अर्थशास्त्र : आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) की रचना

भूमिका

अर्थशास्त्र हिन्दू राजशासन या राजव्यवस्था की प्राचीनतम् रचना है। इसकी रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु और मंत्री आचार्य चाणक्य ने की थी। इसमें १५ अधिकरण, १८० प्रकरण और ६,००० श्लोक हैं।

अर्थशास्त्र ( १५ / १ ) में इसको इस तरह परिभाषित किया गया है –

“मनुष्यों की वृत्ति को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों से संयुक्त भूमि ही अर्थ है। उसकी प्राप्ति तथा पालन के उपायों की विवेचना करने वाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।”

अर्थशास्त्र : के रचनाकार पर विवाद

‘दुर्भाग्यवश ‘अर्थशास्त्र’ के रचना-काल तथा उसके रचयिता के विषय में बड़ा भारी मतभेद रहा है। जॉली, कीथ, विन्टरनित्ज जैसे कुछ विद्वान् इसे कौटिल्य की रचना नहीं मानते। इसके विपरीत शामशास्त्री, जैकोबी, स्मिथ, काशी प्रसाद जायसवाल आदि इस ग्रन्थ को कौटिल्य की ही कृति मानते हैं।

जो विद्वान अर्थशास्त्र को कौटिल्य की रचना स्वीकार नहीं करते उनके तर्क मुख्य इस प्रकार है

१. अर्थशास्त्र में मौर्य साम्राज्य तथा शासनतन्त्र का कोई उल्लेख नहीं मिलता जबकि यूनानी स्रोत इसके ऊपर विस्तार से प्रकाश डालते हैं।

२. यह नगर प्रशासन तथा सैन्य प्रशासन की परिषदों का कोई उल्लेख नहीं करता। इसमें विदेशी नागरिकों के आचरण तथा उनकी देख-रेख के लिये भी कोई नियम निर्धारित नहीं किये गये हैं।

३. इस ग्रन्थ में कौटिल्य के विचार ‘अन्य पुरुष’ शैली ‘इति कोटिल्य’ में व्यक्त किये गये हैं। यदि कौटिल्य स्वयं इस ग्रन्थ का रचयिता होते तो इस प्रकार लिखने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

४. कौटिल्य के नाम का उल्लेख मेगस्थनीज नहीं करते जो चन्द्रगुप्त के दरबार में रहे थे। इस प्रकार उसकी ऐतिहासिकता ही संदिग्ध है।

५. पतंजलि ने भी, जो मौर्य शासन से परिचित थे, उनका नामोल्लेख नहीं किया है।

परन्तु यदि हम गहराई से उपर्युक्त तर्कों की समीक्षा करें तो ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें कोई बल नहीं है। हम कौटिल्य की ऐतिहासिकता एवं अर्धशास्त्र को उसकी रचना होने के पक्ष में निम्नलिखित बातें कहते हैं-

