भूमिका
आर्य संस्कृति की पहचान के सम्बन्ध में तुलनात्मक भाषा का बहुत महत्त्व है। फ्लोरेंस ( इटली ) के एक व्यापारी फिलिप्पो सस्सेत्ती ( Filippo Sassestti ) गोवा में सन् १५८३ से १५८८ ई० तक यानी पाँच वर्ष तक रहे। उन्होंने यहाँ पर संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और पाया कि संस्कृत भाषा और यूरोपीय भाषाओं उसमें से मुख्यतः यूनानी और लैटिन भाषा से बहुत समानताएँ हैं। बाद में सर विलियम जोन्स और ईस्ट इण्डिया कम्पनी में कार्यरत अनेक विद्वानों ने इस दिशा में शोध किये और इसी विचार को आगे बढ़ाया।
यूरोपीय और भारतीय भाषाओं में समानता के आधार पर इन विद्वानों ने यह मत प्रतिपादित किया कि भारतीय और यूरोपीयों के पूर्वज किसी समय एक ही भू-प्रदेश में रहते थे। ये लोग एक ऐसी भाषा बोलते थे जिसको इन लोगों ने ‘आद्य-भारोपीय-भाषा’ ( Proto-Indo-European Language ) का नाम दिया। कालान्तर में इसी आद्य-भारोपीय भाषा से विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ जिसमें एक थी – ‘वैदिक संस्कृति।’ यही वैदिक संस्कृति पूर्व-वैदिक आर्य बोलते थे।
प्रश्न यह है कि भारोपीय भाषा समूह की जन्मदात्री ‘आद्य-भारोपीय-भाषा’ स्वयं कहाँ जन्मी? साथ ही क्या यह सिद्धांत सही है? क्या भारतीय व यूरोपियों के पूर्वज कभी किसी भौगोलिक भू-भाग में साथ रहे या उनके पूर्वज समान थे? अथवा यह सिद्धान्त भी भ्रामक है?
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, पुरातात्त्विक साक्ष्य के साथ-साथ नई विधि डी०एन०ए० संकेतकों ( DNA marker ) आदि सभी का सहारा लिया जा रहा।
प्रस्तुत लेख में इसी दिशा में अब तक किये गये अध्ययनों व अनुसंधानों का सरल प्रस्तुतीकरण करने का प्रयास मात्र है।
तुलनात्मक भाषा अध्ययन
वैदिक, ईरानी और यूनानी ग्रंथों के आधार पर तथा विभिन्न आद्य-हिंद-यूरोपीय भाषाओं ( proto-Indo-European languages ) में पाये जाने वाले सजातीय शब्दों की सहायता से आर्य संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं को निर्धारित किया जा सकता है। इन प्राचीन ग्रंथों में सम्मिलित हैं :
- ऋग्वेद,
- जिंद अवेस्ता ( Zend-Avesta ) और
- होमर कृत इलियड ( Iliad ) तथा ओडिसी ( Odyssey )।
इनके तिथि निर्धारण की कसौटियों के बारे में विशेषज्ञों के बीच मतभेद हैं, परन्तु उन तिथियों पर सहमत हुआ जा सकता है जिन्हें विद्वानों ने सामान्यतः स्वीकार किया है। इस दृष्टि से ऋग्वेद को १,५०० ई० पू० में रखा जाता है यद्यपि इसके कुछ अंश १,००० ई० पू० तक आते हैं। जेंद अवेस्ता की तिथि १,४०० ई० पू० में रखी जाती है और होमर की रचनाओं को ९००-८०० ई० पू० के निकट रखा जाता है। इस तरह ‘ऋग्वेद सबसे पहले की रचना है उसके बाद क्रमशः जिंद अवेस्ता और होमर की रचनाओं का समय आता है।’
कुछ विद्वान इस बात पर बल देते हैं कि इन ग्रंथों में ऐसे विवरण नहीं हैं जिन्हें इतिहास की कोटि में रखा जा सके। परन्तु हमें ज्ञात होना चाहिए कि विशुद्ध साहित्यिक भी शून्य में नहीं जन्मता है। प्रत्येक साहित्य तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को प्रतिबिम्बित करती है भले ही उसमें अतिशयोक्ति हो या घटना को अप्रत्यक्ष रूप से कहा गया हो। अतः इनसे इतिहास की सामग्री प्राप्त हो सकती है।* ये ग्रंथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के हैं तो भी वे ऐसे काल में लिखे गये थे जब ताँबे और काँसे का प्रयोग चल रहा था। होमर की रचनाओं के परवर्ती अंशों में लोहे की भी चर्चा है।
- देखिए ‘आर्कियोलॉजी एंड ट्रेडीशन’ शीर्षक से परिचर्चा, पुरातत्त्व, अंक ८ : कुछ पुरातत्त्वविदों को ऐसी धारणा है कि भारत के प्राचीन ग्रंथ, विशेषकर पूर्व-बुद्धकालीन कृतियाँ अधिक विश्वसनीय नहीं हैं। यद्यपि यह सत्य है कि इन प्राचीन साहित्यिक रचनाओं में स्तरीकरण है। परन्तु क्षेपक स्तरीकरण से इन साहित्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता है। साथ ही इनका तिरस्कार करना एक स्वस्थ बौद्धिक प्रक्रिया नहीं है। इन सीमाओं के बावजूद साहित्यिक रचनाओं और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का सामंजस्य न केवल अपेक्षित है वरन् संभव भी है।*
सामान्यतः इन ग्रंथों ( ऋग्वेद, जेंद अवेस्ता, होमर की रचनाओं ) से पता चलता है कि लोगों की जीविका मुख्यतः खेती और पशुपालन से चलती थी। इन ग्रंथों में प्रयुक्त सजातीय शब्दों से आर्य संस्कृति के प्रमुख लक्षण जाने जाते हैं वे निम्नलिखित हैं :-
- आर्य जन शीतोष्ण जलवायु ( temperate climate ) में रहते थे।
- वे घोड़े पालते थे जिनका प्रयोग छकड़ा चलाने और सवारी करने दोनों में होता था।
- कुछ ग्रंथों से पता चलता है कि वे छकड़े में आरे वाली पहियों का इस्तेमाल करते थे।
- वे तीर-धनुष से लड़ते थे और तीरों को तरकस में रखते थे।
- उनके समाज में पुरुषों की प्रधानता ( पितृसत्तामक ) थी।
- वे शव को गाड़ते थे, परन्तु जलाते भी थे।
- ईरान और भारत में रहने वाले भारोपीय भाषा-भाषी ‘अग्नि-पूजा’ करते थे और ‘सोमरस का पान’ करते थे।
- सभी भारोपीय समुदायों में ‘पशुबलि’ प्रचलित थी, जिसमें ‘अश्व-बलि’ भी आती है।
- परन्तु आर्य संस्कृति की सबसे प्रमुख विशेषता ‘भारोपीय भाषा’ थी।
