द्वितीय नगरीय क्रांति

भूमिका

भारतवर्ष में प्रथम नगरीय क्रांति सैन्धव सभ्यता थी। हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद लगभग १,००० वर्षोंपरांत वैदिक युग की समाप्ति के बाद गंगा घाटी में छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास ‘द्वितीय नगरीय क्रांति’ हुई। इस नगरीय क्रांति का तकनीकी आधार ‘लौह धातु’ का निरंतर बढ़ता प्रयोग था। तृतीय नगरीय क्रांति मध्यकाल में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ प्रारम्भ हुई।

नगरीय क्रांति के तत्त्व

नगरीय क्रांति शब्द का प्रयोग सबसे पहले गार्डन चाइल्ड कृत ‘The Urban Revolution’ में देखने को मिलता है। चाइल्ड महोदय ने नगरीय क्रांति के १० प्रमुख तत्त्वों का उल्लेख किया है –

१. बस्तियों का आकार ( increased settlement size )

२. धन का संकेंद्रण ( concentration of wealth )

३. बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निर्माण कार्य ( large scale public work )

४. लेखन कला ( writing )

५. प्रतिनिधित्व कला ( representational art )

६. विज्ञान और तकनीकी ज्ञान ( science & engineering )

७. विदेशी व्यापार ( foreign trade )

८. गैर-निर्वाह गतिविधियों में पूर्णकालिक विशेषज्ञ ( full-time specialists in non-subsistence activities )

९. वर्ग-स्तरीकृत समाज ( class stratified society )

१०. रिश्तेदारी के बजाय निवास आधारित राजनीतिक संगठन ( political organisation based on residence rather than kinship )

गार्डन चाइल्ड ने अपने विचार मेसोपोटामिया की सभ्यता के सम्बन्ध में व्यक्त किये थे। यह तत्त्व मोटेतौर पर हमें सैन्धव सभ्यता में भी देखने को मिलती है। परन्तु यह प्रत्येक सभ्यता के सम्बन्ध में सही नहीं है।

गंगा घाटी की नगरीय क्रांति में उपर्युक्त विशेषताएँ तो थीं ही साथ ही कुछ नये तत्त्व भी जुड़ गये; यथा मुद्रा का प्रचलन। इस तरह हम देखें तो गंगा घाटी की नगरीय क्रांति में निम्न तत्त्व विद्यमान मिलते हैं –

  • शासक वर्ग
  • धर्म और धार्मिक वास्तु ( भवन )
  • मुद्रा का प्रचलन
  • लेखन कला
  • विदेशी व्यापार, व्यापार और वाणिज्य
  • सुव्यवस्थित राजस्व व्यवस्था जिससे कि उत्पादन अधिशेष जो सुचारू रूप से शासक वर्ग तक पहुँचता रहे और नागर जनसंख्या का भरण पोषण हो सके

द्वितीय नगरीय क्रांति की विशेषताएँ

मध्य गंगा में हुई ‘दूसरी नगरीय क्रांति’ की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं –

  • नगरों का विकास
  • धार्मिक आन्दोलन व शासकों का इसको समर्थन
  • लिपि कला
  • सिक्कों का प्रचलन
  • श्रेणियाँ
  • व्यापार और वाणिज्य
  • राजस्व व्यवस्था

नगरों का विकास

छठी शताब्दी ई० पू० में मध्य गंगा घाटी में नगरों का तेजी से विकास हुआ। हमें प्रारम्भिक बौद्ध साहित्यों ( महापरिनिर्वाणसूत्र ) में ६ प्रसिद्ध नगरों का उल्लेख मिलता है :

१. चम्पा

२. राजगृह

३. श्रावस्ती

४. साकेत

५. वाराणसी

६. कौशाम्बी

इन छः नगरों में वाराणसी वर्तमान में उसी स्थान और अवस्था में विद्यमान है। इसलिये इसे वर्तमान में भारतवर्ष का प्राचीनतम् नगर माना जाता है।

