भूमिका
हर्यंक वंश के शासक बिम्बिसार के सिंहासनारोहण से मगध के उत्कर्ष का इतिहास प्रारम्भ होता है और यह मौर्य सम्राट अशोक द्वारा कलिंग विजय के साथ अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य के सिंहासनारोहण से पूर्व तीन राजवंशों ने मगध के उत्थान में योगदान दिया :
- हर्यंक वंश
- शैशुनाग वंश
- नन्द वंश
हर्यंक राजवंश
मगध के उत्कर्ष का इतिहास हर्यंक वंशी बिम्बिसार के सिंहासनारोहण से प्रारम्भ होता है। बिम्बिसार के बाद अजातशत्रु, उदायिन्, अनिरुद्ध, मुण्डक और नागदशक ने क्रमशः शासन किये। इस राजवंश ने कुल मिलाकर १३२ वर्ष ( ५४४ ई०पू० से ४१२ ई०पू० तक ) शासन किया। हर्यंक वंश को ‘पितृहंता वंश’ भी कहते हैं क्योंकि इस राजवंश के अधिकांश पुत्रों ने अपने पिता की हत्या करके सिंहासन हस्तगत किया था।
बिम्बिसार
मगध साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक राजा बिम्बिसार (लगभग ५४४-४९२ ईसा पूर्व ≈ ५२ वर्ष) थे। वे हर्यंक कुल से सम्बन्धित थे। बिम्बिसार का नाम सेणिय या श्रेणिक भी मिलता है। हर्यंक कुल के लोग नागवंश की एक उपशाखा थे।
बिम्बिसार की पहचान :
- डी० आर० भण्डारकर का विचार है कि बिम्बिसार प्रारम्भ में लिच्छवियों के सेनापति थे जो उस समय मगध में शासन करते थे। सुत्तनिपात में वैशाली को ‘मगधम् पुरम्’ कहा गया है। कालान्तर में वह मगध का स्वतन्त्र शासक बन बैठा।
- परन्तु बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बिम्बिसार जब १५ वर्ष के थे तभी उसके पिता ने उसे मगध का राजा बनाया था। दीपवंश में बिम्बिसार के पिता का नाम बोधिस् मिलता है जो राजगृह के शासक थे।
- मत्स्य पुराण में उसका नाम ‘क्षेत्रौजस’ दिया गया है। यह इस बात का सूचक है कि बिम्बिसार का पिता स्वयं राजा थे। ऐसी स्थिति में उसका लिच्छवियों का सेनापति होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
- जैन साहित्य में उसे ‘श्रेणिक’ कहा गया है। संभवतः यह उसका उपनाम था, जिस प्रकार अजातशत्रु का उपनाम ‘कुणिक’ था।
साम्राज्यवादी नीतियाँ
बिम्बिसार एक महत्वाकांक्षी शासक था। सिंहासनारूढ़ होते ही उसने विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। वह एक कुशल कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था। “बिम्बिसार… ने मगध के विस्तार और विजय के उस दौर की ओर अग्रसर किया जो तभी समाप्त हुआ जब कलिंग की विजय के बाद अशोक ने अपनी तलवार म्यान में रख ली।”*
Bimbisar … launched Magadha to that career of the conquest and aggrandisement which only ended when Ashoka sheathed his sword after the conquest of Kalinga.*
— H. C. Ray Chaudhary: Political History of Ancient India.
