चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य

भूमिका

मौर्य साम्राज्य के संस्थापक इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य के नाम से विख्यात है। चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के उन महानतम् सम्राटों में से है जिन्होंने अपने व्यक्तित्व तथा कृतित्व से इतिहास के पृष्ठों में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न किया है। 

  • Chandra Gupta’s rise to greatness is indeed a romance of history. — Age of Imperial

चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय वस्तुतः इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है। देश को मकदूनियायी ( यूनानी ) दासता से मुक्त करने, नन्दों के घृणित एवं अत्याचारपूर्ण शासन से जनता को त्राण दिलाने और देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में संगठित करने का श्रेय इन्हीं ख्यातनामा मौर्य सम्राट को प्राप्त है।

प्रारम्भिक जीवन

उत्पत्ति के समान ही चन्द्रगुप्त मौर्य का आरम्भिक जीवन भी अंधकारपूर्ण है। उनके प्रारम्भिक जीवन के ज्ञान के लिये हमें मुख्यतः बौद्ध स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। यद्यपि वह साधारण कुल या परिवार ( Humble Family  ) में उत्पन्न हुए थे तथापि ‘बचपन से ही उनमें उज्जवल भविष्य के सूचक महानता के सभी लक्षण विद्यमान थे’।

बाल एव हि लोकेन संभावित महोदयः। — मुद्रारक्षस।

बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त के पूर्वज ‘पिप्पलिवन’ के शासक थे। जब कोसल नरेश विड्डूभ ने आक्रमण किया तो उसके अत्याचार से बचने के लिये वे हिमालय की तलहटी में मोरों से गुंजायमान स्थल पर जा बसे जिसे ‘मोरियनगर’ कहा गया। इस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य शाक्य क्षत्रिय थे। मोरों की आवाज से गुंजायमान स्थल के निवासी होने के कारण ही यह स्थल ‘मोरियनगर’ और ये लोग ‘मौर्य’ कहलाये। साथ ही बौद्ध ग्रंथ महापरिनिब्बानसुत्त ( महापरिनिर्वाणसूत्र ) से ज्ञात होता है कि पिप्पलिवन के मोरिय उन ८ लोगों में से थे जिन्होंने भगवान बुद्ध के धातु अवशेषों को प्राप्त करके स्तूप का निर्माण करवाया था। और यह यह अधिकार उन्होंने शाक्य वंशी क्षत्रिय होने के कारण प्राप्त किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य इसी शाक्य वंश में उत्पन्न हुए थे।

चन्द्रगुप्त के पिता ‘मोरियनगर’ के प्रमुख थे। जब चन्द्रगुप्त मौर्य अपनी माता के गर्भ में थे तभी उसके पिता की किसी सीमान्त युद्ध में मृत्यु हो गयी। उसकी माता अपने भाइयों द्वारा पाटलिपुत्र में सुरक्षा के निमित्त पहुँचा दी गयीं थीं। पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ। जन्म के साथ ही शिशु चन्द्रगुप्त को एक गोपालक को समर्पित कर दिया गया। गोपालक ने गोशाला में अपने पुत्र के समान उसका लालन-पालन किया।

कुछ बड़ा होने पर गोपालक ने बालक चन्द्रगुप्त को एक शिकारी के हाथों बेच दिया। शिकारी के ग्राम में वह बड़ा हुआ तथा उसे पशुओं की देख-भाल के लिये रख दिया गया। अपनी प्रतिभा के कारण उसने शीघ्र ही अपने समवयस्क बालकों में प्रमुखता प्राप्त कर ली। वह बालकों की मण्डली का राजा बनकर उनके पारस्परिक झगड़ों का निपटारा किया करते थे। इसी प्रकार एक दिन जब वह ‘राजकीलम्’ नामक खेल में व्यस्त थे, आचार्य चाणक्य उधर से जा निकले। अपनी सूक्ष्मदृष्टि से चाणक्य इस बालक के भावी गुणों का अनुमान लगा लिया। उन्होंने शिकारी को १,००० कार्षापण देकर बालक चन्द्रगुप्त को खरीद लिया।

चाणक्य बालक चन्द्रगुप्त को अपने साथ तक्षशिला ले गये। तक्षशिला उस समय विद्या का प्रमुख केन्द्र था और चाणक्य वही के आचार्य थे। उन्होंने चन्द्रगुप्त को सभी कलाओं तथा विद्याओं की विधिवत् शिक्षा दी। अतिशीघ्र चन्द्रगुप्त सभी विद्याओं में पारंगत हो गये। चन्द्रगुप्त मौर्य युद्ध विद्या में भी पर्याप्त निपुण हो चुके थे।

