बुद्धकालीन गणराज्य

भूमिका

प्रारम्भ में अधिकांश इतिहासकारों का यह विचार था कि प्राचीन भारत में केवल राजतन्त्र ही थे। परन्तु कालान्तर में यह तथ्य प्रकाश में आया कि प्राचीन भारत में राजतन्त्रों के साथ-साथ गण अथवा संघ राज्यों का भी अस्तित्व रहा है। सबसे पहले १९०३ में रिज डेविड्स ने साम्राज्यवादी दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिये गणराज्यों की खोज की थी। इन गणों को ‘प्राचीन भारतीय गणराज्य’ या ‘बुद्धकालीन गणराज्य’ या ‘छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के गणराज्य’ या ‘गंगा घाटी के बुद्धकालीन गणराज्य’ जैसे नामों से अभिहित किया जाता है।

प्राचीन भारतीय गणराज्य : प्रमाण

साहित्यिक प्रमाण

प्राचीन साहित्य में अनेक स्थानों को गणतन्त्र से भिन्न बताया गया है। अवदान शतक से ज्ञात होता है कि मध्य प्रदेश के कुछ व्यापारी दक्षिण गये जहाँ के लोगों ने उनसे उत्तर भारत की शासन व्यवस्था के विषय में पूछा। उत्तर में उन्होंने बताया कि ‘कुछ देश गणों के अधीन हैं तथा कुछ राजाओं के (केचिद्देशा गणाधीना केचिद्राजा धौना)। अचारांगसूत्र जैन भिक्षु को चेतावनी देता है कि उसे उस स्थान में नहीं जाना चाहिए जहाँ गणतन्त्र का शासन हो। ‘संघ’ गण का पर्यायवाची था।

पाणिनि ने संघ को राजतन्त्र से स्पष्टतः भिन्न बताया है—‘क्षत्रियादेक राजात संघ प्रतिषेधार्थकम्। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दो प्रकार के संघ राज्यों का उल्लेख मिलता है- ‘वार्त्ताशस्त्रोपजीवी’ तथा ‘राजशब्दोपजीवी’। प्रथम के अन्तर्गत कम्बोज, सुराष्ट्र आदि तथा दूसरे के अन्तर्गत लिच्छवि, वज्जि, मल्ल, मद्र, कुकुर, पञ्चाल आदि की गणना की गयी है। स्पष्टत यहाँ ‘राजशब्दोपजीवी’ संघ से तात्पर्य उन गणराज्यों से ही है जो ‘राजा’ की उपाधि का प्रयोग करते थे। महाभारत में भी गण राज्यों का उल्लेख मिलता है।

भारतीय साहित्य के अतिरिक्त यूनानी-रोमन (Classical) लेखकों के विवरण से भी प्राचीन भारत में गणराज्यों का अस्तित्व प्रमाणित हो जाता है। इससे सूचित होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब तथा सिन्ध में कई गणराज्य थे जो राजतन्त्रों से भिन्न थे।

मुद्रा प्रमाण

मुद्रा सम्बन्धी प्रमाणों से भी गणराज्यों का अस्तित्व सिद्ध होता है। मालव, यौधेय, अर्जुनायन आदि अनेक गणराज्यों के सिक्के राजा का उल्लेख न करके ‘गण’ का ही उल्लेख करते हैं।

आधुनिक बनाम प्राचीन गणराज्य

इस प्रकार अब यह सिद्ध हो गया है कि प्राचीन भारत में गणराज्य थे तथा वे राजतन्त्रों से इस अर्थ में भिन्न थे कि उनका शासन किसी वंशानुगत राजा के हाथ में न होकर गण अथवा संघ के हाथ मे होता था।

परन्तु प्राचीन भारत के गणतन्त्र आधुनिक काल के गणतन्त्र से भिन्न थे। आधुनिक काल में गणतन्त्र प्रजातन्त्र का समानार्थी है जिसमें शासन की अन्तिम शक्ति जनता के हाथों निहित रहती है।

प्राचीन भारत के गणतन्त्र इस अर्थ में गणतन्त्र नहीं कहे जा सकते। उन्हें हम आधुनिक शब्दावली में ‘कुलीनतन्त्र’ अथवा ‘अभिजाततन्त्र’ (Aristocracy) कह सकते हैं जिसमें शासन का संचालन सम्पूर्ण प्रजा द्वारा न होकर किसी कुल विशेष के प्रमुख व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। उदाहरण के लिए यदि हम वैशाली के लिच्छवि गणराज्य का नाम लेते हैं तो हमें यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वहाँ के शासन में वैशाली नगर की सम्पूर्ण जनता भाग लेती थी। बल्कि तथ्य यह है कि केवल लिच्छवि कुल के ही प्रमुख व्यक्ति मिलकर शासन चलाते थे।

