अशोक का मूल्यांकन या इतिहास में अशोक का स्थान

भूमिका

अशोक न केवल भारतीय इतिहास के अपितु विश्व इतिहास के महानतम सम्राटों में से एक है। वह एक महान् विजेता, कुशल प्रशासक एवं सफल धार्मिक नेता थे। चाहे जिस दृष्टि से सम्राट अशोक की उपलब्धियों का मूल्यांकन किया जाय, वह सर्वथा योग्य सिद्ध होते हैं। उसमें “चन्द्रगुप्त मौर्य जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी बहुमुखी प्रतिभा तथा अकबर जैसी सहिष्णुता थी।”*

He had the energy of a Chandragupta, the versatility of a Samudragupta and the catholicity of an Akbar.*   — Political History of Ancient India ; p. 345 – H. C. Ray Chaudhary.

सैन्य निपुणता

अशोक ने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था वह सर्वथा उसके लिये उपयुक्त था। विजेता के रूप में हम देख चुके है कि किस प्रकार उसने कलिंग के राज्य को आत्मसात् कर लिया। अशोक ने व्यक्तिगत रूप से कलिंग युद्ध में भाग लिया था तथा सैन्य संचालन किया था। इससे उसकी सैनिक निपुणता का परिचय मिलता है।

प्रशासनिक सुधार

उसके शासन काल में भारतवर्ष ने अभूतपूर्व राजनीतिक एकता एवं स्थायित्व का साक्षात्कार किया था। प्रशासन के क्षेत्र में सम्राट अशोक ने अनेक सुधार किये। वह एक प्रजापालक सम्राट था तथा राजत्व सम्बन्धी उसकी धारणा पितृपरक थी। उसने कभी भी अपनी दैवी उत्पत्ति का दावा नहीं किया तथा बराबर अपने को जनता का सेवक ही समझता रहा। वह सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का न केवल भौतिक अपितु नैतिक उत्थान करने को उत्सुक था।

अपने विशाल साम्राज्य में उसने इतनी अधिक योग्यता और निपुणता के साथ प्रशासन का संगठन एवं संचालन किया कि लगभग ३७ वर्षों के दीर्घकालीन शासन में पूर्णतया शान्ति एवं सुव्यवस्था बनी रही।

राष्ट्रीय एकता की समस्या को उसने अत्यन्त सीमालेख कुशलतापूर्वक हल किया तथा सम्पूर्ण देश में एक भाषा, एक लिपि तथा एक ही प्रकार के कानून का प्रचलन करवाया। दृण्ड-समता और व्यवहार-समता* की स्थापना निश्चित रूप से न्याय प्रशासन के क्षेत्र में एक नये और क्रांतिकारी युग का सूत्रपात करती है।

“वियोहाल समता च सिय दंड समता चा [।] अब इते पि च मे आवति [।]” अर्थात् उनमें व्यवहार समता और दण्ड समता होनी चाहिये। मेरी आज्ञा है।*अशोक का चतुर्थ स्तम्भलेख

अपने छठे शिलालेख में वह राजत्व सम्बन्धी अपना विचार इन शब्दों में व्यक्त करता है— सर्वलोकहित मेरा-कर्तव्य है। सर्वलोकहित से बढ़कर कोई दूसरा कर्म नहीं है। में जो कुछ पराक्रम करता है, वह इसलिये कि भूतों के ऋण से मुक्त होऊ।“

“कतव्यं मते हि मे सर्वलोकहितं [।] तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च [।] नास्ति हि कंमतरं सर्वलोकहितत्पा [।] य च किंति पराक्रमामि अहं किंत भूतानं आनंणं गछेय…”

अर्थात् सर्वलोकहित वस्तुतः मेरे द्वारा कर्त्तव्य माना गया है। पुनः उसके मूल उत्थान (उद्योग) और अर्थसन्तरण (कुशलतापूर्वक राजकार्य-संचालन) हैं। सचमुच सर्वलोकहित के अतिरिक्त दूसरा [कोई अधिक उपादेय] कार्य नहीं है। जो कुछ मैं पराक्रम करता हूँ, वह क्यों? इसलिये कि भूतों (जीवधारियों) से उऋणता को प्राप्त होऊँ…” छठा बृहद् शिलालेख

