चाणक्य और मैकियावेली

भूमिका

आचार्य चाणक्य ( लगभग ३७० ई० पू० – २८३ ई० पू० ) की तुलना अक्सर आधुनिक काल के इटली मैकियावेली ( १४६९ – १५२७ ई० ) से की जाती है। आचार्य चाणक्य की कृति अर्थशास्त्र और मैकियावेली की कृति प्रिंस के विवरणों के आधार पर यह तुलना होती है। मैकियावेली का पूरा नाम ‘निकोलो मैकियावेली’ ( Niccolo Machiavelli ) है और उनकी रचना ‘The Prince’ है।

चाणक्य और मैकियावेली

यह सत्य है कि कौटिल्य ने राष्ट्र की रक्षा के लिए गुप्त प्रविधियों के एक विशाल संगठन का वर्णन किया है। शत्रुनाश के लिये विषकन्या, गणिका, औपनिषदिक प्रयोग, अभिचार मंत्र आदि अनैतिक एवं अनुचित उपायों का विधान है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये महान धन-व्यय तथा धन-क्षय को भी ( सुमहताऽपि क्षयव्ययेन शत्रुविनाशोऽभ्युपगन्तव्यः) राष्ट्र- नीति के अनुकूल घोषित किया है।

‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में ऐसी चर्चाओं को देखकर ही मुद्राराक्षसकार कवि विशाखादत्त चाणक्य को कुटिलमति (कौटिल्य: कुटिलमतिः) कहा है और बाणभट्ट ने ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ को ‘निर्गुण’ तथा ‘अतिनृशंसप्रायोपदेशम्’ (निर्दयता तथा नृशंसता का उपदेश देने वाला) कहकर निन्दित बतलाया है। ‘मंजुश्री मूलकल्प’ नाम की एक नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक कृति में कौटिल्य को ‘दुर्मति’, क्रोधन और ‘पापक’ पुकारकर गर्हा का पात्र प्रदर्शित किया गया है।

प्राच्यविद्या के विशेषज्ञ अनेक आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने भी उपर्युक्त अनैतिक व्यवस्थाओं को देखकर कौटिल्य की तुलना यूरोप के प्रसिद्ध लेखक और राजनीतिज्ञ मैकियावेली से करते हैं, जिसने अपनी पुस्तक ‘द प्रिन्स’ में राजा को लक्ष्य-प्राप्ति के लिये उचित-अनुचित सभी साधनों का आश्रय लेने का उपदेश दिया है।

तुलना के आधार

विण्टरनिट्ज आदि पाश्चात्य विद्वान् कौटिल्य तथा मैकियावेली में निम्नलिखित समानताएँ बताते हैं —

(क) मेकियावली और कौटिल्य दोनों राष्ट्र को ही सब कुछ समझते हैं। दोनों राष्ट्र को अपने में ही उद्देश्य मानते हैं।

(ख) कौटिल्य-नीति का मुख्य आधार है, ‘आत्मोदयः परग्लानि;’ अर्थात् दूसरों की हानि पर अपना अभ्युदय करना है। मैकियावेली ने भी दूसरे देशों की हानि पर अपने देश की अभिवृद्धि करने का पक्ष-पोषण किया है। दोनों एक समान स्वीकार करते हैं कि इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये कितने भी धन तथा जन के व्यय से शत्रु का विनाश अवश्य करना चाहिए।

(ग) अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए किसी भी साधन नैतिक या अनैतिक, का आश्रय लेना अनुचित नहीं है। मैकियावेली और कौटिल्य दोनों का मत है कि साध्य को सिद्ध करना ही राजा का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। साधनों के औचित्य या अनौचित्य की उसे चिन्ता नहीं करनी चाहिए

(घ) दोनों युद्ध को राष्ट्र नीति का आवश्यक अंग मानते हैं। दोनों की सम्मति में प्रत्येक राष्ट्र को युद्ध के लिये उद्यत रहना चाहिए, क्योंकि इसी के द्वारा देश की सीमा तथा प्रभाव का विस्तार हो सकता है।

