भूमिका
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था (The Mauryan Economy) का अध्ययन भारतीय इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह काल कई मायनों में प्रस्थानबिंदु है क्योंकि पहली बार अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना हुई। आर्थिक गतिविधियों के लिये मौर्य साम्राटों ने कई नियम-विनियम बनाये। उद्योग-धंधे, शिल्पकारों की सुरक्षा, आंतरिक व बाह्य व्यापारिक गतिविधियों की सुरक्षा इत्यादि पर व्यापक विधि-निषेध के विवरण मिलते हैं।
मौर्य काल में पहली बार करों की सूची व मात्रा निर्धारण किया गया। निर्धारित राजस्व का संग्रह सुचारु रूप से होता रहे इसके लिये सम्बन्धित कर्मचारियों की नियुक्ति की गयी। ये सभी बातें आगे आने वाले समय के लिये आधार व प्रेरणा बनने वाले थे। आधुनिक भारत पर भी इसकी छाप देखी जा सकती है।
आर्थिक नीति
जिन परिस्थितियों में मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई थी, उनमें राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति तथा राज्य का खर्च एवं इसकी सुरक्षा का उपाय करने के लिये मौर्य-सम्राटों को बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी। इसलिये राज्य ने आर्थिक कार्यकलाप पर नियंत्रण रखा। राज्य ने ऐसी व्यवस्था की जिससे वह अधिक-से-अधिक धन प्राप्त कर सके। अतः मौर्यों ने एक ऐसी आर्थिक नीति अपनायी जिससे उसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रहे। इस नीति को हम ‘राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था’ (State control of economy) की संज्ञा दे सकते हैं। इसका परिणाम राज्य के लिये लाभदायी हुआ। मौर्यों ने ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ (mixed economy) अपनायी जिसमें कुछ आर्थिक गतिविधियाँ सीधे राज्य के नियंत्रण में थी तो कुछ निजी हाथों में। इस व्यवस्था के अंतर्गत अंतर्गत कृषि, व्यवसाय एवं व्यापार-वाणिज्य की महती प्रगति हुई और जिसके कारण मौर्ययुग की आर्थिक संपन्नता बढ़ी।
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था
राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य-व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है अर्थात् वृत्ति का साधन। इन पर क्रमशः एक-एक करके विस्तार से विचार करना समीचीन होगा।
कृषि एवं पशुपालन
वार्ता में कृषि सर्वप्रमुख था। एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा है कि भूमि कृषियोग्य होनी चाहिए। वह ‘अदैव मातृक‘ हो अर्थात् ऐसी भूमि हो कि उसमें बिना वर्षा के भी अच्छी खेती हो सके।
मेगस्थनीज के अनुसार दूसरी जाति में किसान लोग हैं जो दूसरों से संख्या मे कहीं अधिक हैं। अन्य राजकीय सेवाओं से मुक्त होने के कारण वे सारा समय खेती में लगाते हैं। मेगस्थनीज ने आगे लिखा है कि भूमि पशुओं के निर्वाह-योग्य है तथा अन्य खाद्य-पदार्थ प्रदान करती है। चूँकि यहाँ वर्ष में दो बार वर्षा होती है, अतः भारत में दो फ़सलें काटते हैं।* देश के प्रायः समस्त मैदानों में ऐसी नमी रहती है जो भूमि को समान रूप से उपजाऊ रखती है।
“Megasthenes indicates the fertility of India by the fact of the soil producing two crops every year both fruits and grain.”*
यह प्रश्न बार-बार उठाया जाता रहा है कि भूमि पर किसका अधिकार था अर्थात् वह कृषक के अधिकार में थी या राज्य के?
इस संदर्भ में आचार्य चाणक्य और तात्कालीन पाश्चात्य विद्वानों के मतों पर दृष्टिपात करके निष्कर्ष पर पहुँचना समीचीन होगा :
- मेगस्थनीज़, स्ट्रैबो, एरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार ‘सारी भूमि राजा की होती थी। (The whole of the land is the property of the king)।
- अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) तथा उपवास (काश्तकार) के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है । भूमि के सम्बन्ध में ‘स्वाम्य‘ का उल्लेख है। कहा गया है जिस भूमि का स्वामी नहीं है वह राजा की हो जाती है। ‘स्वाम्य’ से व्यक्ति का भूमि पर अधिकार सिद्ध हो जाता है। व्यक्ति को भूमि के क्रय तथा विक्रय का अधिकार था।
- जहाँ एक ओर यूनानी लेखकों का अभिप्राय राजकीय भूमि से है जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी। तो दूसरी ओर अर्थशास्त्र से राजकीय व निजी भूमि दोनों का विवरण मिलता है।
इससे स्पष्ट है कि भूमि को हम मोटे तौर पर दो भागों में बाँट सकते हैं;
- एक – राजकीय भूमि और
- द्वितीय – निजी भूमि।
भूमि की व्यवस्था
- राजकीय भूमि पर दासों, कर्मकरों और कैदियों द्वारा जुताई और बुआई होती थी। दास, कर्मकारों को भोजन आदि दिया जाता था साथ ही जुताई और बुआई और कार्य के दौरान नक़द मासिक वेतन आदि भी दिया जाता था।
- राज्य की भूमि (राजकीय भूमि) की व्यवस्था सीताध्यक्ष द्वारा होती थी और उससे होने वाली आय को कौटिल्य ने सीता कहा है।
- अनेक प्रमाणों से भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार सिद्ध होता है।
