भूमिका
नवपाषाण युग की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण में जिस संस्कृति का उदय हुआ, उसे वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण संस्कृति (Megalithic Culture) कहा जाता है। इस संस्कृति के लोग अपने मृतकों के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग करते थे। वृहत्पाषाण को अंग्रेजी में मेगालिथ (Megalith) कहा जाता है। यह यूनानी भाषा के दो शब्दों ‘मेगास’ (Megas) तथा ‘लिथॉस’ (Lithos) से मिलकर बना है। ‘मेगास’ का अर्थ वृहत् या बड़ा तथा ‘लिथॉस’ का अर्थ पत्थर होता है। इस प्रकार हिन्दी में इसे वृहत्पाषाण अथवा महापाषाण कहा जाता है।
वृहत् और बृहत् दोनों शुद्ध शब्द हैं। इसलिए वृहत्पाषाण संस्कृति और बृहत्पाषाण संस्कृति दोनों शब्द मिलते हैं। इसके लिए एक अन्य नाम ‘महापाषाण संस्कृति’ भी प्रचलित है।
महापाषाण संस्कृति मुख्यतः अपनी शवाधान प्रथा ( burials customs ) के लिए जानी जाती है। यद्यपि इन शवाधानों को महापाषाण या वृहत्पाषाण ( megalith ) नाम दिया गया है, तथापि बड़े पत्थरों से इनका सम्बन्ध नहीं है। इन शवाधानों की पहचान है बड़ी संख्या में लौह उपकरण और काले व लाल मृद्भाण्ड।
ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत में नवपाषाणकाल के बाद लौहकाल का प्रारम्भ हो गया। यहाँ पर नवपाषाणकाल और लौहकाल के मध्य उल्लेखनीय रूप से ताम्रपाणाकाल या काँस्यकालीन चरण देखने को नहीं मिलता है।
प्रसार
दक्षिण के आन्ध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल के विभिन्न पुरास्थलों जैसे बह्मगिरि, मास्की, पुदुकोट्टै, चिंगलपुर, शानूर आदि से वृहत्पाषाणिक समाधियों के अवशेष मिले हैं। इनका विस्तार तमिलनाडु के टुट्टूक्कुडी ( थूथूकोडी ) जनपद में स्थित आदिचनल्लूर से लेकर उत्तर में महाराष्ट्र के नागपुर तक मिलता है।
महाराष्ट्र में पाये जाने वाले महापाषाण अधिक प्राचीन लगते हैं। कर्नाटक, आन्ध्र की ग्रेनाइट चट्टानों वाले प्रदेश में पाये जाने वाले बृहत्पाषाण लौहयुगीन है। यद्यपि इस संस्कृति के लोग प्रायद्वीप के समूचे ऊँचे क्षेत्रों में पाये जाते हैं तथापि पूर्वी आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में इनका जमाव अधिक दिखाई देता है। आवास तथा शवों को दफनाने के लिये वे अधिकांशतः पहाड़ियों की ढलानों पर आश्रित थे। महापाषाणिक संस्कृति हमें दक्षिण भारत के ऐतिहासिक युग में प्रवेश कराती है।
प्रमुख स्थल :-
- महाराष्ट्र
- बहल ( Bahal ) – जलगाँव जनपद
- तेकबाड़ा ( Tekwada ) – जलगाँव जनपद
- कौण्डिन्यपुर ( Kaundinyapur ) – अमरावती जनपद
- जूनापाणि ( Junapani ) – नागपुर जनपद
- ताकलघाट ( Takalghat ) – नागपुर जनपद
- खापा ( Khapa ) – नागपुर जनपद
- महुर्झारी ( Mahurjhari ) – नागपुर जनपद
- पौनार ( Paunar ) – वर्धा जनपद
- कर्नाटक
- ब्रह्मगिरि ( Brahmagiri ) – चित्रदुर्ग जनपद
- मास्की ( Maski ) – रायचूर जनपद
- पिकलीहल ( Piklihal ) – रायचूर जनपद
- संगनकल्लू ( Sangankallu ) – बेल्लारी जनपद
- तेक्कलकोटा ( Tekkalkotta ) – बेल्लारी जनपद
- हीरे बेंकल ( Hire Benkal ) – कोप्पल जनपद
- हनमसागर ( Hanamsagar ) – कोप्पल जनपद
- हल्लूर ( Hallur ) – हवेरी जनपद
- टी० नरसीपुर ( Narasipur ) – मैसुरू जनपद
- हेग्गादहल्ली ( Heggadahalli/Heggedehalli) – मैसुरू जनपद
- कोप्पा ( Koppa ) – मैसुरू जनपद
- हुनूर ( Hunur ) – बेलगाँव जनपद
- जदिगेनहल्लि ( Jadigenahalli ) – बेंगलुरू
- तेर्दल-हेलिंगली ( Terdal-Helingali ) – बागलकोट जनपद
- कुशलनगर ( Kushalnagar ) – कोडगू जनपद
- कुडिगे ( Kudige ) – कोडगू जनपद
- रामास्वामी कोनिवे ( Ramaswami Kanive )
- आंध्र प्रदेश
- नागार्जुनकोण्डा ( Negarjunakonda ) – पलनाडु जनपद
- केसरपल्लि ( Kesarpalli/Kesarpalle ) – कृष्णा जनपद
- येलेश्वरम् ( Yeleswaram ) – काकीनाडा जनपद
- तेलंगाना
- पोचमपद ( Pochampad ) – आदिलाबाद जनपद
- तमिलनाडु