बिम्बिसार ने मगध साम्राज्य को सुदृढ़ करने और विस्तार करने के लिये निम्नलिखित नीतियों का अनुसरण किया :
- विवाह राजनय
- राज्यों से मित्रता
- राजधानी की सुरक्षा
- आक्रामक रणनीति
विवाह राजनय
सर्वप्रथम उसने अपने समय के प्रमुख राजवंशों में ‘वैवाहिक सम्बन्ध’ स्थापित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ किया। इन वैवाहिक सम्बन्धों का तत्कालीन राजनीति में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन वैवाहिक सम्बन्ध में तीन राजकुमारियों के नाम सर्वप्रमुख हैं :
- चेलना या छलना
- महाकोसला
- क्षेमा
राजकुमारी चेलना ( छलना ) से विवाह :
- चेलना लिच्छवि गणराज्य के शासक चेटक की पुत्री थीं। लिच्छवि गणराज्य मगध के उत्तर में स्थिति था। वैशाली लिच्छिवियों की राजधानी थी। वैशाली व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र भी था। इसकी दक्षिणी सीमा से होकर गंगा नदी बहती थी।
- गंगा नदी व्यापारिक मार्ग के रूप में कार्य करती थी। गंगा नदी से जहाँ एक ओर कौशाम्बी, काशी तो पूर्व में चम्पा जैसे राजधानी नगर तक पहुँचा जा सकता था। यही नहीं गंगा नदी के द्वारा पूर्वी समुद्र तक पहुँचना आसान था। इसी पर प्राचीनकाल का प्रसिद्ध ‘ताम्रलिप्ति’ बंदरगाह स्थित था। इस तरह व्यापारिक प्रगति के लिये आवश्यक थी कि गंगा नदी पर नियंत्रण हो।
- विनयपिटक में उल्लेख मिलता है कि उत्तर की ओर से लिच्छवि लोग रात को मगध पर आक्रमण करके राजधानी में लूटपाट करते थे।
- चेलना (छलना) के साथ बिम्बिसार ने विवाह करके मगध की उत्तरी सीमा को सुरक्षित कर लिया। इस वैवाहिक सम्बन्ध ने परोक्ष रूप से मगध के आर्थिक विकास में भी योगदान दिया।
- लिच्छवि गणराज्य ‘वज्जि संघ’ के ८ सदस्य गणराज्यों में से एक था। अतः चेलना से विवाहोपरान्त वज्जि संघ से मगध के सम्बन्ध मधुर हो गये।
- लिच्छवि प्रमुख चेटक की बहन त्रिशला या विदेहदत्ता का विवाह ज्ञातृक कुल के प्रमुख सिद्धार्थ से हुआ था और उनसे ‘वर्द्धमान महावीर’ का जन्म हुआ। इस तरह स्वामी महावीर बिम्बिसार से सम्बन्धी थे।
राजकुमारी ‘महाकोसला’ से विवाह :
- दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कोशल राज्य में स्थापित हुआ। बिम्बिसार ने कोशलनरेश प्रसेनजित की बहन महाकोशला के साथ विवाह किया था।
- इस विवाह के फलस्वरूप उसका न केवल कोशलनरेश के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ अपितु दहेज में उसे एक लाख की वार्षिक आय का काशी का प्रान्त (अथवा उसके कुछ ग्राम) भी प्राप्त हो गया।
- इस सम्बन्ध में उसने वत्स की ओर से भी मगध को सुरक्षित बना दिया क्योंकि कोशल तथा वत्स परस्पर मिले हुए थे।
राजकुमारी ‘क्षेमा’ से विवाह :
- इसके पश्चात् उसने मद्र देश (कुरु के समीप) की राजकुमारी क्षेमा या खेमा के साथ अपना विवाह कर मद्रों का सहयोग तथा समर्थन प्राप्त कर लिया।
संभव है कुछ अन्य राजवंशों के साथ भी उसने वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया हो क्योंकि महावग्ग में उनकी ५०० रानियों का उल्लेख हुआ है।
राज्यों से मैत्री
वैवाहिक राजनय के अतिरिक्त बिम्बिसार ने तत्कालीन राज्यों से मैत्री स्थापित करके मगध की स्थिति को सुदृढ़ किया :
