयार्ध में शासन किया और उसका राज्यकाल सामान्यतः ६० ईसा पूर्व से ३७ ईसा पूर्व तक माना जा सकता है।

कन्ह (कृष्ण)

शिमुक के बाद उसका अनुज कन्ह (कृष्ण) राजा बना क्योंकि शिमुक का पुत्र शातकर्णि अल्पायु था। कृष्ण ने अपना साम्राज्य नासिक तक बढ़ाया। उसके श्रमण नामक एक महामात्र ने नासिक में एक गुहा का भी निर्माण करवाया था। यहां से प्राप्त एक लेख में कृष्ण के नाम का उल्लेख मिलता है। उसने १८ वर्षों तक राज्य किया।

शातकर्ण प्रथम

कृष्ण की मत्यु के पश्चात् श्रीशातकर्णि, जो शिमुक का पुत्र था, सातवाहन वंश की गद्दी पर बैठा। वह शातकर्णि प्रथम के नाम से विख्यात है क्योंकि अपने वंश में शातकर्णि की उपाधि धारण करने वाला वह पहला राजा था।

शातकर्णि प्रथम प्रारम्भिक सातवाहन नरेशों में सबसे महान् था। उसने अंगीय कुल के महारठी त्रनकयिरों की पुत्री नायानिका (नागनिका/नागानिका) के साथ विवाह कर अपना प्रभाव बढ़ाया।

महारठियों के कुछ सिक्के उत्तरी मैसूर से मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि वे काफी शक्तिशाली थे तथा नाममात्र के लिये शातकर्णि की अधीनता स्वीकार करते थे। महारठियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध में शातकर्णि को राजनीतिक प्रभाव के बढ़ाने में अवश्य ही सहायता मिली होगी।

नागानिका के नानाघाट अभिलेख से शातकर्णि प्रथम के शासन काल के विषय में महत्त्वपूर्ण सूचनायें मिलती है।

शातकर्णि प्रथम ने पश्चिमी मालवा, अनूप (नर्मदा घाटी) तथा विदर्भ के प्रदेशों को विजित किया। विदर्भ उसने शुगों से छीना तथा कुछ समय के लिये उसे अपने नियंत्रण में रखा।

इसी समय वासिष्ठिपुत्र आनन्द, जो शातकर्णि के कारीगरों का मुखिया था, ने साँची स्तूप के तोरण पर अपना लेख खुदवाया था। यह लेख पूर्वी मालवा क्षेत्र पर उसका अधिकार प्रमाणित करता है।

पश्चिमी मालवा पर उसके अधिकार की पुष्टि ‘श्रीसात’ नामधारी सिक्कों से हो जाती है जो इस क्षेत्र से प्राप्त किये गये हैं।

इस प्रकार सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र उसके अधिकार में था तथा पूर्व की ओर उसका राज्य कलिंग की सीमा को स्पर्श करता था।

उत्तरी कोंकण तथा गुजरात के कुछ भागों को जीतकर उसने अपने राज्य में मिला लिया था।

शातकर्णि प्रथम को कलिंग नरेश चेदि वंशी खारवेल के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि अपने राज्यारोहण के दूसरे वर्ष खारवेल ने शातकर्णि की परवाह न करते हुए पश्चिम की ओर अपनी सेना भेजी। यह सेना कण्णवेणा (वेनगंगा) नदी तक आयी तथा असिक नगर में आतंक फैल गया। यह स्थान शातकर्णि के ही अधिकार में था। यहाँ की खुदाई से हाल ही में शातकर्णि का सिक्का मिला है। ऐसा प्रतीत होता है कि शातकर्णि ने खारवेल का प्रबल प्रतिरोध किया जिसके फलस्वरूप कलिंग नरेश को वापस लौटना पड़ा होगा। यदि खारवेल विजित होता तो इस घटना का उल्लेख महत्त्वपूर्ण ढंग से उसने अपने लेख में किया होता। खारवेल का आक्रमण एक धावा मात्र था जिसे टालने में शातकर्णि सफल

