वैदिक संस्कृति के स्रोत

भूमिका

वैदिक संस्कृति के स्रोत के रूप में मुख्यतः वैदिक साहित्य और गौणतः पुरातात्त्विक साक्ष्य भूमिका निभाते हैं। वैदिक सभ्यता का समय १,५०० से लेकर ५०० ई० पू० तक फैला हुआ है। वैदिक काल को सुविधा के लिए दो भागों में विभाजित करके अध्ययन किया जाता है :-

(क) ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक काल (Early Vedic Period)

(ख) उत्तर वैदिक काल (Later Vedic Period)

इस विभाजन का आधार लोहे का प्रयोग है। पहली अवस्था ( ऋग्वैदिक काल ) में लोहे का प्रयोग नहीं होता था जबकि उत्तर वैदिक काल में लोहे का प्रयोग होने लगा था। पूर्व वैदिक काल को लौह पूर्व अवस्था भी कह सकते हैं। साथ ही इसका को जो समय था उसको काँस्य युगीन सभ्यता भी कहा जाता है। परन्तु इसके लिए पूर्व वैदिक अथवा ऋग्वैदिक शब्द अधिक प्रचलन में है। उसी तरह वैदिक काल के पश्चातवर्ती समय के लिए सर्वप्रचलित शब्द उत्तर वैदिक काल है और यह लौह प्रयोक्ता संस्कृतियों में से एक है।

वैदिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए मुख्य रूप से वैदिक साहित्य सहायक होते हैं। हाँ पुरातत्त्व इसमें सहायता अवश्य करते हैं परन्तु इस दिशा में और अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।

वैदिक सभ्यता के स्रोत मुख्य रूप से दो हैं :-

  • पुरातात्त्विक स्रोत
  • साहित्यिक स्रोत

पुरातात्त्विक स्रोत

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि वैदिक काल को ‘लोहे’ के प्रयोग के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है :

एक,  पूर्व वैदिक काल या ऋग्वैदिक काल या पूर्व लौह काल या प्राक् लौह काल।

द्वितीय, उत्तर वैदिक काल या लौह काल।

लोहे की प्राचीनता

लोहे का उल्लेख हमें सबसे पहले उत्तर वैदिक साहित्यों में मिलता है। लोहे के पुरातात्त्विक साक्ष्य १,००० ई०पू० के लगभग का ‘एटा’ जनपद के ‘अतरंजीखेड़ा’ से मिला है। वैसे कुछ नये शोधों से ज्ञात हुआ है कि ‘काशी’ और ‘चंदौली’ के लोग लगभग १,५०० ई०पू० से ही लोहे का प्रयोग कर रहे थे। साहित्यों में हमें ‘श्याम अयस’ और ‘कृष्ण अयस’ जैसे शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है। भारतीय उप-महाद्वीप में लोहे का प्रयोग कब प्रारम्भ हुआ इसके लिए देखें – भारत में लोहे की प्राचीनता और भारत की लौह प्रयोक्ता संस्कृतियाँ

मृद्भाण्ड परम्पराएँ

वैदिक इतिहास के पुनर्निर्माण में मृद्भाण्ड परम्पराओं का विशेष महत्त्व है। यद्यपि इन पात्र परम्पराओं को पूर्ण रूप से वैदिक संस्कृति से सम्बन्धित नहीं किया जा सका है। दूसरे शब्दों में इनकी स्थिति बढ़ी गड्डमड्ड सी है। फिरभी मोटेतौर पर निम्न बातें निकलकर सामने आती हैं :

  • ऋग्वैदिक काल / पूर्व वैदिक काल / पूर्व लौह काल / प्राक् लौह काल :
    • लाल और काला मृद्भाण्ड – यह ऋग्वैदिक काल में पाया जाने वाला सर्वप्रमुख मृद्भाण्ड है। साहित्यों में इसके लिए ‘नील-लोहित मृद्भाण्ड’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
    • ताम्र संचय ( copper hoards ) संस्कृति – ऋग्वैदिक संस्कृति के समकालीन है परन्तु इनका समुचित सम्बन्ध ऋग्वैदिक संस्कृति से था या नहीं इस दिशा में और अनुसंधान की आवश्यकता है।
    • गैरिक मृद्भाण्ड या गेरुवर्णी मृद्भाण्ड – इसका सम्बन्ध ताम्र संचय से जोड़ा जाता है। ये मृद्भाण्ड भी ऋग्वैदिक काल की समय सीमा के अंतर्गत आते है।
  • उत्तर वैदिक काल / लौह काल :
    • चित्रित धूसर मृद्भाण्ड – यह उत्तर वैदिक काल का विशिष्ट मृद्भाण्ड है। यह लौह चरण को प्रदर्शित करता है। परन्तु भगवानपुरा, दधेरी, नागर, कटपालोन आदि से से यह पात्र परम्परा हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद या उत्तर हड़प्पा अवस्था से प्राप्त होता है और इसका उत्तर अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है।
    • उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भाण्ड – यद्यपि इस मृद्भाण्ड की शुरुआत उत्तर वैदिक काल में हुई परन्तु यह सर्वाधिक संख्या में मौर्यकाल में प्राप्त होते हैं क्योंकि उस काल में पत्थरों पर पॉलिश एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बनकर उभरी।

वैदिक साहित्य और पुरातत्त्व के लिए देखें – वेद और पुरातत्त्व

साहित्यिक स्रोत

वेद का अर्थ ‘ज्ञान’ है। वैदिक साहित्य को श्रुति, नित्य और अपौरुषेय कहा गया है । वेदों को संहिता भी कहा गया है। वैदिक साहित्य में ४ वेद और उससे सम्बंधित ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् सम्मिलित हैं। इसके संकलनकर्ता महर्षि वेदव्यास को माना जाता है।

वेद

  • वेदों की संख्या ४ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद क्रमशः लिखे गये।
  • वेद सामान्यतः पद्य में है, परन्तु यजुर्वेद गद्य और पद्य दोनों में है।
  • ऋग्वेद का आकार सबसे बड़ा है उसके बाद क्रमशः अथर्वर्वेद, यजुर्वेद है। सामवेद सबसे छोटा है।
  • ‘वेदत्रयी’ में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद सम्मिलित हैं। वेदत्रयी में अथर्ववेद सम्मिलित नहीं है हालाँकि यह सबसे लोकप्रिय वेद था।
  • अथर्ववेद को ‘ब्रह्मवेद’ कहा गया है। ऋग्वेद को ‘वेदब्रह्म’ कहते हैं।
  • ऋग्वेद और सामवेद को अभिन्न माना गया है।
वेद सम्बन्धित पुरोहित
ऋग्वेद होतृ / होता
यजुर्वेद अध्वर्यु
सामवेद उद्गातृ / उद्गाता
अथर्वेद ब्रह्म / पुरोहित

ऋग्वेद

ऋग्वेद को ‘वेदब्रह्म’ भी कहा जाता है। यह भारत का प्राचीनतम् व सबसे बड़ा वेद हैं। इसके संकलनकर्ता वेदव्यास माने जाते हैं। इसका संकलन सप्तसैंधव प्रदेश ( वर्तमान पंजाब, जोकि भारत और पाकिस्तान का सम्मिलित भू-भाग है ) में हुआ।

इसकी तिथि को लेकर विवाद है। लोकमान्य तिलक इसका संकलन-समय को ६००० ई०पू०, विंटरनित्स ३००० ई०पू० और मैक्समूलर १२०० – १००० ई०पू० बताया है। ऋग्वेद के संकलन का सर्वमान्य समय सामान्यतः १५०० से १००० ई०पू० के मध्य माना जाता है।

ऋग्वेद ऋचाओं ( मंत्रों ) का संकलन है। ऋग्वेद में १० मंडल हैं। ६ मंडल ( २ से ७ तक ) प्राचीन हैं जबकि शेष ४ मंडल ( १, ८, ९ और १० ) परवर्ती हैं। प्रत्येक मंडल की शुरुआत अग्नि की स्तुति से की गयी है, यहाँ तक की ऋग्वेद की प्रथम ऋचा ही अग्नि को समर्पित है। इसके ३ से ८ तक के मंडल एक विशेष ऋषि कुल से संबंधित होने कारण ‘परिवार मण्डल’ भी कहलाते हैं।

ऋग्वेद में अयोध्या का उल्लेख सबसे पहले मिलता है।

ऋग्वेद के संवादसूक्त में भारतीय-नाटक के आरंभिक सूत्र मिलते हैं।

ऋग्वेद के ३ पाठ मिलते हैं :-

१ – शाकल : इसमें १०१७ सूक्त हैं और इसे ही ‘वास्तविक ऋग्वेद’ माना जाता है।

२ – बालखिल्य : यह ८वें मंडल का परिशिष्ट है जिसमें कुल ११ सूक्त हैं।

३ – वाष्कल : इसमें कुल ५६ सूक्त हैं, परन्तु यह अभी तक अप्राप्त है।

ऋग्वेद में कुल सूक्तों की संख्या १०२८ है ( १०१७ + ११ ) और मंत्रों की संख्या १०,४६२ है।

ऋग्वेद के मंडल

मण्डल ऋषि विशेष
प्रथम मधुछन्दा, दीर्घतमा, अंगिरा
द्वितीय गृत्समद
तृतीय विश्वामित्र प्रसिद्ध गायत्री मंत्र इसी मंडल में है।
चतुर्थ वामदेव कृषि सम्बन्धित उल्लेख इसी मण्डल में है।
पंचम अत्रि
षष्ठम् भरद्वाज
अष्टम कण्व ११ सूक्तों का बालखिल्य सूक्त ‘परिशिष्ट’ के रूप में इसी मण्डल में है।
नवम् पवमान अंगिरा यह मंडल सोम के देवता को समर्पित है।

इसी मंडल में एक ऋषि कहता है कि , “मैं कवि हूँ , मेरा पिता वैद्य है और मेरी माता अन्न पीसने वाली है। साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते है।”

दशम् क्षुद्रसूक्तीय, महासूक्तीय इसी मंडल में नासदीय सूक्त और पुरुषसूक्त है।

नासदीय सूक्त में पहली बार अखिल ब्रह्म की कल्पना की गयी है।

पुरुषसूक्त में सर्वप्रथम शुद्र शब्द का प्रयोग मिलता है और इसमें यह बताया गया है कि कैसे चातुर्वर्ण्यों की उत्पत्ति हुई।

 

  • कारूरहम् तातुभिषगुलपल प्रक्षिणी नना। नानाधियो वसूयवोsनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेंद्रो परिस्रव॥
  • एकम् सद् विप्राः बहुदा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥
  • ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः। उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्याम् शुद्रो अजायत्॥
शब्द ऋग्वेद में शब्दों की बारम्बारता
इन्द्र २५० बार
अग्नि २०० बार
सोम देवता १४४ बार
विष्णु १०० बार
वरुण ३० बार
बृहस्पति ११ बार
रुद्र ३ बार
पृथ्वी १ बार
जन २७५ बार
विश १७१ बार
ग्राम १३ बार
राष्ट्र १० बार
विदथ १२२ बार
समिति ९ बार
सभा ८ बार
वर्ण २३ बार
ब्राह्मण १५ बार
क्षत्रिय ९ बार
वैश्य १ बार
शूद्र १ बार
पिता ३३५ बार
माता २३४ बार
गंगा १ बार
यमुना ३ बार
ब्रज ( गोशाला ) ४५ बार
कृषि ३३ बार
अश्व २१५ बार
गाय १७६ बार
गण ४६ बार
सेना २० + बार

यजुर्वेद

यह एक ‘कर्मकाण्डीय’ वेद है। इसमें विभिन्न यज्ञों के अनुष्ठान की विधियों का उल्लेख है। इसमें ४० अध्याय और १९९० ऋचाएँ हैं। यह गद्य और पद्य दोनों में है

यजुर्वेद के दो भाग है –

  • शुक्ल यजुर्वेद और
  • कृष्ण यजुर्वेद।

शुक्ल यजुर्वेद ( वाजसनेयी संहिता ) को ‘वास्तविक यजुर्वेद’ कहते हैं। इसकी दो शाखाएँ हैं ; कण्व और माध्यन्दिन।

कृष्ण यजुर्वेद की ४ शाखाएँ हैं :— काठक, कपिष्ठल, मैत्रेयी और तैत्तिरीय। काठक संहिता में हमें कृषि और उससे सम्बंधित अनेक प्रक्रियायों का उल्लेख मिलता है।

सामवेद 

यह सबसे छोटा वेद है। इसमें कुल १५५९ ऋचाएँ हैं, जिसमें से १४७१ ऋग्वेद से ली गयी हैं, जबकि मात्र ७८ ही इसकी हैं। इसीलिए इसको ऋग्वेद से अभिन्न माना जाता है। साम का शाब्दिक अर्थ है – गायन। इसमें संगीत के सप्तस्वरों का ( सा..रे..गा…) का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। इसकी कुल तीन शाखाएँ हैं – कौथुम, राणायनीय और जैमनीय।

अथर्ववेद 

ऋग्वेद के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा वेद है। अथर्वा ऋषि के नाम पर इसका नाम अथर्ववेद पड़ा। इसे ब्रह्मवेद और श्रेष्ठ वेद भी कहते हैं। यह सर्वाधिक लोकप्रिय वेद था क्योंकि इसमें जनसाधारण से जुड़े भूत-प्रेत, जादू- टोना, आयुर्वेद आदि का उल्लेख है।

इसमें २० अध्याय, ७३१ सूक्त और ५९८७ मन्त्र हैं। इसकी दो शाखाएँ हैं – शौनक और पिप्पलाद।

इससे निम्न जानकारियाँ मिलती हैं –

  • इसमें मृत्युलोक के राजा परीक्षित का सबसे पहले उल्लेख है।
  • इसमें मगध, अंग, अयोध्या आदि का उल्लेख है।
  • इसमें सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ बताया गया हैं।
  • इसमें प्रथम कृषि वैज्ञानिक पृथुवैन्य का उल्लेख है।
  • वैसे तो गोत्र शब्द का उल्लेख सर्प्रथम ऋग्वेद में है परन्तु वहाँ उसका अर्थ गोष्ठ अर्थात् जहाँ एक ही कुल की गायें पाली जाती हैं के अर्थ में हुआ है। अथर्ववेद में गोत्र का प्रयोग सर्वप्रथम कुल के अर्थ में हुआ है जिसका अर्थ है एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय।
  • राजा के निर्वाचन से सम्बंधित सूत्र इसमें पाए जाते हैं।
  • १० प्रपाठकों में निदानसूत्र जैसे रोगनिदान, तंत्र-मन्त्र, जादू-टोना आदि का उल्लेख है। इसके केन सूक्त को चिकित्सा विज्ञान का आधार माना जाता है।

ब्राह्मण

वेदों को समझने के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की रचना गद्य में की गयी। इसका मुख्य विषय कर्मकांड है। प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं।

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण ग्रन्थ हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

  • ऐतरेय ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता महीदास की माँ इतरा के नाम पर इस ग्रन्थ का नाम ऐतरेय ब्राह्मण पड़ा है। इसमें राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत, राज्याभिषेक के यज्ञ विधान, राष्ट्र शब्द का उल्लेख, सोमयज्ञ का वर्णन, शुनःशेप आख्यान आदि का उल्लेख है। समुद्र के लिए अथाह, अनंत, जलधि, आदि शब्दों का उल्लेख है। भारतीय साहित्यों में रत्नाकर शब्द का प्रयोग हिन्द महासागर के लिए गया है।
  • कौषीतकी / शंखायन ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता कुषितक के नाम पर इसका नाम पड़ा है ।

यजुर्वेद से सम्बन्धित दो ब्राह्मण हैं – तैत्तिरीय ब्राह्मण ( कृष्ण यजुर्वेद से सम्बंधित ) और शतपथ ब्राह्मण ( शुक्ल यजुर्वेद से सम्बंधित )।

  • शतपथ ब्राह्मण – इसके संकलनकर्ता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। यह सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण ब्राह्मण माना जाता है। महर्षि याज्ञवल्क्य ने विदेहराज जनक से शिक्षा प्राप्त की थी। इसमें निम्न बातों का उल्लेख मिलता है :-
    • विदेथ-माधव आख्यान से आर्यों के पूर्वी-विस्तार का संकेत मिलता है।
    • इसमें कृषि की पूरी प्रक्रिया का वर्णन मिलता है तथा इसमें ६, १२ और २४ वृषभों से जुते हलों का उल्लेख हैं।
    • इसमें गंडक नदी को सदानीरा और नर्मदा के लिए रेवा शब्द मिलता है।
    • इसमें पुनर्जन्म का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है।
    • इसमें जलप्लावन की कथा का उल्लेख है जिसके अनुसार सम्पूर्ण संसार में जल प्लावित हो जाने पर भगवान ने मत्स्य रूप धारण करके मनु और सतरूपा की रक्षा की थी, इन्हीं मनु वैवस्वत से पुनः जीवन की उतपत्ति हुई।
    • इसमें पुरुरवा और उर्वशी आख्यान है।
    • इसमें चिकित्सक देवता अश्वनी कुमारों द्वारा च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान करने का उल्लेख है।
    • इसमें स्त्री के लिए अर्धांगिनी शब्द का प्रयोग हुआ है।
    • इसमें वैश्यों के लिए अन्यस्यबालिकृत और अन्यस्याद्य शब्द का उल्लेख है।
    • इसमें १२ प्रकार के रत्निनों का उल्लेख है।
    • इसमें रामकथा का वर्णन भी है।

सामवेद के मुख्यतः दो ब्राह्मण हैं – ताण्ड्य और जैमिनीय।

  • ताण्ड्य ब्राह्मण – यह बहुत बड़ा ब्राह्मण है इसीलिए इसे महाब्राह्मण कहते हैं। यह २५ अध्यायों में विभक्त है इसीलिए इसे पंचविश ब्राह्मण भी कहते हैं। इसका एक परिशिष्ट षड्विश भी है जिसे अद्भुत ब्राह्मण कहते हैं क्योंकि इसमें अकाल आदि का उल्लेख है।

अथर्वेद का एकमात्र ब्राह्मण गोपथ ब्राह्मण है।

आरण्यक 

आरण्यक का अर्थ वन है। इसमें आत्मा-परमात्मा के विषय में विचार किया गया है।

ऋग्वेद से जुड़े दो आरण्यक हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

यजुर्वेद से जुड़े आरण्यक हैं – वृहदारण्यक , तैत्तिरीय और शतपथ प्रमुख आरण्यक हैं।

सामवेद के दो आरण्यक हैं – जैमनीय और छान्दोग्य।

अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है।

उपनिषद् या वेदांत 

ये वेदों के अंतिम भाग हैं इसीलिए वेदांत कहलाते हैं। उपनिषद् का अर्थ है गुरु के पास बैठना। इसमें आत्मन् और ब्रह्म के गूढ़ दार्शनिक विचारों का विवेचन किया गया है। उपनिषदों की संख्या १०८ मानी गयी है परन्तु इसमें से १०-१२ उपनिषद ही महत्वपूर्ण हैं जिसपर शंकराचार्य ने भाष्य लिखे हैं।

उपनिषद् गद्य एवं पद्य दोनों में लिखे गये :-

  • पद्य में लिखित उपनिषद्  – कठ, ईश और श्वेताश्वतर उपनिषद्।
  • गद्य में लिखित उपनिषद् – वृहदारण्यक, छान्दोग्य, प्रश्न, माण्डूक्य, ऐतरेय, कौशितकी, तैत्तिरीय, केन आदि।

वृहदारण्यक एवं छान्दोग्य को सबसे प्राचीन उपनिषद् माना जाता है।

 

ऋग्वेद से जुड़े दो उपनिषद हैं – ऐतरेय और कौषीतकी।

यजुर्वेद से जुड़े उपनिषद हैं – वृहदारण्यक, कठोपनिषद, ईशोपनिषद, तैत्तिरीय उपनिषद, श्वेताश्वतर उपनिषद, मैत्रायण उपनिषद, महानारायण उपनिषद आदि। इन उपनिषदों से सम्बन्धित कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं :-

  • वृहदारण्यक उपनिषद में याञवल्क्य-गार्गी संवाद का उल्लेख है।
  • कठोपनिषद में यम-नचिकेता का संवाद है। इसमें आत्मा को पुरुष कहा गया है और मृत्यु से सम्बंधित चर्चाएँ हैं।
  • ईशोपनिषद में कहा गया है की सम्पूर्ण संसार इसी ईश में व्याप्त है।
  • तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है , “अधिक अन्न उपजाओ।”
  • श्वेताश्वतर उपनिषद में सर्वप्रथम भक्ति का उल्लेख मिलता है यद्यपि भक्ति का विस्तृत वर्णन आगे चलकर श्रीमद्भगवतगीता में मिलता है।

सामवेद के दो उपनिषद हैं – छान्दोग्य और जैमनीय।

  • छान्दोग्य उपनिषद – यह प्राचीनतम उपनिषदों में से एक है जो गद्य में लिखा गया है । इसकी प्रमुख बातें निम्न हैं –
    • देवकी पुत्र श्रीकृष्ण का प्राचीनतम् उल्लेख इसमें है।
    • प्रथम तीन आश्रमों का उल्लेख सर्वप्रथम इसी में है अर्थात् सन्यास आश्रम का उल्लेख नहीं है।
    • इसमें कुरु नरेश उद्दालक आरुणि और उनके पुत्र श्वेतकेतु के मध्य आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता से सम्बंधित प्रसिद्ध संवाद है।
    • इसमें “तत् त्वम् असि” का उल्लेख है ।

अथर्ववेद के उपनिषद् हैं – मुंडकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद।

  • मुंडकोपनिषद – इसमें “सत्यमेव जयते” का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। इसी में यज्ञों को ऐसी टूटी नौकाओं के सामान बताया गया है जिसके द्वारा इस जीवन रुपी भवसागर को पार नहीं किया जा सकता।
  • माण्डूक्योपनिषद : यह सभी उपनिषदों में सबसे छोटा है।
  • प्रश्नोपनिषद : इसमें आत्मा-ब्रह्म पर गूढ़ दार्शनिक विचारों का विवेचन है।

भाष्य व अनुवाद

१. भाष्य –

  • परमार काल में उवव्ट ने वेदों पर भाष्य लिखे।
  • चोल काल में वेंकट माधव ने वेदों पर भाष्य लिखे।
  • विजयनगर काल में सायण ने वेदों पर भाष्य लिखे।

२. अनुवाद –

  • मुगलकाल में शाहज़ादा दारा शिकोह ने काशी के विद्वानों की सहायता से ५२ उपनिषदों का फ़ारसी भाषा में ‘सिर्र-ए-अकबर’ ( The Great Secret ) नाम कराया। १८वीं शताब्दी में इसी के माध्यम से उपनिषदीय ज्ञान यूरोप पहुँचा था।
  • मैक्स मूलर ने वेदों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में “Sacred Book Of East” के नाम से किया।

अश्व और आर्य बहस ( THE HORSE AND THE ARYAN DEBATE )

वैदिक साहित्य क्या है?

वेदों के रचयिता कौन हैं?

वेदों का रचनाकाल क्या है?

वैदिक भूगोल

वेद और पुरातत्त्व

आर्य कौन हैं?

आर्यों का मूल निवास स्थान कहाँ था?

आर्य संस्कृति की पहचान

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top