शुंगकालीन संस्कृति

भूमिका

मौर्यों के बाद मगध की सत्ता शुंगों के हाथ में आयी। शुंग राजाओं का शासन-काल भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने बिखरते मगध साम्राज्य के केन्द्रीय भाग की विदेशियों से रक्षा की तथा मध्य भारत में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना करके विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को कुछ समय तक रोके रखा। मौर्य साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने वैदिक संस्कृति के आदर्शों की प्रतिष्ठा की और इसी कारण उनका शासनकाल “वैदिक पुनर्जागरण” का काल माना जाता है। संक्षेप में शुंगकालीन संस्कृति पर दृष्टिपात करना आवश्यक है क्योंकि इसके कई तत्त्व जहाँ एक ओर मौर्यकालीन संस्कृति से पृथक करते हैं वही निरंतरता के भी द्योतक हैं। इसके अंतर्गत हम सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा कलात्मक उपलब्धियों का एक-एक करके अध्ययन करेंगे।

सामाज

शुंगकालीन समाज ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’ पर आधृत था। समाज में परम्परागत चातर्वर्ण के अतिरिक्त अन्य बहुत-सी जातियाँ अस्तित्व में आ चुकी थीं। जाति-प्रथा की जटिलता निरन्तर बढ़ती जा रही थी।

मौर्य काल में बौद्ध धर्म के प्रभाव से वर्णाश्रम व्यवस्था को ठेस पहुँची थी। अधिकांश लोग अपने सामाजिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके भिक्षु अथवा श्रमण जीवन व्यतीत करने लगे थे। समाज पर इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़ रहे थे।

शुंग काल में पुनः वर्णाश्रम धर्म व्यवस्थित किया गया। जिसका विस्तृत विवरण हमें मनुस्मृति से मिलता है। मनुस्मृति शुंग काल की रचना है। इसमें (मनुस्मृति) वर्णाश्रम धर्म के नियमों का उल्लेख मिलता है। वर्णाश्रम धर्म के कुछ दिशानिर्देश अधोलिखित बताये गये हैं —

  • इस बात पर बल दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जातिगत व्यवसाय या पेशे का अनुसरण करे। मनुस्मृति में कहा गया है कि स्वधर्म निम्न होने पर भी श्रेष्ठ परधर्म की अपेक्षा उत्तम है। यदि निम्न जाति का व्यक्ति लोभवश उच्चजाति के पेशे को अपनाये तो राजा को चाहिये कि वह उसकी सम्पत्ति जब्त कर ले तथा उसे देश निकाला दे दे।
  • साथ ही यह भी बताया गया है कि जिस देश में वर्ण संकरता पैदा होती है उसका शीघ्रता से पतन हो जाता है।

“यत्रत्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः।

राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति॥” मनुस्मृति

  • नवयुवकों एवं युवतियों को भिक्षु अथवा सन्यासी बनने से रोकने के उद्देश्य से यह विधान किया गया कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास इन चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिये।
  • आश्रमों में संस्कारों का भी विधान था।
  • वर्णाश्रम धर्म तथा संस्कारों का पालन न करने वाले लोग ‘व्रात्य’, ‘वृषल’ अथवा ‘संकर’ कहे गये हैं।
  • मनुस्मृति में चारों वर्णों के कर्तव्यों का भी अलग-अलग विवेचन हुआ है।

ब्राह्मण

  • ब्राह्मण के प्रमुख कर्तव्य अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, दान एवं प्रतिग्रह बताये गये हैं।
  • वह मृत्यु दण्ड का अधिकारी नहीं था।
  • यदि ब्राह्मण शास्त्रसंगत आचरण नहीं करता था तो वह अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खो देता था।
  • मनु ने विपत्ति के समय ब्राह्मण को अपने वर्ण से भिन्न पेशा अपनाकर जीविका कमाने की छूट प्रदान किया है।

क्षत्रिय

  • क्षत्रिय का प्रधान कर्त्तव्य  राज्य की रक्षा के लिये शस्त्र ग्रहण करना बताया गया है।

