लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

भूमिका

ताम्र तथा कांस्य के प्रयोग के पश्चात् मानव ने लौह धातु का ज्ञान प्राप्त कर इसका प्रयोग अस्त्र-शस्त्र एवं कृषि उपकरणों के निर्माण में किया। इसके फलस्वरूप मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ।

उत्खनन के परिणामस्वरूप भारत के उत्तरी, पूर्वी, मध्य तथा दक्षिणी भागों के लगभग ७०० से भी अधिक पुरास्थलों से लौह उपकरणों के प्रयोग के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं। इन लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों को क्षेत्रीय विजाजन करके अध्ययन करना सरल हो जाता है।

  • उत्तर भारत की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ
  • मध्य भारत की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ
  • दक्षिण भारत की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

उत्तर भारत की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

उत्तर भारत के प्रमुख उत्खनित लौहयुक्त स्थल हैं :

  • ऊपरी गंगा घाटी
    • अतरंजीखेड़ा – एटा, उ०प्र०
    • आलमगीरपुर – मेरठ, उ०प्र०
    • अहिच्छत्र – बरेली, उ०प्र०
    • अल्लाहपुर – मेरठ, उत्तर
    • खलौआ – खलौआ, उ०प्र०
    • बटेश्वर – आगरा, उ०प्र०
    • हस्तिनापुर – मेरठ, उ०प्र०
    • श्रावस्ती – उ०प्र०
    • काम्पिल्य – फर्रुखाबाद
    • जखेड़ा – कासगंज, उ०प्र
    • मथुरा – उ०प्र०
    • नोह – भरतपुर, राजस्थान
    • सरदारगढ़ – राजस्थान ( बनास नदी घाटी ? )
  • यमुना और चिनाब के मध्य के स्थल
    • रोपड़ – रूपनगर, पंजाब
    • भगवानपुरा – कुरुक्षेत्र, हरियाणा
    • माण्डा – जम्मू, ज० व क० सं०रा०क्षे०
    • दधेरी – पंजाब
    • नागर – पंजाब
    • कटपालोन – जलंधर, पंजाब आदि।

उपर्युक्त अधिकाँश स्थल ऊपरी गंगा घाटी में स्थित हैं।

इनमें हस्तिनापुर के उत्खनन की सामग्री ही विधिवत् प्रकाशित की गयी है। इन स्थलों की प्रमुख पात्र परम्परा चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW ) है। इसके साथ लोहे के विविध उपकरण जैसे भाले, बाणाग्र, कुल्हाड़ी, कुदाल, दराँती, चाकू, फलक, कीलें, पिन, चिमटा, बसूला आदि मिले हैं।

हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा से धातुमल ( Iron slag ) मिलता है जिससे सूचित होता है कि धातु को गलाकर ढलाई की जाती थी। चित्रित धूसर पात्र परम्परा की तिथि रेडियो कार्बन पद्धति के आधार पर ईसा पूर्व आठवीं-नवीं शताब्दी निर्धारित की गयी है।

नोह तथा इसके दोआब क्षेत्र से काले और लाल मृद्भाण्ड ( Black and Red Ware ) के साथ लोहा प्राप्त हुआ है जिसकी संभावित तिथि ईसा पूर्व १,४०० के लगभग है।

भगवानपुरा, माण्डा, दधेरी, आलमगीरपुर, रोपड़ आदि में चित्रित धूसर भाण्ड, जिसका सम्बन्ध लोहे से माना जाता है, सैन्धव सभ्यता के पतन के तत्काल बाद (लगभग १,७०० ई० पू० ) मिल जाते हैं।