ऐसा लगता है कि तक्षशिला में ही सैनिक शिक्षा ग्रहण करते हुए वे अपने समय के एक महान विजेता सिकन्दर से मिले थे तथा वह उनके सैनिक प्रशिक्षण का एक ही अंग था। इसके विषय में प्लूटार्क तथा जस्टिन जैसे लेखकों ने बड़ा ही रोचक विवरण दिया है। जस्टिन हमें बताते हैं कि सिकन्दर उनकी स्पष्टवादिता से बड़ा रुष्ट हुआ तथा उसे मार डालने का आदेश दिया, किन्तु शीघ्रता से भागकर उन्होंने अपनी जान बचायी।

चन्द्रगुप्त की उपलब्धियाँ

आचार्य चाणक्य ने जिस कार्य के लिये चन्द्रगुप्त को तैयार किया था उसके दो मुख्य उद्देश्य थे —

१ — मकदूनिया ( यूनानी ) के विदेशी शासन से देश को मुक्त करना।
२ — नन्दों के घृणित और अत्याचारपूर्ण शासन की समाप्ति करना।

यद्यपि इतिहासकारों में इस विषय में मतभेद है कि चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर भारत में यूनानियों से युद्ध किया अथवा मगध के नन्दों का विनाश किया तथापि यूनानी-रोमन एवं बौद्ध साक्ष्यों से जो संकेत मिलते है उनसे यहाँ सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब तथा सिन्ध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त कराया था।

पश्चिमोत्तर भारत को विदेशी शासन से मुक्त कराना

आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विदेशी शासन की निन्दा की है तथा उसे देश और धर्म के लिये अभिशाप कहा गया है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने बड़ी बुद्धिमानी से उपलब्ध साधनों का उपयोग किया तथा विदेशियों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया। उन्होंने इस कार्य के लिये एक विशाल सेना का संगठन किया। इस सेना के सैनिक अर्थशास्त्र के अनुसार निम्नलिखित वर्गों से लिये गये थे —

१ – चोर अथवा प्रतिरोधक।

२ – म्लेच्छ।

३ – चोर गण।

४ – आटविक।

५ – शस्त्रोपजीवी श्रेणी।

जस्टिन चन्द्रगुप्त को सेना को ‘डाकुओं का गिरोह’ (A band of robbers) कहता है। मेक्रिन्डलके अनुसार इससे तात्पर्य पंजाब के गणजातीय लोगों से है जिन्होंने सिकन्दर के आक्रमण का प्रबल प्रतिरोध किया था।

  • Invasions of Alexander, p.328.
  • Invasions of Alexander, p. 406.

मुद्राराक्षस तथा परिशिष्टपर्वन् से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता प्राप्त हुई थी। कुछ विद्वानों ने इस शासक को पहचान पोरस से की है किन्तु इसके पीछे कोई ठोस आधार नहीं है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के डॉ० ओम प्रकाश ने पर्वतक की पहचान अभिसार के शासक के साथ किये जाने के पक्ष में अपना मत प्रकट किया है।

  • Journal of Indian History, Trivendrum, Published in 1969 : On the Identity of Parvataka.

यह चन्द्रगुप्त का सौभाग्य था कि पंजाब और सिन्ध को राजनीतिक परिस्थितियाँ उसके पूर्णतया अनुकूल थी। सिकन्दर के प्रस्थान के साथ ही इन प्रदेशों में विद्रोह उठ खड़े हुए तथा अनेक यूनानी क्षत्रप मौत के घाट उतार दिये गये। उनमें आपस में ही विद्वेष और घृणा की भावना बढ़ती गयी।

३२५ ईसा पूर्व के लगभग ऊपरी सिन्धु घाटी के प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या कर दी गयी। ३२३ ईसा पूर्व में सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् परिस्थितियाँ और बिगड़ती चली गयीं। सिन्ध और पंजाब में सिकन्दर द्वारा स्थापित प्रशासन का ढाँचा चरमराने लगा। इन प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था फैलती गयी।

इन परिस्थितियों ने चन्द्रगुप्त मौर्य का कार्य सुगम कर दिया। इन प्रदेशों में चन्द्रगुप्त की सफलता का संकेत इतिहासकार जस्टिन इन शब्दों में करता है – ‘सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् भारत ने अपनी गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंका तथा अपने गवर्नरों की हत्या कर दी। इस स्वतन्त्रता का जन्मदाता सान्ड्रोकोटस (चन्द्रगुप्त) था।

India after the death of Alexander, had shaken off the yoke of servitude from its neck and put her governors to death. The author of this liberation was Sandrocottus.

—Invasions Of Alexander, p. 327. Justine.