  • अर्थशास्त्र एक असाम्प्रदायिक रचना है जिसका मुख्य विषय सामान्य राज्य एवं उसके शासनतन्त्र का विवरण प्रस्तुत करना है। इसमें चक्रवर्ती सम्राट का अधिकार क्षेत्र हिमालय से लेकर समुद्र तट तक बताया गया है जो इस बात का सूचक है कि कौटिल्य विस्तृत साम्राज्य से परिचित थे।
  • अर्थशास्त्र मुख्यतः विभागीय अध्यक्षों का ही वर्णन करता है। नगर तथा सेना की परिषदों के स्वरूप का अशासकीय होने के कारण इसमें उल्लेख नहीं मिलता।
  • भारतीय लेखकों में अपने नाम का उल्लेख अन्य पुरुष में करने की प्रथा रही है। अतः यदि अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने अपना उल्लेख अन्य पुरुषों में किया है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह स्वयं इस ग्रन्थ का रचयिता नहीं थे।
  • मेगस्थनीज का सम्पूर्ण विवरण हमें उपलब्ध नहीं होता। सम्भव है कौटिल्य का उल्लेख उन अंशों में हुआ हो जो अप्राप्य है।
  • पतंजलि ने बिन्दुसार और अशोक के नाम का भी उल्लेख नहीं किया है। तो क्या इन दोनों को अनैतिहासिक माना जा सकता है। उनका उद्देश्य पाणिनि तथा कात्यायन के सूत्रों की व्याख्या करना था, न कि इतिहास लिखना।
  • कौटिल्य जिस समाज का चित्रण करते हैं उसमें नियोग प्रथा, विधवा विवाह आदि का प्रचलन था। यह प्रथा मौर्ययुगीन समाज में थी।
  • उन्होंने ‘युक्त’ शब्द का प्रयोग अधिकारी के अर्थ में किया है। यही शब्द अशोक के लेखों में भी आया है।
  • इसमें मद्र, कम्बोज, लिच्छवि, मल्ल आदि गणराज्यों का भी उल्लेख हुआ है जो इस बात के सूचक हैं कि यह ग्रन्थ मौर्य युग के प्रारम्भ में लिखा गया था।
  • इसी प्रकार अर्थशास्त्र में बौद्धों के प्रति भी बहुत कम सम्मान प्रदर्शित किया गया है तथा लोगों को अपने परिवार के पोषण की व्यवस्था किये बिना सन्यास ग्रहण करने से रोका गया है। इससे यही सूचित होता है कि बौद्धधर्म के लोकप्रिय होने के पूर्व ही यह ग्रन्थ लिखा गया था।
  • यहाँ उल्लेखनीय है कि कौटिल्य तथा मेगस्थनीज के विवरणों में कई समानतायें भी हैं।
  • मेगस्थनीज के समान कौटिल्य भी लिखते है कि जब चन्द्रगुप्त आखेट के लिये निकलते थे तो उसके साथ राजकीय जुलूम चलता था तथा सड़कों की कड़ी सुरक्षा रखी जाती थी।
  • दोनों हमें बताते हैं कि सम्राट की अंगरक्षक महिलायें होती थी।
  • वह ( सम्राट ) अपने शरीर का मालिश करवाता था।
  • मेगस्थनीज के ओवरसोयर्स अर्थशास्त्र के गुप्तचर है।
  • इसी प्रकार मेगस्थनीज द्वारा उल्लिखित कुछ अधिकारी अर्धशास्त्र के अध्यक्षों से मिलते-जुलते है।
  • सामान्यतः हम कह सकते हैं कि दोनों के द्वारा प्रस्तुत प्रशासनिक एवं सामाजिक व्यवस्था का स्वरूप अधिकांश अंशों में समानता रखता है।

इस विवरण से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र मौर्य काल की रचना है तथा इसमें चन्द्रगुप्त के प्रधानमन्त्री कौटिल्य के ही विचार स्वयं उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं। कालान्तर में अन्य लेखकों द्वारा इस ग्रन्थ में कुछ प्रक्षिप्तांश जोड़ दिये गये जिससे मूल ग्रन्थ का स्वरूप परिवर्तित सा हो गया। अतः मूल ग्रन्थ को हम चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में रख सकते हैं। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्रन्थ के अन्त में कहा गया है कि उसकी रचना उस व्यक्ति ने की है जिसने कोध के वशीभूत होकर शस्त्र, शास्त्र तथा नन्दराज के हाथ में गयी हुई पृथ्वी का शीघ्र उद्धार किया।*

येन शस्त्रं च शास्त्रं च नन्दराजगता च भूः।

अमर्णेणोद्धृतान्यान्शु तेन शास्त्रमिदं कृतम्॥*

कौटिल्य द्वारा नन्दों का विनाश एक ऐसी ऐतिहासिक परम्परा है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते। अतः अर्थशास्त्र को उसकी रचना मानने में किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं हैं।

अर्थशास्त्र के वर्ण्य विषय

क्र० सं० अधिकरण का नाम विवरण
१. विनयाधिकरण प्रथम अधिकरण का नाम विनयाधिकारिक दिया गया है। विनय का अर्थ है, राजा द्वारा किया जानेवाला कार्य-व्यवहार। इस अधिकरण को कौटिल्य ने २० अध्यायों में बाँटा है, जिनके प्रमुख विषय इस प्रकार हैं

