महाकाव्य काल

भूमिका

महाकाव्य काल से तात्पर्य रामायण और महाभारत के समय से है। भारतीय लोक-जीवन में इन दोनों ही ग्रन्थों का अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान है। रामायण हमारा आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी। महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी।

यद्यपि इसके घटनाक्रम का सम्बन्ध बहुत पहले हो चुका था और इन दोनों महाकाव्यों का संकलन एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। इन दोनों महाकाव्यों का अंतिम संकलन ‘गुप्तकाल’ में हुआ।

यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों की ऐतिहासिकता संदिग्ध हैं इनके समय को ‘छद्मकाल’ (Pseudo Period) कहा जाता है।

रामायण-महाभारत में वर्णित स्थानों — हस्तिनापुर, अयोध्या, शृंगवेरपुर आदि पर प्रो० बी० बी० लाल द्वारा खुदाइयाँ करायी गयीं हैं। किन्तु इन स्थलों से प्राप्त सामग्री ग्रन्थों में वर्णित सभ्यता से मेल नहीं खाती। सम्भव है प्रो० लाल के प्रयासों के फलस्वरूप भविष्य में कोई निर्णायक सामग्री प्राप्त हो जाय।

रामायण

रामायण में दिये गये भौगोलिक विवरणों के आधार पर यह महाभारत से प्राचीनतर प्रतीत होता है। महाभारत में वाल्मीकि का न केवल उल्लेख है, अपितु रामायण की संक्षिप्त कथा भी मिलती है। हरिवंश में रामायण के नाटकीय प्रदर्शन का भी वितरण है। इन सबसे यहाँ प्रतिपादित होता है कि महाभारत के वर्तमान स्वरूप में आने के पूर्व ही रामायण एक प्रसिद्ध ग्रन्थ बन चुका था। इसीलिए रामायण को ‘आदि महाकाव्य’ या ‘आर्ष महाकाव्य’ कहा जाता है और इसके संकलनकर्ता या रचनाकार महर्षि ‘वाल्मीकि’ को आदिकवि।

रामायण की रचना-काल के विषय में पर्याप्त मतभेद है। विन्टरनित्स का विचार है कि मूलतः इस ग्रन्थ की रचना ई० पू० चौथी शताब्दी में हुई तथा इसका अन्तिम स्वरूप दूसरी शताब्दी ईस्वी के लगभग निश्चित हुआ था।

रामायण के रचयिता महर्षि ‘वाल्मीकि’ हैं, उन्होंने संस्कृति भाषा में इसका संकलन चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में किया।

रामायण की कथा जगत्प्रसिद्ध ‘अयोध्या’ से प्रारम्भ होती है और ‘मिथिला’ ( बिहार ) होते हुए सम्पूर्ण भारतवर्ष को समेटते हुए श्रीलंका तक पहुँचती है। गुप्तकाल में रामायण की कथा का प्रसार दक्षिण पूर्व एशिया तक हो जाता है। रामायण की लोकप्रियता इतनी है कि भारतवर्ष की चेतना और संस्कृति के प्रतीक ‘श्रीराम’ हैं। इसका प्रमाण यह है कि बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म सबमें रामकथा किसी न किसी रूप में कही गयी है। इसके प्रभाव इतना है कि निर्गुण मार्गी भी इससे नहीं बच पाये हैं क्योंकि वे कबीर हो या गुरुग्रंथ साहब सब जगह रामनाम की अनुगूँज बार-बार प्रतिध्वनित होती है।

प्रारम्भ में रामायण में ६,००० श्लोक थे, परन्तु बाद में इसकी संख्या १२,००० और अंततः २४,००० हो गयी। सम्प्रति इसमें चौबीस हजार श्लोक हैं जिससे इसे ‘चतुर्विंशति साहत्री संहिता’ कहा जाता है।