इस प्रकार शातकर्णि एक सार्वभौम राजा बन गया। उसने दो अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञों का अनुष्ठान किया। प्रथम अश्वमेध यज्ञ राजा बनने में तत्काल बाद तथा द्वितीय अपने शासनकाल के अन्त में किया होगा। अश्वमेध यज्ञ के बाद उसने अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्रायें उत्कीर्ण करवायीं। इनके ऊपर अश्व की आकृति मिलती है। उसने दक्षिणापथपति तथा अप्रतिहतचक्र जैसी महान् उपाधियाँ धारण कीं।

उसका शासन-काल भौतिक दृष्टि से समृद्धि एवं सम्पन्नता का काल था। शातकर्णि प्रथम पहला शासक था जिसने सातवाहनों को सार्वभौम स्थिति में ला दिया। उसकी विजयों के फलस्वरूप गोदावरी घाटी में प्रथम विशाल साम्राज्य का उदय हुआ जो शक्ति तथा विस्तार में गंगा घाटी में शुंग तथा पंजाब में यवन साम्राज्य की बराबरी कर सकता था।*

“Thus arose the first great empire in the Godavari valley which rivalled in extent and power the Sunga empire in Ganga valley and the Greek empire in the land of the Five Rivers.”*

— H. C. Raychaudhary.

‘पेरीप्लस ऑफ इरिथ्रियन सी’ से ज्ञात होता है कि ‘एल्डर सैरागोनस’ एक शक्तिशाली राजा था जिसके समय में सुप्पर (सोपारा/शूर्पारक) तथा कलीन (कल्याण) के बन्दरगाह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार-वाणिज्य के लिये पूर्णरूपेण सुरक्षित हो गये थे। ‘एल्डर सैरागोनास’ से तात्पर्य शात्तकर्णि प्रथम से ही है। प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाकर उसने शासन किया। मालवा के ‘सात’ नामधारी कुछ सिक्के मिलते हैं। इनका प्रचलनकर्ता शातकर्णि प्रथम को ही माना जाता है।

शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् सातवाहनों की शक्ति दुर्बल पड़ने लगी। नानाघाट के अभिलेख में उसके दो पुत्रों का उल्लेख हुआ है — वेदश्री तथा शक्तिश्री। ये दोनों ही अल्पायु थे। अतः शातकर्णि प्रथम की पत्नी नायानिका (नागानिका) ने संरक्षिका के रूप में शासन का संचालन किया। इसके बाद का सातवाहनों का इतिहास अन्धकारपूर्ण है।

सातवाहन इतिहास का अन्ध-युग

पुराणों में शातकर्णि प्रथम तथा गौतमीपुत्र शातकर्णि के मध्य शासन करने वाले राजाओं की संख्या १० से १९ तक बतायी गयी है।

‘मत्स्य पुराण’ में इनके नाम इस प्रकार दिये हुए हैं — १. पूर्णोत्संग २. स्कन्धस्वम्भि, ३. शातकर्णि (द्वितीय), ४. लम्बोदर, ५. अपीलक, ६.. मेघ स्वाति, ७. स्वाति, ८. स्कन्धस्वाति, ९. मृगेन्द्र, १०. कुन्तलस्वाति, ११. स्वातिकर्ण, १२. पुलुमावि प्रथम, १३. गौरकृष्ण, १४. हाल, १५. मंदूलक, १६. पुरीन्द्रसेन, १७. सुन्दर स्वातिकर्णि, १८. चकोर स्वातिकर्णि तथा १९. शिव स्वाति।

इनमें केवल तीन राजाओं के विषय में हमको दूसरे स्रोतों से भी जानकारी प्राप्त होती हैं — आपीलक, कुन्तल शातकर्णि तथा हाल।

अपीलक 

  • आपीलक का एक ताँबे का सिक्का मध्य प्रदेश से प्राप्त है। 
  • कुन्तल शातकर्णि संभवतः कुन्तल प्रदेश का शासक था जिसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में मिलता है।
  • हाल के विषय में हमें भारतीय साहित्य से भी सूचना मिलती है।