महान निर्माता

सम्राट अशोक एक महान निर्माता भी थे। बौद्ध परम्परा उनको ८४,००० स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है। उन्होंने कनकमुनि के स्तूप का संवर्धन करवाया और बराबर की पहाड़ियों को कटवाकर आजीवकों के लिये गुफाओं का निर्माण करवाया था। अशोक-स्तम्भ वास्तु-कला के उत्कृष्ट उदाहरण है। कश्मीर में श्रीनगर तथा नेपाल में देवपाटन नामक दो नगरों की स्थापना भी सम्राट अशोक द्वारा करवाई गयी थी।

लोक-कल्याणकारी राज्य

विश्व इतिहास में अशोक के समान योद्धा एवं कुशल प्रशासक अनेक राजा हुए हैं। परन्तु अशोक अपने ‘लोककल्याणकारी कार्यों’ के लिये ही सर्वाधिक प्रसिद्ध है और इस दृष्टिकोण में सम्राट अशोक बेजोड़ हैं अर्थात् दूसरा कोई शासक प्राचीन से लेकर वर्तमान तक इतिहास में मिलना कठिन ही नहीं आसपास भी नहीं फटकता है।

अशोक पहले शासक थे जिनकी उदार दृष्टि से सम्पूर्ण मानव समाज ही नहीं, अपितु सभी जीवधारी समान थे। वह अपने सभी भूतों का हितैषी मानते थे। जिस समय सम्राट अशोक ने कलिंग की विजय की थी, उसके पास असीम साधन एवं शक्ति थी और यदि वह चाहते तो उसे विश्व विजय के कार्य में लगा सकते थे। परन्तु सम्राट का कोमल हृदय मानव जाति के कल्याण के लिये द्रवित हो उठा और उन्होंने शक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँच कर विजय कार्यों से पूर्णतया विमुख हो गये। यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक और क्रांतिकारी घटना है जो विश्व इतिहास में अपनी सानी नहीं रखती।

अशोक का धम्म

अशोक ने बौद्ध धर्म के उपासक स्वरूप को ग्रहण किया और उसके प्रचार-प्रसार में अपने विशाल साम्राज्य के सभी साधनों को लगा दिया। इस प्रचार कार्य के फलस्वरूप बौद्ध धर्म जो तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व में मगध के इर्द-गिर्द ही फैला था, न केवल सम्पूर्ण भारतवर्ष एवं लंका में विस्तृत हुआ, अपितु पश्चिमी एशिया, पूर्वी यूरोप तथा उत्तरी अफ्रीका तक फैल गया। इस प्रकार अशोक ने अपने अदम्य उत्साह से एक स्थानीय धर्म को विश्वव्यापी धर्म बना दिया।

धर्म सहिष्णु शासक

परन्तु जब हम अन्यान्य धर्मों के प्रति अशोक के व्यवहार पर दृष्टिपात करते हैं तब हमें इस प्रियदर्शी सम्राट के उस दुर्लभतम् गुण के साक्षात्कार होता तारा जो रोमांचकारी है। क्योंकि जहाँ एक ओर वैश्विक इतिहास धर्मांध शासकों से भरा पड़ा है वहीं अशोक के अभिलेख इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वह किसी के साथ व्यवहार के स्तर पर भेदभाव से परे थे। जहाँ वे तथागत और त्रिरत्नों में आस्था प्रकट करते हैं वहीं हम पाते हैं कि वे धर्ममहामात्रों को “ब्राह्मणों, आजीवकों, निर्ग्रंथों और विविध सम्प्रदायों की व्यवस्था” का निदेश देते हैं। जहाँ वे विविध बौद्ध स्तूपों का निर्माण कराते हैं तो साथ ही आजीवकों के लिए गुहा निर्माण भी कराते हैं।

बौद्ध धर्म के प्रति उनके अदम्य उत्साह ने उसे अन्य धर्मों के प्रति क्रूर अथवा असहिष्णु नहीं बनाया। उसने कभी भी अपने धर्म को बलात् किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया। इतिहास के पृष्ठों में ऐसे व्यक्तित्व विरले ही मिलते हैं। अशोक ने विश्व बन्धुत्व एवं लोक कल्याण का अपना संदेश दूर-दूर देशों तक फैलाया। अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में वह शान्ति, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की नीति के अनुशरणकर्ता थे, पुजारी थे।