रामायण की लोकप्रियता के कारण ही इसको अन्य भाषाओं में अनूदित किया गया है :—

  • तमिल भाषा : चोल शासक ‘कुलोतुंग तृतीय’ के समय में ‘कम्बन’ ने इसका अनुवाद तमिल भाषा में ‘रामायणम् या रामावतारम्’ नाम से किया।
  • बंगला भाषा : बंगाल के शासक ‘बारबक शाह’ के शासनकाल में ‘कृत्तिवास’ ने रामायण का बंगाली भाषा में अनुवाद किया। इसे बंगाली भाषा का पंचम वेद अथवा बाइबिल कहा जाता है।
  • फारसी भाषा : अकबर के शासनकाल में उसके कट्टर आलोचक ‘बदायुँनी’ ने रामायण का फारसी भाषा में ‘रम्मनामा’ नाम से किया।
  • अवधी भाषा : अकबर के शासनकाल में गोस्वामी तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के आदर्श चरित्र को अवधी भाषा में ‘श्रीरामचरितमानस’ के माध्यम से गाया है। प्रसिद्ध विद्वान ‘जार्ज ग्रियर्सन’ ने श्रीरामचरितमानस को करोड़ों लोगों की एकमात्र बाइबिल बताया है। जहाँ श्रीराम भारतीय चेतना और संस्कृति के प्रतीक है तो गोस्वामी तुलसीदास उस लोकचेतना और संस्कृति के गायक हैं। श्रीरामचरितमानस भारतीय संस्कृति का विश्वकोश है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान आप इस तरह लगा सकते हैं कि यह सुबह स्मरणीय काव्य है। यहाँ यह बात उल्लेखनीय भी है और विस्मयकारी भी कि जहाँ एक ओर अबुल फजल कृत ‘अइन-ए-अकबरी’ में तत्कालीन कवियों का विवरण मिलता है वहीं गोस्वामी तुलसीदास का उल्लेख नहीं किया गया है।

भगवान राम का चरित्र भारतीय जनमानस में इस तरह समा गया है कि वे भारतीयता की पहचान हैं। इसीलिए जब किसी को भारतीयता पर आक्रमण करना होता है या यहाँ की संस्कृति की आलोचना करनी होती है तो वे ‘श्रीराम’ को चुनते हैं। यह प्रक्रिया ज्ञात इतिहास में हमेशा होती रही है। इसी प्रक्रिया के हिस्सा बनते हैं २०वीं शती में ‘रामस्वामी नायकर’। रामास्वामी नायकर ‘सच्ची रामायण’ लिखते हैं जिसमें वे रावण का महिमामण्डन करते हैं। यह बात और समझ में आती है जब हम वर्तमान में हो रही घटनाओं पर दृष्टि डालते हैं। अभी हाल में ही ओम राउत निर्देशित ‘आदिपुरुष’ नामक फ़िल्म आयी है जिसमें कुछ इसी तरह का प्रयास देखने को मिलता है। परन्तु ऐसी शर्करा लेपित ( Sugar coated ) प्रयास के विरुध्द भारतीय जनमानस की प्रतिक्रिया यह स्पष्ट कर देती है कि ‘श्रीराम’ भारतीयता में किस तरह समाये हुए हैं।

महाभारत

महर्षि ‘वेदव्यास’ द्वारा संकलित महाभारत की रचना का मूल समय भी ई० पू० चौथी शताब्दी माना गया है परन्तु इसके संकलन का कार्य नवीं शताब्दी ई० पू० में ही प्रारम्भ हो गया था। इसके वर्तमान स्वरूप की तिथि चौथी शताब्दी ईस्वी निर्धारित की जाती है।

प्रारम्भ में महाभारत में ८,८०० श्लोक थे और इसका नाम ‘जयसंहिता’ था। जब इसके श्लोकों की संख्या बढ़कर २४,००० हो गयी तब इसे ‘भारत’ कहा गया। अंततः इससे श्लोकों की संख्या बढ़कर १०० हजार या एक लाख हो गयी तब इसे ‘महाभारत’ गया। सम्प्रति महाभारत में एक लाख श्लोकों का संग्रह है जिसके कारण इसे “शतसाहस्त्र संहिता’ कहा जाता है। वर्तमान में महाभारत विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है।

महाभारत का यह दावा किया गया है कि – ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष विषय में जो इसमें नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं है तथा जो इसमें है वही अन्यत्र भी है।’*

