पारसी आक्रमण (हखामनी आक्रमण), कारण और प्रभाव – छठीं शताब्दी ई०पू०

भूमिका

भारतवर्ष पर सबसे पहले ‘ईरान’ के शासक ‘साइरस द्वितीय’ ने आक्रमण किया। परन्तु साइरस द्वितीय का आक्रमण असफल रहा। इसके बाद डेरियस या दारा प्रथम का आक्रमण हुआ जिसने पश्चिमोत्तर भारत के कुछ भाग और निचली सिंधु घाटी को अधिकृत कर लिया था। हखामनी (Achaemenes) नामक व्यक्ति द्वारा स्थापित इस राजवंश के अभियान को ‘हखामनी आक्रमण’ कहते हैं। पारसी धर्म के कारण इसका नाम ‘पारसीक आक्रमण’ या ‘पारसी आक्रमण’ भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त ‘ईरानी आक्रमण’ और ‘फारसी आक्रमण’ भी इसको कहते हैं।

ऐतिहासिक स्रोत

यद्यपि पारसी आक्रमण का उल्लेख तत्कालीन भारतीय साहित्यों में नहीं मिलता है, तथापि यूनानी और रोमन इतिहासकारों ने हखामनी आक्रमण का विवरण मिलता है। साथ ही तत्कालीन अखिलेखों से भी इसके संकेत मिलते हैं।

  • बेहिस्तून, पर्सिपोलिस और नक्श-ए-रुस्तम के मिले अभिलेख।
  • क्लासिकल लेखक; यथा – हेरोडोटस (Herodotus), जेनोफोन (Xonophon), टेसियस (Ctesias), स्ट्रैबो (Strabo), एरियन (Arrian) आदि।
  • सिकन्दर के साथ आये इतिहासकार – नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोबुलस।
  • सिकन्दर के बाद आये यूनानी राजदूत – मेगस्थनीज।
  • इसके अलावा द्वितीक स्रोत जो उपर्युक्त के प्राथमिक स्रोतों के आधार पर आधुनिक इतिहासकारों द्वारा लिखे गये :
    • Cambridge History of India, Vol. I
    • The History of Foreign Rule in Ancient India : Dr. K. C. Ojha.
    • Studies in Indian Art : V. S. Agrawal.

पारसी आक्रमण के कारण

प्राग्मौर्य युग में मगध सम्राटों का अधिकार क्षेत्र भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों तक विस्तृत नहीं हो पाया था। जिस समय मध्य भारत के राज्य मगध साम्राज्य की विस्तारवादी नीति का शिकार हो रहे थे, पश्चिमोत्तर प्रदेशों में घोर अराजकता एवं अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त था। यह क्षेत्र अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था जिनमें कम्बोज, गन्धार एवं मद्र प्रमुख थे। इन प्रदेशों में कोई ऐसी सार्वभौम शक्ति नहीं थी जो परस्पर संघर्षरत राज्यों को जीतकर एकछत्र शासन के अन्तर्गत संगठित कर सकती। यह सम्पूर्ण प्रदेश एक ही समय विभाजित एवं समृद्ध था। ऐसी स्थिति में विदेशी आक्रान्ताओं का ध्यान भारत के इस भू-भाग की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। परिणामस्वरूप देश का यह प्रदेश दो विदेशी आक्रमणों का शिकार हुआ। इनमें पहले आने वाले परसिया के हखामनी नरेश थे।

पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत का सामरिक और आर्थिक महत्त्व था। इस क्षेत्र अधिकार कर भारत में प्रवेश के मार्ग पर नियंत्रण कायम किया जा सकता था। भारत का प्रमुख व्यापारिक मार्ग उत्तरापथ इसी भू-भाग से होते हुए मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को जाता था।

इस क्षेत्र को अधिकृत करके भारत और एशियाई व्यापार को नियंत्रित किया जा सकता था। दूसरे इसका सामरिक महत्त्व भी था। किसी भी सार्वभौमिक सत्ता के अभाव ने विदेशी आक्रमण को निमंत्रित किया।

पारसी आक्रमण का स्वरूप

साइरस द्वितीय (५५८-५२९ ईसा पूर्व) का अभियान

छठीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य कुरुष अथवा साइरस द्वितीय (Cyrus II) नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने ईरान से हखामनी* साम्राज्य की स्थापना की। इस वंश का संस्थापक हखामनिश (Achaemenes) नामक व्यक्ति था। इसी कारण उसके उत्तराधिकारियों द्वारा स्थापित साम्राज्य ‘हखामनी साम्राज्य’ कहा गया।

उसने शीघ्र ही अपने को पश्चिमी एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक बना लिया। उसके साम्राज्य की पूर्वी सीमा भारत का स्पर्श करने लगी। इस समय पश्चिमोत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये उपयुक्त अवसर प्रदान कर रही थीं। अतः वह भारतीय अभियान के लिये प्रस्तुत हुआ।

साइरस ने निश्चित रूप से भारत के किन प्रदेशों को जीता था, यह ठोस प्रमाणों के अभाव में ज्ञात नहीं है। इस विषय में क्लासिकल (यूनानी-रोमन) लेखकों के विवरण हो हमारे ज्ञान के एकमात्र साक्ष्य हैं। इन लेखकों में जेनोफोन (Xenophon), टेसियस (Ctesias), स्ट्रेबो (Strabo) तथा एरियन (Arrian) प्रमुख हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय ईरान से भारत आने के दो मार्ग थे :

  • पहला मार्ग जेड्रोसिया के विशाल रेगिस्तान से होकर आता था।
  • दूसरा बैक्ट्रिया, सोण्डियाना तथा काबुल घाटी होते हुए सिन्धु नदी तक पहुँचता था।

सिकन्दर के जल सेनाध्यक्ष नियार्कस के विवरण से ( जो एरियन तथा स्ट्रेबो द्वारा सुरक्षित है ) हमें ज्ञात होता है कि साइरस ने जेड्रोसिया के रेगिस्तान से होकर भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया था परन्तु उसे विनाशकारी असफलताओं का सामना करना पड़ा। मार्ग में उसको सम्पूर्ण सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी तथा केवल सात सैनिकों के साथ वह जान बचाकर भागा।*

The account of Nearchus, as preserved by Arrian (An ab. vI, 24, 2-3), links the names of Cyrus and of Semiramis, the far-famed Assyrian Queen, and states that Alexander, when planning his march through Gedrosia (Baluchistan), was told by the inhabitants ‘that no one had ever before escaped with an army by this route, excepting Semiramis on her flight from India. And she, they said, escaped with only twenty of her army, and Cyrus, the son of Cambyses, in his turn with only seven. For Cyrus also came into these parts with the purpose of invading India, but was prevented through losing the greater part of his army, owing to the desolate and impracticable character of the route.* [Strabo, Geogr. xv, 1, 5 p. 686 Cas. (and cf. xv 2, 5 p. 722 Cas.), likewise quotes Nearchus but merely to the effect that Cyrus escaped with seven men.] — Cambridge History Of India, Vol. I, p.296.*

मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात होता है कि ‘काबुल घाटी’ के मार्ग से हिरेक्लीज, डायोनिसस तथा सिकन्दर को छोड़कर, किसी अन्य विदेशी शक्ति द्वारा न तो भारतीय कभी जीते ही गये और न ही उन्होंने अपने को युद्ध में ही फँसाया। यद्यपि पारसीकों ने हिड्रक (क्षुद्रक) सैनिकों को भाड़े पर लड़ने के लिये बुलाया था तथापि पारसीकों ने स्वयं कभी भी भारत पर आक्रमण नहीं किया। इस प्रकार नियार्कस तथा मेगस्थनीज इस मत के हैं कि साइरस ने कभी भी भारत पर आक्रमण नहीं किया।*

Megasthenes, on the other hand, as quoted by Strabo (Geogr. xv, 1, 6pp. 686-687 Cas.), declares that the Indians had never engaged in foreign warfare, nor had they ever been invaded and conquered by a foreign power, except by Hercules and Dionysus and lately by the Macedonians. — Cambridge History Of India, Vol. I, p.296.*

परन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष से सहमत होना कठिन है। सम्भव है कि सिकन्दर के समकालीन यूनानी लेखकों ने अपने सेनानायक के महत्त्व को बढ़ाने के उद्देश्य से साइरस की सफलताओं की जान-बूझकर उपेक्षा की हो।