धार्मिक आन्दोलन

ईसा पूर्व ६ठी शताब्दी में उत्तर भारत की मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। इन मत-मतांतरों और दर्शनों धीरे-धीरे बौद्धिक आन्दोलन का रूप ले लिया। यह वैदिक कर्मकाण्डों के विरुध्द प्रतिक्रिया थी और इसकी पृष्ठभूमि उपनिषदीय ज्ञानमार्गी चिन्तन ने निर्मित कर दी थी। विभिन्न मत-मतान्तरों के अनुयायी घूम-घूमकर अपने जीवन-दर्शन का प्रचार-प्रसार करते और शास्त्रार्थ करके दूसरे मतों का खण्डन करते रहते थे। इसमें चिरस्थायी जैन और बौद्ध धर्म बनकर उभरा।

इस धार्मिक आन्दोलनों को तत्कालीन शासकों का समर्थन भी प्राप्त हुआ; यथा – बिम्बिसार, प्रसेनजित इत्यादि।

लिपि ज्ञान

यद्यपि सैन्धव लिपि सबसे प्राचीन भारतीय लिपि है परन्तु इसका अभी तक उद्वाचन नहीं हो सका है। इसलिये छठी शताब्दी ई०पू० से अस्तित्व में आयी ब्राह्मी लिपि सामयिक परिवर्तनों के साथ वर्तमान तक निरन्तर प्रवाहमान है। इसलिये ब्राह्मी लिपि को भारत की प्राचीनतम् लिपि माना जाता है। इस लिपि के प्राचीनतम् साक्ष्य सिद्धार्थनगर जनपद के कपिलवस्तु के पिपरहवा अभिलेख से प्राप्त होता है। इसका समय गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण ( ४८३ ई०पू० ) के ठीक बाद निर्धारित किया गया है। इसके बाद पश्चिमोत्तर में हमें खरोष्ठी और अरामेइक लिपि के साक्ष्य मिलते हैं। ब्राह्मी लिपि से ही वर्तमान भारत की लिपियों का विकास हुआ है।

मुद्रा प्रचलन

सिक्कों का अध्ययन ‘मुद्राशास्त्र’ या ‘सिक्काशास्त्र’ ( Numismatics ) कहलाता है। पाँचवीं शताब्दी ई०पू० में भारतीय अर्थव्यवस्था ‘मुद्रा व्यवस्था’ में अवतीर्ण हुई। भारत के प्रचीनतम् सिक्के ५वीं शताब्दी ई०पू० के हैं। इन्हें आहत सिक्के ( Punch mark coins ) कहते हैं क्योंकि इनपर ठप्पा मारकर सूर्य, चन्द्र, वृक्ष, पहाड़, यूप इत्यादि की आकृतियाँ बनायी या अंकित की जाती थीं। ये आहत सिक्के लेखरहित हैं।

आहत सिक्कों पर अंकित विभिन्न आकृतियों की विशद व्याख्या डी० डी० कोशाम्बी और रैप्सन ने की है। ये आहत सिक्के मुख्यतया चाँदी के और कुछ ताबें के हैं। बौद्ध ग्रंथों में इन सिक्कों को काहापण अर्थात् कार्षापण कहा गया है। इस समय सोने के सिक्के नहीं मिलते हैंचाँदी के कार्षापण १८० ग्रेन के और ताँबे के सिक्के १४६ ग्रेन के होते थे।

प्रारम्भिक आहत सिक्के हमें कौशाम्बी, राजगीर और तक्षशिला प्राप्त होते हैं। इन मुद्राओं की सबसे पुरानी निधियाँ ( hoards ) पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध से मिले मिले हैं। आरम्भ के कुछ सिक्के तक्षशिला से भी मिले हैं।

आगे चलकर भारतीय-यूनानी ( Indo-Greek ) शासकों द्वारा पहली बार ‘लेखयुक्त’ और ‘आकृतयुक्त’ सिक्के चलाये गये। इस समय से इन लेखयुक्त सिक्कों से राजनीतिक इतिहास की जानकारी मिलती है।