‘धर्मे अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।

यदिहास्तितदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्॥*

महाभारत – १/५६/३३

महाभारत का युद्ध १८ दिनों तक चला इसीलिये यह कुल १८ पर्वों में बाँटा गया है —

१. आदि पर्व

२. सभा पर्व

३. वन पर्व

४. विराट पर्व

५. उद्योग पर्व

६. भीष्म पर्व — श्रीमद्भगवद्गीता इसी का भाग है।

७. द्रोण पर्व

८. कर्ण पर्व

९. शल्य पर्व

१०. सौप्तक पर्व

११. स्त्री पर्व

१२. शान्ति पर्व

१३. अनुशासन पर्व

१४. अश्वमेध पर्व

१५. आश्रमवासी पर्व

१६. मौसल पर्व

१७. महाप्रस्थानिक पर्व

१८. स्वर्गारोहण पर्व

  • इन १८ पर्वों के अतिरिक्त ‘हरिवंश’ इसका परिशिष्ट ( खिल पर्व ) के रूप में है। इसमें श्रीकृष्ण के वंश की कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है।

महाभारत के ६ठें पर्व का भाग ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है। इसमें भक्ति, ज्ञान और कर्म की समन्वय रूप त्रिवेणी मिलती है। इसमें भी सर्वाधिक महत्त्व ‘कर्म’* को दिया गया है — ‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥’

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥२/४७॥*

महाभारत की लोकप्रियता के कारण इसका अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद किया गया; यथा —

  • तमिल भाषा : संगम काल में ‘विलिपुत्तुर’ ने महाभारत का अनुवाद तमिल भाषा में किया। पल्लवकाल में ‘पेरुन्देवनार’ ने तमिल भाषा में भारतम् या नन्दिक्लम्बकम् नाम से अनुवाद किया।
  • बंगला भाषा : बंगाल के शासक नुसरत शाह के शासनकाल में ‘काशीदास’ ने इसका अनुवाद किया यद्यपि इस अनुवाद की शुरुआत नुसरत शाह के पिता अलाउद्दीन हुसैन शाह के समय पर ही हो गयी थी।
  • फारसी भाषा : अकबर के शासनकाल में इसका अनुवाद ‘रज्बनामा’ नाम फारसी भाषा में किया गया। इसका अनुवाद विद्वानों के एक वर्ग ने किया जिसका नेतृत्व अबुल फजल के अग्रज फैजी ने किया था। इस विद्वत्मण्डल में फैजी के अतिरिक्त बदायुँनी, नकीब खाँ, अबुल फजल आदि शामिल थे।

श्रीमद्भगवद्गीता में भक्ति का विस्तृत विवरण मिलता है और अवतारवाद का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। दाराशिकोह ने इसका फारसी भाषा में अनुवाद किया।

महाकाव्य काल : संस्कृति

इन दोनों ही महाकाव्यों में प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति की झाँकी सुरक्षित है। कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा है कि ये पूर्णतया लाक्षणिक ग्रन्थ (Allegorical works) है जिनमें कोई ऐतिहासिक सामग्री नहीं है। परन्तु सहसा इस प्रकार के निष्कर्ष पर पहुँच जाना सत्य से परे होगा। इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों ग्रन्थों में अनेक अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण भरे पड़े है तथापि केवल इसी आधार पर इन्हें पूर्णतया अनैतिहासिक नहीं कहा जा सकता। आजकल अधिकांश विद्वान् महाभारत युद्ध को एक ऐतिहासिक घटना मानते हुए उसकी तिथि ई० पू० १४०० से १००० के बीच निर्धारित करते है। इस तिथि के काफी बाद ग्रन्थ का प्रणयन हुआ होगा।

इन दोनों महाकाव्यों में वर्णित राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक दशाओं के आधार पर भारतीय संकृति का मोटेतौर पर एक खाका बनता है। जिसका विवरण निम्नलिखित है :