प्रमुख गणराज्य

छठी शताब्दी ई०पू० या बौद्धकाल में गंगाघाटी में कई गणराज्यों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं जो इस प्रकार है :

१. कपिलवस्तु के शाक्य

२. सुमसुमारिगिरि के भग्ग

३. अलकप्प के बुलि

४. केसपुत्त के कलाम

५. रामगाम के कोलिय

६. कुशीनारा के मल्ल

७. पावा के मल्ल

८. पिप्पलिवन के मोरिय

९. वैशाली के लिच्छवि

१०. मिथिला के विदेह

कपिलवस्तु के शाक्य

यह गणराज्य नेपाल की तराई में स्थित था जिसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। शाक्य गणराज्य के उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में रोहिणी नदी तथा दक्षिण और पश्चिम में राप्ती नदी स्थित थी। कपिलवस्तु की पहचान नेपाल में स्थित आधुनिक तिलौराकोट से की जाती है। कुछ विद्वान् इसकी पहचान सिद्धार्थनगर जिले के पिपरहवा नामक स्थान से करते हैं जहाँ से बौद्ध स्तूप तथा उसकी धातुगर्भ-मंजुषा के अवशेष प्राप्त किये गये हैं। पिपरहवा धातु अवशेष की स्थापना शाक्यवंशीय सुकीर्ति ने करवाया था।

कपिलवस्तु के अतिरिक्त इस गणराज्य में अन्य अनेक नगर थे- चातुमा, सामगाम, खोमदुस्स, सिलावती, नगरक, देवदह, समर आदि। बुद्ध को माता माहामाया या मायादेवी स्वयं देवदह की ही कन्या थी।

शाक्य गणराज्य में लगभग ८०,००० परिवार थे। शाक्य लोग अपने रक्त पर बड़ा अभिमान करते थे। इसी रक्ताभिमान के कारण वे अपनी जाति के बाहर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं करते थे।

गौतम बुद्ध का जन्म इसी गणराज्य में हुआ था। बुद्ध से सम्बन्धित होने के कारण इस गणराज्य का महत्त्व में वृद्धि हो गयी। परन्तु राजनीतिक शक्ति के रूप में शाक्य गणराज्य का कोई विशेष महत्त्व नहीं था। यह कोशल राज्य की अधीनता स्वीकार करता था। इस राज्य का विनाश कोशल नरेश विड्डूभ के द्वारा किया गया।

सुमसुमारगिरि के भग्ग

‘सुमसुमारगिरि के भग्ग’ अथवा ‘सुमसुमार पर्वत के भग्ग’ की पहचान उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद में स्थित वर्तमान चुनार से किया गया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि भग्ग ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में उल्लिखित ‘भर्ग’ वंश से सम्बन्धित थे। भग्ग गणराज्य के अधिकार क्षेत्र में विन्ध्य क्षेत्र की गमुना तथा सोन नदियों के बीच का प्रदेश सम्मिलित था। भग्ग लोग वत्स महाजनपद की अधीनता स्वीकार करते थे। ज्ञात होता है कि सुमसुमार गिरिपर वत्सराज उदयन का पुत्र ‘बोधि कुमार’ निवास करता था।

अलकप्प के बुलि

यह गणराज्य आधुनिक बिहार राज्य के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जनपदों के मध्य स्थित था। बुलियों का वेठद्वीप (वेतिया) के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। यही संभवतः उनकी राजधानी थी। बुलि लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।

महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार महात्मा बुद्ध के धातु अवशेष पर अलकप्प के बुलियों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था।

केसपुत्त के कलाम

केसपुत का निश्चित रूप से समीकरण स्थापित करना कठिन है। यह गणराज्य कोशल के पश्चिम में स्थित था। सम्भवतः यह गणराज्य सुल्तानपुर जनपद के कुंड़वार से लेकर पालिया नामक स्थान तक फैला हुआ था।

वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि कालामों का सम्बन्ध पंचाल जनपद के ‘केशियों’ के साथ था। कालाम लोग कोसल की अधीनता स्वीकार करते थे।

इसी गणराज्य के ‘आलारकालाम’ नामक आचार्य थे। आलारकालाम उरुवेला के समीप रहते थे। महात्मा बुद्ध ने गृहत्याग करने के बाद सर्वप्रथम इन्हीं से उपदेश ग्रहण किया था।

