वेदों के रचयिता कौन हैं?

भूमिका

वेद भारतीयों की ही नहीं मानव सभ्यता व संस्कृति की प्राचीनतम् उपलब्ध साहित्य है। प्रश्न यह उठता है कि वेदों के रचयिता कौन हैं? अथवा वैदिक साहित्य के रचयिता कौन है?

यद्यपि भारतीय परम्परा में वेदों को नित्य और अपौरुषेय माना गया है। परन्तु वैदिक संस्कृति व सभ्यता से पूर्व इस प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक है कि इसके शिल्पकार कौन हैं?

वैदों के रचयिता कौन हैं?

सामान्यतया वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्य लोगों को दिया जाता है। किंतु ये आर्य कौन थे? चूँकि आर्य शब्द को लेकर समय-समय पर विद्वानों द्वारा नाना प्रकार की व्याख्याएँ एवं परिभाषाएँ प्रस्तुत की जाती रहीं हैं, अतः ‘आर्य’ शब्द के वास्तविक अर्थ के सम्बन्ध में अत्यन्त भ्रामक धारणाएँ प्रचलित रही हैं।

प्राच्यविद्या के आरम्भिक चरणों में आर्य शब्द का प्रयोग एक जाति के रूप में किया गया। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से आर्य नामक ऐसी जाति की निश्चित पहचान सम्भव ही नहीं है, जो कि किसी काल विशेष में विश्व के किसी भी भाग में रही हो। वास्तविकता तो यह है कि स्वयं जाति का ही निर्धारण अत्यंत दुष्कर कार्य है। आज विश्व में कोई भी ऐसी शुद्ध जाति दृष्टिगोचर नहीं होती, जिसके सदस्यों का उनकी भौतिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकरण किया जा सके। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आयों को जाति विशेष से सम्बद्ध करना वर्तमान कोई गम्भीर मत नहीं समझा जाता है। सामान्य पूर्वजों के निर्धारण के लिए भाषागत समानता को भी आधार माना गया है किंतु इस क्षेत्र में भी समस्याएँ कुछ कम नहीं हैं।

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इतिहास इस बात का साक्षी है कि जाति के समान भाषा की शुद्धता को स्थायी बनाये रखना भी असंभव है। विश्व में शायद ही कोई ऐसी भाषा हो, जो न केवल अपनी शब्दावली, अपितु अपनी मूल अवधारणाओं के लिए भी अन्य भाषाओं को ऋणी न हो। यहाँ तक कि सामी एवं भारोपीय भाषाओं को पूर्णरूपेण स्वतंत्र भाषा वर्ग माना जाने वाले विचार का भी अब परित्याग किया जा रहा है।

हाँ, सापेक्षिक दृष्टि से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आर्यों की पहचान जाति की अपेक्षा भाषाई वर्ग से अधिक सम्भव है। भारत के संदर्भ में ये लोग एक से अधिक जातीय वर्गों के थे, जो सामूहिक रूप से भारोपीय भाषा वर्ग कहलाने वाली अनेक भाषाओं में से एक, अर्थात् संस्कृत बोलते थे। यह विचार मोटे तौर पर ही मान्य हो सकता है। जहाँ तक इसके सूक्ष्म विवरणों का सम्बन्ध है, यह दृष्टव्य है कि ज्यों-ज्यों इन लोगों का भारत में प्रसार होता गया, यहाँ के मूल निवासियों के साथ उनका मिश्रण अवश्यम्भावी था।

अतः आधुनिक शोध का यह निष्कर्ष तनिक भी विस्मयकारी नहीं है कि वैदिक साहित्य में जिस संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है उसमें द्रविड़ भाषाओं का भी स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता है।

  • एम० बी० ऐमनो एवं टी० बरो के इन विचारों के सार के लिए देखिए, रोमिला थापर कृत “A possible Identification of Meluha, Dlimun and Makan,” Journal of The Economic and Social History of The Orient, Volume 18 ( 1 ) January 1975, Page 5-7.