  • विद्याविषयक विचार एवं आत्म-विद्या का महत्त्व वेद-विद्या महत्त्व का प्रतिपादन।
  • विद्या के अंतर्गत कृषि, पशुपालन और दण्डनीति के महत्त्व की चर्चा अर्थात् चार विद्याओं- आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्त्ता और दंडनीति — में से वार्त्ता और दंडनीति का विवेचन।
  • वृद्ध आयु, बल, बुद्धि तथा अनुभव आदि में ज्येष्ठ-श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से होनेवाले लाभ आदि का परिचय।
  • पाँच ज्ञानेंद्रियों एवं पाँच कर्मेंद्रियों पर विजय प्राप्ति के रूप में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और हर्ष प्रभृति षट् शत्रुओं का परित्याग।
  • साधु स्वभाववाले राजा की जीवनचर्या।
  • अमात्यों की नियुक्ति से सम्बन्धित निर्देश, मंत्रियों तथा पुरोहित की नियुक्ति।
  • अमात्यों के आचरण की परीक्षा के गुप्त उपाय।
  • गुप्तचरों की नियुक्ति। भ्रमणशील गुप्तचरों की नियुक्ति।
  •  कृत्य-अकृत्य पक्ष की सुरक्षा।
  • शत्रु पक्ष के असंतुष्ट प्रजाजनों को अपने अनुकूल बनाना।
  • मंत्रणा संबंधी उपाय।
  • राजदूतों की नियुक्ति।
  •  राजपुत्रों से राजा की रक्षा के उपाय। बंदी बनाये गये राजकुमार के व्यवहार का वर्णन।
  • राजा के करणीय कार्य-व्यापार।
  • राजप्रासाद का निर्माण तथा राजा के कर्तव्य।
  • राजा के जीवन की रक्षा की व्यवस्था।
२. अध्यक्षप्रचार ‘अर्थशास्त्र’ का दूसरा अधिकरण है अध्यक्ष प्रचार, जिसमें जनपदों की स्थापना से लेकर नागरिकों के कर्तव्य तक के विषय ३६ अध्यायों में इस प्रकार विभाजित हैं —

  • जनपदों की स्थापना।
  • ऊसर भूमि के उपयोग।
  • दुर्गों के निर्माण का विवरण।
  • दुर्ग से जुड़े राजभवनों तथा महत्त्वपूर्ण स्थानों के निर्माण।
  • कोषगृह का निर्माण और कोषाध्यक्ष के कर्तव्य।
  • समाहर्ता के कर-संग्रह संबंधी कार्य का विवेचन।
  • लेखपाल के कर्त्तव्य कर्मों का विवरण।
  • अध्यक्षों द्वारा गबन किया गये धन को वसूलने के उपाय।
  • राज्य के उच्चाधिकारियों के चरित्र की जाँच।
  • शासन का अधिकार।
  • कोष में रखने योग्य रत्नों की परीक्षा, खानों तथा खनिज पदार्थों की पहचान और उनके विक्रय की व्यवस्था।
  • अक्षशाला में सुवर्णाध्यक्ष के कर्तव्य।
  • राज्य से सम्बन्धित स्वर्णकारों के कर्तव्य।
  • ‘कोष्ठागार के अध्यक्ष के कर्तव्य।
  • वाणिज्य अधिकारी के कर्तव्य।
  • कुप्य के अध्यक्ष के कर्तव्य।
  • शस्त्रभंडार के अध्यक्ष के कर्तव्य।
  • तौल और माप के जाँच अधिकारी के कर्त्तव्य।
  • देश और काल का मान।
  • शुल्क वसूली करनेवाले अधिकारी के कर्त्तव्य।
  • कर वसूली के नियम।
  • सूत-व्यवसाय के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • कृषि विभाग के अध्यक्ष
  • आबकारी विभागाध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • वधस्थान के अध्यक्ष के कर्तव्य कर्त्तव्य।
  • वेश्यालयों के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • नौकाध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • पशुविभाग के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • अश्वविभाग के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • गजशाला के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • गजशाला के अध्यक्ष तथा गजों की विभिन्न श्रेणियाँ।
  • रथसेना तथा पैदलसेना के सेनापतियों तथा प्रधान सेनापति के कर्त्तव्य।
  • मुद्राविभाग तथा चारागाह विभाग के अध्यक्ष के कर्त्तव्य।
  • समाहर्ता तथा विभिन्न गुप्तचरों के कर्त्तव्य।
  • नागरिक (नगर-निगम अध्यक्ष) के कर्त्तव्य।
३. धर्मस्थीयाधिकरण तृतीय अधिकरण में धर्मस्थीय विषयों का विवेचन किया गया है, जिनमें विवाह, विवाह सम्बन्ध, संपत्ति, ऋण, श्रम, क्रय-विक्रय आदि प्रमुख प्रकरण इस प्रकार समाहित हैं —

