महाजनपद काल

भूमिका

भारतवर्ष के ‘सांस्कृतिक इतिहास’ का प्रारम्भ अति प्राचीन काल में हुआ परन्तु उसके राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ अपेक्षाकृत बहुत बाद में हुआ। राजनीतिक इतिहास का मुख्य आधार सुनिश्चित तिथिक्रम (Chronology) होता है। इस दृष्टि से भारतवर्ष के राजनीतिक इतिहास का प्रारम्भ हम सातवी शताब्दी ई० पू० के मध्य ( ≈ ६५० ई० पू० ) के पहले नहीं मान सकते। ऋग्वैदिक काल में हम ‘जन’ का अस्तित्व पाते है। उत्तर वैदिक काल में ये जन मिलकर विभिन्न ‘जनपदों’ में बदल रहे थे। ये जनपद वैदिकोत्तरकाल में धीरे-धीरे ‘महाजनपद’ में विकसित होते जा रहे थे। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय में हमें १६ महाजनपदों का विवरण मिलता है।

उत्तर वैदिक काल में लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हुआ था और इस काल के अंतिम चरण तक पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बिहार में लोहे का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाने लगा था। लौह तकनीक ने लोगों के भौतिक जीवन को बड़े गहरे तक प्रभावित करके क्रांतिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया तथा इससे स्थाई जीवन-यापन की प्रवृत्ति सुदृढ़ होती गयी। कृषि, उद्योग, व्यापार वाणिज्य आदि के विकास ने प्राचीन जनजातीय व्यवस्था को जर्जर बना दिया तथा छोटे-छोटे जनों का स्थान जनपदों ने ग्रहण कर लिया। ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक आते-आते जनपद, महाजनपदों के रूप में विकसित हो चले थे।

षोडश महाजनपद : साहित्यिक विवरण

छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भ में उत्तर भारत में सार्वभौम सत्ता का पूर्णतया अभाव था। सम्पूर्ण प्रदेश अनेक स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था। ये राज्य यद्यपि उत्तर वैदिक कालीन राज्यों की अपेक्षा अधिक विस्तृत तथा शक्तिशाली थे तथापि इनमें से कोई भी देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में संगठित करने में समर्थ नहीं था।

इस काल की राजनीतिक स्थिति का प्रामाणिक विवरण यद्यपि हमें किसी भी साहित्यिक साक्ष्य से उपलब्ध नहीं होता, तथापि बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय (१/२१३/४/२५२/२५६/२६०) से ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध के उदय ( ५६३ ई०पू० से पहले ) के कुछ पूर्व समस्त उत्तरी भारत १६ बड़े राज्यों में ‘विभाजित था। इन्हें ‘सोलह महाजनपद’ (षोडश महाजनपद) कहा गया है। इनके नाम इस प्रकार मिलते हैं —

‘अंगुत्तरनिकाय’ के अनुसार सोलह महाजनपद

१. काशी २. कोसल ३. अंग ४. मगध
५. वज्जि ६. मल्ल ७. चेदि ८. वत्स
९. कुरु १०. पंचाल ११. मत्स्य १२. शूरसेन
१३. अस्सक (अश्मक) १४. अवन्ति १५. गन्धार १६. कम्बोज

जैन ग्रन्थ ‘भगवतीसूत्र’ में भी इन सोलह महाजनपदों की सूची मिलती है, परन्तु वहाँ नाम कुछ भिन्न प्रकार से हैं —

‘भगवतीसूत्र’ के अनुसार सोलह महाजनपद

१.    अंग २.    बंग ३.    मगह (मगध) ४.    मलय
५.    मालव ६.    अच्छ ७.    वच्छ (वत्स) ८.    कोच्छ
९.    पाढ्य १०. लाढ़ ११. वज्जि १२. मोलि (मल्ल)
१३. काशी १४. कोशल १५. अवध १६. सम्भुत्तर

उपर्युक्त दोनों ग्रंथों के अलावा निम्न साहित्यों में भी महाजनपदों का विवरण मिलता है जो इस प्रकार है :

  • जनवसभसुत्त में केवल १२ राज्यों के ही नाम मिलते हैं।
  • चुल्लनिद्देश में षोडश महाजनपदों की सूची में कलिंग को जोड़ दिया है और गन्धार के स्थान पर योन का उल्लेख मिलता है।
  • महावस्तु में गन्धार तथा कम्बोज के स्थान पर क्रमशः शिवि तथा दशार्ण के नाम का उल्लेख मिलता है।

इन सब में अंगुत्तर निकाय की सूची ही प्रामाणिक मानी गयी है।

उपर्युक्त दोनों सारणियों ( अंगुत्तरनिकाय और भगवतीसूत्र की सूची ) की तुलना करने पर ऐसा स्पष्ट होता है कि कुछ राज्यों के नाम, जैसे- अंग, मगध, काशी, कोशल, वत्स, वज्जि आदि दोनों में ही समान है। जबकि मोलि ‘मल्ल’ को और मालव ‘अवन्ति’ को कहा गया है। इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी का विचार है कि भगवतीसूत्र की सूची में जिन अन्य राज्यों के नाम गिनाये गये है वे सुदूर-पूर्व तथा सुदूर दक्षिण भारत की राजनीतिक स्थिति के सूचक है।* उनका विस्तार यह सिद्ध करता है कि वे अंगुत्तर निकाय में उल्लिखित राज्यों के बाद के हैं। अतः छठी शताब्दी ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में भारत की राजनीतिक स्थिति के ज्ञान के लिये हमें बौद्ध ग्रन्थ ‘अंगुत्तरनिकाय’ की सूची को ही प्रामाणिक मानना चाहिए।

  • Political History of Ancient India. ( p. 96 ) : H. C. Ray Chaudhary*

महाजनपदकाल

अंगुत्तर निकाय में जिन १६ महाजनपदों का उल्लेख हुआ है वे बुद्ध के पहले विद्यमान थे, क्योंकि बुद्धकाल में काशी का राज्य कोशल में तथा अंग का राज्य मगध में मिला लिया गया था। संभवतः उस समय अश्मक भी अवन्ति द्वारा जीत लिया गया था। इसी प्रकार वज्जि का उल्लेख यह स्पष्ट करता है कि महाजनपद विदेह राजतन्त्र के पतन के बाद (छठी शताब्दी ईसा पूर्व के कुछ पूर्व) हो अस्तित्व में आये होंगे।

इस प्रकार हम षोडश महाजनपदों को ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से छठीं शती के प्रथमार्ध में रख सकते हैं।

डॉ० वी० एम० अग्रवाल ने ईसा पूर्व १,००० से लेकर ईसा पूर्व ५०० तक के समय को ‘जनपद-युग’ को संज्ञा प्रदान की है।

महाजनपद : भौगोलिक स्थिति

इन सोलह महाजनपदों की स्थिति मोटेतौर पर इस प्रकार थी :

  • २ महाजनपद भारतीय उप-महाद्वीप के बाहर पश्चिमोत्तर में स्थित थे। दूसरे शब्दों में ये दो महाजनपद वर्तमान भारत के बाहर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में स्थित थे। ये थे – गंधार और कम्बोज।
  • एक महाजनपद दक्षिण भारत में गोदावरी घाटी में स्थित था।
  • शेष १३ महाजनपद उत्तर भारत और गंगा घाटी में स्थित थे।
महाजनपद काल
महाजनपद काल

षोडश महाजनपद

इन महाजनपदों का विवरण इस प्रकार है :

