मौर्यकालीन समाज

भूमिका

मौर्यकालीन समाज सम्बन्धित जानकारी के अध्ययन के लिये हमारे पास प्रचुर सामग्री है। इसमें से प्रमुख हैं : कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज कृत इंडिका तथा सम्राट अशोक के अभिलेख। इन प्राथमिक स्रोतों का ठीक से अर्थ लगाया जाये तो पता चलेगा कि वे एक-दूसरे के विरोधी नहीं अपितु पूरक हैं।

वर्ण व्यवस्था व जाति प्रथा

मौर्य काल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था को एक निश्चित आधार प्राप्त हो चुका था। वर्ण व्यवस्था कठोर होकर जाति के रूप में बदल गयी जिसका आधार जन्म था। यूनानी लेखकों के विवरण से जाति-व्यवस्था के अत्यन्त जटिल होने की सूचना मिलती है। परंपरागत चार वर्णों का विवरण निम्नलिखित है।

ब्राह्मण

समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था परन्तु पूर्वगामी धर्मसूत्रों और परवर्ती मनु की भाँति इस तथ्य को बार-बार दुहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया है। यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती कि ब्राह्मण, समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे। वे ही शिक्षक तथा पुरोहित होते थे।

अर्थशास्त्र में ब्राह्मण वर्ण के कर्त्तव्य को निम्न प्रकार से सूत्रबद्ध करके बताया गया है : “स्वधर्मो ब्राह्मणस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेति।” अर्थात् ब्राह्मण का धर्म है – अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ करना-कराना, दान देना व लेना।

ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाये जाने का उल्लेख मेगस्थनीज ने भी किया है। राजा के पुरोहित और कानून मंत्री अधिकांशतः इसी वर्ग से नियुक्त किये जाते थे। उन्हें आर्थिक और कानून सम्बन्धी विशेष अधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहित (आचार्य) तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। यह भूमि ब्रह्मदेय कहलाती थी और यह पूर्णतः करमुक्त होती थी। ब्राह्मणों की समाज में प्रधानता बहुत पहले से चली आ रही थी और इस व्यवस्था में भी इसका प्रबल विरोध नहीं किया गया है।

क्षत्रिय

परम्परागत वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय द्वितीय स्थान पर आते थे। यह वर्ग राजकाज, प्रशासन और सैनिक-वृत्ति से सम्बद्ध थे। अर्थशास्त्र में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है — “क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्रजीवो भूतरक्षणं च।”  अर्थात् अध्ययन, यजन, शस्त्र द्वारा जीविकोपार्जन और सभी प्रणियों की रक्षा’ को क्षत्रिय का धर्म कहा गया है।

वैश्य

वैश्य वर्ण आर्थिक गतिविधियों से सम्बद्ध थे। वे व्यापार और कृषि-कार्य करते थे। अर्थशास्त्र में वैश्य वर्ण के कर्त्तव्य के बारे में कहा गया है — “वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वाणिज्या च।” अर्थात् वैश्य वर्ण का धर्म है — अध्ययन करना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि करना, पशुपालन और व्यापार।

छठीं शताब्दी ई०पू० से गंगा घाटी ने अभूतपूर्व नगरीय क्रांति का साक्षात्कार किया जो कि मौर्यकाल में भी अनवरत जारी रहा। आर्थिक गतिविधियों का संवाहक वैश्य वर्ण था। आर्थिक गतिविधियों को सामूहिक रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है, जिसमें कृषि, पशुपालन और व्यापार सम्मिलित थे। अखिल भारतीय मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ वैश्य वर्ण समृद्ध होता गया।

शूद्र

शूद्रों की स्थिति में इस समय महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। मौर्यकाल में ही स्थापित नयी बस्तियों में शूद्रों को पहली बार भूमि भी दी गयी।

अर्थशास्त्र के अनुसार — “शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा वार्ता कारुकुशीलवकर्म च।” अर्थात् शूद्र वर्ण का धर्म है – द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) की सेवा करना, वार्ता, शिल्प, गायन एवं वादन कार्य।

शूद्र को शिल्पकला और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी गयी। इन्हें सम्मिलित रूप में वार्ता कहा गया है। निश्चित है कि इस व्यवस्था से शूद्र के आर्थिक सुधार का प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा होगा।

कौटिल्य द्वारा निर्धारित शूद्रों के व्यवसाय वास्तविकता के अधिक निकट हैं। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप में शूद्र भी कृषि, पशुपालन तथा व्यापार किया करते थे।

अर्थशास्त्र में एक और परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है और वह यह कि शूद्र को आर्य कहा गया है तथा उसे म्लेच्छ से भिन्न माना गया है। कहा गया है कि आर्यशूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता – यद्यपि म्लेच्छों के संतान को दास रूप में बेचना या खरीदना दोष नहीं है।

वर्ण-व्यवस्था : विश्लेषण

पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी ‘वर्णाश्रम’ व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। आचार्यवर के अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किये हैं।

जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज की इंडिका से भी होती है। मेगस्थनीज ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल ही सकता है। केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपातकाल में क्षत्रिय तथा वैश्य का व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गयी है।