वैश्य

  • यह वर्ण प्रमुखतः व्यापार-वाणिज्य से सम्बद्ध था।

शूद्र

  • यह तीनों उच्च वर्णों की सेवा करते थे।
  • वे संस्कार तथा धर्मग्रन्थों के श्रवण करने के अधिकारी नहीं थे।
  • मनुस्मृति में शूद्र अध्यापकों तथा शूद्र शिष्यों का भी उल्लेख मिलता है जो इस बात का सूचक है कि उन्हें शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं रखा गया था।
  • कुछ सीमा तक उन्हें सम्पत्ति रखने का भी अधिकार दिया गया था।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय शूद्रों की दशा अत्यन्त दीन-हीन थी। मनस्मृति उन्हें दासों की कोटि में रखती है।
  • शूद्रों के कर्त्तव्य तो बहुत थे परन्तु अधिकार नगण्य थे।
  • अपराध करने पर उन्हें अन्य वर्णों से अधिक कठोर दण्ड दिया जाता था।
  • शूद्र की हत्या करने पर ब्राह्मण को वही दण्ड मिलता था जो कुत्ते, बिल्ली, मेढक, कौवे आदि की हत्या करने पर।

अन्य जातियाँ

  • परम्परागत चार वर्णों के अतिरिक्त समाज में कई अन्य जातियाँ भी थीं जो अन्तर्वर्ण विवाहों के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थीं।
  • जातक ग्रन्थों से भी ज्ञात होता है कि चाण्डाल समाज से बहिष्कृत थे तथा उनका दर्शन अशुभ माना जाता था।

महिला

शुंगकालीन रचना मनुस्मृति के अध्ययन से हमें महिलाओं की स्थिति का ज्ञान मिलता है। इस काल में स्त्रियों की गिरावट आयी। अपने पूर्ववर्ती काल से स्तिथि में गिरावट तो वहीं परवर्ती काल की अपेक्षा कुछ सकारात्मक बातें भी मिलती हैं :

  • नकारात्मक पक्ष
    • महिलाओं की स्वतंत्रता जाती रही।
    • अब उन्हें पति के पूर्णतया अधीन बना दिया गया। 
    • पतिसेवा तथा परायणता स्त्री का परम कर्त्तव्य था।
    • मनुस्मृति में एक स्थान पर बताया गया है कि स्त्री को अपने पति की देवता के समान पूजा करनी चाहिये तथा उसकी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं करना चाहिये भले ही उसका पति दुश्चरित्र अथवा लम्पट ही क्यों न हो।
    • मनुस्मृति के विवरण से पता चलता है कि इस समय समाज में बाल-विवाह का प्रचलन हो गया तथा कन्याओं का विवाह आठ से बारह वर्ष की आयु में किया जाने लगा।
    • विवाह की आयु घट जाने से स्त्रियों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
  • सकारात्मक पक्ष 
    • शुंगकालीन समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी।
    • नियोग प्रथा प्रचलित थी।
    • विधवा विवाह होते थे।
    • समाज में सती प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं मिलता।
    • मनुस्मृति के अनुसार “जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं तथा जहाँ उनकी पूजा नहीं होती वहाँ सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं।”

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥ मनुस्मृति

  • विवाह
    • समाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच।
    • अन्तर्वर्ण विवाह भी होते थे। उच्च वर्ण के पुरुष और निम्न वर्ण की कन्या का विवाह अनुलोम विलोम कहा गया है। इसका उल्टा प्रतिलोम विवाह कहलाता है।
    • उच्चवर्ण का व्यक्ति निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता था (अनुलोम विवाह)।
    • मनुस्मृति में ब्राह्मण पुरुष का शूद्र कन्या के साथ विवाह की अनुमति प्रदान की गयी है।
    • प्रतिलोम विवाह को शास्त्रों में निन्दनीय कहा गया है।
    • सगोत्र तथा सपिन्ड विवाह वर्जित थे।
    • तलाक की प्रथा नहीं थी क्योंकि मनु ने विवाह को आजीवन चलने वाली संस्था बताया है।
    • मनुस्मृति में पत्नी का परित्याग करने वाले पति को दण्ड देने के लिये राजा को सलाह दी गयी है।

