भारत पर सिकन्दर का आक्रमण, कारण और प्रभाव

विषयसूची

भूमिका

हखामनी आक्रमण के पश्चात् पश्चिमोत्तर भारत एक दूसरे यूनानी आक्रमण का शिकार हुआ। यह यूरोपीय विजेता सिकन्दर के नेतृत्व में होने वाला मकदूनियाई आक्रमण था जो पहले की अपेक्षा कहीं अधिक भयावह सिद्ध हुआ।

सिकन्दर मेसीडोन के क्षत्रप फिलिप द्वितीय (३५९-३३६ ईसा पूर्व) का पुत्र था। पिता की मृत्यु के पश्चात् २० वर्ष की आयु में वह राजा बना। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। बचपन से ही उसको इच्छा विश्व सम्राट बनने की थी। कहा जाता है कि विश्व विजय करने को प्रेरणा उसे अपने पिता से ही प्राप्त हुई थी। उसमें अदम्य उत्साह, साहस तथा वीरता विद्यमान थी।

मेसीडोनिया तथा यूनान में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद उसने दिग्विजय की एक व्यापक योजना तैयार की। इस प्रक्रिया में उसने एशिया माइनर, सीरिया, मिस्र, बेबीलोन, बैक्ट्रिया, सोण्डियाना आदि को जीता।

३३१ ईसा पूर्व में आरबेला के प्रसिद्ध युद्ध (Battle of Arbela or Gaugamela) में दारा तृतीय के नेतृत्व में उसने विशाल पारसी वाहिनी को परास्त किया। इस आश्चर्यजनक सफलता से सम्पूर्ण हखामनी साम्राज्य उसके चरणों में लोटने लगा।

पश्चिमोत्तर की राजनीतिक स्थिति

मूलभूत प्रश्न यह है कि ‘सिकन्दर के आक्रमण की पूर्वसंध्या पर भारत की राजनीतिक अवस्था कैसी थी?’ (What was the political condition of India on the eve of Alexander’s invasion?)

पश्चिमोत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ इस समय अराजकता के दौर से गुजर रही थीं। यह प्रदेश सिकन्दर को विजयों के लिये सर्वथा उपयुक्त था। अतः हख़ामनी साम्राज्य को ध्वस्त करने के पश्चात् ३२६ ईसा पूर्व के वसन्त के अन्त में एक विशाल सेना के साथ वह भारतीय विजय के लिये चल पड़ा।

भारत के पश्चिमोत्तर भाग में इस समय अनेक छोटे-बड़े जनपद, राजतन्त्र एवं गणतन्त्र विद्यमान थे। पारस्परिक द्वेष एवं घृणा के कारण वे किसी भी आक्रमणकारी का संगठित रूप से सामना नहीं कर सकते थे। राजतन्त्र, गणतन्त्रों को समाप्त करना चाहते थे जबकि गणतन्त्रों के लिये राजतन्त्रों की सत्ता असह्य हो रही थी।

डॉ० हेमचन्द्र रायचौधरी ने अपनी कृति ‘Political History of Ancient India’ ( पृ० २४५-२५८ ) में २८ स्वतन्त्र शक्तियों का उल्लेख किया है जो इस समय पंजाब तथा सिन्ध के प्रदेशों में विद्यमान थीं। इनके नाम इस प्रकार है —

(१) आस्पेशियन (Aspasian ) – यह गणतन्त्रात्मक राज्य था जो काबुल नदी के उत्तर के पहाड़ी भागों में फैला हुआ था।

(२) गुरेअन्स प्रदेश ( Guaraeans) – यह गणराज्य आस्पेशियन तथा अश्वकों के राज्य के बीच स्थित था।

(३) अस्सकेनोस राज्य (Assakenos) – इससे अश्वकों के राज्य से तात्पर्य है। यह गणराज्य स्वात नदी के तट पर स्थित था तथा मेगासा (मग) यहाँ की राजधानी थी।

(४) नीसा (Nyasa) – यह गणराज्य काबुल तथा सिन्धु नदियों के बीच स्थित था।

(५) प्यूकेलाओटिस (Peukelaotis)- यह संस्कृत के पुष्कलावती का रूपान्तर है। यहाँ राजतन्त्र था और यह पश्चिमी गन्धार (पेशावर जिला) में स्थित था।

(६) तक्षशिला (Taxila) – तक्षशिला का राजतन्त्र सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच स्थित था। तक्षशिला प्राचीन गन्धार राज्य का पूर्वी भाग था। यह आजकल पाकिस्तान के रावलपिण्डी जिले में बसा हुआ है।

(७) अरसेक्स राज्य (Arasakes) – पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित यह राजतन्त्र तक्षशिला का ही एक भाग था। इसे संस्कृत में ‘उरशा’ कहा जाता है।

(८) अभिसार (Abhisar) – स्ट्रैबो ने तक्षशिला के उत्तर की ओर पहाड़ों के मध्यवर्ती प्रदेश को अभिसार कहा है। सम्भवतः यह प्राचीन कम्बोज राज्य का ही एक भाग था। यहाँ राजतन्त्र था।

(९) पुरु राज्य (Poros) – यह राजतन्त्र झेलम तथा चिनाव नदियों के बीच में स्थित था। इसमें प्राचीन कैकेय सम्मिलित था।

(१०) ग्लौगनिकाय प्रदेश (Glagaunikai) – यह एक गणराज्य था जो चिनाब नदी के पश्चिम में बसा हुआ था।

(११) गान्दारिस (Gandaris)- यह राजतन्त्र था जो चिनाब और रावी नदियों के बीच स्थित था। यह गन्धार महाजनपद का ही पूर्वी भाग था। यहाँ पुरु का भतीजा राज्य करता था।

(१२) अद्रेस्ताई (Adraistai) – यह गणराज्य रावी के पूर्व की ओर स्थित था। इसकी राजधानी “पिम्प्रमा” थी।

(१३) कथाई अथवा कैशियन्स (Kathaioi) – स्ट्रैबो ने इस राज्य को झेलम और चिनाव के बीच स्थित बताया है। यहाँ गणराज्य था।

(१४) सोफाइटस (सौभूति) राज्य (Sophytes) – यह भी झेलम का तटवर्ती राजतन्त्र था।

(१५) फेगेला (Phegelas) – यह राजतन्त्र रावी तथा व्यास नदियों के बीच में स्थित था।

(१६) सिबोई (Siboi) – यह गणराज्य था। सिबोई लोग झाग जिले के शोरकोट क्षेत्र के निवासी थे। उनका राज्य झेलम तथा चिनाव नदियों के संगम के नीचे बसा हुआ था।

(१७) अगलसोई (Agalassai) – यह भी गणराज्य था। ये लोग सिबोई के ही पड़ोसी थे।

(१८) सूद्रक (क्षुद्रक) (Oxydrakai-Kshudraka) – व्यास नदी के तट पर बसा हुआ यह भी एक गणराज्य था।

(१९) मलोई (मालव) (Malloi) – रावी नदी के दोनों तटों पर मालवों का गणराज्य स्थित था। मालवों तथा क्षुद्रकों ने संगठित रूप से सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।

(२०) आबस्टनोई (अम्बष्ठ) (Abastanoi) – इस गणराज्य के लोग चिनाब तथा सिन्धु नदियों के संगम के ऊपर निवास करते थे।