- अवन्ति नरेश ‘प्रद्योत’ से मित्रता : सोलह महाजनपदों में जो चार शक्तिशाली होकर उभरे थे उनमें से एक था – अवन्ति। शक्तिशाली राजा प्रद्योत के साथ बिम्बिसार के मैत्री सम्बन्ध मगध को सामरिक सुरक्षा प्रदान की। क्योंकि वत्स का एक ओर मगध स तो दूसरी ओर अवन्ति से विरोध था। अवन्ति से मित्रता कारण वत्स की पश्चिमी सीमा पर मगध को एक मित्र राज्य की प्राप्ति से सामरिक सुरक्षा मिली। इस मित्रता का प्रमाण है कि जब एक बार प्रद्योत को पाण्डु रोग (पीलिया) से ग्रसित थे तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उनकी सुश्रूषा के लिये भेजा था।
- गन्धार नरेश पुक्कुसाति ( पुष्करसारिन् ) ने मगधराज बिम्बिसार की राजसभा में एक दूतमण्डल भेंजा था जो उसके नाम का एक पत्र भी लाया था।
- रोरूक (सिंध) के शासक रुद्रायन भी उसके मित्र थे।
इस प्रकार ‘उसके कूटनीतिक तथा वैवाहिक सम्बन्धों ने उसके द्वारा प्रारम्भ की गयी आक्रामक नीति में पर्याप्त सहायता प्रदान किया होगा।*
- His diplomatic and matrimonial relations must have helped him considerably in the aggressive policy initiated by him. — Age of Imperial Unity.*
राजधानी की सुरक्षा
इस समय मगध का सुप्रसिद्ध वास्तुकार महागोविन्द थे। इन्हीं के निर्देशन में राजगृह के राजप्रासाद का निर्माण हुआ था। राजगृह की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि उसे तत्कालीन परिस्थितियों में विजित करना सम्भव नहीं था। यह पाँच पहाड़ियों से घिरी हुई थी। इन पाँच पहाड़ियों के नाम इस प्रकार है ( यद्यपि इनके नाम ब्राह्मण, बौद्ध व जैन ग्रन्थों में अलग-अलग ) मिलते हैं :
- रत्नगिरि
- विपलांचल या विपुलगिरि
- वैभवगिरि
- सोनगिरि
- उदयगिरि
आक्रामण रणनीति
विवाह राजनय, मैत्री सम्बन्धों और राजधानी की सुरक्षा द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति मजबूत कर लेने के पश्चात् उसने अपना विजय-कार्य प्रारम्भ किया। इस विजय की प्रकिया में उसने अपने पड़ोसी राज्य अंग को जीतकर मगध साम्राज्य में मिला लिया।
बिम्बिसार के पहले से ही मगध तथा अंग के बीच संघर्ष चला आ रहा था। ज्ञात होता है कि एक बार अंग के शासक ब्रह्मदत्त ने बिम्बिसार के पिता को युद्ध में पराजित किया था। विदुरपण्डित जातक से ज्ञात होता है कि मगध की राजधानी राजगृह पर अंग का अधिकार था। अतः बिम्बिसार जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिये अंग को विजित करना अनिवार्य था। उसने अंग के ऊपर आक्रमण किया। वहाँ का शासक ब्रह्मदत्त मारा गया। वहाँ बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा (वायसराय) के पद पर नियुक्त किया।
साम्राज्य विस्तार
अंग के मगध में मिल जाने पर मगध की सीमा अत्यधिक विस्तृत हो गयी और अब वह पूर्वी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बन गया। मगध का लगभग सम्पूर्ण बिहार पर अधिकार हो गया। बुद्धघोष के अनुसार बिम्बिसार के साम्राज्य में ८०,००० गाँव थे तथा उसका विस्तार ३०० लीग (लगभग ९०० मील) था।
शासन व्यवस्था
बिम्बिसार एक कुशल शासक भी था। उसने अपने साम्राज्य में एक संगठित एवं सुदृढ़ शासन व्यवस्था की नींव डाली। मगध शीघ्र ही एक समृद्धिशाली राज्य बन गया। बिम्बिसार स्वयं शासन की विविध समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि लेता था। महावग्ग जातक में कहा गया है कि उसकी राजसभा में ८०,००० ग्रामों के प्रतिनिधि भाग लेते थे। उसकी राजसभा तथा ग्रामिकों के कार्यों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। बौद्ध साहित्य में उसके कुछ पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं —
- सब्बथक महामात्त (सर्वाथक महामात्र) – यह सामान्य प्रशासन का प्रमुख पदाधिकारी होता था।
- वोहारिक महामात्त (व्यवहारिक महामात्र) – यह प्रधान न्यायिक अधिकारी अथवा न्यायधीश होता था।
- सेनानायक महामात्त – यह सेना का प्रधान अधिकारी होता था।
प्रान्तों में राजकुमार वायसराय अर्थात् उपराजा के पद नियुक्त किये जाते थे। विम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को चम्पा का उपराजा बनाया था। वह अपने अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनके गुण-दोषों के आधार पर पुरस्कृत अथवा दण्डित किया करता था।
निर्माण कार्य
वह एक निर्माता भी था और परम्परा के अनुसार उसने राजगढ़ नामक नवीन नगर की स्थापना करवायी थी। ह्वेनसांग बिम्बिसार द्वारा बनवाये गये मार्ग और नये नगरों का विवरण देता है, परन्तु फाह्यिान के अनुसार अजातशत्रु ने राजगृह के नये नगर का निर्माण किया था।
धार्मिक सहिष्णुता
बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र एवं संरक्षक था। विनयपिटक से ज्ञात होता है कि बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथा ‘वेलुवन’ नामक उद्यान बुद्ध तथा संघ के निमित्त प्रदान किया था।
किन्तु वह जैन तथा ब्राह्मण धर्मों के प्रति भी सहिष्णु बना रहा। जैन ग्रन्थ भी उसे अपने मत का पोषक मानते हैं। दीघनिकाय से ज्ञात होता है कि बिम्बिसार ने चम्पा के प्रसिद्ध ब्राह्मण सोनदण्ड को वहाँ की सम्पूर्ण आमदनी दान में दे दिया था।
बिम्बिसार का अन्त
बिम्बिसार ने लगभग ५२ वर्षों तक शासन किया। उसका अन्त दुखद रहा बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागृह में डाल दिया जहाँ भीषण यातनाओं द्वारा उसे मार डाला गया। बिम्बिसार की मृत्यु ४९२ ईसा पूर्व के लगभग हुई।
अजातशत्रु
बिम्बिसार के पश्चात उसका पुत्र ‘कुणिक‘ अजातशत्रु (लगभग ४९२-४६० ईसा पूर्व ≈ ३२ वर्ष) मगध का शासक हुआ। वह अपने पिता के ही समान साम्राज्यवादी था। ‘उसका शासनकाल हर्यंक-वंश का चर्मोत्कर्ष-काल था।*
His (Ajatashatru) reign was the highest watermark of the power of the Haryanka dynasty.*
— H. C. Ray Chaudhary: Political History Of India.
अजातशत्रु ने अपनी साम्राज्यवादी नीति को प्रारम्भ करने से पूर्व राज्य और राजधानी के सुरक्षात्मक प्रबन्ध किये। इस सन्दर्भ में उसने निम्न कदम उठाये :
- राजगृह का दुर्गीकरण करके उसे सुरक्षित बनाया। इसके लिये नयी चहारदीवारी बनवायी गयी।
- गंगा और सोन नदी के संगम पर पाटलिग्राम में एक दुर्ग का निर्माण करवाया जो आगे चलकर मगध साम्राज्य की राजधानी बनने वाली थी।
अजातशत्रु के समय में दो पड़ोसी राज्यों से संघर्ष सर्वप्रमुख है –
कोसल से संघर्ष
इसके समय में कोसल से मगध का संघर्ष छिड़ गया। बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि बिम्बिसार की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी कोसल देवी ( महाकोसला ) की भी दुःख से मृत्यु हो गयी। प्रसेनजित इस घटना से बड़ा क्रुद्ध हुआ तथा उसने काशी पर पुनः अपना अधिकार कर लिया। यही कोशल तथा मगध के बीच संघर्ष का कारण सिद्ध हुआ।
संयुक्त निकाय में इस दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण मिलता है। पहले प्रसेनजित पराजित हुआ तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली। किन्तु दूसरी बार अजातशत्रु पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया। बाद में दोनों नरेशों के बीच सन्धि हो गयी तथा प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया तथा पुनः काशी के ऊपर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि अजातशत्रु के समय में काशी का प्रान्त (अन्तिम) रूप से मगध में मिला लिया गया।
वज्जि संघ (लिच्छिवियों) से संघर्ष
कोसल से निपटने के बाद अजातशत्रु ने वज्जि-संघ की ओर ध्यान दिया। वैशाली वज्जि संघ में प्रमुख था जहाँ के शासक लिच्छवि थे। बिम्बिसार के ही समय से वज्जि संघ तथा मगध में मनमुटाव चल रहा था जो अजातशत्रु के समय में संघर्ष में बदल गया। इस संघर्ष के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते हैं —
- सुमंगलविलासिनी से ज्ञात होता है कि गंगा नदी के किनारे एक रत्नों की खान थी। वज्जि तथा मगध दोनों ने इसके बराबर-बराबर भाग लेने के लिये समझौता किया था। वज्जियों ने इस समझौते का उल्लंघन करके सम्पूर्ण खान पर अधिकार कर लिया। यहीं मगध के साथ युद्ध का कारण बना।
- जैन ग्रन्थ इसका कारण यह बताते है कि बिम्बिसार ने लिच्छवि राजकुमारी चेलना से उत्पन्न अपने दो पुत्रों – हल्ल और बेहल्ल को अपना हाथी सेयनाग तथा १८ मणियों या रत्नों का एक हार दिया था। अजातशत्रु ने बिम्बिसार की हत्या कर सिंहासन ग्रहण कर लेने के बाद इन वस्तुओं की माँग की। इस पर हल्ल तथा वेहल्ल अपने (नाना) चेटक के पास भाग गये। अजातशत्रु ने लिच्छवि सरदार से अपने सौतेले भाइयों को वापस देने को कहा जिसे चेटक ने अस्वीकार कर दिया। इसी पर अजातशत्रु ने लिच्छवियों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।
इन दोनों कारणों में से पहला अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है। वस्तुतः मगध तथा वज्जि संघ के बीच संघर्ष गंगा नदी के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था क्योंकि यह नदी पूर्वी भारत में व्यापार का प्रमुख माध्यम थी।
मगध और वज्जि संघ से युद्ध के पूर्व दोनों ने तैयारियाँ कीं:
लिच्छवियों की शक्ति और प्रतिष्ठा काफी बढ़ी हुई थी तथा उन्हें परास्त कर पाना सरल नहीं था। जैन ग्रन्थ निरयावल सूत्र से ज्ञात होता है कि उस समय चेटक लिच्छवि गण के प्रधान थे। उसने ९ लिच्छवियों, ९ मल्लों तथा काशी-कोशल के १८ गणराज्यों को एकत्र कर मगध नरेश के विरुद्ध एक सम्मिलित मोर्चा तैयार किया। भगवती सूत्र में अजातशत्रु को इन सबका विजेता कहा गया है।*
वज्जि विदेहपुत्रे जपित्था नव मल्लई नव लिच्छऐ।
काशी कोशलगा अट्ठारसविगणरायानो पराजपित्था॥*
भगवतीसूत्र
डॉ० रायचौधरी का विचार है कि कोशल तथा वज्जि संघ के साथ संघर्ष पृथक्-पृथक् घटनायें नहीं थीं, अपितु वे मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता के विरुद्ध लड़े जाने वाले समान युद्ध का ही अंग थीं।*
The Kosalan war and the Vajjiyan war were probably not isolated event but parts of a common movement directed against the establishment of the hegemony of Magadha.*
— Political History of Ancient India — H. C. Roy Chaudhary.