हाल

  • यदि प्रारम्भिक सातवाहन राजाओं के युद्ध में शातकर्णि प्रथम सबसे महान था, तो शान्ति में हाल महानतम था।
  • वह स्वयं बहुत बड़ा कवि तथा कवियों एवं विद्वानों का आश्रयदाता था।
  • ‘गाथासप्तशती’ नामक प्राकृत भाषा में उसने एक मुक्तक काव्य-ग्रन्थ की रचना की थी।
  • उसकी राज्य सभा में ‘वृहत्कथा के रचयिता गुणाढ्य तथा कातन्त्र नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्ववर्मन निवास करते थे।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि उपर्युक्त तीनों नरेश सातवाहनों की मूल शाखा से सम्बन्धित नहीं थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इसी समय (प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में) पश्चिमी भारत पर शकों का आक्रमण हुआ। शकों ने महाराष्ट्र, मालवा, काठियावाड़ आदि प्रदेशों को सातवाहनों से जीत लिया। पश्चिमी भारत में शकों के क्षहरात शाखा की स्थापना हुई। शकों की विजयों के फलस्वरूप सातवाहनों का महाराष्ट्र तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में अधिकार समाप्त हो गया और उन्हें अपना मूलस्थान छोड़कर दक्षिण की ओर खिसकना पड़ा। संभव है इस समय सातवाहनों ने शकों की अधीनता भी स्वीकार कर ली हो।

इस प्रकार शातकर्णि प्रथम से लेकर गौतमीपुत्र शातकर्णि के उदय के पूर्व तक का लगभग एक शताब्दी का काल सातवाहनों के ह्रास का समय रहा।

सातवाहन सत्ता का पुनरुद्धार : गौतमीपुत्र शातकर्णि

ऐसा प्रतीत होता है कि सातवाहन अधिक समय तक दासता की स्थिति में न रह सके और उन्होंने गौतमीपुत्र शातकर्णि के नेतृत्व में पुनः अपनी खोई हुई शक्ति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त की। पुराणों के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णि सातवाहन वंश का तेईसवाँ राजा था। उसके पिता का नाम ‘शिवस्वाति’ तथा माता का नाम गौतमी वलश्री’ मिलता है। वह सातवाहन कुल का महानतम सम्राट था। उसके तीन अभिलेख प्राप्त होते हैं। दो नासिक से तथा एक कार्ले से। नासिक का पहला लेख उसके शासन काल के १८वें तथा दूसरा २४वें वर्ष का है। कार्ले का लेख संभवतः १८वें वर्ष का है। इसके अतिरिक्त उसके सिक्के भी मिलते हैं। उसकी सैनिक सफलताओं एवं अन्य कार्यों के विषय में हमें उसकी माता गौतमी वलश्री की नासिक प्रशस्ति तथा पुलुमावी के नासिक गुहालेख से भी सूचना मिलती है।

सैनिक सफलतायें

शकों की क्षहरात शाखा के आक्रमण के कारण सातवाहनों का महाराष्ट्र के ऊपर से अधिकार छिन गया था। इसलिये महाराष्ट्र तथा उत्तर के अन्य प्रदेशों पर अपना अधिकार पुनः कायम करना गौतमीपुत्र का प्रथम उद्देश्य था। इसकी पूर्ति के लिये उसने अपने राज्यारोहण से १६ वर्षों तक पर्याप्त सैन्य तैयारियाँ कीं। १७वें वर्ष एक बड़ी सेना के साथ क्षहरातों के राज्य पर उसने आक्रमण कर दिया। इस सैनिक अभियान में क्षहरात नरेश नहपान तथा उषावदत्त पराजित करके मार डाले गये। गौतमीपुत्र तथा नहपान के मध्य घमासान युद्ध नासिक के पास गोवर्धन के आस-पास लड़ा गया लगता है।