जहाँ तक प्राचीन ग्रंथों में वर्णित आर्य सम्बन्धी विषयवस्तु का सम्बन्ध है, उसे उत्तर नवपाषाण युग तथा प्रारंभिक कांस्य युग में रखा जा सकता है।
इतिहासकारों के दो वर्ग
प्रश्न उठता है कि इन विशेषताओं को कहाँ और कब की पुरातात्त्विक संस्कृति में खोजा जाये? इस सम्बन्ध में इतिहास दो भागों में बँटे हुए है :
- एक, वे इतिहासकार जो पहले से ही यह मानकर चलते हैं आर्य बाहर से आये अतः वे इसी को ध्यान में रखकर अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं। इसमें हम औपनिवेशिक और वामपंथी इतिहासकारों को रख सकते हैं। उदाहरणार्थ रामशरण शर्मा कृति ‘प्रारम्भिक भारत का परिचय’ में कुछ इसी तरह का विचार रखते हैं – “भूगोल की दृष्टि से हम पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया पर विचार कर सकते हैं क्योंकि इनका भौगोलिक सम्बन्ध भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, अनातोलिया और यूनान से है। प्राचीन काल से ही इस विशाल क्षेत्र में विभिन्न समुदाय के लोग भारोपीय भाषा बोलते थे। सजातीय शब्दों से जिस प्रकार के जलवायु, पशु-पक्षी जगत और वृक्षों का पता चलता है उनके आधार पर हम यह कल्पना नहीं कर सकते हैं कि प्रारंभिक आर्य जन गर्म क्षेत्रों में रहते थे। अतएव आर्य संस्कृति की खोज में हमें पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के विशाल क्षेत्र को ध्यान में रखना है।”
- दूसरे, वे इतिहासकार जो पहले से ही यह मानकर चलते हैं कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आये वरन् भारतीय उप-महाद्वीप के मूल निवासी थे। इसमें शामिल हैं – प्रो० एडमंड लीच, भगवान एस० गिडनानी, डॉ० बी० बी० लाल इत्यादि।
- प्रो० एडमंड लीच – In 1990 in his famous arucle ‘Aryan Invasions over Four Millennia’ published in the book, Culture Through Time: Anthropological Approaches.
- भगवान एस० गिडनानी – Returns of the Aryans
- डॉ० बी० बी० लाल – “The Saraswati Flows on : The Continuity of Indian Culture”; “The Homeland of Aryan”; “Evidence of Rigvedic Flora and Fauna & Archaeology.”
परन्तु हमें इन दोनों अतिवादी मतों से बचकर अभी तक मिले साक्ष्यों के आधार पर अपने विचार मोटेतौर पर बनाना है। न तो यह मान लेना है कि आर्य बाहर से आये और न ही यह कि आर्य मूल निवासी हैं। साथ ही अभी तक हम किसी निश्चित निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं तो जो अकादमिक स्तर पर आर्य आव्रजन या आक्रमण का सिद्धांत पढ़ाया जा रहा है और परीक्षाओं में भी उसे ही सही माना जा रहा उसपर रोक लगनी चाहिये। हमको दोनों सम्भावनाओं पर खुले दिमाग़ से तथ्य सम्मत विचार करना है।
साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो आर्य आक्रमण के सिद्धांत के समर्थक हैं उनके अनुसार जो स्वयं को मूल-निवासी घोषित करते फिरते हैं उनको भी झटका लगता है क्योंकि इस विचारधारा के अनुसार मूलनिवासी भी लभभग वर्तमान से ५०,००० वर्ष पूर्व अफ़्रीका से भारत में आये थे।*
- ‘In any case it seems that the earliest modern humans arrived in India from the South because of an early coastal migration around 50,000 years ago from Africa.’ — India’s Ancient Past : R.S. Sharma.*
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि न तो बाहर से आना अपमान का विषय है और न यहाँ का मूल निवासी होना गौरव का विषय। बात सिर्फ़ इतनी है कि जो भी ऐतिहासिक तथ्य हों उनको बिना किसी हिचक के स्वीकार्य होना चाहिए।
नवीन अनुसंधान पद्धति
इस सन्दर्भ में हमें आनुवंशिक संकेत ( genetic signal ) का सहारा भी एक महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह मानव में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता हैं। यह भारोपीय भाषा-भाषियों को एक साथ जोड़ता हैं। एम-१७ ( M-17 ) नामक एक अनुवांशिक संकेतक ( genetic marker ), जो मध्य एशियाई स्टेपीज के ४०% लोगों में अभिभावी होता है, भारोपीय भाषा-भाषियों में भी प्रायः पाया जाता है। दिल्ली के हिंदी भाषी क्षेत्रों में यह ३५% लोगों में पाया जाता है। यह मध्य एशिया से भारत में आर्यों के प्रवासन का संकेत देता है।
अभी हाल ( २०१९ ई० ) ही में राखीगढ़ी से मिले एक महिला कंकाल के डी०एन०ए० पर अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। जिसने इस विचार को चुनौती दी है कि इतिहास का एक वर्ग हर एक अच्छी भारतीय चीज को बाहर से आयायित घोषित कर देने के मनोरोग से ग्रसित है। यह कंकाल २,५०० ई० पू० अर्थात् वर्तमान से ४,५०० वर्ष पुराना है। इसमें यह पाया गया है कि हड़प्पा सभ्यता का विकास स्थानीय रूप से हुआ और आर्य-द्रविड़ विवाद पर भी यह अनुसंधान प्रश्न चिह्न लगाता है।
आर्य संस्कृति की पहचान
बहरहाल आर्य संस्कृति के पहचान के लिए जिन तत्त्वों पर हम विचार करेंगे वे इस प्रकार हैं –
- अश्व पालन और प्रसारण प्रक्रिया
- युद्ध रथ
- आरीदार पहिये
- भारतीय उप-महाद्वीप में घोड़े अवशेष
- गर्त-आवास
- भूर्ज या भोजपत्र
- अंतिम संस्कार
- अग्नि पूजा
- पशु बलि
- अश्व-बलि
- सोमपान
- स्वस्तिक
- भाषा और अभिलेख
- आर्यों का प्रसार
अश्व पालन और प्रसारण की प्रक्रिया