वर्णसंकर

आचार्य चाणक्य ने चातुर्वर्ण्य के अतिरिक्त अनेक संकर जातियों (≈१५ मिश्रित जाति) का भी उल्लेख किया है। इनको ‘अन्तवासिन’ कहा गया है। इनकी उत्पत्ति, धर्मग्रंथों के अनुसार, विभिन्न वर्णों के ‘अनुलोम’ और ‘प्रतिलोम’ विवाहों से बतायी गयी है।

ये वर्ण संकर जातियाँ हैं — अम्बष्ठ, निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वैदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चांडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं, जो कुछ व्यवसायों से जीविकोपार्जन करती थीं। कौटिल्य ने चांडाल को छोड़कर अन्य सभी संकर जातियों को शूद्र माना है

इनके अलावा तंतुवाय (जुलाहा), रजक (धोबी), दर्जी, सुनार, लोहार, बढ़ई आदि ने व्यवसाय-आधारित वर्गों और जातियों का रूप ले लिया था। अर्थशास्त्र में इन सभी को शूद्र वर्ग के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। अशोक के शिलालेखों में शूद्र वर्ग में शामिल दासों और श्रमिकों का उल्लेख है।

मेगस्थनीज का भ्रामक विवरण

मेगस्थनीज ने भारतीय समाज में सात वर्गों का उल्लेख किया है — (१) दार्शनिक, (२) कृषक, (३) अहीर/ग्वाला, (४) शिल्पी/कारीगर, (५) सैनिक, (६) निरीक्षक और (७) सभासद/मन्त्री।

कोई भी व्यक्ति न तो अपनी जाति के बाहर विवाह कर सकता था और न उससे भिन्न व्यवसाय ही अपना सकता था। परन्तु दार्शनिक इसके अपवाद थे और वे किसी भी वर्ग के हो सकते थे*

  • No one is allowed to marry out of his own caste, or to exchange one profession or trade for another, or to follow more than one business. An exception is made in favour of the philosopher, who for his virtue is allowed this privilege.*

(१) दार्शनिक :

दार्शनिकों (The Sophists) की जाति को मेगस्थनीज दो श्रेणियों में विभक्त करता है — ब्राह्मण और श्रमण।

  • ब्राह्मण ३७ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मणों की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज लिखते हैं कि यज्ञ, अंत्येष्टि क्रिया और अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है।
  • श्रमणों की भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। एक, जो वनों में रहते थे और कंद-मूल-फलों पर आजीविका चलाते थे इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम, से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी, वे श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे।

दार्शनिक वर्ग का महत्त्व की दृष्टि से प्रथम हैं, परन्तु संख्या की दृष्टि से सबसे कम हैं (The philosophers are first in rank, but from the smallest class in point of number.)।

मेगस्थनीज के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थाश्रम अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध श्रमणों से नहीं।

दार्शनिक समाज के बुद्धिजीवी वर्ग थे। उनका राजदरबार एवं समाज में बड़ा सम्मान था। राज्य अपने राजस्व का एक भाग दार्शनिकों के भरण-पोषण पर व्यय करता था। वे समाज को शिक्षा एवं संस्कृति के रक्षक थे। इस वर्ग में ब्राह्मण तथा श्रमण दोनों ही आते थे। वे सादा जीवन व्यतीत करते थे तथा अपना समय अध्ययन और शास्त्रार्थ में व्यतीत करते थे। इनमें से कुछ जंगलों में निवास करते थे, कन्दमूल फल खाते थे तथा वृक्षों की छाल पहनते थे। यूनानी लेखकों ने भी वनों में रहने वाले सन्यासियों का उल्लेख किया है। अशोक के अभिलेखों में गृहस्थ, सन्यासियों तथा वनों में विचरण करने वाले श्रमणों का उल्लेख मिलता है। चारों आश्रमों की व्यवस्था भी समाज में प्रचलित थी।

(२) किसान :

किसानों की संख्या सबसे अधिक थी। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि था। ये राज्य को अपनी उपज का / भाग कर के रूप में देते थे। सैनिकों को आज्ञा दी गयी थी कि वे कृषकों को परेशान न करें और उनकी फसलों को नुकसान न पहुँचाएँ

कृषक सादगी का जीवन व्यतीत करते तथा नगर की चहल-पहल से दूर रहते थे। मेगस्थनीज के अनुसार वे सदा अपने कामों में लगे रहते थे तथा जिस समय सैनिक युद्ध करते थे, उस समय भी कृषक कृषि-कर्म में व्यस्त रहते थे

(३) अहीर या ग्वाल :

अहीर या ग्वाल (शिकारी और पशुपालक) तीसरी श्रेणी में आते थे। ये शिकार करने के साथ ही मवेशियों की देखभाल भी करते थे। पशुचारण के बदले इन्हें राज्य से आर्थिक सहायता प्राप्त होती थी। ये हमेशा भ्रमण करते रहते थे, किसी निश्चित स्थान पर नहीं रहते थे।

(४) शिल्पी या कारीगर :

