भूमिका
आचार्य चाणक्य की कृति ‘अर्थशास्त्र’ भारतीय राजशासन पर लिखी गयी प्राचीनतम् पुस्तक है। इसमें मौर्यकालीन समाज, राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था की जानकारी मिलती है। इसमें चाणक्य के जो विचार मिलते हैं उसमें से तो कुछ कालजयी हैं। ‘चाणक्य नीति’ तो सर्वजनीन है। प्रस्तुत है उनके कुछ विचार :
समाज
आचार्य चाणक्य वर्णाश्रम धर्म के पोषक हैं। उन्होंने समाज को कर्म के आधार पर चार वर्गो में बाँटा है –
- ब्राह्मण
- क्षत्रिय
- वैश्य
- शुद्र
उन्होंने लिखा है कि कोई आर्य दास नहीं हो सकता- ‘नेत्वेवार्यस्य दासभावः’। दास केवल वे ही हो सकते हैं, जो अनार्य या म्लेच्छ हों। परन्तु आर्यों में भी आपत्ति के समय कुछ काल के लिए दास बनाये जाते थे, बनाये जा सकते हैं, ऐसा कौटिल्य ने लिखा है किन्तु आदर्श रूप में उन्होंने यही माना है कि यथा सम्भव आर्यों में दास भाव नहीं होना चाहिए।
मेगस्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा नहीं थी जबकि अर्थशास्त्र में ९ प्रकार के दासों का विवरण मिलता है। साथ ही आर्यों के लिये दासता की मनाही की गयी है। जब हम आचार्य चाणक्य और समकालीन मेगस्थनीज से मिलाकर विश्लेषण करते हैं तो स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में दास प्रथा तो थी परन्तु यूनानियों की तरह कठोर नहीं थी।
यद्यपि आचार्य का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति को वर्णाश्रम धर्म का पालन करना चाहिए और राजा को इसकी रक्षा करने का कर्त्तव्य बताते हैं। परन्तु आचार्य के विचार उतने कठोर नहीं हैं जितने कि बाद में स्मृतियों में और पूर्ववर्ती सूत्र ग्रंथों में मिलते हैं;
- ब्राह्मण का समाज में विशेष स्थान था परन्तु अर्थशास्त्र इसको बार-बार दुहराता नहीं है।
- अर्थशास्त्र शुद्रों को आर्य कहता है। उन्हें सेना में शामिल करने का सुझाव देता है। उनको ‘वार्ता’ ( कृषि, पशुपालन और व्यापार ) करने का भी अधिकार देता है। साथ ही शुद्रों को स्पष्ट रूप से म्लेच्छों से भी बताया गया है। आचार्य कहते हैं कि ‘आर्य शुद्रों’ को दास नहीं बनाया जा सकता है।
- आचार्य का स्पष्ट मत है कि वह व्यक्ति संन्यास आश्रम में नहीं जा सकता सकता जब तक उसपर घर का दायित्व है। अर्थात् वह पहले अपने पर निर्भर लोगों की व्यवस्था करे फिर संन्यास आश्रम में प्रवेश करे।
- इसी प्रकार जो स्त्रियाँ सन्तान पैदा कर सकती हैं, उन्हें सन्यास ग्रहण करने का उपदेश देना आचार्य की दृष्टि में अनुचित है।
- इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य ने गृहस्थ आश्रम सुदृढ़ करने का अथक परिश्रम किया है।
चाणक्य की राज्य की अवधारणा
राज्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कौटिल्य ने स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है। किन्तु प्रसंगवश की गयी टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि वह राज्य के दैवी सिद्धांत के स्थान पर सामाजिक समझौते का पक्षधर थे।
हॉब्स, लॉक तथा रूसो की तरह राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की प्राकृतिक दशा को वह अराजकता की संज्ञा देते हैं।
राज्य की उत्पत्ति तब हुई जब मत्स्य न्याय से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना तथा अपनी कृषि उपज का छठा भाग तथा स्वर्ण का दसवाँ भाग उसे देना स्वीकार किया। इसके बदले में राजा ने उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का उत्तरदायित्व सम्भाला।
कौटिल्य राजतंत्र के पक्षधर हैं।
राज्य के कार्य
प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का अनुकरण करते हुए कौटिल्य ने भी राजतंत्र की संकल्पना को अपने चिंतन का केन्द्र बनाया है। वह लौकिक मामलों में राजा की शक्ति को सर्वोपरि मानता है, परन्तु कर्त्तव्यों के मामलों में वह स्वयं धर्म में बँधा है। वह धर्म का व्याख्याता नहीं, बल्कि रक्षक है। कौटिल्य ने राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया है। राज्य का हित सर्वोपरि है जिसके लिये कई बार वह नैतिकता के सिद्धांतो को भी परे रख देता है।