आर्य संस्कृति की पहचान में घोड़े का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। भारोपीयों के प्रारम्भिक जीवन में इसकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अश्व और इसके सजातीय शब्द संस्कृत, जेंद अवेस्ता की भाषा, यूनानी, लैटिन और अन्य भारोपीय भाषाओं में मिलते हैं। वेद और अवेस्ता की भाषा में बहुत-से व्यक्तियों के नाम ‘अश्व-केंद्रित’ हैं। पूर्व-वैदिक काल में हमें इस प्रकार के पचास घोड़े वाले नाम और तीस रथ वाले नाम मिलते हैं। इसी तरह ‘अश्प’ ( aspa ) नाम के कई ईरानी मुखियायों के नाम अवेस्ता में मिलते हैं। हेरोडोटस ने कुछ ईरानी जनजातियों के नाम बताये हैं जो अश्वों के नाम पर हैं। उसी प्रकार १७वीं सहस्राब्दी ई० पू० में बेबिलोनिया पर हमला करने वाले कस्सियों के नाम का सम्बन्ध भी घोड़े से है।
विभिन्न रूपों में ऋग्वेद में अश्व की चर्चा २१५ बार है। किसी दूसरे पशु की चर्चा इतनी बार नहीं है। गो ( गाय ) की चर्चा १७६ बार है और वृषभ (बैल) की चर्चा १७० बार है। गो और वृषभ के बारम्बार उल्लेख से जीवनयापन के लिए पशुपालन की प्रधानता प्रतीत होती है। किंतु जहाँ तक सामाजिक संरचना का प्रश्न है गोपालकों पर अश्वधारियों का वर्चस्व था।
उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद पर मध्य एशियाई प्रभाव होने के कारण उष्णकटिबंध क्षेत्रों के कई जानवरों की चर्चा नहीं है। इसमें बाघ और गैंडे के नाम नहीं मिलते हैं। गाय, बैल और घोड़े के उल्लेखों की तुलना में सिंह, हाथी और भैंस की चर्चा बहुत कम हुई है।
ऋग्वेद के दो पूरे सूक्तों में घोड़े की प्रशंसा की गयी है। लगभग सारे वैदिक देवताओं का सम्बन्ध घोड़े से है और यह विशेषत: इंद्र और उनके साथी मरुतों पर लागू होता है। यद्यपि वैदिक जन बहुधा प्रजा ( संतति ) और पशु के लिए प्रार्थना करते हैं, तथापि वे स्पष्ट रूप से घोड़े की कामना करते हैं और कभी-कभी एक हजार घोड़े माँगते हैं।
अवेस्ता में पशु धन का अधिक महत्त्व का दिखायी पड़ता है परन्तु घोड़े का अपना अलग ही स्थान है। मिथ्र देवता की प्रार्थना में घोड़े और रथ के उल्लेख बार-बार आते हैं। मिथ्र को ऋग्वेद के मित्र देवता से पहचाना गया है। सूर्य के विषय में कहा जाता है कि उनके पास तीव्रगति वाले घोड़े हैं। बहुत बाद में भारत की मूर्तिकला में सात रथ वाले सूर्य की प्रतिमा बहुत जगहों पर दिखायी पड़ती है। अपाम् नपात् नामक दूसरे देवता को भी अवेस्ता में तीव्रगामी घोड़े वाला बताया जाता है। इन देवता का उल्लेख ऋग्वेद में भी है।
ईरानी धर्म प्रवर्तक जरथुष्ट्र युवा राजा विस्तास्प को आशीर्वाद देते हैं कि उसके पास अनेक घोड़े हों। वे देवताओं से प्रार्थना करते हैं कि युवा राजा को तीव्रगामी अश्व और शक्तिशाली सुपुत्र प्राप्त हो। यह भी ध्यान रखने का विषय है कि विस्तास्प के नाम में ही केवल अस्प अर्थात् अश्व शब्द का प्रयोग नहीं होता है, बल्कि यह शब्द कई और सरदारों और योद्धाओं के नाम में पाया जाता है। ये नाम हैं: मोरसास्प ( जरथुष्ट्र के पिता ) करेसास्प, गुश्तास्प और गमास्प।
ईरान के शासक वर्ग के जीवन में घोड़ा ऐसा अभिन्न अंग बन गया था कि धार्मिक अथवा अन्य अपराधों के लिए जिस कोड़े से अपराधियों को मारा जाता था वह अस्फे-अस्त्र कहलाता था। गाथा को अवेस्ता का सबसे प्राचीनतम् अंश माना जाता है। परन्तु अवेस्ता में इसके कुछ ही अंश पाये जाते हैं, और इनमें घोड़े के उल्लेख अधिक नहीं हैं। परन्तु सामान्यतया घोड़े से अवेस्ता का अच्छा परिचय है। साथ-ही-साथ इसमें रथ में लगाने वाले घोड़े और सवारी करने वाले घोड़े के उल्लेख खास तौर पर हैं।
घोड़े और घोड़े वाले रथ दोनों होमर की रचनाओं में समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इक्वेरी ( equerry ) पद वाला सरदार जो घोड़े की देखरेख करता था और इस पद का नाम ओडिसी में बारम्बार आता है।
अतएव वैदिक, ईरानी और यूनानी ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारोपीय भाषा-भाषी लोग घोड़े से भली-भाँति परिचित थे। इसकी पुष्टि पश्चिमी एशिया में दूसरी सहस्राब्दी ई० पू० के कुछ अभिलेखों से भी होती है।
अश्वपालन का प्राचीनतम् पुरातात्त्विक साक्ष्य भारतीय उप-महाद्वीप से काफी दूरी पर मिलता है। पश्चिम में नाइपर नदी ( Dnieper River ) और पूरब में वोल्गा नदी ( Volga River ) के बीच पालतू घोड़ों की सबसे बड़ी संख्या मिलती है। पुरातत्त्व के अनुसार घोड़े के साक्ष्य पहले पहल दक्षिण यूराल-क्षेत्र में ६,००० ई० पू० के आसपास मिलता है। प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् मेरिजा गिंबुट्स का कहना है कि वोल्गा स्टेप के गड़रियों ने सम्भवत: पहले-पहल घोड़े को पालतू बनाया था, यद्यपि उसी काल में घोड़े के अवशेष काला सागर के इलाके में भी मिलते हैं। काला सागर के निकट होने के कारण घोड़ा चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व अनातोलिया में पाया जाता है। तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० आते-आते घोड़े काफी संख्या में साइबेरिया में मिलते हैं। दक्षिणी-पूर्वी ईरान में तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० के प्रारम्भ में एलम की लिपि में घोड़े का भाव-चित्र मिलता है। सुमेर की लिपि में भी इस प्रकार का भाव-चित्र २,५०० ई० पू० के आसपास मिलता है। किंतु पश्चिमी एशिया के जीवन में चौथी सहस्राब्दी ई० पू० और तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० के प्रथमार्द्ध में घोड़े की कोई महत्त्व की भूमिका दिखायी नहीं पड़ती है। ऐसा लगता है कि तीसरी सहस्राब्दी पूर्व के अंत में घोड़े की जानकारी दक्षिणी-पूर्वी ईरान के स्याल्क-१११ नामक स्थान और दक्षिणी अफगानिस्तान के मुंडिगाक नामक स्थान में भी थी।
