कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)

भूमिका

अपने राज्याभिषेक के बाद अशोक ने अपने पिता एवं पितामह की दिग्विजय की नीति का अनुसरण किया। इस समय कलिंग का राज्य मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता को चुनौती दे रहा था। कलिंग युद्ध सम्राट अशोक के राज्याभिषेक के ८वें वर्ष हुआ था। इसका विवरण अशोक के १३वें बृहद् शिला प्रज्ञापन में मिलता है। [ अढवषअभिंसितस देवन प्रियस प्रिअद्रशिस राञो कलिग विजित (।) ] अर्थात् आठ वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रिय प्रियदर्शी से कलिंग विजित हुआ।

कलिंग राज्य

एक प्रमुख प्रश्न यह उठता है कि कलिंग को सबसे पहले किसने विजित किया था? क्या कलिंग चन्द्रगुप्त मौर्य और बिन्दुसार के साम्राज्य का अंग था?

खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि महापद्मनन्द ने विजित किया था। वहाँ पर उन्होंने एक तनसुलि नामक नहर बनवायी और जिन की प्रतिमा उठा ले गये। इस तरह कलिंग को महापदमनन्द ने जीतकर मगध साम्राज्य में मिला लिया था।

अब यह स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यह अवश्य ही मगध के अधिकार में रहा होगा क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे वीर तथा महत्वाकांक्षी शासक, जिसने यूनानियों को पराजित किया एवं नन्दों की शक्ति का उन्मूलन किया, कलिंग की स्वाधीनता को सहन कर सकता।

ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत लगता है कि बिन्दुसार के शासन काल में किसी समय कलिंग ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया था।

एक सम्भावना यह भी हो सकती है कि २७३ ई० पू० से २६९ ई०पू० तक उत्तराधिकार युद्ध के समय में किसी समय कलिंग ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी हो। जो भी हो अशोक जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिये यह असह्य था।

कारण

कलिंग एक शक्तिशाली राज्य था। कलिंग का प्राचीन राज्य वर्तमान दक्षिणी उड़ीसा में स्थित था। इसका विस्तार उत्तर में वैतरणी नदी से लेकर दक्षिण में महेंद्रगिरि पर्वत; पश्चिम में अमरकंटक और पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक था। यह राज्य हाथियों और हाथी दाँत के लिये प्रसिद्ध था।

कलिंग के स्वतंत्रता की पुष्टि मेगस्थनीज के इंडिका से होती है। इसकी सैन्य शक्ति बढ़ी-चढ़ी हुई थी। प्लिनी के अनुसार कलिंग की सेना में ६०,००० पदाति, १,००० अश्वारोही और ७,००० गज सेना थी। इस तरह यह मानने में संदेह नहीं कि अशोक के समय भी कलिंग एक शक्तिशाली राज्य था। अशोक जैसे शक्तिशाली सम्राट के लिये यह असह्य हो रहा था इसके साथ ही कलिंग का शक्तिशाली राज्य को मगध की सुरक्षा के लिये विजित करना आवश्यक था। यह तथ्य तब प्रमाणित हो जाता है जब चेदि महामेघवाहन वंशी शासक खारवेल के नेतृत्व में कलिंग का उत्थान हुआ तब उसने मगध पर आक्रमण किया था।

कलिंग विजय एक अन्य कारण संभवतः यह था कि अशोक कलिंग पर अधिकार कर दक्षिण भारत से सीधा सम्पर्क कायम करना चाहते थे। यह तभी सम्भव था, जब मौर्यों का नियंत्रण कलिंग होकर दक्षिण जानेवाले स्थल और सामुद्रिक मार्ग पर हो। व्यापार की प्रगति के लिये भी यह आवश्यक था। कलिंग का दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से सम्बन्ध था। इस पर अधिकार होने से पूर्वी समुद्री व्यापार पर मौर्यो का नियंत्रण स्थापित होता।