राजनीतिक दशा

महाकाव्य काल तक आते-आते आर्यों का प्रसार पूर्व की ओर अंग तक हो गया। देश में बड़े-बड़े राज्यों को स्थापना हुई। कुरु, पञ्चाल, कौशाम्बी, कोशल, काशी, विदेह, मगध, अङ्ग इस युग के विशाल राज्य थे। राजा, महाराजाधिराज, सम्राट, चक्रवर्ती जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करते थे। राजा चतुरंगिणी सेना रखते थे जिसमें अश्व, गज, रथ तथा पैदल सैनिक होते थे। वे दिग्विजयी होते थे तथा दिग्विजय के पश्चात् राजसूय, अश्वमेध आदि यज्ञों के अनुष्ठान करते थे। श्रीराम एवं युधिष्ठिर ने ऐसे यज्ञ किये थे।

राजपद वंशानुगत होता है। परन्तु ज्येष्ठ पुत्र यदि शरीर से दोषपूर्ण होता था तो उसे राजपद नहीं किया जाता था, जैसे- महाभारत में धृतराष्ट्र को अन्धा होने के कारण राजा नहीं बनाया गया।

राजा धर्मानुकूल शासन करते थे और वे निरंकुश नहीं होते थे। अभिषेक के अवसर पर राजा को प्रजा पालन की शपथ लेनी पड़ती थी। महाभारत स्पष्टतः अन्यायी एवं दुराचारी शासकों के वध करने की अनुमति प्रदान करता है।* इसमें हमें वेणु, नहुष, निमि, सुदास जैसे राजाओं के नाम मिलते है जो अत्याचारी होने के कारण अपनी प्रजा द्वारा मार डाले गये थे।

“अरक्षितार हर्तारं विलोप्तारं नायकम्।

तं वै राजकलिं हन्युः प्रजाः संसह्य निर्घृणम्॥”*

महाभारत – (१३/३६/३५/६)

राजा मंत्रिपरिषद् की सलाह पर शासन कार्य करता था। रामायण में मन्त्रियों के अतिरिक्त विद्वान् व्यक्तियों तथा प्रमुख सैनिक पदाधिकारियों का उल्लेख है जो शासन में राजा को परामर्श देते थे। राम के उत्तराधिकारी निर्वाचित होने के समय प्रमुख पुरुषों की एक सभा हुई थी। अयोध्याकाण्ड (१०९/४५) में प्रशासन के १८ विभागों का उल्लेख हुआ है जो निम्नलिखित अधिकारियों के अधीन थे —

(१) मन्त्री (मुख्य सलाहकार)

(२) पुरोहित

(३) युवराज

(४) चमूपति (मुख्य सेनापति)

(५) द्वारपाल

(६) अन्तर्वेशिक (अन्तपुर का निरीक्षण)

(७) कारागार अधिकारी

(८) द्रव्य संचयकृत (राजभवन का मुख्य परिचारक)

(९) विनियोजक (मुख्य कार्याधिकारी)

(१०) प्रदेष्टा (मुख्य न्यायाधीश)

(११) नगराध्यक्ष

(१२) कार्य निर्माण कृत (मुख्य अभियन्ता)

(१३) धर्माध्यक्ष

(१४) सभाध्यक्ष

(१५) दण्डपाल

(१६) दुर्गपाल

(१७) राष्ट्रान्तपालक (सीमारक्षक) तथा

(१८) अटवीपाल (अरण्य संरक्षक)।

महाभारत में भी मन्त्रियों का उल्लेख मिलता है। एक स्थान पर बताया गया है कि जिस प्रकार पशु मेघ पर, स्त्री अपने पति पर तथा ब्राह्मण वेद पर निर्भर करते हैं उसी प्रकार राजा अपने मन्त्रियों पर निर्भर करता है। इस ग्रन्थ में मन्त्रियों की संख्या ३६ बतायी गयी है जो चारों वर्णों से लिये जाते थे। प्रशासन में पुरोहितों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता था।

इन विभागों को ‘तीर्थ’ कहा जाता था। महाकाव्य काल में मुख्य रूप से राजतन्त्र का बोल-बाला था। महाभारत में पाँच गणतन्त्रात्मक राज्यों का भी उल्लेख मिलता है – अन्धक, वृष्णि, यादव, कुकुर तथा भोज इन पाँचों का एक संघ था जिसके अध्यक्ष श्रीकृष्ण थे। इस संघ के अन्तर्गत प्रत्येक गण को स्वायत्त शासन प्राप्त था।