ऐसा लगता है कि पालतू होने के बाद भी घोड़े का व्यापक प्रयोग बहुत दिनों के बाद ही हुआ। यद्यपि घोड़े की जानकारी छठी सहस्राब्दी ई० पू० में दक्षिण यूराल और काला सागर के बीच वाले क्षेत्र में हुई। परन्तु इसका आम प्रयोग २,००० ई० पू० के आसपास आकर हुआ।
इसमें संदेह नहीं है कि प्रारम्भिक अवस्था में आद्य-ईरानी और आद्य-वैदिक भाषा के बोलने वाले लोग इसका व्यापक इस्तेमाल करते थे। इन्हीं के सम्पर्क में आने के कारण अन्य कबीलों ने घोड़े को अपनाया। हित्तियों के अभिलेख में तथा हिब्रू, अकाड्डी और कॉकेसी भाषाओं में जो घोड़े के लिए जो शब्द मिलते हैं उनका सम्बन्ध अश्व से है।
१९वीं शताब्दी ई० पू० के उत्तरार्द्ध में पश्चिमी एशिया में घोड़े के प्रयोग के अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं। घोड़े पर सवार होकर लोग इराक की सीमा पर हमला करते थे। इस सन्दर्भ में कस्सियों ( Kassite ) का उल्लेख नहीं है। यद्यपि उन्हीं के आगमन के कारण १७वीं शताब्दी ई० पू० में इस क्षेत्र में घोड़े आये। दूसरे शब्दों में पश्चिमी एशिया में इसके प्रभावी उपयोग का श्रेय १५९५ ईसा पूर्व में बेबीलोनिया पर कस्सियों आक्रमण ( Kassite Invasion ) को दिया जाता है। बेबीलोनिया में जब पहले-पहल घोड़ा आया तो वहाँ के लोग उसे पहाड़ी गधा के नाम से पुकारते थे।
युद्ध-रथ ( The War Chariot )
भारोपीय लोग रथ चलाने में घोड़ों का प्रयोग पर्याप्त रूप से करते थे और इस तथ्य का ज्ञान वैदिक ग्रंथ, अवेस्ता और होमर की रचनाओं से मिलता है। परवर्ती वैदिक ग्रंथों में वर्णित वाजपेय यज्ञ में रथदौड़ की चर्चा की गयी है, यह रथदौड़ यूनान में भी प्रचलित था और होमर ने इसका पूरा वर्णन किया है।
आद्य भारोपीय भाषा ( proto-Indo-European language ) में रथ के लिये दो शब्द मिलते हैं। उनमें से प्रत्येक आधे दर्जन भारोपीय भाषाओं में प्रचलित हैं। उसी प्रकार धुरी, जोत और नाभि के लिए जो सजातीय शब्द हैं वे छह भारोपीय भाषाओं में पाये जाते हैं। कई भारोपीय भाषाओं में घोड़े पर चढ़ने के लिये एक ही प्रकार की क्रिया मिलती है। उसी तरह हित्ती और संस्कृत में रथ जोतने के लिए जिन शब्दों का व्यवहार होता है, वे एक प्रकार के हैं। आद्य भारोपीय भाषा में पहिये के लिए दो अलग-अलग शब्द हैं। संभवत: दो में से एक शब्द उनका अपना नहीं है। इसे व्यापार और दूसरे प्रकार के अन्य सम्पर्क के कारण भारोपीयों ने पश्चिमी एशिया से सीखा। परन्तु पहिया वाली गाड़ी स्टेप-वासियों के जीवन में इस तरह समा गयी कि इसके लिये जो उधार लिया हुआ शब्द है, वह भी कई भारोपीय भाषाओं में फैल गया।
यह कहा जाता है कि चौथी सहस्राब्दी ई० पू० में पश्चिम एशिया में चक्केवाले रथ का आरम्भ हुआ, और उसी समय यह दक्षिण रूस के स्टेपीस में पहुँचा। दक्षिण रूस की खुदाइयों में ३,००० ई० पू० से रथ होने के प्रमाण मिलते हैं। तृतीय सहस्राब्दी ई० पू० में दो या तीन पहिये वाले रथ मिलते हैं।
मितन्नी शासकों के नाम से पता चलता है कि १,४०० ई० पू० के आसपास वे रथों का प्रयोग करते थे। बहुत से ऐसे शब्द मिलते हैं; जैसे “दौड़ते रथों का स्वामित्व” (having the running chariots ), “रथों का सामना करना” ( facing the chariots ) और “बड़े घोड़ों का स्वामित्व” ( having the big horses )। हिंद-ईरानी उपाधि “रथ चालक” ( horse-driver ) की भी चर्चा है। एक मितान्नी राजा का नाम “दशरथ” है जिसका अर्थ होता है दस रथों को रखनेवाला।
भारतवर्ष के बाहर काठ/लकड़ी ( wood ) के पहिये मिलते हैं, परन्तु २,००० ई० पू० तक साधारणतः उनमें आरे नहीं होते थे। हड़प्पाई सन्दर्भ में मिट्टी के बने खिलौने में पहिये मिलते हैं, परन्तु उनका तिथि-निर्धारण ठीक से नहीं हो सकता है। ऐसा लगता है कि वे २,५०० ई० पू० के पहले के नहीं हैं।
आरीदार पहिये ( Spoked Wheels )
उत्तरी ईरान में स्थित हिसार ( Hissar )* नामक स्थान में और उत्तरी कॉकेसस क्षेत्र में २,३०० ई० पू० के लगभग आरे वाले पहिये ( spoked wheels ) मिलते हैं। बेलना जैसे मुहर ( cylindrical seal ) पर छह आरे वाले पहिये का रथ हिसार में मिला है और इसका समय १,८०० ई० पू० है। यह कहा जाता है कि १९वीं शताब्दी ई० पू० में हित्ती ( Hittites ) लोगों ने अनातोलिया जीतने के लिये ऐसे रथों का प्रयोग किया जिनमें आरे वाले पहिये थे। ऐसे ही रथ पश्चिमी कजाखस्तान के बगल में दक्षिण यूराल क्षेत्र में इसी समय के लगभग मिलते हैं। १,५०० ई० पू० आते-आते पूर्वी यूरोप और पश्चिमी एशिया के कई स्थानों में आरे वाले पहिये मिलने लगते हैं।
- हिसार को टेपे हिसार ( Tappa Hisar, Tappeh Hesar or Tepe Hissar ) भी लिखा जाता है।*
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में मिट्टी के बने खिलौने के चक्के में आरे नहीं मिलते हैं; दूसरे शब्दों में हड़प्पा सभ्यता के लोग ठोस पहियों का उपयोग करते थे। परन्तु इस सन्दर्भ में पुरातात्त्विक साक्ष्य द्रष्टव्य हैं :