(२१-२२) जाथ्रोयी और ओसेडिओई (Xathroi and Ossadioi) – ये दोनों ही गणराज्य थे। एरियन ने इनका साथ-साथ उल्लेख किया है। ये दोनों राज्य चिनाब व रावी तथा सिन्धु और चिनाब नदियों के बीच के भाग में फैले हुए थे।

(२३-२४) सोद्राई (सोग्दोई) और मसनोई ( Sodrai-Sogdoi and Massanoi) – ये दोनों ही गण जातियाँ थी। उनका राज्य उत्तरी सिन्धु, बहावलपुर तथा सिन्धु की सहायक नदियों के संगम के नीचे स्थित था।

(२५) मोसिकनोस (मुषिक) राज्य (Mousikanos) – यह राजतन्त्र था जिसमें वर्तमान सिन्धु का अधिकांश प्रदेश शामिल था।

(२६) प्रोस्थस या आक्सीकनोस राज्य (Prosthas or Oxykanos ) – यह भी राजतन्त्र था। कनिंघम के अनुसार यह लरखान के आस-पास स्थित था।

(२७) सम्बोस, सम्बस या शाम्ब राज्य (Sambos) – यह मोसिकनोस का पड़ोसी राजतन्त्र था। दोनों एक-दूसरे शत्रु थे।

(२८) पटलेन (पाटल) ( Patalene) – यह राजतन्त्र सिन्धु नदी के डेल्टा में बसा हुआ था। पाटल इसकी राजधानी थी। यूनानी लेखकों के अनुसार यहाँ स्पार्टा के समान ही “द्वैराज्य-प्रथा” थी।

सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों ने इन राज्यों के बीच पारस्परिक शत्रुता का उल्लेख किया है। कार्टियस हमें बताता है कि तक्षशिला के राजा आम्भी तथा कैकयनरेश पोरस में शत्रुता थी। एरियन के अनुसार पोरस और अबीसेयर्स ने मिलकर मालव तथा क्षुद्रकों पर आक्रमण किया था। पोरस तथा उसके भतीजे के सम्बन्ध खराब थे। सम्बोस और मोसिकनोस एक-दूसरे के शत्रु थे। इस आपसी घृणा एवं संघर्ष के वातावरण ने सिकन्दर का कार्य सरल बना दिया।

सिकन्दर के आक्रमण के कारण

एक स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है कि ‘ऐसे कौन से कारण थे जिसने सिकन्दर के भारत पर आक्रमण को प्रेरित किया?’ (What were the reasons that inspired Alexander’s invasion of India?)

भारत पर सिकंदर का आक्रमण अकस्मात नहीं हुआ, वरन् अनेक कारणों से प्रभावित होकर एक निश्चित योजना के अधीन सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय किया। इसमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :

  • भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति
  • सिकन्दर की विश्वविजेता बनने की अभिलाषा
  • धनलिप्सा
  • सिकन्दर की भौगोलिक अन्वेषण में रुचि
  • हखामनियों पर विजयोपरांत स्वभाविक परिणाम
  • कुछ भारतीय शासकों का सहयोग

भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

प्राग्मौर्य युग में मगध सम्राटों का अधिकार क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तक विस्तृत नहीं हो पाया था। जिस समय मध्य भारत के राज्य मगध साम्राज्य की विस्तारवादी नीति का शिकार हो रहे थे, पश्चिमोत्तर प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था।

यह क्षेत्र अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था। डॉ० हेमचन्द्र राय चौधरी ने अपनी कृति ‘Political History of Ancient India’ में ऐसे २८ राज्यों का विवरण दिया है। ये राज्य आपस में लड़ते रहते थे और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिये विदेशी शक्ति की सहायता लेने में हिचक नहीं करते थे।

इन प्रदेशों में कोई ऐसी सार्वभौम शक्ति नहीं थी जो परस्पर संघर्षरत राज्यों को जीतकर एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित कर सकती। यह सम्पूर्ण प्रदेश एक ही समय विभाजित एवं समृद्ध था।

ऐसी स्थिति में विदेशी आक्रान्ताओं का ध्यान भारत के इस भू-भाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था।

कुल मिलाकर राजनीतिक स्थिति हखामनी आक्रमण के समय से अधिक भिन्न नहीं थीं। जिन परिस्थितियों ने पारसी आक्रमण को प्रेरित किया कमोबेश वही राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण का कारण बनी। इस तरह पूर्व मौर्य युग में दूसरा आक्रमण हुआ जिसका नेतृत्व मकदूनिया के सिकन्दर ने किया।

सिकंदर की विश्व विजेता बनने की अभिलाषा

यद्यपि सिकंदर यूनान के एक छोटे राज्य ( मकदूनिया – Macedon ) का शासक था, तथापि अपनी महत्त्वाकांक्षा और योग्यता के बल पर वह शीघ्र ही एक महान विजेता और शक्तिशाली शासक बन बैठा। समस्त यूनान को अपने नियंत्रण में लेने के पश्चात सिकंदर ने दिग्विजय अभियान आरम्भ किया। वह समस्त विश्व पर अपनी विजय पताका लहराना चाहता था। उसने एशिया माइनर, भूमध्यसागरीय प्रदेशों, फीनिशिया एवं मिस्र को विजित किया।

अरबेला के युद्ध में हखामनी वंश के शासक दारा तृतीय को परास्त कर उसने हखामनी साम्राज्य का अंत कर दिया। इस विजय के पश्चात उसकी लालसा और अधिक बढ़ गयी। ईरान की विजय के पश्चात विश्वविजेता बनने का स्वप्न देखनेवाले सिकंदर महान के लिये आवश्यक था कि वह भारत-विजय करे, क्योंकि ईरान और भारत की सीमा बिलकुल नजदीक थी। दूसरे, क्योंकि पश्चिमोत्तर भारत और निचली सिंधु घाटी ‘हखामनी साम्राज्य’ का अंग था इस कारण से सिकन्दर इस भू-भाग का स्वाभाविक अधिकारी मानता था। इसलिए, सिकंदर ने भारत पर आक्रमण की योजना बनायी।

धनलिप्सा

भारत पर विजय प्राप्त कर सिकंदर विश्वविजेता बनने के अतिरिक्त पर्याप्त धन भी प्राप्त कर सकता था। पश्चिमी जगत में भारत उस समय ‘सोने की चिड़िया’ के रूप में विख्यात था। सिकंदर ने ईरानियों से भारत की संपन्नता के विषय में सुन रखा था। अतः, सिकंदर इस वैभव को भी प्राप्त करना चाहता था।

नये प्रदेशों की जानकारी की इच्छा

सिकंदर जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। वह नये भौगोलिक अन्वेषणों में दिलचस्पी रखता था। वह नये-नये भू-भागों पर अधिकार कर वह वहाँ की भौगोलिक स्थिति से परिचित होना चाहता था। भारत अब भी पश्चिमी जगत के लिये एक प्रहेलिका ही बना हुआ था। उसने बाल्यावस्था में सुन रखा था कि कैस्पियन सागर भारत तक विस्तृत है जिसे वह अपनी आँखों से देखना चाहता था। अतः सिकंदर यहाँ की जानकारी प्राप्त करने की भी इच्छा रखता था।