- पैयमपल्ली ( Paiyampalli ) – तिरुपत्तूर जनपद
- सुलूर ( Sulur ) – कोयम्बटूर जनपद
- आदिचनल्लूर ( Adichanallur ) – थुथूकोडी जनपद
- कोडुमानल ( Kodumanal ) – इरोड जनपद
- केरल
- पोरकालम् ( Porkalam ) – त्रिशूर जनपद
- कुडाक्कल्लू पराम्बू ( Kudakkallu Parambu ) – त्रिशूर जनपद
- उत्तर प्रदेश
- ककोरिया ( Kakoriya ) – चंदौली जनपद
- कोटिया ( Kotia ) – प्रयागराज जनपद
- बनिमिलिया ( Banimilia ) – मिर्जापुर जनपद
- बेहरा ( Behra ) – मिर्जापुर जनपद
- झारखंड
- कुंतीतोली या खुंतीतोली ( Kuntitoli/Khuntitoli ) – राँची
- जम्मू व कश्मीर सं०शा०क्षेत्र
- बुर्जहोम ( Burzahom ) – श्रीनगर के उत्तर में
- मेघालय में
- नार्तिंग ( Nartiang ) – पश्चिमी जयंतिया हिल्स जनपद
महापाषाण संस्कृति से सम्बन्धित स्थलों को पुराविदों ने दो भागों मे विभाजित किया है –
- आवास स्थल – कर्नाटक में ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकलीहल, संगनकल्लू, हालेंगली, हल्लूर, टी० नरसीपुर; आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोण्ड, केसर पल्लि, येलेस्वरम्; तमिलनाडु में पैयमपल्लि, कुनरत्तूर, तिरुक्कम्पुलिपुर, उरैयूर।
- शवाधान स्थल – कर्नाटक में ब्रह्मगिरि, मास्की, हुनूर, जदिगेनहल्लि; आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोण्ड, चेलेश्वरम्, पोचमपद; तमिलनाडु में अमृतमंगलम्, सनुर, कुन्नपुर; केरल में पोरकालम्।
शवाधान स्थल ( Burial sites ) पुरातात्त्विक सामग्री की प्रचुरता के कारण आवास स्थलों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। कब्रगाह आवास स्थलों से दूर उन सेथलों पर होते थे जो कृषि योग्य भूमि नहीं होती थी।
शवाधान स्थलों मिली पुरातात्त्विक सामग्रियाँ अपेक्षाकृत सुरक्षित और प्रचुर हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन्हें रखने की उद्देश्य भी यही था। इससे माहापाषाण युग के लोगों की लोकोत्तर विश्वास की पुष्टि होती है। सम्भव है कि वे लोग किसी आत्मा जैसी अवधारणा में विश्वास रखते हों।
लोहे और काले-लाल मृद्भाण्ड का यद्यपि महापाषाण संस्कृति से विशेष सम्बन्ध है, किन्तु इन दोनों का प्रयोग उस संस्कृति से पहले और बाद में होता रहा। ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकलीहल, हल्लूर आदि स्थानों के उत्खनन से ज्ञात स्तर-विन्यास के आधार पर सूचित होता है कि नवपाषाणकाल और ताम्रपाषाण काल के अंतिम चरणों से ही लोहे व काली-लाल मिट्टी के पात्रों का प्रयोग प्रारम्भ होता है। महापाषाण काल में ये व्यापक रूप से प्राप्त होते हैं और प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल तक इनका प्रचलन था। ये विशिष्ट प्रकार के पात्र अंदर से काले और लाल रंग के होते हैं।
समाधियों के प्रकार
आकार-प्रकार तथा बनावट में भिन्नता के आधार पर विद्वानों ने महासमाधियों को ४० विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है। पुरातात्त्विक सर्वेक्षण कार्यालय के तत्त्वावधान में वी० डी० कृष्णस्वामी ने भौगोलिक आधार पर महापाषाणीय स्मारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में समाहित किया है —
एक, कक्षयुक्त शवाधान (The Chamber Tomb) – इस कोटि की कब्रें चौकोर, समकोणीय, आयताकार, विषम चतुर्भुज आकार की हैं। चारों ओर शिलाखंड खड़े करके ऊपर से इसे एक पत्थर से ढक दिया जाता था। कुछ कक्षयुक्त कब्रों में प्रवेश द्वार भी होता था। कक्षयुक्त शवाधानों में भी अनेक प्रकार की छोटी-छोटी विविधताएँ पायी जाती हैं :-
- मार्ग कक्ष ( Tha Passage chambers )
- पोर्ट-होल कक्ष ( The Port-hole Chamber )
- आयताकार कक्ष ( The Oblong Chamber )
- टॉपिकल ( The Topicals )
- कुडैकल ( The Kudaikals )
- चट्टानों को काटकर बनायी गयी गुफाएँ ( The Rock-cut Caves )
दो, कक्षविहीन शवाधान (The Unchambered Graves) – इनमें भी अनेकों रूप मिलते हैं। इस प्रकार के शवाधान प्रायः गड्ढे बनाकर या फिर पत्थर का घेरा बनाकर निर्मित की जाती थी। कलश में शव के अवशेष एकत्र करके गड्ढे में रखा जाता था। इसके भी विविध प्रकार हैं :-