आर्थिक जीवन

  • कृषि तथा पशुपालन आर्थिक जीवन के प्रमुख आधार थे। वैश्य वर्ण के लोग ही मुख्य रूप से कृषि तथा पशुपालन का कार्य करते थे। देश में विभिन्न प्रकार के व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धे होते थे।
  • बौद्ध ग्रन्थ ‘मिलिन्दपण्हो’ में अनेक व्यावसायिक का उल्लेख हुआ है, जैसे- मालाकार, सुवर्णकार, लौहकार, ताम्रकार, जौहरी, कुम्हार, चर्मकार, चित्रकार, रंगरेज, जुलाहे, दर्जी, रथकार आदि।
  • श्रम-विभाजन का सिद्धान्त प्रचलित था तथा व्यवसाय आनुवंशिक होते थे। प्रमुख नगरों में व्यापारियों तथा व्यवसायियों की श्रेणियाँ थीं। जातक ग्रन्थों में १८ श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। इनके अलग-अलग व्यावसायिक नियम होते थे।
  • देश में व्यापार उन्नति पर था।
  • पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, वैशाली, हस्तिनापुर, वाराणसी तथा तक्षशिला प्रमुख व्यापारिक नगर थे।
  • भृगुकच्छ (भरूच या भड़ौच), सुप्पारक (सोपारा या सूर्पारक), ताम्रलिप्ति प्रमुख व्यापारिक बन्दरगाह थे।
  • समुद्री व्यापार के लिये बड़े-बड़े जलपोतों का निर्माण होने लगा जिससे पोत-निर्माण इस काल का एक प्रमुख व्यवसाय बन गया।
  • रेशमी वस्त्र, हीरे-जवाहरात, हाथी-दाँत की वस्तुएँ तथा गरम मसाले आदि निर्यात किये जाते थे।
  • व्यापार-विनिमय में नियमित सिक्कों का प्रयोग होता था। स्वर्ण मुद्रा को निष्क, दीनार, सुवर्ण, सुवर्णमासिक कहा जाता था। ताँबे के सिक्के ‘कार्षापण’ कहलाते थे। चाँदी के सिक्के के लिये ‘पुराण’ अथवा ‘धारण’ शब्द मिलता है।

धार्मिक दशा

शुंग राजाओं का शासन-काल वैदिक अथवा ब्राह्मण धर्म के पुनर्जागरण का काल माना जाता है। संक्षेप में शुंगकालीन धार्मिक तथ्य अधोलिखित हैं :

  • इस काल की रचनाओं में श्रमण विचारधारा तथा अतिशय अहिंसा का विरोध मिलता है।
  • वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान पुनः प्रारम्भ हुआ। स्वयं पुष्यमित्र मित्र ने दो अश्वमेध* यज्ञ किये थे।

“कोलाधिपेन द्विरश्वजिनः सेनापतेः पुष्यमित्रस्य पष्ठेन कोशिकीपुत्रेण धन [ देवेन ]

धर्मराज्ञा पितुः फल्गुदेवस्य केतन कारित [ ॥ ]”*

धनदेव का अयोध्या अभिलेख 

  • यज्ञों में पशुबलि की प्रथा पुनः प्रचलित हुई।
  • ब्राह्मण धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया गया तथा वैदिक कर्मकाण्डों के अनुष्ठान पर बल दिया जाने लगा।
  • इसी समय यह सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ कि  
    • ‘जीव ही जीव का आहार है’ (जीवो जीवस्य भोजनम्)।
    • यज्ञों में की गयी हिंसा, हिंसा नहीं होती है (वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति) आदि।
  • मनु ने स्पष्टतः ब्राह्मणों को यज्ञ में मृगों तथा पक्षियों को मारने की अनुमति दी है।

विदेशियों द्वारा भारतीय धर्मों के प्रति आकर्षण 

इसी समय समाज में भागवत धर्म का उदय हुआ तथा वासुदेव-विष्णु की उपासना प्रारम्भ हुई। तक्षशिला के एक यवन हेलियोडोरस ने वासुदेव के सम्मान में विदिशा के पास बेसनगर (भिलसा) में गरुड़-स्तम्भ का निर्माण करवाया था। वह यवन नरेश एन्टियालकीड्स का राजदूत था जो शुंग शासक भागभद्र के विदिशा की राजसभा में आया था। वह स्वयं भागवत हो गया। इस स्तम्भलेख पर ब्राह्मीलिपि में उत्कीर्ण है कि तीन अमर साधनों द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया जा सकता है — दम (आत्म-संयम), त्याग तथा अप्रमदा (सतकर्ता)।

“कासी पु [ त्र ] स१ [ भा ] गभद्रस त्रातारस

वसेन च [ तु ] दसेन राजेन बधमानस [ । ]” — बेसनगर गरुड़ स्तम्भ लेख

इसी तरह मथुरा के समीप मोरा’ नामक स्थान से प्राप्त प्रथम शताब्दी ईस्वी के एक लेख से ज्ञात होता है कि ‘तोस’ नामक किसी विदेशी स्त्री ने संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, शाम्ब तथा अनिरुद्ध की मूर्तियों की स्थापना की थी। भागवत धर्म के साथ-साथ माहेश्वर तथा पाशुपत संप्रदायों का भी इस समय देश में प्रचार था।

यह इस बात काल प्रमाणित करता है कि अनेक विदेशी भी हिन्दू धर्म को आत्मसात् करने लगे थे।