- हरियाणा के हिसार जिले में अवस्थित बनावली नामक स्थान में हड़प्पाकालीन आरे वाले पहियों के होने की बात कही जाती है। इस स्थान के उत्खनक आर० एस० बिष्ट बताते हैं कि मिट्टी के पहिये पर कुछ लकीरें हैं जो आरे जैसे लगते हैं। अतः यह बात संदिग्ध है। यह भी ध्यान रहे कि बनावली का हड़प्पा चरण २,४५०-१,२५० ई० पू० तक रखा गया है। इस लंबे काल में आरे का प्रयोग कब हुआ, यह भी नहीं बताया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि बिष्ट के प्रकाशित लेखों में इन आरे वाले पहियों की चर्चा नहीं है।
- सूरजभान भी हिसार जिले के मित्ताथल स्थान में मिट्टी की छोटी चकती के ऐसे टुकड़े का उल्लेख करते हैं जिसमें पाये गये लकीरों से आरे का बोध होता है। वे इस चकती का समय १,८०० ईसा पूर्व रखते हैं। परन्तु उनकी पुस्तक में दिये गये प्लेट नं० २१ पर जो लकीरें दिखायी गयी हैं वे अलंकरण जैसी दिखती हैं।
अत: जो भी हो, हिसार जिले के दोनों स्थानों में आरे वाले चक्के तब मिलते हैं, जब परिपक्व हड़प्पाई संस्कृति का अंत हो गया था। लगता है कि भारतीय-आर्यों के संपर्क में आने के कारण २,००० ई० पू० के बाद आरे वाले पहिये मिलने लगे।
द्वितीय सहस्राब्दी ई० पू० में घोड़े के अवशेष दक्षिण मध्य एशिया, ईरान और अफगानिस्तान में पाये जाते हैं। १,५०० ई० पू० आते-आते घोड़े और रथ की आकृतियाँ किरगिजिया ( Kirgizia ), अल्ताई क्षेत्र ( Altai region ), मंगोलिया ( Mangolia ), पामीर पहाड़ ( Pamir mountain range ) और सबसे बढ़कर तजिकिस्तान ( Tajikistan ) में मिलती है।
भारतीय उप-महाद्वीप में घोड़े के अवशेष
तीसरी सहस्राब्दी ई० पू० वाले घोड़े के कुछ अवशेषों की उप-महाद्वीप में होने की चर्चा की जाती है, परन्तु ये सभी संदेहास्पद लगते हैं। रिचर्ड मिडो ( Richard Meadow ) नामक अमेरिकी पुरातत्त्वविद् ने अवशेषों का ठीक से अध्ययन किया है और उनके अनुसार २,००० ई० पू० तक उप-महाद्वीप में घोड़े की अस्थियों के मिलने का स्पष्ट प्रमाण नहीं है। उनका कहना है कि बलूचिस्तान के कोची मैदान में बोलन दर्रे के पास अवस्थित पिराक में सच्चे घोड़े के मिलने का प्राचीनतम् साक्ष्य मिलता है। जिम जे० शैफर का भी यही विचार है, और उनके अनुसार पिराक I-II की तिथि २,००० से १,३०० ई० पू० तक पड़ती है। घुड़सवारों की मिट्टी की बनी आकृतियाँ पिराक में पायी गयी हैं, और उनका समय १,८०० से १,३०० ई० पू० तक है। घोड़े के अवशेष और उसके साज-बाज स्वात घाटी में अवस्थित गान्धार संस्कृति में १,४०० ई० पू० और उसके बाद मिलते हैं। पिराक, गोमल घाटी और स्वात घाटी में घोड़े के आगमन का सम्बन्ध इसके प्रसार से है। हड़प्पाई और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृतियों का सम्मिश्रण हरियाणा के भगवानपुरा स्थल में मिलता है जहाँ घोड़े की हड्डियाँ पायी गयी हैं। जिन स्तरों में हड्डियाँ पायी गयी हैं उनका समय १,४००-१,००० ई० पू० है। सम्भवत: सुरकोतदा में पाया गया घोड़ा, पिराकी घोड़े का समकालीन था।
नगरोत्तर हड़प्पाई चरण में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल और रोपड़ में घोड़ा मिलता है। इधर हड़प्पा की खुदाई १९८० से १९९३ तक हुई और धौलावीरा की भी खुदाई चल रही है, पर कहीं भी घोड़े के अवशेष मिलने की खबर नहीं है।
इसी प्रकार हड़प्पा के नगरीय चरण में आरे वाले पहिए भी नहीं मिलते हैं। यह ध्यान रहे कि हड़प्पा की बाद वाली संस्कृतियों में अथवा गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों में घोड़े का महत्त्व था, जैसे गोमल और स्वात की घाटियाँ तथा धूसर भाण्ड वाले स्थान। हस्तिनापुर के चित्रित धूसर भाण्ड वाले स्तर में घोड़े की हड्डियाँ लगभग १,००० ई० पू० में मिलती हैं, और इसी भांड वाले स्तरों में उत्तर भारत के कई अन्य स्थानों पर भी मिट्टी के घोड़े मिलते हैं।
गर्तावास
गर्तावास या गड्ढा-निवास ( Pit-dwelling ) आर्य संस्कृति से भी जुड़ा हो सकता है, और हो सकता है कि इसकी उत्पत्ति ठंडी परिस्थितियों में हुई हो। लगभग ४,५०० ई०पू०, यूक्रेन के घोड़े-उपयोगकर्ता सतह के अलावा अर्ध-भूमिगत घरों ( Semi-subterranean houses ) में रहते थे। उनके पूर्व की ओर बढ़ने के साथ, चौथी और तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में यूराल-वोल्गा क्षेत्र में और द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व में मध्य एशिया के एंड्रोनोवो संस्कृति ( Andronovo culture ) में गड्ढे में रहने की शुरुआत हुई। ऐसा लगता है कि गड्ढा-निवास की नकल में दफ़नाने का विकास हुआ है। स्वात घाटी में कुछ गाँवों में लगभग १,५०० ई० पू० के बड़े गड्ढे वाले घर दिखायी देते हैं। ये पलायन से जुड़े हो सकते हैं जिसके कारण दाह संस्कार के बाद की कब्रें भी साक्ष्य में हैं। कश्मीर में श्रीनगर के निकट बुर्जहोम और हरियाणा में भी गड्ढों में रहने की प्रथा प्रचलित थी। यह कश्मीर की सीमाओं पर मध्य एशियाई प्रभाव के कारण हो सकता है।
भोजवृक्ष या भूर्ज
भूर्ज-लकड़ी ( birch-wood ) का उपयोग भूमिगत घरों के साथ-साथ एक आर्य विशेषता प्रतीत होता है। इसको संस्कृत में भूर्ज कहा जाता है, और इसकी छह भारोपीय भाषाओं में समानता है। हालाँकि यह वृक्ष यूक्रेन सहित यूरेशिया के एक बड़े हिस्से में पाया जाता है। इसके प्रारम्भिक अवशेष एंड्रोनोवन बस्तियों ( Andronovan settlements ) में दिखायी देते हैं, जहाँ इसका उपयोग चीड़ और देवदार ( pine & cedar ) के साथ संरचनाओं के निर्माण के लिए किया जाता था। विशेषरूप से भूमिगत आवास भूर्ज ( birch ) से ढँकें होते थे। मध्यकालीन भारत में भोजपत्र ( leaves of the birch ) पर कई पाण्डुलिपियाँ लिखी गयी थीं।