इस प्रकार जस्टिन के विवरण से ज्ञात होता है कि सिकन्दर के क्षत्रपों के निष्कासन अथवा विनाश के पीछे चन्द्रगुप्त का ही प्रमुख हाथ था।

ऐसा प्रतीत होता है कि फिलिप द्वितीय तथा सिकन्दर की मृत्यु के बीच के दो वर्षों (३२५-३२३ ईसा पूर्व) के काल में चन्द्रगुप्त ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यापक योजनायें तैयार कर ली। अब उनकी तैयारी पूरी हो चुकी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सर्वप्रथम एक सेना एकत्र कर स्वयं को राजा बनाया तथा फिर सिकन्दर के क्षत्रपों के विरुद्ध राष्ट्रीय युद्ध छेड़ दिया। ३१७ ईसा पूर्व में पश्चिमी पंजाब का अन्तिम यूनानी सेनानायक यूडेमस भारत छोड़ने के लिये बाध्य हो गया और इस तिथि तक सम्पूर्ण सिन्ध तथा पंजाब के प्रदेशों पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो चुका था। वस्तुतः यह चन्द्रगुप्त मौर्य की सुनियोजित योजना का प्रतिफल था।

जस्टिन के विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य तथा मेसीडोनियन क्षत्रपों के बीच भीषण युद्ध हुआ होगा तथा चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर द्वारा भारत में छोड़ी गयी सेना को पूर्णतया उखाड़ फेंका होगा। अतः यूडेमस ने यह बुद्धिमानी की कि चन्द्रगुप्त मौर्य को बिना चुनौती दिये हो ३१७ ईसा पूर्व में शान्तिपूर्वक भारत छोड़ दिया। अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकच्छत्र शासक बन चुके थे।

नन्द वंश का उन्मूलन

सिन्ध तथा पंजाब में अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य मगध साम्राज्य की ओर अग्रसर हुए। मगध में इस समय धननन्द का शासन था। अपने असीम सैनिक साधनों तथा सम्पत्ति के बावजूद भी वह जनता में लोकप्रियता अर्जित कर सकने में असफल रहा था और यही उसकी सबसे बड़ी दुर्बलता थी।

धननन्द ने एक बार आचार्य चाणक्य को भी अपमानित किया था जिससे क्रुद्ध होकर उन्होंने नन्दों को समूल नष्ट कर देने की प्रतिज्ञा की थी। प्लूटार्क के विवरण से ज्ञात होता है कि नन्दों के विरुद्ध सहायता-याचना के उद्देश्य से चन्द्रगुप्त मौर्य पंजाब में सिकन्दर से मिले थे। इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने उसके इस कार्य की तुलना मध्ययुगीन भारत के राजपूत शासक राणासंग्राम से की है। राणा ने इब्राहिम लोदी का तख्ता पलटने के लिये मुगल सम्राट बाबर को आमन्त्रित किया था। परन्तु चन्द्रगुप्त अपने उद्देश्य में असफल रहा।

  • Political History of India, p. 268.

हेमचन्द्र राय चौधरी के इस विचार से कि ‘चन्द्रगुप्त ने नन्दवंश की सत्ता पलटने हेतु सहायता माँगी थी’; तर्कसंगत नहीं जान पड़ती है। क्योंकि जिन राणा साँगा की तुलना की जा रही वहाँ भी यही स्थिति है। यह उल्लेख कि राणा साँगा ने इब्राहीम लोदी के विरुध्द उसे आमंत्रित किया था, का उल्लेख एकमात्र वहीं करता है ( बाबरनामा में )। यही स्थिति चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में भी है। इस तरह का उल्लेख यूनानी ( प्लूटार्क ) ही करता है। इस तरह के तथ्य तर्कसंगत नहीं प्रतीत होते हैं।

हम देख चुके हैं कि सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् किस प्रकार उसने यूनानी अधिकारियों को पराजित करके ( हत्या करके ) पंजाब और सिन्ध पर अधिकार कर लिया। अब चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल संगठित सेना थी जिसका उपयोग उन्होंने नन्दों के विरुद्ध किया। दुर्भाग्यवश हमें किसी भी साक्ष्य से नन्दों तथा मौर्यो के बीच हुए इस युद्ध का विवरण नहीं मिलता।

बौद्ध तथा जैन स्रोतों से पता चलता है कि सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त ने नन्द साम्राज्य के केन्द्रीय भाग पर आक्रमण किया, परन्तु सफलता नहीं मिली और उसको सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। इस घटना का बौद्ध ग्रंथ महाबोधिवंश में चपाती की घटना और जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन में खीर की घटनासे चन्द्रगुप्त के प्रेरणा लेने का विवरण मिलता है। जो भी हो अब उसे अपनी भूल ज्ञात हुई तथा उसने दूसरी बार सीमान्त प्रदेशों को विजित करते हुये नन्दों की राजधानी पर धावा बोला। ऐसा प्रतीत होता है कि नन्द-मौर्य बुद्ध बड़ा रक्तरंजित रहा होगा।