धार्मिक सहिष्णुता

  • शुंगों पर तत्कालीन बौद्ध ग्रंथों का आक्षेप कि वे बौद्धों को उत्पीड़ित करते थे।
  • परन्तु स्वयं ब्राह्मण धर्म के पोषक होते हुए भी शुंग नरेश अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं थे।
  • उन्होंने बौद्ध मतावलम्बियों को भी पर्याप्त सुविधा प्रदान किया था।
  • स्वयं दिव्यावदान का ही कथन है कि उन्होंने कुछ बौद्धों को अमात्य के पद पर नियुक्त किया था।
  • बौद्ध भिक्षुओं के ऊपर अत्याचार अपवादस्वरूप ही किया गया अन्यथा यह काल धार्मिक सहिष्णुता का ही काल था।
  • साँची स्तूप, भरहुत स्तूप इत्यादि का संवर्धन इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं।

भाषा तथा साहित्य

  • शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ। इस वंश के राजाओं ने संस्कृत को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया और अब संस्कृत काव्य की भाषा न रहकर लोकभाषा के रूप में परिणत हो गयी। संस्कृत के पुनरुत्थान में महर्षि पतंजलि का प्रमुख योगदान था। उन्होंने संस्कृत भाषा का स्वरूप स्थिर करने के लिये पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रों पर एक “महाभाष्य” लिखा। पतंजलि ने ऐसे लोगों को शिष्ट बताया है जो बिना किसी अध्ययन के ही संस्कृत बोल लेते हैं।
  • महाभाष्य में एक स्थान पर एक वैयाकरण (व्याकरण शास्त्र के ज्ञाता) तथा सारथि के मध्य वाद-विवाद का बड़ा ही रोचक प्रसंग आया है जो ‘सूत’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विवाद करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय सारथि भी अच्छी संस्कृत बोल लेता था।
  • महाभाष्य के अतिरिक्त मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप संभवतः इसी में रचा गया था।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार शुंगों के समय में ही महाभारत के शान्तिपर्व तथा अश्वमेधपर्व का भी परिवर्द्धन हुआ था।

कला एवं स्थापत्य

  • शुंग शासकों का शासन-काल कला एवं स्थापत्य की दृष्टि से उन्नति के लिये भी प्रख्यात है।
  • जैसा कि हम मौर्य-कला के प्रसंग में देख चुके हैं कि वह एक राजकीय-कला (court-art) थी जिसका मुख्य विषय धर्म था। परन्तु शुंग कला के विषय धार्मिक जीवन की अपेक्षा लौकिक जीवन से अधिक सम्बन्धित हैं।
  • इस समय की कलाकृतियों में जो विविध चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं उनसे तत्कालीन मध्य-भारत के जन-जीवन को समझने में काफी सहायता प्राप्त होती है।
  • शुंग कला मौर्य कला की अपेक्षा एक बड़े वर्ग के मनुष्यों के मस्तिष्क, परम्परा, संस्कृति एवं विचारधारा को प्रतिबिम्बित करने में अधिक समर्थ है। इसका प्रधान विषय आध्यात्मिक अथवा नैतिक न होकर पूर्णतया मानव जीवन से सम्बन्धित है।  

“The main interest is neither spiritual nor ethical but altogether directed to human life. — Ananda Coomarswami

  • शुंग कला के उत्कृष्ट नमूने हमें मध्य-प्रदेश के भरहुत, साँची, बेसनगर तथा बिहार के बोधगया से प्राप्त होते हैं।

भरहुत स्तूप

  • शुंग कला के सर्वोत्तम स्मारक स्तूप हैं।
  • १८७३ ई० में कनिंघम महोदय ने इस स्तूप को खोज निकाला था। उस समय यह पूर्णतया नष्ट हो चुका था तथा केवल इसका एक भाग (१० फुट लम्बा तथा ६ फुट ऊँचा) ही अवशिष्ट रह गया था।
  • भरहुत (सतना के समीप) में इस समय एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके अवशेष अपने मूल स्थान पर वर्तमान में नहीं है, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तथा एक तोरण भारतीय संग्रहालय कलकत्ता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इसके कुछ अवशेष भारतीय कला भवन वाराणसी तथा सतना जिले के रामवन संग्रहालय में भी रखे गये हैं। स्तूप के दो खण्ड प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय मुम्बई में भी विद्यमान हैं।
  • भरहुत स्तूप का निर्माण पक्की ईटों से हुआ था तथा नींव पत्थर की सुदृढ़ बनी थी
  • स्तूप को चारों ओर से घेरने वाली गोलाकार वेदिका पूर्णतया पाषाण-निर्मित थी जिसमें संभवतया ४ तोरणद्वार लगे थे। इस वेदिका में लगभग ८० स्तम्भ थे जिनके ऊपर उष्णीश बैठाये गये थे।
  • दो स्तम्भों के बीच में तीन-तीन पड़े पत्थर लगे हुए थे जिन्हें ‘सूची’ कहा गया है।
  • वेदिका का सम्पूर्ण गोल घेरा ३३० फुट के आकार में बना था। स्तूप तथा वेदिका के बीच की भूमि में प्रदक्षिणापथ बना हुआ था।
  • स्तम्भों के बीच में चक्र तथा ऊपर-नीचे अर्धचक्र बनाये गये थे। इन्हें विविध फूलपत्तियों विशेषकर कमलदल से सुसज्जित किया गया था।
  • भरहुत स्तूप मूलतः ईट-गारे की सहायता से अशोक के समय में बनवाया गया लेकिन इसकी पाषाण वेदिका तथा तोरणों का निर्माण शुगों के काल (दूसरी शती ई०पू० के पूर्वार्ध) में हुआ। स्तूप के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण लेख में शुंग शासक धनभूति का उल्लेख मिलता है।

“सुगनं रजे राञो गागीपुतस विसदेवस पुतेन गोतिपुतस अगरजसपुतेन।

वाछिपुतेन धन भूतिन कारितं तोरणं। सिलकंमत च उपन।”

  • भरहुत स्तूप की वेदिका, स्तम्भ तथा तोरणपट्टों पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ एवं चित्र महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं, जातक कथाओं तथा मनोरंजक दृश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
    • एक चित्र मायादेवी के स्वप्न से सम्बंधित है जिसमें श्वेत हाथी आकाश मार्ग से उतर कर उनके गर्भ में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है। इसे अवक्रान्ति कहा गया है।
    • यहाँ पर यक्ष, नाग, लक्ष्मी, राजा, सामान्य पुरुष, सैनिक, वृक्ष, बेल आदि आलंकारिक प्रतीक भी उत्कीर्ण मिलते हैं।
    • इन चित्रों के नीचे लेख खुदे हुये हैं जिनसे उनका समीकरणः स्थापित करने में पर्याप्त सहायता प्राप्त होती है।
    • यक्ष-यक्षिणियों में कुपिरो (कुबेर), वरुढक, सुपवश, सुचिलोम, अजकालक, सुदर्शनायक्षी, चूलकोका यक्षी, चन्द्रा यक्षी, सिरिमा (श्री माँ) देवता आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
    • एक चित्र में जल से निकलते हुए एरापत नागराज को सपरिवार बोधिवृक्ष की पूजा करते हुए दिखाया गया है। इसी प्रकार अलम्बुसा, मिश्रकेशी, सुदर्शना तथा सुभद्रा, इन चार अप्सराओं की प्रतिमायें उनके नाम सहित उत्कीर्ण हैं।
  • भरहुत के तोरणों की एक विशेषता यह है कि उनकी बड़ेरियों के दोनों गोल सिरों पर मगरमच्छ की आकृतियाँ बनी हुई हैं जिनके मुँह खुले हुये हैं तथा पूँछ गोलाकार है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के बीच में एक बड़ा धर्मचक्र स्थापित था तथा उनके दोनों ओर दो त्रिरत्न चिह्न लगाये गये थे।
  • तोरण वेदिका के ऊपर कुछ ऐतिहासिक चित्र भी अंकित हैं। जैसे :
    • एक दृश्य में कौशलनरेश प्रसेनजित को रथ में बैठे हुए तथा दूसरे दृश्य में मगधनरेश अजातशत्रु को भगवान बुद्ध की वन्दना करते हुये दिखाया गया है।
  • इसमें बुद्ध की मूर्ति कहीं नहीं मिलती, अपितु उनका अंकन स्तूप, धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, चरणपादुका, त्रिरत्न आदि प्रतीक चिह्नों के रूप रूप में मिलता है।
  • समग्र रूप से ये विविध चित्र धार्मिक विचारों एवं विश्वासों, वेष-भूषा, आचार-व्यवहार आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा उनका अंकन अत्यन्त सरल एवं प्रभावपूर्ण है। इन सभी दृश्यों में मानव जीवन की प्रफुल्लता एवं खुशहाली के दर्शन होते हैं।

बोधगया

  • बोधगया के विशाल मन्दिर के चारों ओर एक छोटी पाषाण वेदिका मिली है। इसका निर्माण भी शुंग काल में हुआ था। इस पर भी भरहुत के चित्रों के प्रकार के चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं। इन उत्कीर्ण चित्रों में कमल, राजा-रानी, पुरुष, पशु, बोधिवृक्ष, छत्र, त्रिरत्न, कल्पवृक्ष आदि प्रमुख हैं।
  • मानव आकृतियों के अंकन में कुछ अधिक कुशलता दिखायी गयी है। एक स्तम्भ पर शांलभंजिका तथा दूसरे पर इन्द्र का चित्र उत्कीर्ण है। इसी प्रकार रथारूढ़ सूर्य तथा श्रीलक्ष्मी का अंकन भी मिलता है। छछन्त, पैदकुसलमाणव, वैस्सन्तर, किन्नर आदि जातक ग्रन्थों से ली गयी कथाओं को भी उत्कीर्ण किया गया है। अनेक काल्पनिक पशुओं (ईहा, मृगों), जैसे सपक्ष सिंह, अश्व तथा हाथी, नरमच्छ, वृषभ, बकरे, भेड़, मगरमच्छ इत्यादि का अंकन है। एक स्तम्भ पर गजमच्छ पर सवार पुरुष तथा सिंहमुख मगरमच्छ की मूर्ति बनी है। सभी रचनायें अत्यन्त कलापूर्ण है।

साँची का स्तूप

साँची की पहाड़ी रायसेन (म० प्र०) जिला मुख्यालय से २५ किमी० की दूरी पर ऐतिहासिक नगरी विदिशा के समीप स्थित है। यहाँ पर तीन स्तूपों का निर्माण हुआ है। इसमें एक विशाल तथा दो छोटे स्तूप हैं। महास्तूप में भगवान बुद्ध के, द्वितीया में अशोककालीन धर्मप्रचारकों के तथा तृतीय स्तूप में भगवान बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों – सारिपुत्र तथा महामोद‌ग्ल्यायन के धातु-अवशेष सुरक्षित हैं।

मौर्यकालीन कला

  • साँची का पहला स्तूप या महास्तूप
    • महास्तूप का निर्माण सम्राट अशोक के समय में ईंटों की सहायता से किया गया था तथा उनके चारों ओर काष्ठ की वेदिका बनी थी।
    • शुंग काल में उसे पाषाण पट्टिकाओं से जड़ा गया तथा वेदिका भी पत्थर की ही बनायी गयी। स्तूप का व्यास 126 फुट तथा उसकी ऊँचाई ५४ फुट कर दी गयी जिससे इसका आकार पहले से द्विगुणित हो गया।
    • सातवाहन युग में वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण लगा दिये गये।
    • महास्तूप में तीन मेधियाँ थीं जो भूमितल, मध्य भाग तथा हर्मिका पर थीं। इसका अण्ड उल्टे कटोरे के सदृश है। मध्य की मेधि भूमि से १६ फीट ऊँची है। इस पर बीच का प्रदक्षिणापथ बना हुआ था। भूमितल पर स्तूप के चतुर्दिक् पत्थर का फर्श है जिस पर गोल वेदिका है। वेदिका सादी तथा अलंकरणरहित है। इस प्रकार यह भरहुत की वेदिका से भिन्न है। इसके स्तम्भ, सूची तथा उष्णीशों पर भी किसी प्रकार का अलंकरण नहीं है। वस्तुतः यहाँ के तोरण अत्यन्त सुन्दर, कलापूर्ण एवं आकर्षक हैं और वे कला के इतिहास में अपनी सानी नहीं रखते। तोरण महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों से परिपूर्ण हैं तथा उन्हें नीचे से ऊपर तक अलंकरणों से सजाया गया है। ‘वे अपनी वास्तु से अधिक उत्कीर्ण अलंकरणों के लिये ही प्रसिद्ध हैं।’

“The Sanchi gateways are perhaps more noteworthy for their carved ornamentation than their architecture.” — The Wonder that was India, p. 351-52 : A.L.Basham

