वेदों का रचनाकाल क्या है?

भूमिका

वेद मानव सभ्यता और संस्कृति की अमूल्य थाती हैं। वेदों से सम्बन्धित कई समस्याओं में से एक प्रश्न यह भी है कि वेदों का रचनाकाल क्या है? या वैदिक साहित्य की रचना कब हुई? इस पर विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्हीं विचारों और जहाँ तक सम्भव हो पुरातत्व की सहायता से मिलान करके हम वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास करेंगे।

वेदों का रचनाकाल

यद्यपि वैदिक साहित्य के सम्पूर्ण रचनाकाल के सम्बंध में विभिन्न मत हैं, तथापि सौभाग्यवश इस समस्या के एक पहलू पर पर्याप्त सहमति है। रचनाकाल की दृष्टि से इस विपुल साहित्य को सुगमतापूर्वक दो भागों में बाँटा जा सकता है –

  • पूर्व वैदिक काल एवं
  • उत्तर वैदिक काल।

सामान्यतया ऋक् संहिता के रचनाकाल को पूर्व वैदिक काल तथा शेष अन्य संहिताओं एवं ब्राह्मण, आरण्यक व उपनिषदों के रचनाकाल को उत्तर वैदिक काल माना जाता है।

सर्वप्रथम हम ऋग्वेद के तिथि पर विचार करते उसके बाद शेष वैदिक साहित्यों पर :-

ऋग्वेद की तिथि – ऋग्वेद को तिथि निर्धारित करना एक जटिल समस्या है। ऋग्वेद अथवा पुरातत्त्व से इस विषय पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। भारतीय मान्यता इसे अपौरुषेय और नित्य मानती है। जिसके अनुसार वैदिक मन्त्रों में जिन ऋषियों का उल्लेख मिलता है वे उनके रचयिता नहीं, अपितु द्रष्टामात्र हैं। इसके विपरीत पाश्चात्य विद्वान वेदों के अपौरुषेयता की बात स्वीकार नहीं करते। उनका मत है कि मन्त्रों में सम्बद्ध ऋषि ही उनके कर्ता हैं। विभिन्न विद्वानों ने ऋग्वेद की तिथि के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। कुछ प्रमुख मत इस प्रकार हैं –

  • मैक्समूलर का विचार है कि ऋग्वेद की रचना ई० पू० १,२०० से १,००० के बीच हुई थी। उनका विचार है कि ईसा पूर्व छठीं शती के पूर्व वेदों की रचना पूरी हो चुकी थी। उन्होंने सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का विभाजन छन्दकाल, मन्त्रकाल, ब्राह्मणकाल तथा सूत्रकाल में किया है तथा प्रत्येक के लिये दो-दो शताब्दियों का समय निर्धारित किया है। ऋग्वेद के अतिरिक्त मैक्समूलर अन्य संहिताओं का काल १,०००-८०० ई० पू० ब्राह्मण ग्रन्थों का ८००-६०० ई० पू० तथा सूत्र साहित्य का ६००-२०० ई० पू० निर्धारित किया है।
  • जर्मन विद्वान् जैकोबी ने ज्योतिष विज्ञान के आधार पर ऋग्वेद की तिथि ४,५०० ई० पू० निकाली है।
  • प० बालगंगाधर तिलक ने ज्योतिष के आधार पर ऋग्वेद का समय ६,००० ई० पू० निर्धारित किया है।
  • विन्टरनित्स का विचार है कि वैदिक साहित्य का प्रारम्भिक काल ई० पू० ३,००० तक रहा होगा।
  • इसी तरह जींद अवेस्ता की भाषा से सादृश्यता के आधार पर कुछ विद्वानों ने ऋग्वेद का समय १,००० ई० पू० बताया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋग्वेद की निश्चित तिथि के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अतः यहाँ पर एक धुँधलके की तरह पुरातात्त्विक स्रोतों सो कुछ प्रकाश पड़ता है।

  • १,४०० ई० पू० का बोघजकोई ( एशिया माइनर ) अभिलेख अप्रत्यक्ष रूप से तिथि निर्धारण में सहायता करता है। यह अभिलेख एक संधिपत्र की तरह है। इसमें हिट्टइट नरेश सप्पिलुल्युमा और मितन्नी शासक मतिवजा के मध्य संधि का विवरण सुरक्षित है। इस संधि का साक्षी वैदिक देवता इंद्र, मित्र, वरुण और दो नासत्यों ( अश्वनि कुमारों ) को बनाया गया है। अतः ऋग्वेद निश्चित रूप से उससे पूर्व विद्यमान था।
  • एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ऋग्वैदिक आर्यों को लोहे का ज्ञान नहीं था दूसरी ओर उत्तर वैदिक कालीन आर्यों को इसकी जानकारी हो चुकी थी। उत्तर भारत में लोहे की प्राचीनता ( अतरंजीखेड़ा से मिले साक्ष्यों आधार पर ) १,००० ई० पू० बतायी जाती है। अतः यह स्थापित तथ्य है कि ऋग्वेद की रचना १,००० ई० पू० से पहले हो चुकी थी।
  • अतः बोघजकोई अभिलेख व लोहे की प्रचीनता को मिलाकर साथ विचार करने पर विद्वानों ने ऋग्वेद का समय १,५०० से १,००० ई० पू० निर्धारित किया है।

परन्तु समस्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। क्योंकि एक ओर जहाँ यह कह दोना कि ऋग्वैदिक समय १,५०० ई० पू० से शुरू हुआ और १,००० ई० पू० में समाप्त हो गया और शेष वैदिक साहित्यों की रचना १,००० से ५०० ई० पू० के मध्य हुई; यह तो अत्यन्त ही सरलीकृत हल है।

समस्या की बारीकियों को समझने के लिए इस बात पर बल देना आवश्यक है कि एक ही संहिता अथवा ग्रंथ में स्तरीकरण के स्पष्ट चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद के प्रथम एवं अंतिम अर्थात् दशम मण्डल को तो क्षेपक माना ही जाता है, अन्य तथाकथित परिवार खंडों में भी अनेक सूक्त ऐसे हैं, जो परवर्ती काल के हैं।

कृषि-सम्बन्धी प्रक्रिया के विवरणों से युक्त आठ श्लोकों का ५७वाँ सूक्त, जो कि चतुर्थ मण्डल का भाग है, भाषा-विज्ञान की दृष्टि से एक क्षेपक बताया गया है।

  • ई० डब्ल्यू० हॉपकिन्स, ‘प्रागाथिकानि, I-क्रिटिकल स्टडी ऑफ दि एज ऑफ दि एट्थ बुक ऑफ ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ दि अमेरिकन ओरियंटल सोसायटी, खंड १७, १८९६।

जो बात संहिताओं के काल के सम्बन्ध में कही गयी है, वह अन्य वैदिक ग्रंथों के लिए भी सही है। उदाहरणार्थ, ऐतरेय ब्राह्मण की सातवीं, आठवीं और संभवतः छठी पंचिकाएँ मूल ग्रंथ से अलग मानी जाती है। स्वरूप एवं सूक्तियों की सामान्यताओं को देखकर ब्राह्मण ग्रंथों का सापेक्षिक तिथिक्रम निर्धारित किया जा सकता है। कृष्ण यजुर्वेद के ब्राह्मण प्रायः कालक्रम में सबसे पहले रचे गये और उनके पश्चात् तैत्तिरीय ब्राह्मण, ऐतरेय के मूल खंड और फिर कौषीतकि। परन्तु यह भी असंभव नहीं कि सामवेद के वृहत्तर ब्राह्मण अर्थात् जैमिनीय एवं पंचविश, प्राचीनतर हो। माध्यन्दिन एवं काण्व – दोनों ही शाखाओं वाला शतपथ ब्राह्मण, पर्याप्त बाद के काल का माने जाते हैं और अंत में गोपथ एवं अन्य गौण ग्रंथों का स्थान है।

उपनिषदों को भी एक निश्चित कालावधि में बाँधना सम्भव नहीं है। यदि कुछ उपनिषद् ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रंथों के समकालीन हैं तो कुछ बुद्ध के काल से बहुत पूर्व के नहीं हैं और कुछ तो उसके भी बाद के हैं।

इसी प्रकार यद्यपि भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अथर्ववेद को अत्यंत परवर्ती काल का माना जाता है किंतु उसकी विषय-सामग्री ऋग्वेदकालीन कबायली जनजीवन से बहुत हटकर नहीं है।

वैदिक साहित्य के रचनाकाल की समस्या के इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि ऋग्वेद का रचनाकाल ईसा पूर्व लगभग १,५०० से १,००० तक तथा उत्तर वैदिक काल ईसा पूर्व लगभग १,००० से ५०० तक रहा होगा।

इस काल-निर्धारण में एक पुरातात्त्विक साक्ष्य भी ध्यान में रखा गया है — उत्तरी भारत से अभी तक लोहे के प्रयोग के साक्ष्य सामान्यतया ईसा पूर्व १,००० से पूर्व के नहीं मिलते।२ व ३  वर्तमान स्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद में लोहे का कोई उल्लेख नहीं है, जबकि उत्तर वैदिक काल के साहित्य में इस विषय पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।

निष्कर्ष

विभिन्न विद्वानों और पुरातत्त्व की सहायता से मोटेतौर पर यह माना गया है कि ऋग्वेद १,५०० ई०पू० में अस्तित्व में आ गया था और इसका विकास व रचना लगभग ५०० वर्षों तक चलती है। उत्तर वैदिक साहित्य की रचना १,००० से ५०० ई०पू० के मध्य हुई है। इस तरह वेदों का रचनाकाल लगभग १,००० वर्षों ( १,५००-५०० ई०पू० ) के बीच फैला हुआ है। परन्तु इसपर अभी शोध जारी है और हो सकता है कि इस तिथिक्रम में परिवर्तन भी हो जाये।

प्राचीन भारतीय साहित्य

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