शिल्पियों या कारीगरों (Handi-craftmen & Retail-dealers) को मेगस्थनीज ने चौथी श्रेणी में रखा गया है। कारीगर विभिन्न प्रकार के सामान तैयार करते थे; कुछ सैनिकों के उपयोग के लिये सामान तैयार करते थे तो कुछ किसानों और सर्वसाधारण के लिये। व्यापारी भी इसी वर्ग के अन्तर्गत आते थे। कारीगरों में कुछ राज्य के मजदूर थे, तो कुछ स्वतंत्र। शिल्पियों / कारीगरों का समाज में बड़ा सम्मान था तथा उनकी अंग-क्षति करने वाले राज्य की ओर से दण्डित किये जाते थे

(५) सैनिक :

योद्धा या सैनिक वर्ग* ( Warriors) की स्थिति बहुत अच्छी थी। कृषकों के बाद संख्या में सबसे अधिक क्षत्रिय वर्ग के लोग थे। वे केवल सैनिक कार्य किया करते थे। राज्य उन्हें इतना पर्याप्त धन देता था कि वे और उनके आश्रित आराम से जीवन व्यतीत कर सकें। वे युद्ध के लिये सदैव तैयार रहते थे। उन्हें अस्त्र-शस्त्र और घोड़े राज्य की तरफ से उपलब्ध कराये जाते थे, जिन्हें वे युद्ध के पश्चात वापस कर देते थे।

  • The fifth class consists of fighting men, who, when not engaged in active service, pass their time in idleness and and drinking. They are maintained at the king’s expense, and hence they are field, for they carry nothing of their own with them but their own bodies.*

(६) निरीक्षक :

छठा वर्ग निरीक्षकों या गुप्तचरों का था, जो राज्य में होनेवाली प्रत्येक घटना की सूचना राजा तक पहुँचाते थे। इनकी विभिन्न श्रेणियाँ थीं। महिलाएँ भी गुप्तचरी का काम करती थीं।

(७) सभासद :

अंतिम सातवीं जाति अमात्यों एवं सभासदों (The Counsellor of State) की थी। संख्या में कम होने के बावजूद समाज और प्रशासन पर इनका प्रभाव था। ये राजा के विश्वासपात्र थे। इन्हीं में से मंत्रियों एवं अन्य अधिकारियों की नियुक्ति होती थी।

विश्लेषण :

कृषक, कारीगर तथा व्यापारी ‘सैन्य-कर्तव्य’ से मुक्त रहते थे। वे गाँवों में निवास करते। पशुपालक तथा शिकारी खानाबदोश जीवन व्यतीत करते थे। कुछ शिकारी राज्य की ओर से कृषि को क्षति पहुँचाने वाले जीव-जन्तुओं को नष्ट करने के लिये नियुक्त किये जाते थे और इस कार्य के लिये उन्हें पारितोषिक प्राप्त होता था।

मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण मेगस्थनीज ने प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया गया है। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था।

मेगस्थनीज का यह वर्गीकरण व्यवसाय के आधार पर किया गया जान पड़ता है। इससे न तो ब्राह्मण ग्रन्थों में वर्णित चातुर्वर्ण्य का बोध होता है और न तत्कालीन समाज की बहुसंख्यक जातियों की ही सूचना मिलती है। मेगस्थनीज का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जातिव्यवस्था से मेल नहीं खाता है।

दास प्रथा

मेगस्थनीज ने लिखा है कि “सभी भारतवासी समान है और उनमें कोई दास नहीं है।” डायोडोरस ने लिखा है “कानून के अनुसार उनमें से कोई भी किसी भी परिस्थिति में दास नहीं हो सकता।” मेगस्थनीज को ही उद्धृत करते हुए स्ट्रैबो का कहना है, “भारतीयों में किसी ने अपनी सेवा में दास नहीं रखे।” एक अन्य स्थल पर स्ट्रैबो ने कहा, “चूँकि उनके पास दास नहीं हैं, अतः उन्हें बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है।”

विदेशी विद्वानों के उपर्युक्त वक्तव्यों को शब्दशः स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कम-से-कम बौद्धकाल से ही दासों को उत्पादन के काम में लगाया जाता था और पालि त्रिपिटकों में इसके बारम्बार उल्लेख मिलते हैं। अतः उपर्युक्त विवरणों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की जा सकती है।

हो सकता है कि मेगस्थनीज को भारत में दासों के प्रति स्वामियों द्वारा किया गया व्यवहार निर्मल और सद्भावनापूर्ण लगा हो अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी विशेष क्षेत्र का ही उल्लेख किया हो।

एक स्थान पर तो आचार्य चाणक्य ने भी लिखा है – “न त्वेवार्यस्य बासभावः”; अर्थात् “किसी भी परिस्थिति में आर्य के लिये दासता नहीं होगी।” इस सन्दर्भ में मेगस्थनीज के कथन का यह अर्थ हो सकता है कि स्वतन्त्र लोगों को आजीवन दासत्व की सीमाएँ थीं।

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान था। त्रिपिटकों की तुलना में कौटिल्य ने कहीं अधिक विस्तार से दासों का वर्गीकरण किया है। जहाँ त्रिपिटक में दासों के चार प्रकार बताये गये हैं, कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है —

