शैशुनाग वंश या शिशुनाग वंश

भूमिका

हर्यंक वंश के बाद शैशुनाग वंश या शिशुनाग वंश ने मगध पर शासन किया। इस राजवंश ने ४१२ ईसा पूर्व से ३४४ ईसा पूर्व ( लगभग ६८ वर्ष ) तक शासन किया। इस वंश में शिशुनाग और कालाशोक जैसे शासक हुए।

शिशुनाग

शैशुनाग वंश या शिशुनाग वंश की स्थापना ‘शिशुनाग’ ने की और वह नाग वंश से सम्बन्धित था। महावंश टीका में उसे एक लिच्छवि राजा की वेश्या पत्नी से उत्पन्न कहा गया है। पुराण उसे ‘क्षत्रिय’ कहते हैं। पुराणों का कथन अधिक सही लगता है क्योंकि यदि वह वेश्या को सन्तान होता तो रूढ़िवादी ब्राह्मण उसे कभी भी राजा स्वीकार न करते तथा उसकी निन्दा भी करते। पुराणों के विवरण से ज्ञात होता है कि पाँच प्रद्योत पुत्र १३८ वर्षों तक शासन करेंगे। उन सब को मारकर शिशुनाग राजा होगा। अपने पुत्र को वाराणसी का राजा बनाकर वह गिरिव्रज को प्रस्थान करेगा।*

अष्टच्छितम् भव्याः प्रद्योताः पञ्च ते सुताः।

हत्वा तेषां यशः कृत्स्नं शिशुनागा भविष्यति।

वाराणस्यां सुतं स्थाप्य श्रयिष्यति गिरिब्रजम्॥*

Dynasties of Kali Age — Pargiter.

इससे स्पष्ट है कि शिशुनाग ने अवन्ति राज्य को जीतकर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था

सुधाकर चट्टोपाध्याय की धारणा है कि शिशुनाग अन्तिम हर्यंक शासक नागदशक का प्रधान सेनापति था और इस प्रकार उसका सेना के ऊपर पूर्ण नियंत्रण था। उसने अवन्ति के ऊपर आक्रमण नागदशक के शासन काल में ही किया होगा तथा इसी के तत्काल बाद नागदशक को पदच्युत कर जनता ने उसे मगध का राजसिंहासन सौंप दिया होगा।

अवन्ति राज्य की विजय एक महान् सफलता थी। इससे मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा मालवा तक जा पहुँची। इस विजय से शिशुनाग का वत्स के ऊपर भी अधिकार हो गया क्योंकि यह अवन्ति के अधीन था

अर्थिक दृष्टि से भी अवन्ति की विजय लाभदायक सिद्ध हुई। पाटलिपुत्र से एक व्यापारिक मार्ग (वत्स तथा अवन्ति) होते हुए भरूच तक जाता था। वत्स तथा अवन्ति पर अधिकार हो जाने से पाटलिपुत्र को पश्चिमी विश्व के साथ व्यापार-वाणिज्य के लिये एक नया मार्ग प्राप्त हो गया।

इस प्रकार शिशुनाग की विजयों के फलस्वरूप मगध का राज्य एक विशाल साम्राज्य में बदल गया तथा उसके अन्तर्गत बंगाल की सीमा से लेकर मालवा तक का विस्तृत भू-भाग सम्मिलित हो गया। उत्तर प्रदेश का एक बड़ा भाग भी उसके अधीन था।

भण्डारकर का अनुमान है कि इस समय कोसल भी मगध को अधीनता में आ गया था। इस प्रकार अब मगध का उत्तर भारत में कोई भी प्रबल प्रतिद्वन्द्वी नहीं बचा। मगध साम्राज्य में उत्तर भारत के वे सभी प्रमुख राजतन्त्र सम्मिलित हो गये जो बुद्ध के समय विद्यमान थे।

इस प्रकार शिशुनाग एक शक्तिशाली राजा था। गिरिव्रज के अतिरिक्त वैशाली नगर को उसने अपनी दूसरी राजधानी बनाई थी जो बाद में उसकी प्रधान राजधानी बन गयी। ऐसा उसने सम्भवतः वज्जियों के ऊपर कठोर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से किया होगा।

कालाशोक (काकवर्ण)

शिशुनाग ने सम्भवतः ४१२ ईसा पूर्व से लेकर ३९४ ईसा पूर्व तक शासन किया। महावंश के अनुसार उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कालाशोक राजा बना। पुराणों में उसी को काकवर्ण कहा गया है।

उसने अपनी राजधानी पुनः पाटलिपुत्र में स्थानान्तरित कर दियाइस समय के बाद पाटलिपुत्र में ही मगध की राजधानी रही

कालाशोक के शासन काल में वैशाली के ‘बालुकाराम विहार’ में बौद्ध धर्म की द्वितीय संगीति (Second Buddhist Council) का आयोजन हुआ। यह बौद्ध संगीति ‘भगवान बुद्ध’ के महापरिनिर्वाण के १०० वर्ष बाद आयोजित हुई थी। दूसरे बौद्ध संगीति की अध्यक्षता ‘सुब्बुकामी या सावकमुनि’ ने की थी। इसमें बौद्ध संघ में विभेद उत्पन्न हो गया तथा वह स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में बट गया —

  • स्थविर तथा
  • महासंघिक

परम्परागत नियमों में आस्था रखने वाले लोग स्थविर कहलाये। इनका नेतृत्व ‘महाकाच्चायन’ ने उज्जयिनी में किया। इनको स्थविर, थेरावादी, पश्चिमी भिक्षु और अवन्तिपुत्र भी कहा जाता है।

जिन लोगों ने बौद्ध संघ में कुछ नये नियमों को समाविष्ट कर लिया वे महासांधिक, सर्वास्तिवादी, पूर्वी भिक्षु और वज्जि पुत्र जैसे नामों से जाने गये। इनका नेतृत्व ‘महाकास्सप’ ने किया।

स्थविर और महासंघिक सम्प्रदायों से बाद में चलकर क्रमश: हीनयान और महायान की उत्पत्ति हुई।

देखें बौद्ध संघ

वाणभट्ट कृत हर्षचरित से पता चलता है कि काकवर्ण की राजधानी के समीप घूमते हुए किसी व्यक्ति ने गले में छूरा भोककर हत्या कर दी।*

काकवर्णः शैशुनागिः नगरोपकण्ठे निचकृते निस्त्रिंशेन।

—हर्षचरित।*

यह राजहन्ता कोई दूसरा नहीं अपितु नंद वंश का पहला राजा महापद्मनन्द ही था। कालाशोक ने संभवतः ३६६ ईसा पूर्व तक राज्य किया।

कालाशोक के उत्तराधिकारी

महाबोधिवंश के अनुसार कालाशोक के १० पुत्र हुए जिन्होंने सम्मिलित रूप से २२ वर्षो तक राज्य किया। इन १० पुत्रों के नाम हैं — भद्रसेन, कोर्णदवर्ण, मंगुर, सर्वज्ञजह, जालिक, उभक, संजय, कोर्व्य, नन्दिवर्धन और पंचमक। इसमें नन्दिवर्धन का नाम तो पुराणों में भी मिलता है।

इसमें नन्दिवर्धन का नाम सबसे महत्त्वपूर्ण लगता है। पुराणों के अनुसार नन्दिवर्धन शिशुनाग वंश का उपान्तिम राजा था जिसका उत्तराधिकारी महनंदिन हुआ। गेगर महोदय ने इन दोनों नामों को एक ही माना है। इस प्रकार नन्दिवर्धन अथवा महानन्दिन् शैशुनाग वंश का अन्तिम शासक था। कालाशोक के उत्तराधिकारियों का शासन ३४४ ईसा पूर्व के लगभग समाप्त हो गया।

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