भारत में इन आर्यों की संस्कृत भाषा को भारोपीय भाषा वर्ग का मान लेने से उनके मूल निवास स्थान की समस्या का समाधान नहीं होता, क्योंकि यह कहना कठिन है कि विभिन्न भाषाओं की जननी मूल भारोपीय भाषा स्वयं कहाँ जन्मी होगी? जिसे हम भारोपीय भाषा समझते हैं, वह स्वयं ऐसे अनेक भाषाई प्रभावों का परिणाम हो सकती है जो उनके बोलने वालों की भौगोलिक निकटता के कारण उत्पन्न हुई हों।

परन्तु भाषाविज्ञान-सम्बन्धी अध्ययनों से पता चलता है कि इस वर्ग की विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोगों का सम्बन्ध ‘शीतोष्ण जलवायु’ ( Temperate Climate ) वाले ऐसे क्षेत्रों से था, जो घास से आच्छादित विशाल मैदान थे। यह निष्कर्ष इस मत पर आधारित है कि भारोपीय वर्ग की अधिकांश भाषाओं में भेड़िया, भालू और घोड़े जैसे पशुओं और करंज (beech) तथा भोजवृक्षों के लिए समान शब्दावली है।

मिले साक्ष्यों के आधार पर इस क्षेत्र की पहचान सामान्यतया दक्षिणी रूस अर्थात् यूराल पर्वत श्रेणी के दक्षिण में मध्य एशियाई भूभाग के पास के ‘स्टेप’ मैदानों से की जाती है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से इस क्षेत्र से एशिया और यूरोप के विभिन्न भागों की और बहिर्गामी प्रवासन की प्रक्रिया के चिह्न मिलते हैं। यह प्रक्रिया अत्यन्त क्रमिक थी और ऐसी ही प्रक्रिया के फलस्वरूप भारत में आर्य लोगों का आगमन हुआ। यद्यपि इस घटना को सामान्यतया ईसा पूर्व लगभग १,५०० का माना जाता है किंतु इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आर्यों की एक से अधिक लहर भारत में आयी होगी। इस सम्भावना की इस प्रमेय से भी पुष्टि होती है कि हड़प्पा सभ्यता के पतन का एक कारण आर्यों का आक्रमण भी बताया जाता है।

  • आर्यों की समस्या पर एक महत्वपूर्ण योगदान के लिए देखिए दिलीप चक्रवर्ती, ‘दि आर्यन हाइपोथेसिस इन इंडियन आर्कियोलॉजी’, इंडियन स्टडीज, पास्ट एंड प्रेजेंट, खंड ९, १९६७-६८।

पारम्परिक विश्वास में भारतीयों का मानना है कि वेद अपौरुषेय और नित्य हैं। अर्थात् ये मनुष्य कृत नहीं है और शाश्वत हैं। वैदिक मंत्रों से सम्बन्धित ऋषि उसके रचयिता नहीं हैं वे तो मंत्र-द्रष्टा मात्र है और उन्होंने इसे ईश्वर से प्राप्त किये हैं।

निष्कर्ष 

वेदों के रचयिता न तो कोई व्यक्ति विशेष हैं और न ही इसकी रचना किसी समय विशेष पर हुई है। इसका विकास एक लम्बी प्रक्रिया की देन है। भारतीय परम्परा में इसको नित्य और अपौरुषेय कहना भी अकारण नहीं है। तार्किक दृष्टि से देखें तो इसका अर्थ हम यह लगा सकते हैं कि मानव को यह स्मरण ही नहीं रहा रहा कि इसकी रचना कब और कहाँ हुई। दूसरे शब्दों में यह हमारी कल्पना से भी पुरातनता का आभास देती है। परम्परानुसार वैदिक ऋषि मंत्रों द्रष्टा मात्र थे जिसको ईश्वर ने उनको प्रकाश के रूप में दिया। कालान्तर में महर्षि वेदव्यास ने इसका संकलन किया।

वैदिक साहित्य क्या है?

प्राचीन भारतीय साहित्य

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