अपनी विजय के बाद उसने नासिक के बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय’ नामक क्षेत्र दान में दिया था। इस समय गोवर्धन के अमात्य को उसने एक राजाज्ञा जारी किया। इसमें वह स्वयं को ‘वेणाकटक स्वामी’ कहता है। इससे सूचित होता है कि उसने वेणाकटक (वेनगंगा) के तटवर्ती प्रदेश को शक क्षत्रपों से जीता था। तदुपरांत कार्ले के भिक्षु संघ को उसने ‘किरजक’ नामक ग्राम दान में दिया। यह पहले उषावदत्त के अधिकार में था।

उषावदत्त नहपान का जामाता था। वह नहपान के साम्राज्य के दक्षिणी प्रान्तों, जिनमें नासिक तथा पूना भी सम्मिलित थे, का राज्यपाल था।

यह भी ज्ञात होता है कि इस समय गौतमीपुत्र वेणाकटक (महाराष्ट्र के गोवर्धन जिले में स्थित) में सैनिक शिविर डालकर ठहरा हुआ था। स्पष्टतः यह शिविर शकों (क्षहरात शाखा) के विरुद्ध था।

जोगलथम्बी-मुद्राभाण्ड से भी यह प्रामाणित होता है। जोगलथम्बी महाराष्ट्र में है। इसमें लगभग १३,२५० मुद्रायें हैं। इसमें से दो तिहाई से भी अधिक नहपान की मुद्राओं को गौतमीपुत्र द्वारा पुनः अंकित कराया गया हैं। इनके मुख भाग पर चैत्य तथा मुद्रालेख ‘रत्रोगोतमीपुतस’ तथा ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में नहपान के मुद्रालेख का अंश है। पृष्ठ भाग पर उज्जैन चिन्ह तथा यूनानी में नहपान के लेख का अंश अंकित है।

इस तरह शकों की क्षहरात कुल का विनाश हुआ। पुलुमावी के नासिक गुहालेख से भी गौतमीपुत्र की क्षहरातों के विरुद्ध सफलता की सूचना मिलती है। इस लेख में उसे “शक, यवन तथा पह्लवों का विनाश करनेवाला, क्षहरात कुल का उन्मूलन करने वाला तथा सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने वाला’ कहा गया है।”*

“सक-यवन-पह्लव निसूदनस धमोपजित-कर-विनियोग-करस …. नस खखरात-वस-निरवसेस-करस सातवाहनकुल-यस-पतिथापन-करस…”*

वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख

ध्यातव्य है कि लेख में क्षहरातों के साथ-साथ शक, यवन, पह्लव आदि विदेशी जातियों के भी नाम दिये गये हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र के विरुद्ध युद्ध में इन विदेशी शक्तियों ने नहपान का साथ दिया तथा गौतमीपुत्र ने इन सभी को पराजित कर अथवा मार डाला या उन्हें अपने साम्राज्य से बाहर भगा दिया था।

आवश्यकसूत्र की टीका ‘निर्युक्ति’ में आये एक गाथा से भी ज्ञात होता है कि सातवाहन नरेश ने नहपान की राजधानी भरुकच्छ (भरूच या भृगुकच्छ) पर आक्रमण कर उसके कोषागार पर अधिकार कर लिया।

क्षहरातों के विरुद्ध गौतमीपुत्र के नेतृत्व में यह निश्चित रूप से एक उल्लेखनीय सफलता थी जिसने सातवाहनों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित ही नहीं अपितु बढ़ा भी दिया।

अपनी सफलताओं से उत्साहित होकर गौतमीपुत्र शातकर्णि ने और आगे विजय अभियान किया तथा दक्षिण एवं उत्तर भारत के कई स्थानों को जीतकर अपने साम्राज्य का अंग बना लिया।

उसके पुत्र पुलुमावि के शासन काल के १९वें वर्ष में उत्कीर्ण नासिक गुहालेख में गौतमीपुत्र शातकर्णि द्वारा विजित निम्नलिखित प्रदेशों के नाम मिलते हैं —