  • उदर-दास – भूख के कारण बना दास।
  • दण्ड-प्रणीत – दण्ड के परिणामस्वरूप बना दास।
  • ध्वजाहृत – युद्ध में जीता गया दास।
  • गृहजात – घर में दासी से उत्पन्न दास।
  • दायागत -पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिला दास।
  • लब्ध – दान स्वरूप मिला दास।
  • क्रीत – क्रय किया हुआ दास।
  • आत्म-विक्रयी – स्वयं को दास के रूप में बेचनेवाला दास।
  • आहितक – धरोहर दास।

दास प्रथा से सम्बन्धित कौटिल्य के विवरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग आहितकों (अस्थायी दास) का वर्णन है। आचार्य चाणक्य ने आजीवन दासों एवं किसी काल विशेष के लिये समझौते द्वारा उत्पन्न दासों में अंतर रखा है। दास-प्रथा पर आधारित अन्य पुरातन समाजों की भाँति भारत में भी दासों के व्यक्तित्व एवं उसके श्रम का निपटारा करने में स्वामी को असीमित अधिकार प्राप्त थे। एक दास के रूप में जो व्यक्ति किसी अन्य की सम्पत्ति था, वह सभ्य समाज का सदस्य नहीं हो सकता था। उपर्युक्त अवधारणा तो पूर्ण दासों के लिये ही सही उतरती है। परन्तु दूसरी ओर ऐसे लोग थे, जो अस्थायी रूप से बन्धक एवं आश्रित थे। इनको कौटिल्य ने आहितक कहा है। ये लोग एक निश्चित काल के लिये ही सेवा करने के उत्तरदायी होते थे और यह अवधि बीत जाने के बाद एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के अधिकारी थे। कर्मकाण्डीय अशौच कृत्यों को करने के लिये उनपर दबाव डालने पर प्रतिबन्ध लगा था। उसे बेचा नहीं जा सकता था और न उसे धारक बनाया जा सकता था। स्वामी की इच्छा के बिना भी समय आने पर वह स्वतंत्र हो जाता था।

अर्थशास्त्र के अनुसार सही अर्थों तो केवल बर्बर म्लेच्छ ही, जो वर्ण से बाहर थे, तथा अनार्य (यहाँ पर आर्यों में शूद्र सम्मिलित हैं) समाज के सदस्य ही स्थायी रूप से दास बनाये जा सकते थे। यह निर्धारित करना कठिन है कि इस नियम का पालन वास्तविकता में कितना होता था परन्तु बन्धक रखने की सीमाओं को सीमित करने के प्रयास तथा समुदाय के स्वतंत्र सदस्यों को दास रूप में परिणत करने की सम्भावनाओं को कम करना प्राचीन युग के अनेक समाजों की विशेषता रही है।

कुल मिलाकर अर्थशास्त्र के विवेचन से प्रकट होता है कि राज्य किसी प्रकार से दासों के स्तर को नियंत्रित और दास प्रथा की समस्याओं का स्पष्टीकरण करने के लिये इच्छुक था।

स्त्री दासों के रूप में धातृ, उपचारिका और परिचारिका का उल्लेख आचार्य चाणक्य ने किया है। स्त्री दासों की एक श्रेणी बंधती भी थी। इस तरह की स्त्रियाँ लोगों का मनोरंजन करके अपने स्वामी के लिये धन अर्जित करती थीं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि : आजीवन दासों (स्थायी दास) पर उसके स्वामी का असीम अधिकार था; परन्तु आहितक (अस्थायी दास) को कुछ सुविधाएँ प्राप्त थीं। आहितक दासों के साथ सामान्य दासों की अपेक्षा अधिक उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। वे निश्चित समय के पश्चात पुनः सामान्य जन की स्थिति में वापस आ सकते थे। ऐसे दासों को घृणित कार्य करने (मल-मूत्र या शव उठवाना इत्यादि) के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता था और न ही उन्हें बेचा या बन्धक रखा जा सकता था। स्वामी की इच्छा के बिना भी निश्चित अवधि के पश्चात ऐसे दास स्वतंत्र हो सकते थे। वास्तविकता यह थी कि पश्चिमी देशों में प्रचलित दास-व्यवस्था से मौर्यकालीन दासों की स्थिति बहुत कुछ बेहतर थी।

दासों का आर्थिक गतिविधियों में प्रयोग :

‘दास कल्पः’ नामक खण्ड में दिये गये नियम उस तीसरे अध्याय के अंग हैं, जिसमें कानूनी मामलों की चर्चा है। इसका अर्थ यह हुआ कि कौटिल्य ने दास प्रथा की कानूनी वैधता को स्वीकार किया था।

बौद्ध ग्रंथों एवं कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र में उत्पत्ति एवं कार्यों के आधार पर किये गये दासों के वर्गीकरण से स्पष्ट है कि वे सम्पत्ति का एक रूप थे। यह एक रोचक तथ्य है कि इन कृतियों में पायी जाने वाली दास सम्बन्धित परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ उस अंतर की ओर संकेत नहीं करतीं जो वैदिक काल में दास एवं आर्य में था। सांस्कृतिक एवं नृजातीय (ethnical) विभिन्नताओं को आधार नहीं माना गया था। अब दास प्रथा केवल आर्थिक कारणों से सम्बन्धित थी।