केवल एक स्थल — हस्तिनापुर की सामग्री ढंग से प्रकाशित हुई है, और इस स्थल की दूसरी खुदाई का विवरण भी मुख्यतः अप्रकाशित है। नैदानिक मृद्भाण्ड ( diagnostic pottery ) महीन चूर्ण से बने धूसर भाण्ड हैं। (ये चाक-निर्मित भांड हैं जिनमें अधिकांश प्याले और तश्तरियाँ हैं), इन पर काले रंग से स्वास्तिक और सर्पिल — जैसी ज्यामितीय आकृतियाँ चित्रित की गयीं हैं, परंतु ऐसा सीमित मात्रा में ही हुआ है। इनसे जुड़े हुए बर्तन थे लाल भाण्ड ( साधारणतः सादे ), सादे धूसर भाण्ड, काले-लाल भाण्ड और काले-पुते भाण्ड। निर्माण के अवशेष नरकुल एवं लेप के थे, और निर्वाह अर्थव्यवस्था चावल ( शायद गेहूँ और जौ के अतिरिक्त जो कि अतरंजीखेड़ा में पहले के स्तर पर मिलते हैं ), घरेलू मवेशी, भेड़, भैंस और सुअर पर आधारित थी।

हस्तिनापुर में घोड़े की अस्थियाँ मिली हैं। अल्लाहपुर ( मेरठ ) में हिरण से निकट परिचय का संकेत मिलता है। कपड़े के छापे अतरंजीखेड़ा ( एटा ) और नोह ( भरतपुर ) के ठीकरों पर मिले हैं

विविध सांस्कृतिक वस्तुओं में पकी मिट्टी के मनके, अस्थि और हल्के रत्न, पकी मिट्टी के तवे, तरह-तरह की अस्थि और प्रस्तर निर्मित वस्तुएँ, ( पशुओं की ) मृण्मूर्तियाँ, काँच, हाथीदाँत, सीपी और सींग से बनी वस्तुएँ शामिल हैं।

ताँबे की जानकारी तो थी, परंतु उसका प्रयोग छोटी-छोटी वस्तुओं, जैसे कि चूड़ियों, तीरों और सुरमे की सलाइयों तक सीमित था।

लोहे की वस्तुओं में भाले, तीर, कांटे, कोटर, चूल, कुल्हाड़ियाँ, कुदाल ( जखेड़ा से ), दतियाँ ( अतरंजीखेड़ा और जखेड़ा से ), चाकू, फलक, सरिया, चिमटा ( अतरंजीखेड़ा से ), कीलें, पिन और धातुमल शामिल हैं (धातुमल से लोहे की ढलाई का संकेत मिलता है)।

इस स्तर की रेडियो कार्बन तिथियाँ ईसा पूर्व ८०० – ४०० कालावधि में आती हैं हालाँकि यह काल-विस्तार सर्वमान्य नहीं है। इसका आरंभ और भी पहले मानना युक्तिसंगत होगा (अतरंजीखेड़ा की तिथि ईसा पूर्व १,०२५ है )।

विभाजक क्षेत्र और दोआब में यह मुद्भाण्ड आर्यों का प्रतिनिधि माना जाता है। यदि यह मान भी लिया जाय कि आर्य-पुरातत्त्वीय अन्वेषण की परिधि में आते हैं तो भी यह समझना मुश्किल है कि जो मृद्भाण्ड मूलतः सतलुज के पूर्व में मिले हैं और जिस संस्कृति के घटकों में चावल, सुअर और भैंस पायी जाती हैं, उसे किसी उत्तर-पश्चिमी वस्तु के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? और स्पष्ट रूप से कहें तो जिस आर्य आक्रमण की अवधारणा को औपनिवेशिक दौर में गाजे-बाजे के साथ उद्घोषित किया गया था वह इन पुरातात्त्विक सामग्रियों के प्रकाश में अप्रमाणित हो जाता है। क्योंकि पूर्व-वैदिक संस्कृति का केन्द्र सिन्धु-सरस्वती घाटी थी जबकि लोहे से जुड़े मृद्भाण्ड ( चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ) सतलुज के पूर्व में मुख्य रूप से ऊपरी गंगा घाटी में पाये जाते हैं। आर्य आव्रजन संकल्पना के विद्वानों का कहना था कि लोहा आर्य अपने साथ लाये और चित्रित धूसर मृदभाण्ड का इससे सम्बन्ध है।

ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के मध्य के आसपास शुरू होने वाली गांधार समाधि संस्कृति के धूसर भाण्ड के साथ जो सम्बन्ध सुझाया जाता है, उस पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि दोनों संस्कृतियों में एक जैसा कुछ भी नहीं है। किंतु यह बात स्पष्ट नहीं है कि चित्रित धूसर भाण्ड को किस हद तक पृथक् सांस्कृतिक चरण का सूचक मान सकते हैं?

ऐसा प्रतीत होता है कि दोआब में गेरूवर्णी मृद्भाण्ड वर्ग में काले-लाल भाण्ड, काले पुते भाण्ड और लाल भान्ड आते हैं। उदाहरण के लिए, जखेड़ा में ये तीनों मृद्भाण्ड प्ररूप पहले कालखंड में पाये गये हैं। चित्रित धूसर भाण्ड सर्वप्रथम दूसरे कालखंड के पहले चरण में ही मिलते हैं। इस दूसरे कालखंड का दूसरा चरण विकसित चित्रित धूसर भाण्ड अवस्था से सम्बद्ध बताया जाता है, परन्तु इसमें पुराने मृद्भाण्ड-प्ररूप पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं।

किंतु यह ऐसा प्रश्न है जिसका समाधान केवल विस्तृत अनुसंधान से हो सकता है। सबसे जरूरी बात यह है कि दोआब और विभाजक क्षेत्र के समस्त उत्खनित हड़प्पा युगोत्तर स्थलों के बीच विस्तृत तुलनात्मक स्तर-विन्यास स्थापित किया जाना चाहिए।

मध्य व निम्न गंगा घाटी की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

मध्य गंगा घाटी में प्रमुख लौहकालीन स्थल हैं

  • सोनपुर – गया, बिहार
  • चिराँद – छपरा ( सारण ), बिहार
  • झूँसी – प्रयागराज, उ०प्र०
  • राजा नल का टीला – सोनभद्र, उ०प्र०
  • मल्हार – चंदौली

दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश के विविध स्थलों झूँसी, राजा नल का टीला, मल्हार आदि से प्राप्त पुरानिधियों के आधार पर लोहे की प्राचीनता ई०पू० १,५०० तक जाती है।

निचली गंगा घाटी ( पूर्वी भारत ) में प्रमुख स्थल हैं

    • पाण्डु राजार ढिबी – पूर्वी बर्धमान, अजय नदी घाटी; पश्चिम बंगाल
    • महिषदल – पूर्वी मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल

यहाँ लौह उपकरण काले और लाल मृद्भाण्डों के साथ मिले हैं। इनमें बाणाग्र, छेनिया, कीलें आदि है। महिषदल से धातुमल तथा भट्ठियाँ मिलती है जिनसे सूचित होता है कि धातु को स्थानीय रूप से गलाकर उपकरण तैयार किये जाते थे।

पाण्डु राजार ढिबी, माहिषदल, चिरांद और सोनपुर में लौह अवस्था पूर्ववर्ती ताम्रपाषाणयुगीन अवस्था के क्रम में आती है जिसमें काले-लाल भाण्ड देखने को मिलते हैं, केवल लोहा इसमें और जुड़ गया है। उदाहरण के लिए, माहिषदल में लौहयुक्त स्तर पर सूक्ष्म-पाषाण भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, इससे धातुमल के रूप में लोहे की स्थानीय ढलाई का प्रमाण मिलता है। उपलब्ध रेडियो-कार्बन तिथियों से माहिषदल में लोहे के आरम्भ की तिथि ईसा पूर्व ७५० – ७०० प्रतीत होती है। इस तिथि को मोटे तौर पर पूर्वी भारत के अन्य सम्बद्ध स्तरों पर भी लागू कर सकते हैं।

मध्य भारत ( मालवा ) की लौह-प्रयोक्ता संस्कृति

मध्य भारत ( मालवा ) तथा राजस्थान के कई पुरास्थलों की खुदाई से लौह उपकरण प्रकाश में आये हैं। मध्य भारत के प्रमुख पुरास्थल एरण तथा नागदा है। यहाँ से लौह निर्मित दुधारी कटारे, कुल्हाड़ी, बाणाग्र, हंसिया, चाकू आदि मिलते हैं।

एरण तथा नागदा की प्रारम्भिक संस्कृति ताम्रपाषाणिक है जिसमें बाद में लोहा जुड़ गया। अर्थात् यह पुराने ताम्रपाषाणयुगीन तत्त्वों का विस्तार थी, जिसमें लोहा जुड़ गया था और काले-लाल भाण्ड खूब प्रचलित थे।

प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि एरण तथा नागदा में ताम्रपाषाणिक संस्कृति के तत्काल बाद ऐतिहासिक युग प्रारम्भ हो गया ( लगभग ७००-६०० ईसा पूर्व ) तथा इसी में लोहे का प्रयोग होने लगा। किन्तु अब यह स्पष्ट होता है कि दोनों के बीच कुछ व्यवधान था। इसी व्यवधान काल में लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।

इन स्थलों के सूक्ष्मावलोन से ज्ञात होता है कि —

  • पुराने ताम्रपाषाणयुगीन तत्त्व इस अवस्था में भी प्रचलित रहे — यहाँ तक कि इस स्तर से ११२ सूक्ष्मपाषाणों का विवरण मिला है।
  • जो काले-लाल भाण्ड पहले से विद्यमान थे वे खूब प्रचलित हो गये हालाँकि कुछ नई किस्में भी चल पड़ीं, जैसे कि काले-पुते भाण्ड, दानेदार सतह वाले खुरदरे भाण्ड जिनमें लाल तल पर काली तह बनायी जाती थी।
  • घर कच्ची ईंटों के होते थे।
  • पत्थर की वस्तुओं में सान के पत्थर, मूसल, गदाशीर्ष (mace heads), गोफन पत्थर (sling stones), हथौड़े इत्यादि शामिल थे।
  • काँच की चूड़ियाँ, पक्की मिट्टी और हल्के रत्नों के मनके (जिनमें हाथीदाँत और मूँगे के मनके भी थे) मौजूद थे।
  • पकी मिट्टी की तकुआ के अलावा हाथीदाँत की एक चीज थी जिसकी दो नोकें निकली हुई थी और मध्य में खाँच बनी थी। इससे “फिरकी के आकार का संकेत मिलता है जो कि करघे का आवश्यक उपकरण भी है।”
  • हाथीदाँत की एक चौड़ी आकृति से मानव आकृति के प्रतीक का संकेत मिलता है जिसका प्रयोग एक अलंकरण के रूप में हो सकता था। ‘हाथीदाँत की एक मानव आकार की मूर्ति भी थी जिसका सिर प्राकृतिक-जैसा था और नितंब उभरे हुए थे।’
  • ताँबे का प्रयोग प्रकटतः छोटी-छोटी वस्तुओं तक सीमित था।
  • लोहे की वस्तुएँ नागदा में इस निक्षेप के निम्नतम स्तर से ही पायी जाती हैं, और इनमें दुधारी छुरी, कुल्हाड़ी का खोल, चम्मच, चौड़े फलक वाली कुल्हाड़ी, अँगूठी, कील, तीर का सिरा, भाले का सिरा, चाकू, दराँती इत्यादि शामिल थे।

एरण में लौहयुक्त स्तर की तीन रेडियो कार्बन तिथियाँ निर्धारित की गयी हैं :

  • ईसा पूर्व १४०+११० (TF-३२६),
  • ईसा पूर्व १,२७०+११० (TF-३२४) तथा
  • ईसा पूर्व १,२३९+७१ (P-५२५ ) ।

प्रस्तुत लेखक डी० के० चक्रवर्ती के अनुसार नागदा में लौहयुक्त स्तर की तिथि ईसा पूर्व १,१०० के बाद की नहीं हो सकती हालाँकि एन० आर० बनर्जी के अनुसार यह स्तर ईसा पूर्व ८०० के आस-पास का है।

प्रसंगवश, दक्षिण-पूर्व राजस्थान में मालवा के निकट अहाड़ नामक स्थल पर लोहा (इसमें धातुमल भी शामिल है) प्रथम कालखंड के द्वितीय चरण जितने पुराने स्तर पर मिलता है। इसकी तिथि लगभग ईसा पूर्व १,५०० निर्धारित की गयी है। यदि अहाड़ के उत्खनन में कोई भारी स्तरिकीय मिश्रण (stratigraphic mixture) नहीं हुआ है, तो यह मानना होगा कि प्रथम कालखंड के प्रथम चरण के बाद अहाड़ में ताम्रपाषाणयुगीन संस्कृति लौहयुग की संस्कृति बन गयी थी। यह बात उल्लेखनीय है कि अहाड़ के ‘ताम्रपाषाणयुगीन’ (chalcolithic) स्तर पर लोहे का साक्ष्य एक खाईं से नहीं, बल्कि पाँच खाइयों से मिलता है।

दक्षिण भारत

आन्ध्र, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु के विविध पुरास्थलों से वृहत् अथवा महापाषाणिक ( Megalithic ) संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं। प्रमुख स्थल निम्न हैं —

  • ब्रह्मगिरि – चित्तलदुर्ग, कर्नाटक
  • मास्की – पिकलीहल, कर्नाटक
  • पुदुकोट्टै – तमिलनाडु
  • चिंगलपुत्त – तमिलनाडु
  • शानूर,
  • हल्लूर – हवेरी, कर्नाटक आदि।

इन स्थलों से प्राप्त महापाषाणिक समाधियों से बड़ी संख्या में लौह उपकरण जैसे- तलवार, कटार, त्रिशूल, चिपटी कुल्हाड़ियाँ, फावड़े, छेनी, बसूली, हंसिया, चाकू, भाले आदि लगभग तैतीस प्रकार के उपकरण काले तथा लाल रंग के मृदभाण्डों के साथ मिले हैं।

हल्लूर नवपाषाण एवं महापाषाण के बीच एक संक्रान्ति काल की सूचना देता है। विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त उपकरणों को भिन्न-भिन्न तिथिक्रमों में रखा गया है। ह्वीलर इस संस्कृति की प्राचीनतम तिथि ईसा पूर्व तीसरी दूसरी शती निर्धारित करते हैं किन्तु आधुनिक शोधों से जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं, उनके आधार पर दक्षिण में लौह उपकरणों के प्रयोग की प्राचीनता काफी पीछे तक जाती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दक्षिण में लोहे का प्रयोग सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व में प्रारम्भ हो गया था। हल्लूर उपकरणों की रेडियो कार्बन तिथि ईसा पूर्व १,००० के लगभग निर्धारित की गयी है।

लोहे की प्राचीनता सम्बन्धी विवाद 

भारत में लोहे की प्राचीनता के विषय में विवाद है। पहले ऐसा माना जाता था कि मध्य एशिया की हित्ती जाति ( ई० पू० १,८००-१,२०० ) का इस पर एकाधिकार था और सर्वप्रथम उसी ने इसका प्रयोग किया। किन्तु अब इस सम्बन्ध में नवीन साक्ष्यों के मिल जाने के बाद यह मत मान्य नहीं है।

नोह ( राजस्थान ) तथा इसके दोआब क्षेत्र से लोहा काले और लाल मृदभाण्डों ( Black and Red Wares ) के साथ मिलता है जिसकी सम्भावित तिथि ई० पू० १,४०० है। कुछ स्थलों जैसे भगवानपुरा, माण्डा, दुधेरी, आलमगीपुर, रोपड़ आदि में चित्रित धूसर भाण्ड सैन्धव सभ्यता के पतन के साथ (लगभग ई० पू० १,७००) मिलते हैं जिनका सम्बन्ध लोहे से माना गया है।

ऋग्वेद में कवच ( वर्म ) का उल्लेख है जो अवश्य ही लोहे के रहे होंगे। अधिकांश विद्वान यह मानने लगे हैं कि ऋग्वैदिक आर्यों को भी इसका ज्ञान था। हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त उत्तम कोटि के ताँबे और काँसे के उपकरण तथा गंगाघाटी से प्राप्त ताम्र निधियों एवं गैरिक भाण्डों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन भारतीयों का तकनीकी ज्ञान अत्यन्त विकसित था। सम्भव है गंगाघाटी के ताम्र धातुकर्मी हो लोहे के आविष्कर्ता रहे होंगे क्योंकि कच्चे लोहे की दो बड़ी निधियों माण्डी (हिमाचल) तथा नरनौल (पंजाब) उत्तर भारत से ही मिलती हैं। भारत के विभिन्न स्थलों की खुदाई से लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं। ये अत्यन्त समृद्ध एवं विकसित ग्राम्य संस्कृतियाँ हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर ऐतिहासिक काल में द्वितीय नगरीकरण सम्भव हुआ। इन संस्कृतियों के लोग जिस विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्ड का प्रयोग करते थे वे प्रधानत धूसर या स्लेटी (Grey) रंग के हैं और इनके ऊपर काले रंग में चित्रकारियों की गयी है। इन्हें चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grey Ware-P.G.W.) कहा जाता है। प्रारम्भिक मात्रों के साथ लौह उपकरण नहीं मिलते किन्तु बाद में ये सभी स्थलों से मिलते हैं। इस कारण चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति लौहकालीन संस्कृति कही जाती है।

यद्यपि लौहयुगीन संस्कृति के अधिकांश स्थल मध्यदेश अथवा ऊपरी गंगाघाटी क्षेत्र में स्थित है जो सतलज से गंगा नदी तक विस्तृत था, किन्तु इसका विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी मिलता है। प्रमुख स्थल जिनकी ख़ुदाई की गयी है — अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, आलमगीरपुर, अल्लाहपुर (मेरठ), मथुरा, रोपड़, श्रावस्ती, नोह, काम्पिल्य आदि (उत्तरी भारत), नागदा तथा एरण (मध्य भारत) हैं। पूर्वी भारत में जिन स्थलों से ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के साक्ष्य मिले हैं (जैसे पाण्डु राजार ढिबी, महिषदल, सोनपुर, चिरांद आदि) उनके बाद के स्तर से लौह उपकरण भी मिल जाते हैं।

दक्षिण में वृहत्पाषाणिक समाधियों के स्थल से लौह उपकरण मिलते हैं। इस प्रकार यह दिखाई देता है कि ई० पू० १,००० – ६०० तक भारत के प्रायः सभी भागों में लोहे के अस्त्र-शस्त्रों और उपकरणों का प्रयोग बहुतायत में किया जाने लगा। हस्तिनापुर तथा अतरंजीखेड़ा की खुदाइयों में लौह धातुमल तथा भट्ठियाँ मिलती है जिनसे पता चलता है कि यहाँ के निवासी लोहे को गलाकर विविध आकार-प्रकार के उपकरण बनाने में भी निपुण थे। पहले लोहे से युद्ध सम्बन्धी अस्त्र-शस्त्र बनाये गये किन्तु बाद में कृषि सम्बन्धी उपकरणों हंसिया, खुरपी, फाल आदि का भी निर्माण किया जाने लगा। कृषि कार्य में लौह उपकरणों के प्रयोग से अधिकाधिक भूमि को खेती योग्य बनाया गया तथा उत्पादन भी प्रभूत होने लगा।

प्रौद्योगिकी (Technology)

मालवा, पूर्वी भारत और दक्षिणी भारत में लोहे के प्रथम प्रयोक्ता ऐसी किसी कच्ची धातु का प्रयोग सरलतापूर्वक कर सकते थे जो स्थानीय रूप से उपलब्ध थी। दोआब के लोग उस कच्ची धातु पर सुविधापूर्वक निर्भर रह सकते थे जो निकटवर्ती राजस्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। कच्ची धातु की ढलाई आदिम मृत्तिका भट्टियों में हो सकती थी जिनके अनेक नृजातीय समानांतर रूप मिले हैं।

लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ : महापाषाण स्थल माहुरझारी

यह बात उल्लेखनीय है कि बरार में माहुरझारी या माहुर्झारी ( नागपुर जनपद, महाराष्ट्र )के एक महापाषाणयुगीन स्थल पर लोहे की कुल्हाड़ी मिली है जिसमें ६% कार्बन है, अतः उसे इस्पात की संज्ञा देनी पड़ेगी। इस मान्यता में कोई सार नहीं है कि बहुत बाद की ईसा पूर्व शताब्दियों से पहले भारत में इस्पात का प्रयोग अज्ञात था।

भारत में लोहे की प्राचीनता

चित्रित धूसर मृद्भाण्ड ( Painted Grey Ware – PGW )

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