  • लेन-देन के सहमति-पत्रों का लेखन तथा व्यवहार संबंधी विवादों का निपटान।
  • विवाह सम्बन्ध, धर्मविवाह, स्त्रीधन तथा पुनर्विवाह का अधिकार। 
  • संपत्ति के उत्तराधिकार के सामान्य नियम।
  • पैतृक संपत्ति में विशेषाधिकार का क्रम।
  • पिता की संपत्ति में पुत्र के उत्तराधिकार का क्रम।
  • गृह निर्माण सम्बन्धी विधान।
  • आवास-भवनों के क्रय-विक्रय, खेतों की सीमा सम्बन्धी विवाद तथा कर में छूट का निर्णय।
  • वास्तुक के अंतर्गत दंड-व्यवस्था।
  • ऋण का आदान (लेना)।
  • धरोहर रखने के नियम।
  • सेवक और श्रमिक रखने के नियम।
  • श्रम के नियम और भागीदारी।
  • क्रय-विक्रय में पेशगी देने के नियम :

(क) दान का संकल्प करके धन न देना।

(ख) स्वामी न होते हुए भी स्वामित्व जतलाना तथा

(ग) स्वामित्व के निर्णय का आधार।

  • खुलेआम दुराचरण करना।
  • वाणी की कठोरता।
  • दंड की कठोरता।
  • द्यूत-क्रीड़ा तथा अन्य फुटकर विषय।
४. कंटकशोधन चतुर्थ अधिकरण कंटकशोधन है, इसमें राज्य में व्याप्त विभिन्न धूर्तताओं, ठगी, चोरी आदि अपराधों, उनकी छान-बीन एवं दंड निर्धारण का निरूपण है। ये विषय इस प्रकार हैं —

  • शिल्पियों की धूर्तता से प्रजाजनों का बचाव।
  • व्यापारियों की ठगी से प्रजा के बचाव के उपाय।
  • दैवी आपत्तियों से प्रजा की रक्षा।
  • गुप्त षड्यंत्र करनेवालों से प्रजा की रक्षा के उपाय।
  • सिद्धवेशधारी गुप्तचरों द्वारा दुष्टों अथवा देशद्रोहियों का दमन।
  • शंकित पुरुष की, चोर की व चोरी माल की पहचान।
  • अकस्मात् मृत्यु के कारणों की जाँच-परख।
  • गाली-गलौच तथा दंड के द्वारा अपराध स्वीकृत कराना।
  • सरकारी विभागों एवं छोटे-बड़े कर्मचारियों की निगरानी।
  • अंग-भंग करनेवाले व्यक्ति का अंग-भंग करना अथवा अर्थदंड देना।
  • शुद्ध दंड और चित्र दंड का विधान।
  • अविवाहित कन्या से सहवास का दंड।
  • अत्याचार का दंड।
५. वृत्ताधिकरण पंचम अधिकरण की संज्ञा है, योगवृत्त। यह अधिकरण ज्यादा बड़ा नहीं है। इसमें राजद्रोह, कोष संचय, राजकर्मचारियों के प्रति राजा का व्यवहार आदि का विशेष उल्लेख है क्रमानुसार प्रकरण इस प्रकार हैं —

  • राजद्रोह का दण्ड।
  • कोष के आधिकारिक संग्रह का महत्त्व।
  • सेवकों का भरण-पोषण।
  • राजकर्मचारियों का राजा के प्रति व्यवहार।
  • व्यवस्था का यथोचित पालन।
  • विपत्तिकाल में राजपुत्र का अभिषेक तथा एकच्छत्र राज्य की स्थापना।
६. योन्याधिकरण षष्ठ अधिकरण में प्रकृतियों एवं षड्गुणों का वर्णन किया गया है। साथ ही शांति और उद्योग का महत्त्व बताया गया है। इस अधिकरण को मंडलयोनि नाम दिया गया है। इसमें दो ही प्रकरण हैं —

  • प्रकृतियों के गुणों का वर्णन।
  • शांति और उद्योग का महत्त्व।
७. षाड्गुण्य षष्ठ अधिकरण के ६ गुणों का विस्तार सप्तम् अधिकरण में किया गया है। इसलिए इसे षाड्गुण्य कहा गया है। इसमें निम्नलिखित १८ प्रकरण हैं —