महाजनपद  राजधानी
अंग चंपा
मगध राजगृह ( गिरिव्रज )
वज्जि वैशाली
मल्ल कुशीनारा

पावा

काशी वाराणसी
कोसल श्रावस्ती
वत्स कौशाम्बी
चेदि शुक्तिमती
कुरु इंद्रप्रस्थ
पांचाल अहिच्छत्र ( उत्तरी पांचाल )

काम्पिल्य ( दक्षिणी पांचाल )

शूरसेन मथुरा
मत्स्य विराटनगर
अवन्ति उज्जयिनी ( उत्तरी अवन्ति )

महिष्मती ( दक्षिणी अवन्ति )

अश्मक पोतन ( पोटन )
गांधार तक्षशिला

पुष्पकलावती

कंबोज हाटक

काशी

वर्तमान वाराणसी तथा उसका समीपवर्ती क्षेत्र ही प्राचीन काल में काशी महाजनपद था। उत्तर में वरुणा तथा दक्षिण में असी नदियों से घिरी हुई वाराणसी नगरी इस महाजनपद की राजधानी थी।

सोननन्द जातक से ज्ञात होता है कि मगध, कोशल तथा अंग के ऊपर काशी का अधिकार था। जातक ग्रन्थों से पता चलता है कि इस राज्य का विस्तार तीन सौ लीग था और यह महान, समृद्धिशाली तथा साधन-सम्पन्न राज्य था।

काशी तथा कोशल के बीच दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण बौद्ध ग्रन्थों में प्राप्त होता है। कभी विजय काशी की होती थी और कभी कोसल की। यहाँ का सबसे शक्तिशाली राजा ब्रह्मदत्त थे जिन्होंने कोशल के ऊपर विजय प्राप्त की थी। परन्तु अन्ततोगत्वा कोशल के राजा कंस ने काशी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया और कुछ समय के लिये कोसल का अंग रहा। गौतम बुद्ध के समय में काशी का राजनीतिक पतन हो गया था। मगध और कोसल में भी काशी को लेकर संघर्ष आरम्भ हो गया। अजातशत्रु के समय में काशी मगध का अंग बन गया।

कोसल

वर्तमान अवध का क्षेत्र ( अवध मण्डल ) प्राचीन काल में कोसल महाजनपद का निर्माण करता था। यह उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में सर्पिका या स्यन्दिका ( सई ) नदी तथा पश्चिम में पंचाल से लेकर पूर्व में सदानीरा ( गण्डक ) नदी तक फैला हुआ था। कोशल की राजधानी श्रावस्ती थी। इसके अन्य प्रमुख नगर अयोध्या तथा साकेत थे।

रामायणकालीन कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी। बुद्ध काल में कोशल राज्य के दो भाग हो गये। इन दोनों के मध्य सरयू नदी प्रवाहितथी। दक्षिणी भाग की राजधानी कुशावती अथवा साकेत तथा उत्तरी भाग को राजधानी श्रावस्ती में स्थापित हुई। साकेत का ही दूसरा नाम अयोध्या था।

अंग

बिहार प्रांत के वर्तमान भागलपुर तथा मुंगेर के जनपद अंग महाजनपद के अन्तर्गत थे। इसकी राजधानी चम्पा थी। महाभारत तथा पुराणों में चम्पा का प्राचीन नाम ‘मालिनी’ प्राप्त होता है। महाभारतकाल में अंग का राजा ‘कर्ण’ था।

बुद्ध के समय तक चम्पा की गणना भारत के छः महानगरियों में की जाती थी। दीघनिकाय के अनुसार इस नगर के निर्माण की योजना सुप्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द ने प्रस्तुत की थी। महापरिनिर्वाणसूत्र में चम्पा के अतिरिक्त अन्य पाँच महानगरियों के नाम राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी तथा बनारस दिये गये है

प्राचीन काल में चम्पा नगरी वैभव तथा व्यापार-वाणिज्य के लिये प्रसिद्ध थी।

अंग, मगध का पड़ोसी राज्य था। जिस प्रकार काशी तथा कोशल में प्रभुसत्ता के लिये संघर्ष चल रहा था उसी प्रकार अंग तथा मगध के बीच भी दीर्घकालीन संघर्ष चला। अंग के शासक ब्रह्मदत्त ने मगध के राजा भट्टिय को पहले पराजित कर मगध राज्य के कुछ भाग को जीत लिया था। परन्तु बाद में बिम्बिसार के समय अंग का राज्य मगध में मिला लिया गया।

मगध

यह दक्षिणी बिहार में स्थित था। वर्तमान पटना, गया और शाहाबाद जनपद इसमें सम्मिलित थे। कालान्तर में यह उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली महाजनपद बन गया। मगध तथा अंग एक दूसरे के पड़ोसी राज्य थे तथा दोनों को पृथक करती हुई चम्पा नदी प्रवाहित होती थी। इस महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में चम्पा से पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत थी।

मगध की प्राचीन राजधानी राजगीर थी। राजगीर को राजगृह और गिरिब्रज भी कहा जाता है। यह नगर पाँच पहाड़ियों के मध्य स्थित था। नगर के चारों ओर पत्थर को सुदृढ़ प्राचीर बनवायी गयी थी। कालान्तर में मगध को राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई।

वज्जि

मगध के उत्तर की ओर वज्जि संघ स्थित था। यह आठ राज्यों या कुलों का एक संघ था। इसमें वज्जि के अतिरिक्त वैशाली के लिच्छवि, मिथिला के विदेह तथा कुण्डग्राम के ज्ञातृक विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। वैशाली उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जनपद में स्थित आधुनिक बसाढ़है। मिथिला की पहचान नेपाल की सीमा में स्थित जनकपुर नामक नगर से की जाती है। यहाँ पहले राजतन्त्र था परन्तु बाद में गणतन्त्र स्थापित हो गया। कुण्डग्राम वैशाली के समीप ही स्थित था। अन्य राज्यों के विषय में हमें निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। संभवतः अन्य चार राज्य उग्र, भोग, इक्ष्वाकु तथा कौरव थे। जैन साहित्य में ज्ञातृकों के साथ इनका उल्लेख हुआ है तथा इन्हें एक ही संस्थागार का सदस्य कहा गया है।*बुद्ध के समय में यह एक शक्तिशाली संघ था।

  • Hindu Civilizations. P. 198.

महावस्तु से ज्ञात होता है कि गौतम बुद्ध लिच्छवियों के निमंत्रण पर वैशाली गये थे। बौद्ध साहित्य लिच्छवियों के सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर प्रकाश डालता है। लिच्छवियों का आंतरिक संगठन अच्छा था और गौतम बुद्ध के अनुसार लिच्छवि गण इसी कारण अजेय थे। इस एकता के भंग होने पर लिच्छवि राज्य को मगध या अन्य कोई राज्य विजय कर सकता था।

मल्ल

पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में मल्ल महाजनपद स्थित था। वज्जि संघ के समान यह भी एक संघ (गण) राज्य था जिसमें पावा (पडरौना) तथा कुशीनारा (कसया) के मल्लों की शाखाएँ सम्मिलित थी। इस तरह इसकी दो शाखाएँ थीं — एक की राजधानी पावा थी और दूसरे की कुशीनारा। कुशीनगर में गौतम बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ और पावा में महावीर स्वामी को।

ऐसा प्रतीत होता है कि विदेह राज्य को हो भाँति मल्ल राज्य भी प्रारम्भ में एक राजतंत्र के रूप में संगठित था। कुस जातक में ओक्काक को वहाँ का राजा बताया गया है। कालान्तर में उनका एक संघ राज्य बन गया। बुद्ध के समय तक उनका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहा।