हखामनी साम्राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में दावा

मकदूनियाई आक्रमण से पूर्व भारत के कुछ भागों पर हखामनियों का लगभग दो शताब्दी तक अधिकार रहा था। ईरान पर सिकन्दर के विजय ने उसे आश्वस्त किया कि वह सुगमतापूर्वक भारत-विजय कर विश्वविजेता बनने का अपना सपना पूरा कर सकता है। इसलिये उसने आक्रमण की योजना बनायी।

कुछ भारतीय शासकों के सहयोग का आश्वासन

सिकंदर भारत के कुछ शासकों द्वारा सहयोग दिये जाने के आश्वासन से और अधिक उत्साहित हो उठा। इस समय तक्षशिला के शासक आम्भी और पोरस के बीच मनमुटाव और संघर्ष चल रहा था। पोरस की बढ़ती हुई शक्ति से आम्भी के दिमाग में खतरे एवं ईर्ष्या की घण्टी बज उठी। उसने पोरस पर अंकुश लगाने और उसे नीचा दिखाने के लिए सिकंदर से संपर्क किया। आम्भी ने बोखारा में सिकंदर के पास अपना दूत भेजकर भारत पर आक्रमण करने एवं पोरस की शक्ति को कुचलने का अनुरोध किया। उसने सिकंदर को बहुमूल्य उपहार भी भेजे। सिकंदर तो मौके की ताक में था ही। उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

सिकन्दर के आक्रमण का स्वरूप

हखामनी साम्राज्य का विनाश करने के पश्चात् सिकन्दर ने उसके सबसे पूर्वी भाग में स्थित बल्ख (बैक्ट्रिया) के प्रान्त में एक उपनिवेश की स्थापना की। इसी स्थान से उसने भारतीय विजय के लिये कूच किया। बल्ख से चलकर काबुल के मुख्य मार्ग से होते हुए उसने हिन्दुकुश पर्वत पार किया। वह एलेक्जेन्ड्रिया पहुँचा जहाँ के क्षत्रप को उसने कुशासन के आरोप में पदच्युत कर उसके स्थान पर एक नये क्षत्रप को नियुक्ति की। यहाँ से सिकन्दर ने निकैया (Nicaea) को प्रस्थान किया। यह भारत का सबसे निकटवर्ती प्रदेश था।

सिकन्दर के भारत आभियान को निम्नलिखित बिन्दुओं में बाँटकर देख सकते हैं :

  • सिन्धु नदी की ओर प्रस्थान और गतिविधियाँ
  • सिन्धु नदी को पार करना और सिन्धु पार की गतिविधियाँ
  • वितस्ता युद्ध
  • झेलम नदी के बाद के युद्ध
  • सिकन्दर का प्रत्यावर्तन
सिकन्दर का आक्रमण
सिकन्दर का आक्रमण : सम्भावित मार्ग

सिन्धु नदी की ओर प्रयाण और सिन्धु से पश्चिम की गतिविधियाँ

निकैया में सिकन्दर से तक्षशिला के राजा आम्भी के नेतृत्व में एक दूतमण्डल मिला जिसने उसे सहायता का पूर्ण आश्वासन दिया। तक्षशिला के राजा ने सिकन्दर को बहुमूल्य वस्तुएँ तथा हाथी भेंट किये। किसी भारतीय नरेश द्वारा अपने देश के प्रति विश्वासघात किये जाने का लिखित इतिहास में यह पहला दृष्टान्त है।

हिन्दूकुश के उत्तर में शशिगुप्त नामक एक अन्य भारतीय नरेश ने सिकन्दर को अधीनता स्वीकार की तथा उसकी सहायता का वचन दिया।

इन भारतीय देशद्रोहियों द्वारा आश्वस्त हो जाने के पश्चात् सिकन्दर ने आगे प्रस्थान किया। उसने अपने सेना को दो भागों में विभक्त किया।

  • एक भाग को उसने हिफेस्तियान तथा पेर्डियम नामक अपने दो सेनापतियों के नेतृत्व में काबुल नदी के किनारे-किनारे खैबर दर्रे से होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचने का आदेश दिया।
  • दूसरे भाग का नेतृत्व स्वयं ग्रहण कर उसने कुनार तथा स्वात नदी घाटी के पर्वतीय दुर्गम क्षेत्रों में युद्ध किया।

प्रथम सैन्य दल को मार्ग में पुष्कलावती (पश्चिम गन्धार) के शासक अस्टक (अस्टीज = हस्ति) के भीषण अवरोध का सामना करना पड़ा। तीस दिनों तक युद्ध करने के बाद यह भारतीय राजा अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिये लड़ता हुआ मारा गया। उसका राज्य संजय को सौंपकर यह सैन्य-दल सिन्धु नदी पर पहुँच गया।

सिकन्दर जिस सेना का नेतृत्व कर रहा था उसे कपिशा तथा तक्षशिला के बीच में बसी हुई अनेक स्वाधीनताप्रिय तथा लड़ाकू जन-जातियों से युद्ध करना पड़ा। एरियन ने इन पर्वतीय क्षेत्र की जातियों को अस्पेशियन, गौरियन तथा अस्सकेनिया कहा है।

  • सर्वप्रथम कुनार घाटी के अस्पेशियनों से उनका युद्ध हुआ। ये कड़े प्रतिरोध के बाद हरा दिये गये।
  • इसके पश्चात् वह नीसा की ओर बढ़ा। नीसा जाति ने बिना युद्ध के ही सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपने को यूनानियों का वंशज बताया
  • तत्पश्चात् गौरियनों के प्रदेश को जीतते हुए सिकन्दर ने अश्वकों के राज्य में प्रवेश किया जिनकी राजधानी मसग में थी। भीषण प्रतिरोध के पश्चात् वे परास्त हुए। यूनानी लेखकों के विवरण से पता चलता है कि इस राज्य को स्त्रियों ने पुरुषों की मृत्यु के बाद युद्ध किया था। सिकन्दर ने इस नगर की सभी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया।

मसग के बाद वाजिरा (बिर-कोट) तथा ओरा (उदग्राम) को जीतता हुआ सिकन्दर पुष्कलावती आया जहाँ उसको दूसरी सेना ने पहले से ही अधिकार कर रखा था।

सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेशों को उसने एक प्रान्त (क्षत्रपी) में संगठित किया तथा निकोनोर को वहाँ का क्षत्रप नियुक्त किया। फिलिप के नेतृत्व में एक सैन्य टुकड़ी पुष्कलावती में रख दिया।

पुष्कलावती तथा सिन्धु के बीच स्थित सभी छोटे-छोटे प्रदेशों को जीतकर उसने निचली काबुल घाटी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। सिन्धु पार करने के पूर्व कुछ स्थानीय सहायकों की मदद से सिकन्दर ने एओर्नोस (Aornos) के सुदृढ़ गढ़ पर कब्जा कर लिया। यहाँ उसने शशिगुप्त को शासक नियुक्त किया। इस स्थान से सिकन्दर वर्तमान ओहिन्द के समीप सिन्धु नदी के तट पर आया जहाँ उसके सेनापतियों ने पहले से ही नावों का पुल बना रखा था। यहाँ एक महीने विश्राम करने के पश्चात् ३२६ ईसा पूर्व के वसन्त में यूनानी विजेता ने सिन्धु नदी पार कर भारत भूमि पर कदम रखे।