- ऐसी राजकीय भूमि जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी उसपर करद कृषक खेती करते थे। कृषियोग्य तैयार खेतों को खेती करने के लिये किसानों को दे दिया जाता।
- जो भूमि कृषि योग्य न हो उसे यदि कोई खेती के योग्य बना ले तो यह भूमि उससे वापस नहीं ली जाती थी।
- इन कृषकों के ऊपर नियामक अधिकारी, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप होते थे, जो गाँवों में भूमि तथा अन्य प्रकार की संपत्ति के आँकड़े तथा लेखा रखते थे।
उपज में राज्य का हिस्सा :
- मेगस्थनीज, स्ट्रैबो, ऐरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी। वे राजा के लिये खेती करते थे और १/४भाग राजा को लगान में देते थे। यूनानी लेखकों का अभिप्राय राजकीय भूमि से है जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी।
- कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बीज, बैल और हथियार लायें तो उपज के १/२ भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि-उपकरण राज्य द्वारा दिये जायें तो वे १/४ या १/३ अंश के भागी थे। यहाँ पर आचार्यवर का अभिप्राय भी राजकीय भूमि से ही है।
- इस राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भूमि भी थी, जो गृहपतियों तथा अन्य कृषकों की निजी भूमि होती थी, जिसपर वे खेती करते थे और उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देते थे। यह अंश आम तौर पर उपज का छठा १/६ भाग होता था, किंतु कभी-कभी १/४भाग भी हो सकता था।
- सिंचाई के लिये अलग कर देना पड़ता था जिसकी दर उपज का १/५ से १/३ भाग तक थी। भूमिकर और सिंचाई कर को मिलाकर किसान को उपज का लगभग १/२ भाग देना पड़ता था।
- भूराजस्व के लिये ‘भाग’ और सिंचाई कर के लिये ‘उदक भाग’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
कृषकों की सुरक्षा :
मेगस्थनीज़ ने इस बात को अनेक बार दुहराया है कि शत्रु, अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता क्योंकि कृषक वर्ग सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माने जाते हैं। इसलिये हानि से बचाये जाते हैं।
The second caste consists of the husbandmen, who form the bulk of the population, and are in disposition most mild and gentle. They are exempted from military service, and cultivate their lands undisturbed by fear. They never go to town, either to take part in its tumults, or for any other purpose. It therefore not unfrequently happens that at the same time, and in the same part of the country, men may be seen drawn up in array of battle, and fighting at risk of their lives, while other men close at hand are ploughing and digging in perfect security, having these soldiers to protect them. The whole of the land is the property of the king, and the husbandmen till it on condition of receiving one-fourth of the produce. : Source – Ancient India as Described by Megasthenes and Arrian. |
मौर्य-युग में कृषि अधिकांश जनता के जीवन का आधार थी। भूमि राजा तथा कृषक दोनों के अधिकार में होती थी। किसान युद्ध तथा अन्य राजकीय कर्तव्यों से मुक्त रहने के कारण अपना सारा समय खेतों में ही लगाते थे।
युद्ध के समय में भी सैनिकों को खेतों को हानि न पहुँचाने का आदेश रहता था। कृषि को क्षति पहुँचाने वाले कीड़े-मकोड़े तथा पशु-पक्षियों को नष्ट करने के लिये राज्य की ओर से गोपालक और शिकारी नियुक्त किये गये थे।
कृषि में लोहे का बढ़ता प्रयोग :
लोहे के उपकरणों के भारी मात्रा में प्रयोग के कारण उत्पादन बहुत अधिक बढ़ गया। इस काल में ही मूँठदार कुल्हाड़ियों, फाल, हँसिये आदि का कृषि कार्यों के लिये बड़े पैमाने पर प्रयोग प्रारम्भ हुआ। राज्य की ओर से कृषि को प्रोत्साहन मिलता था।
उपजाऊ भूमि व प्रभूत उत्पादन :
मौर्यकाल में अधिकाधिक बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। भूमि बड़ी उर्वरा थी तथा प्रतिवर्ष दो फसलें आसानी से उगायी जा सकती थीं।
एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का विवरण देते हुए आचार्य चाणक्य ने कहा है कि भूमि ‘अदैव मातृक’ अर्थात् ऐसी भूमि हो कि उसमें बिना वर्षा के भी अच्छी खेती हो सके। अर्थशास्त्र में वर्ष में तीन फसलें उगाये जाने का विवरण मिलता है :
- हैमन – रबी की फसल
- ग्रैष्मिक – खरीफ की फसल
- केदार – जायद की फसल
मेगस्थनीज़ के अनुसार भूमि पशुओं के निर्वाह-योग्य है तथा अन्य खाद्य-पदार्थ प्रदान करती है। चूँकि यहाँ वर्ष में दो बार वर्षा होती है, अतः भारत में दो फ़सलें काटते हैं।* देश के प्रायः समस्त मैदानों में ऐसी नमी रहती है जो भूमि को समान रूप से उपजाऊ रखती है।
“Megasthenes indicates the fertility of India by the fact of the soil producing two crops every year both fruits and grain.”*
गेहूँ, जौ, चना, चावल, ईख, तिल, सरसों, मसूर, शाक आदि प्रमुख फसलें थीं।