मल्ल राष्ट्र में भी जैन तथा बौद्ध धर्म बड़े व्यापक रूप से फैला। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ही मल्ल राष्ट्र ने अपनी स्वतंत्रता खो दी। मगध ने इस पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य में मिला लिया।

चेदि

आधुनिक बुन्देलखण्ड के पूर्वी तथा उसके समीपवर्ती भागों में प्राचीन काल का चेदि या चेति महाजनपद स्थित था। इसको राजधानी सोत्थिवती थी जिसकी पहचान महाभारत के शुक्तिमती से की जाती है।

चेतिय जातक में यहाँ के एक राज्य का नाम उपचर मिलता है।

महाभारत काल में यहाँ का प्रसिद्ध शासक ‘शिशुपाल’ था जिसका वध श्रीकृष्ण द्वारा किया गया। माघ कृत प्रसिद्ध महाकाव्य ‘शिशुपालबध’ के कथानक का आधार यही है। इस महाकाव्य की गणना संस्कृति साहित्य के ‘बृहत्त्रयी’ में की जाती है :

  • बृहत्त्रयी महाकाव्य
    • भारवि कृत किरातार्जुनीयम् — पल्लव नरेश सिंहविष्णु के समय।
    • माघ कृत शिशुपालवध — पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन के समय।
    • श्रीहर्ष कृत नैषधचरित — गहड़वाल नरेश जयचंद के समय।

कलिंग (उड़ीसा) में जिस चेदि वंश का राजा खारवेल था, वह संभवतः इसी चेदि प्रदेश की शाखा ने ही स्थापित किया हो।

वत्स

आधुनिक प्रयागराज तथा बाँदा के जनपद प्राचीन काल में वत्स महाजनपद का निर्माण करते थे। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी जो प्रयागराजके दक्षिण-पश्चिम में ३३ मील की दूरी पर यमुना नदी के किनारे स्थित है। विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगाजी के प्रवाह में बह जाने के बाद कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनायी थी।*

गंगयापहृतये तस्मिन् नगरे नागसाहवये।

त्यक्त्वा निचक्षुनगरम् कौशाम्ब्याम् स निवत्स्यति॥*

विष्णु पुराण।

बुद्धकाल में यहाँ पौरववंश का शासन था जिसका शासक उदयन था। पुराणों के अनुसार उसके पिता परंतप ने अंग की राजधानी चम्पा को जीता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा कौशाम्बी में विस्तृत खुदाइयाँ करायी गयी जिनसे पता चलता है कि ई० पू० बारहवीं शती के मध्य से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी तक यहाँ बस्ती बसी हुई थी। यहाँ से ‘घोषिताराम-विहार’ तथा ‘उदयन-राजप्रासाद’ के अवशेष भी प्राप्त होते हैं।

उदयन महात्मा बुद्ध के समकालीन थे। संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध उदयन इसी जनपद से सम्बन्धित था। अवन्ति के राजा प्रद्योत के साथ उसकी शत्रुता के विषय पर अनेक मनोरंजक कथानक प्राप्त हैं, जिनमें वासवदत्ता और उदयन के प्रणय प्रसंग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उदयन पर आधारित कुछ प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं – भास कृत ‘उदयन वासवदत्ता’; सम्राट हर्षवर्धन कृत ‘प्रियदर्शिका’ और ‘रत्नावली’ इत्यादि।

कुरु

मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भू-भागों पर कुरु महाजनपद स्थित था अर्थात् आधुनिक मेरठ जनपद और दक्षिण-पूर्व हरियाणा का प्रदेश इसमें सम्मिलित था। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी।

महाभारतकालीन हस्तिनापुर का नगर भी इसी राज्य में स्थित था। यादवों, भोजों और पंचालों के साथ कुरु राजाओं ने वैवाहिक सम्बन्ध थे। पंचाल के समान कुरु भी उत्तर वैदिक साहित्य में पर्याप्त ख्याति प्राप्त राज्य था। वास्तव में ब्राह्मण ग्रंथों में तो कुरु-पंचाल का जोड़ा अत्यधिक शक्तिशाली माना जाता था, जिन्होंने अनेक अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था।

वत्स प्रदेश में जिस राजतंत्र की स्थापना हुई वह संभवतः कुरु की ही शाखा थी। यह संभवतः उस समय हुआ होगा जब कि कुरु प्रदेश का महत्त्वपूर्ण नगर हस्तिनापुर गंगा नदी के बाढ़ में नष्ट हो गया। इसका उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में मिलता है और इसकी पुष्टि हस्तिानपुर के उत्खननों से भी होती है।

जातक ग्रन्थों के अनुसार इस नगर को परिधि दो हजार मील के लगभग थी। बुद्ध के समय यहाँ का राजा कोरव्य था। कुरु देश के लोग प्राचीन समय से ही अपनी बुद्धि एवं बल के लिये प्रसिद्ध थे। पहले कुरु एक राजतन्त्रात्मक राज्य था किन्तु कालान्तर में यहाँ गणतन्त्र की स्थापना हुयी।

पंचाल

आधुनिक रुहेलखण्ड के बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद के जनपदों से मिलकर प्राचीन पंचाल महाजनपद बनता था। प्रारम्भ में इसके दो भाग थे —

  • उत्तरी पंचाल जिसकी राजधानी अहिच्छत्र थी। अहिच्छत्र की पहचान बरेली स्थित वर्तमान रामनगर से की जाती है।
  • दक्षिणी पंचाल जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी। काम्पिल्य की पहचान फर्रुखाबाद स्थित कम्पिल से की जाती है।

कान्यकुब्ज ( कन्नौज, महोदयनगर ) का प्रसिद्ध नगर इसी राज्य में स्थित था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व कुरु तथा पंचाल का एक संघ राज्य था।

अधिकांशतः आधुनिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसी जनपद के अंतर्गत आता था। हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में चंबल नदी तक तथा पूर्व में कोसल और पश्चिम में कुरु जनपद इसकी सीमाएँ थीं।

पंचाल उत्तर वैदिक काल से ही प्रसिद्ध था। महाभारत में तो इसके अनेक उल्लेख है। स्वयं द्रौपदी को भी तो पांचाली कहा गया है। पंचाल मूलतः एक राजतंत्र था किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि कौटिल्य के समय तक वह एक गणराज्य हो गया था।

मत्स्य (मच्छ)

राजस्थान प्रान्त के जयपुर क्षेत्र में मत्स्य महाजनपद बसा हुआ था। इसके अन्तर्गत वर्तमान अलवर का सम्पूर्ण भाग तथा भरतपुर का एक भाग भी सम्मिलित था। यहाँ की राजधानी विराटनगर थी जिसकी स्थापना विराट नामक राजा ने की थी और इन्हीं के नाम पर इसका नामकरण हुआ था। बुद्धकाल में इस राज्य का कोई विशेष राजनीतिक महत्त्व नहीं था।

साहित्यिक स्रोतों में ‘अपर मत्स्य’, ‘वीर मत्स्य’ आदि जो उल्लेख आये हैं, वे संभव है कि मूल राज्य की शाखाएँ हों। मत्स्य प्रदेश कभी चेदि जनपद के अधीन था।

शूरसेन

आधुनिक (ब्रजमण्डल) क्षेत्र में यह महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी मथुरा थी। प्राचीन यूनानी लेखक इस राज्य को शूरसेनोई (Sourasenoi) तथा इसकी राजधानी को ‘मेथोरा’ कहते हैं। महाभारत तथा पुराणों के अनुसार यहाँ यदु (यादव) वंश का शासन था। कृष्ण यहाँ के राजा थे।