१.     ऋषिक : कृष्णा नदी का तटीय प्रदेश

२.     अस्मक : गोदावरी नदी का तटीय प्रदेश

३.     मूलक : पैठन का समीपवर्ती प्रदेश

४.     सुराष्ट्र : दक्षिणी काठियावाड़

५.     कुकुर : पश्चिमी राजपूताना

६.     अपरान्त : उत्तरी कोंकण

७.     अनूप : नर्मदा घाटी

८.     विदर्भ : बरार

९.     आकर : पूर्वी मालवा

१०.  अवन्ति : पश्चिमी मालवा

इनमें अपरान्त, अनूप, सुराष्ट्र, कुकुर, आकर तथा अवन्ति के प्रदेशों को उसने निश्चित रूप से नहपान से ही जीता था। इस प्रकार उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक का सम्पूर्ण प्रदेश गौतमीपुत्र के प्रत्यक्ष शासन में आ गया।

नासिक प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि गौतमीपुत्र का विन्ध्यपर्वत के दक्षिण के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार था। उसे विन्ध्य, ऋक्षवत (मालवा के दक्षिण का विन्ध्यपर्वत का भाग), पारियात्र (पश्चिमी विन्ध्य तथा अरावली), सह्य (नीलगिरि के उत्तर का पश्चिमी घाट), मलय (त्रावनकोर पहाड़ियाँ), महेन्द्र (पूर्वीघाट) आदि पर्वतों का स्वामी कहा गया है।

इसी प्रशस्ति में यह भी विवरण मिलता है कि उसके वाहनों (अश्वों) ने तीनों समुद्रों का जल पिया था (तिसमुद-तोय-पीतवाहन)। यहाँ तीनों समुद्रों का तात्पर्य बंगाल की खाड़ी, अरब सागर तथा हिन्द महासागर से है।

सम्भव है कि नासिक प्रशस्ति का विवरण कुछ अतिरंजित हो तथापि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गौतमीपुत्र एक दिग्विजयी शासक था जिसके समय में सातवाहन साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गया था।

गौतमीपुत्र शातकर्णि ने नासिक जिले में वेणाकटक नामक एक नगर का निर्माण करवाया था।

नासिक प्रशस्ति में उसकी प्रशंसा कुछ इस प्रकार की गयी है —

“खतिय-दप-मान-मदनस … अनेक समरावजित-सतु-सघस अपराजित-विजयपताक-सतुजन दुपधसनीय-पुरवरस … राम-केशवाजुन-भीमसेन-तुल-परकमस … नाभाग-नहुष-जनमेजय-सकर-य[या]ति-रामाबरीस-सम-तेजस” —

अर्थात् (जिसने) क्षत्रियों के दर्प और मान का मर्दन किया था … (जिसने) अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की; जिसकी सुंदर नगरी (राजधानी) में प्रवेश करना शत्रुओं के लिये महा कठिन था … जो पराक्रम में राम, केशव, अर्जुन और भीमसेन के समान था … जिसका तेज नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति और अम्बरीष के समान था…।

सातवाहन साम्राज्य

शासन प्रबन्ध

गौतमीपुत्र जितना उच्चकोटि का सैनिक व विजेता था, उससे कहीं बढ़कर शान्ति के समय में महान् था। उसने अपने विशाल साम्राज्य का शासन उसने अत्यन्त योग्यता तथा कुशलता के साथ संचालित किया। अपने शासन काल में उसने निर्धनों, निर्बलों, दुःखी व असहाय लोगों की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया। वह अपनी प्रजा (पोरजन) के सुख में सुखी तथा दुःख में दुःखी होने वाला (पोरजन-निविसेस-सम-सुक-दुखस) राजा था। उसने शास्त्रों के आदेशानुसार शासन किया। उसने प्रजा पर अन्यायपूर्ण कर नहीं लगाये (धमोपजित-कर-विनियोग-करस)। उसने चातुर्वर्ण को संकर होने से रोका (विनिवतित-चातूवण-संकरस..) अर्थात् समाज में वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा की।

उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को आहारों में विभाजित किया। प्रत्येक आहार एक अमात्य के अधीन होता था। अपने राज्य काल के अन्त में उसने अपनी माता के साथ मिलकर शासन किया था।

