मौर्य साम्राज्य का पतन (Downfall of the Mauryan Empire)

भूमिका

चन्द्रगुप्त मौर्य के बाहुबल और चाणक्य की कूटिनीति ने जिस शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य की नींव रखी थी। यह साम्राज्य सम्राट अशोक के समय अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। सम्राट अशोक की मृत्यु (२३२ ई०पू०) के बाद मौर्य साम्राज्य का विटघन बड़ी तेजी से हुआ और मात्र ५० वर्षों के अंदर ही इसका पतन (१८४ ई०पू०) हो गया। यह एक आश्चर्य का विषय है कि जिस मौर्य साम्राज्य ने संसार को अपनी उपलब्धियों से चमत्कृत कर दिया वह क्योंकर इतनी तीव्रता से विघटित हो गया? इतिहासकारों ने इसपर विभिन्न विचार व्यक्त किये हैं।

मौर्य साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष का परिणाम नहीं था, अपितु विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के विघटन तथा पतन के लिये निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी मान सकते हैं।

मौर्य साम्राज्य का पतन : कारण

अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् उनके उत्तराधिकारी नितान्त अयोग्य तथा निर्बल सिद्ध हुये। उनमें शासन के संगठन एवं संचालन की योग्यता का अभाव था।

वंशानुगत साम्राज्य तभी तक बने रह सकते हैं जब तक योग्य शासकों की शृंखला बनी रहे। चंद्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और अशोक पराक्रमी योद्धा और कुशल शासक थे, अतः वे इतने विशाल साम्राज्य की एकता बनाये रखने में सफल रहे। परन्तु सम्राट अशोक के उत्तराधिकारी इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य थे।

साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि अशोक के उत्तराधिकारियों ने साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया और साम्राज्य के विभिन्न भाग धीरे-धीरे अलग होने लगे। कल्हण कृत राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में ‘जालौक’ ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया। तिब्बती लेखक ‘तारानाथ’ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गन्धार प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली। कालिदास कृत ‘मालविकाग्निमित्र’ के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतन्त्र राज्य हो गया था।

अशोक के उत्तराधिकारियों में से कोई ऐसा शासक में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखने में सक्षम हो। ऐसी स्थिति में पश्चिमोत्तर से यवनों के आक्रमण होने लगे तो साथ ही आंतरिक विघटनकारी शक्तियाँ भी सक्रिय हो उठीं।

प्रशासन का अतिशय केन्द्रीयकरण

मौर्य प्रशासन में सभी महत्त्वपूर्ण कार्य राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में होते थे। उसे वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त था। प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी राजा के व्यक्तिगत कर्मचारी होते थे और उनकी भक्ति भावना राष्ट्र अथवा राज्य के प्रति न होकर राजा के प्रति ही होती थी। प्रशासन में जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का प्रायः अभाव सा था। साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछाहुआ था। ऐसी स्थिति में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कोई स्थान नहीं मिला था और सामान्य नागरिक सदा नियंत्रण में रहते थे। राज्य व्यक्ति के न केवल सार्वजनिक अपितु पारिवारिक जीवन में भी हस्तक्षेप करता था और वहाँ नौकरशाही के अत्याचार के लिये पर्याप्त गुंजाइश थी।

ऐसी व्यवस्था में शासन की सफलता पूरी तरह सम्राट की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और अशोक ‘प्रियदर्शी’ के योग्य हाथों में यह प्रशासन सुचारु ढंग से कार्य करता रहा परन्तु परवर्ती मौर्य शासक निर्बल सिद्ध हुए। इन निर्बल उत्तराधिकारों के समय में प्रशासन नियंत्रण से बाहर होता चला गया और उसकी जनसामान्य के लिये अत्याचारी हो चला था। निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण केन्द्रीय नियंत्रण शिथिल पड़ने से साम्राज्य के पदाधिकारी सम्राट के स्वयं के लिये घातक हुए तथा साम्राज्य का विकेन्द्रीकरण होना स्वाभाविक था।

राष्ट्रीय चेतना का अभाव

मौर्य युग में राज्य अथवा राष्ट्र का सरकार के ऊपर अस्तित्व नहीं था। इस समय राष्ट्र के निर्माण के लिये आवश्यक तत्त्व, जैसे समान प्रथायें, समान भाषा तथा समान ऐतिहासिक परम्परा, पूरे मौर्य साम्राज्य में नहीं थीं। भौतिक दृष्टि से भी साम्राज्य के सभी भाग समान रूप से विकसित नहीं थे। राज्य का सरकार के ऊपर कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं समझा गया था। राजनीतिक दृष्टि से भी राष्ट्रीय एकता की भावना मौर्य युग में नहीं थी। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि यवनों का प्रतिरोध कभी भी संगठित रूप से नहीं हुआ। जब कभी भी भारत पर यवनों के आक्रमण हुए, उनका सामना स्थानीय राजाओं अथवा सरदारों द्वारा अपने अलग-अलग ढंग से किया गया। उदाहरणार्थ जब पोरस सिकन्दर से युद्ध कर रहा था अथवा सुभगसेन अन्तियोकस को भेंट दे रहा था तो वे यह कार्य पश्चिमोत्तर भारत में पृथक शासकों की हैसियत से कर रहे थे। देश के केन्द्रिय भाग के शासकों, विशेषकर पाटलिपुत्र के राजाओं से, उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली। पोरस, जिसकी यूनानियों तक ने प्रशंसा की, का भारतीय स्रोतों में उल्लेख तक नहीं हुआ। चूँकि मौर्य साम्राज्य के लोगों में कोई मूलभूत राष्ट्रीय एकता नहीं थी, अतः राजनीतिक विकेन्द्रीकरण निश्चित ही था।

रोमिला थापर ने प्रशासन के संगठन तथा राज्य अथवा राष्ट्र की अवधारणा को ही मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया है।*

“The organization of administration and the conception of the state or the nation were of great significance in the causes of the decline of the Mauryas.” — Ashok and the Decline of the Mauryas, p. 207.

आर्थिक तथा सांस्कृतिक असमानतायें

विशाल मौर्य-साम्राज्य में आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर की विषमता विद्यमान थी। गंगाघाटी का प्रदेश अधिक समृद्ध था, जबकि उत्तर-दक्षिण के प्रदेशों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत कम विकसित थी। पहले भाग की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी जहाँ व्यापार-व्यवसाय के लिये भी उपयुक्त अवसर प्राप्त थे। दूसरे भाग में अस्थिर अर्थव्यवस्था थी जिसमें व्यापार वाणिज्य को बहुत कम सुविधायें थीं। मौर्य-प्रशासन उत्तरी भाग की – अर्थव्यवस्था से अधिक अच्छी तरह परिचित थे। यदि दक्षिणी क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था भी समान रूप से विकसित की गयी होती तो साम्राज्य में आर्थिक सामंजस्य स्थापित हुआ होता।

इसी प्रकार सांस्कृतिक स्तर की विभिन्नता भी थी। प्रमुख व्यावसायिक नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में घोर विषमता व्याप्त थी। प्रत्येक क्षेत्र की सामाजिक प्रथायें एवं भाषायें भिन्न-भिन्न थीं। यद्यपि अशोक ने प्राकृत भाषा का अपने अभिलेखों में प्रयोग कर उसे ‘राष्ट्र भाषा’ के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था, परन्तु उत्तर-पश्चिम में यूनानी तथा अरामेईक तथा दक्षिण में तमिल भाषायें इस एकता के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बनी रहीं। ये सभी कारण मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये अवश्य ही उत्तरदायी रहे होंगे।

प्रान्तीय शासकों के अत्याचार

मौर्य युग में साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेशों में प्रान्तीय पदाधिकारियों के जनता पर अत्याचार हुआ करते थे। इससे जनता मौर्यो के शासन के विरुद्ध हो गयी। दिव्यावदान में इस प्रकार के अत्याचारों का विवरण मिलता है। पहला विद्रोह तक्षशिला में बिन्दुसार के काल में हुआ था तथा उसने राजकुमार अशोक को उसे दबाने के लिये भेजा। अशोक के वहाँ पहुँचने पर तक्षशिला-वासियों ने बताया कि “न तो हम राजकुमार के विरोधी हैं और न राजा बिन्दुसार के, किन्तु दुष्ट अमात्य हम लोगों का अपमान करते हैं।”

“न वयं कुमारस्य विरुद्धाः नापि राज्ञो बिन्दुसारस्य।

अपितु दुष्टाः अमात्याः अस्माकं परिभवं कुर्वन्ति॥”

हमें ज्ञात होता है कि तक्षशिला में अशोक के समय भी अमात्यों के अत्याचारों के विरुद्ध जनता का विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इसे दबाने के लिये अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को भेजा था। इसी प्रकार के अत्याचार अन्य प्रदेशों में भी हुए होंगे।

दिव्यावदान में उल्लिखित अमात्यों (उच्चाधिकारियों) की दुष्टता की पुष्टि अशोक के कलिंग अभिलेख से भी होती है। कलिंग के उच्च अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए अशोक ने कहा है कि नागरिकों की नजरबंदी या उनको दी जाने वाली यातना अकारण नहीं होनी चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्राट अशोक ने प्रति पाँचवें वर्ष केंद्र से निरीक्षाटन के लिए उच्चाधिकारियों को भेजने की व्यवस्था की। तक्षशिला और उज्जयिनी की परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ प्रति तीसरे वर्ष ऐसे अधिकारियों को भेजने की व्यवस्था थी।

“नगल-विथोहालका ( वियोहालका ) सस्वतं समयं यूजेबू ति [ एन ] जनस अकस्मा पलिबोधे व अकस्मा पळिकिलेसेव ( पलिकिलेसे ) नो सियाति [ । ] एताये च अठाये हकं [ महा ] मते पंचसु पंचसु वसे …………… उजेनिते पि चु कुमाले एताये व अठाये निखामयिस [ ति अनुवासं ] हेदिसमेव वगं नो च तिकामयिसति तिंनि वसानि [ । ] हेमेव तखसिलाते पि [ । ]” — प्रथम कलिंग शिलालेख