प्रसिद्ध विद्वान आर० जी० भंडारकर के अनुसार अशोक ने कलिंग पर इसलिये भी चढ़ाई की कि कलिंग के शासक ने बिंदुसार के समय में मगध के विरुद्ध दक्षिण के चोल एवं पांड्य-राजाओं की सहायता की थी, लेकिन इस तर्क की पुष्टि के लिये स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

वस्तुतः अशोक के समक्ष कलिंग विजय के दो स्पष्ट उद्देश्य प्रतीत होते हैं। पहला, एक नजदीकी स्वतंत्र राज्य को अपनी सत्ता मानने को बाध्य करना तथा दूसरा, मौर्य साम्राज्य के आर्थिक हितों की सुरक्षा करना। अतः अशोक ने कलिंग-विजय की योजना बनायी।

प्रो० रोमिला थापर का विचार है कि कलिंग उस समय व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राज्य था तथा अशोक की दृष्टि उसके समृद्ध व्यापार पर भी थी। अत: अपने अभिषेक के आठवें वर्ष (२६१ ईसा पूर्व) उसने कलिंग के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।

इस तरह निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि सम्राट अशोक द्वारा कलिंग विजय करने के निम्न कारण थे :

  • राजनीतिक कारण – मगध के पड़ोस में कलिंग जैसे शक्तिशाली राज्य का होना राजनीतिक दृष्टि से ठीक नहीं था। क्योंकि वह मगध के लिये ख़तरा बन सकता था जैसा कि कालान्तर में खारवेल के आक्रमण से सिद्ध होता है। साथ ही एक चक्रवर्ती शासक के लिये यह आवश्यक था कि वह सम्पूर्ण भारतीय उप-महाद्वीप को एक शासन के नीचे लाये।
  • आर्थिक कारण – कलिंग आर्थिक रूप से समृद्ध था। यह हाथी और हाथी दाँत के लिये विख्यात था। साथ ही तटीय क्षेत्रों पर अधिकार होने से आन्तरिक के साथ-साथ सामुद्रिक मार्ग से वैदेशिक व्यापार भी फलफूल रहा था। यहाँ पर पल्लूर नामक बंदरगाह का विवरण मिलता है।
  • सामरिक व व्यापारिक स्थिति – उत्तर और दक्षिण भारत के मार्ग स्थल और समुद्र के सहारे कलिंग से होकर जाते थे। मौर्य साम्राज्य दक्षिण भारत तक फैल चुका था अत: सुचारु आवागमन व प्रशासनिक नियंत्रण के लिये यह आवश्यक था कि कलिंग मौर्य साम्राज्य में विलीन हो जाये।

कलिंग युद्ध और उसका परिणाम

कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय में अशोक के तेरहवें बृहद् अभिलेख से विस्तृत सूचना प्राप्त होती है। इससे स्पष्ट होता है कि यह युद्ध बड़ा भयंकर था जिसमें भीषण रक्तपात तथा नरसंहार की घटनायें हुयीं। अन्ततः अशोक इस राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाने में सफल रहा। दुर्भाग्यवश किसी भी साक्ष्य से हमें कलिंग के शासक का नाम ज्ञात नहीं होता है।

तात्कालिक लाभ

तेरहवें शिलालेख में इस युद्ध के भयानक परिणामों का इस प्रकार उल्लेख हुआ है – ‘इसमें एक लाख ५० हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिये गये, एक लाख लोगों की हत्या की गयी तथा इससे भी कई गुना अधिक मारे गये।* युद्ध में भाग न लेने वाले ब्राह्मणों, श्रमणों तथा गृहस्थियों को अपने सम्बन्धियों के मारे जाने से महान् कष्ट हुआ। सम्राट ने इस भारी नर संहार को स्वयं अपनी आँखों से देखा था।

  • अढवषअभिंसितस देवन प्रियस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित [ । ] दिअढमत्रे प्रणशतमहस्रे ये ततो अपवुढे शतसहस्रमत्रे तत्र हते बहुतवतके व मुटे [ । ]*

इस प्रकार एक स्वतन्त्र राज्य की स्वाधीनता का अन्त हुआ। कलिंग मगध साम्राज्य का एक प्रान्त बना लिया गया तथा राजकुल का कोई राजकुमार वहाँ का उपराजा (वायसराय) नियुक्त कर दिया गया। कलिंग में दो अधीनस्थ प्रशासनिक केन्द्र स्थापित किये गये –