धार्मिक नीति

गौतमीपुत्र का शासन दक्षिणापथ में वैदिक (ब्राह्मण) धर्म के पुनरुत्थान का काल था। नासिक प्रशस्ति में उसे वेदों का आश्रय (आगमाननिलय) तथा अद्वितीय ब्राह्मण (एकबह्मण) कहा गया है।

परन्तु वैदिक धर्म का पोषक होते हुए भी वह एक धर्म-सहिष्णु शासक था। वह बौद्ध धर्म के प्रति उदार था तथा उसने भिक्षुओं के लिये ग्राम तथा भूमि दान में दिया था। उसे ‘द्विजों तथा द्विजेतर जातियों के कुलों का वर्धन करने वाला’ (द्विजावर-कुट्ब-विवधन) कहा गया है।

व्यक्तित्व एव चरित्र

गौतमीपुत्र बहुमुखी प्रतिभा प्रतिभा सम्पन्न था। उसे सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा दी गयी थी और इस प्रकार वह एक विद्वान् भी था (आगमाननिलय वेदादिशास्त्राज्ञानस्याधार)।

नासिक अभिलेख में कहा गया है कि उसका शरीर स्वस्थ्य, बलिष्ठ एवं सुन्दर था, मुख कान्तिमान था तथा व्यक्तित्व आकर्षक था। वह सबको निर्भीकता प्रदान करने के लिये सदा तत्पर रहता था, मातृभक्त था तथा अपराध करने वालों को भी क्षमा कर देता था। वह गुणवानों का आश्रय, सम्पत्ति का भण्डार तथा सवृत्तियों का स्रोत था। उसका चरित्र उज्जवल था तथा वह एक धर्मप्राण व्यक्ति था।

शासन-काल

गौतमीपुत्र की तिथि के विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। नहपान के जुन्नौर अभिलेख से ज्ञात होता है कि वह १२४ ईस्वी में महाराष्ट्र पर शासन कर रहा था। गौतमीपुत्र के नासिक अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपने राज्यारोहण के १८वें वर्ष नहपान से महाराष्ट्र को जीता था।

अतः उसका राज्यारोहण १२४ – १८ = १०६ ईस्वी के लगभग हुआ होगा।

गौतमीपुत्र के शासन के २४वें वर्ष का एक दूसरा लेख नासिक से मिला है जिससे स्पष्ट होता है कि उसने कम से कम २४ वर्षों तक शासन किया होगा। अतः मोटे तौर से हम उसका शासन-काल १०६ ईस्वी से १३० ईस्वी तक स्वीकार कर सकते हैं।

गौतमीपुत्र शातकर्णि के उत्तराधिकारी

गौतमीपुत्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र ‘वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि’ सातवाहनों का राजा हुआ। इसे पुराणों में पुलोमा, पुरोमानि अथवा पुलोमावि भी कहा गया है। पुराणों के अनुसार उसने २८-२९ वर्षों तक शासन किया। उसके समय में भी सातवाहनों की शक्ति को उत्तर से शकों की कार्दमक शाखा से चुनौती मिली, क्योंकि पश्चिमी भारत में शकों के पुनः शक्तिशाली हो गये थे और सातवाहन साम्राज्य के कुछ उत्तरी प्रदेश वाशिष्ठीपुत्र के अधिकार से जाता रहा।

वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि शकों की कार्दमक शाखा के चष्टन और रुद्रदामन नामक दो शासकों का समकालीन था। अतः इन दोनों के साथ संघर्ष करना पड़ा। इस संघर्ष में पुलुमावि को अपने कुछ प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा।

चष्टन के सिक्कों के प्रसार से सूचित होता है कि उसका गुजरात, काठियावाड़ तथा पुष्कर क्षेत्र पर अधिकार था। टॉलमी उसे उज्जैन (ओजेन) का शासक बताता है। कहा जा सकता है कि इन सभी प्रदेशों को चष्टन ने पुलुमावी को हराकर ही हस्तगत किया होगा।