- गर्त शवाधान ( The Pit Burials )
- गर्तचक्र ( The Pit Circle )
- बैरो ( The Barrows )
- मेनहिर ( The Menhirs )
- केयर्न प्रस्तर चक्र ( The Cairn Stone Circle )
- सैक्रोफैगस या टेराकोटा सैक्रोफैगस समाधि ( The Terracotta Sarcophagus Burials )
- अस्थिकलश ( The Urn Burials )
तीन, शवाधान-विहीन स्मारक (Monuments; Stone Alignments or Monuments not actually associate with burials)– बड़े शिलाखंडों अथवा पत्थर की पटिया को समांतर विशिष्ट ढंग से खड़ा करके इस प्रकार के स्मारक बनाये जाते थे। कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में ऐसे अनेक स्थल प्राप्त हुए हैं। कर्नाटक के कोप्पल जनपद में हनमसागर ( Hanamsagar ) में ऐसे स्मारक के लिए खड़े किए गए पत्थरों की संख्या एक हजार है। इनमें से अधिकांश स्थलों के निकट महापाषाणीय को भी प्राप्त हुई हैं।
इनमें कुछ प्रमुख हैं-
- गर्तचक्र समाधियाँ ( Pit circle graves )
- ताबूत ( Cists )
- लेटराइट कक्ष ( Laterite chambers )
- पंक्तिबद्ध दीर्घाश्म स्तम्भ या मेनहिर ( Alignments or merhirs )
- सैक्रोफैगस ( Sacrophagi )
- अस्थिकलश ( Urns )
कुछ प्रमुख महापाषाण समाधियों के विवरण
डाल्मेन ताबूत (Dolmenoid cists) –
“डाल्मेन” का अर्थ होता है पत्थर की मेज (Stone table)। इन्हें समतल जमीन पर सीधे अनगढ़े शिला फलकों की सहायता से तैयार किया जाता था। एक या अधिक सीधी शिला फलकों, जिन्हें आर्थोस्टेट (Orthostates) कहा जाता था, की सहायता से आयताकार कक्ष का निर्माण होता था जो पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बाई में रखे जाते थे। समाधि की फर्श पर पत्थर की एक बड़ी पटिया बिछा दी जाती थी तथा ऊपर से एक या दो पट्टिकाओं से ढका जाता था। समाधि को कक्षों में विभाजित करने के लिये कभी-कभी अन्य पटियाओं का उपयोग किया जाता था। शिला फलकों से निर्मित इस प्रकार के कक्षों का अधिकांश भाग जमीन में गड़ा होता था तथा केवल कुछ भाग ही ऊपर होता था। डाल्मेन जमीन के ऊपर रहता था जबकि ताबूत नीचे बनता था। समाधि की पूर्वी पटिया में एक प्रकार का छिद्र (Port hole) होता था जिससे सामग्री डाली जाती रही होगी। समाधियों में मिट्टी की सपाद शव मंजूषा (ताबूत) (Legged sarcophagus terracotta) जमीन की सतह पर रखी हुई मिलती है। साथ-साथ काले-काले मुद्भाण्ड एवं लौह उपकरण भी मिलते हैं। डाल्मेन ताबूत ब्रह्मगिरि ( चित्रदुर्ग जनपद, कर्नाटक ) तथा चिंगलपुत्त ( तमिलनाडु ) से मिलते है।
स्तूपाकार ढेर या वृत्त (संगोरा) (Cairn circle) –
इन्हें तमिल भाषा में निड़ईकलतेड्डि कहा जाता है। इस प्रकार की समाधियों के निर्माण के लिये पहले जमीन में एक गड्ढा खोदा जाता था। उसकी फर्श पर अस्थि-अवशेष, उपकरण एवं मृद्भाण्ड आदि रखकर उसे भर दिया जाता था। तत्पश्चात् उसके चारों ओर पत्थर के टुकड़ों (रबल्स) से ऊँचाई तक इस प्रकार ढका जाता था कि उसका आकार समाधि जैसा हो जाता था। कुछ समाधियों में मिट्टी की सपाद शव मंजुषा (ताबूत) (Legged sarcophagus terracotta) भी मिलती हैं। इस प्रकार के स्मारक तमिलनाडु के चिंगलपुत्त जिले में मिलते हैं।
छाता प्रस्तर (Umbrella stone) तथा शीर्ष प्रस्तर (Hood stone) –
इस प्रकार की महापाषाणिक समाधियों के शीर्ष भाग खुले हुए छाते तथा सर्प के फन की भाँति दिखाई देते हैं। दक्षिण के लोग इन्हें क्रमशः टोपीकल्लू तथा कुदईकल्लू (कुदकल्लू) कहते थे।
केरल राज्य के कोचीन क्षेत्र से शीर्ष प्रस्तर स्मारक पाये गये हैं। इस क्षेत्र के एक अन्य स्मारक को ‘नडुकल’ अथवा ‘मेन्हीर’ (Menhir) कहा जाता है। ये ग्रेनाइट पत्थर के हैं जिन्हें एक ही पत्थर से (एकाश्मक – Monolithic) तैयार किया गया है। इनकी लम्बाई डेढ़ से ढाई मीटर तक है जिन्हें समाधियों के समीप उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बवत् गाड़ा गया है।
