अशोक शासक के रूप में

भूमिका

सम्राट अशोक शासक के रूप में कैसे थे इसका मूल्यांकन हम उनके द्वारा प्रशासनिक सुधारों और लोककल्याणकारी कृत्यों के माध्यम से जाँच-परख सकते हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या अशोक के धम्म न अशोक के शासकीय कर्त्तव्यों के निर्वहन में व्यवधान डाला या उसे और सही दिशा में प्रेरित-उत्साहित किया?

शासन संगठन का साँचा-ढाँचा लगभग वही था जो चंद्रगुप्त मौर्य के समय में था। सम्राट अशोक के अभिलेखों में कई अधिकारियों का उल्लेख मिलता है, यथा — राजुक, प्रादेशिक, युक्तक आदि। इनमें से अधिकांश राज्याधिकारी चंद्र गुप्त के समय से चले आ रहे थे। अशोक ने धार्मिक नीति तथा प्रजा के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर उनके कर्तव्यों में विस्तार किया। केवल धम्म महामात्रों की नियुक्ति एक नवीन प्रकार की नियुक्ति थी

अशोक : शासक के रूप में

बौद्ध धर्म ग्रहण करने के पश्चात् अशोक ने धम्म (धर्म) प्रचार के लिये बड़ी लगन और उत्साह से काम किया। परन्तु शासन के प्रति वह कतई उदासीन नहीं हुआ वरन् अधिक उत्साह से शासन को लोककल्याणकारी बनाने में कोई कसर न छोड़ी। अशोक की धर्म-परायणता ने उसमें प्रजा के ऐहिक एवं पारलौकिक कल्याण के लिये तीव्र लगन पैदा की।

प्रजाहित सर्वोपरि

प्रजा को पिता सदृश मानना

अशोक ने राजा और प्रजा के बीच ‘पैतृक’ सम्बन्ध को बढ़ाने पर अधिक बल दिया। कलिंग के पृथक शिलालेख में अशोक ने उद्घोषणा की है : ‘सारी प्रजा मेरी संतान है जिस प्रकार मैं अपनी संतान के ऐहिक सुख और कल्याण की कामना करता हूँ उसी प्रकार अपनी प्रजा के ऐहिक और पारलौकिक कल्याण और सुख के लिए भी।’

“मुनिसे पजा ममा [ । ] अथा पजाये इछामि हकं किंति सवेन हितसुखेन हिदलोकिक- पाललोकिकेन यूजेवू ति तथा [ सव ] मुनिसेसु पि इछामि हकं [ । ]” — पहला पृथक कलिंग शिलालेख

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“सा मे पजा [ । ] अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सवेन हित-सु-खेन युजेयू ति हिदलोगिक-पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु [ । ]” — दूसरा पृथक कलिंग शिलालेख

प्रजा के लिये माँ सदृश प्रेम व राजुकों को धाय सदृश व्यवहार का निदेश

“जैसे एक माँ अपने शिशु को एक कुशल धाय को सौंपकर निश्चित हो जाती है कि कुशल धाय संतान का पालन-पोषण करने में समर्थ है, उसी प्रकार मैंने भी अपनी प्रजा के सुख और कल्याण के लिए राजुकों की नियुक्ति की है।”

अथा हि पजं वियताये धातिये निसिजितु अस्वथे होति वियत धाति चद्यति मे पजं सुख पलिहटवे हेवं मम लजूका कटा जानपदस हित-सुखाये [।]” — चौथा स्तंभ लेख

प्रजा कार्य के लिये सदैव उपलब्ध

वह प्रजा के कार्य करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। अपने छठे शिलालेख में अशोक प्रियदर्शी ने यह घोषणा की, “हर क्षण और हर स्थान पर – चाहे वह रसोईघर में हो, अंतःपुर में हो अथवा उद्यान में – मेरे प्रतिवेदक मुझे प्रजा के कार्यों के सम्बन्ध में सूचित करें। मैं जनता का कार्य करने से कभी भी नहीं अघाता। मुझे प्रजा के हित के लिये कार्य करना चाहिए।”

“सवे काले भुंजमानस में ओरोधनम्हि गभागारम्हि वचम्हि व विनीतम्हि च उयानेसु चन सर्वत्र पटिवेदका स्टिता अथे में जनस पटिवेदेथ इति [ । ] सर्वत्र च जनस अथे करोमि [ । ]” — छठा बृहद् शिला प्रज्ञापन

राजा प्रजा का ऋणी

इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा के उत्थानव्रत और प्रजाहित आदर्श पर सम्राट अशोक ने अत्यधिक बल दिया है। यही नहीं, अशोक ने राजा के कर्त्तव्य का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है — “राजा प्रजा का ऋणी है, प्रजा के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करके वह प्रजा का ऋण चुकाता है।”

“य च किंति पराक्रमामि अहं किंतु भूतानं आनंणं गछेयं” — छठा बृहद् शिला प्रज्ञापन

सम्राट द्वारा प्रजा से सीधा सम्वाद स्थापित करना

अशोक के आठवें शिलालेख* तथा मास्की लघु शिलालेख से यह अनुमान लगाया गया है कि अशोक राज्य के विभिन्न भागों में निरीक्षाटन भी करते थे, जिससे जनता के सुख-दुःख का सीधे पता लगा सकें। पुरुषों और प्रतिवेदकों द्वारा जनसम्पर्क बना रहता था।

“जानपदस च जनस दस्पनं धंमानुसस्टी च धंमपरिपुछा च तदोपया [ । ]” — आठवाँ बृहद् शिलालेख

अधिकारियों को निश्चित समयान्तराल पर दौरे पर जाने का निदेश

अपने शासन को अधिक मानवीय बनाने के लिये अशोक ने शासन में कई सुधार किये। सर्वप्रथम प्रशासनिक सुधार यह था कि प्रादेशिक, राजुक से लेकर युक्तक तक सभी अधिकारी हर पाँचवें साल (उज्जयिनी और तक्षशिला में हर तीसरे वर्ष) राज्य में निरीक्षाटन (अनुसंयान) के लिये जाते थे। प्रशासनिक कार्य के अतिरिक्त ये प्रशासनिक अधिकारी धम्म का प्रचार भी करते थे।

“नगल-विथोहालका ( वियोहालका ) सस्वतं समयं यूजेबू ति [ एन ] जनस अकस्मा पलिबोधे व अकस्मा पळिकिलेसेव ( पलिकिलेसे ) नो सियाति [ । ] एताये च अठाये हकं [ महा ] मते पंचसु पंचसु वसे- सु निखामयिसामि ए अखखसे अचंडे सखिनालभे होसति एतं अठं जानितु [ तंपि ] तथा कलंति अथ मम अनुसथी ति [ । ] उजेनिते पि चु कुमाले एताये व अठाये निखामयिस [ ति अनुवासं ] हेदिसमेव वगं नो च तिकामयिसति तिंनि वसानि [ । ] हेमेव तखसिलाते पि [ । ] अदा अ [ नुवासं ] ते महामता निखमिसंति अनुसयानं तदा अहापयितु अतने कंमं एतं पि जानिसंति तं पि तथा कलंति अथ लाजिने अनुसथी ति [ । ]” — पहला पृथक कलिंग शिलालेख

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“सर्वत विजिते मम युता च राजुके प्रादेसिके च पंचसु पंचसु वासेसु अनुसंयानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा—य पि कंपाय [ । ]” — तीसरा बृहद् शिलालेख

कलिंग लेख से पता लगता है कि अकारण लोगों को कारावास तथा भय से बचाने के लिये प्रत्येक पाँचवें वर्ष महामात्र निरीक्षाटन के लिये भेजे जाते थे उनका एक कार्य यह भी था कि वे देखें कि नगर न्यायाधीश राजा के आदेश का पालन करें। — पहला पृथक कलिंग शिलालेख

दण्डविधान में मानवीय सुधार

धम्ममहामात्र की नियुक्ति द्वारा

अशोक ने अपने राज्य के तरहवें वर्ष के बाद एक सर्वथा नवीन प्रकार के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति की। इन्हें धम्ममहामात्र कहा गया है। इनका प्रमुख कार्य जनता में धर्मप्रचार करना तथा दानशीलता को उत्साहित करना था। किंतु प्रशासनिक दृष्टि से इनका कार्य यह था जिन्हें कारावास का दंड दिया गया हो उनके परिवारों को आर्थिक सहायता देना, अपराधियों के सम्बन्धियों से सम्पर्क बनाये रखकर उन्हें सांत्वना देना। इस प्रकार अशोक ने न्याय और दंड में मानवीयता लाने का प्रयास किया। न्याय को दया से मिश्रित करके मृदु (नरम) बना दिया।

“से त्रेडशवषभिसितेन  मय ध्रममहमत्र कट [ । ] …… ……. बधनबधस पटिविधनये अपलिबोधसे मोछये च इयं अनुबध प्रजवति कट्रभिकर ति व महल के ति व वियप्रट ते [ । ]” — पाँचवाँ बृहद् शिलालेख

दण्डविधान की व्याहारिकता

फिरभी यह तथ्य उल्लेखनीय है कि सम्राट अशोक व्यावहारिक थे। उन्होंने मृत्युदण्ड को एकदम समाप्त नहीं किया, किंतु यह व्यवस्था की कि यदि समुचित कारण उपस्थित हो, तो धम्ममहामात्र न्यायाधिकारियों से दण्ड कम करवाने का प्रयत्न करें।

मृत्युदण्ड को मृदु बनाना

परन्तु मृत्युदण्ड को मृदु बनाने के लिये सम्राट अशोक ने यह व्यवस्था की कि – ‘जिन अपराधियों को मृत्युदण्ड दिया गया हो उन्हें तीन दिन का अवकाश देने की व्यवस्था की गयी ताकि इस बीच उनके सम्बन्धी उनके जीवनदान के लिये (राजुकों से) प्रार्थना कर सकें; और (यदि यह सम्भव न हो सके तो) वे दान-व्रत-प्रार्थना द्वारा परलोक की तैयारी कर सकें।’