चष्टन का उत्तराधिकारी रुद्रदामन हुआ। उसके समय में भी पुलुमावी को पराजय का सामना करना पड़ा। महाक्षत्रप रुद्रदामन अपने गिरनार लेख में दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को दो बार पराजित करने का दावा करता है। सम्भवतः यह राजा वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावी ही था। इस समय तक शकों ने कुकुर, सुराष्ट्र, मरु, श्वभ्र, अवन्ति तथा आकर के प्रान्त पुनः सातवाहनों ने छीन लिया था।

जहाँ सातवाहनों को उत्तर में पराभव देखना पड़ा वहीं दक्षिण की ओर सातवाहन साम्राज्य का विस्तार हुआ। पुलुमावि अकेला सातवाहन राजा है जिसका उल्लेख अमरावती से प्राप्त एक लेख में हुआ है। कृष्णा नदी के मुहाने के प्रदेश से उसके बहुसंख्यक सिक्के मिले हैं। संभवतः इसी समय वेलारी पर भी सातवाहनों का अधिकार हो गया था। इस प्रकार उसी के काल में सातवाहनों ने आन्ध्र प्रदेश पर आधिपत्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त किया था।

उसे ‘दक्षिणापथेश्वर’ कहा गया है। उसके कुछ सिक्कों पर दो पतवारों वाले जहाज का चित्र अंकित है जो सातवाहनों की नौ-शक्ति के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण है। उसी के काल में अमरावती के स्तूप का सम्वर्द्धन हुआ तथा उसके चारों ओर वेष्टिनी बनायी गयी।

पुलमावी का शासनकाल लगभग १३० से १५९ ईस्वी तक रहा। उसके बाद सातवाहनों की शक्ति पुनः निर्बल पड़ गयी। उसके बाद पुराणों की सूची के अनुसार शिवश्री शातकर्णि (१५९ से १६६ ईस्वी) तथा शिवस्कन्दशातकर्णि (१६७ से १७४ ईस्वी) राजा हुए जिनके शासन काल की किसी महत्त्वपूर्ण घटना के विषय में हमें जानकारी नहीं मिलती है।

यज्ञश्री शातकर्णि (१७४ से २०३ ईस्वी) सातवाहन कुल का अन्तिम शक्तिशाली राजा हुआ। उसने शकों को पुनः पराजित किया तथा अपरान्त, पश्चिमी भारत के कुछ भाग एवं नर्मदा घाटी पर पुनः अपना आधिपत्य कायम कर लिया। आन्ध्र प्रदेश के गुन्दुर जिले में उसके शासन काल के २७वें वर्ष का एक लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि उसने पूर्वी तथा पश्चिमी दकन के ऊपर शासन किया था। नासिक तथा कन्हेरी से उसके शासन काल के क्रमशः ७वें तथा १६वें वर्ष के अभिलेख मिलते हैं। गुजरात, काठियावाड़, मालवा, मध्य प्रदेश तथा आन्ध्र प्रदेश से उसके चाँदी के बहुसंख्यक सिक्के प्राप्त होते हैं। यज्ञश्री ने कुल लगभग २७ वर्षों तक राज्य किया था।

सातवाहन विनाश और उनके उत्तराधिकारी

यज्ञश्री शातकर्णि की मृत्यु के पश्चात् सातवाहन साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया आरम्भ हुई। यह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया। पुराणों में यज्ञश्री के पश्चात् शासन करने वाले विजय, चन्द्रश्री तथा पुलोमा के नाम मिलते हैं। परन्तु इनमें से कोई भी शासक इतना योग्य नहीं था कि वह सातवाहन साम्राज्य के पतन को रोक सके।

दक्षिण-पश्चिम में सातवाहन साम्राज्य के ध्वंसावशेष के बाद आभीर, आन्ध्र प्रदेश में ईक्ष्वाकु तथा कुन्तल में चुटुशातकर्णि वंशों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली।