बुद्धकाल में यहाँ का राजा अवन्तिपुत्र था जो बुद्ध का सर्वप्रमुख शिष्य था। उसी की सहायता से मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार सम्भव हुआ। मज्झिमनिकाय से पता चलता है कि अवन्ति पुत्र का जन्म अवन्ति नरेश प्रद्योग को कन्या से हुआ था।

पाणिनि के समय में अंधक तथा वृष्णिजन का निवास स्थान मथुरा में था। कालांतर में इन जातियों ने एक पारस्परिक संघ की स्थापना कर ली थी।

अश्मक (अस्मक या अश्वक)

गोदावरी नदी (आन्ध्र प्रदेश) के तट पर अश्मक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी पोतन अथवा पोटिल थी। १६ महाजनपदों में केवल अश्मक ही दक्षिण भारत में स्थित था। पुराणों से पता चलता है कि अश्मक के राजतन्त्र की स्थापना इक्ष्वाकुवंशी शासकों ने किया था। चुल्लकलिंग जातक से पता चलता है कि अस्सक के राजा अरुण ने कलिंग के राजा को जीता था। महात्मा बुद्ध के पूर्व अश्मक का अवन्ति के साथ निरन्तर संघर्ष चल रहा था तथा बुद्ध काल में अवन्ति ने इसे जीत कर अपनी सीमा के अन्तर्गत समाहित कर लिया था।

अश्मक और मूलक प्रदेश एक दूसरे के पड़ोसी थे। दोनों इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय थे। दीघ निकाय के ‘महागोविंद सुत्त’ में इस बात का उल्लेख है कि रेणु नामक सम्राट के ब्राह्मण पुरोहित महागोविंद ने अपने साम्राज्य को सात अलग-अलग राज्यों में बाँटा था। इनमें से एक अश्मक भी था।

अश्मक की पहचान के सम्बन्ध में एक संभावना यह भी हो सकती है कि वह सिंधु नदी की निम्न घाटी अथवा मुहाने पर स्थित ‘ऐस्सेकेनॉय’ हो, जिसका उल्लेख यूनानी लेखकों ने किया है और जो सिकंदर के आक्रमण के समय भी मौजूद थे। इस संबंध में एक और तथ्य दृष्टव्य है कि बौद्ध साहित्य में अश्मक सहित जिन १६ महाजनपदों का उल्लेख है, उनमें से सभी १५ उत्तरी भारत के हैं।

अवन्ति

पश्चिमी तथा मध्य मालवा के भू-भाग पर अवन्ति महाजनपद बसा हुआ था। इसके दो भाग थे —

  • उत्तरी अवन्ति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
  • दक्षिणी अवन्ति जिसकी राजधानी माहिष्मती थी।

उत्तरी और दक्षिणी अवन्ति के मध्य वेत्रवती नदी बहती थी। पाली धर्मग्रन्थों से पता चलता है कि बुद्ध काल में अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी ही थी और तत्कालीन राजा प्रद्योत था।

उज्जयिनी की पहचान मध्य प्रदेश के आधुनिक उज्जैन नगर से की जाती है। राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से उज्जयिनी प्राचीन भारत का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नगर था यहाँ लोहे की खानें थी तथा लुहार इस्पात के उत्कृष्ट अस्त्र-शस्त्र निर्मित कर लेते थे। इस कारण यह राज्य सैनिक दृष्टि से अत्यन्त सबल हो गया। यह बौद्ध धर्म का भी प्रमुख केन्द्र था जहाँ कुछ प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु व भिक्षुणियाँ निवास करते थे। अनेक बौद्ध थेर तथा थेरी यहाँ बौद्ध धर्म का पालन व प्रचार करने में रत थे।

पुराणों के अनुसार चंड प्रद्योत शक्तिशाली राजा था। उसके समय में अवंति का वत्स, मगध तथा कोसल के साथ युद्ध हुआ था। मगध सम्राट शिशुनाग ने अवंति को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। अवंति राज्य का पर्याप्त आर्थिक महत्त्व रहा है क्योंकि अनेक व्यापार मार्ग इस प्रदेश से होकर गुजरते थे।

गन्धार

पश्चिमोत्तर भारत को उत्तरापथ उत्तरापथ भी कहते है और इस क्षेत्र में दो जनपद थे; एक, गन्धार और दूसरा, कम्बोज।

वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर तथा रावलपिण्डी जनपद के भू-भाग पर गन्धार महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला में थी। रामायण से पता चलता है कि इस नगर को स्थापना भरत के पुत्र तक्ष ने की थी। इस जनपद का दूसरा प्रमुख नगर पुष्कलावती था जिसकी स्थापना भरतजी के पुत्र पुष्कल ने की थी। पुष्पकलावती की पहचान पेशावर के समीप स्थित ‘चारसद्दा’ से की जाती है।

तक्षशिला प्रमुख व्यापारिक नगर होने के साथ-साथ शिक्षा का भी प्रसिद्ध केन्द्र था। इतिहास प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय इसी महाजनपद में था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में यहाँ पक्कुसाति अथवा पुष्करसारिन् नामक राजा राज्य कर रहे थे। उसने मगधराज विम्बिसार की राजसभा में अपना एक दूतमण्डल और पत्र भेजा था और इस प्रकार गन्धार तथा मगध राज्यों के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ। पुक्कुसातिने अवन्ति के ऊपर आक्रमण कर वहाँ के राजा प्रद्योत को पराजित किया था।

कम्बोज

काम्बोज प्रदेश उत्तरापथ में ही स्थित था। दक्षिणी-पश्चिमी कश्मीर तथा काफिरिस्तान* के भाग को मिलाकर प्राचीन काल में कम्बोज महाजनपद बना था। इसमें वर्तमान पाकिस्तान क राजौरी और हजारा जिला भी आता था। इसकी राजधानी राजपुर अथवा हाटक थी। यह गन्धार का पड़ोसी राज्य था। कालान्तर में यहाँ राजतन्त्र के स्थान पर संघ राज्य स्थापित हो गया। कौटिल्य ने कम्बोजों को ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी’ संघ अर्थात ‘कृषि, पशुपालन, वाणिज्य तथा शस्त्र द्वारा जीविका चलाने वाला’ कहा है। प्राचीन समय में कम्बोज जनपद अपने श्रेष्ठ घोड़ों के लिये विख्यात था।

  • काफिरस्तान का प्राचीन नाम कपिशा भी है। हिन्दूकुश से लेकर काबुल तक का प्रदेश का काफिरिस्तान अथवा कपिशा कहा जाता था।*

काम्बोज में पहले तो शासन की बागडोर राजा के हाथ में होती थी परन्तु कौटिल्य के समय यह एक संघराज्य बन गया था।

चार शक्तिशाली राजतन्त्र

छठी शताब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्द्ध तक आते-आते हमें उत्तर भारत की राजनीति में चार शक्तिशाली राज्यों का प्रभुत्व दिखायी देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सोलह महाजनपदों की पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष के फलस्वरूप अनेक छोटे जनपदों का बड़े राज्यों में विलय हो गया और इस प्रकार केवल चार बड़े राजतन्त्र ही प्रमुख रहे। अन्य महाजनपद या तो इनकी विस्तारवादी नीति के शिकार हुए अथवा वे अत्यन्त महत्त्वहीन हो गये। महात्मा गौतम बुद्ध के समय में इन्हीं चार राजतन्त्रों का उत्तर भारत को राजनीति में बोलबाला था। ये राज्य हैं —

  • कोशल
  • वत्स
  • अवन्ति
  • मगध

इन चार महाजनपदों का विकास अन्य की अपेक्षा शक्तिशाली राज्य के रूप में कैसे हुआ इसके लिये इनपर विचार करना समीचीन होगा।