बौद्ध ग्रन्थ ‘मिलिन्दपण्हों‘ में इस युद्ध का बड़ा ही अतिरंजित विवरण मिलता है। इस ग्रन्थ में भद्रशाल ( भद्दशाल ) का उल्लेख मिलता है जिसने नन्द सेना का नेतृत्व किया अर्थात् वह नन्द सेना का सेनापति था। इसमें युद्ध के हताहतों की संख्या बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बतायी गयी है जो मात्र आलंकारिक प्रतीत होती है। इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि युद्ध बढ़ा घमासान तथा भयंकर रहा। अन्ततः धननन्द मार डाला गया और चन्द्रगुप्त का मगध साम्राज्य पर अधिकार हो गया। यह चन्द्रगुप्त मौर्य की दूसरी महत्त्वपूर्ण सफलता थी। अब चन्द्रगुप्त मौर्य भारत के एक विशाल साम्राज्य का शासक बन गया।

सेल्युकस के विरुद्ध युद्ध

सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी सेल्युकस हुआ। वह एन्टीओकस का पुत्र था। बेबीलोन तथा बैक्ट्रिया को जीतकर उसने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली। वह अपने सम्राट द्वारा जीते गये भारत के प्रदेशों को पुनः अपने अधिकार में लेने का उत्सुक था। इस उद्देश्य से ३०५ ईसा पूर्व के लगभग उसने भारत पर आक्रमण किया तथा सिन्धु नदी तक आ पहुँचा।

परन्तु इस समय का भारत सिकन्दरकालीन भारत से पूर्णतया भिन्न था। अतः सेल्युकस को विभिन्न छोटे-छोटे प्रदेशों के राजाओं व सरदारों के स्थान पर एक संगठित भारत के महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से युद्ध करना था। यूनानी लेखक केवल इस युद्ध के परिणाम का ही उल्लेख करते हैं।

एप्पियानस लिखता है कि ‘सिन्धु नदी पार करके सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य से युद्ध किया। कालान्तर में दोनों में सन्धि हो गयी तथा एक वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया।’

Appianus says that he crossed the Indus and waged war on Chandragupta, king of the Indians, who dwelt about it, until he made friends and entered into relations of marriage with him.

— Political History Of Ancient India, p. 272 : H. C. Ray Chaudhary.

स्ट्रैबो के अनुसार ‘उस समय भारतीय सिन्धु नदी के समीपवर्ती भाग में रहते थे। यह भाग पहले पारसीकों के अधीन था। सिकन्दर ने इसे जीतकर वहाँ अपना प्रान्त स्थापित किया। किन्तु सेल्युकस ने इन्हें सान्ड्रोकोट्स को वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप दे दिया तथा बदले में पाँच सौ हाथी प्राप्त किया।’

Strabo says: ‘The Indians occupy (in part) some of the countries situated along the Indus, which formerly belonged to the Persians: Alexander deprived the Ariani of them, and established there settlements (or provinces) of his own. But Seleucus Nicator gave them to Sandrocottus in consequence of a marriage contract, and received in turn 500 elephants’.

— Political History Of Ancient India, p. 272 : H. C. Ray Chaudhary.

इन विवरणों से ऐसा संकेत मिलता है कि सेल्युकस युद्ध में पराजित हुआ। फलस्वरूप चन्द्रगुप्त तथा सेल्युकस के बीच एक संधि हुई जिसकी शर्तें निम्नलिखित प्रकार थीं —

  • सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त को चार प्रदेश दिये :
    • आरकोसिया (कान्धार) का प्रान्त।
    • पेरोपनिसिडाई (काबुल) के प्रान्त।
    • एरिया (हेरात) के क्षत्रपियों के कुछ भाग।
    • जेड्रोसिया के क्षत्रपियों के कुछ भाग।
  • चन्द्रगुप्त ने सेल्युकस को ५०० भारतीय हाथी उपहार में दिया।
  • दोनों नरेशों के बीच एक वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार सेल्युकस ने अपनी एक पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया। परन्तु उपलब्ध प्रमाणों से इस प्रकार की कोई सूचना नहीं मिलती।
  • सेल्युकस ने मेगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। वह बहुत दिनों तक पाटलिपुत्र में रहा तथा भारत पर उसने ‘इण्डिका’ नामक एक पुस्तक की रचना की थी।

यह निश्चय ही चन्द्रगुप्त की एक महत्त्वपूर्ण सफलता थी। इससे उसका साम्राज्य भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा तथा उसके अन्तर्गत वर्तमान अफगानिस्तान का एक बड़ा भू-भाग भी सम्मिलित हो गया।

चन्द्रगुप्त के कान्धार पर आधिपत्य की पुष्टि वहाँ से प्राप्त हुए अशोक के लेख से भी हो जाती है क्योंकि अशोक अथवा बिन्दुसार ने इस भाग की विजय नहीं की थी। भारत ने सिकन्दर के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया।

इस समय से भारत तथा यूनान के बीच राजनीतिक सम्बन्ध प्रारम्भ हुआ जो बिन्दुसार तथा अशोक के समय में भी बना रहा।