अर्थशास्त्र के अनुसार धान की फसल को सबसे उत्तम और गन्ने की फसल को निकृष्ट बताया गया है।
सिंचाई :
राज्य की ओर से सिंचाई का समुचित प्रबन्ध था। इसे ‘सेतुबंध‘ कहा गया है। इसके अंतर्गत तालाब, कुँए, तथा झीलों पर बाँध बनाकर एक स्थान पर पानी एकत्रित करना इत्यादि निर्माण कार्य आते हैं। मौर्यों के समय सौराष्ट्र में ‘सुदर्शन झील’ के बाँध का निर्माण इस सेतुबंध का एक उदाहरण है।
मेगस्थनीज लिखता है कि भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था। कुछ पदाधिकारी नदियों का प्रबन्ध रखते थे ताकि उनसे पानी ठीक से नहरों द्वारा खेतों को पहुँचाया जा सके।
अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि सिंचाई की चार विधियाँ थीं — हाथ द्वारा, कन्धों पर पानी ले जाकर, मशीन द्वारा तथा नदियों, तालाबों आदि से पानी निकाल कर।
सिंचाई की सुविधा के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य ने सौराष्ट्र प्रान्त में ‘सुदर्शन झील’ का निर्माण करवाया था। रुद्रदामन् के जूनागढ़ लेख से पता चलता है कि इस झील के निर्माण का कार्य चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने निर्माण करवाया था तथा सम्राट अशोक के राज्यपाल तुषास्प ने इससे नालियाँ निकलवायी थीं।
“[ स्य ] र्थे मौर्यस्य राज्ञ: चन्द्र [ गुप्तस्य ] राष्ट्रियेण [ वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य [ कृ ] ते यवनराजेन तुष [ ] स्फेनाधिष्ठाय प्रणालीभिरलं कृतं [ । ]” — रुद्रदामन् का जूनागढ़ लेख ।
सिंचाई के लिये अलग कर देना पड़ता था जिसकी दर उपज का १/५ से १/३ भाग तक थी। भूमिकर और सिंचाई कर को मिलाकर किसान को उपज का लगभग १/२ भाग देना पड़ता था। राज्य के अलावा लोग स्वयं कुँए खुदवाकर तालाब या बावड़ी बनाकर सिंचाई की व्यवस्था करने थे। उन्हें प्रारम्भ में कर छूट देकर प्रोत्साहित किया जाना था। किंतु कुछ समय बाद उन्हें भी सिंचाई कर देना पड़ता था।
पशुपालन :
पशुओं में गाय-बैल, भेड़-बकरी, भैंस, गधे, ऊँट, सुअर, कुत्ते आदि प्रमुख रूप से पाले जाते थे। राज्य की ओर से चारागाहों की भी व्यवस्था थी। अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पशुधन विकास के लिये एक विशेष विभाग था जो पशुओं के भरण-पोषण (चरागाह) एवं उनकी चिकित्सा आदि का उचित प्रबंध करता था।
वन संसाधन – हाथी व वनोत्पाद :
मगध के उत्कर्ष में हस्तिसेना का विशेष योगदान था। हमें चरागाहों व वनों का विवरण मिलता है। जहाँ चरागाह से पशुधन का पोषण होता था वहीं वन से वनोत्पाद और हाथी मिलते थे। वनों के दो प्रकार बताये गये गयें हैं : एक, ‘हस्तिवन’ और दूसरा, ‘द्रव्यवन’।
- ‘हस्तिवन’ में हाथी रहते थे। हाथी राज्य की सम्पत्ति थे और इनका प्रयोग लड़ाईयों किया जाता था।
- ‘द्रव्यवन‘ से अनेक प्रकार की लकड़ी तथा लोहा, ताँबा इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थी।
- जंगलों पर राज्य का अधिकार था।
- इन वनों की उपज राज्य के कोष्ठागारों में पहुँचायी जाती थी और वहाँ से कारखानों में, जहाँ लकड़ी, मिट्टी तथा धातु की अनेक उपयोगी वस्तुएँ तथा युद्ध के लिये अस्त्र-शस्त्र बनाये जाते थे।
- कारखानों में बनी वस्तुएँ पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाजारों में बेची जाती थीं।
अकाल :
मेगस्थनीज के अनुसार भारत में दुर्भिक्ष (अकाल) नहीं पड़ते। परन्तु तत्कालीन स्रोतों से दुर्भिक्ष के साक्ष्य मिलते हैं :
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे और दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा जनता की भलाई के लिये उपाय किये जाते थे।
- जैन अनुभूति के अनुसार मगध में १२ साल का एक दुर्भिक्ष पड़ा था।
- अभिलेखीय साक्ष्यों में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा, राज्य-कोष्ठागार से अनाज-वितरण का विवरण है।
शिल्प एवं उद्योग-धन्धे
मौर्यों के शासनकाल में राजनीतिक एकता तथा शक्तिशाली केंद्रीय शासन के नियंत्रण से शिल्पकारी को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक सुधार के साथ-साथ व्यापार की सुविधाएँ और व्यापार का पोषण करने वाले शिल्पों ने छोटे-छोटे उद्योगों का रूप धारण कर लिया।
मेगस्थनीज ने शिल्पियों को चौथी जाति माना है। उसके अनुसार उनमें से कुछ राज्य को कर देते थे और नियत सेवाएँ भी करते थे। यह पुराना नियम था कि शिल्पकार कर के बदले महीने में एक दिन राजा के यहाँ काम करते थे। यह नियम ग़ैर-सरकारी शिल्पियों के लिये था। परन्तु जो राज्य के शिल्पी होते थे, वे अनेक प्रकार की धातुओं, लकड़ियों तथा पत्थरों से राज्य के लिये विविध वस्तुओं का निर्माण करते थे।
मेगस्थनीज ने जहाज बनाने वालों, कवच तथा आयुधों का निर्माण करने वालों और खेती के लिये अनेक प्रकार के औजार बनाने वालों का उल्लेख किया है। खानों और जंगलों से प्राप्त धातु तथा लकड़ी से राज्य अनेक प्रकार के उद्योगों का संचालन करता था। वस्त्र उद्योग भी राज्य द्वारा संचालित था। अतः इन विविध उद्योगों में अनेक शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों के निरीक्षण में कार्य करते थे और राज्य से वेतन पाते थे। परन्तु अनेक स्वतंत्र शिल्पी भी थे। ये श्रेणियों में संगठित थे। श्रेणियों में संगठित होने में उनके वेतन तथा अन्य अधिकार अधिक सुरक्षित थे। शिल्पी के जीवन तथा संपत्ति-सुरक्षा की राज्य की ओर से पूरी व्यवस्था थी।