लैटराइट (Laterite) मैदानों में कई स्थानों पर इनके नीचे मृतक भाण्ड भी मिले हैं। कोमलपरथल नामक स्थान पर नडुकलों की एक पंक्ति मिलती है जिसमें कई प्रकार के नडुकल है। सबसे बड़ा पौने तेरह फुट लम्बे, साढ़े सात फुट चौड़े आधार पर तथा एक फुट शीर्ष पर चौड़े पत्थर का बना है।
केरल के कोचीन जिले के कुकम्पत तथा त्रिशूर जनपद के पोर्कलम् से गुफा समाधियाँ (तडि गुफा) मिलती है जिनमें लौह उपकरण एवं मृद्भाण्ड पाये गये हैं। इस कारण इन स्मारकों को गणना भी महापाषाण में की जाती है। इन्हें बनाने के लिये पहले चट्टान में सीढ़ीदार एक आयताकार गड्ढा खोदा जाता था। खड़ी दीवार में एक प्रवेशद्वार खोदा जाता था तथा इसी मार्ग से पूरी गुफा का स्वरूप तैयार होता था। अधिकांशतः गुफा की फर्श गोलाकार तथा छत गुम्बदाकार मिलती है। बीच में आयताकार, गोलाकार अथवा वर्गाकार खम्भा भी गड़ा हुआ मिलता है। कुछ गुफाओं में कई कक्ष भी बनाये जाते थे।
चिंगलपुत्त से एक अन्य प्रकार का स्मारक भी पाया जाता है जिसे ‘अन्त्येष्ठि कलश‘ (Urn Burial) कहा जाता है। भूमि के ऊपर मिट्टी के टीले (Burrow) के नीचे लम्बा अण्डाकार मृतक भाण्ड (Urn) अथवा पकी मिट्टी का सपाद ताबूत (Legged sarcophagus) गड़ा हुआ मिलता है। कहीं-कहीं इनमें लौह उपकरण एवं मिट्टी के बर्तन भी पाये जाते है।
इस प्रकार दक्षिण भारत के विभिन्न पुरास्थलों से भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के वृहत्पापाणिक स्मारक प्राप्त होते हैं। इन स्मारकों के निर्माताओं के विषय में कुछ भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है।
उत्तर भारत की महापाषाण समाधियाँ
बीसवीं शती के छठे दशक (१९६० ईस्वी) तक विद्वानों को धारणा थी कि वृहत्पाषाणिक संस्कृति का प्रसार गोदावरी घाटी के दक्षिण में ही था। इसके पूर्व यद्यपि विन्ध्य क्षेत्र के मिर्जापुर जिले में एलेक्जेंडर कनिंघम एवं मसूरिया ने कुछ बृहत्पाषाणिक समाधियों की खोज की थी किन्तु उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
१९६२-६३ ई० में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष जी० आर० शर्मा के नेतृत्व में विन्ध्य क्षेत्र के पहाड़ी इलाके में प्रारम्भ किये गये व्यापक अनुसंधान के परिणामस्वरूप ही वाराणसी, मिर्जापुर, प्रयागराज तथा बाँदा जनपदों के विभिन्न क्षेत्रों से इन समाधियों को खोज निकाला गया।
वाराणसी मण्डल के चकिया तहसील में स्थित चन्द्रप्रभा नदी घाटी के हथिनिया पहाड़ी क्षेत्र में संगोरा प्रकार की समाधियाँ प्राप्त हुई है। इनका प्रसार मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रयागराज, चित्रकूट, बाँदा आदि में मिलता है। ककोरिया, कोटिया, कोल्डीहवा, खजुरी, मघा आदि प्रमुख पुरास्थल है जहाँ खुदाई करके इन समाधियों को प्रकाशित किया गया है।
ककोरिया ( Kakoriya ) पुरास्थल चन्दौली के चकिया तहसील में चन्द्रप्रभा नदी तट पर स्थित है। यहाँ १९६२ से १९६४ तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के तत्वावधान में खुदाई करवायी गयी। यहाँ से संगोरा प्रकार को आठ तथा सिस्ट प्रकार की तीन समाधियाँ मिलती है। एक सिस्ट समाधि संगोरा समाधि के अन्दर बनायी गयी थी। संगोरा समाधियों की खुदाई में मानव अस्थियों के साथ-साथ काले-लाल मृद्भाण्ड, लघुपाषाणोपकरण, पशुओं की अस्थियाँ आदि प्राप्त होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि शवों को अन्यत्र विसर्जित करने के बाद अवशिष्ट अस्थियों को हो यहाँ दफनाया जाता था। इसी कारण इन समाधियों से प्राप्त कंकाल सुरक्षित दशा में नहीं मिले हैं। सिस्ट समाधियों का निर्माण लघु पाषाण खण्डों से किया गया है। यहाँ दक्षिण की समाधियों की भाँति चार शिलाओं को चारों ओर नहीं खड़ा किया जाता था। ताबूत (Cist) का कुछ भाग जमीन के ऊपर निकला हुआ रहता था। ककोरिया की समाधियों से लौह उपकरण नहीं मिलते।इस आधार पर विद्वान इन्हें ताम्रपाषाणकाल से सम्बंधित करते है।
इस क्षेत्र का दूसरा पुरास्थल कोटिया चकिया तहसील में ही बेलन नदी के किनारे स्थित है। यहाँ के उत्खनन में संगोरा तथा सिस्ट प्रकार की समाधियाँ मिलती है। इनकी एक खास विशेषता यह है कि इनमें काले-लाल मृद्भाण्डों के साथ-साथ लौह उपकरण भी मिले है। इनमें दरांती, बसुला, बाणाग्र आदि लौह उपकरण सम्मिलित है। मानव अस्थियाँ नहीं मिलती किन्तु गाय, वृषभ आदि पशुओं की अस्थियाँ मिलती है। जी० आर० शर्मा के अनुसार इन स्थलों से जो भौतिक संस्कृति दिखाई देती है। वह ताम्रपाषाणिक लोगों की ही है। एक शवाधान की रेडियो कार्बन तिथि ईसा पूर्व तीसरी शती की प्राप्त होती है।
बृहत्पाषाणिक संस्कृतियाँ ककोरिया, कोटिया समेत विन्ध्य क्षेत्र के एक बड़े भूभाग में फैली हुई थीं। ककोरिया समाधियों से एन० बी० पी० मृद्भाण्ड के ठीकरे नहीं मिलते। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में एन० बी० पी० स्तर के प्रारम्भ होने तक (लगभग ईसा पूर्व छठीं शताब्दी) वृहत्पाषाणिक संस्कृति का अन्त हो गया था।
विदर्भ क्षेत्र
वृहत्पापाषाण संस्कृतियों का विस्तार महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में भी मिलता है। नागपुर विश्वविद्यालय तथा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से किये गये उत्खनन एवं अन्वेषण के परिणामस्वरूप विदर्भ के पूर्वी क्षेत्र से अनेक पुरास्थलों से संगोरा तथा सिस्ट प्रकार की समाधियाँ मिली है; यथा – कौण्डिन्यपुर ( अमरावती जनपद ), जूनापाणि ( नागपुर जनपद ), ताकलघाट ( नागपुर जनपद ), महुर्झरी या माहुरझारी या माहुर्झारी ( नागपुर जनपद ), पौनार ( वर्धा जनपद ) आदि। इनमें शवों के साथ-साथ पशुओं की हड्डियों, काले-लाल भाण्ड तथा लौह उपकरण आदि रखे गये हैं।
इस प्रकार भारत में वृहत्पापाणिक संस्कृतियों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था और यह नहीं कहा जा सकता कि ये मात्र विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में ही सीमित थी।
इन रचनाओं के उद्देश्य अथवा उपयोग के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है। गार्डन चाइल्ड का अनुमान है कि वृहत्पाषाण किसी अन्धविश्वास सम्बंधित अनुष्ठानिक अथवा धार्मिक उद्देश्य से बनाये जाते थे।
महापाषाण संस्कृति : सामान्य विशेषताएँ
वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों की कुछ सामान्य विशेषताएँ दिखायी देती है जो इस प्रकार हैं :-
१-प्राय सभी का निर्माण ऊँचे पहाड़ी स्थलों पर किया गया है।
२-इनके नीचे एक या अधिक तालाब निर्मित पाये गये हैं। इसका कारण संभवतः निर्माण सामग्रियों की सुलभता और कृषि के लिये सिंचाई की सुविधा रहा होगा। इससे यह भी ज्ञात होता है कि ये स्मारक रहने की बस्ती के समीप ही बनाये जाते थे।
३-इन स्मारकों के निर्माता कृषि कर्म से भली-भाँति परिचित थे। उनके द्वारा उत्पादित प्रमुख अनाज चावल, जौ, चना, रागी (मडुआ) आदि थे। गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़े आदि उनके पालतू पशु थे।
४-वे लोहे के उपकरणों का प्रयोग करते थे। समाधियों की खुदाई में विविध प्रकार के लौह उपकरण जैसे तलवार, कटार, त्रिशूल, चपटी कुल्हाड़ियाँ, फावडे, छेनी, बसूली, हँसिया, चाकू, भाला आदि पाये गये है। ये कृषि तथा युद्ध दोनों से संबंधित हैं।
५-सभी समाधियों से एक विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्ड, जिन्हें कृष्ण-लोहित अथवा काले और लाल भाण्ड (Black and Red ware) कहा जाता है, प्राप्त होते हैं। ये चाक पर बनाये गये हैं। इनके भीतरी तथा मुँह के पास वाला भाग काला तथा शेष लाल है। इन्हें औधे मुँह आंवों में पकाया गया है। घड़े, मटके, कटोरे, थाली आदि मुख्य पात्र है।
६-मिट्टी के अतिरिक्त ताम्र तथा काँस्य निर्मित बर्तनों का भी प्रयोग प्रचलित था।
७- प्रायः सभी समाधियों से आंशिक समाधीकरण के उदाहरण मिलते हैं। शवों को जंगली जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। तत्पश्चात् बची हुई अस्थियों को चुनकर समाधि में गाड़ने की प्रथा थी।