इस सम्बन्ध में दूसरी विचारणीय बात यह है कि ये यूनानी लेखक सिन्धु को भारत की पश्चिमी सीमा पर मानते हैं। यह सम्भव है कि साइरस ने सिन्धु के पश्चिम में स्थित भारत के सीमावर्ती क्षेत्र की विजय की हो।

रोमन लेखक प्लिनी (Pliny) के विवरण से ज्ञात होता है कि साइरस ने कपिशा नगर* को ध्वस्त किया। ऐसा प्रतीत होता है कि, अपनी प्रारम्भिक असफलता से साइरस निराश नहीं हुआ और उसने दूसरी बार काबुल घाटी की ओर से भारत पर आक्रमण किया। इस बार पारसीक नरेश को कुछ सफलता मिली।

  • कपिशा अथवा कपिशी नगर अफगानिस्तान के घोरबन्द तथा पंजबिव के संगम पर स्थित था।*

एरियन एक दूसरे स्थान पर हमें बताता है कि ‘सिन्धु तथा काबुल नदियों के बीच स्थित भारतीय प्राचीन समय में असीरियनों तथा मीडियनों और बाद में पारसीकों के अधीन थे। उन्होंने पारसी नरेश साइरस को कर दिया।* इन प्रदेशों में अष्टक तथा अश्वक नामक भारतीय जनजातियाँ निवास करती थीं। उन्होंने साइरस की अधीनता स्वीकार की।

The Indians between the river Sindhu and Kabul (Cophen) were, in ancient times, subject to the Assyrians, the Modes and finally to Persians under Cyrus, to whom they paid tribute, he imposed upon them — (Indica I, 1-3) -Cambridge History Of India, Part-1, 297.*

जेनोफोन ‘साइरस की जीवनी’ (साइरोपेडिया) में लिखता है कि ‘साइरस ने बैक्ट्रियनों तथा भारतीयों को जीतकर अपने विशाल साम्राज्य के अधीन कर लिया तथा अपना प्रभाव क्षेत्र एरिथ्रियन सागर (हिन्द महासागर) तक विस्तृत कर लिया। भारत के किसी राजा ने साइरस के पास उपहारों के साथ अपना एक दूत भेजा था।* इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि काबुल घाटी पर साइरस का अधिकार था।

  • साइरोपेडिया, १, १-४ और ८,६, २०-२१*

इस प्रकार साइरस ईरान तथा भारत के मध्यवर्ती प्रदेशों को जीतने में सफल हुआ। इस सम्बन्ध में एडवर्ड मेयर का निष्कर्ष सबसे अधिक तर्कसंगत लगता है ‘साइरस ने हिन्दूकुश तथा काबुल घाटी, विशेष रूप से गन्धार की भारतीय जनजातियों को जीत लिया था। दारा स्वयं सिन्धु नदी तक आया था।’*

Cyrus appears to have subjected the Indian tribes of Paropanisus (Hindu-Kush) and in the Kabul valley especially the Gandarians. Darius himself advanced as far as Indus. — Cambridge History Of India, Vol.I, p. 298.*

साइरस ने ५५८ ईसा पूर्व से ५२९ ईसा पूर्व तक शासन किया। उसको मृत्यु कैस्पियन क्षेत्र में डरबाइक (Derbike) नामक एक पूर्वी जनजाति के विरुद्ध लड़ते हुए हुई। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र कम्बुजीय अथवा केम्बिसीज द्वितीय (५२९-५२२ ई०पू०) उसके साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। वह गृह-युद्धों में ही उलझा रहा और उसके समय मैं पारसीक साम्राज्य का विस्तार भारत की ओर नहीं हो सका।

दारा प्रथम (५२२-४८६ ईसा पूर्व)

दारा प्रथम के समय से भारत के पारसीक अधिपत्य के विषय में हमारा ज्ञान अपेक्षाकृत अधिक हो जाता है। दारा के शासन काल के तीन अभिलेख मिलते हैं — बेहिस्तून, पर्सिपोलिस तथा नक्श-ए-रुस्तम। इन तीन अभिलेखों से भारत-पारसीक सम्बन्ध के विषय में महत्वपूर्ण सूचना मिलती है।

बेहिस्तून अभिलेख (लगभग ५२०-५१८ ईसा पूर्व) में उसके साम्राज्य के २३ प्रान्तों का उल्लेख हुआ है। इनमें शतगु तथा गदर के नाम मिलते हैं परन्तु भारत का नाम नहीं है।