रामग्राम के कोलिय

रामगाम या रामग्राम के कोलिय ‘शाक्य गणराज्य’ के पूर्व में स्थित था। दक्षिण में यह गणराज्य सरयू नदी तक विस्तृत था। शाक्य और कोलिय राज्यों के बीच रोहिणी नदी बहती थी।

दोनों राज्यों के लोग सिंचाई के लिये रोहिणी नदी के जल पर निर्भर करते थे। नदी के जल के लिये उनमें प्रायः संघर्ष भी हो जाता था। एक बार गौतम बुद्ध ने हो इसी प्रकार के एक संघर्ष को शान्त किया था।

कोलिय गण के लोग अपनी ‘पुलिस’ शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। कोलियों की राजधानी रामग्राम की पहचान वर्तमान गोरखपुर जनपद में स्थित ‘रामगढ़ ताल’ से की गयी है।

कुशीनारा के मल्ल

कुशीनारा की पहचान कुशीनगर जनपद में स्थित वर्तमान ‘कसया’ नामक स्थान से की जाती है। वाल्मीकि रामायण में मल्लों को लक्ष्मण के पुत्र ‘चन्द्रकेतु मल्ल’ का वंशज कहा गया है।

पावा के मल्ल

पावा आधुनिक कुशीनगर जनपद में स्थित पडरौना नामक स्थान था। मल्ल लोग सैनिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। जैन साहित्य से पता चलता है कि मगध नरेश अजातशत्रु के भय से मल्लों ने लिच्छवियों के साथ मिलकर एक संघ बनाया था अजातशत्रु ने लिच्छवियों को पराजित करने के बाद मल्लों को भी जीत लिया था।

पिप्पलिवन के मोरिय

मोरिय गणराज्य के लोग ‘शाक्य कुल’ की ही एक शाखा थे। महावंशटीका से ज्ञात होता है कि कोसल नरेश विड्डूभ के अत्याचारों से बचने के लिये वे हिमालय प्रदेश में भाग गये जहाँ उन्होंने मोरों की कूक से गुंजायमान स्थान में पिप्पलिवन नामक नगर बसा लिया। मोरों के प्रदेश का निवासी होने के कारण ही वे ‘मोरिय’ कहलाये। ‘मोरिय’ शब्द से ही ‘मौर्य’ शब्द बना है। चन्द्रगुप्त मौर्य इसी परिवार में उत्पन्न हुए थे। पिप्पलिवन का समीकरण गोरखपुर जनपद में ‘कुसुम्हीं’ के पास स्थित ‘राजधानी’ नामक ग्राम से किया जाता है।

वैशाली के लिच्छवि

यह छठी शताब्दी ई०पू० या बौद्धकाल का सबसे बड़ा तथा शक्तिशाली गणराज्य था। लिच्छवि वज्जिसंघ में सर्वप्रमुख थे। उनकी राजधानी वैशाली, मुजफ्फरपुर जिले के ‘बसाढ़’ नामक स्थान में स्थित थी। महावग्ग जातक में वैशाली को ‘एक धनी, समृद्धशाली तथा घनी आबादी वाला नगर’ कहा गया है। यहाँ अनेक सुन्दर भवन, चैत्य तथा विहार थे।

‘एकपण्ण जातक’ से ज्ञात होता है कि वैशाली नगर चारों ओर से तीन दीवारों से घिरा हुआ था। प्रत्येक दीवार एक-दूसरी से एक योजन दूर थी और उसमें पहरे की मीनारों वाले तीन द्वार बने हुए थे।

लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवास के लिये महावन में प्रसिद्ध ‘कुट्टागारशाला’ का निर्माण करवाया था जहाँ रहकर गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश दिये थे।

लिच्छवि लोग अत्यन्त ‘स्वाभिमानी तथा स्वतन्त्रता प्रेमी’ हुआ करते थे। उनकी शासन व्यवस्था संगठित थी। बुद्ध काल में यह राज्य अपनी समृद्धि की पराकाष्ठा पर था। यहाँ का संघ प्रमुख ‘चेटक’ था। उसकी कन्या ‘छलना’ का विवाह मगधनरेश विम्बिसार के साथ हुआ था। महावीर की माता ‘त्रिशला’ उसकी बहन थी।

जैन साहित्य से पता चलता है कि अजातशत्रु के विरुद्ध चेटक ने मल्ल, काशी तथा कोशल के साथ मिलकर एक सम्मिलित मोर्चा बनाया था।

मिथिला के विदेह

बिहार प्रान्त के भागलपुर और दरभंगा जनपदों के भू-भाग पर विदेह गणराज्य स्थित था। प्रारम्भ में यह राजतन्त्र था। यहाँ के राजा जनक अपनी शक्ति एवं दार्शनिक ज्ञान के लिये प्रसिद्ध थे। परन्तु महात्मा बुद्ध के समय में यह संघ राज्य बन गया था।

विदेह लोग भी वज्जि संघ के सदस्य थे। उनकी राजधानी मिथिला की पहचान वर्तमान जनकपुर से की जाती है। बुद्ध के समय मिथिला एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था जहाँ श्रावस्ती के व्यापारी अपना माल लेकर आते थे।

गणराज्यों का विधान तथा शासन-पद्धति

गणराज्यों के विधान तथा शासन पद्धति के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है। परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि लिच्छवि जैसे बड़े गणराज्यों की शासन व्यवस्था मोरिय, कोलिय आदि छोटे राज्यों की अपेक्षा भिन्न रही होगी।

गण की कार्यपालिका का अध्यक्ष एक निर्वाचित पदाधिकारी होता था जिसको ‘राजा’ कहा जाता था। सामान्य प्रशासन की देखरेख के साथ-साथ गणराज्य में आन्तरिक शान्ति एवं सामन्जस्य बिठाये रखना उसका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था।

अन्य पदाधिकारियों में उपराजा (उपाध्यक्ष), सेनापति, भाण्डागारिक (कोषाध्यक्ष) इत्यादि मुख्य थे।

राज्य की वास्तविक शक्ति एक ‘केन्द्रीय समिति’ अथवा ‘संस्थागार’ में निहित होती थी। इस संस्थागार अथवा समिति के सदस्यों की संख्या काफी बड़ी होती थी। समिति ( संस्थागार ) के सदस्य भी ‘राजा’ कहे जाते थे। ‘एकपण्ण जातक’ के अनुसार लिच्छवि गणराज्य की केन्द्रीय समिति में ७७०७ राजा थे और उपराजाओं, सेनापतियों एवं कोषाध्यक्षों की संख्या भी यही थी।

इसी तरह अन्य स्थान पर शाक्यों के संस्थागार के सदस्यों की संख्या ५०० बतायी गयी है। ये संभवतः राज्य के कुलीन परिवारों के प्रमुख थे जिन्हें ‘राजा’ की पदवी धारण करने का अधिकार था।

प्रत्येक राजा के अधीन उपराजा, सेनापति, भाण्डागारिक आदि पदाधिकारी होते थे। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि लिच्छवि राज्य अनेक छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था तथा प्रत्येक इकाई का अध्यक्ष एक राजा होता था जो अपने अधीन पदाधिकारियों की सहायता से उस इकाई का शासन चलाता था। प्रत्येक इकाई के अध्यक्ष केन्द्रीय समिति के सदस्य होते थे।

गणराज्यों से सम्बन्धित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों, यथा- संधि-विग्रह, कूटनीतिक व वैदेशिक सम्बन्ध, राजस्व संग्रह आदि के ऊपर केन्द्रीय समिति के सदस्य संस्थागार में पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात बहुमत से निर्णय लिया करते थे। उदाहरणार्थ :

  • जब ‘रोहिणी नदी’ के जल वितरण के सम्बन्ध में कोलियों तथा शाक्यों के कृषकों के बीच विवाद हुआ तो उन्होंने अपने-अपने अधिकारियों को सूचित किया तथा अधिकारियों ने अपने राजाओं को बताया। राजाओं ने इस विषय पर पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात् युद्ध का निर्णय लिया।
  • कोसल नरेश विड्डूभ द्वारा शाक्य गणराज्य पर आक्रमण किये जाने तथा उनकी राजधानी का घेरा डालकर उनसे आत्म समर्पण के लिये कहे जाने पर शाक्यों ने अपने संस्थागार में आत्म समर्पण अथवा युद्ध करने के ऊपर विचार विमर्श किया। अन्त में बहुमत से आत्म समर्पण का निर्णय लिया गया।
  • लिच्छवि गणराज्य में सेनापति के चुनाव का भी एक विवरण प्राप्त होता है। तदनुसार सेनापति ‘खण्ड’ की मृत्यु के बाद सेनापति ‘सिंह’ की नियुक्ति संस्थागार के सदस्यों द्वारा निर्वाचन के आधार पर की गयी थी।
  • कुशीनारा के मल्लों ने बुद्ध की अन्त्येष्टि तथा उनकी धातुओं के विषय में अपने संस्थागार में विचार-विमर्श किया था।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि गणराज्यों का शासन पद्धति जनतन्त्रात्मक थी।