सामाजिक दशा

महाकाव्य कालीन समाज भी ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’ पर आधारित था। ऋग्वेद के समान रामायण में भी बताया गया है कि ‘विराट पुरुष के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उरुभाग से वैश्य तथा पैरों से शुद्र वर्णों की उत्पत्ति हुई।’*

मुखतो ब्राह्मण जाता उरसः क्षात्रयास्तथा।

उरुभ्याँ जज्ञिरे वैश्य पद्भ्याम् शूद्राः॥*

रामायण — (३/१४/२९-३०)

चारों वर्णों में ब्राह्मण अब भी सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। रामायण तथा महाभारत में ब्राह्मणों की कयी श्रेणियाँ बतायी गयी हैं। कुछ ब्राह्मण क्षत्रियों का काम करते तथा कुछ लोग कृषि तथा पशुपालन द्वारा भी अपनी जीविका चलाते थे।

सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों का स्थान सबसे नीचे था। उन्हें न तो तपस्या का अधिकार था और न वे विद्याध्ययन के लिये गुरुकुलों में ही जा सकते थे। रामायण में शम्बूक नामक एक शूद्र का उल्लेख हुआ है जो अनाधिकार तप करने के कारण स्वयं राम के हाथों मारा गया। इसी प्रकार एकलव्य नामक निषाद बालक को द्रोणाचार्य ने शिक्षा देने से इंकार कर दिया तथा अपनी निष्ठा एवं लगन से जब उसने स्वयं हो धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली तो छल से उसके दायें हाथ का अँगूठा कटवा दिया था।

परन्तु इस काल में हमें शुद्रों की स्थिति में सुधार के भी चिह्न मिलते हैं। शान्तिपर्व में जोर देकर कहा गया है कि शूद्र सेवकों का भरण-पोषण करना द्विज का कर्तव्य है। यह भी पता चलता है कि मन्त्रिपरिषद् में शुद्र प्रतिनिधि रखे जाते थे। युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर शुद्र प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया था। सर्वप्रथम शान्तिपर्व में ही यह विधान मिलता है कि चारों वर्णों को वेद सुनना चाहिए तथा शूद्र से भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। महाभारत में विदुर, मातंग, कायव्य आदि व्यक्तियों के नाम ऐसे हैं जो जन्मना शुद्र होते हुए भी समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किये हुए थे। सेवावृत्ति के अतिरिक्त उन्हें ‘वार्ता’ अर्थात् कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि का भी अधिकार था।

वर्ण क्रमश: कठोर होकर जातियों का रूप लेने लगे थे। परम्परागत चारों वर्णों के अतिरिक्त समाज में अनेक जातियाँ उत्पन्न हो गयी थीं। रामायण में यवन, शक तथा महाभारत में यवन, शक, किरात, पह्लव, हूण आदि विदेशी जातियों का भी उल्लेख मिलता है।

समाज में चारों आश्रमों का विधान इस युग में भी देखने को मिलता है। शान्तिपर्व में चारों आश्रमों को ब्रह्मलोक में पहुँचने के मार्ग में चार सोपान बताया गया है।* चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम का सर्वाधिक महत्त्व था।

चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता।

एतां आरुह्म निःश्रेणीम् ब्रह्मलोके महीयते॥*

महाभारत; शान्तिपर्व – (२४२/१५)

महाकाव्य काल में स्त्रियों की दशा वैदिक काल की अपेक्षा हीन थी। फिर भी समाज में उनके महत्त्व को समझा गया था। बाल विवाह नहीं होते थे। उच्च वर्ग की महिलायें पर्याप्त शिक्षिता होती थीं। रामायण में कौशल्या और तारा को ‘मंत्रविद्’ कहा गया है। अत्रेयी वेदान्त का अध्ययन करती हुई तथा सीता संध्या करती हुई दिखायी गयी है।

महाभारत में द्रौपदी को ‘पण्डिता’ कहा गया है। वह युधिष्ठिर तथा भीष्म से धर्म एवं नैतिकता के ऊपर वार्तालाप करती हैं। महाभारत स्त्री को धर्म, अर्थ तथा काम का मूल बताता है।* अनुशासन पर्व में कहा गया है कि स्त्रियाँ समृद्धि की देवी है। अतः समृद्धि चाहने वाले व्यक्ति को उनका सम्मान करना चाहिये।