कोशल

कोशल उत्तर-पूर्व भारत का प्रमुख राज्य था जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। श्रावस्ती के भग्नावशेष इसी नाम के जनपद में सहेत-महेत नामक ग्राम के पास स्थित हैं। महात्मा बुद्ध के पूर्व ही कंस नामक राजा ने काशी राज्य को विजित किया था। जातक ग्रंथों में कंस को ‘बारानसिग्गहो’अर्थात् बनारस पर अधिकार करने वाला कहा गया है।

कंस का पुत्र तथा उत्तराधिकारी ‘महाकोशल’ हुआ। उसके समय में कोशल का काशी पर पूर्ण अधिकार हो गया। काशी के मिल जाने से कोशल का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया।

काशी व्यापार और वस्त्रोद्योग का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। तक्षशिला, सौवीर तथा अन्य दूरवर्ती स्थानों के साथ काशी का व्यापारिक सम्बन्ध था। इस राज्य के मिल जाने से कोशल की राजनैतिक तथा आर्थिक समृद्धि बढ़ गयी।

पूर्व में काशी का प्रतिद्वन्द्वी राज्य मगध था। कोमल तथा मगध के बीच वैमनस्य का मुख्य कारण काशी का राज्य था जिसकी सीमायें दोनों ही राज्यों को स्पर्श करती थीं।

गौतम बुद्ध के समय कोशल के शासक प्रसेनजित थे और उनकी आयु भी समान थी। वे ( प्रसेनजित ) महाकोशल के पुत्र थे। उसने मगध को संतुष्ट करने के लिए अपनी सहोदरा महाकोशला अथवा कोशलादेवी का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार के साथ कर दिया तथा दहेज के रूप में काशी अथवा उसके कुछ ग्राम दिये। अतः बिम्बिसार के समय तक इन दोनों राज्यों में मैत्री सम्बन्ध कायम रहा।

परन्तु विम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु के समय में कोशल और मगध में पुनः संघर्ष छिड़ गया। ‘संयुक्त निकाय’ में प्रसेनजित तथा अजातशत्रु के इस संघर्ष का विवरण मिलता है। ज्ञात होता है कि प्रथम युद्ध में अजातशत्रु ने प्रसेनजित को परास्त किया तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली। परन्तु दूसरी बार अजातशत्रु पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया। कालान्तर में प्रसेनजित ने मगध से संधि कर लेना ही श्रेयस्कर समझा और उसने अपनी दुहिता ‘वाजिरा’ का विवाह अजातशत्रु से कर दिया। काशी के ग्राम जिसे प्रसेनजित ने बिम्बिसार को मृत्यु के पश्चात् वापस ले लिये थे पुनः अजातशत्रु को लौटा दिये।

प्रसेनजित के समय में कोशल का राज्य अपने उत्कर्ष पर था। काशी के अतिरिक्त कपिलवस्तु के शाक्य, केसपुत्त के कालाम, पावा और कुशीनारा के मल्ल, रामगाम के कोलिय, पिप्पलिवन के मोरिय आदि गणराज्यों पर भी कोशल का अधिकार था। बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय के अनुसार वह पाँच राजाओं के एक गुट का नेतृत्व करता था।

प्रसेनजित महात्मा बुद्ध एवं उनके मत के प्रति श्रद्धालु थे। गौतम बुद्ध उसकी राजधानी में प्रायः जाते और विश्राम करते थे। महात्मा बुद्ध ने कोशल (श्रावस्ती) में सर्वाधिक २१ वर्षावास किये थे।

प्रसेनजित के पुत्र तथा उत्तराधिकारी विड्डूभ हुए। संयुक्त निकाय से पता चलता है कि प्रसेनजित के मंत्री दीघचारन ने विड्डूभ के साथ मिलकर कोशल नरेश के विरुद्ध षड्यन्त्र किया। विड्डूभ ने अपने पिता की अनुपस्थिति में राजसत्ता पर अधिकार कर लिया। प्रसेनजित ने भागकर मगध राज्य में शरण ली। परन्तु राजगृह नगर के समीप पहुँचने पर थकान से प्रसेनजित की मृत्यु हो गयी।

विड्डूभ ने कपिलवस्तु के शाक्यों पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण का कारण बौद्ध साहित्य में यह बताया गया है कि कोशल नरेश प्रसेनजित महात्मा बुद्ध के कुल में सम्बन्ध स्थापित करने को काफी उत्सुक था। इस उद्देश्य से उसने शाक्यों से यह माँग की कि वे अपने कुल की एक कन्या का विवाह उसके साथ कर दें। शाक्यों को यह प्रस्ताव अपने वंश की मर्यादा के प्रतिकूल लगा। परन्तु वे कोशल नरेश को रुष्ट भी नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने छल से ‘वासभखत्तिया’ नामक एक दासी की पुत्री को प्रसेनजित के पास राजकुमारी बनाकर भेज दिया। प्रसेनजित ने उससे विवाह कर लिया। विदूडभ उसी दासी ‘वासभखत्तिया’ से उत्पन्न प्रसेनजित का पुत्र था।

जब विड्डूभ को इस छल का पता लगा तब वह बड़ा कुपित हुआ तथा शाक्यों से बदला लेने का निश्चय किया। यह भी कहा जाता है कि एक बार वह स्वयं शाक्य राज्य में गया था तो शाक्यों ने ‘दासी पुत्र’ कहकर उसका अपमान किया था। इसी अपमान का बदला लेने के लिये राजा बनते ही उसने शाक्यों पर आक्रमण कर दिया।

इस आक्रमण में शाक्यों की पराजय हुई तथा नगर के पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों का भीषण संहार किया गया। उनमें से अनेक ने भागकर अपने-अपने प्राणों की रक्षा की। परन्तु विड्डूभ को अपने दुष्कृत्यों का यथोचित फल मिला। शाक्यों के संहार के बाद जब वह अपनी पूरी सेना के साथ वापस लौट रहा था तो अचिरावती (राप्ती) नदी की बाढ़ में अपनी पूरी सेना के साथ नष्ट हो गया। रिज डेविड्स ने इस कथा की प्रामाणिकता को स्वीकार किया है।* यह घटना महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ पहले की है।

  • Buddhist India. p. 11 — T.W.Rhys Davids.*

विड्डूभ के उत्तराधिकारी के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। लगता है उसके साथ ही कोशल का स्वतन्त्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया तथा मगध साम्राज्य का अंग बना।

वत्स

वत्स महाजनपद प्रयागराज और बाँदा जनपद के भू-भाग पर स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। गौतम बुद्ध के समय का यह एक प्रमुख राजतन्त्र था। इस समय यहाँ पौरववंशी राजा ‘उदयन’ राज्य कर रहा था। विनयपिटक में उसके पिता का नाम परंतप तथा पुत्र का नाम बोधिकुमार मिलता है।

वत्स का पड़ोसी राज्य अवन्ति था। दोनों ही साम्राज्यवादी थे। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष छिड़ना अवश्यम्भावी था। एक बार हाथियों का शिकार करते हुये उदयन को अवन्तिराज प्रद्योत के सैनिकों ने बन्दी बना लिया। कारागार में उसका प्रद्योत की दुहिता वासवदत्ता से प्रेम हो गया तथा वह वासवदत्ता का अपहरण कर अपनी राजधानी कौशाम्बी वापस लौट आया। बाद में प्रद्योत ने दोनों के विवाह की अनुमति दे दी। इस प्रकार वत्स और अवन्ति के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गया।

आदि नाटककार भास कृत ‘स्वप्नवासवदत्ता’ के कथानक का आधार उदयन और वासवदत्ता का प्रेम विवाह ही है।