सिन्धु नदी के पार सिकन्दर की गतिविधियाँ

सिन्धु नदी पार करने के बाद तक्षशिला के शासक आम्भी, जिसका राज्य सिन्धु तथा झेलम नदियों के बीच फैला ने अपनी पूरी प्रजा तथा सेना के साथ सिकन्दर के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया तथा अपनी राजधानी में सिकन्दर का भव्य स्वागत किया। तक्षशिला में एक दरबार लगा जहाँ पास-पड़ोस के अनेक छोटे-छोटे राजाओं ने सिकन्दर के सामने बहुमूल्य सामग्रियों के साथ आत्म-समर्पण किया। इस प्रकार तक्षशिला में खुशियाँ मनाते हुए सिकन्दर ने झेलम तथा चिनाव के मध्यवर्ती प्रदेश के शासक पोरस (पुरु) से आत्म समर्पण की माँग की। पोरस जैसे स्वाभिमानी राजा के लिये यह शर्त अपने गौरव तथा मर्यादा के विरुद्ध लगी। उसने यह संदेश भेजा कि वह यूनानी विजेता के दर्शन रणक्षेत्र में ही करेगा। यह सिकन्दर को खुली चुनौती थी। अतः वह युद्ध के लिए तैयार हुआ।

झेलम (वितस्ता) का युद्ध

यह युद्ध झेलम नदी के तट पर ३२६ ई०पू० सिकन्दर और पोरस के मध्य लड़ा गया था। इसको ‘वितस्ता का युद्ध’, ‘झेलम का युद्ध’ और ‘हाइडास्पीज का युद्ध’ ( Hydaspes Battle ) आदि नामों से जानते हैं।

पोरस की सेना झेलम नदी के पूर्वी तट पर तथा सिकन्दर की सेना झेलम नदी के पश्चिमी तट पर आ डटीं। बरसात के कारण झेलम नदी में बाढ़ आ गयी थी। अतः सिकन्दर के लिये नदी पार करना कठिन था। दोनों पक्ष कुछ दिनों तक अवसर की प्रतीक्षा करते रहे। अंत में एक रात जब भीषण वर्षा हुई, सिकन्दर ने धोखे से अपनी सेना को झेलम नदी के पार उतार दिया। उसके इस कार्य से भारतीय पक्ष स्तम्भित रह गया।

पोरस की सेना बड़ी विशाल थी। एरियन के अनुसार इस सेना में चार हजार बलिष्ठ अश्वारोही, तीन सौ रथ, दो सौ हाथी तथा तीस हजार पैदल सिपाही थे।

सर्वप्रथम पोरस ने अपने पुत्र के नेतृत्व में २,००० सैनिकों को सिकन्दर का सामना करने तथा उसका मार्ग अवरुद्ध करने के लिये भेजा। परन्तु यूनानी सैनिकों के सामने वे नहीं टिक सके तथा उसका पुत्र मारा गया।

अब पोरस सिकन्दर के साथ अन्तिम मुठभेड़ के लिये अपनी पूरी सेना के साथ मैदान में आ डटा।

यह भारतीयों का दुर्भाग्य था कि प्रारम्भ से ही युद्ध उनके विरुद्ध रहा। पोरस के सैनिक विशाल धनुषों से युक्त थे। वर्षा के कारण भूमि दल-दल हो जाने से उसके लिये धनुष को जमीन में टेक सकना असंभव सा हो गया। पोरस की सेना के विशालकाय हाथी यूनानी सेना के तीव्रगामी घोड़ों के सामने नहीं टिक सके। युद्ध का परिणाम सिकन्दर के पक्ष में रहा। बहुत शीघ्र पोरस को विशाल सेना तितर-बितर हो गयी। उनके सैनिक भाग निकले तथा अनेक मौत के घाट उतार दिये गये।

परन्तु साढ़े छः फुट का लम्बा जवान पोरस विशालकाय हाथी पर सवार हो अन्त तक लड़ता रहा। जब विजय की समस्त आशायें क्षीण हो गयीं तो उसने युद्ध भूमि से अपने हाथी मोड़ दिये। इसे प्रत्यावर्तित होते हुए देखकर सिकन्दर ने तक्षशिला के राजा आम्भी को आत्म- समर्पण के संदेश के साथ पोरस के पास भेजा। देश-द्रोही आम्भी को देखते ही घायल पोरस की भुजायें एक बार पुनः फड़क उठी तथा उसका वध करने के निमित्त उसने अपनी शेष शक्ति से उसके ऊपर भाले का अन्तिम प्रहार किया। सौभाग्यवश आम्भी बच गया। इस प्रकार का दृश्य एक प्रसिद्ध (सिक्के) पर अंकित है जिसके मुख भाग पर भागते हुये हाथी के पीछे घुड़सवार (आम्भी?) का चित्र तथा वर्च्छा फेंककर वार करते हुए हाथी पर सवार (पोरस) का चित्र अंकित मिलता है तथा पृष्ठ भाग पर जियस देवता की वेषभूषा मे वज्र धारण किये हुए सिकन्दर का चित्र अंकित है।*

  • Cambridge History Of India, Vol. I, p. 329.*

आम्भी के वापस लौटने के बाद सिकन्दर ने दूसरा दूत-मंडल पोरस को मनाने के लिये भेजा। इसमें पोरस का मित्र मेरूस भी था। उसके प्रयास से पोरस आत्म-समर्पण के लिये राजी हो गया तथा उसने अपने को यूनानी सेना के हवाले कर दिया। वह यूनानी सेना द्वारा बन्दी बना लिया गया तथा घायलावस्था में सिकन्दर के सामने लाया गया। उसके शरीर पर नौ घाव थे।

सिकन्दर ने पोरस की वीरता को प्रशंसा की तथा पूछा, “तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव किया जाय?” पोरस ने बड़ी निर्भीकता एवं गर्व के साथ उत्तर दिया – “जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है।” इस उत्तर को सुनकर सिकन्दर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने पोरस को न केवल उसका राज्य ही लौटाया, अपितु उसके राज्य का उससे भी अधिक विस्तार कर दिया।

प्लूटार्क के अनुसार इसमें १५ संघ राज्य, उनके पाँच हजार बड़े नगर तथा अनेक ग्राम थे। इस प्रकार पोरस की पराजय भी विजय में परिणत हो गयी।

इसके पश्चात् सिकन्दर ने युद्ध मे वीरगति पाने वाले सैनिकों का अन्त्येष्टि संस्कार किया तथा यूनानी देवताओं की पूजा की। उसने दो नगरों की स्थापना की। पहला नगर रणक्षेत्र में ही विजय के उपलक्ष्य में बसाया गया और उसका नाम “निकैया” (विजयनगर) रखा गया। दूसरा नगर झेलम नदी के दूसरे तट पर उस स्थान पर बसाया गया जहाँ सिकन्दर का प्रिय घोड़ा ‘बउकेफला’ मरा था। घोड़े के नाम पर इस नगर का नाम भी ‘बउकेफला’ रखा गया।

झेलम के बाद के युद्ध

झेलम के युद्ध में पोरस को परास्त करने के पश्चात् सिकन्दर ने चिनाब नदी के पश्चिमी तट पर स्थित ‘ग्लौचुकायन राज्य’ पर आक्रमण किया। इस राज्य को जीतकर पोरस के राज्य में मिला दिया गया।

