मगध का उदय : कारण

भूमिका

मगध का उदय प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रमुख घटना है। बिहार प्रान्त के पटना तथा गया जनपदों की भूमि में स्थित मगध प्राचीन भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य रहा है। महाभारतकाल में यहाँ का राजा ‘जरासंध’ था। बौद्ध साहित्यों में इसकी गणना सोलह महाजनपदों में की गयी है।

सोलह महाजनपदों में से चार महाजनपद प्रमुख थे। ये चार प्रमुख महाजनपद थे – मगध, कोसल, वत्स और अवन्ति। इन चार में दो सर्वाधिक शक्तिशाली बनकर उभरे, वे थे – मगध और अवन्ति। साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा में अन्ततः मगध ने इन सभी पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी।

मगध का उदय : कारण

बुद्धकालीन राजतन्त्रों में मगध ही अन्ततोगत्वा सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न साम्राज्य के रूप में उभर कर सामने आया। प्रश्न यह उठता है कि ऐसे वे कौन से कारक हैं जिसके कारण मगध का उदय सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में हुआ? इसके लिये मगध शासकों की शक्ति के साथ-साथ प्राकृतिक कारण भी कम सहायक नहीं थे; यथा –

  • भौगोलिक स्थिति।
  • राजधानी की भौगोलिक स्थिति।
  • गज-सेना।
  • सैन्य संगठन, शस्त्रास्त्र।
  • उत्तम कोटि के कच्चे लौह धातु।
  • व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण।
  • कुशल राजाओं का नेतृत्व।
  • उर्वरा प्रदेश या मध्य गंगा घाटी।
  • समाज।

भौगोलिक स्थिति

सोलह महाजनपदों में से मगध की भौगोलिक स्थिति बड़ी उपयुक्त थी। क्योंकि मगध साम्राज्य की उत्तरी सीमा पर गंगा नदी बहती थी। अजातशत्रु के समय में वज्जि संघ पर विजयोपरान्त गंगा नदी से होने वाले व्यापार का मगध नियन्ता बन बैठा। नदियों का उपयोग रक्षा, संचार और व्यापार के लिये किया जा सकता है।

मगध की आरम्भिक राजधानी ‘राजगृह’ से दक्षिण में कुछ दूरी पर लोहे के समृद्ध भंडार  थे।

मगध की भूमि पर्याप्त उर्वर थी। प्रभूत कृषि उत्पादन ने शिल्प व उद्योगों को बढ़ावा दिया। गंगा घाटी पर नियंत्रण से जहाँ एक ओर उसे समृद्ध बनाया वहीं आर्थिक सम्पन्नता ने सैन्य श्रेष्ठता के लिये संसाधन उपलब्ध कराये।

दक्षिणी क्षेत्रों में जंगलों ने इसे लकड़ी और हाथी प्रदान किया। लकड़ी से नावें तो हाथियों का प्रयोग सेना में किया गया।

राजधानी की भौगोलिक स्थिति

मगध की दोनों राजधानियाँ ‘राजगृह’ तथा ‘पाटलिपुत्र’ अत्यन्त सुरक्षित ‘भौगोलिक स्थिति’ में थी।

राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरी होने के कारण एक तरह से ‘प्राकृतिक दुर्ग’ का कार्य करता था और शत्रुओं द्वारा सुगमता से जीती नहीं जा सकती थी। बारूद और तोपों का आविष्कार मध्यकाल में हुआ था। इसलिये तत्कालीन परिस्थितियों में राजगीर को विजित करना दुष्कर था।

वज्जिसंघ के साथ १६ वर्षीय संघर्ष में अजातशत्रु ने गंगा व सोन के संगम पर स्थिति ‘पाटलिग्राम’ के सामरिक महत्त्व को पहचाना। उदायिन् ने इसी पाटलिग्राम को ‘कुसुमपुर’ नामक नगर की स्थापना की और यही आगे चलकर ‘पाटलिपुत्र’ के नाम से विख्यात हुई। उदायिन् ने राजगृह से यहीं अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दी।

शिशुनाग ने ‘वैशाली’ को अपनी राजधानी बनाया। परन्तु कालाशोक के समय से ‘पाटलिपुत्र’ मगध साम्राज्य की स्थायी राजधानी बन गयी

पाटलिपुत्र केंद्र भाग में स्थित इस स्थल के साथ सभी दिशाओं से संचार-सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते थे। पाटलिपुत्र गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर था, और पाटलिपुत्र से थोड़ी दूरी पर घाघरा नदी भी गंगा से मिलती थी। प्राक्-औद्योगिक दिनों में जब यातायात में बड़ी कठिनाइयाँ थी, नदी मार्गों को पकड़ करके ही सेना उत्तर, पश्चिम, दक्षिण और पूरब की ओर से बढ़ती थी। इसके अलावा लगभग चारों ओर से नदियों द्वारा घिरे होने के कारण पटना की स्थिति अभेद्य हो गयी थी। सोन और गंगा इसे पश्चिम और उत्तर की ओर से घेरे हुए थीं, तो पुनपुन दक्षिण और पूर्व की ओर से। इस प्रकार पाटलिपुत्र सही मायने में जलदुर्ग ( water fort ) था।

इस प्रकार पहाड़ियों ( राजगृह ) तथा नदियों ( पाटलिपुत्र ) से घिरी दोनों राजधानियाँ तत्कालीन परिवेश में मगध की सुरक्षाभित्ति का कार्य किया था। इन दोनों को तत्कालीन परिस्थितियों में विजित करना लगभग असम्भव ही था।

मगध का उदय
पाटलिपुत्र की सामरिक स्थिति

उर्वरा प्रदेश या मध्य गंगा घाटी

मगध राज्य ‘मध्य गंगा के मैदान’ के स्थिति था। इस उर्वरा प्रदेश से जंगल साफ हो चुके थे। पर्याप्त वर्षा होती थी, इसलिये सिंचाई के बिना भी प्रभूत खाद्यान्न उत्पादन होता था।

प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि इस प्रदेश में अनेक प्रकार के चावल पैदा होते थे। सम्भवत: धान रोपने की प्रथा भी चल पड़ी थी।

प्रयाग के पश्चिम की ओर के प्रदेश की अपेक्षा यह प्रदेश कहीं अधिक उपजाऊ था। परिणामतः यहाँ के कृषक प्रभूत खाद्यान्न पैदा कर लेते थे और भरण-पोषण के बाद भी उनके पास अनाज बचता था। उत्पादन अधिशेष सुचारु रूप से शासक वर्ग तक कर के रूप में पहुँचाता था। जिससे नागर जनसंख्या, पदाधिकारियों इत्यादि का पोषण तो होता ही था साथ ही नियमित कराधान ने स्थायी और मजबूत सैन्य संगठन को सम्भव बनाया।

गज सेना

सैन्य संसाधनों की दृष्टि से मगध अपने प्रतिस्पर्धी राज्यों से सम्पन्न था। भारतीय राज्य घोड़े और रथ के उपयोग से भली-भाँति परिचित थे, परन्तु मगध ही पहला राज्य था जिसने अपने पडोसियों के विरुद्ध युद्ध में हाथियों का बड़े पैमाने पर सफलतापूर्वक प्रयोग किया। समीपवर्ती वन प्रदेश से मगध के शासकों ने हाथियों को प्राप्त कर एक शक्तिशाली गज-सेना का गठन किया। यूनानी स्रोतों से ज्ञात होता है कि नंदों की सेना में ६,००० हाथी थे। दुर्गों को भेदने,  सड़कों और अन्य यातायात सुविधाओं से रहित प्रदेशों में और कछारी क्षेत्रों यातायात के लिये और सबसे बढ़कर सेना में हाथियों का प्रयोग किया जाता था।

सैन्य संगठन और शस्त्रास्त्र

मगध निरन्तर सैन्य संगठन में श्रेष्ठ होता गया। गज सेना तो प्रतिद्वंद्वी सेनाओं पर मगध की अधिमान देती ही थी साथ ही नये-नये शस्त्रास्त्रों के निर्माण और प्रयोग से मगध की सफलता के लिये उत्तरदायी थे। उदाहरणार्थ अजातशत्रु द्वारा ‘रथमूसल’ और ‘शिलाकंटक’।