सोमदेव कृत कथासरित्सागर तथा श्रीहर्ष कृत प्रियदर्शिका से पता चलता है कि उदयन ने कलिंग को जीता तथा अपने श्वसुर दृढ़वर्मन् को अंग की गद्दी पर आसीन किया था। परन्तु इन विवरणों की सत्यपरता संदेहास्पद है।

यद्यपि उदयन के साम्राज्य विस्तार का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि उसका साम्राज्य गंगा-यमुना के दक्षिण-पश्चिम में अवन्ति की सीमा तक विस्तृत रहा होगा।

सुमसुमारगिरि के भग्ग गणराज्य के लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते थे। जातक ग्रन्थों के अनुसार भग्ग राज्य में उसका पुत्र बोधिकुमार निवास करता था। भास के अनुसार उदयन का विवाह मगध के राजा दर्शक की बहन पद्मावती के साथ हुआ था। इससे उदयन मगध का भी मित्र बन गया तथा अब वह मगध के विरुद्ध अवन्ति की सहायता नहीं कर सकता था।

उदयन प्रारम्भ में बौद्ध मत का अनुयायी नहीं था किन्तु बाद में प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु पिन्डोल भारद्वाज ने उसे बौद्ध मत में दीक्षित किया। कौशाम्बी में इस समय कई मठ थे जिनमें घोषिताराम सर्वप्रमुख था। इसका निर्माण श्रेष्ठिन् घोषित ने करवाया था। बुद्ध स्वयं इन मठों में जाते और विश्राम करते थे।

बौद्ध धर्म का केन्द्र होने के साथ-साथ कौशाम्बी प्रसिद्ध व्यापारिक नगर भी था। कौशाम्बी की खुदाइयों से उदयन के राजप्रासाद के अवशेष मिलते हैं जिससे उसकी ऐतिहासिकता की पुष्टि हो जाती है।*

  • Excavations at Kausambi — G. R. Sharma.*

उदयन के बाद वत्स राज्य का इतिहास अन्धकारपूर्ण है। लगता है उसके साथ ही इसकी स्वतंत्रता जाती रही तथा यह राज्य अवन्ति के अधीन चला गया।

अवन्ति

अवन्ति पश्चिमी भारत का प्रमुख राजतन्त्र था। महात्मा बुद्ध के समय में यहाँ का राजा प्रयोत था। यह पुलिक का पुत्र था। विष्णु पुराण से ज्ञात होता है कि पुलिक बार्हद्रथ वंश के अन्तिम राजा रिपुंजय का अमात्य था। उसने अपने स्वामी को हटा कर अपने पुत्र को राजा बनाया। उसके इस कार्य का अनुमोदन समस्त क्षत्रियों ने बिना किसी विरोध के किया और प्रद्योत को राजा स्वीकार कर लिया।

उसकी कठोर सैनिक नीतियों के कारण महावग्ग जातक में उसे ‘चण्ड-प्रयोत’ कहा गया है। वह एक महत्वाकांक्षी राजा था। उसके समय में सम्पूर्ण मालवा तथा पूर्व एवं दक्षिण के कुछ प्रदेश अवन्ति राज्य के अधीन हो गये थे।

आर्थिक दृष्टि से भी यह राज्य अत्यन्त समृद्ध था। यहाँ का लौह उद्योग विकसित अवस्था में था। अतः यह अनुमान करना स्वाभाविक ही है कि प्रद्योत के पास उत्तम कोटि के लोहे के अस्त्र-शस्त्र अवश्य रहे होंगे। इन शस्त्रास्त्रों के बल पर उसने मगध को साम्राज्यवादी नीति का दीर्घकाल तक प्रतिरोध किया था।

बिम्बिसार के समय में मगध के साथ प्रद्योत के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण थे। ज्ञात होता है कि एक बार जब प्रयोत पाण्डुरोग से ग्रसित हो गया तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक* को उसके उपचार के लिये भेजा था।

  • जीवक ‘सालवती’ नामक गणिका से उत्पन्न हुए थे।*

परन्तु अजातशत्रु के समय में दोनों राज्यों का मैत्री सम्बन्ध जाता रहा। मज्झिमनिकाय से ज्ञात होता है कि प्रद्योत के आक्रमण के भय से मगध नरेश अजातशत्रु अपनी राजधानी का दुर्गीकरण करवा रहे थे। परन्तु दोनों राजाओं के बीच कोई प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हो पाया।

पुराणों में कहा गया है कि ‘वह पड़ोसी राजाओं को अपने अधीन रखेगा और अच्छी नीति का नहीं होगा। वह नरोत्तम २३ वर्षों तक राज्य करेगा।’* प्रद्योत बाद में अपने बौद्ध पुरोहित महाकच्चायन के प्रभाव से बौद्ध बन गया। अवन्ति बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। वहाँ अनेक प्रसिद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ निवास करते थे।

स वै प्रणत सामन्तो (श्रीमन्तो) भविष्यो नयवर्जितः।

त्रयोबिंशत समा राजा भविता स नरोत्तमः॥*

Dynasties of the Kali Age. p. 18-19 — F. E. Pargiter

प्रद्योत के बाद उसका पुत्र पालक अवन्ति का राजा हुआ। परिशिष्टापर्वन् से ज्ञात होता है कि पालक ने वत्स राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कौशाम्बी पर अधिकार कर लिया था। संभवतः उसने अपने पुत्र विशाखयूप को कौशाम्बी का उपराजा बनाया था। पालक ने २४ वर्षों तक राज्य किया। उसके बाद विशाखयूप, अजक तथा नन्दिवर्धन राजा हुए जिन्होंने क्रमश: ५०, २१ और २० वर्षों तक राज्य किया। अंततः अवन्ति मगध साम्राज्यवाद का शिकार बन गया। शिशुनाग के समय अवन्ति मगध का अंग बना लिया गया।

विष्णु पुराण के अनुसार गंगा नदी के प्रवाह में हस्तिनापुर के बह जाने के बाद वहाँ के शासक ‘निचक्षु’ ने कौशाम्बी की स्थापना करके अपनी राजधानी बनायी थी।

  • विस्तृत जानकारी के लिये देखें – अवन्ति

मगध

१६ महाजनपदों में मगध सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। आगे चलकर सभी राज्य इसी में मिला लिये गये। एक प्रकार से मगध का इतिहास सम्पूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया। ऐतिहासिक काल के मगध साम्राज्यवाद का प्रारम्भ बिम्बिसार के सिंहासनारोहण से होता है। मगध कीमहत्ता का वास्तविक संस्थापक बिम्बिसार था। बिम्बिसार महात्मा बुद्ध के मित्र और संरक्षक थे। बिम्बिसार एक महान् विजेता था। उसने अपने पड़ोसी राज्य अंग पर आक्रमण कर उसे जीता तथा अपने साम्राज्य में मिला लिया।

बिम्बिसार अपने शासनकाल के अंतिम अवस्था में ( वृद्धावस्था में ) उसके स्वयं के पुत्र अजातशत्रु द्वारा बंदीगृग में डाल दिया गया और वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। अजातशत्रु भी घोर साम्राज्यवादी था। उसने वज्जिसंघ को परास्त कर उसका राज्य मगध में मिला लिया। इसके पश्चात् उसने मल्ल संघ को भी विजित किया। उसके समय में मगध राज्य का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ।

‘बिम्बिसार की विजय ने मगध की उस विजय और विस्तार का दौर प्रारम्भ किया जो अशोक द्वारा कलिंग विजय के बाद तलवार रख देने के साथ समाप्त हुआ।’*