कपड़ा बुनना इस युग का एक प्रमुख उद्योग था इसके अंतर्गत सूत कातना और बुनना प्रमुख कार्य था। ऊन, रेशे, कपास, शण-क्षोम और रेशम सूत कातने के लिये प्रयुक्त होते थे। अर्थशास्त्र के अनुसार मदुरा, अपरान्त, कलिंग, काशी, वंग, पुण्ड्र, मालवा, वत्स तथा महिष सूती वस्त्रों के लिये प्रसिद्ध थे। मेगस्थनीज ने भारतीय वस्त्रों की बडी प्रशंसा की है। सरकारी कारखानों के अतिरिक्त जुलाहे स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते थे।
वस्त्र उद्योग से सम्बंधित निम्न जानकारियाँ मिलती हैं :-
- काशी और पुण्ड्र में रेशमी कपड़े भी बनते थे।
- चीन के कौशेय (रेशमी वस्त्र) वस्त्र का विवरण मिलता है।
- चीन पट्ट का उल्लेख कौटिल्य ने किया है जिससे ज्ञात होता है कि रेशम चीन से आता था।
- इसके साथ ही ‘क्षौम’ (एक प्रकार का रेशमी वस्त्र) का भी उल्लेख मिलता है।
- प्राचीन काल से वंग का मलमल विश्वविख्यात था।
- अन्य वस्त्रों में ‘दुकूल’ (श्वेत तथा चिकना वस्त्र) का विवरण मिलता है।
- नेपाल के कम्बल का उल्लेख मिलता है।
चर्म-उद्योग भी उन्नति पर था। एरियन ने भारतीयों द्वारा श्वेत चमड़े के जूते पहने जाने का उल्लेख किया है जो काफी सुन्दर होते थे। नियार्कसने लिखा है कि ‘भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं जो अति सुंदर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनायी जाती है।’
“They wear shoes made of white leather, and these are elaborately trimmed, while the soles are variegated, and made of great thickness, to make the wearer seem so much the taller.” – Nearchos
पशुओं की खाल से जूते बनाने, वर्म या ढाल बनाने के लिये उपयोग में लायी जाती थी।
बढ़ईगिरी भी एक प्रमुख उद्योग था। बढ़ई लकड़ियों द्वारा विविध प्रकार के उपकरण बनाते थे। कुम्रहार की खुदाई में सात बड़े एवं आश्चर्यजनक ढंग से निर्मित लकड़ी के चबूतरे प्राप्त हुये हैं जिनसे काष्ठ-शिल्प के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है।
इसके अतिरिक्त धातुकारी का भी उद्योग उन्नति पर था। सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, शीशा, टिन, पीतल, काँसा आदि धातुओं से विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, आभूषण, सिक्के तथा उपकरण बनाये जाते थे। मेगस्थनीज़ ने भी भारत में अनेक प्रकार की धातुओं की खानों का उल्लेख किया है।
तक्षशिला के भीर टीले तथा हस्तिनापुर की खुदाइयों से नाना प्रकार के बहुमूल्य आभूषणों के प्रमाण प्राप्त होते हैं। खानों में कच्ची धातु निकालने, उसे गलाने, शुद्ध करने और लचीला बनाने के क्रिया की अच्छी जानकारी प्राप्त हो चुकी थी।
लोहाध्यक्ष के निरीक्षण में युद्ध के हथियार तथा कृषि के उपकरण बनाने के लिये लोहे का उपयोग किया जाता था। सोने और चाँदी के अनेक प्रकार के आभूषण तथा सिक्के सुवर्णाध्यक्ष व लक्षणाध्यक्ष के निरीक्षण में बनते थे।
मणि-मुक्ताओं का उपयोग समृद्ध परिवारों में होता था। मोतियों को अनेक लड़ियों में पिरोकर हार बनाये जाते थे जो गले में पहने जाते थे। मुक्ता-लड़ियाँ कमर और हाथों को सजाने के लिये उपयोग में लायी जाती थीं। इस प्रकार मणिकार और सुवर्णकार राजघराने तथा समृद्ध परिवारों की आवश्यकताओं की पूति करते थे।
मृद्भाण्ड कला या कुम्भकारी। यद्यपि कौटिल्य ने कुम्भकार की श्रेणियों का उल्लेख नहीं किया है, फिर भी हमें ज्ञात है कि मिट्टी के बर्तन साधारण लोगों द्वारा बड़ी मात्रा में उपयोग में लाये जाते थे। मौर्यकाल के काली ओपदार मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ऊँचे वर्ग के लोगों द्वारा प्रयोग में लाये जाते थे।
पाषाण तराशने का उद्योग भी अच्छी अवस्था में था। इस समय के एकाश्मक पाषाण स्तम्भ तराशने की कला की उत्कृष्टता के साक्षी है। पत्थर पर पॉलिश का काम अपने चरमोत्कर्ष पर था। सारनाथ सिंह स्तंभ तथा बाराबर गुफाओं की चमक अद्वितीय है। साथ ही साथ ५० टन के वजन तथा लगभग ३० फुट से अधिक की ऊँचाई वाले स्तम्भों को पाँच-छः सौ मील की दूरी तक ले जाकर स्थापित करना मौर्यकालीन अभियान्त्रिकी कुशलता (Engineering-skill) को सूचित करता है। आज के वैज्ञानिक युग में भी यह एक आश्चर्य की वस्तु प्रतीत होती है।
हाथी दाँत से भी सुन्दर एवं आकर्षक उपकरण तैयार किये जाते थे। हाथीदाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से ही कुशल थे। एरियन ने समृद्ध परिवारों द्वारा हाथीदाँत के कर्णाभूषण का इस्तेमाल किये जाने का उल्लेख किया है — “the Indians wear also earring of ivory, but only such of them do this as are very wealthy, for all Indians do not wear them.”