अशोक ने ही सर्वप्रथम विश्व को ‘जिओ और जीने दो’ (Live and Let Others Live) तथा राजनीतिक हिंसा धर्म विरुद्ध है (Political Violence is against Dharma) का पाठ पढ़ाया। अशोक के पूर्व ऐसी नीति नहीं अपनायी गयी। अशोक ने कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित लौह विजय के सिद्धान्त को उलट दिया।

“राधाकुमुद मुकर्जी के शब्दों में “अशोक इतिहास में शान्ति एवं विश्व बन्धुत्व के अन्वेषकों में सर्वप्रमुख है। इस दृष्टि से वह न केवल अपने समय से अपितु आधुनिक समय से भी बहुत आगे था, जो अब भी इस आदर्श को कार्यान्वित करने के लिये संघर्ष कर रहा है।”

“Ashok stands out as a pioneer of peace and universal brotherhood in history and was far ahead not merely of his own times, but even of modern age still struggling to realize this ideal.  — The Age of Imperial Unity, p. 83 : R. K. Mukherjee.

कुछ विद्वानों ने अशोक को धार्मिक तथा शान्तिवादी नीति को यह कहकर आलोचना की है कि उसने मगध साम्राज्य की सैनिक शक्ति को कुण्ठित कर दिया जिससे अन्ततः उसका पतन हुआ। परन्तु उसकी धार्मिकता एवं शान्तिवादिता की नीति से मगध को सैनिक कुशलता का किसी भी प्रकार से ह्रास नहीं हुआ। उसने सैनिकों को धर्म-प्रचार के काम में लगा दिया हो इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता है। अशोक ने शान्तिवादी नीति का इसलिए अनुसरण किया कि उसके साम्राज्य में पूर्णरूपेण शान्ति और समरसता का वातावरण व्याप्त था तथा साम्राज्यकी बाह्य सीमायें भी पूर्णतया सुरक्षित थीं। सीमान्त एवं जंगली जातियों को वह जिन कड़े शब्दों में अपनी सैनिक शक्ति का स्मरण दिलाते हुए चेतावनी देता है उससे स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि साम्राज्य को सैनिक शक्ति यथावत् विद्यमान थी। केवल युद्ध तथा विजयें ही किसी सम्राट की महानता का कारण नहीं बनतीं, बल्कि वह शान्ति के कार्यों से भी समान रूप में महान बन सकता है।

विभिन्न शासकों से तुलना

विश्व इतिहास में अनेक विजेता शासक हुये हैं जिनकी कृतियों से इतिहास के पन्ने लहूलुहान हैं। इनमें सिकन्दर, सीजर, नेपोलियन आदि के नाम अग्रगण्य है। यह सही है कि ये तीनों योद्धा एवं प्रशासक के रूप में अशोक से बढ़कर थे। किन्तु किसी सम्राट की महानता का मानदण्ड मात्र युद्ध तथा साम्राज्य विस्तार नहीं होता हैं। वह मानवता के प्रति अपने दृष्टिकोण तथा उसके लिये किये गये अपने कार्यों के कारण महान बनता है। ये तीनों विजेता क्रूर, निर्दयी एवं रक्त-पिपासु थे। उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य उनके साथ ही छिन्न-भिन्न हो गया तथा मानव जाति के लिये इन विश्व विजेताओं की स्थायी देन कुछ भी नहीं है। इतिहासकार एच० जी० वैल्स महोदय ने इन तीनों विजेताओं का बड़ा ही तार्किकमूल्यांकन किया है।

सिकन्दर के विषय में वे लिखते हैं, ‘ज्यों-ज्यों उसकी शक्ति बढ़ी त्यों-त्यों उसकी मदान्धता और प्रचण्डता भी बढ़ती गयी। वह खूब शराब पीता था तथा निर्दयतापूर्वक हत्या करता था। बेबीलोन में एक लम्बी पान गोष्ठी के बाद उसे अचानक बुखार आ गया तथा तैंतीस वर्ष की आयु में ही वह चल बसा। लगभग तुरन्त ही उसका साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होने लगा…।’

इसी प्रकार सीजर ‘अत्यन्त लम्पट तथा उच्छृंखल व्यक्ति था। जिस समय वह अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था तथा विश्व का भला कर सकता था उस समय लगभग एक वर्ष तक मिस्र में क्लियोपेट्रा के साथ रंगरेलिया मनाता रहा, यद्यपि उसकी आयु चौवन वर्ष की थी। इससे तो वह निम्न कोटि का विषयासक्त व्यक्ति दिखायी देता है न कि श्रेष्ठ शासक।’

जहाँ तक नेपोलियन का प्रश्न है उसके विषय में भी वेल्स महोदय सही सोचते हैं कि ‘यदि उसमें तनिक भी दृष्टि की गम्भीरता, सृजनात्मक कल्पना शक्ति तथा निःस्वार्थ आकांक्षा रही होती तो उसने मानव जाति के लिये ऐसा काम किया होता जो इतिहास में उसे सूर्य बना देता। उसने अपने देश का चाहे जितना भी भला किया हो, मानव जाति के प्रति उसके आभार प्रायः शून्य है।’

जब हम अशोक के व्यक्तित्व को देखते हैं तो उसमें उपर्युक्त शासकों के कोई भी दुर्गुण देखने को नहीं मिलते। यह अशोक ही है जिसकी लोकोपकारी कृतियों एवं उदात्त आदर्शों के प्रति आज भी विश्व में बड़ा सम्मान है। निःसन्देह अशोक अपनी प्रजा के भौतिक एवं आत्मिक कल्याणार्थ किये गये अपने कार्यों के कारण विश्वव्यापी एवं शाश्वत यश का अधिकारी है।

विभिन्न विद्वानों ने अशोक की तुलना विश्व इतिहास की भिन्न-भिन्न विभूतियों कॉन्स्टेनटाइन, एन्टोनिसस, अकबर, सेन्ट पाल, नेपोलियन, सीजर के साथ की है, परन्तु इनमें से कोई भी उसकी बहुमुखी प्रतिभा की बराबरी में नहीं टिक सकता।

रिजडेविड्स अशोक की तुलना कॉन्स्टेनटाइन से करते हैं। अशोक तथा रोमन सम्राट कॉन्स्टेनटाइन में मात्र यहाँ समानता है कि अशोक ने जिस प्रकार बौद्ध धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार किया, उसी प्रकार कॉन्स्टेनटाइन ने भी ईसाई धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार करवाया था। किन्तु उसके उदय के पूर्व ही ईसाई धर्म रोमन साम्राज्य में काफी लोकप्रिय हो चुका था और उसे अपनाना कॉन्स्टेनटाइन की विवशता थी। उसने राजनीतिक कारणों से उत्प्रेरित होकर इस धर्म को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया था जबकि अशोक के धर्म के पीछे कोई राजनैतिक चाल नहीं थी। अशोक की सहिष्णुता सच्चे हृदय की प्रेरणा थी। कॉन्स्टेनटाइन अपने जीवन के अन्तिम दिनों में प्रतिक्रियावादी होकर पेगनवाद की ओर उन्मुख हुआ और उसका धर्म एक ‘अजीब खिचड़ी’ हो गया। इसके विपरीत अशोक में कोई ऐसी गिरावट नहीं दिखायी देती।

इसी प्रकार मेकफेल अशोक की तुलना एक अन्य रोमन सम्राट मार्कस ऑरेलियस एंटोनियस के साथ करते है। इसमें संदेह नहीं कि एन्टोनियस एक महान दार्शनिक था तथा मानसिक संस्कृति की दृष्टि से अशोक से बढ़कर था। किन्तु जैसा कि भण्डारकर महोदय ने बताया है कि ‘आदर्श को उदात्तता और अविभ्रान्त तथा सम्यग्योजित उत्साह की दृष्टि से अशोक रोमन सम्राट से कहीं ऊपर था [अशोक (हिन्दी संस्करण), पृष्ठ-१९६]। वह ईसाई धर्म के प्रचार को रोमन समृद्धि के लिये घातक समझता था और इस कारण उसने ईसाइयों पर व्यवस्थित ढंग से अत्याचार भी किये। दूसरी ओर अशोक में धार्मिक कट्टरता अथवा असहिष्णुता का नितान्त अभाव था। ऐसी स्थिति में अशोक का स्थान एन्टोनियस से कहाँ ऊँचा है।

अनेक इतिहासविद् अशोक की तुलना मुगल सम्राट अकबर से करना पसन्द करते हैं। निःसन्देह अकबर में धार्मिक सहिष्णुता थी तथा वह भी सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का कल्याण करना चाहता था। विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदाओं को अच्छी-अच्छी बातों को ग्रहण कर अकबर ने आम जनता के कल्याण के लिये ‘दीन-ए–इलाही’ नामक नया धर्म चलाया। किन्तु जैसा कि भण्डारकर महोदय ने स्पष्ट किया है कि अकबर सबसे पहले एक राजनीतिक तथा दुनियावी व्यक्ति था तथा धार्मिक सत्य के लिये अपनी सम्राटता को खतरे में डालने को तैयार न था। जब उसने देखा कि धर्म में उसको नयी बातें प्रचलित करने से मुसलमानों में विद्रोह पैदा हो रहा है तब उसने धार्मिक वाद-विवाद बन्द करवा दिया। वह सबके प्रति साहिष्णु भी नहीं था तथा उसने इलाही सम्प्रदाय के अनुयायियों को पकड़वाकर सिन्ध और अफगानिस्तान में निर्वासित कर दिया। अकबर में अशोक जैसा धार्मिक उत्साह भी नहीं था। इसी कारण उसका धर्म राज दरबार के बाहर नहीं जा सका तथा उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। दूसरी ओर अशोक में कहीं भी असहिष्णुता नहीं दिखाई देती। उसका धर्म भी उसके साथ समाप्त नहीं हुआ तथा वह विश्व धर्म बन गया। नीलकंठ शास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि ‘अशोक को अकबर की अपेक्षा मानव प्रकृति का बेहतर ज्ञान था।’ इस प्रकार कहा जा सकता है कि अशोक अकबर की अपेक्षा कहीं अधिक महान था।

मैकफेल ने अशोक के संदर्भ में सेन्ट पाल का नाम लिया है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक महान् व्यक्ति है उसी प्रकार ईसाई धर्म के इतिहास में सेन्ट पाल महान है। दोनों ने अपने-अपने धर्मों को आम जनता के लिये कल्याणकारी बना दिया। किन्तु इसके आगे दोनों में कोई समानता नहीं मिलती। इसी प्रकार अशोक की तुलना एल्फ्रेड शार्लमेन, उमर खलीफा आदि शासकों से भी की गयी है किन्तु इनमें से कोई भी अशोक जैसी बहुमुखी प्रतिभा का धनी नहीं लगता। लोक-प्रसिद्ध इतिहासकार एच० जी० वेल्स की अग्रलिखित पंक्तियों अशोक के व्यक्तित्व एवं चरित्र का सही मूल्यांकन करती है— “इतिहास के स्तम्भों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, सन्त-महात्माओं आदि के बीच अशोक का नाम प्रकाशमान है और आकाश में प्रायः एकाकी तारा को तरह चमकता है। वोल्गा से जापान तक आज भी उसके नाम का सम्मान किया जाता है। चीन, तिब्बत और भारत भी, यद्यपि उसने उसके सिद्धान्त त्याग दिये है, उसकी महानता की परम्परा बनाये हुए हैं। जितने लोगों ने कॉन्सटेनटाइन या शार्लमेन का कभी नाम सुना है उससे भी अधिक लोग आज आदरपूर्वक उसका स्मरण करते हैं।”

“Amidst the tens thousands of names of monarchs that crowd the columns of history, their majesties and graciousness and serenities and royal highness and the like, the name of Ashoka shines almost alone as a star. From Volga to Japan his name is still honoured. China, Tibet and even India, though it has left his doctrine, preserve the tradition of his greatness. More living men cherish his memory today than have ever heard the name of Constantine and Charlemagne.” — Outlines of History, p. 212.

इसी प्रकार चार्लस इलियट ने लिखा है “पवित्र सम्राटों की दीर्घा में वह अकेला ही खड़ा है, शायद एक ऐसे व्यक्ति के समान जिसका अनुराग संतुलित, दयावान एवं सुखद जीवन के लिये था। वह न तो महान् रहस्यों का आकांक्षी था न ही अपनी आत्मा में लवलीन था अपितु मानव तथा पशु का एक हितैषी मात्र था।”

In the gallery of pious Emperors, Ashoka stands isolated as perhaps the one man whose only passion was for a sane, kindly and human life, neither too curious of great mysteries nor preoccupied with his own soul but simply the friend of man and beast.” — Hinduism and Buddhism, p. 273.

आर० सी० दत्त ने अशोक को भारत का महानतम सम्राट बताते हुए लिखा है “भारत के किसी सम्राट ने, यहाँ तक कि विक्रमादित्य ने भी इतनी विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं की तथा किसी ने भी धार्मिकता तथा सदाचार के प्रति अपने उत्साह के कारण विश्व इतिहास पर इतना अधिक प्रभाव उत्पन्न नहीं किया।”

“No monarch of India, not even the Vikramaditya, has such a worldwide reputation and none has executed such influence over the history of the world by his zeal for his righteousness and virtue.” — Civilization in the Buddhist Age, p. 88.

अशोक विश्व इतिहास के महानतम् सम्राटों में अग्रणी स्थान रखते हैं। उसका शासनकाल “राष्ट्रों के इतिहास का एक विरल और तेजोमय युग का प्रतिनिधित्व करता है।”

अशोक प्रियदर्शी के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि बौद्ध धर्म में अपनी आस्था के साथ-साथ उन्होंने शासक के रूप में अपने कर्तव्यों के निर्वहन की कभी अवहेलना नहीं की और अपना बौद्ध धर्म अपनी प्रजा पर नहीं थोपा। सम्राट अशोक की महानता यही थी कि वह जीवन-मूल्यों में विश्वास रखते थे और सदा उनका पालन करते थे। एक राजा के रूप में अपने कर्तव्यों तथा दायित्वों को समझना और फिर उत्साहपूर्वक उनका निर्वाह करने में सफलता प्राप्त करना ही उनकी महानता के ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।

संभवतया आज तक किसी भी अन्य शासक ने राजा और प्रजा के बीच के संबंधों को इतनी सरल और उदात्त भाषा में अभिव्यक्त नहीं किया। कलिंग के पृथक दो अभिलेखों में यह सुरक्षित है कि, “सारी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिये इस जीवन में और अगले जीवन में भी सुख-समृद्धि की कामना करता हूँ, वैसी ही कामना मैं सभी प्रजाजनों के लिए भी करता हूँ।”

मानवता के इतने लंबे इतिहास में केवल अशोक ही एक ऐसा अकेले राजा हुए हैं, जिन्होंने अपने द्वारा पराजित लोगों से इस बात के लिये क्षमा माँगी कि उसने उनके विरुद्ध युद्ध करके उन्हें कष्ट और दुख पहुँचाया। १३वाँ बृहद् शिलालेख एक ऐसा मर्मस्पर्शी प्रलेख है जो अशोक जैसे महान और उदारचेता मानव द्वारा ही लिखवाया जा सकता था।

निष्कर्ष

इस प्रकार विश्व इतिहास में अशोक का स्थान सर्वथा बेजोड़ है। सही अर्थों में वह प्रथम राष्ट्रीय शासक था। जब हम देखते हैं कि आज भी विश्व के देश हथियारों की होड़ रोकने तथा युद्ध की विभीषिका को टालने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहने के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे हैं तथा मानवता के लिए परमाणु-युद्ध का गम्भीर संकट बना हुआ है, तब अशोक के कार्यों की महत्ता स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है। अशोक के उदात्त आदर्श विश्व शान्ति को स्थापना के लिये आज भी हमारा मार्गदर्शन करते हैं। स्वतन्त्र भारत ने सारनाथ स्तम्भ के सिंह शीर्ष को अपने राजचिह्न के रूप में ग्रहण कर मानवता के इस महान पुजारी के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित की है।

अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)

कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)

अशोक का धम्म

अशोक का साम्राज्य विस्तार

अशोक की परराष्ट्र नीति

मौर्य ‘अमित्रघात’ ( २९८ ई०पू० – २७२ ई०पू )

चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य

मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top