  • Political History Of Ancient India. p. 117. — H. C. Ray Chaudhary.*

महाजनपद : उदय, विकास और कारक

जन से जनपद और जनपद से महाजनपद के बनने की प्रक्रिया के लिये वैदिक साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। ऋग्वेद तथा ऋग्वेदेतर वैदिक साहित्यों के अध्ययन से विभिन्न जनों के जीवन तथा संगठन, जन से जनपद के विकास की प्रक्रिया तथा प्रारम्भिक अवस्था में जनपदीय जन-जीवन की जानकारी प्राप्त होती है।

बौद्ध साहित्य में भी महाजनपद काल की स्थितियों का अच्छा चित्रण मिलता है। अंगुत्तर निकाय में सोलह महाजनपदों तथा क्षेत्रविस्तार के निमित्त काशी, कोशल तथा मगध जनपदों के राजनीतिक संघर्षों का वर्णन है, जो जनपदीय जीवन में ऐसी नवीन प्रवृत्तियों के उदय का परिचायक है जिनके परिणामस्वरूप मगध के नेतृत्व में एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना हुई।

इसके अतिरिक्त पुरातात्विक सामग्री भी इस विषय पर कुछ प्रकाश डालते हैं। वर्तमान उत्तर प्रदेश के ऐटा जनपद में स्थित अतरंजीखेड़ा तथा अन्य स्थानों पर की गयी खुदाइयों से ज्ञात होता है कि भारत में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व लगभग १००० के आसपास आरम्भ हो चुका था और वैदिक कबीलों के विस्तार कार्य में लोहे के बने अस्त्र आदि लाभदायक सिद्ध हुए होंगे।

इसके अतिरिक्त गंगा के मैदान में कई स्थलों पर ताँबे की बनी हुई वस्तुओं के ढेर मिले हैं, इनका काल भी ईसा पूर्व १००० के लगभग माना जाता है। इन्हीं स्थानों पर हमें चित्रित घूसर मुद्भाण्डों के कुछ नमूने प्राप्त हुए हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गंगा घाटी में रहने वाले आर्य लोग अब पशुचारण के स्थान पर कृषि में संलग्न थे और पहले की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत कर रहे थे।

इसके साथ ही पुरातात्त्विक सामग्री से हमें आर्यों की आर्थिक दशा के बारे में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तर वैदिक युग में हुए आर्थिक परिवर्तनों के कारण ऋग्वैदिक कबायली जन-जीवन में दरार का पड़ रही थी और क्षेत्रीयता की भावना बलवती होती जा रही थी। पशुचारण से कृषि की ओर अग्रसर होना, जिसके पर्याप्त प्रमाण उत्तर वैदिक साहित्य और कतिपय पुरातात्त्विक अवशेषों में मिलते हैं, अपने आप में एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके फलस्वरूप गंगा घाटी के निवासियों के जीवन के स्थायित्व का पुट आता जा रहा था।

छोटे-छोटे कबीले ‘राज्य’ बनते जा रहे थे और ‘साम्राज्य’ का लक्ष्य भी अब दूर नहीं रह गया था। बुद्ध के समय तक पहुँचते-पहुँचते ‘जन’ का पर्याप्त रूपांतरण हो चुका था और जनपदों का जन्म हो गया था। बौद्ध एवं जैन साहित्य में तो स्पष्ट रूप से सोलह महाजनपदों की सूची का उल्लेख मिलते हैं।

महाजनपदों के विकास पर सूक्ष्मता से विचार करनें पर हमें इनके विकास में तीन रूप दिखाई देते हैं :—

  • कुछ जनों या कबीलों ने अकेले ही जनपद की अवस्था प्राप्त कर ली थी; यथा – मत्स्य, चेदि, काशी, कोसल तथा कुछ अन्य जन इस श्रेणी में आते हैं।
  • कुछ जनों में पहले संयोग हुआ और उसके पश्चात् उसका जनपद के रूप में विकास हुआ। इस प्रकार का उदाहरण पंचाल जनपद है, जिसमें पांच जनों का संयोग था।
  • अनेक जन अधिक शक्तिशाली जन के द्वारा विजित होने के बाद उन्हीं में मिला लिए गये; यथा – अज जन इस प्रकार का एक उदाहरण है।

जनपद राज्यों का विकास अनेक संस्थाओं के विकास से सम्बन्धित था। लगभग ईसा पूर्व ७०० तक लोहे का प्रयोग पहले से अधिक होने लगा था और इससे बनाये जाने वाले औजारों से कृषि तथा अन्य उत्पादन के साधनों में प्रगति होती जा रही थी। यह स्पष्ट है कि दलदली भू-भागों में बसने की समस्या के बावजूद ईसा पूर्व ६०० के सभी प्रसिद्ध नगर गंगा-यमुना नदियों के आस-पास ही बसाये गये थे। इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, कौशांबी तथा बनारस अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध थे।

एक तो गंगा नदी स्वयं ही एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग थी और इसके द्वारा समुद्र तक पहुँचना भी सम्भव था। दूसरे, बिहार में गंगा ऐसे भू-भाग के पास से प्रवाहमान थीं जहाँ पर कच्चा लोहा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। एक बार इन खानों का मार्ग मालूम होने पर आर्यों के लिये हिमालय की नीचे की श्रेणियों से मगध की ओर जंगल को साफ करते हुए मुड़ना आसान हो चला था।

व्यापारिक प्रगति, सिक्कों का प्रचलन, नगरों का उत्थान इत्यादि ईसा पूर्व छठी शताब्दी की आर्थिक दशा के महत्त्वपूर्ण पहलू थे। जैन और बौद्ध साहित्यों से हमें कई नगरों के उत्थान के विवरण प्राप्त होते हैं। चंपा, राजगृह, कौशांबी, श्रावस्ती, उज्जयिनी, वैशाली, पाटलिपुत्र इत्यादि प्रमुख नगर थे। व्यापारिक मार्गों पर स्थित नगरों का विशेष महत्त्व था उदाहरणार्थ कम्बोज, कौशांबी, कोसल, वाराणसी आदि व्यापारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। अनेक स्थानों पर घोड़ों के सौदागरों का वर्णन है, जो उत्तरापथ से आकर वाराणसी में घोड़े विक्रय करते थे।

छठीं शताब्दी ई० पू० में कृषि के अतिरिक्त धन प्राप्ति के अनेक साधन थे। बौद्ध साहित्य से हमें कई प्रकार के उद्योग-धंधों के बारे में सूचना प्राप्त होती है; जैसे कि कुम्भकार, रथकार, स्वर्णकार, धातुकार, बढ़ई, हाथी दाँत का काम करने वाले तथा रेशम का काम करने वाले। शिल्पकार/कारीगर प्रायः श्रेणियों में संगठित थे। प्रत्येक श्रेणी का एक मुखिया होता था जिसे ‘जेत्थक’ या ‘जेष्ठक’ कहते थे। कभी-कभी सेट्ठी या श्रेष्ठिन् ( श्रेष्ठि/श्रेष्ठि ) भी श्रेणी का मुखिया होता था। ये श्रेष्ठि कई बार महाजन का काम करते थे और बहुधा व्यापारिक श्रेणियों के भी मुखिया भी होते थे। प्रायः सभी राजा श्रेष्ठियों को बहुत आदर और सम्मान देते थे। इस प्रकार नगरों में शिल्पकार/कारीगर व श्रेष्ठि दो वर्ग अधिक महत्त्वपूर्ण थे।