(ङ) अपनी प्रजा में आतंक स्थापित करके दृढ़ता तथा निर्दयता से उस पर शासन करना दोनों एक समान प्रतिपादित करते हैं। दोनों एक विशाल सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना का समर्थन करते हैं, जो प्रजा के प्रत्येक पार्श्व में प्रवेश करके राजा के प्रति उसकी भक्ति की परीक्षा करे और शत्रु से सहानुभूति रखने वाले लोगों को गुप्त उपायों से नष्ट करने का यत्न करे।

तुलना निराधार

कौटिल्य तथा मैकियावेली में ऐसी सदृशता दिखाना युक्तिसंगत नहीं। निस्सन्देह कौटिल्य भी मैकियावली के समान यथार्थवादी थे और केवल आदर्शवाद का अनुयायी नहीं थे, परन्तु यह कहना कि कौटिल्य ने धर्म या नैतिकता को सर्वथा तिलांजलि दे दी थी, सत्यता के विपरीत होगा। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अधिकरण में ही स्थापना की है;

तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।

स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति। (1/3)

अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भाँति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।

इसी प्रथम अधिकरण में ही राजा द्वारा अमर्यादाओं को व्यवस्थित करने पर भी बल दिया गया है और वर्ण तथा आश्रम-व्यवस्था को करने के लिये आदेश दिया गया है। यहाँ पर त्रयी तथा वैदिक अनुष्ठान को प्रजा के संरक्षण का मूल आधार बतलाया गया है। कौटिल्य ने स्थान-स्थान पर राजा को वृद्धों की संगत करने वाला, विद्या से विनम्र, जितेन्द्रिय और काम-क्रोध आदि शत्रु षड्वर्ग का दमन करने वाला कहा है। ऐसा राजा अधार्मिक अथवा अत्याचारी बनकर किस प्रकार प्रजा-पीड़न कर सकता है? इसके विपरीत राजा को प्रजा के लिये पितृ-तुल्य कहा गया है, जो अपनी प्रजा का पालन-पोषण, संवर्धन, संरक्षण, भरण, शिक्षण इत्यादि वैसा ही करता है जैसा वह अपनी सन्तान का करता है।

यह ठीक है कि कौटिल्य ने शत्रुनाश के लिये अनैतिक उपायों के करने का भी उपदेश दिया है। परन्तु इस सम्बन्ध में अर्थशास्त्र के निम्न वचन को नहीं भूलना चाहिए —

एवं दृष्येषु अधार्मिकेषु वर्तेत, न इतरेषु। (5/2)

अर्थात्- इन कूटनीति के उपायों का व्यवहार केवल अधार्मिक एवं दुष्ट लोगों के साथ ही करें, धार्मिक लोगों के साथ नहीं। (धर्मयुद्ध में भी अधार्मिक व्यवहार सर्वथा वर्जित था। केवल कूट-युद्ध में अधार्मिक शत्रु को नष्ट करने के लिये इसका प्रयोग किया जा सकता था। )

निष्कर्ष

आचार्य चाणक्य मैकियावेली के पूर्वगामी है वो भी लगभग १४०० से १५०० वर्ष। इसलिये मैकियावेली को इटली का चाणक्य कहा जाना चाहिये न कि चाणक्य को भारत का मैकियावेली। दूसरी बात, कुछ विचार में साम्यता मिलती है इसलिये मैकियावेली को यूरोप या इटली का कौटिल्य माना जा सकता है परन्तु आचार्य चाणक्य पूर्णतः धर्म और नैतिकता का परित्याग नहीं करते हैं। दोनों का कालखंड अलग है और परिस्थितियाँ भी। जहाँ यूरोप में मैकियावेली के समय पुनर्जागरण का समय था और लोकतंत्र की बयार बह रही थी वहीं भारतवर्ष में चाणक्य का समय मगध साम्राज्यवाद का समय है और राजतंत्र प्रतिष्ठा का। इसलिये पूर्णतया तुलना उचित नहीं है परन्तु राजतंत्र सम्बन्धित विचारों में कुछ समानता पायी जाती है।

अर्थशास्त्र : आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) की रचना

आचार्य चाणक्य

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top