यदि यह मान लिया जाय कि बौद्ध-संघ की कार्य-पद्धति गणराज्यों की कार्य-पद्धति पर आधारित थी क्योंकि स्वयं वे भी इनकी कार्य-प्रणाली के प्रशंसक थे। तो यह ससम्भव है कि महात्मा बुद्ध ने इन गणसंघों के अनुरूप ही ‘बौद्ध-संघ’ को रूप दिया हो। इस तरह हम गणराज्यों की कार्य-प्रणाली के सम्बन्ध में कुछ और निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि संस्थागार की कार्यवाही आधुनिक प्रजातन्त्रात्मक संसद के ही समान थी। प्रत्येक सदस्य के बैठने की अलग-अलग व्यवस्था की जाती थी। इस कार्य के लिए ‘आसनपन्नापक’ नामक पदाधिकारी होता था। गणपूर्ति, प्रस्ताव रखने, मतगणना आदि के लिये सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित नियम होते थे।

संस्थागार या समिति में रखा जाने वाला प्रस्ताव सामान्यतः तीन बार दोहराया जाता था तथा विरोध न होने पर स्वीकार कर लिया जाता था। विरोध होने पर बहुमत लिया जाता था। गुप्तमत प्रणाली (Secret Ballot) की प्रथा थी। अनुपस्थित सदस्य के मत लेने के भी नियम बने हुए थे। मतदान अधिकारी को ‘शलाका ग्राहक’ कहा जाता था। प्रत्येक सदस्य को अनेक रंगों की शलाकायें दी जाती थीं। विशेष प्रकार के मत के लिये विशेष रंग की शलाका होती थी जो शलाका ग्राहक के पास पहुँचती थीं। मत के लिये छन्द शब्द का प्रयोग मिलता है। विवादग्रस्त विषय समितियों के पास भेजे जाते थे।

संस्थागार के कार्यों के संचालन के लिये अनेक पदाधिकारी होते थे। गणों की कार्यपालिका का अध्यक्ष ही संभवतः संस्थागार का भी प्रधान होता था। सामान्यत गणराज्यों की सरकार पर केन्द्रिय समिति का पूर्ण नियंत्रण होता था। राज्य के उच्च पदाधिकारी तथा प्रादेशिक शासकों की नियुक्ति समिति द्वारा की जाती थी। गणराज्यों में एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी जिसमें चार से लेकर बीस तक सदस्य होते थे। ये केन्द्रीय समिति द्वारा ही नियुक्त किये जाते थे। गणाध्यक्ष ही मन्त्रिपरिषद् का प्रधान होता था।

केन्द्रीय समितियों द्वारा न्याय का भी संपादन किया जाता था।

वज्जिसंघ की न्याय व्यवस्था के विषय में बुद्धघोष की टीका ‘सुमंगलविलासिनी’ से कुछ सूचनायें प्राप्त होती है। इससे हमें ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ में आठ न्यायालय होते थे। कोई भी व्यक्ति तभी दंडित किया जा सकता था जब वह एक-एक करके आठ न्यायालयों द्वारा दोषी ठहरा दिया गया हो। प्रत्येक न्यायालय अपराधी को मुक्त करने के लिये स्वतन्त्र होता था। इन न्यायालयों के प्रधान अधिकारी इस प्रकार थे —

१. विनिच्चय महामात (विनिश्चय महामात्र),

२. वोहारिक (व्यवहारिक),

३. सूत्ताधार (सूत्रधार),

४. अट्ठकुलक (अष्टकुलक),

५. भाण्डागारिक,

६. सेनापति,

७. उपराजा और

८. राजा।

विनिश्चय महामात्र पहला जबकि राजा का न्यायालय अन्तिम होता था। दण्ड देने का अधिकार केवल राजा को ही था। अन्य न्यायालय निर्दोष होने पर अपराधी को मुक्त तो कर सकते थे किन्तु दोषी होने पर उसे दण्डित नहीं कर सकते थे। वे उसे उच्चतर न्यायालय में भेज देते थे। राजा दण्ड देते समय ‘पवेनिपोट्ठक’ अर्थात् पूर्व दृष्टान्तों का अनुसरण करते थे और तदनुसार दण्ड का निर्धारण करते थे।