पर्सिपोलिस अभिलेख (लगभग ५१८-५१५ ईसा पूर्व) तथा नक्श-ए-रुस्तम (लगभग ५१५ ईसा पूर्व) के लेखों में ‘हिदु’ का उल्लेख उसके साम्राज्य के एक प्रान्त के रूप में हुआ है।

इनसे स्पष्ट है कि शतगु, गदर तथा हिदु दारा के साम्राज्य में सम्मिलित थे तथा हिदु साम्राज्य की सबसे पूर्वी सीमा पर स्थित था। ये तीनों ही स्थान सिन्धु घाटी में स्थित थे।

शतगु से तात्पर्य ‘सप्त सिन्धु’ से है जो आधुनिक पंजाब के पास स्थित रहा होगा जिसे सात नदियों की भूमि कहा जाता है। गदर से तात्पर्य गन्धार से है। प्राचीन भारतीय साहित्य से ज्ञात होता है कि यह निचली काबुल घाटी के पास स्थित था। दारा के समय में संभवतः इसके अन्तर्गत हिन्दूकुश का क्षेत्र भी सम्मिलित हो गया था। हिदु से तात्पर्य सिन्धु से है जो प्राचीन काल से लेकर आज तक निचली सिन्धु घाटी (Lower Indus Valley) का नाम रहा है।

इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि दारा ने भारत के इस भाग को ५१८ ईसा पूर्व के आस-पास जीत लिया था ऐसा प्रतीत होता है कि शतगु (सप्त सिन्धु) तथा गदर (गन्धार) के प्रदेश, जिनका उल्लेख बेहिस्तून अभिलेख में हुआ है, साइरस के समय से ही पारसीक साम्राज्य के अंग थे। हर्जफेल्ड का विचार है कि ये प्रान्त मीडियन साम्राज्य के थे तथा उसी की विजय के समय साइरस का इनके ऊपर अधिकार हो गया था।

इस अभिलेखीय प्रमाण की पुष्टि यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के विवरण से भी होती है। वह हमें बताता है कि भारत दारा के साम्राज्य का बीसवाँ प्रान्त था। यह सबसे घनी आबादी वाला प्रदेश था और यहाँ से द्वारा को उसके सम्पूर्ण राजस्व का तीसरा भाग कर के रूप में प्राप्त होता था। यह धनराशि ३६० टैलेण्ट स्वर्ण-चूर्ण के बराबर थी।*

  • The Indians were more in number than any other nation, and they paid a greater tribute than any other province, namely 360 talents of gold-dust.- Herodotus III, 94. — डॉ० कैलाश चन्द्र ओझा कृत The History of Foreign Rule in Ancient India’ ( पृ० १८ )*
  • ३६० टैलेण्ट स्वर्ण-चूर्ण : एक प्रकार के भार अथवा धन को इकाई यह राशि दस लाख पौण्ड स्टर्लिंग के बराबर थी।

हेरोडोटस ने यह भी लिखा है कि दारा ने ५१७ ईसा पूर्व में अपने नौ सेनाध्यक्ष स्काईलेक्श (Scylax) की अध्यक्षता में एक जहाजी बेड़ा सिन्धु नदी के मार्ग का, जहाँ वह समुद्र में गिरती है, पता लगाने के लिये भेजा था। ‘यह बेड़ा पकतीत’ (पठान) प्रदेश के कैस्पाटीरस नगर (सम्भवतः गन्धार में स्थित) के पूर्व की ओर, नदी के बहाव की ओर रवाना हुआ तथा समुद्र (हिन्द महासागर) तक जा पहुँचा। समुद्र के पश्चिम की ओर बढ़ते हुए वे ३० महीने की यात्रा के बाद ऐसी जगह पर पहुँचे जहाँ से मिस्र का राजा फोनेशियनों को लीबिया की यात्रा पर भेज रहा था। जब वे यात्रा से वापस लौटे तब दारा ने भारतीय भागों पर अधिकार कर लिया तथा समुद्र का उपयोग किया।* इस विवरण से ऐसा पता चलता है कि स्वयं दारा ने सिन्धु नदी की निचली घाटी, जहाँ वह समुद्र में गिरती है, को जीता था।

  • Herodotus VI, 44 : डॉ० कैलाश चन्द्र ओझा कृत ‘The History of Foreign Rule in Ancient India. में उद्घृत पृ० – १८ *

हेरोडोटस के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दारा के साम्राज्य में सम्पूर्ण सिन्धु घाटी का प्रदेश सम्मिलित हो गया तथा पूर्व की ओर उसका विस्तार राजपूताना के रेगिस्तान तक था। सम्भवतः इसमें पंजाब का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित था। प्रसिद्ध ईरानी इतिहासकार घिर्शमन के अनुसार दारा का यह अभियान राजनैतिक तथा प्रशासनिक दोनों ही कार्यवाही थी और संभवतः यह आर्थिक उद्देश्यों से भी प्रेरित था जो सदैव उसकी योजनाओं की प्रेरणा का काम करते थे। इस प्रकार दारा की विजयों ने समस्त सिन्धु घाटी को एकता के सूत्र में आबद्ध कर भारत का सम्पर्क पाश्चात्य जगत् से जोड़ दिया। दारा प्रथम का शासनकाल भारत में पारसीक आधिपत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है। उसके उत्तराधिकारियों ने अपने साम्राज्य की पूर्वी सीमा इससे आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया और वे दारा द्वारा जीते हुए प्रदेशों को सुरक्षित करने में ही संलग्न रहे।

क्षयार्थ अथवा जरक्सोज (Xerxes) (लगभग 486-465 ईसा पूर्व)

दारा प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जरक्सीज पारसीक-साम्राज्य का शासक बना। पर्सिपोलिस से प्राप्त उसके एक लेख में भारत के तीनों प्रदेशों — गन्धार, शतगु तथा सिन्धु — का स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है। इससे प्रकट होता है कि उसने अपने पिता के भारतीय साम्राज्य को सुरक्षित रखा। पर्सिपोलिस लेख से यह भी पता चलता है कि ‘अहुरमज्दा’ की इच्छा से उसने देवताओं के मन्दिरों को गिरवा दिया तथा उसकी पूजा बन्द किये जाने का आदेश दिया था।

क्लासिकल लेखकों के विवरण से पता चलता है कि यूनान के विरुद्ध अपने युद्ध में उसने भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी की सहायता प्राप्त की थी। ये सैनिक गन्धार तथा सिन्ध के प्रदेशों से गये थे। उन्होंने अत्यन्त वीरतापूर्वक युद्ध किया तथा पर्याप्त यश अर्जित किया।

हेरोडोटस ने भारतीय सिपाहियों की वेष-भूषा का वर्णन इस प्रकार किया है। “भारतीय सैनिकों के वस्त्र सूती थे। उनके कन्धों पर धनुष, बाँस की कमानियाँ तथा तीर लटक रहे थे। तीरों के नोक लोहे से मढ़े गये थे।”* परन्तु जरक्सीज यूनानियों द्वारा परास्त किया गया। ४६५ ईसा पूर्व के लगभग वह अपने किसी अंगरक्षक द्वारा मार डाला गया।

Herodotus (vii, 65) describes the equipment of the Indian infantry as follows : The Indians, clad in garments made of cotton, carried bows of cane and arrows of cane, the latter tipped with iron ; and thus accoutred the Indians were marshalled under the command of Pharnazathres, son of Artabates.— Cambridge History Of India Vol. 1, p. 304.*

जरक्सीज के उत्तराधिकारी तथा पारसोक साम्राज्य का विनाश

जरक्सीज की मृत्यु के पश्चात् उसके तत्कालिक उत्तराधिकारी क्रमशः अर्तजरक्सीज प्रथम एवं द्वितीय (Artaxerxes I and II) हुये।

पर्सिपोलिस के दक्षिणी मकबरे के ऊपर कुछ लेख प्राप्त होते हैं। कलात्मक आधार पर यह मकबरा अर्तजरक्सीज प्रथम (४६५-४२५ ईसा पूर्व) अथवा अर्तजरक्सीज द्वितीय (४०५-३५९ ईसा पूर्व) के काल का माना जाता है। यहाँ सम्राट के सिंहासन के पास करदाताओं के चित्र अंकित है। तीन चित्रों के ऊपर क्रमशः सत्तागिडाई, गन्धार तथा सिन्ध अंकित हैं। यह इस बात का सूचक है कि पूर्व की ओर हखामनी साम्राज्य यथावत् बना हुआ था।

अर्तजरक्सीज के राजवेध टेसियस ने लिखा है कि उसने भारतीय राजाओं द्वारा सम्राट को भेजे गये कुछ उपहारों को स्वयं देखा था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अर्तजरक्सीज प्रथम तथा द्वितीय ने दारा प्रथम द्वारा निर्मित साम्राज्य को सुरक्षित बनाये रखा।

पारसीकों का अन्तिम सम्राट दारा तृतीय (३६०-३३० ईसा पूर्व) के नाम से विख्यात है। एरियन हमें बताता है कि दारा तृतीय के आवाहन पर यूनानी विजेता सिकन्दर के विरुद्ध आरबेला के युद्ध (३३१ ईसा पूर्व) में सिन्धु के पूर्वी तथा पश्चिमी भागों के सैनिकों ने उसकी मदद की थी। इससे ऐसा लगता है कि इस समय तक इन प्रदेशों पर पारसीकों का प्रभुत्व कायम रहा।

किन्तु आर० सी० मजूमदार इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार दारा तृतीय को सेना के भारतीय सैनिक भाड़े पर लिये गये (mercenaries) थे और इससे सिन्धु घाटी के ऊपर पारसीक आधिपत्य सूचित नहीं होता है।*

  • मजूमदार : इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वाटर्ली, खण्ड २५, पृष्ठ १६५*

आरबेला के युद्ध में सिकन्दर ने दारा तृतीय को बुरी तरह परास्त कर उसको विशाल सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इसी पराजय के साथ ही भारत से पारसीक आधिपत्य की समाप्ति हुई।

पारसी आक्रमण का प्रभाव

भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में पारसीक आधिपत्य किसी न किसी रूप में लगभग दो शताब्दियों तक बना रहा। राजनीतिक दृष्टि से उसका देश पर कोई ठोस प्रभाव नहीं पड़ा तथा उत्तरी भारत उससे पूर्णतः अप्रभावित रहा। परन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से भारत पर उसने महत्त्वर्ण प्रभाव डाले।

  • राजनीतिक प्रभाव
  • प्रशासनिक प्रभाव
  • सांस्कृतिक प्रभाव
  • कला पर प्रभाव
  • आर्थिक प्रभाव
  • भौगोलिक अन्वेषणों को प्रोत्साहन

राजनीतिक प्रभाव

पारसी आक्रमण का भारतीय इतिहास पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। ईरानी सीमांत प्रदेश से आगे नहीं बढ़ सके। सीमांत क्षेत्र में भी उनकी विजय का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। शीघ्र ही उनकी सत्ता नष्ट हो गयी। परन्तु परोक्ष रूप से हखामनी आक्रमण ने भारतीय इतिहास को प्रभावित किया।

ईरानी आक्रमण ने सीमांत प्रदेश की राजनीतिक स्थिति का खोखलापन विदेशियों पर जाहिर कर दिया। वे इस बात को अच्छी तरह समझ गये कि इस क्षेत्र में कोई भी ऐसी संगठित शक्ति नहीं है, जो विदेशियों को रोक सके। फलतः भारत-विजय की अभिलाषा उनमें बलवती हो गयी।

पारसीक आक्रमण से प्रेरणा लेकर ही यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर ने भारत-विजय की योजना बनायी। उसने अपने आक्रमण के लिये ईरानियों द्वारा अपनाया गया मार्ग ही अपनाया। इस प्रकार ईरानी आक्रमण ने परोक्ष रूप में सिकंदर की भारत-विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

“If the Achaemenian brought the Indian bowmen and lancers to Hellenic soil, they also showed the way of conquest and cultural penetration to the people of Greece and Macedon.” — H. C. Ray Chaudhry, Political History of Ancient India, p. 242

प्रशासनिक प्रभाव

ईरानी शासकों ने प्रान्तों के लिये ‘क्षत्रपी’ और उसके अधिकारी के लिये ‘क्षत्रप’ का प्रयोग किया। इस तरह पारसीकों की क्षत्रप शासन-प्रणालीका प्रयोग किया जो भारत में शक-कुषाण युग में पर्याप्त रूप से विकसित हुआ।

मौर्य शासन के विभिन्न तत्त्वों पर पारसीक प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता है। मौर्य सम्राटों ने पारसीक नरेशों की दरबारी शान-शौकत तथा कुछ परम्पराओं का अनुकरण किया; यथा –

  • सम्राट के जन्म दिन पर केश-प्रक्षालन की प्रथा ईरान से ग्रहण की गयी थी।
  • इसी प्रकार ईरान में दण्ड की एक विधि के रूप में सिर मुड़ा देने की प्रथा थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा बौद्ध ग्रन्थ महावंश दोनों में ही इस प्रकार से दण्ड दिये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।
  • इसी तरह मौर्य सम्राट की सुरक्षा के लिये ‘स्त्री-अंगरक्षकों’ की नियुक्ति।
  • सुरक्षा के उद्देश्य से सम्राट का एकांत स्थान में रहना आरम्भ करना।
  • मंत्रियों के कक्ष में लगातार ‘अग्नि प्रज्ज्वलित’ रहना।

सांस्कृतिक प्रभाव

पारसी शासन में भारत एवं पश्चिम एशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मार्ग प्रशस्त हुआ भारतीय विद्वान एवं दार्शनिक पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित हुए। स्काइलैक्स जैसे यूनानी भारत की यात्रा पर आये तथा हेरोडोटस और टेसियस जैसे इतिहासकारों ने अपने ग्रन्थों के लिये महत्त्वपूर्ण सूचनायें एकत्रित की।

पारसी सम्पर्क के कारण अनेक भारतीय ईरान गये और भाड़े के सैनिकों के रूप में उन्होंने यूनानियों के विरुध्द युद्ध किया।

पारसीक सम्पर्क के फलस्वरूप भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में खरोष्ठी नामक एक नयी लिपि का जन्म हुआ जो ईरानी अरामेइक लिपि से उत्पन्न हुई थी। खरोष्ठी-लिपि दायें से बायें ओर लिखी जाती थी। भारत के पश्चिमी प्रदेश (सिन्ध, गन्धार आदि) पारसीकों के प्रत्यक्ष शासन में थे। अतः यही अरामेइक लिपि यहाँ भी प्रचलित थी। मौर्य शासक अशोक के दो अभिलेखों- मनसेहरा तथा शाहबाजगढ़ी में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग मिलता है।

इन प्रदेशों की भाषायें भी पारसीक भाषा से प्रभावित हुई। ‘दिपि’ (राजाज्ञा) तथा ‘निपिष्ट’ (लिखित) जैसे शब्द देश में प्रयुक्त होने लगे। अशोक के लेखों में इनसे मिलते-जुलते शब्द लिपि एवं लिखित प्राप्त होते हैं।

सम्भव है अशोक ने शिलाओं पर शासनादेश खुदवाने की शैली दारा प्रथम के लेखों से ही ग्रहण की हो, क्योंकि दारा तथा अशोक के लेखों की प्रारम्भिक पक्तियों एक जैसी है। दारा के लेख ‘सम्राट दारा इस प्रकार कहता है……. (थातियदारयवहुश्क्षयथिय) से प्रारम्भ होते हैं। इसी प्रकार अशोक के अभिलेखों की प्रारम्भिक पक्ति है- “देवताओं का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है (देवानांपियदसि लाजा आह)।”

कला पर प्रभाव

चन्द्रगुप्त मौर्य के पाटलिपुत्र के राजप्रासाद में अनेक पारसीक तत्त्व देखे जा सकते हैं। पाटलिपुत्र की खुदाई में विशाल स्तम्भों वाले भवन के अवशेष मिले हैं। इस स्तम्भ मण्डप की प्रेरणा एवं उसकी सामान्य डिजाइन दारा के शत स्तम्भ-मण्डप से ली गयी प्रतीत होती है।

कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्ययुगीन स्तम्भों पर घण्टाशीर्ष की कल्पना तथा उनकी चमकदार पॉलिश भी फारसी स्तम्भों से ही ग्रहण की गयी है। परन्तु वासुदेव शरण अग्रवाल इस मत से असहमत हैं। उनके अनुसार अशोक के स्तम्भ सपाट तथा एक ही पाषाण को तराशकर बनाये गये थे। इसके विपरीत फारसी स्तम्भ गड़ारीदार तथा अनेक पाषाण खण्डों को जोड़कर बने थे। फारसी स्तम्भों के आधार पर चौकी बनी होती थी, जबकि अशोक के स्तम्भों में यह नहीं मिलती। पुनश्च फारसी स्तम्भों में घण्टाकृति नीचे जबकि भारतीय स्तम्भों में ऊपर है। इन्हें पूर्णकलश अथवा मंगलकलश का प्रतीक कहा जा सकता है।*

  • Studies in Indian Art, p. 366*

कुछ इतिहासकार भारत में पाषाण स्थापत्य (Stone Architecture) में पारसी प्रेरणा देखते हैं।

इसी प्रकार इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नेतृत्व में हुए कौशाम्बी के उत्खनन से मिले राजमहल के अवशेष यह सिद्ध करते हैं कि भारत में पाषाण भवन बुद्ध काल में ही बनने लगे थे।

यह भी उल्लेखनीय है कि कच्छ क्षेत्र में स्थित धौलावीर नामक सैन्धव स्थल के उत्खनन में पालिशदार श्वेत पाषाण खण्ड मिलते हैं जिनका उपयोग स्तम्भों के रूप में किया गया था। कोटदीजी तथा कालीबंगन के प्राक् सैन्धव स्थलों से दुर्गीकरण के साक्ष्य मिल चुके हैं।

इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में पाषाण निर्मित भवन अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में थे तथा पत्थरों पर पॉलिश करने की कला से भी लोग सुपरिचित थे। इसका स्रोत ईरान अथवा कहीं और खोजना तर्कसंगत नहीं होगा। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से पारसीक आक्रमण ने भारतवर्ष पर अनेक महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये।

आर्थिक प्रभाव

आर० एस० शर्मा के अनुसार ईरानियों के माध्यम से ही यूनानियों को भारत की महान सम्पदा के विषय में ज्ञात हुआ जिसे प्राप्त करने के लोभ में कालान्तर में यहाँ सिकन्दर ने आक्रमण किये।

व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में भी इस आक्रमण ने महत्त्वपूर्ण प्रभाव उत्पन्न किये। स्काइलैक्स ने भारत से पश्चिमी देशों तक एक समुद्री मार्ग की खोज की। भारतीय व्यापारी पश्चिमी देशों में गये और उन्होंने प्रभूत धन अर्जित किया। इसका परिणाम शीघ्र ही समृद्धि के रूप में सामने आया। पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में मिलने वाले ईरानी सिक्कों से ईरान के साथ भारत के व्यापार होने की पुष्टि होती है। ईरानी सिक्के ‘सिग्लोई’ पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रचलित थे।

कुछ इतिहासकार भारत में मुद्राओं के प्रचलन में भी पारसीक प्रेरणा देखते हैं। पश्चिमोत्तर में ईरानी स्वर्ण मुद्रा ‘डेरिक’ और रजत मुद्रा ‘सिग्लोई’ का प्रचलन हुआ।

किन्तु इलाहाबाद विश्वविद्यालय के तत्वाधान में कौशाम्बी में की गयी खुदाइयों में जो अवशेष मिले हैं उनके आधार पर यह मत अमान्य हो जाता है। यहाँ से लेखरहित साँचे में ढली हुई ताम्र मुद्रायें मिली है जिनकी तिथि नवीं शताब्दी ईसा पूर्व की हैं। यह भारत में सिक्कों की प्राचीनता को पारसीक शासन के बहुत पहले ही सिद्ध करता हैं।

भौगोलिक खोजें

ईरानी आक्रमण से भौगोलिक अन्वेषण और व्यापारिक मार्गों का एक दौर प्रारम्भ हुआ जिससे न केवल आर्थिक सम्बन्ध बढ़ते गये वरन् सांस्कृतिक आदान प्रदान को प्रेरित किया। उदाहरणार्थ —

  • कुरुष ने जेड्रोसिया होते हुए आक्रमण किया जिससे वह असफल रहा।
  • दारा प्रथम ने काबुल घाटी से होते हुए ‘खैबर दर्रे’ के मार्ग से भारत पर आक्रमण किया। कालांतर में सिकन्दर ने भी इसी मार्ग का अनुसरण किया।
  • दारा प्रथम के समय स्काईलैक्स नामक नाविक ने सिंधु नदी से होते हुए समुद्र तक पहुँचने का मार्ग खोज निकाला।

भारत पर सिकन्दर का आक्रमण, कारण और प्रभाव

महाजनपद काल

द्वितीय नगरीय क्रांति

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