  • उत्तरी केन्द्र ( राजधानी – तोसलि ) तथा
  • दक्षिणी केन्द्र ( राजधानी – जौगढ़)।

कलिंग ने फिर कभी स्वतन्त्र होने की चेष्टा नहीं की। मौर्य साम्राज्य की पूर्वी सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गयी। यह कलिंग युद्ध का तात्कालिक लाभ था

दूरगामी परिणाम

परन्तु कलिंग युद्ध की हृदय विदारक हिंसा एवं नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय-स्थल को स्पर्श किया और उसके दूरगामी परिणाम हुये। कलिंग युद्ध में हताहतों की संख्या से और हृदयविदारक भीषण परिणाम से अशोक अत्यंत दुखी हुए। उनके १३वें बृहद शिला लेख के अनुसार –

  • सो अस्ति अनुसोचनं देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [ । ]

अतः सम्राट अशोक ने धर्मपालन, धर्म की इच्छा और धर्मानुशासन को युद्ध पर वरीयता देना आरम्भ कर दिया। इसी को १३वें बृहद शिला प्रज्ञापन में इस तरह व्यक्त किया गया है —

  • ततो पचो अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्रमशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [ । ]

अपनी इस उद्घोषणा के लिये सम्राट अशोक ने कलिंग के लिये दो पृथक शिलाप्रज्ञापन स्थापित करके उद्घोषणा की –  कि ‘सब मनुष्य ( प्रजा )मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के इहलौकिक तथा पारलौकिक हित एवं सुख से युक्त हों, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है।’

इस तरह अब सम्राट अशोक की नीति में स्थायी और दूरगामी परिणाम हुआ जिसका प्रभाव भारतीय इतिहास के स्वर्णिम काल का प्रतिनिधित्व करने वाले थे। यह एक विलक्षण उदाहरण है कि एक सम्राट ने जो समस्त विश्व विजय के लिये प्रयाण कर सकता था उसने प्रजा और जीवमात्र के लिये अपने साम्राज्य के समस्त संशाधनों को निवेशित कर दिया।

इस परिवर्तन को विभिन्न इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है।

कलिंग युद्ध पर टिप्पणी करते हुये हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है — ‘मगध तथा समस्त भारत के इतिहास में कलिंग की विजय एक महत्त्वपूर्णघटना थी। इसके बाद मौर्यों की जीतों तथा राज्य विस्तार का वह दौर समाप्त हुआ जो बिम्बिसार द्वारा अंग राज्य को जीतने के बाद से प्रारम्भ हुआ था। इसके बाद एक नये युग का सूत्रपात हुआ और यह युग था – शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार का। यहीं से सैन्य विजय तथा दिग्विजय का युग समाप्त हुआ तथा आध्यात्मिक विजय और धम्मविजय का युग प्रारम्भ हुआ।’*

  • The conquest of Kalinga was a great landmark in the history of Magadha, and of India. It marks the close of that career of conquest and aggrandisement which was ushered in by Bimbisāra’s annexation of Anga. It opens a new era — an era of peace, of social progress, of religions propaganda and at the same time of political stagnation and, perhaps, of military inefficiency during which the martial spirit of imperial Magadha was dying out for want of exercise. The era of military conquest or Digvijaya was over, the era of spiritual unquest or Dhamma-jaya was about to begin.* — Political History of India, p. 306-07 : H. C. Ray Chaudhary

इस प्रकार कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान् परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया एवं करुणा से उद्वेलित हो गया तथा उसने युद्ध-क्रियाओं को सदा के लिये बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटना थी जो विश्व इतिहास में सर्वथा बेजोड़ है। इस समय से सम्राट अशोक बौद्ध धर्मानुयायी बन गये तथा उन्होंने अपने साम्राज्य के सभी उपलब्ध साधनों को जनता के भौतिक एवं नैतिक कल्याण में नियोजित कर दिया।

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