“अब इते पि च मे आवति [ । ] बंधन-बधानं मुनिसानं तीलित दंडानं पत वधानं तिंनि दिवसानि मे योते दिंने [ । ] नातिका व कानि निझपयिसंति जीविताये तानं नासंतं वा निझपयिता दानं दाहंति पालतिकं उपवासं व कछंति [ । ]” — चौथा स्तम्भलेख

राजुकों को अभिसार व दण्ड की स्वतंत्रता

२६वें वर्ष में अशोक ने राजुकों को न्यायिक अनुसंधान और दण्ड के बारे में स्वतंत्रता दी ताकि ऊपर से बिना हस्तक्षेप के वे आत्मविश्वास के साथ प्रजा का हित कर सकें। ये राजुक सैकड़ों-हजारों लोगों के ऊपर शासन करते थे और अशोक ने उन्हें स्वतंत्रता इसलिये दी कि वे निर्विघ्न शासन द्वारा जनता का हित करने में समर्थ हो सकें।

“लजका ( लजूका ) से ( मे ) बहूसु पान-सत-सहसेसु ( पान-सत सहेसु ) जनसि आयता [ । ] तेसं ये अभिहाले वा दंडे वा अत-पतिये मे कटे [ । ] किति लजूका अस्वथ अभीता कंमानि पवतयेवू जनस जानपदसा हित-सुखं उपदहेवू अनुगहिनेवु च [ । ]”  — चौथा स्तम्भलेख

व्यवहार समता व दण्ड समता

इसके साथ ही सम्राट अशोक का एक क्रांतिकारी कदम उठाया वह था — ‘व्यवहार समता और दण्ड समता’ लागू करना।

“वियोहाल समता च सिय दंड समता चा [ । ]” — चौथा स्तम्भलेख

मानवमात्र के लोककल्याणकारी कार्य

अशोक ने मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाये। जहाँ मनुष्यों और पशुओं के लिये उपयोगी औषधियाँ उपलब्ध नहीं थीं वहाँ बाहर से मँगाकर उन्हें लगाया गया कंदमूल और फल भी जहाँ कहीं नहीं थे, वहाँ बाहर से मंगाकर लगवाये गये। सड़क के किनारे पेड़ लगाये गये ताकि मनुष्यों और पशुओं को छाया मिल सके। आठ कोस या ९ मील के अन्तराल पर जगह-जगह कुएँ खुदवाये गये। इसके अलावा अनेक प्याऊ स्थापित किये गये। इसका विवरण हमें ७वें स्तम्भलेख और दूसरे बृहद् शिलालेख में मिलता है।

“मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसन्ति पसुमुनिसानं अम्बा-वडिक्या लोपापिता [ । ] अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि खानापापितानि निंसिढया च कालापिता [ । ] आपानानि में बहुकानि तत तत कालापितानि पटी भोगाये पसु मुनिसानं [ । ]” — सातवाँ स्तम्भलेख

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“राजानो सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछा कता मनुस-चिकीछा च पसंद-चिकीछा च [ । ] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [ । ] मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [ । ] पंथेसू कूपा च खानापिता व्रछा च रोपापितपरिभोगाय पसु-मनुसानं [ ॥ ]” — दूसरा बृहद् शिला प्रज्ञापन

इसी तरह रूद्रदामन के अभिलेख से ज्ञात होता है कि अपने पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा बनवाये गये इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील से सम्राट अशोक ने नहरें निकलवायीं थीं।

निष्कर्ष

इस प्रकार अशोक की धर्मपरायणता और धम्म की नीति ने शासन व्यवस्था को अव्यवस्थित नहीं किया वरन् उसको उस दिशा में ले गये जिसे वर्तमान समय में लोककल्याणकारी राज्य कहते हैं। जिस राज-व्यवस्था को वर्तमान लोकतंत्र मानवीय पुट देने को संघर्षरत हैं उसको आज से दो सहस्राब्दी से भी २५० वर्ष पहले अशोक ‘प्रियदर्शी’ ने व्यावहारिकता के धरातल पर उतारकर चरितार्थ करके दिखाया था। उसका शासन केंद्रित होते हुए भी मानवीय था। सभी मतों-सम्प्रदायों का समान सम्मान था। यही कारण है कि अशोक की नीतियाँ कालातीत हैं। इसीलिये वर्तमान पीढ़ी अशोक के प्रति बढ़ी श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव रखतीं हैं। इस तरह ‘अशोक शासक के रूप में’ इतिहास के प्रत्येक कालखंड में एक पथप्रदर्शक जैसे हैं और वर्तमान भी इसका अपवाद नहीं है। भारत सरकार ने अशोक स्तम्भ को राजकीय चिह्न के रूप में अपनाकर एक छोटी सी श्रद्धांजलि ज्ञापित की है।

अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)

कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)

अशोक का धम्म

अशोक का साम्राज्य विस्तार

अशोक की परराष्ट्र नीति

अशोक का मूल्यांकन या इतिहास में अशोक का स्थान

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