गाँवों में ‘गहपतियों’ का लगभग वही स्थान था जो श्रेष्ठियों का नगरों में था। गाँव की उर्वरा भूमि का बड़ा भाग गृहपति (गृहपति) के पास होता था। बौद्ध साहित्य में ऐसे कई गृहपतियों का विवरण मिलता है जिनके पास कृषि और भूमि के माध्यम से बहुत धन-धान्य था। गहपति मेंदकके बारे में बौद्ध साहित्य में यह विवरण आया है कि वह सेना को वेतन देता था और गौतम बुद्ध तथा बौद्ध संघ की सेवा के लिये उसने १,२५०गायों के समूह भेंट किये थे। इस प्रकार समाज में कुछ वर्ग ऐसे बने जिनके हाथ में धन का अधिक भाग था

ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक मुद्रा प्रणाली का भी उदय हो चुका था। लगभग सम्पूर्ण भारत से प्राप्त चाँदी की आहत मुद्राओं के सैकड़ों पुंज मिलने और उत्खननों के दौरान भी उनकी प्राप्ति से इन मुद्राओं की संख्या सहस्रों में हो गयी है। मुद्रा के आगमन से निश्चय ही व्यापार-विनिमय में पर्याप्त सहयोग मिलता होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तकनीकी उपलब्धियों के कारण कृषि का उत्पादन अब कुछ अधिशेष (surplus ) की स्थिति में पहुँच चुका था जिसके परिणामस्वरूप राज्य की शक्ति के उदय में और सहायता मिली। सामरिक रूप से शक्तिशाली तत्त्वों को इस अधिशेष उत्पादन को प्राप्त करना आसान होता होगा। इन सभी गतिविधियों ने ‘जन’ से ‘जनपद’ की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी

महाजनपद : शासन व्यवस्था

अंगुत्तर निकाय की सूची में जिन १६ महाजनपदों का उल्लेख हुआ, इनमें दो प्रकार के शासन प्रणाली देखने को मिलती है :

१. राजतन्त्र : इनमें राज्य का अध्यक्ष राजा होता था। इस प्रकार के राज्य थे— अंग, मगध, काशी, कोशल, चेदि, वत्स, करु, पञ्चाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गन्धार तथा कम्बोज।

२. गणतन्त्र : ऐसे राज्यों का शासन राजा द्वारा न होकर गण अथवा संघ द्वारा होता था। इस प्रकार के राज्य थे — वज्जि तथा मल्ल।

राजतंत्र – जहाँ राजा का पद वंशानुगत होता था। राजतंत्र के बारे में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा घाटी में अधिशेष उत्पादन एवं लौह तकनीक के आगमन से जिन बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना हुई, उन्हें करारोपण (taxation) का आदि रूप निश्चित करने का मौका मिला। राजतंत्र ने एक प्रकार की नौकरशाही को भी जन्म दिया। राजा की सहायता के लिये नियुक्त इन पदाधिकारियों में संग्रहीत, सूत, ग्रामणी, भागदूध, पुरोहित आदि थे। ये लोग राजा के प्रति उत्तरदायी थे और इन्हें कर से प्राप्त हुए धन में से वेतन दिया जाता था। इन्हें ‘रत्निन’ भी कहा जाता था। स्थानीय शासन की देखरेख एक विशेष मंत्री करता था। पुरोहित धार्मिक मामलों में राजा का सलाहकार होता था। सेना के प्रधान ‘सेनानी’ कहलाते थे। राज्यारोहण के समय किये जाने वाले यज्ञ व कर्मकांड में देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे राजा को अपने सब गुण प्रदान करें। इससे राजा की शक्ति अब पहले से अधिक हो गयी।

इन सोलह महाजनपदों के अतिरिक्त भी उत्तरी भारत में कुछ ऐसे राज्य थे, जहाँ गणराज्य पद्धति से शासन होता था। इनमें सबसे प्रमुख ‘शाक्य’ जाति थी। इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी तथा इनकी महत्ता गौतम बुद्ध के कारण और बढ़ गयी थी। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में कोसल ने शाक्यों को हराकर उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। लिच्छवि संघ तथा मल्ल राष्ट्र भी गणराज्य पद्धति को मानते थे। इनके अतिरिक्त रामग्राम में रहने वाली कोलिय जाति भी गणराज्य पद्धति में विश्वास रखती थी। गणराज्य पद्धति को मानने वाली अन्य जातियाँ भी थी, जैसे कि भाग तथा मोरिय। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि इन राज्यों में पहले राजा शासन करता था। यह संभव है कि राजा के निरंकुश व अत्याचारी शासन से तंग आकर ही जनता ने गणराज्य स्थापित किया हो। लोकमत से ही शासन करने की प्रवृत्ति प्रबल हो उठी और कुछ जातियों ने राजा तथा उसके देवी अधिकारों का मुखौटा उतार फेंका। गणराज्यों के बारे में एक बात जो विशेष रूप से देखने में आती है, वह यह है कि ये प्रायः हिमालय की तलहटी में स्थित थे। यह संभव है कि जब गंगा घाटी में ‘जन’ से ‘जनपद’ की प्रक्रिया चल रही थी, तब कबायली जीवन से प्रभावित लोग हिमालय के इन सापेक्षिक अगम्य प्रदेशों में आकर बस गये हों। इन अ-राजतंत्र राज्यों के बारे में जो प्रायः हजारों ‘राजाओं’ का उल्लेख मिलता है, उसका शाब्दिक अर्थ न लगाकर, कबायली मुखिए का अर्थ लगाना चाहिए।

निष्कर्ष

साहित्यिक स्रोतों के आलोचनात्मक समीक्षोपरांत विद्वानों ने जिन १६ महाजनपदों की प्रामाणिकता स्वीकार की है, वे इस प्रकार हैं : अंग, मगध, काशी, वत्स, कोसल, शूरसेन, पंचाल, कुरु, मत्स्य, चेदि, अवंति, गंधार, काम्बोज, अश्मक, वज्जि और मल्ल।

इस प्रकार छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के प्रारम्भ में उत्तर भारत विकेन्द्रीकरण एवं विभाजन के दृश्य उपस्थित कर रहा था। इन सोलह महाजनपदों में पारस्परिक संघर्ष, विद्वेष एवं घृणा का वातावरण व्याप्त था। प्रत्येक महाजनपद अपने राज्य की सीमा बढ़ाना चाहता था। काशी और कोशल के राज्य एक दूसरे के शत्रु थे। प्रारम्भ में काशी विजयी रहा, परन्तु अन्ततोगत्वा वह कोशल को विस्तारवादी नीति का शिकार बना। इसी प्रकार अंग के साथ मगध तथा अवन्ति के साथ अश्मक परस्पर संघर्ष में उलझे हुए थे। गणराज्यों का अस्तित्व राजतन्त्रों के लिये असहनीय हो रहा था। प्रत्येक राज्य अपने पड़ोसी की स्वतन्त्र सत्ता को समाप्त करने पर तुला हुआ था। अन्य जनपदों की स्थिति भी इससे भिन्न नहीं रही होगी। इस विस्तारवादी नीति का परिणाम अच्छा निकला। निर्बल महाजनपद शक्तिशाली राज्यों में मिला लिये गये जिसके फलस्वरूप देश में एकता की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला।

बौद्ध साहित्य में सोलह महाजनपदों का जिस प्रकार बार-बार उल्लेख आता है उससे प्रतीत होता है कि उस समय मगध, वत्स, कोसल और अवंति – ये चार सबसे अधिक शक्तिशाली थे। यद्यपि इनमें पारस्परिक वैवाहिक संबंध भी थे, किंतु ये आपस में संघर्षरत थे और अपनी-अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने में व्यस्त थे। इस संघर्ष में अंततः मगध विजयी रहा।

द्वितीय नगरीय क्रांति

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