    • लगभग ३४ फुट ऊँचे इन तोरण में दो सीधे स्तम्भ लगे हैं। उन पर तीन मेहराबदार बड़ेरियाँ लगायी गयी हैं जो एक दूसरे के ऊपर समतलीय रूप से रखी हुई हैं। स्तम्भों के ऊपर चौकोर चौकियाँ हैं जिन पर बौने, हाथी, बैल या सिंह की प्रतिमायें उत्कीर्ण मिलती है।
    • स्तूप के तोरणों पर विविध प्रकार की आकृतियाँ उत्कीर्ण है। बड़ेरियों पर अलग से सिंह, हाथी, धर्मचक्र, यक्ष तथा त्रिरत्न के चित्र खुदे हुये है।
    • स्तम्भों के निचले भाग में दोनों ओर द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ हैं। स्तम्भ तथा नीचे की बड़ेरी के बाहरी कोनों में सघन वृक्षों के नीचे शाखाओं का सहारा लेकर भंगिमापूर्ण मुद्रा में खड़ी हुई स्त्रियों की मूर्तियाँ है जिन्हें ‘शालभंजिका’ कहा गया है। ये अत्यन्त आकर्षक हैं। शालभंजिका मूर्तियाँ तीनों बड़ेरियों के चौकोर किनारों पर बनी हुई गजलक्ष्मी मूर्तियों के पार्श्व भाग में भी बनायी गयी है। अन्तिम सिरों पर स्तूप-पूजा, वृक्ष-पूजा, चक्र-पूजा के दृश्यों के साथ ही साथ हाथी, मृग, कमलवेलि, पीपल आदि अनेक आकृतियाँ खुदी हुई हैं।
    • बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित विविध दृश्यों का अंकन साँची शिल्प में भरहुत की अपेक्षा अधिक मिलता है। शिल्पी ने उनके अलौकिक कर्मों, जैसे – आकाश गमन, जल संतरण, काश्यप आश्रम में जल और अग्नि में प्रवेश आदि की उकेरी में अधिक रुचि दिखायी है।
    • ऐतिहासिक दृश्यों में मगध नरेश अजातशत्रु अथवा कोशल नरेश प्रसेनजित का बुद्ध के दर्शन हेतु आना, शुद्धोधन का नगर के बाहर निकलकर बुद्ध का स्वागत करना, अशोक का वोधिवृक्ष के पास जाना आदि का अंकन मिलता है।
    • भगवान बुद्ध के जीवन की घटनाओं को विविध प्रतीकों के माध्यम से दर्शाया गया है। बोधिवृक्ष, धर्मचक्र तथा स्तूप पूजा के दृश्यों को बारम्बार उत्कीर्ण किया गया है। ये क्रमशः ज्ञानप्राप्ति, प्रथमोपदेश तथा महापरिनिर्वाण के प्रतीक हैं।
    • यहाँ आसन, त्रिरत्न, पदचिह्न आदि का भी अंकन मिलता है।
    • ये सभी अंकन अत्यन्त उत्कृष्ट एवं कलापूर्ण हैं।
  • जन्म – पद्म
  • बोधिवृक्ष – ज्ञान प्राप्ति
  • धर्मचक्र – प्रथम उपदेश
  • स्तूप – महापरिनिर्वाण
  • साँची का द्वितीय स्तूप
    • साँची के द्वितीय स्तूप का वास्तु भी महास्तूप के ही समान है।
    • इसमें कोई तोरण द्वार नहीं है
    • इसकी वेदिका पर बहुत चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं।
    • इसमें तीन वेदिकायें थीं — एक भूमितल पर, दूसरी मध्य में तथा तीसरी हर्मिका पर।
    • भूमितल की वेदिका उत्कीर्ण चित्रों से भरपूर है जबकि महास्तूप के भूमितल की वेदिका पर कोई अलंकरण नहीं मिलता और यह बिल्कुल सादी है।
    • इस पर प्रायः वे सभी दृश्य उत्कीर्ण हैं जो महास्तूप के तोरणों पर मिलते हैं।
    • इसमें बुद्ध के जीवन से संबंधित चार दृश्यों जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन तथा महापरिनिर्वाण का अंकन प्रमुख है जिन्हें चार प्रतीकों पद्म, पीपल वृक्ष चक्र तथा स्तूप के माध्यम से उत्कीर्ण किया गया है।
    • साथ ही साथ त्रिरत्न, श्रीवत्स, सिंहध्वज, गजस्तम्भु आदि का अंकन भी मिलता है।
    • इन अलंकरणों के कारण यह स्तूप सम्पूर्ण भारतीय कला के इतिहास में महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
  • साँची का तृतीय स्तूप
    • तृतीय स्तूप में मात्र एक ही तोरणद्वार बना है
    • यह अपेक्षाकृत परवर्ती रचना है तथा उत्कीर्ण अलंकरणों से युक्त है।
    • इसकी वेदिका पर भी सुन्दर उत्कीर्णन किया गया है। मालाधारी यक्ष-मूर्तियों के साथ-साथ यहाँ स्तूप-पूजा, बोधिवृक्ष-पूजा, चक्र, स्तम्भ, गजलक्ष्मी, नाग, अश्व, हाथी इत्यादि के दृश्यांकन अत्यन्त आकर्षक एवं कलात्मक ढंग से किया गया है।

इस प्रकार साँची के तीनों स्तूप सुरक्षित अवस्था में हैं तथा भारतीय बौद्ध स्मारकों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं। उन पर की गयी नक्काशी भारतीय कलाकारों की महानतम रचना है।