केंद्रीय राजतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित मौर्य साम्राज्य की स्थापना से दास प्रथा में अन्य रूपांतरण भी हुए। अभियान करके जबरदस्ती लोगों का अपहरण करने की नीति पर कौटिल्य द्वारा लगाये गये प्रतिबन्धों का निर्वचन इसी सन्दर्भ में किया जा सकता है। देश की राजनीतिक एकता के पश्चात् इस प्रकार के अभियानों का अर्थ गौण हो गया। परन्तु दूसरी ओर इस राजनीतिक एकीकरण ने एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया, जो देश के आर्थिक एकीकरण तथा साम्राज्य के कोने-कोने में व्यापार के विकास को न केवल सम्भव बना रही थी अपितु प्रोत्साहित भी कर रही थी। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप नगरों का उदय हुआ और व्यापारियों का प्रभाव बढ़ा।

सेट्ठियों के स्वार्थ-हित न केवल नगरों में थे अपितु ग्रामीण क्षेत्रों से भी जुड़े थे। वे भू-स्वामी थे और कभी-कभी तो सम्पूर्ण गाँव उनके अधीन होते थे। इन भूमियों पर उनके दास काम करते थे अथवा उन्हें किराये पर उठा लिया जाता था। यह पर्याप्त तर्कसंगत लगता है कि दास श्रम के द्वारा भूमि-कर्षण का यह तरीका पर्याप्त सामान्य बात हो गयी थी। मौर्यों ने इसको समाप्त करने का प्रयास नहीं किया।

अशोक के काल में कलिंग के युद्ध के पश्चात् सहस्त्रों बंदियों की प्राप्ति हुई और यह असंभव नहीं लगता कि उनमें से कुछ तो मगध के बाजारों तक पहुँचे हों और कुछ को उन उत्पादक गतिविधियों में लगाया गया होगा, जिनके माध्यम से मध्य गंगा घाटी की संस्कृति के तत्त्वों का प्रसार दूरस्थ कबायली क्षेत्रों में किया गया।

कौटिल्य के विवरणों से यह भी स्पष्ट है कि राज्य की भूमि पर कृषिकार्य में, खादानों में, कारखानों में, सुरक्षा प्रबंधों में भी दासों एवं दासियों का प्रयोग किया जाता था।

मौर्य साम्राज्य में जिस विस्तृत नौकरशाही के प्रमाण उपलब्ध है, उसको बनाये रखने के लिये राज्य को पर्याप्त धन की आवश्यकता होती होगी। चूँकि यह भी स्पष्ट है कि अधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था, अतः यह अत्यन्त आवश्यक था कि राज्य प्रत्येक सम्भव स्रोत से धनार्जन करे। एक ओर जहाँ विकासशील कृषि एवं व्यापार के क्षेत्रों से राज्य की आय का बढ़ना स्वाभाविक था, वहीं दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि राज्य ने द्यूतगृहों, मद्यपान की दुकानों, वेश्याघरों, आदि को भी आय का स्रोत बनाने में हिचक महसूस नहीं की। वेश्यालयों के पनपने में तो राज्य ने पूँजी निवेश भी किया — गणिकाओं के प्रशिक्षण और उन्हें ललित कलाओं में निपुण बनाने में राज्य को जो व्यय होता था, उसके कारण वे गणिकाएँ पूर्ण रूप से राज्य के नियंत्रण में थीं। उनकी आमदनी एवं सम्पत्ति पर राज्य का ही अधिकार था। उनकी मुक्ति तभी सम्भव थी, जब कि उन पर किये गये खर्च का २४ गुना धन दिया जाये। इस प्रावधान की पूर्ति लगभग असम्भव थी, अतः वे गणिकाएँ दासी तुल्य ही थीं; हालाँकि उनको सभी प्रकार के कर्मों में नहीं लगाया जा सकता था। ‘उच्च’ सामाजिक वर्ग की सेवा करने वाली गणिका के अतिरिक्त, राज्य के पास वेश्याओं का ऐसा समूह भी था, जो बंधकी-पोषकों के अधीन था और जिनके माध्यम से राज्य को पर्याप्त आय होती थी। घरों में भी दास अनेक कार्य करते थे।

रोमिला थॉपर, आर० एस० शर्मा जैसे कुछ आधुनिक इतिहासकार मौर्यकालीन समाज में शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होने की बात कहते हैं। वे भारतीय दासों की समता यूनान तथा रोम के दासों से स्थापित करते हैं। उनके अनुसार मौर्यकाल में राजकीय नियन्त्रण अत्यन्त कठोर था।

प्राकृतिक साधनों के अधिकाधिक उपयोग की लालसा से राज्य में शूद्र वर्ण को रोमीय हेलाटों (Heylots) की स्थिति में ला दिया गया। थॉपर ने बताया है कि ‘अशोक ने कलिंग युद्ध के डेढ़ लाख बन्दियों को बंजर भूमि साफ कराने तथा नई बस्तियाँ बसाने के कार्य में नियोजित कर दिया।’ शर्मा मौर्यकालौन समाज की तुलना यूनान तथा रोम के समाज से करते हुए लिखते है कि ‘यूनान तथा रोम में दास जो कार्य करते थे ठीक वहीं कार्य भारत में शूद्र किया करते थे, यद्यपि भारतीय समाज दास-समाज नहीं था।’