इस समय विभिन्न खनिज पदार्थ बहुतायत से उपलब्ध थे। अर्थशास्त्र में समुद्री तथा भूमिगत दोनों ही प्रकार की खानों का वर्णन मिलता हैजिनके लिये अलग-अलग पदाधिकारी (अकराध्यक्ष) होते थे। समुद्री खानों के अधीक्षक का काम उनसे प्राप्त होने वाले हीरे, मोती, मूँगा, शंख, बहुमूल्य पत्थरों आदि के संग्रहण की देखभाल करना होता था। भूमिगत खानों के अधीक्षक नयी खानों की खोज करते तथा पुरानी खानों के रख-रखाव की व्यवस्था करते थे। खानों में काम करने वाले श्रमिकों के पास उन्नत और वैज्ञानिक उपकरण होते थे। राज्य या तो सीधे खानों का प्रबन्ध करता था या उन्हें पट्टे पर देता था। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि राजा की अनुमति के बिना खान से निकाली धातुओं तथा उनसे तैयार होने वाली वस्तुओं को खरीदने तथा बेचने वाले दोनों पर ६०० पण अर्थदण्ड लगाया जाता था।
विभिन्न शिल्पों के अलग-अलग अध्यक्ष होते थे। उद्योग-धन्धों की संस्थाओं को ‘श्रेणी‘ (Guilds) कहा जाता था। जातक ग्रन्थों में १८ प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख हुआ है, जैसे – काष्ठकारों की श्रेणी, लुहारों की श्रेणी, चर्मकारों की श्रेणी, चित्रकारों की श्रेणी आदि।
श्रेणियों के अपने न्यायालय होते थे जो व्यापार-व्यवसाय सम्बन्धी झगड़ों का निपटारा किया करते थे। श्रेणी-न्यायालय का प्रधान ‘महाश्रेष्ठि’ कहा जाता था।
राज्य की ओर से विविध प्रकार की वस्तुओं को बनाने के लिये ‘औद्योगिक केन्द्र’ भी स्थापित किये गये थे।
मौर्य शासन का वित्तीय वर्ष आषाढ़ (जुलाई) माह से प्रारम्भ होता था।
मौर्य-काल में जनगणना के निमित्त एक स्थायी विभाग की स्थापना की गयी थी। इसका उल्लेख मेगस्थनीज तथा आचार्य चाणक्य दोनों ने ही किया है। मेगस्थनीज के अनुसार तीसरी समिति नगर की जनगणना का कार्य करती थी। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि प्रत्येक ग्राम तथा नगर में चारों वर्णों की जनगणना ग्रामीण अधिकारियों तथा जनगणना विभाग द्वारा की जाती थी। मनुष्यों के साथ ही साथ उनके व्यवसाय, चरित्र, आय, व्यय आदि का भी पूरा ब्यौरा सुरक्षित रखा जाता था। इससे राज्य को विभिन्न वर्गों के ऊपर कर निर्धारित करने के काम में बड़ी सहायता मिलती थी।
व्यापार
भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों के एक शासनसूत्र में बँधने से व्यापार को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक एवं सैनिक आवश्यकता के कारण यातायात-मार्ग में वृद्धि हुई तथा मार्गों की सुरक्षा भी बढ़ी।
कृषि तथा उद्योगों के लिये वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँचती थीं। पश्चिमोत्तर भाग यूनानियों के अधिकार से मौर्यों के अधिकार में आ गया। दक्षिण की विजय से दक्षिण और पश्चिम व्यापार-मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण हो गया। कलिंग की विजय से पूर्व और पूर्व-दक्षिण व्यापार-मार्ग निष्कंटक हो गया।
आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर थे। इस समय भारत का बाह्य व्यापार सीरिया, मिस्र तथा अन्य पश्चिमी देशों के साथ होता था। यह व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्वी भारत में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाहों द्वारा किया जाता था। ‘बारबैरिकम’ नामक बन्दरगाह सिन्धु नदी के मुहाने पर स्थित था।
यूनानी रोमन लेखक भारत के समुद्री व्यापार का वर्णन करते हैं। एरियन के अनुसार भारतीय व्यापारी मुक्ता बेचने के लिये यूनान के बाजारों में जाते थे।
व्यापारिक जहाजों का निर्माण इस काल का एक प्रमुख उद्योग था। यह राज्य के नियन्त्रण में होता था जो व्यापारियों को किराये पर जहाज देता था। नवाध्यक्ष नामक पदाधिकारी व्यापारिक जहाजों का नियन्त्रण करता था। समुद्री मार्ग से आने वाली वस्तुयें यदि क्षतिग्रस्त हो जाती थीं तो राज्य उन पर शुल्क नहीं लेता था या क्षति के अनुपात में उसे घटा देता था। अर्थशास्त्र में विदेशी ‘सार्थवाहों‘ (व्यापारियों के काफिलों) का उल्लेख मिलता है।
देश का आन्तरिक व्यापार भी प्रगति पर था। मौर्यकाल में व्यापारियों के संगठन को ‘सम्भूत-समुत्थान’ और ‘सांव्यावहारिक’ कहा जाता था। व्यापारियों के नेता को ‘सार्थवाह’ कहा जाता था।
मेगस्थनीज के विवरण से स्पष्ट है कि मार्ग निर्माण का एक विशेष अधिकारी था जो एग्रोनोमोई (Agronomoi) कहलाता था। ये सड़कों की देखरेख करते थे और १० स्टेडिया की दूरी पर एक स्तम्भ खड़ा कर देते थे।
इस समय देश के अन्दर अनेक व्यापारिक मार्ग थे।
- एक मार्ग बंगाल के समुद्र-तट पर स्थित ताम्रलिप्ति नामक बन्दरगाह से पश्चिमोत्तर भारत में पुष्कलावती तक जाता था। इसे ‘उत्तरापथ’कहा जाता था, जिस पर चम्पा, पाटलिपुत्र, वैशाली, राजगृह, गया, काशी, प्रयाग, कौशाम्बी, कान्यकुब्ज, हस्तिनापुर, साकल एवं तक्षशिला जैसे प्रमुख नगर स्थित थे। मेगस्थनीज़ के अनुसार इसकी लंबाई १,३०० मील (≈ २,१०० किमी०) थी।
- दूसरा मार्ग पश्चिम में पाटल (सिन्धु-सौबीर में स्थित) से पूर्व में कौशाम्बी के समीप उत्तरापथ में मिलता था।
- दक्षिण के लिये एक पुराना मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। जिस पर माहिष्मती, उज्जैन, विदिशा आदि नगर स्थित थे। इसी दक्षिणी मार्ग को सम्भवतया मैसूर तक बढ़ाया गया होगा। कृष्णा, गोदावरी और तुंगभद्रा के किनारे होते हुए कई मार्ग व्यापार एवं सैनिक अभियान तथा शासन की आवश्यकता के अनुसार बनाये गये होंगे।
- चौथा प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग भृगुकच्छ से मथुरा तक जाता था जिसके रास्ते में उज्जयिनी पड़ती थी।
इसके अतिरिक्त गंगा घाटी व मध्य भारत के के सभी नगर पारस्पर मार्गों द्वारा जुड़े हुए था; यथा –
- एक तीसरा मार्ग श्रावस्ती से राजगृह तक था।
- पाटलिपुत्र से एक राजमार्ग वैशाली और चंपारण होते हुए नेपाल जाता था।
- ऐसा ज्ञात होता है कि हिमालय की तराई में भी एक राजमार्ग था। यह सड़क वैशाली से चंपारण होकर कपिलवस्तु, क्लासीफाइड (देहरादून) और हजारा होते हुए पेशावर तक जाती थी।
- पाटलिपुत्र से एक मार्ग सासाराम, मिर्ज़ापुर होते हुए मध्य भारत (मध्य प्रदेश) में जाती थी।
- राजधानी (पाटलिपुत्र) से एक मार्ग पूर्वी मध्य मध्य प्रदेश ( वर्तमान छत्तीसगढ़) से होते हुए कलिंग को जोड़ता था और वहाँ से आगे कलिंग वर्तमान आंध्र व कर्नाटक से जुड़ा हुआ था।
यहाँ एक तथ्य विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है कि सम्राट अशोक के शिलालेखों की प्राप्ति स्थलों से मोटे तौर पर राजमार्गों का ज्ञान होता है।
इस प्रकार उत्तरापथ तथा दक्षिणापथ के भूभाग व्यापारिक मार्गों द्वारा परस्पर जोड़ दिये गये थे।
हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग (हेमवत पथ) की तुलना दक्षिण को जाने वाले मार्ग से करते हुए कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग अधिक लाभदायक बताया है क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापार की वस्तुएँ; जैसे – मणि-मुक्ता, हीरे, सोना, शंख, इत्यादि प्राप्त होते थे।
जलीय व समुद्री मार्ग :-
- पश्चिमी तट पर भी समुद्री मार्ग भड़ौच और काठियावाड़ होकर लंका तक जाता था। पश्चिमी तट पर सोपारा भी महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था।
- पूर्व में जहाज बंगाल में ताम्रलिप्ति के बंदरगाह से पूर्वी तट के अनेक बंदरगाहों से होते हुए श्रीलंका तक जाते थे। रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजय का एक कारण व्यापार की दृष्टि से कलिंग का महत्त्व था। महानदी और गोदावरी के बीच स्थित होने के कारण बंगाल और दक्षिण का व्यापार सुरक्षित नहीं था।
आचार्य चाणक्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी मार्गों से व्यापार को अधिक सुरक्षित माना है क्योंकि यह चोर डाकुओं के भय से अपेक्षाकृत मुक्त था। किंतु नदियों से व्यापार स्थायी नहीं था। स्थल मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं, चोरों और जंगली जानवरों में विशेष भय था। मरुस्थल की यात्रा अत्यंत कठिन थी। खतरों और कठिनाइयों के कारण व्यापारी काफ़िलों में संगठित होकर चलते थे। व्यापारियों को यातायात और सुरक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त थीं। यदि मार्ग में व्यापारियों का नुकमान हो जाये तो राज्य क्षतिपूर्ति करता था। इसके बदले व्यापारियों से अनेक शुल्क लिये जाते थे।
अंतर्राष्ट्रीय मार्ग :-
अंतर्देशीय व्यापार की भाँति ही स्थल भौर जलमार्ग से विदेशों के साथ व्यापार को मौर्यों के सुसंगठित शासन से लाभ प्राप्त हुआ। यूनानी शासकों के माथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध की वजह से पश्चिमी एशिया और मिस्र के साथ भारत के व्यापार के लिये अनुकूल वातावरण बना।
- एक मुख्य स्थल मार्ग तक्षशिला से काबुल, बैक्ट्रिया, और वहाँ से पश्चिमी देशों की तरफ़ जाता था।
- समुद्री मार्ग भारत के पश्चिमी समुद्रतट से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अदन तक जाता था।
भारत से और मिस्र से आने वाली व्यापार-वस्तुओं का विनिमय अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। आयातित व निर्यातकों प्रमुख वस्तुएँ :-
- भारत से मिस्र को हाथीदाँत, कछुए, सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी।
- ताम्रपर्णी से मोतियाँ, नेपाल से चमड़ा, सीरिया से मदिरा और पश्चिमी देशों से घोड़ों आयात किया जाता था
व्यापार के ऊपर राज्य का नियन्त्रण होता था। पण्याध्यक्ष विक्रय की वस्तुओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता था। वह वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करता था ताकि व्यापारी जनता से अनुचित लाभ न ले सकें।
व्यापारियों के लाभ की दरें भी निश्चित की गयी थीं तथा इससे अधिक लाभ राजकोष में जमा हो जाता था। व्यापारी स्थानीय वस्तुओं पर ५% (या ४%) तथा विदेशी वस्तुओं पर १०% का मुनाफा कमा सकते थे।
मुद्रा व्यवस्था
मौर्यकाल तक आते-आते व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। सिक्के सोने, चाँदी तथा ताँबे के बने होते थे।
- स्वर्ण सिक्कों को ‘निष्क’ और ‘सुवर्ण’ कहा जाता था। (निष्क भारत का प्राचीनतम स्वर्ण सिक्का है।)
- चाँदी के सिक्कों को ‘पण’, ‘कार्षापण’, ‘धरण’ व ‘शतमान’ कहा जाता था। (कार्षापण भारतवर्ष का प्राचीनतम चाँदी का सिक्का है।)
- ताँबे के सिक्के ‘माषक’ कहलाते थे।
- छोटे-छोटे ताँबे के सिक्के ‘काकणि’ कहे जाते थे।
ये सिक्के शासकों, सौदागरों एवं निगमों द्वारा प्रचलित किये जाते थे तथा इन पर स्वामित्व-सूचक चिह्न लगाये जाते थे। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार से बड़ी संख्या में प्राप्त चाँदी के आहत-सिक्कों में से अधिकतर मौर्यकाल के ही हैं। मौर्यकालीन सिक्के मुख्यतः चाँदी और तांबे में ढाले गये हैं।
मौर्यकाल का प्रधान सिक्का ‘पण’ होता था। जिसे ‘रुप्यरूप‘ भी कहा गया है। दूसरे शब्दों में मौर्यों की राजकीय मुद्रा ‘पण’ थी। पण ३/४ तोले के बराबर चाँदी का सिक्का था। इसके ऊपर सूर्य, चंद्र, पीपल, मयूर, वृषभ, सर्प इत्यादि खुदे हुए हैं। इसलिए इनको आहत सिक्का (Punch marked coin) कहा जाता है।
अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है जिसका अधीक्षक “लक्षणाध्यक्ष” होता था। मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी ‘रूपदर्शक‘ कहा जाता था।
सुरक्षा के उपाय
- शिल्पकारों के सुरक्षा की समुचित व्यवस्था थी। शिल्पी के हाथ अथवा आँख को क्षति पहुँचाने वाले को मृत्यु दण्ड दिया जाता था। जो उनका सामान चुराते थे उन्हें १०० पण का जुर्माना देना होता था। शिल्पियों तथा कारीगरों की पारिश्रमिक कार्य के अनुसार तय की जाती थी। अवकाश के दिनों में कार्य करने के लिये अतिरिक्त मजदूरी दी जाती थी।
- प्रजा के हित के लिये शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था।
- माप और तौल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था।
- लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर ४% और आयात-वस्तुओं पर १०% बिक्री कर भी लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार बिक्रीकर न देने वाले के लिये मृत्युदंड था।
- उत्पादित वस्तु की कठोरता से जाँच की जाती थी। घटिया उत्पादन अथवा धोखाधड़ी के कार्य का कठोर दण्ड का विधान था। अर्थशास्त्र में कहा गया है कि ‘कर्मकार को काम करने पर ही मजदूरी दी जानी चाहिए‘। यदि कर्मकार आधा काम करता था तो उसे आधी मजदूरी ही देय होती थी।
“कृतस्य वेतनं, नाकृतस्यास्ति।”
- मौर्य-शासन में निर्धन व्यक्तियों को धनी व्यक्तियों तथा साहूकारों के शोषण से बचाने के निमित्त उनके द्वारा उधार दिये जाने वाले धन पर ब्याज की दर सुनिश्चित कर दी गयी थी। इन नियमों का पालन न करने वालों को कठोर दण्ड दिये जाते थे। अर्थशास्त्र के अनुसार ब्याज की यह दर १५% वार्षिक होती थी।
- जनता को अकाल, बाढ़, अग्नि जैसी दैवी आपदाओं से बचाने के लिये भी राज्य की ओर से व्यापक प्रबन्ध किये गये थे। अकाल के समय राज्य की ओर से किसानों को बीज वितरित किये जाते थे तथा लोगों को अभावग्रस्त स्थानों से हटाकर सम्पन्न व सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया जाता था। बाढ़ आने तथा आग लगने पर भी राज्य की ओर से राहत कार्य किये जाते थे।
- नागरिकों के स्वास्थ्य की ओर भी सरकार विशेष ध्यान देती थी। पूरे राज्य में अनेक चिकित्सालयों की स्थापना करवायी गयी थी। विदेशी नागरिकों की चिकित्सा के लिये अलग से प्रबन्ध किया गया था। जीवनोपयोगी औषधियाँ राज्य की ओर से आरोपित करवाई जाती थीं।
- अशोक के लेखों से पता चलता है कि उसने मनुष्यों की चिकित्सा के साथ ही साथ पशुओं की चिकित्सा का भी समुचित प्रबन्ध करवाया था तथा अनेक औषधियों को बाहर से मँगवा कर आरोपित करवाया था।
- नगरों में सफाई की बहुत अच्छी व्यवस्था की गयी थी।
इन सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य युग में कल्याणकारी राज्य (Welfare-State) की अवधारणा को चरितार्थ किया गया था।
विभिन्न कर
अर्थशास्त्र में वर्णित ७ प्रकार के कर जिसे “शरीर आय” कहा गया है; ये स्रोत हैं :—
- दुर्ग – नगरों से प्राप्त आय।
- राष्ट्र – जनपदों, ग्रामों से प्राप्त आय।
- खनि – खानों से प्राप्त आय।
- सेतु – फल-फूल एवं शाक-सब्जियों से प्राप्त कर (आय)।
- वन – जंगलों से प्राप्त आय।
- ब्रज – पशुओं से प्राप्त आय।
- वणिक पथ – स्थल मार्ग एवं जल मार्ग से प्राप्त कर।
भूमिकर व सिंचाई कर
- सीता – राजकीय भूमि से प्राप्त आय।
- भाग – भूमि कर; यह स्वतंत्र रूप से कृषि करने वाले कृषकों से प्राप्त होती थी। (उपज का १/६ से १/४ भाग)।
- उदकभाग – सिंचाई कर (उपज का १/३ भाग)
अन्य विभिन्न कर
- प्रणय – संकट काल में प्रजा से लिया जाने वाला कर या आपातकालीन कर।
- विष्टि – निःशुल्क श्रम अर्थात् बेगार।
- उत्संग – प्रजा द्वारा राजा को दिया जाने वाला उपहार ।
- बलि – एक प्रकार का धार्मिक कर।
- हिरण्य – यह कर अनाज के रूप में न लेकर नगद लिया जाता था अर्थात् नगद कर।
- रज्जु – भूमि की माप के समय लिया जाने वाला कर।
- चोर रज्जु – चोरों को पकड़ने के लिये लिया जाने वाला कर अथवा चौकीदार कर।
- विवीत – चारागाह कर।
- पिण्डकर – पूरे ग्राम से लिया जाने वाला कर।
- परहीनक – राजकीय भूमि में पशुओं द्वारा चरने पर लिया जाने वाला हरजाना।
- कौष्ठेयक – सरकारी जलाशयों की नीचे की भूमि पर लिया जाने वाला कर।
- अतिवाहिका – मार्ग दर्शन का कर।
- गुल्मदेय – युद्ध के समय सैनिकों के लिये लिया गया कर।
- तरदेय – पुल को पार करने पर लिया जाने वाला कर।
- भोगागम – ज्येष्ठकों (शिल्पी संघ का मुखिया) को निर्वाह हेतु राजा की ओर से मिलने वाले गाँव का राजस्व।
- सेनाभक्त – किसी अभियान के दौरान सेना जिस गाँव से गुजरती थी, उस गाँव के लोग अनिवार्य रूप से सेना को रशद देते थे।
- देशोपकार (अनुग्रहिक) – कुछ देशों से आयातित वस्तुओं पर द्वारदेय नहीं लगाया जाता था। ऐसी वस्तुओं को देशोपकार या अनुग्रहिक कहा जाता था।
- वैधरण – राज्य में उत्पादित (राज्य नियंत्रित उद्योग) वस्तु को यदि कोई व्यापारी बाहर से आयात करता था तो उस वस्तु के आयात से राज्य को जितना नुकसान होता था, उतना उस व्यापारी से हर्जाना लिया जाता था। यह हर्जाना वैधरण कहलाता था।
- निष्क्राम्य – निर्यात कर।
- शुल्क – आयात कर।
- आयातकर (प्रवेश्य) – वस्तु के मूल्य का १/५ भाग आयात कर लिया जाता था। आयातित वस्तु पर पुनः जो बाजार कर लगता था, उसे द्वारदेय कहा जाता था। यह ‘प्रवेश्य‘ का १/५ लिया जाता था (अर्थात् १/५ का १/५ = १/२५ भाग)।
- पार्श्व – व्यापारी के अधिक लाभ पर वसूला जाने वाला कर।
- वर्तनी – सीमा पार करने पर लिया जाने वाला कर।