तत्कालीन समाज की बहुरंगी झाँकी इनमें सुरक्षित है। प्राचीन भारतीय वेशभूषा के ज्ञान के लिये भी साँची की कलाकृतियाँ बड़ी उपयोगी हैं। ईस्वी सन् के प्रारम्भ एवं उसके पूर्ववर्ती समाज के भारतीय जन-जीवन का ये दर्पण है।

स्तम्भ

  • इसके अन्तर्गत बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त हेलियोडोरस के गरुड़स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है जिसे जनरल कनिंघम ने १८७७ ई० में खोजा था।
  • इसके पूर्व समीपवर्ती गाँवों के निवासी इसकी पूजा किया करते थे। शिल्प कला की दृष्टि से यह स्तम्भ अत्यन्त सुन्दर है।
  • यह हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम प्रस्तर स्तम्भ है।
  • इसका धुरा आधार पर अठपहला है तथा यह एकाश्मक रचना है। इसके मध्य भाग तथा ऊपरी भाग में क्रमशः १९ और ३२ किनारे है। शीर्ष भाग घण्टे के आकार का है। सबसे ऊपर, मुकुट के समान ताड़ के पत्तों का अलंकरण है। सम्पूर्ण निर्माण कलापूर्ण एवं आकर्षक है।

मथुरा शैलगृह

  • शुंगकाल में ही शोडास के शासनकाल में मथुरा में शैल देवगृह तथा चतुःशाल तोरण बनाये गये।

नगरी का देवस्थल

  • इस काल का एक दूसरा केन्द्र नगरी (चित्तौड़ के पास) नामक स्थान पर है जहाँ नारायणवाटक या संकर्षणवासुदेव का खुला देवस्थल निर्मित कर उसके चारों ओर शिलाप्राकार (पत्थर की वेदिका) बनायी गयी। यह ९.६ फीट ऊँचा था।
  • इसका निर्माता ‘सर्वतात’ नामक प्रतापी राजा था। भण्डारकर की मान्यता है कि यह संभवतः कण्ववंश से सम्बन्धित था जो शुंगों के उत्तराधिकारी थे। हिन्दू मन्दिर का आदि रूप इस ‘पूजा शिलाप्राकार’ में दिखायी देता है

मृण्मूर्तियाँ

  • उपर्युक्त कलाकृतियों के अतिरिक्त शुंग काल की बहुसंख्यक मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
  • सबसे अधिक संख्या में मृण्मूर्तियाँ कौशाम्बी से प्राप्त हुई है।
  • पत्थर की मूर्तियाँ काफी कम मिलती हैं
  • इन मृण्मूर्तियों को साँचे में ढालकर तैयार किया गया है।
  • वस्तुतः कुम्भकारों ने मूर्ति बनाने के लिये साँचे का प्रयोग सर्वप्रथम शुंगकाल में ही किया
  • कौशाम्बी से प्राप्त सैकड़ों मूर्तियाँ इलाहाबाद संग्रहालय तथा विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है।
  • कलाविद् डॉ० एस० सी० काला ने इनका अध्ययन करके विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। — Terracotta Figurine from Kaushambi और Terracotta in Allahabad Museum.
  • यहाँ की मृण्मूर्तियों में सर्वाधिक सुन्दर एवं कलात्मक मिथुन (दम्पति) मूर्तियाँ हैं। एक ठीकरे पर बना हुआ आपान गोष्ठी का दृश्य उल्लेखनीय है जिसमें स्त्री-पुरुष आमने-सामने बेंत की कुर्सी पर बैठे हुए हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न मुद्राओं में स्त्री-पुरुषों की मूर्तियाँ मिलती है। लीला कमल हाथ में लिये स्त्री, हँसती हुई नर्तकी तथा श्रीलक्ष्मी की मूर्तियाँ काफी प्रसिद्ध है। कौशाम्बी से श्रीलक्ष्मी की कई मृण्मूर्तियाँ मिली हैं।
  • एक अन्य मूर्ति जो ऑक्सफोर्ड के भारतीय संग्रहालय में रखी गयी है, के सिर पर कमल पुष्प का गुच्छा है और दोनों ओर मंगल सूचक चिह्न बनाये गये हैं। इनसे उसका देवी होना सूचित होता है। इसे ‘सौन्दर्य की देवी श्रीलक्ष्मी’ कहा गया है।

शुंग राजवंश (The Shunga Dynasty)

कण्व राजवंश (The Kanva Dynasty)

मौर्यकालीन कला और स्थापत्य

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