परन्तु यह विचार अतिवादी है। यूनानी लेखक मेगस्थनीज भारतीय समाज में दास-प्रथा के प्रचलित होने का उल्लेख नहीं करता जो इस बात का प्रमाण है कि भारत में दासों की दशा यूनान तथा रोम के दासों से कहीं बहुत अच्छी थी। इस मत के लिये कोई आधार नहीं है कि अशोक ने डेढ़ लाख युद्ध-बन्दियों को बंजर भूमि साफ कराने के लिये नियोजित कर दिया था। वह कहीं अपने उद्देश्य पर प्रकाश नहीं डालता। निर्वासन के अन्य कारण भी हो सकते है। सम्भव है विद्रोह को आशंका को समाप्त करने के लिये उन्हें कलिंग से हटा दिया गया हो। आर० सी० मजूमदार का विचार है कि वे दक्षिण-पूर्व एशिया में चले गये जहाँ उन्होंने भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। किन्तु ये सभी सम्भावनायें ही है। यूनान तथा रोम के दास जो कुछ भी करते थे वह सभी आधुनिक मजदूरों द्वारा किया जाता है। किन्तु मात्र कार्यों की समानता से हो कोई वेतन-भोगी श्रमिक दास नहीं हो जाता है, जैसा कि डॉ० ओम प्रकाश ने स्पष्ट किया है, ‘दास की अवधारणा के अन्तर्गत दास कहे जाने वाले का स्वामित्व दूसरे के पास होता है जो स्वामी कहलाता है। बँधुआ मजदूर दास श्रमिक नहीं होता तथा औद्योगिक मजदूर बँधुआ मजदूर नहीं कहा जा सकता है। दासों की बड़ी संख्या के अभाव में बड़े पैमाने पर दासता की बात नहीं कही जा सकती।’

There is hardly any job performed by a slave in Greece and Rome which is not being performed by modern wage earner, but functional similarity alone does not make a wage earner a slave. The very concept of slave involve the ownership of a person called slave by another person called master. Forced labour is not the same as slave labour in as much as industrial wage labour is not a forced labour.’ – Early History Of India, p. 224.

यदि हम यूनानी रोमन दासों को भारतीय शूद्र मान लें तो यह मानना पड़ेगा कि यहाँ शूद्र स्वतन्त्र किसान नहीं थे तथा उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था।

अर्थशास्त्र में स्पष्टतः ‘वार्ता’ अर्थात् कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य को शूद्र का धर्म बताया गया है।*

“शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारुकुशीलवकर्म च…।”* — अर्थशास्त्र।

“शूद्र कर्षक” का भी उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ है – शूद्र किसान। उन्हें सेना में भर्ती होने तथा सम्पत्ति रखने का भी अधिकार था। वह कृषि योग्य भूमि खरीद सकता था। दायगत नियमों में वर्णसंकर जातियों तक की उपेक्षा नहीं की गयी है। अतः मौर्य समाज की दशा यूनानी रोमन समाज के दासों से बहुत अच्छी थी। गौतम धर्मसूत्र (अर्थशास्त्र से प्राचीनतर) में भी “वार्ता” को शूद्र का वर्णधर्म बताया गया है। मनुस्मृति(मौर्योत्तरकालीन कृति) से भी पता चलता है कि शूद्रों को सम्पत्ति का अधिकार था।

अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि समाज में दासों की स्थिति संतोषजनक थी। उन्हें सम्पत्ति रखने तथा बेचने का अधिकार प्राप्त था। उनके साथ अनुचित व्यवहार करने वाले स्वामी अर्थशास्त्र में दण्डनीय बताये गये है। साधारणतः युद्ध में बन्दी बनाये गये तथा म्लेच्छ लोग ही दास के रूप में रखे जाते थे। अशोक के अभिलेखों में भी दासों तथा भृत्यों के साथ उचित व्यवहार करने का निर्देश दिया गया है। अशोक के समय में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता के कारण जाति-प्रथा की कठोरता में पर्याप्त शिथिलता आ गयी थी।

परिवार : विवाह व विवाह-विच्छेद

समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। लड़कों के लिये वयस्कता की आयु १६ वर्ष तथा कन्याओं के लिये १२ वर्ष होती थी।

स्मृतियों में वर्णित विवाह के आठ प्रकार इस समय समाज में प्रचलित थे। ये आठ प्रकार प्रकार के विवाह थे — ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच। इन आठ प्रकार के विवाहों में से प्रथम चार शास्त्र-सम्मत माने गये थे।

सामान्यतया एकविवाह प्रचलित था परन्तु बहुविवाह भी होता था। नियोग प्रथा का भी तत्कालीन समाज में प्रचलन था।

कुलीन परिवारों में बहुविवाह की प्रथा थी। समाज में अन्तर्जातीय विवाह का भी प्रचलन था। उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति में विवाह ‘अनुलोम’ तथा उच्चजातीय कन्या का निम्नजातीय वर के साथ विवाह ‘प्रतिलोम’ कहा जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य का यूनानी कन्या के साथ विवाह हिन्दू समाज में एक क्रान्तिकारी कदम था