कौटिल्य के अनुसार राज्य का उद्देश्य केवल शान्ति-व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना नहीं, वरन् व्यक्ति के सर्वोच्च विकास में योगदान देना है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्य हैं –
- सुरक्षा सम्बन्धी कार्य
बाह्य शत्रुओं तथा आक्रमणकारियों से राज्य को सुरक्षित रखना, आन्तरिक व्यवस्था न्याय की रक्षा तथा दैवी (प्राकृतिक आपदाओं) विपत्तियों – बाढ़, भूकंप, दुर्भिक्ष, आग, महामारी, घातक जन्तुओं से प्रजा की रक्षा राजा के कार्य हैं।
- स्वधर्म का पालन कराना
स्वधर्म के अन्तर्गत वर्णाश्रम धर्म (वर्ण तथा आश्रम पद्धति) पर बल दिया गया है। यद्यपि कौटिल्य मनु की तरह धर्म को सर्वोपरि मानकर राज्य को धर्म के अधीन नहीं करता, किन्तु प्रजा द्वारा धर्म का पालन न किये जाने पर राजा धर्म का संरक्षण करता है।
- सामाजिक दायित्व
राजा का कर्त्तव्य सर्वसाधारण के लिये सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। सामाजिक व्यवस्था का समुचित संचालन तभी संम्भव है, जबकि पिता-पुत्र, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि अपने दायित्वों का समुचित निर्वहन करें। विवाह-विच्छेद की स्थिति में वह स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों पर बल देते हैं। स्त्रीवध तथा ब्राह्मण-हत्या को गम्भीर अपराध माना गया है।
- जनकल्याण के कार्य
कौटिल्य के राज्य का कार्य-क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वह राज्य को मानव के बहुमुखी विकास का दायित्व सौंपकर उसे आधुनिक युग का कल्याणकारी राज्य बना देते है। उन्होंने राज्य को अनेक कार्य सौंपे हैं। जैसे- बाँध, तालाब व सिंचाई के अन्य साधनों का निर्माण, खानों का विकास, बंजर भूमि की जुताई, पशुपालन, वन्यविकास आदि। इनके अलावा सार्वजनिक मनोरंजन राज्य के नियंत्रण में था। अनाथों निर्धनों, अपंगो की सहायता, स्त्री सम्मान की रक्षा, पुनख्रववाह की व्यवस्था आदि भी राज्य के दायित्व थे।
इस प्रकार कौटिल्य का राज्य सर्वव्यापक राज्य है। जन-कल्याण तथा अच्छे प्रशासन की स्थापना उसका लक्ष्य है, जिसमें धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जाता है। कौटिल्य का कहना है —
“प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है, प्रजा के हित में उसका हित है। अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, वरन् जो प्रजा के लिये हो, उसे करने में राजा का हित होता है।”
प्रजा सुखे सुखम् राज्ञः प्रजानाम् च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितम् राज्ञः प्रजानाम् तु प्रियम् हितम्॥
— अर्थशास्त्र ( १ / १९ )
एक अन्य स्थान पर उसने लिखा है —
“बल ही सत्ता है, अधिकार है। इन साधनों के द्वारा साध्य है प्रसन्नता।”
इस सम्बन्ध में सैलेटोरे का कथन है, “जिस राज्य के पास सत्ता तथा अधिकार है, उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी प्रजा की प्रसन्नता में वृद्धि करना है। इस प्रकार कौटिल्य ने एक कल्याणकारी राज्य के कार्यों को उचित रूप में निर्देशित किया है।”
कूटनीति तथा राज्यशिल्प
कौटिल्य ने न केवल राज्य के आन्तरिक कार्य, बल्कि बाह्य कार्यो की भी विस्तार से चर्चा की है। इस सम्बन्ध में वह विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तथा युद्ध व शान्ति के नियमों का विवेचन करता है। कूटनीति के सम्बन्धों का विश्लेषण करने हेतु उन्होंने मण्डल सिद्धांत प्रतिपादित किया है :
मण्डल सिद्धांत
कौटिल्य ( चाणक्य) ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनायी जाने वाली नीति का वर्णन किया है। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था। शक्तिशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। राज्य कई बार सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों में समझौता भी करते थे। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षाकृत मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके। दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक गुट या ‘मंडल’ बनाना चाहिए।
कौटिल्य ने ४ मंडलों का उल्लेख किया है-
- प्रथम मंडल– इसमें स्वयं विजिगीषु, उसका मित्र, उसके मित्र का मित्र शामिल है।
- द्वितीय मंडल– इस मंडल में विजिगीषु का शत्रु शामिल होता है, साथ ही विजिगीषु के शत्रु का मित्र और शत्रु के मित्र का मित्र सम्मिलित किया जाता है।
- तृतीय मंडल– इस मंडल में मध्यम, उसका मित्र एवं उसके मित्र का मित्र शामिल किया जाता है।
- चतुर्थ मंडल– इस मंडल में उदासीन, उसका मित्र और उसके मित्र का मित्र को शामिल किया जाता है।
विजिगीषु– ऐसा राजा जो विजय का इच्छुक है और अपने राज्य में उत्तम शासन स्थापित करना चाहता है।
अरि – ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु की सीमा के साथ लगा हो अर्थात् वह विजिगीषु का स्वाभाविक शत्रु है।
मध्यम – ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु और उसके शत्रु दोनों की सीमाओं से लगा हो। अतः वह इनमें से किसी का भी शत्रु या मित्र हो सकता है।
उदासीन– ऐसा नृपति जिसके राज्य की स्थिति विजिगीषु के शत्रु और मध्यम दोनों से परे हो परन्तु वह इतना बलशाली हो की वह संकट के समय किसी की भी सहायता या विरोध करने में समर्थ हो। इसलिए उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
पार्षिग्राह– ऐसा नृपति जिसका राज्य विजिगीषु के राज्य के पीछे की ओर सीमा से लगा हो। अतः वह युद्ध के समय पीछे से उपद्रव खड़ा कर सकता है। वह स्वाभाविक रूप से विजिगीषु का शत्रु होता है।
आक्रन्द– ऐसा नृपति जिसका राज्य पार्षिग्राह की राज्य की सीमा के साथ लगा हो अतः वह पार्षिग्राह का स्वाभाविक शत्रु होता है और विजिगीषु का स्वाभाविक मित्र होता है।
पार्षिग्राहासागर– ऐसा नृपति जिसका राज्य आक्रन्द की सीमा के साथ लगा हो अतः वह आक्रन्द का शत्रु होता है पार्शिनग्राह का परोक्ष मित्र होता है और विजिगीषु का परोक्ष शत्रु होता है।
आक्रंदासार– ऐसा नृपति जिसका राज्य पार्षिग्राहासागर के राज्य के सीमा के साथ लगा हो, अतः वह पार्षिग्राहासागर का स्वाभाविक शत्रु होता है; आक्रन्द का और विजिगीषु का परोक्ष मित्र होता है।
इन चारों मंडलों के संयोग से वृहद् राज्यमंडल की रचना होती है। चूँकि प्रत्येक मंडल में ३-३ राज्य आते हैं, इसलिए वृहद् राजयमंडल में १२ राज्य आ जाते हैं। इन्हें राज्य प्रकृतियाँ कहा जाता है। कौटिल्य का यह सिद्धांत यथार्थवाद पर आधारित है, जो युद्धों को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वास्तविकता मानकर संधि व समझौते द्वारा शक्ति-सन्तुलन बनाने पर बल देता है।
छः सूत्रीय विदेश नीति
कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धों के संचालन हेतु छः प्रकार की नीतियों का विवरण दिया है —
(१) संधि शान्ति बनाये रखने हेतु समतुल्य या अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृष्टि से शत्रु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्रु को कालान्तर में निर्बल बनाना है।
(२) विग्रह या शत्रु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।
(३) यान या युद्ध घोषित किये बिना आक्रमण की तैयारी,
(४) आसन या तटस्थता की नीति,
(५) संश्रय अर्थात् आत्मरक्षा की दृष्टि से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना,
(६) द्वैधीभाव अर्थात् एक राजा से शान्ति की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।
कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृष्टि से ही किया जाना चाहिए।
कूटनीतिक आचरण के चार सिद्धांत
कौटिल्य ने राज्य की विदेश नीति के सन्दर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड(बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया। कौटिल्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाओं द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। दण्ड (युद्ध) का प्रयोग अन्तिम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।
गुप्तचर व्यवस्था
कौटिल्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कार्यों का विस्तार से वर्णन किया है। गुप्तचर विद्यार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष-कन्याओं के रूप में हो सकते थे। राजदूत भी गुप्तचर की भूमिका निभाते थे। इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएँ राजा तक पहुँचाना होता था। ये जनमत की स्थिति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्रण रखने तथा शत्रु राज्य को नष्ट करने में योगदान देते थे। कौटिल्य ने गुप्तचरों को राजा द्वारा धन व मान देकर सन्तुष्ट रखने का सुझाव दिया है।
चाणक्य के चुने हुए कुछ नीतिपरक व शिक्षापरक विचार
- ऋण, शत्रु और रोग को शेष नहीं रखना चाहिये ( समाप्त कर देना चाहिए)।
- वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।
- शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाये रखें।
- सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
- एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
- आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
- एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है अर्थात् एक विपरीत स्वाभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते हैं।
- आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है अर्थात् दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें, वह सदा दुःख ही देता है।
- अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
- सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
- सोने के साथ मिलकर चाँदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात् सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
- ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है। अर्थात् कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।
- जो जिस कार्य में कुशल हो उसे उसी कार्य में लगना चाहिए।
- कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुँचाती है।
- शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करें।
- चाणक्य ने कभी भी अग्नि, गुरू, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृद्ध और बालक पर पैर न लगाने को कहा है। इन्हें पैर से छूने से आपपर दुर्भाग्य का पहाड़ टूट सकता है।
- कहा जा सकता है कि ऋण मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यदि जीवन में खुशहाल रहना है तो ऋण की एक फूटी कौड़ी भी पास नहीं रखनी चाहिए।
- मनुष्य सबसे दुखी भूतकाल और भविष्यकाल की बातों को सोचकर होता है। केवल वर्तमान के विषय में सोचकर अपने जीवन को सफल बनाया जा सकता है।
- आचार्य चाणक्य कहते हैं कि शिक्षा ही मनुष्य की सबसे अच्छी और सच्ची दोस्त होती है क्योंकि एक दिन सुंदरता और जवानी छोड़कर चली जाती है परन्तु शिक्षा एक मात्र ऐसी धरोहर है जो हमेशा उसके साथ रहती है।
- व्यवसाय में लाभ से जुड़े अपने राज किसी भी व्यक्ति के साथ साझा करना आर्थिक दृष्टी से हानिकारक हो सकती है। अतः व्यवसाय के वास्तविक ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखें तो उत्तम होगा।
- किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर अपने आप से जरुर कर लें कि – क्या आप सचमुच यह कार्य करना चाहते हैं? आप यह काम क्यों करना चाहते हैं? यदि इन सब का जवाब सकारात्मक मिलता है तभी उस काम की शुरुआत करनी चाहिए।
चाणक्य के विचार : निष्कर्ष
लोगों के जीवन में महापुरुषों के विचारों का काफी प्रभाव होता है। चाणक्य के विचारों ने भी कई लोगो के जीवन को उन्नत किया है। चाणक्य की कूटनीति और इसके सिद्धांतों के बारे में कई पुस्तकें लिखी गयी है। चाणक्य के जीवन को पढ़नेवाला और इसका अनुसरण करनेवाला एक बड़ा वर्ग है। चाणक्य के विचारों को अनमोल कहा जाता है। चाणक्य के विचार अध्यापक, राजनीतिज्ञ और व्यवसायिक लोगो को काफी पसंद है। आचार्य चाणक्य का गौरवशाली व्यक्तित्व के बारे में पढ़ने से नई ऊर्जा का संचार होता है। कौटिल्य के विचार आज भी प्रेरणादायी बनते है।
अर्थशास्त्र : आचार्य चाणक्य (कौटिल्य) की रचना
चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य
मौर्य राजवंश की उत्पत्ति या मौर्य किस वर्ण या जाति के थे?
मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )