अशोक के उत्तराधिकारी (The Successors of Ashoka)

भूमिका

अशोक की मृत्यु २३२ ईसा पूर्व के लगभग हुई। उसके बाद का मौर्य वंश का इतिहास अन्धकारपूर्ण है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारी शासकों के विषय में परस्पर विरोधी विचार मिलते है।

परवर्ती मौर्य शासक : मत वैभिन्य

पुराण अशोक के पश्चात् शासन करने वाले ९ या १० शासकों के नाम का उल्लेख करते हैं। अशोक के एक लघु स्तम्भ लेख में केवल एक पुत्र तीवर का उल्लेख मिलता है जबकि अन्य साक्ष्य इसके विषय में मौन है। शायद अशोक के जीवन काल में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी।

कश्मीरी लेखक कल्हण तथा तिब्बती लेखक तारानाथ ने अशोक के उत्तराधिकारियों का जो विवरण दिया है वह भी एक-दूसरे के विरुद्ध है।

ऐसी स्थिति में यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है कि अशोक के पश्चात् शासन करने वाले राजाओं का क्रम क्या था? विभिन्न स्रोतों से ‘अशोक के उत्तराधिकारी’ नरेशों की निम्नलिखित तालिका प्राप्त होती है —

पुराणों के अनुसार दिव्यावदान के अनुसार

१.    कुणाल

२.    बन्धुपालित (कुणाल का पुत्र)

३.    इंद्रपालित (बन्धुपालित का भाई)

४.    दशोन (बन्धुपालित का भाई)

५.    दशरथ (अशोक का पुत्र)

६.    सम्प्रति (दशरथ का पुत्र)

७.    शालिशूक

८.    देवधर्मन्

९.    शतधनुष (देवधर्मन् का पुत्र)

१०. बृहद्रथ

१.    कुणाल

२.    सम्पदि (कुणाल का पुत्र)

३.    बृहस्पति (सम्पदि का पुत्र)

४.    वृषसेन (बृहस्पति का पुत्र)

५.    पुष्यधर्मन् (वृषसेन का पुत्र)

६.    पुष्यमित्र (पुष्यधर्मन् का पुत्र)

तिब्बती लेखक तारानाथ ने केवल तौन मौर्य शासकों का उल्लेख किया है :

  • कुणाल,
  • विगताशोक और
  • वीरसेन।

कश्मीरी लेखक कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर में अशोक का उत्तराधिकारी जालौक हुआ। वह शैव मतानुयायी था। उसने म्लेच्छों को परास्त कर अपने राज्य को सुरक्षित किया तथा उसे कन्नौज तक बढ़ाया।

अशोक के उत्तराधिकारी शासक

कुणाल (Kunala)

अशोक के बाद उसके पुत्रों (तीवर, महेन्द्र, कुणाल और जालौक) में से कुणाल सिंहनासीन हुए। पुराण, जैन और बौद्ध साहित्य इसकी पुष्टि करते हैं। कुणाल के विभिन्न नाम मिलते हैं –

  • धर्मविवर्धन – दिव्यावदान
  • सुयशस – विष्णु पुराण और भागवत पुराण

कुणाल के सम्बन्ध कहानी प्रचलित है कि उसकी विमाता ‘तिष्यरक्षिता’ ने धोखे से कुणाल को अंधा करवा दिया। इसलिये कुणाल स्वयं शासनकार्य चलाने में असमर्थ थे और वह सांकेतिक शासक थे। वास्तविक शासन कुणाल के पुत्र सम्प्रति चलाते थे। इसलिये बौद्ध व जैन ग्रंथों में सम्प्रति को ही अशोक के बाद शासक बताया गया है।

कुणाल और सम्प्रति के शासनकाल में ही मौर्य-साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हुआ।

अशोक के पुत्र जालौक ने कश्मीर में अपने-आपको स्वतंत्र शासक के रूप में स्थापित कर लिया। राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि पश्चिमोत्तर में यवनों के आक्रमण का द्वितीय चरण प्रारम्भ हुआ। यवन-आक्रमण के प्रतिकार के लिये ‘जालौक’ को भेंजा गया। जालौक ने यवनों का परास्त किया परन्तु वह कश्मीर को मौर्य साम्राज्य से अलग करके वहाँ का स्वयं शासक बन बैठा।

बताया जाता है कि दक्षिण भारत भी इसी समय मौर्य साम्राज्य से पृथक हो गया।

कुणाल का शासनकाल ८ वर्षों का रहा (२३२ से २२४ ई०पू० तक)।

दशरथ (Dasharatha)

उपलब्ध साहित्यिक स्रोतों में कुणाल के उत्तराधिकारी के विभिन्न नाम प्राप्त होते हैं।

  • वायुपुराण के अनुसार कुणाल के बाद उसका पुत्र बंधुपालित राजा बना।
  • मत्स्यपुराण के अनुसार दशरथ राजा बना।
  • बौद्ध एवं जैनसाहित्य सम्प्रति या सम्पदि को कुणाल का पुत्र और उत्तराधिकारी बताते हैं।
  • तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ कुणाल के पुत्र के रूप में विगतशोक का उल्लेख करता हैं।

सम्प्रति को छोड़कर सम्भवतः ये सभी कुणाल के ही पुत्र थे या दशरथ के ही विभिन्न नाम थे।

परवर्ती मौर्य शासकों में से जिन राजाओं का विवरण मिलता है उनमें से दशरथ के विषय में पुरातत्त्विक प्रमाण भी प्राप्त होते है। उसने बिहार प्रान्त के गया जिले में स्थित नागार्जुनी पहाड़ी पर आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के निवास के लिये तीन गुफायें निर्मित करवायीं थीं। इन गुफाओं की दीवारों पर खुदे हुये लेखों से ज्ञात होता है कि वह सम्राट अशोक की तरह “देवानपिय” की उपाधि धारण करता था।

दशरथ के शासनकाल में भी सम्प्रति शासन और राज्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता रहा।

दशरथ के राज्यकाल में विघटन की प्रक्रिया और तीव्र हुई। सम्भवतः साम्राज्य का विभाजन दो भागों में हो गया, यद्यपि बहुत-से विद्वान इस तर्क को स्वीकार नहीं करते। राज्य का पूर्वी भाग दशरथ के अधिकार में रहा तथा पश्चिमी भाग सम्प्रति के हाथों में चला गया। पाटलिपुत्र और उज्जयिनी अब साम्राज्य की दो राजधानियाँ बन गयीं। साम्राज्य के विभाजन की बात सही हो या नहीं, परन्तु इतना निश्चित है कि सम्प्रति ही वास्तविक शासक था; क्योंकि जैन लेखक सम्प्रति को पाटलिपुत्र तथा उज्जयिनी दोनों का शासक बताते हैं।

दशरथ ने आठ वर्षों तक (२२४ से २१६ ई० पू० तक) शासन किया।

सम्पदि (सम्प्रति) [Sampadi (Samprati)]

अशोक के उत्तराधिकारियों में संप्रति ही सबसे योग्य शासक सिद्ध हुआ २१६ ई० पू० में दशरथ के बाद वह राजा बना, परन्तु इसके पूर्व भी वह अशोक, कुणाल और दशरथ के शासनकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहा था। सम्प्रति जैन मतावलंबी था। उसने जैनधर्म के विकास के लिये अनेक प्रयास किये। अनेक जैनमंदिरों एवं विहारों का उसने निर्माण करवाया।

जैनग्रंथों से ज्ञात होता है कि उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं — पाटलिपुत्र तथा उज्जयिनी। वह पाटलिपुत्र का राजा था तथा उसके साम्राज्य में अवन्ति एवं पश्चिमी भारत भी सम्मिलित था। परन्तु पुराणों के विपरीत जैन ग्रन्थ सम्प्रति को कुणाल का पुत्र मानते हैं।

सम्प्रति किसी प्रकार साम्राज्य के विघटन को रोक रखने में सफल रहा।

चंद्रगुप्त मौर्य की ही तरह भीषण दुर्भिक्ष से दुःखी होकर उसने भी राज्य त्याग दिया और दक्षिण भारत (श्रमणबेलगोला, मैसुरू) जाकर जैन मुनियों की तरह समाधिमरण द्वारा अपना जीवन त्याग दिया। २०७ ई० पू० में सम्प्रति की मृत्यु हुई।

शालिशक (शालिशुक) [Salisaka (Salisuka)]

सम्प्रति के बाद २०७ ई० पू० में शालिशुक राजा बना। उसका दूसरा नाम सम्भवतः वृहस्पति (बृहस्पति) था। शालिशुक सम्प्रति का पुत्र था। सम्भवतः सम्प्रति के पश्चात् उसके पुत्रों में सिंहासन के लिये संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में शालिशुक विजयी हुआ। उसने अपने बड़े भाई की हत्या कर गद्दी हथिया ली। जिस समय शालिशुक गद्दी पर बैठा, राज्य की स्थिति अत्यंत ही डावांडोल थी। दुर्भिक्ष और गृहयुद्ध के कारण राज्य की स्थिति अत्यंत कमजोर हो गयी थी। राजदरबार आन्तरिक कलह और षड्यन्त्रों का अखाड़ा बन गया था।

शालिशुक ने धर्म के नाम पर ढोंग रचकर जनता को सताया। गार्गी संहिता में उसे ‘धार्मिक के रूप में अधार्मिक, धूर्त एवं झगड़ालू’ शासक बताया गया है। उसे धर्म विजय करने वाला कहा गया है जिसने यज्ञों के अनुष्ठान को रोकने का प्रयास किया था।

शालिशूक के शासन काल के अन्त में (२०६ ईसा पूर्व के लगभग) यवन नरेश अतियोकस तृतीय ने हिन्दूकुश पर्वत को पार कर काबुल घाटी के शासक से उपहार प्राप्त किया था। पोलिबियस ने इस राजा का नाम ‘सोफेगसेनस’ (सुभगसेन) बताया है। हेमचन्द्र रायचौधरी के मतानुसार यह राजा शालिशूक ही था तथा ‘सुभगसेन’ उसकी उपाधि थी। भण्डारकर महोदय राजतरंगिणी के जालौक की पहचान भी शालिशूक से ही करते हैं। राजतरंगिणी में जो म्लेच्छों का उल्लेख हुआ है उससे तात्पर्य यवनों से ही है।

गार्गीसंहिता के अनुसार यवनों ने मथुरा, पांचाल और साकेत पर अधिकार कर लिया तथा पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया; परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यवन शासक अन्तियोकस गांधार के शासक सुभगसेन से संधि करके वापस लौट गया। इससे समूचे साम्राज्य में अव्यवस्था और अशांति व्याप्त हो गयी।

फलस्वरूप, उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया तेज होती गयी। इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर राजकुमार वृषसेन (सम्प्रति के पुत्र) ने साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। कश्मीर के शासक जालौक ने भी मगध पर आक्रमण किया। इसी वातावरण में शालिशुक की हत्या कर दी गयी।

देववर्मा और शतधनुष

पुराणों के अनुसार शालिक के पश्चात् देववर्मा (देवधर्मन्, सोमशर्मन्) शासक बना। उसने २०६ से १९९ ई०पू० तक शासन किया। बताया गया है कि इसी के शासनकाल में बैक्ट्रिया के शासक ‘डेमेट्रियस’ ने लगभग २०० ई०पू० में उत्तरपथ (पश्चिमोत्तर भारत) पर आक्रमण किया और कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

देववर्मा के बाद शतधन्वन् मौर्य वंश के राजा हुए। उसने १९९ से १९१ ई०पू० तक शासन किया। इसके शासनकाल में पश्चिमोत्तर में यवन राज्य स्थापित हो गये थे।

बृहद्रथ (Brihdratha)

मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक बृहद्रथ हुए। उनका शासनकाल १९१ ई०पू० से १८४ ई०पू० तक शासन किया। मौर्य शासक मगध साम्राज्य के विघटन को रोकने में असमर्थ रहे। साम्राज्य के पश्चिमोत्तर से यवनों का अतिक्रमण निरंतर बढ़ता जा रहा था। उसे ‘प्रज्ञादुर्बल’ (बुद्धिहीन) शासक कहा गया है।

सम्राट बृहद्रथ के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने १८४ ईसा पूर्व के लगभग अपने स्वामी की सेना निरीक्षण करते समय धोखे से हत्या करके सत्ता हड़प ली। सम्राट बृहद्रथ की मृत्यु के साथ ही मौर्यवंश का अन्त हुआ।

दिव्यावदान में भ्रमवश पुष्यमित्र को मौर्य कुल से ही सम्बन्धित कर दिया गया है।

निष्कर्ष

इस तरह ‘अशोक के उत्तराधिकारी’ शासकों ने कुल मिलाकर २३२ से १८४ ई०पू० तक शासन किया। लगभग ५० वर्षीय ( ४८ वर्ष ) समय में मौर्य साम्राज्य निरंतर सिकुड़ता जा रहा था। ये परवर्ती शासक मौर्य साम्राज्य के पतन को रोकने में असफल रहे और अंततः ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने ‘प्रज्ञादुर्बल’ सम्राट बृहद्रथ की सैन्य निरीक्षण करते समय हत्या करके सत्ता हथिया ली। इस तरह भारतवर्ष के प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य, भारतीय इतिहास के सबसे शक्तिशाली व गौरवशाली साम्राज्य का अंत हो गया।

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