इसी बीच अश्वकों के प्रदेश में विद्रोह उठ खड़ा हुआ तथा यूनानी क्षत्रप निकानोर मौत के घाट उतार दिया गया। सिकन्दर ने एलेक्जेन्द्रिया तथा तक्षशिला के क्षत्रपों-टाइरेसपेस तथा फिलिप को विद्रोह को दबाने का आदेश दिया। उनकी मदद के लिये ईरान से थ्रेसियन सेनायें भी आ पहुँचीं। विद्रोहियों को दबा दिया गया।

तत्पश्चात् सिकन्दर ने चिनाब नदी पार कर ‘गान्दारिस’ राज्य में प्रवेश किया। यहाँ पोरस का भतीजा ‘छोटा पुरु‘ शासन करता था। वह अपना राज्य छोड़कर भाग गया तथा सिकन्दर ने चेनाब और रावी नदियों के बीच के उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। वह सम्पूर्ण क्षेत्र पोरस के राज्य में मिला दिया गया।

इसके बाद सिकन्दर ने रावी नदी पार किया तथा गणजातियों पर आक्रमण कर दिया। अद्रेष्ट्राई (आद्रिज) लोगों ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा सिकन्दर ने उसकी राजधानी ‘पिम्प्रमा’ पर अधिकार कर लिया।

इसके आगे कथाई (कठ) गणराज्य था। कठ गणजाति के लोग पंजाब के सबसे अधिक लड़ाकू योद्धाओं में थे। एरियन उनके साहस की प्रशंसा करता है। उनकी राजधानी संगल में थी। उन्होंने सिकन्दर का कड़ा प्रतिरोध किया तथा अपनी राजधानी के चारों ओर रथों का घेरा बना लिया। अन्ततः पोरस की मदद से सिकन्दर ने उन्हें परास्त किया। उनका नगर ध्वस्त कर दिया गया तथा कठों की सामूहिक हत्या कर दी गयी। यूनानी विवरण के अनुसार १७,००० व्यक्ति मारे गये तथा ७०,००० बन्दी बना लिये गये। इन गणजातीय प्रदेशों को भी पोरस के अधीन कर दिया गया।

इसके बाद सिकन्दर ने सौभूति तथा फेगेला नामक दो राजाओं से उपहार प्राप्त किया जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। यहाँ से सिकन्दर व्यास नदी के तट पर आया। सिकन्दर का प्रत्यावर्तन

व्यास नदी सिकन्दर के उत्कर्ष का चरम बिन्दु सिद्ध हुई। यहाँ एक अप्रत्याशित घटना घटित हुई। सिकन्दर की सेना में विद्रोह हो गया तथा उसके सैनिकों ने और आगे बढ़ने से मना कर दिया। सिकन्दर की सेना का उत्साह भंग हो चुका था तथा हिम्मत टूट चुकी थी। सिकन्दर ने अपने सैनिकों के बीच एक जोशीला भाषण दिया तथा नाना प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उन्हें प्रेरित करने का प्रयास किया। परन्तु उसके सारे प्रयास निष्फल रहे और उसके सैनिकों की हिम्मत फिर न बँध सकी। सिकन्दर स्वयं बड़ा लज्जित हुआ और शर्म के मारे वह तीन दिनों तक अपने शिविर में ही पड़ा रहा। अंततोगत्वा उसने सैनिकों को वापसी का आदेश दे दिया।

सिकन्दर के सैनिकों के उत्साह-भंग के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते हैं :

  • उन्हें स्वदेश छोड़े हुए बहुत दिन बीत चुके थे, अतः उन्हें घर की याद सता रही थी।
  • निरन्तर युद्धों में व्यस्त रहने के कारण वे थक गये थे। गर्मी, वर्षा तथा बीमारियों के कारण उनमें से अनेक मृत्यु के शिकार हो चुके थे तथा अनेक दुर्बल एवं अपंग हो गये थे। ऐसी परिस्थिति में उनका हतोत्साहित हो जाना स्वाभाविक ही था।
  • झेलम के युद्ध में यद्यपि सिकन्दर की विजय हुई थी तथापि भारतीय सैनिकों ने यूनानियों के छक्के छुड़ा दिये थे। प्रत्येक स्थान पर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था।
  • पुनः व्यास नदी के पूर्व की ओर नन्दों का शक्तिशाली साम्राज्य था। यूनानियों ने नन्दों की वीरता, सम्पति तथा समृद्धि के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था। अतः वे उनके साथ किसी प्रकार को टक्कर लेने के लिये तैयार नहीं थे।

निराश सिकन्दर जिस मार्ग से आया था उसी मार्ग से वापस लौटने का निश्चय किया। इसके पूर्व उसने पूनानी देवताओं को स्मृति में व्यास नदी के तट पर अपनी पूरी विजय की सीमा अंकित करने के लिये १२ विशाल वेदियों बनवायीं तथा उनको विधिवत् पूजा की उसने व्यास तथा झेलम नदी के बीच का सम्पूर्ण प्रदेश पोरस के अधिकार में छोड़ दिया।

आम्भी को झेलम के पश्चिमी तथा अभिसार को अर्सेस राज्य के साथ कश्मीर के भू-भाग में उसने शासन करने का अधिकार दिया।

सिकन्दर ने चिनाब नदी पार की तथा झेलम तट पर आया। यहाँ उसे मालव तथा क्षुद्रक गणों के संगठित प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इस संघ के पास एक विशाल सेना थी। उन्होंने डटकर सिकन्दर का मुकाबला किया और सिकन्दर को बुरी तरह से घायल कर दिया। परन्तु मालव लोग परास्त हुये। उनके राज्य के सभी नर-नारी तथा बच्चे मौत के घाट उतार दिये गये। मालवों के पतन के बाद क्षुद्रकों ने भी हथियार डाल दिये और उनका संघ भंग कर दिया गया।

यहाँ सिकन्दर का प्रतिरोध कुछ अन्य गणराज्यों ने भी किया। व्यास तथा चिनाब नदियों के संगम के आस-पास शिवि तथा अगलस्स जातियाँ निवास करती थी। शिवि लोगों ने बिना किसी युद्ध के ही आत्म-समर्पण कर दिया परन्तु अगलस्स जाति ने एक विशाल सेना के साथ उसका सामना किया। उन्होंने अपनी स्त्रियों तथा बच्चों को आग में झोंक दिया तथा स्वयं लड़ते-लड़ते मारे गये

दक्षिणी-पश्चिमी पंजाब में अम्बष्ठ, क्षतृ तथा वसाति नामक छोटे-छोटे गणराज्य थे। उन्होंने भी सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली।

अपनी विजय के अंतिम दौर में सिकन्दर ने पंजाब की नदियों के संगम के नीचे सिन्धु नदी के निचले भागों को जीता। यहाँ की राजनीतिक व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। सर्वप्रथम सोण्डोई (Sogdai) के राजा ने आत्मसमर्पण किया। इसके बाद उसने मुषिक राज्य पर आक्रमण किया। यहाँ के राजा ने भी साधारण प्रतिरोध के बाद उसको अधीनता स्वीकार कर ली। इसी समय मुषिक राज्य के पड़ोसी एक पहाड़ी प्रदेश के शासक सम्बोस ने भी सिकन्दर को अपना राजा मान लिया।

परन्तु निचली सिन्धु घाटी के ब्राह्मणों का शक्तिशाली राज्य था। ब्राह्मणों ने सिकन्दर का सबसे प्रबल प्रतिरोध किया। उन्होंने विदेशियों का विरोध करना जनता का धर्म बताया तथा जिन राजाओं ने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, उसको निन्दा करते हुए उन्हें देशद्रोही करार किया। फलस्वरूप मुषिकनरेश अधिकनोस तथा उसके पड़ोसी राजा ऑक्सीकनोस ने यूनानी दासता का जुआ अपने कन्धों से उतार फेंका। परन्तु सभी विद्रोहों परास्त किये गये तथा उनमें से अनेक की हत्या कर दी गयी।

इसके बाद सिकन्दर पाटल पहुँचा जहाँ सिन्धु नदी दो धाराओं में विभक्त होती है। डियोडोरस के अनुसार स्पार्टा के ही समान यहाँ दो राजाओं का शासन (द्वैराज्य) था तथा कुलवृद्धों की एक सभा द्वारा उसका संचालन होता था।* यूनानियों के आगमन का समाचार सुनते ही यहाँ के नागरिकों ने नगर खाली कर दिया तथा सिकन्दर ने उस पर पूर्ण अधिकार कर लिया। यहाँ उसने एक नयी क्षत्रपी (प्रांत) बनायी जिसका शासक (क्षत्रप) पिथोन (Pithon) को नियुक्त किया। यह सिकन्दर की अन्तिम विजय थी।

  • Diodorus,

सिकन्दर का लौटना, मृत्यु और अंत्येष्टि

३२५ ईसा पूर्व के सितम्बर माह में सिकन्दर ने पाटल से यूनान को प्रस्थान किया। उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँटा। एक भाग को जलसेनापति ‘नियार्कस’ के नेतृत्व में समुद्र के मार्ग से लौटने का आदेश दिया। सेना का दूसरा भाग स्वयं उसके साथ जेड्रोसिया के रेगिस्तानी भागों ( मकरान तट ) से होता हुआ वह बेबीलोन पहुँचा। इसके दो वर्ष पश्चात् (३२३ ईसा पूर्व के लगभग) इसी स्थान पर ( बेबीलोन ) उसकी जीवन लीला समाप्त हुई। सिकन्दर को मिश्र के सिकन्दरिया नगर में दफनाया गया।

आक्रमण का प्रभाव

सिकंदर भारत में लगभग १९ महीनों तक रहा। इस अवधि में वह सदैव युद्धों में संलग्न रहा। उसे विजित प्रदेशों की सुरक्षा करने या उनकी प्रशासनिक व्यवस्था सुदृढ़ करने का अवसर नहीं मिला। फलतः जब वह भारत में ही था, तभी उसके विरुद्ध विद्रोह आरंभ हो गये। उसके वापस बेबीलोन जाते ही भारत से उसकी सत्ता धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। मौर्यों के राजनीतिक उत्कर्ष ने भारत में बची-खुची यूनानी शक्ति को समाप्त कर दिया। इस प्रकार, भारत पर सिकंदर के आक्रमण का कोई स्थायी राजनीतिक परिणाम नहीं निकल सका। इसलिये अनेक इतिहासकारों का विचार है कि सिकंदर का आक्रमण एक ‘झंझावात’ की तरह था, जो भारत को झकझोर कर चला गया। इसका प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि यूनानी विवरणों के अतिरिक्त संस्कृत, पालि या प्राकृत-ग्रंथों में सिकंदर के आक्रमण का उल्लेख ही नहीं मिलता।

भारतवर्ष पर सिकन्दर के आक्रमण के प्रभाव के विषय में विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है। सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखक इस आक्रमण को बहुत बड़ी घटना मानते हैं। प्लूटार्क लिखता है कि यदि सिकन्दर का आक्रमण न होता तो बड़े-बड़े नगर नहीं बसते। जूलियन के अनुसार सिकन्दर ने ही भारतीयों को सभ्यता का पाठ पढ़ाया। उसके आक्रमण का उद्देश्य ही सभ्यता का प्रचार-प्रसार था।

इसके विपरीत अनेक विद्वानों ने इस आक्रमण को नितान्त महत्त्वहीन घोषित किया है जिसका भारत के तत्कालीन जन-जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके अनुसार सिकन्दर आँधी की तरह आया और चला गया। इतिहासकार ‘विन्सेन्ट स्मिथ’ सिकन्दर के आक्रमण का प्रभाव बताते हुए लिखते हैं — ‘भारत अपरिवर्तित रहा। युद्ध के घाव शीघ्र भर गये। जब धीर बैलों तथा उन्हीं के समान धीर किसानों ने अपना परिश्रम प्रारम्भ किया, तो ध्वस्त खेत एक बार फिर लहलहा उठे। वे स्थान जहाँ लाखों युद्ध में मारे गये थे फिर उमड़ते हुए जन-समुदाय से भर गये। भारत का यूनानीकरण नहीं हुआ। वह अपना शानदार पृथकता का जीवन व्यतीत करता रहा और मेसीडोनियन झंझावत के प्रवाह को शीघ्र भूल गया। कोई भारतीय लेखक – हिन्दू, बौद्ध अथवा जैन – सिकन्दर के आक्रमण और उसकी कृतियों का लेशमात्र भी संकेत नहीं करता।*

India remained unchanged. The wounds of the battle were quickly healed, the ravaged fields smiled again as the patient oxen and no less patient husbandmen resumed their interrupted labours, and the places of slain myriads were filled by the teeming swarms of a population….India was not Hellenised, she continued to live the life of splendid isolation and soon forgot the passing of the Macedonian storm. No Indian author-Hindu, Buddhist or Jain, makes even the faintest allusion to Alexander or his deeds – Early History of India : V. A. Smith.*

प्रो० राधाकुमुद मुखर्जी भी विसेंट स्मिथ के विचारों से सहमत हैं। उनका कहना है, “निःसंदेह सिकंदर का आक्रमण बड़ा ही साहसपूर्ण एवं प्रशंसनीय था; परंतु किसी भी दृष्टिकोण से उसको पूर्ण सफल नहीं माना जा सकता। सिकंदर को भारत में किसी भी महान भारतीय राष्ट्र का सामना नहीं करना पड़ा था। राजनीतिक दृष्टि से भी उसका आक्रमण असफल ही माना जाएगा, क्योंकि इस आक्रमण द्वारा पंजाब पर यूनानियों का स्थायी रूप से आधिपत्य कायम नहीं हो सका। इस आक्रमण का भारत के जनजीवन, साहित्य और संस्कृति पर कोई असर नहीं पड़ा।”*

Nor was Alexander’s campaign a political success, for it did not result in any permanent Macedonian occupation of the Punjab. It left no permanent mark on the literature, life or government of the people. — R. K. Mookerjee, The Age of Imperial Unity.*

स्मिथ और मुखर्जी के विपरीत अनेक ऐसे विद्वान हैं, जो इस बात को स्वीकार करते हैं कि सिकंदर का आक्रमण एक महज तूफान नहीं था, यह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि इसके स्थायी और दूरगामी परिणाम निकले। प्रो० नीलकंठ शास्त्री का विचार है, “यद्यपि यह आक्रमण डेढ़-पौने दो वर्षों तक ही रहा था, तथापि यह एक ऐसी प्रभावपूर्ण घटना थी कि इसके कारण स्थिति यथापूर्व स्थिर नहीं रह सकी। इसने सिंधु नदी के आसपास बसी हुई जातियों को दुर्बल एवं छिन्न-भिन्न करके मौर्य साम्राज्य के विस्तार को सरल बना दिया … सिकंदर के आक्रमण द्वारा यूरोप-निवासियों को भारत का बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त हुआ और इधर भारत पर भी यूरोपीय कला, मुद्रा, ज्योतिष आदि का गहरा प्रभाव पड़ा।”*

But the invasion itself, though it lasted less than two years, was too great an occurrence to leave things just as they were… — K. A. N. Sastri, The Age of the Nandas and Mouryas.*

निष्पक्ष दृष्टिकोण से प्रो० नीलकंठ शास्त्री का मत तर्कसंगत प्रतीत होता है। सिकंदर का आक्रमण व्यर्थ नहीं गया। इसने भारतीय इतिहास और संस्कृति को प्रभावित किया। यूनानी भी भारतीय सम्पर्क से लाभान्वित हुए।

यद्यपि का यह कथन सत्य है कि भारत का यूनानीकरण नहीं हुआ, तथापि इस आधार पर ऐसा नहीं माना जा सकता है कि सिकन्दर के आक्रमण का भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। राजनीतिक तथा सांस्कृतिक, दोनों ही दृष्टियों से इसका भारत पर कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा था। इन प्रभावों को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं :

  • सीमान्त प्रदेश में राजनीतिक परिवर्तन
  • भारत में यवन उपनिवेशों की स्थापना
  • भारत-यूनान सम्बन्ध
  • भौगोलिक अन्वेषण
  • व्यापार व वाणिज्य को बढ़ावा
  • भारतीय इतिहास के तिथिक्रम निर्धारण में सहायता
  • सांस्कृतिक प्रभाव
  • पश्चिमोत्तर का मार्ग आक्रमणकारियों के लिये खुलना

सीमान्त प्रदेश में राजनीतिक एकता को प्रोत्साहन

सिकन्दर के आगमन के पूर्व पश्चिमोत्तर भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। सिकन्दर ने उन्हें विजित कर इन भागों में राजनीतिक एकता की स्थापना की। उसने इस सम्पूर्ण प्रदेश को चार प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त किया —

(१) प्रथम प्रान्त सिन्धु के उत्तरी तथा पश्चिमी भागों में बनाया गया। पहले इसका क्षत्रप निकानोर था किन्तु उसकी हत्या के बाद सिकन्दर ने फिलिप को इस प्रान्त का क्षत्रप बना दिया।

(२) द्वितीय प्रान्त में सिन्धु तथा झेलम के बीच का भू-भाग सम्मिलित किया गया और इसे तक्षशिला के शासक आम्भी के अधीन कर दिया गया।

(३) तृतीय प्रान्त में झेलम नदी के पूर्वी भाग सम्मिलित थे तथा इसका विस्तार व्यास नदी तक था। यह सबसे बड़ा प्रान्त था और इसे पोरस के अधीन रखा गया। एरियन के अनुसार इसमें दो हजार नगर थे।

(४) चतुर्थ प्रान्त सिन्धु नदी के निचले भाग में स्थापित किया गया। यहाँ का क्षत्रप पिथोन को बनाया गया।

अपने इस कार्य द्वारा सिकन्दर ने अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय एकता को प्रोत्साहन दिया। कालान्तर में चन्द्रगुप्त मौर्य ने बड़ी आसानी से इन प्रदेशों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार ‘यदि पूर्वी भारत में उग्रसेन महापद्म मगध के सिंहासन पर चन्द्रगुप्त मौर्य का अग्रज रहा, तो पश्चिमोत्तर भारत में सिकन्दर स्वयं उस सम्राट का अग्रदूत था।*

“If Ugrasen-Mahapadma was the precursor of Chandragupta Maurya in the east, Alexander was the forerunner of that emperor in the North-west.” — Political History of Ancient India : H. C. Ray Chaudhary (p. 263)*

यूनानी लेखकों के अनुसार ‘सैंड्रोकोटस’ ( चन्द्रगुप्त मौर्य ) सिकन्दर से मगध नरेश धनानन्द के विरुध्द सहायता माँगने हेतु मिला परन्तु दोनों में किसी बात को लेकर अनबन हो गयी। सिकन्दर ने उसे पकड़कर मारने का आदेश दिया। परन्तु वह किसी तरह बच निकला। परन्तु उससे यह प्रेरणा मिली कि वह भारत को एकता के सूत्रों पिरो सकता है।

यवन बस्तियों की स्थापना

सिकन्दर के आक्रमण का एक स्थायी परिणाम यह निकला कि भारत में अनेक यवन बस्तियों की स्थापना हुई। अपनी विजयस्मृति-स्वरूप सिकंदर ने अनेक नगरों की स्थापना की थी। जिसमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं :

  • उसने काबुल में सिकंदरिया या अलेक्जेण्डरिया नगर की स्थापना की। इसकी पहचान आधुनिक बेग्राम सा की जाती है।
  • दूसरा नगर उसने अपने प्रिय घोड़े के मृत्युस्थल पर बसाया और उसका नाम अपने अश्व के नाम पर बऊकेफला रखा।
  • जिस स्थान पर सिकंदर और पोरस के बीच युद्ध हुआ था, वहाँ निकाइया नाम का नगर बसाया गया।
  • इसी प्रकार, चेनाब और सिंधु नदी के संगम के निकट भी उसने अपने नाम पर सिकंदरिया की स्थापना की। यह नगर सोद्रई एवं मस्सनोई के उत्तर-पूर्व में बसाया गया।
  • इसी प्रकार पंजाब की नदियों के संगम के नीचे सोग्डियाना-अलेक्जेंड्रिया नामक नगर बसाया।

इन नगरों में यूनानी सैनिकों की टुकड़ियों को रखा गया। विजित प्रदेशों के शासन के लिये क्षत्रपीय व्यवस्था लागू की गयी, जो स्थायी सिद्ध नहीं हो सकी। इन नगरों में यूनानी संस्कृति का विकास हुआ, जिससे भारतीय भी प्रभावित हुए।

यूनान और भारत के सम्बन्ध में घनिष्ठता

सिकन्दर के आक्रमण ने भारत और यूनान के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित कर दिया। दोनों संस्कृतियाँ एक दूसरे से प्रभावित हुई और विभिन्न तत्त्वों का पारस्परिक आदान-प्रदान चल पड़ा। भारत में विभिन्न यूनानी उपनिवेशों की स्थापना हुई जहाँ स्थायी रूप से यवन बस गये। दूसरी ओर भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों तक विभिन्न व्यापारिक मार्गों द्वारा पहुँचने लगे। इस तरह पारस्परिक व्यापारिक व सांस्कृतिक आदान-प्रदान के चिह्न यूनानी आक्रमण के बाद भी दिखायी देते हैं।

भौगोलिक अन्वेषण को प्रोत्साहन

मकदूनियाई आक्रमण ने हखामनी आक्रमण की ही तरह भौगोलिक अन्वेषण को प्रोत्साहित किया। सिकन्दर स्वयं इन खोजों में रुचि रखता था। नियार्कस के नेतृत्व में सिकन्दर ने एक जलबेड़ा सिंधु नदी के मुहाने से फरात नदी के मुहाने तक भेंजा फलतः जलमार्ग और बंदरगाह का पता लगा। कुल मिलाकर भारत और यूनान के मध्य एक जलमार्ग और तीन स्थलमार्ग खुल गये। इससे पारस्परिक सम्बन्धों व व्यापार को बढ़ावा मिला।

व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन

सिकन्दर के आक्रमण के फलस्वरूप भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध और दृढ़ हुए। सिकन्दर के आक्रमण के परिणामस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत में अनेक यूनानी उपनिवेश स्थापित हो गये, जैसे- निकैया, बउकेफला, सिकन्दरिया (सिन्ध तथा चिनाब नदियों के संगम पर), सोण्डियन-सिकन्दरिया (सिन्ध तथा पंजाब की नदियों के संगम के नीचे) आदि।

इन उपनिवेशों के माध्यम से भारत तथा यूनान एक-दूसरे के घनिष्ठ सम्पर्क में आये तथा दोनों के बीच आवागमन के लिये समुद्री तथा स्थलीय मार्ग खुल गये। इससे लोगों का भौगोलिक ज्ञान और अधिक विस्तृत हो गया।

अनेक भारतीय व्यापारी यूनान गये तथा यूनानी व्यापारी भारत आये। इस व्यापारिक आदान-प्रदान से व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई।

यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि सिकन्दर ने स्वयं ‘एक लाख साँड़’ अपने गृह नगर मकदूनिया को भेजें थे।

व्यापारिक सम्पर्क की वृद्धि के फलस्वरूप भारत में यूनानी मुद्राओं के अनुकरण पर उनकी ‘उलूक शैली’ के सिक्के ढाले गये। इस प्रकार भारतीय मुद्रा निर्माण कला का विकास हुआ। पश्चिमी एशिया तथा भारत के बीच होने वाले व्यापारिक सम्पर्क से नगरीकरण की प्रक्रिया को तीव्रतर कर दिया।

सांस्कृतिक आदान-प्रदान

सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस आक्रमण ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये। सिकंदर के आक्रमण ने सैन्यकला, कला, साहित्य, चिकित्सा, ज्योतिष एवं मुद्रा व्यवस्था भी प्रभावित किया।

सिकंदर के साथ हुए युद्धों ने गज-सेना की दुर्बलता को स्पष्ट कर दिया। अतः अब अश्वसेना का महत्त्व अधिक बढ़ गया

भारत में स्थापित यूनानी नगरों में अनेक भारतीय यूनानी देवताओं की पूजा करने लगे थे।

कालांतर में भारतीय मुद्रा प्रणाली, कला, चिकित्सा एवं साहित्य भी यूनानी संस्कृति से प्रभावित हुए यद्यपि इनका तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा।

बैक्ट्रिया यूनानियों का प्रधान सांस्कृतिक केंद्र बन गया। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात जब गांधार पर पुनः बैक्ट्रियनों का आधिपत्य हुआ, तब भारतीय संस्कृति इनसे अत्यधिक प्रभावित हुई। कालान्तर में एक नवीन कला शैली अस्तित्व में आयी जिसे ‘हेलेनिस्टक शैली’ कहा गया। इसका आदर्श उदाहरण कनिष्क के शासनकाल में हमें ‘गांधार कला’ के रूप में देखने को मिलता है।

यूनानी शासन-पद्धति से भारतीय शासन पद्धति प्रभावित हुई। इस समय से साम्राज्यिक (शाही) व्यवस्था (Imperial System) हिन्दू-राज्यतन्त्र का स्थायी तत्त्व बन गयी। यह यूनान का ही प्रभाव था।

कला एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भारतीयों ने यूनानियों से बहुत कुछ सीखा। निहार रंजन राय के अनुसार मौर्य स्तम्भों के शीर्षकों को मण्डित करने वाली पशु-आकृतियों पर यूनानी कला का ही प्रभाव था। कालान्तर में पश्चिमोत्तर प्रदेशों की गन्धार कला शैली, यूनानी कला के प्रभाव से ही विकसित हुई थी। अनेक यूनानी, भारतीय दार्शनिकों के सम्पर्क में आये तथा यहाँ के दर्शन से प्रभावित हुए। यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस पर भारतीय दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है।

कुछ विद्वानों का विचार है कि सिकन्दर तथा उसके उत्तराधिकारियों ने भारत के अतिरिक्त हखामनी साम्राज्य के सभी क्षेत्रों का यूनानीकरण कर दिया था तथा यहाँ से पारसीक कलाकारों और अधिकारियों को भारत की ओर खदेड़ दिया। वे भारत में बस गये तथा मौर्य साम्राज्य एवं शासन के विविध पक्षों को उन्होंने प्रभावित किया।

इस प्रकार पारस्परिक बौद्धिक आदान-प्रदान से दोनों देशों के ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई।

इतिहास के तिथिक्रम का निश्चित होना

सिकन्दर के अभियान से यूरोप में भारत के विषय में जानकारी अधिक हुई। सिकन्दर के साथ कई लेखक तथा इतिहासकार भारत आये। इसमें प्रमुख थे – नियार्कस, अरिस्टोबुलस, आनेसिक्रिटस इत्यादि। उन्होंने तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक दशा के विषय में लिखा। उनके ग्रन्थ कालान्तर में इतिहास के पुनर्निमाण में सहायक बने।

नियार्कस के अनुसार भारतीय ‘श्वेत वस्त्र’ धारण करते थे। यूनानी इतिहासकारों के अनुसार ‘कठ जनजाति’ में ‘सती प्रथा’ का प्रचलन था।

रोमिला थापर के अनुसार ‘सिकन्दर के आक्रमण का सर्वाधिक उल्लेखनीय परिणाम न राजनीतिक था, न सैनिक। उसका महत्त्व इस बात में निहित है कि वह अपने साथ कुछ ऐसे यूनानियों को लाया था जिन्होंने भारत के विषय में अपने विचारों को लिपिबद्ध किया और वे इस काल पर प्रकाश डालने की दृष्टि से मूल्यवान है।*

  • भारत का इतिहास – रोमिला थापर।*

पश्चिमोत्तर का मार्ग आक्रमणकारियों के लिये खुलना

सिकंदर का आक्रमण कोई महत्त्वहीन या परिणामविहीन घटना नहीं थी। इसने पश्चिमोत्तर सीमा को हमेशा के लिए विदेशी आक्रांताओं के लिए खोल दिया। इसी मार्ग से आगे हिंद-यूनानी, शक-पहलव, कुषाण, हूण, तुर्क, मुगल इत्यादि दुर्दांत आक्रमणकारी भारत में आये और अपना शासन स्थापित किया। इन संपर्कों का कालांतर में भारतीय इतिहास और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा।

निष्कर्ष

परन्तु इन प्रभावों के बावजूद भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मूल पूर्णतया अप्रभावित रहा। भारतीय संस्कृति के ऊपर यूनानी प्रभाव के विषय में अंग्रेजी कवि मैथ्यू अर्नाल्ड को अग्रलिखित पंक्तियाँ वस्तुतः उल्लेखनीय हैं- ‘पूर्व (भारत) झंझा (विदेशी आक्रमण) के सामने धीर-गम्भीर घृणा के साथ नतमस्तक हुआ। सेना के गर्जन के निकल जाने के बाद वह (भारत) पुनः विचार-सागर में निमग्न हो गया।*

“The East bowed low before the blast.

In patience, deep disdain,

She let the legion thunder pass,

And plunged in thought again.”*

पारसी आक्रमण (हखामनी आक्रमण) – छठीं शताब्दी ई०पू०

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