महापाषाण संस्कृति : तिथिक्रम
वृहत्पाषाणिक संस्कृति को निश्चित तिथि के विषय में मतभेद है।
ह्वीलर ने बह्मगिरि के उत्खनन में तीन संस्कृतियों को उद्घाटित किया जिसमें दूसरी संस्कृति वृहत्पाषाणकाल की है। यहाँ संगोरा तथा डाल्मेन प्रकार की समाधियाँ मिलती है। ह्वीलर ने इस संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व २०० से ५० ईस्वी के बीच निर्धारित किये जाने का सुझाव दिया है।
ह्वीलर द्वारा निर्धारित तिथि हैमेनडोर्फ़ को दोषपूर्ण प्रतीत हुई। उसका तर्क है कि अशोक का ब्रह्मगिरि अभिलेख नवीन प्रस्तर युग के पशुचारण जाति के लिए नहीं हो सकता। महापाषाणकालीन लोग अशोक के समय से पहले यहाँ रहते होंगे। अतः उन्होंने इस संस्कृति का काल ई० पू० ९०० के आसपास माना है। बाद में ह्वीलर ने भी अपने मत में कुछ संशोधन किया और इस संस्कृति का काल ई० पू० तीसरी शती से प्रथम शती ईसवी तक माना।
रामशरण शर्मा के अनुसार ‘अशोक के अभिलेख में उल्लिखित चोल, पांड्य और चेर संभवतः भौतिक संस्कृति के महापाषाण काल में हुए थे’।( रामशरण शर्मा – प्राचीन भारत )।
हाल में लेशनिक ने भी ह्वीलर के अनुरूप ही ई० पू० ३०० से १०० ई० के बीच महापाषाण संस्कृति का समय माना है।
परन्तु हल्लूर ( हवेरी जनपद, कर्नाटक ) से प्राप्त अवशेषों के ‘कार्बन-१४ परीक्षण’ के आधार पर लोहे के प्रचलन का काल ई० पू० १,००० के आसपास निर्धारित किया गया है।
सुदूर दक्षिण में आदिचनल्लूर, मदुरै तथा पेरुमबैर में प्राप्त महापाषाण शवाधानों में भी प्रसिद्ध काले और लाल मिट्टी के बर्तन प्राप्त होते हैं। इनका काल-निर्धारण नहीं हो सका है। परन्तु बहल तेकवड़ा, रंजला तथा टेकलकोटा में ये मिट्टी के बर्तन ताम्रपाषाणीय स्तर में प्राप्त हुए हैं और हल्लूर में ये प्रारम्भिक लौह युग स्तर से संबद्ध हैं। इस प्रकार सुदूर दक्षिण का महापाषाणीय काल पर्याप्त प्राचीन प्रतीत होता है।
महापाषाण संस्कृति का विकास विश्व के अन्य देशों में भी हुआ था। यूरोप में इस प्रकार के स्थलों से प्रस्तरयुगीन उपकरण प्राप्त हुए हैं और उनका काल ई० पू० २,००० के आसपास माना गया है। ईरान तथा भारत के बीच बहुत बड़े भूभाग में महापाषाण संस्कृति के अभाव के बावजूद गॉर्डन चाइल्ड ने ईरान के सियाल्क-बी (Sialk-B) क़ब्र का सम्बंध एक ओर कॉकेशस या पैलेस्टाइन के महापाषाण स्मारकों से तो दूसरी ओर दक्षिण भारत से जोड़ने का प्रयास किया है। परन्तु पुष्ट साक्ष्य के अभाव में यह कोरी कल्पना लगती है।
कोयम्बटूर जिले के सुलर नामक स्थल से एक समाधि में ईसा पूर्व तीसरी अथवा दूसरी शती की एक मुद्रा मिली है। इसी जिले के पाण्डुकुल्ली से रोमन शासक ऑगस्टस की एक रजत मुद्रा (ई० पू० २७ से १४ ) मिली है। इनसे सूचित होता है कि ईसा पूर्व तीसरी शती से लेकर ईस्वी सन् की पहली शती तक इन स्मारकों का निर्माण किया गया।
कुछ पुरास्थलों हल्लूर, पैयमपल्ली आदि से उपलब्ध रेडियो कार्बन तिथियाँ वृहत्पापाणिक संस्कृति के प्रारम्भ की तिथि ईसा पूर्व १,००० तक ले जाती है। संकालिया तथा के० आर० श्रीनिवास जैसे पुरातत्वविदों की धारणा है कि संगम साहित्य में समाधीकरण का जो विवरण मिलता है वह वृहत्पाषाणिक संस्कृति में प्रचलित प्रथा का ही उल्लेख करता है। संगम साहित्य की तिथि ईस्वी सन् की प्रथम दो शताब्दियों में निर्धारित की जाती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक वृहत्पाषाणिक समाधियों का निर्माण हो रहा था।
इस प्रकार विविध स्रोतों के आधार पर हम इस संस्कृति का कालक्रम ईसा पूर्व एक हजार से लेकर पहली शताब्दी ईस्वी तक निर्धारित कर सकते हैं। सुदूर दक्षिण में यह संस्कृति दूसरी तीसरी शती ईस्वी तक प्रचलित थी।
महापाषाणकालीन जन-जीवन
महापाषाणकालीन लोग साधारणतया पहाड़ की ढलानों पर रहते थे। अपने आवास के लिए वे नैसर्गिक तालाब या जलाशय के निकट पर्वत की उपत्यका का उपयोग करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इन लोगों ने सिंचाई की सहायता से धान की उपज प्रारम्भ की परन्तु प्रारम्भ में कृषि के लिए उपयोगी उपकरण; जैसे – फावड़े, कुदाल, हँसिया आदि की अपेक्षा युद्ध में काम आने वाले हथियार; जैसे – तलवार, बर्छे, बाण, कुल्हाड़ी, त्रिशूल आदि अधिक संख्या में मिलने से यह अनुमान लगाना समीचीन प्रतीत होता है कि लोग इस काल में कृषि का विशेष विकास नहीं कर सके थे। इस संदर्भ में राम शरण शर्मा का विचार उद्धरण के योग्य है – वे उत्तरी भारत में लौह युग की चर्चा करते हुए कहते हैं कि आरम्भ में लोहे का प्रयोग कदाचित् कृषि उपकरणों की अपेक्षा युद्धास्त्रों के निर्माण में अधिक हुआ ( प्राचीन भारत )।
कृषि के लिए इस काल में लोग सीमित भूमि का ही उपयोग कर पाते थे जिनमें वे धान और रागी पैदा करते थे। किंतु विद्वानों ने यह माना है कि ईसा की प्रथम शती में अथवा इससे कुछ पहले ही ये लोग पहाड़ी ढलानों को छोड़ नदी के मुहानों (डेल्टा) की उपजाऊ भूमि को कृषि के लिए उपयोग में लाने लगे थे। ( रामशरण शर्मा – प्राचीन भारत )।
थूथूकुडी जनपद में आदिचनल्लूर में प्राप्त शव कलश महापाषाणकाल से कुछ पहले का माना जाता है। परन्तु लोहा तथा काले और लाल मृदभाण्डों से सम्बंधित होने के कारण यह मानना होगा कि महापाषाणकाल में यहाँ की संस्कृति पल्लवित होती रही। आदिचनल्लूर के अवशेषों में दक्षिण के अत्यंत लोकप्रिय देवता मुरुगन वेलन की उपासना का संकेत प्राप्त होता है। धार्मिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है कि वेल या त्रिशूलमुरुगन से सम्बंधित है। इतना ही नहीं, इस देवता के ध्वज पर मुर्गा अंकित हैं। वैदिक साहित्य तथा महाकाव्यों में त्रिशूल का सम्बंध रुद्र-शिव से है जबकि मुर्गा और मयूर कार्तिकेय से जुड़ा हुआ है, जिनका एकीकरण बाद में मुरुगन से होता है। कार्तिकेय वनस्पति जगत् से सम्बंधित प्रतीत होते हैं। सम्भव है मुरुगन का भी ऐसा ही प्रतीकात्मक अर्थ हो जिस कारण से मुरुगन तथा कार्त्तिकेय का एकीकरण बाद में हो सका। कालांतर में मुरुगन तथा कार्तिकेय का तथा इनसे सम्बंधित वस्तुओं का प्रतीकात्मक अर्थ विस्मृत हो गया और कार्तिकेय युद्ध के देवता के रूप में महत्त्वपूर्ण हो गये।
सम्राट अशोक के अभिलेख से ज्ञात होता है कि पाण्ड्य, चेर, चोल तथा सत्तीयपुत्र जैसे जनजातीय क्षेत्रों में उसका प्रभाव था। दक्कन क्षेत्र के मगध में सम्मिलित होने के कारण वहाँ सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा होगा। मगध जैसे शक्तिशाली तथा विस्तृत साम्राज्य का अंग होने के कारण यहाँ उन्नत कृषि का व्यापक प्रसार अवश्य हुआ तथा सशक्त साम्राज्य के शान्त वातावरण में व्यापार को भी यथेष्ट प्रोत्साहन मिला। उत्तरी तथा दक्षिणी भारत में व्यापार बढ़ा। साथ ही विदेशी व्यापार को भी प्रेरणा मिली। महापाषाणकाल से जुड़े हुए स्थलों पर रोमन शासकों की मुद्राएँ प्राप्त होती हैं। अशोक के काल की ब्राह्मी लिपि का प्रयोग भी आरंभ होने लगा। साथ ही वहाँ आहत सिक्के भी प्रचलित थे।
उत्तरी भारत से निरंतर बढ़ते हुए व्यापक सम्बन्ध के कारण दक्षिण के भौतिक जीवन पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। यह प्रभाव दक्षिणी प्रायद्वीप के अंतिम छोर तक दिखायी देता है। जैन तथा बौद्ध धर्मों के आगमन के साथ ही कृषि प्रणाली भी विकसित हुई। धान की खेती व्यापक रूप से होने लगी। समुन्नत कृषि के कारण स्थिर आर्थिक जीवन सम्भव हुआ और अनेक ग्रामों का उदय हुआ जिसमें से कुछ बाद में प्रसिद्ध नगरों के रूप में विकसित हुए। ग्रामों तथा नगरों में कृषि तथा व्यापार पर आधारित स्थिर जीवन के कारण समाज में वर्गीकरण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। सुदूर दक्षिण में इन प्रभावों के कारण राजनीतिक जीवन भी विकसित हुआ और राज्य-व्यवस्था का रूप उभरने लगा जो धीरे-धीरे शक्तिशाली राज्य के उदय की आधारशिला बना।