दाह-संस्कार
घोड़े के व्यवहार के साथ-साथ दाह-संस्कार भी आर्य संस्कृति की विशेषता बन गयी। वैदिक, अवेस्ताई और होमर वाले साहित्य में इस प्रथा की चर्चा है। यह प्रथा परिपक्व हड़प्पाई संस्कृति में नहीं पायी जाती है। हड़प्पाई लोग शवों को जमीन में गाड़ते थे। फिर इसमें बहुत बदलाव आया। यह बदलाव १,५०० ई० पू० के आसपास हड़प्पा स्थित सिमेंटरी-एच ( Cementary-H ) के पाये गये बरतन में शवों को रखकर गाड़ने की प्रथा से प्रारम्भ होता। कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें समाधियों में जली हुई अस्थियाँ मिलती हैं। पहले लोग सोचते थे कि सिमेंटरी-एच की संस्कृति केवल हड़प्पा तक सीमित थी, किंतु अब ७२ ऐसे स्थल हैं जहाँ सिमेटरी-एच वाली सामग्रियाँ पायी जाती हैं। सर मार्टिमर ह्वीलर – सिमेंटरी-एच वाली संस्कृति को हड़प्पोत्तर काल में रखते हैं। विद्वान आमतौर पर स्वीकार करते हैं कि सिमेटरी-एच प्रथा से नये लोगों के आगमन की सूचना मिलती है।
दाहोपरांत समाधि ( post-cremation burial ) बनाने की प्रथा गुजरात की हड़प्पाई संस्कृति में मिलती है, परन्तु इस प्रथा का तिथि निर्धारण कठिन है। सुरकोतदा का साक्ष्य संदेहास्पद है। अधिक-से-अधिक हम उस प्रथा को २,००० ई० पू० से पहले नहीं रख सकते हैं, और इसी समय से हड़प्पा के नगरोत्तर चरण का प्रारम्भ होता है। सम्भवत: इस प्रथा का प्रारम्भ उप-महाद्वीप में बाहरी सम्पर्क के कारण हुआ। यह ठीक है कि हड़प्पाई संस्कृति में चिड़ियों और जानवरों की हड्डियाँ जलाकर गाड़ी जाती थीं, किंतु इसके आधार पर यह नहीं कहा है जा सकता है कि मनुष्य का शरीर भी जलाया जाता था जैसा कुछ लोगों का विचार है।
दाह-संस्कार की प्रथा पाँचवी सहस्राब्दी ई० पू० में प्रारम्भ हुई। ५,०००-४,००० ई० पू० में इसके उदाहरण पोलैंड, जर्मनी, पूर्वी यूरोप, इराक और उत्तरी मध्य एशिया के कजाखस्तान में मिलते हैं। परन्तु अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि घोड़े पालने वाले लोगों ने कब और कहाँ दाह संस्कार की प्रथा को अपनाया।
जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि १,५०० ई० पू० तक आते-आते यह प्रथा यूरोप एवं एशिया दोनों में चल पड़ी और यह पूर्वी मध्य एशिया के चीनी भाग में पहुँची। भारतीय उप-महाद्वीप में घोड़े पालनेवालों ने पहले-पहल स्वात की घाटी में इस प्रथा की शुरुआत की। बाहरी सम्पर्क के कारण कुछ हड़प्पाई लोगों ने भी इसे अपनाया होगा, पर इसका स्पष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। यह भी ध्यान रहे कि स्वात की घाटी से ५०० कि० मी० की दूरी पर दक्षिण एशिया के ताजिकिस्तान देश में यह प्रथा १,४०० ई० पू० के लगभग पायी जाती है।
अग्नि-पूजा
अग्नि-पूजा ( the fire cult ) भारतीय-आर्यों ( Indo-Aryan ) और भारतीय-ईरानियों ( Indo-Iranian ) की विशेषता मानी जाती है। ऋग्वेद में वेदी की चर्चा है और जेंद-अवेस्ता में अग्नि-पूजा को बहुत महत्त्व दिया गया है।
कुछ लोग अग्नि-पूजा को हड़प्पाई मानते हैं, किंतु जो ‘अग्नि- वेदियाँ’ गुजरात के लोथल नामक स्थान और राजस्थान के कालीबंगा में पायी गयी हैं उनके उत्खनक भी उन्हें सच्ची वेदियाँ नहीं मानते हैं। एस० आर० राव के विचार में लोथल की वेदियाँ चूल्हे हो सकती हैं। कालीबंगा में आग रखने की जगह को बी० बी० लाल वेदी इसलिए बतलाते हैं क्योंकि इसके लिए कोई और समुचित शब्द उन्हें नहीं मिलता है।
जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पाई सन्दर्भ में जिस प्रकार की वेदिकाएँ मिली हैं उनका वर्णन न तो प्राचीन ग्रंथों में मिलता है और न ही उनकी आकृति प्राचीन परम्पराओं के अनुरूप है।
अग्नि-पूजा प्राचीन काल में अनेक समाजों में होती होगी और इसमें सैंधव सभ्यता को शामिल किया जा सकता है। लेकिन यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि हड़प्पा की वेदिकाओं का रूप वैदिक वेदियों जैसा है।
यह उल्लेखनीय है कि दक्षिण यूक्रेन में ४,०००-३,५०० ई० पू० में कुछ ऐसे अग्नि-स्थल मिले हैं। यद्यपि ये अग्नि-स्थल वैदिक अग्नि-वेदी जैसे तो नहीं हैं तथापि अग्नि-पूजा होने का तो अनुमान होता ही है।
पशु-बलि ( Animal Sacrifice )
पशु बलि ( Animal Sacrifice ) आर्य संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान था, किंतु इस तरह से यह पशुचारी जनजातीय समाज में हर जगह पायी जाती है। अतएव इससे कोई बड़ा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। प्राचीनतम पशुपालक दूध और इससे बनी चीजों को पाने के लिये गाय नहीं पालते थे। द्रविड़ भाषाभाषी गोंड जनजाति के एक समुदाय का अभी भी यह विश्वास है कि दूध पर वास्तव में बछड़े का हक बनता है, अतएव प्राचीन पशुपालक गाय और अन्य पशुओं को मांस खाने के लिए पालते थे, दूध के लिये नहीं।