सातवाहन के उत्तराधिकारी

इनका विवरण संक्षिप्त में इस प्रकार है —

आभीर

  • इस वंश का संस्थापक ईश्वरसेन था।
  • ईश्वरसेन ने २४८-४९ ईस्वी के लगभग कलचुरिचेदि सम्वत् की स्थापना की।
  • ईश्वरसेन के पिता का नाम शिवदत्त मिलता है।
  • नासिक में उसके शासनकाल के ९वें वर्ष का एक लेख प्राप्त हुआ है। यह इस बात का सूचक है कि नासिक क्षेत्र के ऊपर उसका अधिकार था। देखें — ईश्वरसेन का नासिक गुहा अभिलेख
  • अपरान्त तथा लाट प्रदेश पर भी उसका प्रभाव था क्योंकि यहाँ कलचुरि-चेदि संवत् का प्रचलन मिलता है।
  • आभीरों का शासन चौथी शती तक चलता रहा।

ईक्ष्वाकु

  • इस वंश के लोग कृष्णा-गुण्टूर क्षेत्र में शासन करते थे।
  • पुराणों में उन्हें ‘श्रीपर्वतीय’ (श्रीपर्वत का शासक) तथा ‘आन्ध्रभृत्य’ (आन्ध्रों का नौकर) कहा गया है।
  • पहले वे सातवाहनों के सामन्त थे परन्तु उनके पतन के बाद उन्होंने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी।
  • इस वंश का संस्थापक श्रीशान्तमूल था।
    • अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने के उपलक्ष में उसने अश्वमेध यज्ञ किया। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था।
  • श्रीशातमूल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी माठरीपुत्र वीरपुरुषदत्त हुआ।
    • माठरीपुत्र वीरपुरुषदत्त ने २० वर्षों तक शासन किया।
    • अमरावती तथा नागार्जुनीकोण्ड से उसके लेख मिलते हैं।
    • इनमें बौद्ध संस्थाओं को दिये जाने वाले दान का विवरण मिलता है।
  • वीरपुरुषदत्त का पुत्र तथा उत्तराधिकारी शान्तमूल द्वितीय हुआ जिसने लगभग ११ वर्षों तक राज्य किया।
  • वीरपुरुषदत्त के बाद ईक्ष्वाकु वंश की स्वतन्त्र सत्ता का क्रमशः लोप हुआ।
  • इस वंश के राजाओं ने आन्ध्र की निचली कृष्णा घाटी में तृतीय शताब्दी के अन्त तक शासन किया। तत्पश्चात् उनका राज्य कांची के पल्लवों के अधिकार में चला गया।
  • ईक्ष्वाकु लोग बौद्ध मत के पोषक थे।

चुटुशातकर्णि वंश

  • महाराष्ट्र तथा कुन्तल प्रदेश के ऊपर तृतीय शताब्दी में चुटुशातकर्णि वंश का शासन स्थापित हुआ।
  • कुछ इतिहासकार उन्हें सातवाहनों की ही एक शाखा मानते हैं जबकि कुछ लोग उनको नाग वंश से सम्बन्धित करते हैं।
  • उनके शासन का अन्त कदम्बों द्वारा किया गया।

बृहत्फलायन

  • कृष्णा तथा मसूलीपट्टम् के मध्य बृहत्फलायन ने कुछ समय के लिये स्वतन्त्रता स्थापित कर ली थी।
  • बृहत्फलायनों की राजधानी पिथुन्ड थी।
  • बाद में यह वंश पल्लवों के अधीन हो गये।

शालंकायन

  • कृष्णा और गोदावरी के बीच शालंकायन वंश ने कुछ समय के लिये स्वतन्त्रता स्थापित कर ली थी।
  • शालंकायनों की राजधानी वेंगी थी।
  • बाद में यह वंश पल्लवों के अधीन हो गये।

इस चतुर्दिक उथल-पुथल के वातावरण में लगभग तृतीय शताब्दी ईस्वी के मध्य सातवाहन साम्राज्य पूर्णरूप से पतन हो गया।

शुंग राजवंश (The Shunga Dynasty)

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