भार्या मूलं त्रिवर्गस्य ……।*

महाभारत; आदिपर्व – (७४/४०)

समाज में बहुविवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह का प्रचलन था। उच्चकुल के लोग अनेक पत्नियाँ रखते थे। क्षत्रिय कुलों में विवाह स्वयंवर प्रथा द्वारा होते थे। नियोग की प्रथा भी प्रचलित थी जिसमें पति के नपुंसक अथवा रुग्ण होने पर पत्नी परपुरुष के साथ सन्तानोत्पत्ति हेतु सम्पर्क कर सकती थीं।

महाभारत में सती-प्रथा के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं; यथा – अपने पति पाण्डु के साथ सती हो गयी थीं। परन्तु कई उदाहरण ऐसे भी है जहाँ स्त्रियों ने अपने पतियों को मृत्यु के बाद सतीत्व का अनुसरण नहीं किया। अभिमन्यु, घटोत्कच तथा द्रोण की पत्नियाँ सती नहीं हुई। हजारों यादव विधवाओं का भी उल्लेख मिलता है जो अर्जुन के साथ हस्तिनापुर तक गयी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि शक-सीथियनों के आक्रमण के फलस्वरूप समाज में सती-प्रथा का प्रचार धीरे-धीरे बढ़ने लगा था।

कहीं-कहीं पर्दा प्रथा के उदाहरण भी मिलते हैं। इस पर भी विदेशी आक्रमण का ही प्रभाव था। महाभारत में वेश्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं।

आर्थिक दशा

महाकाव्य काल में भी कृषि और पशुपालन आर्थिक जीवन के प्रमुख आधार थे। हलों द्वारा कृषि होती थी जिन्हें बैलों की सहायता से खींचा जाता था। रामायण में राजा जनक को तथा महाभारत में युधिष्ठिर को हल चलाते हुए दिखाया गया है। इससे कृषि की महत्ता प्रतिपादित होती है।

सिंचाई के लिये लोगों को अधिकतर वर्षा पर ही निर्भर रहना पढ़ता था। सिंचाई के लिये ‘कुल्याओं’ (छोटी नहरों) का भी उल्लेख मिलता है। राज्य कृषि को उन्नति की ओर विशेष ध्यान देता था। कृषि में उत्पन्न होने वाली प्रमुख फसलें गेहूँ, जौ, उड़द, चना, तिल आदि थी। भूमि उपजाऊ थी।

पशुओं में गाय, बैल, हाथी, घोड़े आदि प्रमुख थे। पशुओं की देख-रेख के लिये ‘गोपाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी राज्य की ओर से नियुक्त किया गया था।

कृषि एवं पशुपालन के साथ-साथ व्यवसाय एवं व्यापार भी उन्नति पर थे। महाभारत में अनेक व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है जो विभिन्न स्थानों में श्रेणियाँ बनाकार निवास करते थे। प्रमुख व्यवसायियों में स्वर्णकार, लौहकार, बढ़ई, खनक, कुम्भकार, चर्मकार, रजक, शौण्डिक, तन्तुवाय, कम्बलकार, वैद्य, मालाकार, नापित आदि का उल्लेख किया जा सकता है। अनेक व्यवसायी अपने शिल्पों में निपुणता भी प्राप्त कर चुके थे। हाथीदाँत, स्वर्ण, मणि तथा विविध रत्नों से सुन्दर आभूषण बनाये जाते थे। आन्तरिक तथा वाह्य दोनों हो व्यापार उन्नति पर थे। व्यापार मुख्यतः वैश्य जाति के लोग ही करते थे।

रामायण में ‘यवदीप‘ तथा ‘सुवर्ण द्वीप’ का उल्लेख हुआ है जहाँ व्यापार के प्रसंग में भारतीय जाया करते थे। महाभारत में भी समुद्री यात्राओं, द्वीपों, जलपोतों आदि का उल्लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि उस समय समुद्री व्यापार उन्नति पर था। कम्बोज, गन्धार, सिन्ध, प्राग्ज्योतिष (असम), विन्ध्यप्रदेश, चीन तथा बाह्लीक आदि देशों से व्यापार होता था तथा अनेक वस्तुएँ मँगायी जाती थी। कम्बोज तथा बाह्लीक अपने उत्तम घोड़ों के लिये विख्यात थे।