ऐसा लगता है कि मांसाहारी भोजन प्राप्त करने के पशु-बलि के अनुष्ठान का विकास किया गया। यूक्रेन और दक्षिण रूस कब्रों में चौथी और तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के श्राद्धकर्म में पशु-बलि के अनेक उदाहरण मिलते हैं। दक्षिण मध्य एशिया में दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व और उसके बाद भी इसी तरह के उदाहरण मिलते हैं। ऐसा लगता है कि लोगों के जीवनकाल में पशु-बलि प्रचलित थी। मरणोपरांत भी यह अनुष्ठान इसलिए किया जाता था ताकि मृतकों को परलोक में भोजन मिलता रहे।
अश्व-बलि ( Horse Sacrifice )
वैदिक समाज में अवश्मेध यज्ञ का विशिष्ट स्थान था। किंतु वेदों के फ्रांसीसी विद्वान लुई नू का मानना है कि अवश्मेध भारोपीय अनुष्ठान था। यह प्रथा प्राचीन रोम और मध्यकालीन आयरलैंड में प्रचलित थी। अश्व-बलि सम्बन्धित प्राचीनतम् पुरातात्त्विक प्रमाण उसी प्रकार का है जैसा पशु बलि के सम्बन्ध में है। यूक्रेन और दक्षिण रूस के अनेक कब्रगाहों में एक से अधिक घोड़े की बलि का उदाहरण है। इस प्रथा का जन्म पाँचवी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के परवर्ती भाग में हुआ। बाद की सदियों में यह काफी फैल गयी और मध्य एशिया में मध्यकाल तक चलती रही।
भारत में वैदिक युग इसे अवश्मेध का रूप दिया गया जिसका वर्णन परवर्ती वैदिक ग्रंथों में विस्तार से है। उप-महाद्वीप में प्राक्-वैदिक काल में भी शायद पशु बलि होती होगी। किंतु अभी तक इसका पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं प्राप्त हुआ है। चूँकि १८वीं शताब्दी ई० पू० तक भारत में घोड़े के मिलने का पक्का प्रमाण नहीं है, इसलिए इसकी बलि का प्रश्न ही नहीं उठता है। पूर्व मध्यकालीन भारत में शक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा में भैंसे का बलिदान बड़ा अनुष्ठान बन गया। परन्तु यह जानवर पूर्वी यूरोप एवं मध्य एशिया में शायद ही मिलता था, और इसलिए उन क्षेत्रों में भैंसे के मारने का अनुष्ठान प्रचलित नहीं था।
सोमपान की प्रथा
सोमपान की प्रथा ( the cult of Soma ) केवल ईरानी और वैदिक जनों में प्रचलित थी। “स” का “ह” में बदल जाने के कारण अवेस्ता में सोम के बदले होम शब्द का प्रयोग होता है। सोम के पौधे की पहचान पर बहुत दिनों से विवाद चल रहा है। किंतु अब इफेड्रा ( ephedra ) नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते हैं। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियाँ बरतनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-२१ नामक मंदिर के परिसर में पाये गये हैं। इन बरतनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस पहचान की मान्यता बढ़ रही है, तो भी निर्णायक साक्ष्य के लिये अनुसंधान जारी है।
स्वस्तिक
स्वस्तिक आर्यत्व का चिह्न माना जाता है। जब जर्मनी में नाजियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं है। यह शब्द ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है, जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है।
ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले-पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भाण्डवाली संस्कृति में मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले का जाना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है। स्टाइन की दृष्टि में स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है क्योंकि ऐसा प्रतीक भारतीय और पश्चिमी एशिया के संस्कृतियों में नहीं मिलता है। किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले एलम ( Elam ) अर्थात् आर्य-पूर्व दक्षिण ईरान में प्रकट होता है। स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई संस्कृति में और अल्तीन टेपे में पाये गये हैं और उनका समय २,३००-२,००० ई० पू० है। शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर होता था, और १,२०० ई० पू० के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो कब्रगाह मिले हैं उनमें कब्र की जगह पर इस प्रकार का चिह्न मिलता है।
८०० ई० पू० के आसपास अलंकरण के रूप में प्रतीक चित्रित धूसर मृद्भाण्डों पर मिलता है जो घरेलू काम में लाये जाते थे। इसलिए स्वस्तिक को प्राक्-वैदिक और प्राक्-हड़प्पाई कहा जा सकता है। ऐसा लगता है कि यह एलम से चलकर बलूचिस्तान, सिंधु घाटी और तुर्कमेनिस्तान में पहुँचा। सम्भवतः यह तुर्कमेनिस्तान से तजिकिस्तान गया। मौर्य और मौर्योत्तर कला में इसका कैसे प्रयोग हुआ, इस विषय अधिक अनुसंधान की आवश्यकता है।
भाषा और अभिलेख
भारोपीय भाषा आर्य संस्कृति की प्रमुखतम विशेषता मानी जाती है। भाषाशास्त्रियों ने आद्य-भारोपीय-भाषा ( proto-Indo-European Language ) का रूप तैयार किया है। उनके अनुसार इसका प्रारम्भ सातवीं अथवा छठी सहस्राब्दी ई० पू० में हुआ। भारोपीय भाषा पूर्वी एवं पश्चिमी शाखाओं में बाँटा जाता है, और लगभग ४,५०० ई० पू० से पूर्वी शाखा के उच्चारण सम्बन्धी विकास में कई चरण बताये जाते हैं। इस शाखा की भाषा को आद्य भारतीय-ईरानी भाषा कहा जाता है।
परन्तु अभिलेखीय साक्ष्य की दृष्टि से आद्य-भारतीय-ईरानी या भारतीय-ईरानी ( proto-Indo-Iranian or Indo-Iranian ) भाषा, जिसमें भारतीय-आर्य भाषा भी सम्मिलित है, २,२०० ई० पू० के पहले की नहीं मिलती है। इस भाषा के प्राचीनतम् उदाहरण इराक के अगेड वंश के पाटिया पर लिखे मिलते हैं। उसमें अरिसेन और सोमसेन नामक दो नाम मिलते हैं। हंगरी के भाषाशास्त्री जे० हरमट्टा ने इनका समय २,३००-२,१०० ई० पू० के लगभग रखा है।