  • छह गुणों का उद्देश्य, क्षय, स्थान तथा वृद्धि का निश्चय।
  • बलशाली का आश्रय।
  • हीन, सम व बलशाली राजाओं के चरित्र तथा हीन राजा के साथ संधि।
  • विग्रह तथा संधि करके आसन व यान का अवलंबन तथा पुनः अभियान।
  • यान, प्रकृतिमंडल के क्षय, लोभ तथा विराग के कारणों व सहयोगियों भाग आदि पर विचार।
  • सामूहिक प्रयाण व देश, काल एवं कार्य के अनुसार संधियाँ।
  • द्वैधीभाव से सम्बंधित संधि और विक्रम।
  • यातव्य-सम्बन्धी व्यवहार तथा अनुग्रह करनेवाले मित्रों के प्रति कर्त्तव्य।
  • मित्रसंधि, हिरण्यसंधि तथा भूमिसंधि।
  • भूमि की संधि।
  • अनिश्चित संधि।
  •  कर्मसंधि।
  • पार्ष्णि (पिछलग्गू) संबंधी विचार।
  • दुर्बल राजा द्वारा शक्ति संचय के उपाय।
  • बलवान और विजित शत्रु के साथ व्यवहार।
  • विजित के प्रति विजेता का व्यवहार।
  • संधिकर्म और संधिमोक्ष।
  • मध्यम, उदासीन और मंडल राजाओं का चरित।
८. व्यसनाधिकरण अष्टम अधिकरण का नाम व्यसनाधिकारिक है। इसमें  युवराज, अमात्य आदि के व्यसन एवं उनके प्रतिकार आदि का उल्लेख किया गया है। इसमें कुल ५ अध्याय हैं —

  • युवराज, अमात्य आदि के व्यसन व उनके प्रतिकार।
  • राजा व राज्य के व्यसनों का विवेचन।
  • सामान्य पुरुषों पर आनेवाले संकट।
  • पीड़नवर्ग, स्तंभवर्ग तथा कोष-संगवर्ग ।
  • सेना व मित्र-सम्बन्धी व्यसन।
९. अभियास्यत्कर्माधिकरण राजनीतिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण अधिकरण है। इसमें शक्ति, बलाबल, आक्रमण, सैन्य संग्रह एवं संगठन, अंतः एवं बाह्य संकट आदि के संदर्भ में चर्चा की गयी है। इसे अभियास्यत्कर्म कहा गया है। इसके प्रमुख प्रतिपाद्य इस प्रकार हैं —

  • शक्ति, देश व काल के बलाबल की तथा आक्रमण के समय की जानकारी।
  • सैन्य-संग्रह का समय, सैन्य संगठन के उपाय तथा शत्रुसेना का सामना करने की विधियाँ।
  • भीतर फैलनेवाले कोप के परिणाम को शमन करने के उपाय।
  • क्षय, व्यय व लाभ का विचार।
  • बाहरी व भीतरी संकट।
  • राजद्रोहियों व शत्रुओं द्वारा उत्पन्न संकट।
  • अर्थ, अनर्थ व संशय संबंधी आपत्तियाँ।
    • इनके प्रतिकार के उपाय।
    • इन उपायों से प्राप्त होनेवाली सिद्धियाँ।
१०. संग्रामाधिकरण यह अधिकरण संग्राम से सम्बन्धित है, इसलिए इसे सांग्रामिक कहा गया है। इसमें छावनी के निर्माण, सैन्य संचालन, युद्ध की तैयारी, सेनाओं के कर्तव्य, व्यूह रचना आदि का निरूपण किया गया है। इसके प्रमुख प्रतिपाद्य इस प्रकार हैं —

  • शिविर (छावनी) का निर्माण।
  • छावनी से प्रयाण तथा संकट एवं आक्रमण के समय सेना की सुरक्षा।
  • कूट युद्ध का विकल्प, अपनी सेना को प्रोत्साहन देना, अपनी तथा परायी सेना के प्रयोग।
  • युद्ध के लिये उपयुक्त भूमि तथा पदाति, अश्व, रथ व सेनाओं के कर्तव्य।
  • सेना के परिमाण के अनुसार व्यूह विभाग, सार सेना तथा फल्गु सेना का विभाजन एवं चतुरंगिणी सेना द्वारा युद्ध।
  • प्रकृतिव्यूह, विकृतिव्यूह व प्रतिव्यूह।
११. संघवृत्ताधिकरण केवल एक अध्याय—फूट डालनेवाले प्रयोग तथा गुप्त दंड में सिमटा यह अधिकरण संघवृत्त के नाम से जाना जाता है। इसमें फूट डालनेवाले प्रयोग तथा गुप्त दंड का विवेचन किया गया है।
१२. आबलीयसाधिकरण युद्ध जीतने के लिये उचित-अनुचित सभी तरह के विधानों का निरूपण इस अधिकरण के अंतर्गत मिलता है। आबलीयस नामक इस अधिकरण में ५ अध्याय हैं —