महापाषाण संस्कृति के निर्माता
वृहत्पाषाण समाधियों के निर्माताओं की निश्चित पहचान के विषय में मतभेद है। दक्षिण भारत तथा भूमध्य सागर की वृहत्पाषाणिक संस्कृतियों में घनिष्ठ समानताओं को देखते हुए कतिपय विद्वान यह प्रस्तावित करते हैं कि दक्षिण भारत में यह संस्कृति पश्चिमी एशिया से ही आयी थी। इस प्रथम सम्पर्क ने बाद में घनिष्ठ सम्बन्ध का रूप धारण कर लिया जो काफी समय तक चलता रहा। भूमध्य सागरीय क्षेत्र में इसकी प्रारम्भ तिथि ईसा पूर्व द्वितीय सहस्त्राब्दि मानी जाती है। इसके विपरीत हेमनडार्फ, झुकरमैन आदि कुछ विद्वान् आदिचन्नलूर से प्राप्त नर कंकालों के आधार पर दक्षिण की इस संस्कृति का निर्माता द्रविड़ जाति को मानते हैं। ह्वीलर का विचार है कि ब्रह्मगिरि में महापाषाणिक संस्कृतियों के निर्माता बाहर से आये थे। वे द्रविड भाषा-भाषी लोग थे।
विश्लेषण
निस्संदेह महापाषाण युग में निर्मित वस्तुएँ अनेक रूपों की हैं, परन्तु सामान्यतः ये काले-और-लाल मृद्भाण्डों और विशिष्ट प्रकार के लोहे के औजारों के रूप में पायी गयी हैं।
भारत के सम्पूर्ण प्रायद्वीपीय भू-भाग में इनमें एक ‘आश्चर्यजनक एकरूपता’ ( surprising uniformity ) पायी जाती है।
- मिट्टी के बर्तनों में शंकु आकार वाले ( conical ) अथवा लूप वाले ढक्कन ( looped lid ), नौतली गुलदस्ते ( carinated vases ), साधार कटोरे ( pedestalled bowls ), टोंटीदार तश्तरियाँ ( spouted dishes ) विशेष रूप से पायी जाती हैं।
- लोहे के उपकरणों में मुख्य किस्में ये हैं : आड़ी पट्टी वाली कुल्हाड़ियाँ ( axes with cross straps ), दराँती ( sickles ), तिपाइयाँ ( tripods ), त्रिशूल ( tridents ), बल्लमों के सिरे ( spearheads ), तलवारें ( swords ), दीपों की खूँटियाँ ( lamp hangers ), बाणाग्र ( arrowheads ) और दीप ( lamps )।
- घोड़े के साज़ के हिस्से ( Horse-harness bits ) और घंटियाँ ( bells ) भी आमतौर पर पाये जाते हैं।
- कभी-कभी, महापाषाण युग के अवशेषों के साथ इंद्रगोप के रेखित मनके ( beads of etched carnelian ), स्वर्ण आभूषण और ताँबे तथा पत्थर की विविध प्रकार की वस्तुएँ भी पायी जाती हैं।
यह महापाषाणकालीन संस्कृति से न केवल लौह युग के प्रारम्भ होने के समय का अर्थात् भारत के इतिहास के उस समय का ज्ञान मिलता चलता है जब लोहे के औजारों और शस्त्रों का इस्तेमाल आमतौर पर होने लगा था, वरन् इनसे उस समय का भी पता चलता है जब से काल-निर्धारित साहित्य उपलब्ध होना शुरू हो जाता है। इस प्रकार एक तरह से इन महापाषाणों के साथ हमारा प्रागैतिहासिक युग समाप्त हो जाता है और ऐतिहासिक युग प्रारम्भ होता है। अर्थात् प्रागैतिहासिक काल और ऐतिहासिक काल का एक साथ सन्निपात देखने को मिलता है।
महापाषाणों के निर्माताओं की जानकारी अभी भी अत्यल्प है। संस्कृत अथवा प्राकृत साहित्य में इन स्मारकों का कोई उल्लेख नहीं मिलता, हालाँकि प्राचीन तमिल साहित्य में शवाधान की इन प्रथाओं का कुछ वर्णन अवश्य मिलता है।
महापाषाण संस्कृति के अनेक तत्त्व संगम कृतियों में प्राप्त होते हैं। संगम साहित्य के आरम्भिक ग्रंथों जैसे पुरनानुरु, नर्रिणई तथा पदिट्रुप्पत्तु में कलश तथा संगोरा शवाधानों का उल्लेख है। किंतु मणिमेखलै में शव के जलाने, दफनाने, शवाधान के लिए बने गड्ढे, कलश, भूमि के अंदर निर्मित कक्ष तथा संगोरा वृत्तों आदि रीति-रिवाजों का विवरण मिलता है। पदिट्रत्पत्तु के अनुसार चेर राजाओं में भी कलश शवाधान का प्रचलन था। साथ ही कृषि समाज के प्रमुखों (वेलि) में भी इस प्रथा के विद्यमान होने का उल्लेख है।
शवाधान क्रिया में मुद्भाण्ड तोड़ने के विधान का भी संकेत मिलता है। हमें ज्ञात है कि हिंदुओं में आज भी पानी का भरा घड़ा फोड़ना वैदिक अंत्येष्टि संस्कार की अभिन्न क्रिया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि महापाषाण काल के अंतिम चरण के जनजीवन में प्रचलित अनेक प्रथाएँ संगम साहित्य में प्रतिबिम्बित होती हैं।