इस तरह चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में मौर्य साम्राज्य ने पश्चिमोत्तर में उस वैज्ञानिक सीमा को अधिकृत किया जिसे न तो मुग़ल प्राप्त कर सके और न ही अँग्रेज।

पश्चिमी भारत की विजय

शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख ( १५० ईस्वी ) से इस बात की सूचना मिलती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सुराष्ट्र तक का प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत कर लिया था। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल (राष्ट्रीय) था और उसने वहाँ सुदर्शन नामक झील का निर्माण करवाया था।

सुराष्ट्र प्रान्त के दक्षिण में सोपारा (महाराष्ट्र प्रान्त के थाना जिले में स्थित) नामक स्थान से चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है, परन्तु अशोक अपने अभिलेखों में इस प्रदेश को जीतने का दावा नहीं करते। अतः इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सुराष्ट्र के दक्षिण में सोपारा तक का प्रदेश भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा ही विजित किया गया था।

दक्षिण भारत

चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारत की विजय के सम्बन्ध में अशोक के अभिलेखों तथा जैन एवं तमिल स्रोतों से कुछ जानकारी प्राप्त होती है।

दक्षिण भारत में कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश के कई स्थानों से अशोक के लेख मिलते हैं, जैसे- सिद्धपुर, ब्रह्मगिरि, जटिंगरामेश्वर पहाड़ी (कर्नाटक राज्य के चित्तलदुर्ग जिले में स्थित), गोविमठ, पालक्किगुण्ड, मास्की तथा एर्रगूटी (आन्ध्र प्रदेश के करनूल जिले में स्थित)।

अशोक स्वयं अपने अभिलेखों में अपने राज्य को दक्षिणी सीमा पर स्थित चोल, पाण्ड्य, सत्तियपुत्र तथा केरलपुत्र जातियों का उल्लेख करते हैं।१० उसके तेरहवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि दक्षिण में उसने केवल कलिंग की ही विजय की थी जिसके पश्चात् उसने युद्ध-कार्य पूर्णतया बन्द कर दिया। ऐसी स्थिति में दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक को विजय का श्रेय हमें या तो बिन्दुसार को अथवा चन्द्रगुप्त मौर्य को देना पड़ेगा।

बिन्दुसार की विजय अत्यन्त संदिग्ध है और इतिहास उसे विजेता के रूप में स्मरण नहीं करता। अतः यही मानना तर्कसंगत लगता है कि चन्द्रगुप्त ने ही इस प्रदेश को विजय को होगी।

चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारतीय विजय के विषय में जैन एवं तमिल स्रोतों से भी कुछ संकेत मिलते है।

जैन परम्परा के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में चन्द्रगुप्त ने जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की तथा दोनों ‘श्रवणबेलगोला’ (कर्नाटक राज्य) नामक स्थान पर आकर बस गये। यहाँ चन्द्रगिरि नामक पहाड़ी पर चन्द्रगुप्त तपस्या किया करते थे। यदि इस परम्परा पर विश्वास किया जाय तो यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उसी स्थान पर तपस्या के लिये गये होंगे जो उसके साम्राज्य में स्थित हो। इससे श्रवणबेलगोला तक उसका अधिकार प्रमाणित होता है।

तमिल परम्परा११ से ज्ञात होता है कि मौर्यों ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में “मोहर” के राजा पर आक्रमण किया तथा इस अभियान में कोशर और वड्डगर नामक दो मित्र जातियों ने उसको मदद की थी। इस परम्परा में नन्दों की अतुल सम्पत्ति का एक उल्लेख मिलता है जिससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तमिल लेखक मागध के मौर्यो का विवरण दे रहे हैं जो नन्दों के उत्तराधिकारी थे। इस परम्परा में मौर्यो द्वारा तमिल प्रदेश को विजय का विवरण सुरक्षित है। यह विजय निःसन्देह चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में हुई होगी।

  • The Beginnings of South Indian History — S. Krishnaswami Aiyangar, p. 69, 91, 103.११

यहाँ उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त जैन तथा तमिल परम्पराओं को अनेक विद्वान् ऐतिहासिक नहीं मानते। अतः इनमें हम बहुत अधिक विश्वास नहीं कर सकते।

अखिल भारतीय साम्राज्य

इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फैल गया। प्लूटार्क ने लिखा है कि ‘उसने छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया।’ १२

Androcottus overran and subdued the whole of India with an army of six lacs.१२

– Plutarch’s Lives, Chapter.

Plutarch tells us that he overran and subdued the whole of India with an army of 600,000 men.१२

— Political History of Ancient India, p. 269 : H. C. Roy Chaudhary.

जस्टिन के विवरण से भी पता चलता है कि सम्पूर्ण भारत उसके अधिकार में था। मगध साम्राज्य के उत्कर्ष की जो परम्परा बिम्बिसार के समय से प्रारम्भ हुई थी, चन्द्रगुप्त के समय में वह पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत था। पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तथा सोपारा तक का सम्पूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था।

इतिहासकार स्मिथ के अनुसार हिन्दुकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी। यूनानी लेखक इसे पैरोपेनिसस अथवा ‘इण्डियन काकेशस‘ कहते थे। यही चन्द्रगुप्त तथा सेल्युकस के साम्राज्यों की सीमा थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को हराकर भारत की उस वैज्ञानिक सीमा पर अधिकार कर लिया था जिसे प्राप्त करने के लिये मुगल तथा अंग्रेज शासक व्यर्थ का प्रयास करते रहे।१३ पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

The First Indian Emperor entered into possession of that scientific frontier sighed for in vain by his Brush successors and never held in its entirety even by the Moghul emperors of 16th and 17th centuries.१३

— Early History Of India, p.126 : V. A. Smith.

चन्द्रगुप्त मौर्य के अन्य कार्य

चंद्रगुप्त मौर्य सिर्फ एक महान विजेता ही नहीं वरन् एक कुशल प्रशासक भी थे। उनके शासन का उद्देश्य लोकहितकारी राज्य की स्थापना करना था। उन्होंने अपने गुरु और महामंत्री चाणक्य की सहायता से एक सुदृढ़ प्रशासन की व्यवस्था की। अर्थशास्त्र और इंडिका से इसकी जानकारी मिलती है।

  • प्रशासन की स्थापना : राजा राज्य का सर्वोच्च पदाधिकारी था। सम्पूर्ण अधिकार राजा के हाथों में केंद्रित थे। वह मंत्रिपरिषद एवं एक विस्तृत और कुशल नौकरशाही द्वारा प्रशासन चलाता था। राजा राज्य के सभी विभागों पर गुप्तचरों की सहायता से नियंत्रण रखता था।
  • सेना का संगठन : चन्द्रगुप्त ने एक विशाल और स्थायी सेना भी संगठित की।
  • कर प्रणाली व राजस्व व्यवस्था : राज्य की आमदनी बढ़ाने के उपाय किये गये।
  • न्याय की समुचित व्यवस्था हुई।
  • नगर प्रशासन और स्थानीय प्रशासन की तरफ भी समुचित ध्यान दिया गया।
  • राज्य आर्थिक-सामाजिक कार्यों में भी अभिरुचि रखता था।
  • राजप्रासाद का निर्माण : चंद्रगुप्त के समय में पाटलिपुत्र नगर का महत्त्व, साम्राज्य की राजधानी होने के कारण, अत्यधिक बढ़ गया। यूनानी लेखकों— मेगास्थनीज और एरियन ने इस नगर की प्रशंसा की है। एरियन तो यहाँ तक कहता है कि पाटलिपुत्र के वैभव और गरिमा की बराबरी सूसा और एकबतना भी नहीं कर सकते हैं।
  • लोक कल्याणकारी कार्य : सुदर्शन झील का निर्माण, सैनिक आश्रितों की देखभाल की व्यवस्था, उत्तरापथ का निर्माण इत्यादि।

चन्द्रगुप्त मौर्य का अन्त

चन्द्रगुप्त एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता एवं कुशल प्रशासक थे। एक सामान्य कुल में उत्पन्न होते हुए भी अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर वह एक सार्वभौम सम्राट के पद पर पहुँच गये। उन्होंने देश में पहली बार एक सुसंगठित शासन व्यवस्था की स्थापना की और वह व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये आदर्श स्वरूप बनी रही।

वह एक धर्म-प्राण व्यक्ति थे। जैन परम्पराओं के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह जैन हो गये तथा भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली।

उनके शासन काल के अन्त में मगध में बारह वर्षों का भीषण अकाल पड़ा। पहले तो चन्द्रगुप्त ने स्थिति से निपटने की पूरी कोशिश को परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। परिणामस्वरूप वे अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर) में तपस्या करने चले गये। इसी स्थान पर २९८ ईसा पूर्व के लगभग उन्होंने जैन विधि से उपवास पद्धति द्वारा प्राण त्याग किया। इसे जैन धर्म में ‘सल्लेखना’ कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि श्रवणबेलगोला की एक छोटी पहाड़ी आज भी चन्द्रगिरि कही जाती है। तथा वहाँ ‘चन्द्रगुप्त बस्ती’ नामक एक मन्दिर भी है। बाद के कई लेखों में भी भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मुर्ति का उल्लेख मिलता है।

इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की बात तो सही लगती है किन्तु जैन लेखकों द्वारा बारह वर्षीय अकाल का विवरण सही नहीं प्रतीत होता।

यूनानी राजदूत मेगस्थनीज, जो चन्द्रगुप्त की राज्यसभा में निवास करता था, कहीं भी अकाल की स्थिति का उल्लेख नहीं करता है। अन्य किसी साक्ष्य से भी इसकी पुष्टि नहीं होती। हाँ सोहगौरा और महास्थान अभिलेख अकाल पड़ने और आपातकाल के लिये अन्नागार का विवरण देते हैं।

तिथिक्रम

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल से सम्बन्धित विभिन्न घटनाओं का कालक्रम निर्धारित करना बड़ा कठिन है। यूनानी प्रमाणों के आधार पर इस विषय पर कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।

हम देख चुके हैं कि ३२३ ईसा पूर्व में सिकन्दर की बेबीलोन ( वर्तमान ईराक में दजला-फरात नदी घाटी में स्थित ) में मृत्यु हुई। इसके पश्चात् बेबीलोन में उसके साम्राज्य का विभाजन हो गया। उसके साम्राज्य का दूसरा विभाजन ३२१ ईसा पूर्व के लगभग हुआ। इसमें पेरोपेनिसस (काबुल) यूनानी साम्राज्य का सबसे पूर्वी प्रदेश ( क्षत्रपी ) माना गया तथा यहाँ सिन्धु नदी के पूर्व किसी भी प्रदेश का उल्लेख नहीं मिलता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ३२१ ईसा पूर्व तक यूनानियों का अधिकार सिन्धु क्षेत्र में न रहा। हम यह भी जानते है कि इस क्षेत्र से यूनानियों के निष्कासन में चन्द्रगुप्त मौर्य का ही प्रमुख हाथ था।

अतः ऐसा माना जा सकता है कि ३२३ ईसा पूर्व से ३२१ ईसा पूर्व के बीच चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने को पंजाब तथा मगध का शासक बना लिया होगा। उसके राज्यारोहण को सम्भावित तिथि ३२२ ईसा पूर्व मानी जा सकती है। पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने २४ वर्षों तक शासन किया। अतः उनकी मृत्यु २९८ ईसा पूर्व के लगभग हुई होगी। इस प्रकार हम चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन काल ३२२ ईसा पूर्व के लगभग से २९८ ईसा पूर्व तक मोटेतौर पर स्वीकार कर सकते हैं।

३२२ ईसा पूर्व की तिथि का समर्थन चीन के कैन्टन में रखे हुए लेख से भी हो जाता है। कैन्टन लेख को ‘बिन्दुओं का लेख’ (Dotted Record) कहा जाता है। इसमें बिन्दुओं का प्रारम्भ महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण से प्रारम्भ होकर ४८९ ईस्वी तक जाता है जबकि उनका पूरा योग ९७५ हो जाता है। यदि बुद्ध के महापरिनिर्वाण तथा बिन्दुओं के प्रारम्भ होने के समय में एक वर्ष का अन्तर मान लिया जाय तो तद्नुसार महापरिनिर्वाण की तिथि ९७५ + १ – ४८९ = ४८७ ई० पू० होगी।

पालि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि महापरिनिर्वाण के २१८ वर्षों बाद अशोक का अभिषेक हुआ तथा वह उसके सिंहासन पर बैठने के चार वर्षों बाद सम्पन्न हुआ था। इस दृष्टि से अशोक के सिंहासन पर बैठने की तिथि २७३ ईसा पूर्व तथा उसके अभिषेक की तिथि २६९ ईसा पूर्व आती है।

पुराण चन्द्रगुप्त तथा विन्दुसार को शासनावधि क्रमशः २४ तथा २५ वर्ष बताते है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण २७३ + ४९ = ३२२ ईसा पूर्व में हुआ।

चन्द्रगुप्त मौर्य के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन

चन्द्रगुप्त की उपलब्धियों को देखने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक महान् विजेता, साम्राज्य निर्माता तथा अत्यन्त कुशल प्रशासक थे। एक सामान्य परिवार ( Humble Family ) में उत्पन्न होते हुए भी उन्होंने अपनी योग्यता एवं कुशलता के बल पर स्वयं को एक सार्वभौम सम्राट के रूप में स्थापित किया। चन्द्रगुप्त मौर्य भारतवर्ष के प्रथम महान ऐतिहासिक सम्राट थे जिनके नेतृत्व में चक्रवर्ती सम्राट का आदर्श वास्तविक धरातल पर चरितार्थ हुई।

यदि यूनानी स्रोतों पर विश्वास किया जाय तो कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त की महान सफलता अधिकांशतः उसकी वीरता, अदम्य उत्साह एवं साहस का ही परिणाम थी। जब हम देखते हैं कि चन्द्रगुप्त के पीछे कोई राजकीय परम्परा नहीं थी तो उसकी उपलब्धियों का महत्त्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है।