प्राचीन भारत में सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण सिक्के और सबसे अधिक संख्या में ताँबे के सिक्के कुषाणों ने प्रचलित कराये। संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक सोने के सिक्के गुप्तकालीन शासकों द्वारा प्रचलित कराये गये और साथ ही गुप्तकालीन सिक्के सर्वाधिक कलात्मक भी हैं। कुषाणवंशी शासक ‘हुविष्क’ के सिक्कों पर सर्वाधिक देवी-देवताओं की आकृतियाँ मिलती हैं।

व्यापारिक संगठन / श्रेणियाँ

इसी काल में व्यवसायों ने अपने-अपने संगठन बना लिये। इन संगठनों को ‘श्रेणी’ कहा गया है। श्रेणी एक प्रकार का ही कार्य करने वाले लोगों का संगठन या समूह होता था। श्रेणी प्रमुख को ‘श्रेष्ठिन् ( श्रेष्ठी ) या जेट्ठक कहा गया है।

व्यापारी समूह के प्रमुख को भी श्रेष्ठिन् कहा जाता था। व्यापारिक श्रेणियाँ अपने कारवाँ का एक नेता चुनती थी जिसे सार्थवाह कहा गया है।

श्रेणियाँ से भी बड़ा संगठन ‘निगम’ होता था जिसकी सभी श्रेणियाँ सदस्य होती थीं। विभिन्न श्रेणियों के मध्य एकता स्थापित करने के लिये ‘भण्डारागारिक’ नामक अधिकारी था। व्यापारियों की बड़ी श्रेणी के प्रमुख को ‘महाश्रेष्ठी’ कहते थे।

व्यापार एवं वाणिज्य

नगरों का उदय, मुद्रा प्रचलन, श्रेणियाँ इत्यादि वे कारक थे जिन्होंने व्यापार और वाणिज्य के तीव्रगति से विकास को प्रेरित किया। तत्कालीन नगर कम्बोज, कोसल, वाराणसी आदि व्यापारिक मार्गों पर स्थिति थे। श्रावस्ती कौशाम्बी और वाराणसी दोनों से व्यापारिक मार्गों द्वारा जुड़े हुए थे। वाराणसी व्यापार के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रसिद्ध केन्द्र था। कम्बोज से अश्व वाराणसी तक बिकने कि लिये आते थे। तक्षशिला व्यापार और शिक्षकों प्रसिद्ध केन्द्र था। तक्षशिला विश्वविद्यालय भारतवर्ष का प्राचीनतम् विश्वविद्यालय था।

जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि मगध व कोसल के व्यापारी मथुरा होते हुए तक्षशिला तक पहुँचते थे। बावेरु जातक में उल्लेख मिलता है कि मध्य एशिया के निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में मोर और काक का उल्लेख मिलता है।

इस काल में हमें तीन प्राचीन बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है :-

  • भृगुकच्छ / भरूच / भड़ौच / बैरीगाजा : भारत के पश्चिमी तट पर वर्तमान गुजरात में स्थित था। यह पश्चिमी तट का सबसे प्राचीन, प्रसिद्ध और बड़ा पत्तन था।
  • सोपारा / सूर्पारक : महाराष्ट्र में पश्चिमी तट पर स्थित एक अन्य प्रसिद्ध बंदरगाह।
  • ताम्रलिप्ति / तामलुक : पूर्वी तट पर बंगाल में स्थित प्रसिद्ध बंदरगाह।

भू-राजस्व व्यवस्था

इस काल में भू-राजस्व की विधिवत शुरुआत हुई। भू-राजस्व का मात्रा इस समय १/६ थी।

शिल्पकारों से ‘व्यापारिक कर’ या ‘चुंगी’ लिया जाता था और महीने में एक दिन विष्टि ( बेगार ) लिया जाता था। चुंगी वसूलने वाले अधिकारी को ‘शौल्किक’ या ‘शुल्काध्यक्ष’ कहलाता था।

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