धार्मिक दशा

महाकाव्यों के समय तक आते-आते वैदिक धर्म का स्वरूप विल्कुल परिवर्तित हो गया। पूर्व वैदिक कालीन कर्मकाण्ड प्रधान तथा उत्तर वैदिक कालीन ज्ञान प्रधान धर्मों का समन्वय करके इस समय एक लोक धर्म का विकास किया गया जो सर्वसाधारण के लिये सुलभ था।

पुराने वैदिक देवताओं का महत्त्व कम हो गया तथा समाज में नये देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा हुई। इनमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, पार्वती, दुर्गा आदि के नाम उल्लेखनीय है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (शिव) को ‘त्रिमूर्ति‘ कहा गया तथा उन्हें क्रमशः सृष्टि का कर्त्ता, धर्ता एवं संहर्त्ता स्वीकार किया गया। शीघ्र हो ब्रह्मा का अस्तित्व समाप्त हो गया तथा विष्णु और शिव महाकाव्य कालीन धर्म के प्रमुख देवता रह गये।

धर्म में अवतारवाद एवं पुनर्जन्म की अवधारणाओं का समावेश हुआ। श्रीराम और श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार मान लिये गये। यह धारणा प्रचलित हुई कि अपने भक्तों की सहायता के लिये ईश्वर समय-समय पर पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। वह धर्म की स्थापना करते हैं, सज्जनों की रक्षा करते हैं तथा दुष्टों का विनाश करते हैं।

महाकाव्यों ने सामान्य जनता के समक्ष मोक्ष प्राप्ति का एक सरल उपाय प्रस्तुत किया गया। यह था भक्ति का साधन जो सभी के लिये समान रूप से सुलभ था। ईश्वर भक्ति से प्रसन्न होकर उपासक को सभी पापों से मुक्त कर अपनी शरण में ले लेता है।

महाभारत में पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म का वर्णन मिलता है। महाभारत में जोर देकर कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मान्यता के अनुसार धर्मपालन की स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसमें शैव तथा शाक्त धर्मों के प्रति सहिष्णुता तथा उदारता पर भी बल दिया गया है। श्रीमद्भागवदगीतामहाभारत के ‘भीष्मपर्व’ का अंश है। इसमें कर्म, भक्ति तथा ज्ञान इन तीनों का सुन्दर समन्वय मिलता है। गीता में कर्म की महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है —‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिये तू कर्मों के फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥*

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥*

श्रीमद्भागवदगीता – (२/४७)

भक्ति का महत्त्व बताते हुए श्रीकृष्ण स्वयं यह कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी ही शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।*

सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।

अहं त्वाम् सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः॥*

श्रीमद्भागवदगीता – ( १६/६६ )

रामायण तथा महाभारत में अनेक वैदिक यज्ञों का भी उल्लेख मिलता है। परन्तु यज्ञों में होने वाली हिंसा का विरोध किया गया। यज्ञ को इस समय मुख्यतः चित्त शुद्धि का एक साधन मात्र स्वीकार किया गया। इसके अतिरिक्त महाकाव्यों में सत्य, अहिंसा, सदाचार, तप, त्याग आदि के पालन का भी निदेश दिया गया है।

महाकाव्यों का मुख्य उद्देश्य समाज में सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा करना था। विभिन्न कथाओं तथा चरित्रों के माध्यम से ‘असत्य पर सत्य’ तथा ‘अन्याय पर न्याय’ की विजय प्रदर्शित की गयी है। रामायण में सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया गया है तथा कहा गया है कि यह चरित्र ही है जो मनुष्य को देवता की कोटि में पहुँचाता है। महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श कालातीत और प्रत्येक युग के लिये अनुकरणीय है।

प्राचीन भारतीय साहित्य

महाकाव्य काल की धार्मिक दशा

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