इस विवरण से स्पष्ट होता है कि लिच्छवि गणराज्य में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को पूर्णतया सुरक्षित रखा गया। यह एक नागरिक की स्वतन्त्रता के जनतांत्रिक विचारधारा का समर्थन करता है जो विश्व इतिहास में शायद अद्वितीय है।*

  • It upholds a democratic view of the liberty of a citizen and has probably no parallel in the history of world. — Age of Imperial Unity.*

गणराज्यों में ग्राम पंचायतें भी होती थीं जो राजतन्त्रात्मक राज्यों की ग्राम पंचायतों के समान ही अपना कार्य करती थीं। ये कृषि, व्यापार, उद्योग इत्यादि के विकास का ध्यान रखती थीं।

गणराज्यों के विधान तथा शासन के विषय में हमें जो थोड़ी बहुत सी सूचना मिलती है उससे ऐसा स्पष्ट होता है कि ये राज्य बड़े समृद्ध तथा सुव्यवस्थित रहे होंगे। स्वयं महात्मा बुद्ध वज्जिसंघ की सुव्यवस्था से अत्यधिक प्रभावित थे। ‘महापरिनिर्वाणसूत्र’ से पता चलता है कि उन्होंने अपने शिष्य आनन्द से वज्जियों की प्रशंसा करते हुए कहा था —

“जब तक वे बार-बार अपने संस्थागार में बैठक करते रहेंगे, मिलकर सहमति से रहेंगे, निर्णय लेंगे, प्राचीन परम्पराओं का पालन करेंगे, अपने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करेंगे तथा उनके आदेश का पालन करेंगे तब तक उनकी प्रगति होती रहेगी।”

वस्तुतः वज्जिसंघ की शक्ति उसके संगठन में ही निहित थी। जब तक यह संघ संगठित रहा अजातशत्रु जैसे शक्तिशाली राजा भी उससे भयभीत थे। किन्तु जब उसमें फूट पड़ गयी तब उसका पतन हो गया।

गणराज्यों के पतन के कारण

छठी शताब्दी ईसा पूर्व या बुद्धकाल के कुछ गणराज्य अत्यन्त शक्तिशाली एवं सुव्यवस्थित थे। उन्होंने अपने समकालीन राजतन्त्रों का बड़ा प्रतिरोध किया था। देश-भक्ति तथा स्वाधीनता की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। किन्तु वे राजतन्त्रों के विरुद्ध अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं कर सके तथा अन्ततोगत्वा उनका पतन हुआ। इसके लिएये अनेक कारण उत्तरदायी बताये गये है।

काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि समुद्रगुप्त की साम्राज्यवादी नीति ने गणराज्यों की स्वाधीनता का अन्त कर दिया जिसके फलस्वरूप उनका विलोप हो गया। किन्तु यह विचार तर्कसंगत नहीं है। हमें ज्ञात है कि समुद्रगुप्त कालीन गणराज्य नाममात्र के लिये उसको प्रभुसत्ता स्वीकार करते थे तथा उन्हें पर्याप्त आन्तरिक स्वायत्तता मिली हुई थी।

गणराज्यों के विनाश का सबसे बड़ा कारण उसके शासन में उच्चपदों का आनुवंशिक (Hereditary) होना है। चूँकि प्राचीन ग्रन्थों में सर्वत्र राजतन्त्र की ही प्रशंसा की गयी थी तथा राजा का पद दैवी माना गया था। अतः गणराज्यों ने भी सुशासन एवं सुरक्षा की दृष्टि से राजतन्त्रात्मक प्रणाली को अपनाना लाभकर समझा। गणराज्यों के शासक राजतन्त्रों के अनुकरण पर महाराज तथा महासेनापति जैसी उपाधियाँ ग्रहण करने लगे। ये पद वंशानुगत रूप से चलने लगे।

कुमारदेवी के उदाहरण से स्पष्ट है कि वह लिच्छवि गणराज्य की आनुवंशिक रूप से उत्तराधिकारिणी थी।

क्रमशः गणराज्यों में सत्ता सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित होती चली गयी। अब राजतन्त्रों से उनका कोई विभेद नहीं रह गया। इस प्रकार उनके शासन का जनतांत्रिक स्वरूप समाप्त हो गया।

गणराज्यों की आपसी फूट तथा समकालीन राजतन्त्रों की विस्तारवादी नीति को भी न्यूनाधिक रूप से उनके पतन के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है।

महाजनपद काल

द्वितीय नगरीय क्रांति

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