यूनानी दासता से देश को मुक्त कराना, शक्तिशाली परन्तु अत्याचारी नन्दों का विनाश करना तथा अपने समय के एक अत्यन्त उत्कृष्ट सेनानायक सेल्युकस को नतमस्तक करना, निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य की असाधारण सैनिक योग्यता के परिचायक है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारतवर्ष की उस वैज्ञानिक सीमा को अधिकृत कर लिया जिसके लिये मुगल तथा ब्रिटिश शासक व्यर्थ का प्रयास करते रहे।

चन्द्रगुप्त एक वीर योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता ही नहीं था अपितु अत्यन्त योग्य शासक भी थे। मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था जो कालान्तर की सभी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार कही जा सकती है, बहुत कुछ चन्द्रगुप्त की रचनात्मक प्रतिभा तथा उसके गुरु एवं प्रधान मंत्री आचार्य कौटिल्य की राजनीतिक सूझबूझ का ही परिणाम थी। इस प्रकार चन्द्रगुप्त एक निपुण तथा लोकोपकारी शासन व्यवस्था का निर्माता था। उनके शासन का आदर्श बाद के हिन्दू शासकों के लिये अनुकरणीय बना रहा। यहाँ तक कि मुस्लिम तथा ब्रिटिश शासकों ने भी राजस्व व्यवस्था, नौकरशाही तथा पुलिस व्यवस्था के क्षेत्रों में मौर्य शासन के प्रतिमानों का ही अनुकरण किया। मौर्य प्रशासन के अधिकांश आदर्शों को आधुनिक युग के भारतीय शासन में भी देखा जा सकता है। चन्द्रगुप्त ने अपने व्यक्तित्व एवं आचरण से कौटिल्य के प्रजाहित के राज्य के आदर्श को कार्यरूप में परिणत कर दिया। उनकी सफलताओं ने भारत को विश्व के राजनीतिक मानचित्र में प्रतिष्ठित कर दिया।

चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा विदेशी कन्या से विवाह करना भारत के तत्कालीन सामाजिक जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था। इससे चन्द्रगुप्तके मस्तिष्क की उदारता सूचित होती है। यदि जैन परम्परा में विश्वास किया जाय तो कहा जा सकता है कि वस्तुत चन्द्रगुप्त एक राजर्षि थे जिन्होंने अपने उत्तरकालीन जीवन में राज्य के सुख-वैभव का परित्याग कर तप करते हुए स्वेच्छा से मृत्यु का वरण किया।

स्ट्रैबो के विवरण से चंद्रगुप्त मौर्य के दैनिक जीवन एवं उसके कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। उसके अनुसार राजा स्त्री अंगरक्षकों से घिरा हुआ महल में रहता था। वह सिर्फ युद्ध, यज्ञ, न्याय तथा आखेट के लिए बाहर निकलता था। चंद्रगुप्त ब्राह्मणों एवं श्रमणों का आदर करता था तथा उनसे परामर्श करता था। उसका अधिक समय राजकार्य में व्यतीत होता था तथापि उसकी अभिरुचि मद्यपान एवं खेलकूद में भी थी।

वह प्रथम भारतीय साम्राज्य निर्माता, मुक्तिदाता और कुशल प्रशासक के रूप में विख्यात है। उसे ‘मुक्तिदाता’ (liberator) इसलिये कहा जाता है कि उसने एक तरफ तो मगध की जनता को नंदों के घृणित व अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलायी तो दूसरी तरफ पंजाब से यूनानियों के प्रभुत्व को समाप्त कर देश को विदेशी दासता से मुक्त किया।

चंद्रगुप्त एक विजेता और प्रशासक के अतिरिक्त कूटनीतिज्ञ भी था। उसने विदेशी शासकों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाया। परिणामस्वरूप भारतीय यूनानी संपर्कों की परंपरा बढ़ी। अनेक यूनानी भारत में रहने लगे। चंद्रगुप्त ने भी अनेक यूनानी परंपराओं को अपना लिया। भारतीय कला और संस्कृति पर यूनानी संपर्क का गहरा प्रभाव पड़ा। इसीलिये अनेक विद्वानों का मानना है कि भारत में यूनानी (Hellenise) प्रभाव लाने के लिये सिकंदर से अधिक योगदान चंद्रगुप्त का है

चंद्रगुप्त की धर्म में भी गहरी अभिरुचि थी। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। जैन अनुश्रुतियों के ‘अनुसार अपने जीवनकाल के अंतिम चरण में उन्होंने जैनधर्म अपना लिया।’ मगध में पड़नेवाले द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष से दुःखी होकर वह राज्य त्यागकर आचार्य भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गये। वहीं श्रमणबेलगोला में उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया।

मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )

मौर्य राजवंश की उत्पत्ति या मौर्य किस वर्ण या जाति के थे?

भारत पर सिकन्दर का आक्रमण, कारण और प्रभाव

नंद वंश (३४४ से ३२४/२३ ई०पू०)

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