अजातशत्रु ने कूटनीति से काम लिया। वज्जियों के सम्भावित आक्रमण से अपने राज्य की सुरक्षा के लिये सर्वप्रथम पाटलिग्राम में उसने एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। यही पाटलिग्राम ‘पाटलिपुत्र’ के नाम से आगे चलकर मगध साम्राज्य की स्थायी राजधानी बनने वाली थी। इस तरह अजातशत्रु वह प्रथम शासक था जिसने पाटलिग्राम ( पाटलिपुत्र ) के सामरिक महत्त्व को पहचाना। तत्पश्चात् उसने अपने मंत्री वस्सकार को भेजकर वज्जि संघ में फूट डलवा दी। ज्ञात होता है कि इस सम्बन्ध में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध से परामर्श किया तथा उन्होंने ही उसे यह बताया कि वज्जि संघ का विनाश भेदनीति द्वारा ही सम्भव है।
वस्सकार ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इस कार्य को पूरा किया तथा वज्जियों को परस्पर लड़ा दिया। फलतः वे असंगठित रूप से अजातशत्रु का सामना नहीं कर सके। अजातशत्रु ने एक बड़ी सेना के साथ लिच्छवियों पर आक्रमण किया।
जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि इस युद्ध में उसने प्रथम बार रथमूशल तथा महाशिलाकण्टक जैसे दो गुप्त हथियारों का प्रयोग किया। प्रथम आधुनिक टैंकों के प्रकार का कोई अस्त्र था जिससे भारी संख्या में मनुष्य मारे जा सकते थे तथा द्वितीय भारी पत्थरों की मार करने वाला शिला प्रक्षेपास्त्र (catapult) था।
मगध और वैशाली का युद्ध लगभग १६ वर्षों तक चला। इससे ऐसा लगता है कि युद्ध बड़ा भयानक हुआ जिसमें लिच्छवि बुरी तरह पराजित हुए तथा उनका भीषण संहार किया गया। उनका भू-भाग मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। अब मगध राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुँच गयी।
अन्य विजय
वज्जि संघ को पराजित करने के पश्चात् अजातशत्रु ने मल्ल संघ को भी परास्त किया तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बड़े भू-भाग पर उसका अधिकार हो गया। इन सफलताओं के फलस्वरूप मगध साम्राज्य को सीमा पर्याप्त विस्तृत हो गयी। अब मगध का प्रतिद्वन्द्वी केवल अवन्ति का राज्य था।
मज्झिमनिकाय से पता चलता है कि प्रद्योत के आक्रमण से अपनी राजधानी राजगृह को सुरक्षित रखने के लिये अजातशत्रु ने उसका दुर्गीकरण करवाया। जिस समय अजातशत्रु कोशल के साथ संघर्ष मे उलझा हुआ था उसी समय प्रद्योत मगध पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था किन्तु अजातशत्रु तथा प्रद्योत के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हो सका। इसका कारण संभवतः यह था कि दोनों एक दूसरे को शक्ति से डरते थे।
नाटककार भास के अनुसार अजातशत्रु की कन्या पद्मावती का विवाह वत्सराज उदयन के साथ हुआ था। इस वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा अजातशत्रु ने वत्स को अपना मित्र बना लिया तथा अब उदयन मगध के विरुद्ध प्रद्योत की सहायता नहीं कर सकता था। ऐसा लगता है कि अब उदयन दोनों राज्यों अवन्ति तथा मगध के बीच सुलहकार बन गया।
अजातशत्रु की धार्मिक नीति
अजातशत्रु की धार्मिक नीति उदार थी। बौद्ध तथा जैन दोनों ही ग्रन्थ उसे अपने अपने मत का अनुयायी मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले वह जैन धर्म से प्रभावित था, परन्तु बाद में बौद्ध हो गया। भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर ‘अजातशत्रु भगवान बुद्ध की वन्दना करता है’* उत्कीर्ण मिलता है जो उसके बौद्ध होने का पुरातात्विक प्रमाण है।
- अजातशत्रु भगवतो वन्दते।*
अजातशत्रु के शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था। महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनके अवशेषों पर उसने राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया था।
अजातशत्रु के शासनकाल में ही राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति (First Buddhist Council) का आयोजन किया गया था। इस बौद्ध संगीति की अध्यक्षता ‘महाकस्सप’ ने की थी। इस धर्म सम्मेलन में भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य आनन्द और उपालि भी उपस्थित थे। आनन्द को धर्म और उपालि को विनय का प्रमाण माना गया। इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं को दो पिटकों सुत्तपिटक तथा विनयपिटक में विभाजित किया गया। सुत्तपिटक में ‘धर्म के सिद्धांत’ और विनयपिटक में ‘आचार के नियमों’ का संग्रह है।
सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार लगभाग ३२ वर्षों तक शासन करने के बाद अजातशत्रु अपने पुत्र उदायिन् द्वारा मार डाला गया।
उदायिन् या उदयभद्र (लगभग ४६०-४४४ ईसा पूर्व)
अजातशत्रु के बाद उसका पुत्र उदायिन् अथवा उदयभद्र मगध का राजा हुआ। जैन ग्रन्थों में उसकी माता का नाम पद्मावती मिलता है। बौद्ध ग्रन्थों में उसे ‘पितृहन्ता‘ कहा गया है। परन्तु जैन ग्रन्थों का साक्ष्य इसके विपरीत है। परिशिष्टपर्वन् के अनुसार वह ‘पितृ-भक्त’ था। वह अपने पिता के शासन काल में चम्पा का उपराजा (वायसराय) था। पिता की मृत्यु से उसे बड़ा दुःख हुआ तथा उसे कुलीनों और अमात्यों ने राजा बनाया।
उदायिन् के शासनकाल की सर्वप्रमुख घटना गंगा और सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की है। उसने राजगृह से इसी स्थान पर अपनी राजधानी स्थानान्तरित की। चूँकि अजातशत्रु को विजयों के फलस्वरूप मगध साम्राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय को तलहटी तक पहुँच गयी थी, अतः पाटलिपुत्र राजगृह की अपेक्षा अधिक उपयुक्त राजधानी थी। यहाँ से वज्जियों के ऊपर भी दृष्टि रखी जा सकती थी तथा व्यापार व्यवसाय की दृष्टि से भी यह नगर गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था।
पटलिपुत्र का एक अन्य नाम ‘कुसुमपुर’ भी मिलता है। मध्यकाल में शेरशाह सूर के समय इसका नाम पटना रखा। वर्तमान में यह पटना नाम से ही जाना जाता है और यह बिहार प्रान्त की राजधानी है।
बिम्बिसार के ही समय से अवन्ति का राज्य मगध का प्रतिद्वन्द्वी था परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उदाविन् के समय में भी मगध एवं अवन्ति के मध्य निर्णायक युद्ध नहीं हो सका।
उदायिन् जैन मतानुयायी थे। इसी कारण जैन ग्रन्थ उसकी प्रशंसा करते हैं। आवश्यक सूत्र से पता चलता है कि अपनी राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया था। वह नियमित रूप से व्रत करता तथा आचार्यों के उपदेश सुनता था। एक दिन जब वह किसी गुरु से उपदेश सुन रहा था, एक व्यक्ति ने छुरा भोंककर उसकी हत्या कर दी। यह हत्यारा अवन्ति नरेश पालक द्वारा नियुक्त कोई गुप्तचर था।
उदायिन् के उत्तराधिकारी तथा हर्यंक कुल का अन्त
बौद्ध ग्रन्थों में उदायिन के तीन पुत्रों का उल्लेख मिलता है-
- अनिरुद्ध
- मुंडक और
- नागदशक।
इन तीनों को “पितृहन्ता” कहा गया है जिन्होंने बारी-बारी से राज्य किया। अन्तिम राजा नागदशक कुछ प्रसिद्ध था। पुराण में उसे दर्शक कहा गया है। ये तीनों शासक अत्यन्त निर्बल एवं विलासी थे। अतः शासन तन्त्र शिथिल पड़ गया। चारों ओर षड्यन्त्र और हत्यायें होने लगीं। फलस्वरूप जनता में व्यापक असन्तोष छा गया। इनके शासन के विरुद्ध विद्रोह हुआ तथा जनता में इन पितृहन्ताओं को सिंहासन से उतार कर शिशुनाग नामक एक योग्य अमात्य को राजा बनाया। शिशुनाग के राज्यारोहण से मगध में जिस नवीन वंश की स्थापना हुई वह ‘शैशुनाग वंश’ के नाम से प्रसिद्ध है। उदायिन् के उत्तराधिकारियों ने लगभग ४१२ ईसा पूर्व तक राज्य किया।