- भयप्रतिकारव्यय – मौर्य काल में सम्भवतः वस्तुओं का बीमा भी किया जाता था चूँकि अर्थशास्त्र में ‘भयप्रतिकारव्यय’ का उल्लेख मिलता है जो सम्भवतः बीमा से सम्बन्धित था।
नकद या अनाज
- हिरण्य – नकद रूप से लिया गया कर।
- मेय – अनाज के रूप में लिया गया कर।
पुरातात्त्विक साक्ष्य
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था के समीक्षात्मक विश्लेषण के लिये यह आवश्यक है कि पुरातात्त्विक साक्ष्यों पर भी एक दृष्टिपात कर लिया जाये। जहाँ तक मौर्ययुगीन पुरातात्त्विक संस्कृति का प्रश्न है, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उत्तरी काली पॉलिश के मृद्भाण्डों की जिस संस्कृति का आविर्भाव महात्मा बुद्ध (छठी शताब्दी ई०पू०) के काल में हुआ था, वह मौर्ययुग में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। मौर्यकालीन मानचित्र पर इन मृदभाण्डों के वितरण स्थलों से इस संस्कृति के प्रसार स्पष्ट हो जाता है कि उत्तर, उत्तर पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में इसका व्यापक प्रसार हो चुका था। उत्तर-पश्चिम में कंधार, तक्षशिला, उदेग्राम आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में रोपड़, हस्तिनापुर, तिलौराकोट एवं श्रावस्ती से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली, आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।
पालि एवं संस्कृत ग्रंथों में कौशांबी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र, आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्ययुग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केंद्र थे, परन्तु इस बात से नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मागों पर स्थित थे।
भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण (पहला चरण हड़प्पा सभ्यता से संबंधित है) बौद्ध युग (६ठी शताब्दी ई०पू०) से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृद्भाण्डों की संस्कृति से संबंधित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है किंतु मध्य गंगा घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण का जो विवरण हम पढ़ते हैं, वह एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।
उपर्युक्त पुरातात्त्विक संस्कृति का एक अन्य अभिन्न अंग लोहे का निरंतर बढ़ता हुआ प्रयोग है। इस संस्कृति के सभी महत्त्वपूर्ण स्थलों से इसके प्रमाण मिले हैं। इसी काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दरातियाँ और संभवतः हल की फालें भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। यद्यपि अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में मौर्य राज्य का एकाधिकार था परन्तु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था।
कौटिल्य ने मुद्रा प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है, उसकी पुष्टि आहत् मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईंटों और मंडल-कूपों (ring-wells) का प्रयोग भी सबसे पहले इसी सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। इन दो विशेषताओं के कारण मकान आदि का निर्माण न केवल अधिक स्थायी रूप से संभव हुआ, अपितु नदी तट पर ही बस्तियों की स्थापना की प्राचीन परंपरा में भी परिवर्तन संभव हो सका। मण्डल-कूपों के फलस्वरूप जल-प्रदाय की समस्या को सुलझाने में पर्याप्त सहायता मिली। तंग बस्तियों में वे सोख्तों या शोषगर्तों (soakage pits) का भी काम करते थे।
मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के उपर्युक्त तत्त्व उत्तरी बंगाल, कलिंग, आंध्र एवं कर्नाटक तक पहुँच गये। वर्तमान बांग्लादेश के बोगरा जिले के महास्थान स्थल से मौर्ययुगीन ब्राह्मी लिपि का एक अभिलेख मिला था और इसी प्रदेश में दीनाजपुर जिले में बानगढ़ से उत्तरी काली पॉलिश के मृद्भांड भी प्राप्त हुए हैं। उड़ीसा में शिशुपालगढ़ के उत्खनन भी इसी दृष्टिकोण से उल्लेखनीय हैं। यह स्थल भारत के पूर्वी तट के सहारे-सहारे प्राचीन राजमार्ग पर स्थित धौली एवं जौगड़ नामक अशोक अभिलेख-स्थलों के पास ही है। इन क्षेत्रों में उपर्युक्त भौतिक संस्कृति के तत्त्वों का प्रस्फुटीकरण मौर्ययुगीन मगध के संपर्क के कारण ही हुआ होगा।
यद्यपि आंध्र एवं कर्नाटक क्षेत्रों में मौर्ययुग में हम लोहे के हथियार एवं उपकरण पाते हैं किंतु वहाँ पर लोहे के आगमन का श्रेय महापाषाण संस्कृति के निर्माताओं को है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल अशोक के अभिलेख मिले हैं, अपितु ई० पू० तृतीय शताब्दी में उत्तरी क्षेत्र में काली पॉलिश वाले मृद्भांड भी प्राप्त हुए हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी तट के बाद उपर्युक्त सांस्कृतिक तत्त्व मौर्य सम्पर्क के कारण दक्कनी पठार तक पहुँच गये।
मौर्य साम्राज्य का पतन (Downfall of the Mauryan Empire)
अशोक के उत्तराधिकारी (The Successors of Ashoka)
अशोक का मूल्यांकन या इतिहास में अशोक का स्थान
कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)
अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)
बिन्दुसार मौर्य ‘अमित्रघात’ ( २९८ ई०पू० – २७२ ई०पू )
मेगस्थनीज और उनकी इंडिका ( Megasthenes and His Indika )
सप्तांग सिद्धान्त : आचार्य चाणक्य
अर्थशास्त्र : आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) की रचना
चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य
मौर्य राजवंश की उत्पत्ति या मौर्य किस वर्ण या जाति के थे?
मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )