वेद और पुरातत्त्व

भूमिका

वेद और पुरातत्त्व का मिलान करते हुए अध्ययन करना एक स्वस्थ्य परम्परा है। भारतीयों पर पाश्चात्य विद्वानों का आरोप रहा है कि भारतीय साहित्य चाहे वे धार्मिक हो या लौकिक उनमें ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आलोक में भारतीय साहित्यिक रचनाओं को जाँचा परखा जाये।

वैदिक संस्कृति पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो अनायास ही कई जिज्ञासाएँ स्वतः उत्पन्न होती हैं। उन्हीं जिज्ञासाओं में से एक जिज्ञासा है – क्या वैदिक साहित्य में प्रतिबिम्बित भारतवर्ष की पुष्टि किसी पुरातात्त्विक स्रोत या स्रोतों से होती है या नहीं?

वैदिक साहित्य एवं पुरातात्त्विक साक्ष्य

स्वतंत्रता के पश्चात् पिछले लगभग ७६ वर्षों में उत्तर भारत के अनेक स्थलों पर समन्वेषण (explorations) एवं उत्खनन (excavations) हुए हैं। इन स्थलों से हमें विभिन्न पुरातात्त्विक संस्कृतियों की झलक मिलती है। विद्वानों का प्रयास रहा है कि भारतीय साहित्यिक परम्परा को कथानक एवं मिथक मात्र के दायरे से निकाल कर तर्कपूर्ण आधार दिया जाए।

  • देखिए ‘आर्कियोलॉजी एंड ट्रेडीशन’ शीर्षक से परिचर्चा, पुरातत्त्व, अंक ८ : कुछ पुरातत्त्वविदों को ऐसी धारणा है कि भारत के प्राचीन ग्रंथ, विशेषकर पूर्व-बुद्धकालीन कृतियाँ अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इन प्राचीन साहित्यिक रचनाओं में स्तरीकरण है। परन्तु क्षेपक स्तरीकरण से इन साहित्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता है। साथ ही इनका तिरस्कार करना एक स्वस्थ बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है। इन सीमाओं के बावजूद साहित्यिक रचनाओं और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का सामंजस्य केवल न केवल अपेक्षित है वरन् संभव भी है।

इसी दृष्टिकोण से इस दिशा में भी प्रयास जारी है कि वैदिक साहित्य में प्रतिबिम्बित भारत के कुछ भौतिक अवशेष मिल सकें। यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना तो सम्भव नहीं है कि अमुक भौतिक अवशेष ऋग्वेदकालीन लोगों की कृति है और अमुक उत्तर वैदिक सभ्यता की; परन्तु फिरभी वैदिक साहित्य का सर्वमान्य रचनाकाल ( १,५०० से ५०० ई०पू० ) के दौरान की पुरातात्त्विक संस्कृतियों पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन होगा। इस वैदिक संस्कृति की एक सहस्राब्दी की लम्बी यात्रा में मोटे तौर पर चार मृद्भाण्ड परम्पराएँ और ताम्र संचय संस्कृति आ जाती हैं :

ऋग्वेद और पुरातत्त्व

ऋग्वेद के तिथिक्रम से मेल खाने वाली संस्कृतियों में काले एवं लाल मुद्भाण्ड (black and red ware), ताम्रपुंजों (copper hoards) एवं गेरुवर्णी मुद्भाण्डों (ochre coloured pottery) की संस्कृतियाँ आती हैं। परन्तु इनमें से किसी को भी निश्चित रूप से ऋग्वेदकालीन लोगों की कृति मानने में अनेक कठिनाइयाँ हैं।

हड़प्पा सभ्यता के बाद वाले काले एवं लाल मृद्भांडों के तो तिथिक्रम के सम्बन्ध में भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं है। गेरूवर्णी मृद्भांड (OCP) तिथिक्रम की दृष्टि से तो ऋग्वेद के सम- कालीन माने जा सकते हैं, किंतु इस संस्कृति के आज तक ज्ञात लगभग एक सौ से अधिक स्थानों में से बहुत कम ही सप्तसैन्धव क्षेत्र में हैं, जो कि ऋग्वेदीय सभ्यता का केंद्र था। अधिकांशतः ये स्थल गंगा-यमुना दोआब में केंद्रित हैं।

  • इस संदर्भ में एक अन्य तथ्य उल्लेखनीय है – वर्तमान पाकिस्तान के खैबरपख्तूनख्वा प्रांत की स्वात घाटी में घालीगाय ( Ghaligai )नामक स्थल पर हुए उत्खननों के दौरान १८वें स्तर पर हुए उत्खननों से प्राप्त गेरूवर्णी मुद्भाण्डों जैसे मृद्भाण्ड तथा स्तरीकरण प्राप्त हुआ है। इसकी तिथि निर्धारण ईसा पूर्व लगभग १८१० किया गया है। तुलनीय, Giorgio Stacul, “Ocher-Coloured and Grey-Burnished Ware in North-West Indo-Pakistan ( c. 1800-1300 B.C. )”, East and Wet, Volume- 22, No.1-2, 1973.

यह बात ताम्रपुंजों के बारे में भी सही उतरती है। यह सच है कि ऋग्वेद में ताम्र-कांस्य का उल्लेख है लेकिन दुविधा इसी बात की है कि उत्तरी भारत में ताम्रपुजों के अवशेष भी अधिकांशतः गंगा-यमुना दोआब व उसके पूर्व में ही केंद्रित हैं।

ऐसा हो सकता है कि ये तथा गेरूवर्णी मृद्भाण्ड उन अज, शिग्रु एवं यक्षु जातियों द्वारा प्रयुक्त हुए हों, जिनका उल्लेख ऋग्वेद में दशराज्ञ युद्ध के सन्दर्भ में हुआ है और जो गंगा-यमुना दोआब में बसी हुई थीं।

यों तो अफगानिस्तान, पंजाब एवं उत्तरी राजस्थान से, जो कि ऋग्वेदकालीन लोगों की गतिविधियों के केंद्र रहे हैं — धूसर मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं किंतु तिथिक्रम की दृष्टि से इन्हें अधिक-से-अधिक ऋग्वेद काल की अंतिम शताब्दी का माना जा सकता है।

अगर तर्क के लिए ही यह मान भी लिया जाए कि उपर्युक्त पुरातात्त्विक संस्कृतियाँ ऋग्वेद- कालीन कृतियाँ थीं तो यह जान लेना आवश्यक हो जाता है कि इनसे जो भी छुट-पुट जानकारी प्राप्त होती है वह किसी स्थायी जीवन का संकेत नहीं देती। ऐसा प्रतीत होता है कि लोग ऐसा जीवन व्यतीत करते थे, जिसे ऋग्वेद में प्राप्त होने वाले कबायली जीवन के चित्र से मिलाया जा सकता है। ताम्रपुंजों के विभिन्न अस्त्रों के बारे में अधिकांश अटकलें यही लगायी गयी हैं कि वे शिकार में प्रयोग किये जाते होंगे। इसी प्रकार लाल किला (जिला बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) एवं अतरंजीखेड़ा (जिला एटा, उत्तर प्रदेश) के कुछ अपवादों को छोड़कर गेरूवर्णी मृद्भाण्ड के स्थलों से भी स्थायी जीवन के कोई अवशेष नहीं मिलते हैं।

उत्तर वैदिक काल और पुरातत्त्व

जहाँ तक उत्तर वैदिककालीन साहित्य की पुरातात्त्विक पुष्टि का प्रश्न है; उसके सम्बन्ध में सापेक्षिक रूप से कुछ अधिक प्रमाण उपलब्ध हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि इस साहित्य में उपलब्ध लोहे के उल्लेख निराधार नहीं हैं। उत्तरी भारत मे प्राप्त होने वाले लौह युग के आगमन के जो भी संकेत मिले हैं, वे न केवल उत्तर वैदिक साहित्य की भौगोलिक सीमाओं के अंतर्गत हैं अपितु उसके तिथिक्रम के भी अंतर्गत आ जाते हैं। इसी प्रकार पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्राप्त होने वाले चित्रित धूसर मृद्भाण्ड (Painted Grey Ware-PGW) तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार में केंद्रित किंतु अन्य पश्चिमी भागों में, यहाँ तक कि पश्चिम में तक्षशिला तक पाए जाने वाले उत्तरी काली पॉलिशदार मृद्भाण्ड (Northern Black Polished Ware—NBPW) की पुरातात्त्विक संस्कृतियाँ अपने भौगोलिक विस्तार तथा तिथिक्रम ( ईसा पूर्व लगभग ८०० से १०० ) के आधार पर उत्तर वैदिककालीन संस्कृति के अवशेष होने की हक़दार हो सकती हैं।

यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि इन चित्रित धूसर मृद्भाण्डों (ईसा पूर्व लगभग ८००-४०० ) का प्रयोग करने वालों ने ही भारत में लौह युग का प्रारंभ किया था, परन्तु इतना तो अवश्य ही कहा जा सकता है कि यह उनकी एक महान तकनीकी उपलब्धि थी, जो कालांतर में लोगों के जन-जीवन को प्रभावित करने की असीम क्षमता रखती थी।

विश्लेषण

पूर्ववर्ती गेरूवर्णी (OCP) अथवा काले एवं लाल मृद्भाण्डों की संस्कृति की तुलना में चित्रित धूसर एवं उत्तरी काली पॉलिश वाले भूद्भांडों की संस्कृति के अवशेष कहीं अधिक स्थायी जीवन की ओर संकेत करते हैं

कृषि के पर्याप्त अवशेष मिल जाते हैं – जैसे; कि विभिन्न प्रकार की दालें एवं अनाज। यह सच है कि कृषि में काम आने वाले लोहे के विशिष्ट उपकरण नहीं मिले हैं किंतु लोहे के बढ़ते हुए प्रयोग के चिह्नों में कमी नहीं है।

हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, बटेश्वर आदि स्थानों से, जो कि इस काल में प्रसिद्ध कुरु-पांचाल प्रदेश में आते हैं, लोहे के युद्धास्त्रों के पर्याप्त अवशेष मिले हैं। अतरंजीखेड़ा से ही एक दराँती और नोह से कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है। इनके अतिरिक्त चाकू, चिमटे-जैसी घरेलू वस्तुएँ तथा पिनें, कीलें जैसी इमारती वस्तुएँ भी मिलती रही हैं। काँच उद्योग के अस्तित्व के भी प्रमाण मिलते हैं।

यद्यपि हरियाणा में कुरुक्षेत्र के पास भगवानपुरा नामक स्थल पर चित्रित धूसर मृद्भाण्डीय संस्कृति के एक विशाल व्यवस्थान के बारे में हाल में काफी चर्चा हुई है, जिसके आधार पर पक्की ईंटों से बने तेरह-कक्षीय भवन की बात की जा रही है, किंतु अभी और अनुसंधान की आवश्यकता है।

कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि लोग समृद्ध ग्रामीण जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी जीवन में उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भाण्डीय संस्कृति के काल में और अधिक प्रगति हुई। कृषि क्षेत्र का और अधिक विस्तार और आर्थिक दृष्टि से मुद्रा प्रणाली का आगमन एक महत्त्वपूर्ण विकासशील कदम था। इस संस्कृति का आरम्भ ईसा पूर्व लगभग ६०० से हुआ और लगभग इसी समय से भारत के प्राचीनतम सिक्के — जिन्हें आहत मुद्राएँ कहते हैं—मिलने आरम्भ होते हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप से हम यह कह सकते हैं कि यद्यपि चित्रित धूसर मृद्भाण्डों तथा उत्तरी काली पॉलिश वाले मृद्भांडों के रूप में प्राप्य पुरातात्त्विक संस्कृति की जानकारी अभी अपूर्ण है, किंतु उत्तर वैदिककालीन साहित्य की संस्कृति से इनकी पहचान स्थापित करने के प्रयत्न निराधार तो नहीं ही हैं, अपितु पर्याप्त तर्कपूर्ण भी लगते हैं।

  • The Later Vedic Phase and the Painted Grey Ware Culture, Archaeology, Volume – 8 ( 1975-76 ) : R. S. Sharma.

क्योंकि हमारा पुरातात्त्विक ज्ञान अत्यन्त सीमित है, अतः वैदिक काल के जन-जीवन की झाँकी के लिए वैदिक साहित्य पर निर्भर होना अपरिहार्य ही नहीं आवश्यक भी है।

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