  • दूतकर्म।
  • मंत्रयुद्ध।
  • सेनापतियों की हत्या तथा राजमंडल की सहायता करना।
  • शस्त्र, अग्नि तथा रसों का प्रयोग और वीवध, आसार तथा प्रसार का नाश।
  • कपट उपायों, दंड-प्रयोगों तथा आक्रमण द्वारा विजय-लाभ।
१३. दुर्गलम्भोपायाधिकरण दुर्गलम्भोपाय नामक इस अधिकरण में विभिन्न उपायों से युद्ध जीतने और दुर्ग पर अधिकार करने के उपाय बताये गये हैं; जैसे —

  • दहशत गड़बड़ी फैलाना।
  • कपट उपायों द्वारा राजा को प्रलोभित करना।
  • गुप्तचरों का शत्रुदेश में निवास।
  • शत्रु के दुर्ग को घेरकर अपने अधिकार में करना।
  • विजित देश में शांति-स्थापना के उपाय।
१४. औपनिषदिकाधिकरण चतुर्दश अधिकरण औपनिषदिक नाम से जाना जाता है। इसमें शत्रु वध के उपाय और शत्रु द्वारा प्रयुक्त घातक प्रयोगों का निवारण प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं —

  • शत्रुवध के उपाय।
  • प्रलम्भन के अनोखे उत्पादन।
  • भैषज्य मंत्र-प्रयोग।
  • शत्रु द्वारा प्रयुक्त घातक प्रयोगों का निवारण।
१५. तंत्रयुक्त्यधिकरण पंद्रहवें अधिकरण को तंत्रयुक्ति कहा गया है, जिसमें राजनीतिशास्त्र सम्बन्धी युक्तियाँ बतायी गयी हैं। इसमें केवल एक अध्याय है —

  • राजनीतिशास्त्र की युक्तियाँ।

निष्कर्ष

अर्थशास्त्र में १५ अधिकरण तथा १८० प्रकरण है। इस ग्रन्थ में इसके श्लोकों की संख्या ६,००० बतायी गयी है। डॉ० शामशास्त्री के अनुसार वर्तमान ग्रन्थ में भी इतने ही श्लोक है।

  • प्रथम अधिकरण में राजस्व सम्बन्धी विविध विषयों का वर्णन है।
  • द्वितीय अधिकरण में नागरिक प्रशासन की विशद विवेचना की गयी है।
  • तृतीय तथा चतुर्थ अधिकरणों में दीवानी, फौजदारी तथा व्यक्तिगत कानूनों का उल्लेख मिलता है।
  • पञ्चम अधिकरण के अन्तर्गत सम्राट के सभासदों एवं अनुचरों के कर्तव्यों एवं दायित्वों का उल्लेख है।
  • छठे अधिकरण में राज्य के सप्तांगों स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, बल, कोष तथा मित्र के स्वरूप तथा कार्यों का वर्णन किया गया है।
  • अन्तिम दो अधिकरण राजा की विदेश नीति, सैनिक अभियान, युद्ध में विजय के उपाय, शत्रुदेश में लोकप्रियता प्राप्त करने के उपाय, युद्ध तथा सन्धि के अवसर आदि विविध विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन प्रस्तुत करते हैं।

इस प्रकार अर्थशास्त्र मुख्यतः शासन की व्यावहारिक समस्याओं से सम्बन्धित रचना है।

कौटिल्य के शासन का आदर्श बड़ा ही उदात्त था। उसने अपने ग्रन्थ में जिस विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया है उसमें प्रजा का हित ही राजा का चरम लक्ष्य है। वास्तव में यह ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था के ज्ञान के लिए बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार है।

कौटिल्य मात्र राजनीति विशारद ही नहीं था, अपितु वह राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादक भी थे। बाद के लेखकों ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक उसके नाम का उल्लेख किया है। राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में अर्थशास्त्र का वही स्थान है जो व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि को अष्टाध्यायी का है।

आचार्य चाणक्य

चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य

मौर्य राजवंश की उत्पत्ति या मौर्य किस वर्ण या जाति के थे?

मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top