तलाक की प्रथा थी। तलाक पति-पत्नी की सम्मति से सम्भव था। पति के बहुत समय तक विदेश में रहने या उसके शरीर में दोष होने पर पत्नी उसका त्याग कर सकती थी। इस प्रकार पत्नी के व्यभिचारिणी होने या बन्ध्या होने जैसी दशाओं में पति उसका त्याग कर सकने का अधिकारी था। पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री अपना पुनर्विवाह कर सकने के लिये स्वतन्त्र थी।

महिलाओं की स्थिति

परिवार में स्त्रियों की स्थिति पूर्ववर्ती सूत्रकाल (६००-३०० ई०पू०) की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। समाज में विधवा विवाह प्रचलित था। जो विधवा पुनर्विवाह करती थीं उनको ‘पुनर्भू’ और उनसे उत्पन्न संतान को ‘पौनर्भव’ कहा गया है। लेकिन जो विधवा पुनर्विवाह नहीं करती थीं उनको ‘छन्दवासिनी’ कहा गया है।

अर्थशास्त्र में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग मिलता है जिससे महिलाओं पर प्रतिबंध का अनुमान लगाया जाता है। ये शब्द हैं — ‘अनिष्कासिनी’ (घर के अंदर रहनेवाली), ‘अशूर्यंपश्या’ (सूर्य को न देखनेवाली), ‘अवरोधन’, ‘अंतःपुर’ इत्यादि। ‘अंतःपुर’ का उल्लेख तो अशोक के अभिलेखों में प्राप्त होता है। इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि समाज में सम्भवतः पर्दा-प्रथा भी प्रचलित रही होगी। सम्भवतः यह उच्च कुलों तक ही सीमित थी।

वहीं दूसरी ओर ऐसे कई उदाहरण और कृत्य हैं जो महिलाओं की उन्नत दशा के द्योतक हैं :

  • सम्राट अशोक ने धम्म प्रचार के लिये अपनी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेन्द्र को श्रीलंका भेंजा था।
  • तत्कालीन समाज में बौद्ध भिक्षुणियों का सम्मानित स्थान था।
  • महिलाओं को विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था; जैसे – सम्राट की अंगरक्षिकाएँ सशस्त्र महिला होती थीं, सम्राट अशोक द्वारा ‘स्त्र्याधर्ममाहामात्र’ की नियुक्ति, गणिकाओं की गुप्तचर विभाग में नियुक्त इत्यादि।

अर्थशास्त्र में सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस समय के धर्मशास्त्र इस प्रथा के विरुद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है। लेकिन यूनानी लेखकों ने उत्तर-पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है; उदाहरणार्थ स्ट्रैबो के अनुसार पश्चिमोत्तर की कठ योद्धा जाति में सती प्रथा प्रचलित थी।

मौर्य युग में भी बहुत-सी स्त्रियाँ ऐसी थी जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर गणिका या वेश्या के रूप में जीवन-यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ ‘रूपाजीवा‘ कहलाती थीं। इनसे राज्य की आय होती थी। इनके कार्यों का निरीक्षण गणिकाध्यक्ष और एक राजपुरुष करता था। बहुत-सी गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं। इस वर्ग की महिलाओं में अभिनेत्री, नर्तकी, गायिका आदि सम्मिलित थीं।

विवाहिता स्त्री के उपहार तथा आभूषण उसकी अपनी संपत्ति स्त्रीधन होती थी जिसको स्त्रीधन कहा जाता था।

पति के अत्याचारों के विरुद्ध पत्नी न्यायालय में जा सकती थी। स्त्रियों के साथ अन्याय अथवा अत्याचार करने वाले राज्य की ओर से दण्डित किये जाते थे।

यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि स्त्रियाँ सम्राट की अंगरक्षिकाएँ नियुक्त की जाती थीं।

रहन-सहन

यूनानी लेखकों ने भारतीयों के अनुशासित एवं सरल जीवन का उल्लेख किया है। मेगस्थनीज लिखता है कि लोग मितव्ययी तथा उच्च नैतिक आचरण वाले होते थे। वे सत्य एवं गुणों का समान रूप से आदर करते थे।

भोजन

उनके भोजन में अन्न, फल, दूध तथा माँस-मछली सम्मिलित थे। अन्न में गेहूँ, चावल तथा जौ का प्रयोग होता था। चावल मुख्य भोज्य पदार्थ था। लोग मदिरा का भी सेवन करते थे। मदिरा उत्पादन और बिक्री पर राज्य का नियंत्रण था।

मेगस्थनीज ने भारतीयों के खाने के ढंग का इस प्रकार वर्णन किया है — “जब वे खाने बैठते है तो उनके सामने तिपाई के आकार की एक मेज रख दी जाती है। उसके ऊपर एक सोने का प्याला रखा जाता है। इसमें सर्वप्रथम चावल डाला जाता है। इसके बाद भोजन के अन्य पकवान एवं पदार्थ परोसे जाते हैं, जो भारतीय विधि द्वारा तैयार किये जाते हैं।”