कार्टियस के अनुसार धननन्द के पास २० हजार अश्वारोही, २ लाख पदाति, २ हजार रथ और ३ हजार हस्तिसेना थी। इस तरह सैन्य संगठन और शस्त्रास्त्रों ने मगध की सफलता में महती भूमिका निभायी।

व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण

छठी शताब्दी ई०पू० में बौद्ध ग्रंथ में ६ प्रमुख नगरों का उल्लेख मिलता है। इसमें चम्पा पूर्वी भारत में व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। बिम्बिसार ने अंग को विजित करके चम्पा में अपने पुत्र ‘अजातशत्रु’ को वहाँ का उपराजा नियुक्त कर दिया। अजातशत्रु के समय ‘वज्जि संघ’ पर विजय ने गंगा नदी पर मगध का नियंत्रण हो गया। काशी पर पहले से ही मगध का नियंत्रण था। अब मध्य गंगा घाटी और निम्न गंगा घाटी पर नियंत्रण होने से मगध व्यापारिक नियंता बन बैठा।

ईसा पूर्व पाँचवीं शती से ही मगध पूर्वी भाग में उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करता था। अजातशत्रु के काल में मगध का गंगा नदी के दोनों तट पर नियंत्रण हो गया। यहाँ से कई व्यापारिक मार्ग होकर जाते थे।

व्यापार और वाणिज्य

तक्षशिला से प्राप्त आहत सिक्कों (Punch-marked coins) से पता चलता है कि सिकन्दर के समय में मगध के सिक्के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में काफी प्रचलित थे। ईसा पूर्व पाँचवी शती के अन्त तक मगध समस्त उत्तरापथ के व्यापार का नियंता बन बैठा। मगध की इस आर्थिक समृद्धि ने भी साम्राज्यवाद के विकास में प्रमुख योगदान दिया था।

मगध महाजनपद में ताँबे और लोहे के विशाल भंडार थे। इसके स्थान के कारण, यह व्यापार को आसानी से नियंत्रित कर सकता था।

मगध के पास एक बड़ी आबादी थी जिसका उपयोग कृषि, खनन, शहरों के निर्माण और सेना में किया जा सकता था।

गंगा के मैदान में इमारती लकड़ी की उपलब्धता ने उन्हें नदी परिवहन के लिए आवश्यक नाव बनाने में मदद की। इससे उन्हें व्यापार और रक्षा दोनों के लिए आसान परिवहन में मदद मिली।

मगध में ताँबे और लोहे के विशाल भंडार थे। सबसे अमीर लोहे के भंडार उनकी पहली राजधानी राजगीर के पास स्थित थे। अपनी सेना को प्रभावी हथियारों से लैस करने के लिए उनके पास लौह अयस्क का उपयोग करने की काफी गुंजाइश थी।

गंगा पर अधिकार का अर्थ था आर्थिक आधिपत्य। गंगा उत्तर भारत में व्यापार के लिये महत्त्वपूर्ण थी। मगध युग के दौरान, अधिकांश नगर मध्य गंगा के मैदानों में विकसित हुए। परिणामस्वरूप, उत्तर-पूर्व भारत के साथ व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई। इससे मगध को वस्तुओं की बिक्री पर टोल लगाने और बड़ी मात्रा में धन एकत्र करने में मदद मिली। इसके अलावा, धातु के पैसे के इस्तेमाल से मगध के शासकों को आसानी से कर वसूलने में मदद मिली। बिंबिसार द्वारा अंग के विलय के साथ, चंपा नगर को मगध साम्राज्य में जोड़ा गया। दक्षिण-पूर्व एशिया, श्रीलंका तथा दक्षिण भारत से व्यापार में चंपा का महत्त्वपूर्ण स्थान था।

कच्चे लोहे की उपलब्धता

मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा तथा ताँबा जैसे खनिज पदार्थों की बहुलता थी। लोहे का समृद्ध भण्डार आसानी से उपलब्ध होने के कारण मगध के शासक अपने लिये अच्छे हथियार तैयार करा सके जो उनके विरोधियों को सुलभ नहीं थे। यद्यपि अवन्ति राज्य भी लौह धातु की दृष्टि से समृद्ध था परन्तु लौह धातु गुणवत्ता की दृष्टि से मगध के पास श्रेष्ठ थे।

समृद्ध और श्रेष्ठ लौह खनिज के भंडार की उपलब्धता के कारण मगध के शासक अपने लिए प्रभावशाली हथियार तैयार करा सके। अजातशत्रु द्वारा वज्जि संघ ( लिच्छवियों ) के विरुद्ध रथमूसल और महशिलाकंटक नामक यंत्रों का प्रयोग किया था। उनके विरोधी आसानी से ऐसे हथियार प्राप्त नहीं कर सकते थे।

लोहे की खानें पूर्वी मध्य प्रदेश में भी मिली हैं, जो उज्जैन राजधानी वाले अवंति राज्य से अधिक दूर नहीं थीं। ५०० ई०पू० के आसपास उज्जैन में निश्चय ही लोहार लौहकर्म में  निपुण थे। वहाँ के लोहार संभवत: बहुत अच्छी किस्म के हथियार तैयार करते थे। यही कारण है कि उत्तर भारत की प्रभुसत्ता के लिये अवंति और मगध के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। अवन्ति पर कब्जा करने में मगध को लगभग सौ साल लग गये थे।

समाज

मगध का समाज का चरित्र अपरम्परागत और रूढ़िविरोधी था। कट्टर ब्राह्मण यहाँ बसे हुए किरात और मगध लोगों को निम्न कोटि का समझते थे। परंतु वैदिक लोगों के आगमन से यहाँ आर्य और अनार्य लोगों का सुखद मिश्रण हुआ। चूँकि इस प्रदेश का आर्यीकरण हाल में हुआ था, इसलिये पहले से ही वैदिक प्रभाव में आये हुए राज्यों की अपेक्षा मगध में विस्तार के लिये उत्साह अधिक था।

जैन धर्म और बौद्ध धर्म के उद्भव ने दर्शन और विचार के संदर्भ में एक क्रांति का नेतृत्व किया। उन्होंने उदार परंपराओं को बढ़ाया।

समाज पर ब्राह्मणों का इतना प्रभुत्व नहीं था और मगध के कई राजा मूल रूप से उदार थे और यहाँ पर ‘निम्न वर्ण’ ( नन्द वंश ) को भी शासन का अवसर मिला। हालाँकि वे वैदिक लोगों के साथ एक खुशहाल जातीय मिश्रण से गुज़रे। ऐसे अच्छे सम्बन्धों के फलस्वरूप राज्य का विस्तार वैदिक प्रभाव वाले पहले के राज्यों की तुलना में आसान हो सका।

कुशल शासकों का नेतृत्व

परन्तु मगध की सफलता का सर्वप्रमुख कारण वहाँ निरंतर ऐसे कुशल राजाओं का उदय होते रहना है जिन्होंने मगध के उत्कर्ष का नेतृत्व प्रदान किया। ये कुशल शासक थे – बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदायिन्, शिशुनाग, कालाशोक, महापद्मनन्द।

इन शासकों ने विभिन्न नीतियों द्वारा मगध निरंतर शक्तिशाली बनता जा रहा था; यथा —

  • वैवाहिक राजनय – जैसे बिम्बिसार ने लिच्छिवियों, कोशल व मद्र से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। अजातशत्रु ने कोसल नरेश प्रसेनजित की पुत्री वाजिरा से विवाह किया था।
  • कूटनीति – अजातशत्रु ने अपने मंत्री ‘वस्सकार’ के माध्यम से वज्जि संघ में भेद उत्पन्न करवा दिया और इससे अंततः वज्जि संघ को मगध ने विजित कर लिया।
  • आक्रामक नीति – मगध को निरंतर कुशल सेनानायकों का नेतृत्व मिलता रहा; जैसे – बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग, महापद्मनन्द इत्यादि।

इन्हीं सब कारणों से मगध को दूसरे राज्यों को हराने में और भारत में प्रथम साम्राज्य स्थापित करने में सफलता मिली।

 

द्वितीय नगरीय क्रांति

महाजनपद काल

बुद्धकालीन गणराज्य

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