परवर्ती मौर्य शासकों में शालिशूक को भी अत्याचारी कहा गया है। इन सबके फलस्वरूप जनता मौर्य शासन से घृणा करने लगी होगी तथा निर्बल राजाओं के काल में अनेक प्रान्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी होगी। हेमचन्द रायचौधरी भी प्रशासकों के अत्याचार को एक प्रमुख कारण मानते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अशोक ने इन उच्च अधिकारियों की कार्यविधियों पर नियंत्रण रखा, किंतु उसके उत्तराधिकारियों के राज्यकाल में ये कर्मचारी अधिक स्वतंत्र हो गये और प्रजा पर अत्याचार करने लगे अत्याचार के कारण ये दूरस्थ प्रांत अवसर पाते ही स्वतंत्र हो गये। कलिंग और उत्तरापथ (पश्चिमोत्तर) और संभवतः दक्षिणापथ ने सबसे पहले मौर्य साम्राज्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया होगा।

करों की अधिकता

परवर्ती मौर्य युग में देश की आर्थिक स्थिति संकटग्रस्त हो गयी जिसके फलस्वरूप शासकों ने अनावश्यक उपायों द्वारा करों का संग्रह किया। उन्होंने अभिनेताओं तथा गणिकाओं तक पर कर लगाये।*

“Actors and prostitutes shall pay half their earnings. The entire property of goldsmiths [who would be money-lenders too, as a rule] is to be confused.” — An Introduction To The Study of Indian History : D. D. Kosambi, p. 211.

पतंजलि ने लिखा है कि शासन अपना कोष भरने के लिये जनता की धार्मिक भावना जागृत करके धन संग्रह किया करते थे। वे छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाकर जनता के बीच बिकवाते तथा उससे धन कमाते थे।

  • An Introduction To The Study of Indian History : D. D. Kosambi, p. 211.

मौर्यों के पास एक अत्यन्त विशाल सेना तथा अधिकारियों का बहुत बड़ा वर्ग था। सेना के रख-रखाव एवं अधिकारियों को वेतन आदि देने के लिये बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी। यह जनता पर भारी कर लगाकर ही प्राप्त किया जा सकता था। मौर्य शासकों ने जनता पर सभी प्रकार के कर लगायें। अर्थशास्त्र में करों की एक लम्बी सूची मिलती है। यदि इन्हें वस्तुतः लिया जाता हो तो अवश्य ही जनता का निर्वाह कठिन हो गया होगा।

अतः इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि करों के भार से बोझिल जनता ने मौर्य शासकों को निर्बल पाकर उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया हो और यह जन असंतोष साम्राज्य की एकता एवं स्थायित्व के लिये घातक सिद्ध हुआ हो।

कुछ विद्वानों का यह भी विचार है कि अशोक द्वारा बौद्ध संघों को अत्यधिक धन दान में दिया गया जिससे राजकीय कोष खाली हो गया। अतः इसकी पूर्ति के लिये परवर्ती राजाओं ने तरह-तरह के उपायों द्वारा जनता से कर वसूल किये जिसके परिणामस्वरूप जनता का जीवन कष्टमय हो गया।

कुछ विद्वानों ने आर्थिक कारणों को भी मौर्य साम्राज्य पतन का कारण माना है। अशोक की दानशीलता ने मौर्य अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया था। बौद्ध मठों और भिक्षुकों को प्रभूत धनराशि दान में दी जाने लगी। दिव्यावदान में अशोक के दान को जो कथाएँ दी गयी है उनकी पुष्टि अन्य बौद्ध अनुश्रुतियों से भी होती है। शासन और सेना संगठन, संचार साधन तथा जनता के कल्याण के बजाय जब यह धनराशि धार्मिक संप्रदायों को दी जाने लगी तो शासन व्यवस्था, और विशेषकर सैन्य संगठन की अवहेलना होने लगी। इसके परिणाम अत्यंत घातक सिद्ध हुए।

रोमिला थापर ने कोसांबी के मत का उल्लेख किया है कि उत्तरकालीन मौर्यों के राज्य काल में अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। कर वृद्धि के लिए अनेक उपाय अपनाये गये। इस काल के आहत सिक्कों में काफी मिलावट है। परन्तु डॉ० थापर ने स्वयं इस मत का खंडन किया है। मौर्यों के ही काल में सर्वप्रथम राज्य की आय के प्रमुख साधन के रूप में करों के महत्त्व को समझा गया। विकसित अर्थव्यवस्था और राज्य कार्यक्षेत्र के विस्तार के साथ करों में वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। सिक्कों में मिलावट होने से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव था। उत्तरकालीन मौयों के शासन में क्षीण नियंत्रण के कारण मिलावट वाले सिक्के अधिक मात्रा में जारी होने लगे। विशेषकर उन प्रदेशों में जो साम्राज्य से अलग हो गये थे। चाँदी की अधिक माँग के कारण यह हो सकता है कि चाँदी के सिक्कों में चाँदी की मात्रा में कमी हो गयी हो। इसके अतिरिक्त कोसाम्बी की यह धारणा इस आधार पर बनी है कि ये आहत सिक्के मौर्य काल के है, किंतु यह निश्चित नहीं है। हस्तिनापुर तथा शिशुपाल गढ़ की खुदाइयों से जी मौर्यकालीन अवशेष मिले हैं, उनसे एक विकसित अर्थव्यवस्था तथा भौतिक समृद्धि का ही परिचय मिलता है।

अर्ध-स्वतंत्र राज्य

चंद्रगुप्त की विजय कौटिल्य की कूटनीति तथा चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श के बावजूद मौर्य साम्राज्य के अतर्गत कई अर्धस्वतंत्र राज्य थे; यथा – यवन, कम्बोज, भोज, आटविक राज्य इत्यादि। केंद्रीय सत्ता के दुर्बल होते ही ये प्रदेश स्वतंत्र हो गये स्थानीय स्वतंत्रता की भावना को चंद्र गुप्त ने अपने सुसंगठित शासन में तथा अशोक न अपने नैतिकता पर आधारित धम्म से कम करने का प्रयास किया। परन्तु अयोग्य उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यह भावना और अधिक बढ़ी और साम्राज्य के विघटन में सहायक हुई।

अशोक का उत्तरदायित्व

मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये कुछ विद्वानों ने अशोक की नीतियों को ही मुख्य रूप से उत्तरदायी बताया है।

  • अशोक की ब्राह्मण विरोधी धार्मिक नीति : हरप्रसाद शास्त्री
  • अशोक की शान्तिप्रिय व अहिंसा की नीति : हेमचन्द्र रायचौधरी

विद्वानों के विचार व विश्लेषण

हरप्रसाद शास्त्री

अशोक की ब्राह्मण विरोधी धार्मिक नीति : हरप्रसाद शास्त्री

ऐसे विद्वानों में सर्वप्रमुख हैं ‘महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री।’ शास्त्री महोदय ने अशोक की अहिंसा की नीति को ब्राह्मण विरोधी बताया है जिसके फलस्वरूप अन्त में चलकर पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में ब्राह्मणों का विद्रोह हुआ तथा मौर्यवंश की समाप्ति हुई। शास्त्री के अनुसार – ‘अशोक की धार्मिक नीति बौद्धों के पक्षों थी और ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों व उनकी सामाजिक श्रेष्ठता की स्थिति पर कुठाराघात करती थी। अतः ब्राह्मणों में प्रतिक्रिया हुई, जिसकी चरम परिणति पुष्यमित्र के विद्रोह में दृष्टिगोचर होती है।’

हेंमचन्द्र रायचौधरी ने उसके तर्कों का विद्वतापूर्ण ढंग से खण्डन करने के पश्चात् यह सिद्ध कर दिया है कि अशोक की नीतियाँ किसी भी अर्थ में ब्राह्मण-विरोधी नहीं थीं। यहाँ हम संक्षेप में इन दोनों विद्वानों के मतों का तुलनात्मक अवलोकन इस तरह है :

  • जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बिहार, पृ० ३५४-५५.

महामहोपाध्याय पं० हर प्रसाद शास्त्री के मतों का सारांश इस प्रकार है

  • अशोक द्वारा पशुबलि पर रोक लगाना ब्राह्मणों पर खुला आक्रमण था। चूँकि वे ही यज्ञ कराते थे और इस रूप में मनुष्यों तथा देवताओं के बीच मध्यस्थता करते थे। अतः अशोक के इस कार्य से उनकी शक्ति तथा सम्मान दोनों को भारी धक्का लगा।
  • अपने रूपनाथ के लघु शिलालेख में अशोक यह बताता है कि उसने ‘भू-देवों’ (ब्राह्मणों) को मिथ्या साबित कर दिया। यह कथन स्पष्टतया ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा के विनाश की सूचना देता है।
  • धम्ममहामत्रों ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।
  • अपने (चौथे) स्तम्भ लेख में अशोक हमें बताता है कि उसने न्यायप्रशासन के क्षेत्र में ‘दण्ड समता’ एवं ‘व्यवहार समता’ का सिद्धान्त लागू किया। इससे ब्राह्मणों को दण्ड से मुक्ति का जो विशेषाधिकार मिला था वह समाप्त हो गया।
  • चूँकि अशोक शक्तिशाली राजा था, अतः ब्राह्मणों को दबाकर नियंत्रण में रखे रहा। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी राजाओं तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ। ब्राह्मणों ने अन्त में पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में संगठित होकर अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रध का काम तमाम कर दिया।

हेमचन्द्र रायचौधरी द्वारा हरप्रसाद शास्त्री के उपर्युक्त तर्कों का खण्डन –

  • अशोक की अहिंसा की नीति ब्राह्मणों के विरुद्ध नहीं थी। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी अहिंसा का विधान मिलता है। उपनिषद् पशुबलि तथा हिंसा का विरोध करते है तथा यज्ञों की निन्दा करते हैं। ‘मुण्डक उपनिषद्’ में स्पष्टतः कहा गया है कि “यज्ञ टूटी नौकाओं के सदृश तथा उनमें होने वाले १८ कर्म तुक्ष है। जो मूढ़ लोग इन्हें श्रेष्ठ मानकर इनकी प्रशंसा करते वे बारम्बार जरामृत्यु को प्राप्त होते हैं।”

“प्लवा ह्योते अदृढ़ा यज्ञरूपाः,

अष्टादशोक्तवरं एषु कर्म।

एतत्छ्रेयो, येऽभिनन्दन्ति मूढ़ा,

जरामृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति॥”

— मुण्डकोपनिषद्

  • शास्त्री जी ने रूपनाथ के लघु शिलालेख को पदावली का अर्थ गलत लगाया है। सिलवां लेवी ने इसका दूसरा अर्थ किया है जो व्याकरण की दृष्टि से अधिक तर्कसंगत है। इसके अनुसार इस पूरे वाक्य का अर्थ है- “भारतवासी जो पहले देवताओं से अलग थे अब देवताओं से (अपने उन्नत नैतिक चरित्र के कारण) मिल गये।” [“इमा कालाय जम्बूदीपति अमिसा देवा हु ते दानि मिसा कटा।”]। अतः इस वाक्य में कुछ भी ब्राह्मण विरोधी नहीं है।
  • अनेक धम्ममहामात्र ब्राह्मणों के कल्याण के लिये भी नियुक्त किये गये थे। अशोक अपने अभिलेखों में बारम्बार यह बलपूर्वक कहता है कि ब्राह्मणों के साथ उदार बर्ताव किया जाये। ऐसी स्थिति में यह तर्क मान्य नहीं हो सकता कि धम्म-महामात्रों की नियुक्ति से ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा को ठेस पहुँची होगी।
  • अशोक ने न्याय-प्रशासन में एकरूपता लाने के उद्देश्य से ‘दण्ड-समता’ एवं ‘व्यवहार-समता’ का विधान किया था। इसका उद्देश्य यह था कि सबको सभी स्थानों पर निष्पक्ष रूप से न्याय मिल सके।
  • इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि परवर्ती मौर्यों तथा ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हुआ था। यह भी सत्य नहीं है कि अशोक के सभी उत्तराधिकारी वौद्ध ही थे। जालौक को राजतरंगिणी में स्पष्टता शैव तथा बौद्ध-विरोधी कहा गया है। उत्तरकालीन मौर्य सम्राटों के ब्राह्मणों के साथ अनुचित व्यवहार किया गया हो, इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है। पुष्यमित्र शुंग को सेनापति के पद पर नियुक्ति स्वयं इस बात का प्रमाण है कि प्रशासन के ऊँचे पदों पर ब्राह्मणों को नियुक्ति होती थी।
    • Political history of Ancient India – C. Raychaudhary.

जहाँ तक पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह का प्रश्न है, इसे हम ब्राह्मण प्रतिक्रिया का प्रतीक नहीं मान सकते। साँची, भरहुत आदि स्थानों से प्राप्त कलाकृतियों से पुष्यमित्र के बौद्ध-द्रोही होने के मत का खण्डन हो चुका है। पुनः यह एक बड़ा ब्राह्मण विद्रोह होता तो देश के दूसरे ब्राह्मण राजाओं से उसे अवश्य ही सहायता मिली होती। चूँकि मौर्य साम्राज्य अत्यन्त निर्बल हो गया था, अतः उसे पलटने के लिये किसी बड़े विद्रोह को आवश्यकता ही नहीं थी। पुष्यमित्र द्वारा बृहद्रथ की हत्या एक सामान्य घटना थी जिसका ब्राह्मण असन्तोष, यदि कोई रहा भी हो तो उससे कोई सम्बन्ध नहीं था।

इस तरह पुष्यमित्र शुंग द्वारा सत्ता का अपहरण करना ब्राह्मण असंतोष नहीं कहा जा सकता है और न ही ब्राह्मणों के समर्थन का संकेत मिलता है। “पुष्यमित्र शुंग की राज्यक्रांति का कारण सेना पर पूर्ण अधिकार रखनेवाले सेनापति की मह्त्त्वाकांक्षा थी, असंतुष्ट ब्राह्मणों के एक समुदाय का नेतृत्व नहीं।”

स्वयं सम्राट अशोक के अभिलेखों में ऐसी पर्याप्त सामग्री मिलती है कि जिससे यह सिद्ध होता है कि वह सभी सम्प्रदायों का आदर करते थे, उनकी भलाई में रुचि लेते थे, उनको दान देते थे और ब्राह्मण भी इसका अपवाद नहीं थे। यह एक ध्यान देने वाली बात है अशोक के अभिलेखों में जहाँ भी सभी सम्प्रदायों के कल्याण का उल्लेख किया गया है वहाँ पर ब्राह्मण सम्प्रदाय का उल्लेख सबसे पहले किया गया है।

“देवानंपिये पियदसि हेवं आहा [ । ] धम्म-महामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे पवजीतानं चेव गिहिथानं चन [ च ] सव- [ पांस ] डेसु पि च वियापटासे [ । ] संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति हेमेव बाभनेस आजीविकेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति नाना-पासण्डेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहन्ति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु ते ते [ महा ] माता [ । ] धम्म-महामाता चु मे एतेसु चेव वियापटा सवेसु च अन्नेसु पासण्डेसु [ । ] देवानं पिये पियदसि लाजा हेवं आहा [ । ]” — सातवाँ स्तम्भलेख

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ब्राह्मण-समणानं साधु दानं” — तीसरा बृहद् शिलालेख

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“संपटिपती ब्रह्मण-समणानं” — चतुर्थ बृहद् शिलालेख

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बाम्हणस्रमणानं साधु दानं” — ११वाँ बृहद् शिलालेख

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“सो अस्ति अनुसोचनं देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [ । ] अविजतं हि विजिनमनो यो तत्र वध न मरणं व अपवहो व जनस तं बढं वेदनियमतं गुरुमतं च देवनं प्रियस [ । ] इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनं प्रियस [ । ] व तत्र हि वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंड ग्रहथ” — १३वाँ बृहद् शिलालेख

साथ ही सम्राट अशोक के उत्तराधिकारियों और ब्राह्मणों में भी किसी तनाव और संघर्ष के प्रमाण नहीं मिलते हैं। इसके विपरीत तो कल्हण कृत राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि ‘जालौक और ब्राह्मणों’ के सम्बन्ध पर्याप्त सौहार्दपूर्ण थे। स्वयं मौर्य सम्राट बृहद्रथ द्वारा पुष्यमित्र शुंग को सेनापति नियुक्ति करना ही मौर्यों के ब्राह्मण विरोधी नीति होने धारणा के विरुध्द सबल प्रमाण है, यह अलग बात है कि उसी ब्राह्मण सेनापति ने धोखे से सम्राट की हत्या कर दी।

हेमचन्द्र रायचौधरी

अशोक की शान्तिप्रिय व अहिंसा की नीति 

परन्तु हरप्रसाद शास्त्री के मत का खण्डन करने के उपरान्त हेमचन्द्र रायचौधरी* ने स्वयमेव अशोक की शान्तिप्रियता व अहिंसा की नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये मुख्य रूप से उत्तरदायी ठहराया है।

  • Political History of Ancient India, p. 354-55.*

हेमचन्द्र रायचौधरी के मतानुसार अशोक को शान्ति और अहिंसा की नीति ने देश को सैनिक दृष्टि से अत्यन्त निर्बल कर दिया और वह यवनों के आक्रमण का सामना करने में असमर्थ रहा। अशोक के उत्तराधिकारियों का पोषण शान्ति के वातावरण में हुआ था और उन्होंने ‘भेरीघोष’ के स्थान पर ‘धम्मघोष’ के विषय में अधिक सुना था। अशोक ने अपने पूर्वजों की दिग्विजय की नीति का परित्याग कर धम्म-विजय की नीति को अपना लिया। फलस्वरूप सैनिक अभियानों के अभाव में उनकी सेना में निष्क्रियता आ गयी तथा उसे धर्म प्रचार के काम में लगा दिया गया।

सेना से राजाओं का सम्पर्क कम रहा। वे देश की एकता को विघटित होने से न बचा सके राजाओं का सेना से कितना कम सम्पर्क था, यह इस बात से स्पष्ट है कि पुष्यमित्र ने सेना के ही समक्ष अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ का वध किया।

नीलकंठ शास्त्री द्वारा हेमचन्द्र रायचौधरी के मत का खंडन

कई इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधुरी के इस मत से सहमत नहीं हैं। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार अशोक की शांतिप्रियता में कट्टरता नहीं थी। वह मानवीय स्वभाव की जटिलता से अच्छी तरह परिचित था और इसीलिये उसने शांतिप्रियता और युद्धत्याग की नीति को सीमा के अंदर नियंत्रित रखा। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सेना भंग कर दी १३वें बृहद् शिलालेख में अशोक ने आटविक जातियों को जो चेतावनी दी है उससे स्पष्ट है कि क्षमाशील होते हुए वह अवसर पड़ने पर इन आटविक जातियों को उचित दंड देने से नहीं हिचकता था। यह आटविक राज्यों को एक शक्तिशाली राजा की चेतावनी है जिसे अपनी सैन्यशक्ति पर विश्वास है। अशोक की नीति व्यावहारिक थी, इसीलिये उसने कलिंग को स्वतंत्र नहीं किया । उसकी अहिंसा की नीति भी व्यावहारिक थी।

नीहार रंजन राय

नीहार रंजन राय के अनुसार गुप्यमित्र की राज्यक्रांति मौर्य अत्याचार से विरुद्ध तथा मौयों द्वारा अपनाये गये विदेशी विचारों का विशेषतः कला के क्षेत्र में अस्वीकरण था। इस तर्क का आधार यह है कि साँची और भारहूत कला लोक परंपरा के अनुकूल तथा भारतीय है किंतु मौर्य कला इस लोक-कला से भिन्न है और विदेशी कला से प्रभावित है। नीहार रंजन राय के अनुसार जनसाधारण के विद्रोह का दूसरा कारण अशोक द्वारा समाजो का निषेध था, जिससे जनता अशोक के विरुद्ध हो गयी। परन्तु प्रश्न यह है कि यह निषेध अशोक के उत्तराधिकारियों ने भी जारी रखा कि नहीं। इसके अतिरिक्त जनता के विद्रोह के लिये यह आवश्यक है कि मौर्या की प्रजा में विभिन्न स्तरों पर एक संगठित राष्ट्रीय जागरण हो ताकि वे पुष्यमित्र के समर्थन में मौर्यों के अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह का समर्थन कर सकें। किंतु ऐसी जागृति की संभावना तत्कालीन परिस्थितियों मे सम्भव नहीं दिखायी देती।

रोमिला थॉपर

रोमिला थापर ने कई अन्य कारण प्रस्तुत किये हैं। उनका यह विवेचन मुख्य रूप से मौर्ययुगीन प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषताओं पर आधारित है। सर्वप्रथम उन्होंने शासन में केंद्रीकरण की प्रधानता का उल्लेख किया है। ऐसे शासन के लिये यह अत्यंत आवश्यक था कि शासक पर्याप्त योग्य हो। केंद्र के शिथिल शासन का कमजोर पड़ना स्वाभाविक था। अशोक की मृत्यु के बाद, विशेषकर जब साम्राज्य का विभाजन हो गया तो केंद्र का नियंत्रण शिथिल हो गया और प्रांत साम्राज्य से पृथक होने लगे।

दूसरा कारण यह बताया गया है कि अधिकारीतंत्र भलीभाँति प्रशिक्षित नहीं था। प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर चुने हुए अधिकारी ही राजनीतिक हलचल के बीच शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने में समर्थ हो सकते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ऐसी व्यवस्था नहीं पायी जाती है। डॉ० थापर का यह मत स्वीकार नहीं किया जा सकता। अर्थशास्त्र के अमात्य वर्ग का अच्छी प्रकार अध्ययन करने से स्पष्ट होगा कि सभी उच्च कर्मचारी योग्यताओं के आधार पर नियुक्त होते थे। यथार्थ परीक्षण के आधार पर अधिकारियों की नियुक्ति की जो व्यवस्था मौर्य काल में थी वह प्राचीन भारत या मध्यकालीन भारत में कहीं भी नहीं पायी जाती। आधुनिक प्रतियोगिता परीक्षा पद्धति की कल्पना उस युग में करना ऐतिहासिक दृष्टि से अनुचित होगा। शासन संघटन के सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि ऐसी प्रतिनिधि सभा का अभाव था जो कि राजा के कार्यों पर नियंत्रण रख सके। परन्तु राजतंत्र पर आधारित सभी प्राचीन तथा मध्यकालीन राज्यों की यही विशेषता है। ऐसी स्थिति में हम प्रतिनिधि संस्था के अभाव को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण नहीं मान सकते। कहा गया है कि मौर्यकालीन राजनीतिक व्यवस्था में राज्य की कल्पना का अभाव का था। राज्य की कल्पना इसलिये आवश्यक है कि राज्य को राजा, शासन तथा सामाजिक व्यवस्था से ऊपर माना जाता है। राज्य वह सत्ता है जिसके प्रति व्यक्ति को शासन व समाज से परे पूर्ण निष्ठा या भक्ति रहती है। परन्तु मौर्य शासन में राज्य की कल्पना की गयी है। कौटिल्य ने जिस सप्तांग राज्य की कल्पना की है वह बहुत विकसित थी। परन्तु यदि वह भी मान लिया जाय कि राज्य की करना मौर्य युग में नहीं थी, तो यूनान के अतिरिक्त विश्व में प्राचीन तथा मध्य काल में राज्य की ऐसी संकल्पना नहीं पायी जाती जहाँ राज्य, राजा तथा समाज से ऊपर हो और जिसके प्रति व्यक्ति की, राजा तथा समाज की अपेक्षा, अधिक निष्ठा हो। यही बात राष्ट्रीय भावना के सम्बन्ध में कही जा सकती है। राष्ट्र की भावना आधुनिक राजनीतिक तत्त्व है प्राचीन तथा मध्य काल में इसकी खोज करना व्यर्थ होगा। एथेंस-स्पार्टा सदृश छोटे देशों में यह भावना संभव है किंतु एक साम्राज्य जिसमें अनेक राज्यों तथा जातियों के लोग हों, इसकी कल्पना करना असंगत है। अखमीनी तथा रोमन साम्राज्यों में क्या इस भावना की संभावना हो सकती है?

अतः रोमिला थापर द्वारा प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त कारणों में से कोई भी मौर्य साम्राज्य के विघटन का खास तथा प्रबल कारण नहीं लगता। इससे पूर्व ऊपर जिन कारणों की व्याख्या की गयी है, वे सब तो मात्र सम्भाव्य और सहयोगी कारण थे, मुख्य कारण तो केंद्र में योग्य शासक का अभाव है । वंशानुगत साम्राज्य तभी बने रह सकते हैं जब वंश में एक के बाद दूसरा योग्य शासक आता रहे। अशोक के बाद योग्य उत्तराधिकारियों का नितांत अभाव रहा।

विश्लेषण

परन्तु यदि उपर्युक्त मतों की आलोचनात्मक समीक्षा किया जाय तो वे पूर्णतया निराधार प्रतीत होंगे। अशोक यदि इतना अहिंसावादी तथा शान्तिवादी होता जितना कि हेमचन्द्र रायचौधरी ने समझा है तो उसने अपने राज्य में मृत्युदण्ड बन्द करा दिया होता। हम यह भी जानते हैं कि उसने कलिंग को स्वतन्त्र नहीं किया और न ही उसने इस युद्ध के ऊपर कलिंग राज्य में पश्चाताप किया। एक व्यावहारिक शासक को भाँति उसने इस विजय को स्वीकार किया और इस विषय पर किसी भी प्रकार की नैतिक आशंका उसे नहीं हुई। उसके अभिलेख इस मत के साक्षी है कि उसकी सैनिक शक्ति सुदृढ़ थी। अपने तेरहवें शिलालेख में वह सीमान्त प्रदेशों के लोगों तथा जंगली जन-जातियों को स्पष्ट चेतावनी देता है कि ‘जो गलती किये है, सम्राट उन्हें क्षमा करने का इच्छुक है, परन्तु जो केवल क्षम्य है वही क्षमा किया जा सकता है।’ जंगली जनजाति के लोगों को अपनी सैनिक शक्ति की याद दिलाते हुए वह कहता है ‘यदि वे अपराध नहीं छोड़ेंगे तो उनकी हत्या करा दी जावेगी।’ इन उल्लेखों से रायचौधरी के मत का खण्डन हो जाता है। पुनः इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने सैनिकों की संख्या कम कर दी हो अथवा सेना को धर्म प्रचार के काम में लगा दिया हो। यदि वह अपने सैनिकों को धर्म प्रचार के काम में लगाता तो इसका उल्लेख गर्व के साथ वह अपने अभिलेखों में करता। अतः ऐसा लगता है कि अशोक ने इसलिए शान्तिवादी नीति का अनुकरण किया कि उसके साम्राज्य की बाहरी सीमायें पूर्णतया सुरक्षित थी और देश के भीतर भी शान्ति एवं व्यवस्था विद्यमान थी।

केवल एक सबल प्रशासन के अधीन ही इतना विशाल साम्राज्य इतने अधिक दिनों तक व्यवस्थित ढंग से रखा जा सकता था। यदि अशोक सैनिक निरंकुशवाद की नीति अपनाता तो भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता और उस समय उसके आलोचक सैनिकवाद की आलोचना कर उसे ही साम्राज्य के पतन के लिये उत्तरदायी बताते, जैसा कि सिकन्दर, नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी आदि सैनिकवाद के उच्च पुरोहितों के विरुद्ध आरोपित किया जाता है। अशोक के उत्तराधिकारी अयोग्य तथा निर्बल हुए तो इसमें अशोक का क्या दोष था?

इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि हम अशोक को किसी भी प्रकार से मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। मौर्य साम्राज्य का पतन स्वाभाविक कारणों का परिणाम था जिसका उत्तरदायित्व अशोक के मत्थे मढ़ना उचित नहीं होगा। राधाकुमुद मुकर्जी का कथन वस्तुतः सत्य है कि “यदि अशोक अपने पिता और पितामह की रक्त तथा लौह की नीति का अनुसरण करता तो भी कभी न कभी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ होता। परन्तु सभ्य संसार के एक बड़े भाग पर भारतीय संस्कृति का जो नैतिक आधिपत्य कायम हुआ, जिसके लिये अशोक ही मुख्य कारण था, शताब्दियों तक उसकी ख्याति का स्मारक बना रहा और आज लगभग दो हजार से भी अधिक वर्षों की समाप्ति के बाद भी यह पूर्णतया लुप्त नहीं हुआ।’

“The Mauryan Empire would have fallen to pieces, sooner or later, even if Ashok had followed the policy of blood and iron of his father and grand-father. But the moral ascendancy of Indian culture over a large part of the civilized world, which Ashok was mainly instrumental in bringing about, remained for centuries as a monument to her glory and has not altogether vanished even now after the lapse of more than two thousand years.”

—Age of Imperial Unity, p. 92.

चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य

बिन्दुसार मौर्य ‘अमित्रघात’ ( २९८ ई०पू० – २७२ ई०पू )

अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)

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