वस्त्राभूषण

मौर्यकालीन भारतीय अच्छे वस्त्रों एवं आभूषणों के शौकीन थे। उनके वस्त्र सोने एवं बहुमूल्य पत्थरों से जड़े हुए होते थे। बड़े लोगों के पीछे छत्र धारण किये हुए सेवक चलते थे। लोग सुन्दर, रंगीन और फूलवाले वस्त्र और ऊँची एँड़ी के सैंडिल पहनते थे। धनवान लोगों के वस्त्र मूल्यवान (मख़मल, रेशम इत्यादि) होते थे, जिसपर स्वर्ण के तारों की कसीदाकारी की जाती थी।

मौर्यकालीन पुरातात्त्विक स्थलों यथा कुमराहार (पाटलिपुत्र) व अन्य स्थलों से विभिन्न प्रकार के आभूषणों के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। इसके साथ ही इस काल की विभिन्न मूर्तियाँ (दीदारगंज की चाँवर-ग्रहणी यक्षिणी मूर्ति) से भी तत्कालीन वस्त्राभूषण की जानकारी मिलती है।

मनोरंजन

रथ-दौड़, घुड़-दौड़, साँड़-युद्ध, हस्ति-युद्ध, मृगया आदि मनोरंजन के साधन थे। नट, नर्तक, गायक, वादक, मदारी, चारण, विदूषक आदि विविध प्रकार के लोग नाना प्रकार के मनोरंजन किया करते थे। इस समय के मनोरंजनकर्ता कई वर्गों के नाम मिलते हैं :

  • वाग्जीवक – विविध प्रकार की बोलियाँ बोलने वाले।
  • प्लवक – रस्सी पर नाचनेवाले।
  • कुशिलव – तमाशा दिखानेवाले।
  • सौभिक – मदारी।
  • कुहक – जादूगर।
  • अदिति कौशिक – ऐसे बौद्ध भिक्षु जो देवताओं और सर्पों के चित्र लोगों तक ले जाते थे।

राज्य की ओर से अनेक प्रकार के उत्सवों एवं मेलों का आयोजन किया जाता था। अशोक ने कई हिंसक मनोरंजन के साधनों के ऊपर प्रतिबन्धलगा दिया था।

नगरों का जीवन चहल-पहल का था। नट, नर्तक, गायक, वादक तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले तथा मदारी गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों का गाँवों में प्रवेश पर निषेध था लेकिन नगरों में ऐसा प्रतिबन्ध नहीं था।

नगरों में प्रेक्षागृह (रंगशाला) लोकप्रिय थे, जिसका विवरण अर्थशास्त्र में मिलता है। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे। इन्हें क्रमशः रंगोपजीवी तथा रंगोपजीविनी कहते थे।

द्यूत द्वारा भी मनोरंजन होता था। राज्य द्यूत-गृहों पर नियंत्रण रखता था।

विहार-यात्रा, समाज, प्रवहण इत्यादि माध्यम थे जिनके द्वारा जनता सामूहिक रूप से अपना मनोरंजन करती थी।

  • एक प्रकार के समाज वे थे जिनमें लोग सुरापान, माँस भक्षण तथा मल्लयुद्ध को देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक को ये समाज पसंद नहीं थे, अतः उसने नये समाजों का प्रारम्भ किया जिनमें हस्ति, अग्निस्तम्भ तथा विमानों की झांकियाँ दिखायी जाती थी ताकि लोगों में धर्माचरण को प्रोत्साहन मिले। कुछ ऐसे समाज भी थे जो सरस्वती के भवन में आयोजित होते थे और इनमें साहित्यिक नाटकों का अभिनय तथा गोष्ठियों का आयोजन होता था।
  • विहार यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता रहती थी। अशोक ने इस यात्राओं को बन्द करवा दिया और धम्म यात्राओं का प्रारम्भ किया।
  • प्रवहण भी एक प्रकार के सामूहिक समारोह थे जिनमें भोज्य और पेय पदार्थों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता था।

शिक्षा

मौर्यकाल में वर्णाश्रम के अनुसार शिक्षा दिये जाने का उल्लेख मिलता है। इस समय धर्म, व्याकरण, अर्थ तथा व्रत (राजनीति) शिक्षा अनिवार्य माने जाते थे। तक्षशिला, उज्जैन और वाराणसी मौर्यकाल में शिक्षकों प्रमुख केन्द्र थे। आचार्य चाणक्य स्वयं तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य थे। यहाँ तक कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी यहीं शिक्षा पायी थी। इस समय प्रौद्योगिकी शिक्षा का भी विकास हुआ। विभिन्न शिल्प और व्यवसाय की शिक्षा व्यवस्था श्रेणियाँ करती थी।

मौर्य प्रशासन

मौर्य साम्राज्य का पतन (Downfall of the Mauryan Empire)

अशोक के उत्तराधिकारी (The Successors of Ashoka)

अशोक के अभिलेख

अशोक शासक के रूप में

अशोक का मूल्यांकन या इतिहास में अशोक का स्थान

अशोक की परराष्ट्र नीति

अशोक का साम्राज्य विस्तार

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कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)

अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)

बिन्दुसार मौर्य ‘अमित्रघात’ ( २९८ ई०पू० – २७२ ई०पू )

मेगस्थनीज और उनकी इंडिका ( Megasthenes and His Indika )

सप्तांग सिद्धान्त : आचार्य चाणक्य

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मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )

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