अनातोलिया के हित्ती अभिलेख बतलाते हैं कि वहाँ भारोपीय भाषा की पश्चिमी शाखा के बोलनेवाले १९वीं से १७वीं शताब्दी ई० पू० के बीच मौजूद थे। इसी तरह, यूनान से माइसेनियन शिलालेख ( Mycenaean inscriptions ) ईसा पूर्व चौदहवीं शताब्दी में इस शाखा के भाषा-भाषियों के आगमन का संकेत देते हैं। पूर्वी शाखा के बोलनेवाले की उपस्थिति मेसोपोटामिया में १६वीं से १४वीं शताब्दी ई० पू० तक कस्सियों ( Kassites ) और मितन्नियों ( Mittanis ) के अभिलेख से सिद्ध होती है।
परन्तु, भारतवर्ष में इस प्रकार के अभिलेख नहीं मिलते हैं। अतएव अभिलेखों के अभाव में यह कहना कि भारतीय-आर्य भाषा बोलनेवाले लोग भारत से मेसोपोटामिया गये, अनर्गल लगता है।
ऋग्वेद में कई मुण्डा शब्द आते हैं, और जाहिर है कि वे हड़प्पा काल के बाद के चरण में इस पाठ में शामिल हुए। यदि वैदिक लोग उत्तर-पश्चिम की ओर चले गये होते, तो मुण्डा शब्द भी उस क्षेत्र में प्रकट हो जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
कुछ रूसी भाषाविद् कॉकेशस के दक्षिण के क्षेत्र को भारोपीय भाषा का मूल स्थान मानते हैं। इसमें पूर्वी अनातोलिया और उत्तरी मेसोपोटामिया शामिल हैं, हालाँकि पूर्वी अनातोलिया काला सागर क्षेत्र से दूर नहीं है जहाँ पर शुरुआती घोड़े को पालतू बनाया गया था, छठी-पाँचवीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व में न तो घोड़े और न ही भारोपीय संस्कृति के अन्य विशिष्ट लक्षण पूर्वी अनातोलिया के लिए खोजे जा सकते हैं।
हरमट्टा का यह विचार है कि आद्य भारतीय-ईरानी भाषा में कॉकेसस क्षेत्र की भाषाओं से शब्द उधार लिये गये हैं, और साथ ही साथ फीनिश उग्राइक भाषाओं के शब्द भी लिये गये हैं। इससे पता चलता है कि भारतीय-ईरानी भाषा का विकास पश्चिम में फीनलैंड और पूरब में कॉकेसस क्षेत्र के बीच कहीं पर हुआ।
प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् गॉर्डन चाइल्ड ने पहले यह विचार रखा था कि अनातोलिया भारोपीयों का उद्गम स्थान है। कुछ रूसी भाषाशास्त्री भी इसी प्रकार का मत प्रकट करते हैं। उनके अनुसार भारोपीय भाषा का मूल स्थान कॉकेसस के दक्षिण वाले क्षेत्र में हो सकता है। इस क्षेत्र में पूर्वी अनातोलिया और उत्तरी मेसोपोटामिया पड़ते हैं। यद्यपि अनातोलिया घोड़े वाले काला सागर क्षेत्र के निकट है। तथापि यहाँ छठी-पाँचवी सहस्राब्दी ई० पू० में न तो घोड़े मिलते हैं और न भारोपीय संस्कृति के कोई अन्य तत्त्व।
रूसी भाषाशास्त्रियों के निष्कर्ष से ब्रिटिश पुरातत्त्वविद् रेनफ्रू ( Renfrew ) की इस परिकल्पना को बल मिलता है कि पूर्वी अनातोलिया आर्यों का मूल निवास स्थान था। उनके अनुसार वहाँ पहले-पहल खेती का प्रारम्भ सातवीं सहस्राब्दी ई० पू० में हुआ और इसके फैलने से भारोपीयभाषा विभिन्न दिशाओं में फैली। परन्तु, हम जानते हैं कि प्रारम्भिक नेतुफियन अर्थात् फिलिस्तीन के इलाके में १०,००० ई० पू० के आसपास अनाज पैदा किये जाने लगे और ७,००० ई० पू० के लगभग फिलिस्तीन में जमकर खेती होने लगी। सातवीं और छठी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में खेती इराक, ईरान और बलूचिस्तान में भी मिलती है। अतएव कृषि का उदय केवल फिलिस्तीन और पूर्वी अनातोलिया ही में नहीं हुआ।
यह भी याद रहे कि भारोपीय भाषा के सबसे पुराने बोलनेवालों के जीवन में खेती का कोई बड़ा स्थान नहीं था। संकेत मिलता है कि जहाँ-जहाँ भारोपीय गये वहाँ की खेती की पद्धति उन्होंने अपनायी। इसकी पुष्टि निम्न तथ्यों से होती है :
- प्रारम्भ से ही भारोपीय भाषा बोलने वालों के पूर्वी और पश्चिमी समूहों द्वारा उपयोग किये जाने वाले सामान्य कृषि शब्दावली में अन्तर है।
- यह भी सोचने की बात है कि अपने उद्गम स्थान से आर्य भाषा क्यों लुप्त हो गयी?
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि रेनफ्रू विकल्प के रूप में मध्य एशिया को भी आर्यों का उद्गम स्थान बतलाते हैं। प्रसारवादी पुरातत्त्वविद् नहीं होने पर भी वे आर्य समस्या की व्याख्या प्रसारवादी सिद्धांत के आधार पर करते हैं।
मध्य एशिया से प्रसारण
मध्य एशिया से मानव प्रसारण की पुष्टि जीवविज्ञानियों के हाल के शोध से होती है। मानव शरीर की रक्त कोशिकाओं (cells) में उत्पत्ति सम्बन्धी संकेतों की खोज हुई है। इन्हें DNA का नाम दिया जाता है। उत्पत्ति सम्बन्धी संकेत आनुवंशिक होते हैं, और वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार कुछ खास तरह के संकेत मध्य एशिया के एक छोर से दूसरी छोर तक ८,००० ई० पू० के आसपास मिलते हैं। इन उत्पत्ति संबंधी संकेतों का नाम एम १७ ( M 17 ) दिया गया है, और ये मध्य एशिया के ४०% से अधिक लोगों में मिलते हैं। खोजने पर दिल्ली के ३५% से अधिक हिंदी भाषाभाषियों में एम १७ ( M 17 ) मिला है। परन्तु द्रविड़ भाषाभाषियों के केवल १०% आबादी में मिला है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय-आर्य भाषाभाषी मध्य एशिया से भारत पहुँचे। जीवविज्ञानी भारतीय-आर्य भाषाभाषियों के मध्य एशिया से भारत पहुँचने का समय ८,००० ई० पू० के बाद रखते हैं, पर कोई तिथि निश्चित नहीं करते हैं। पुरातात्त्विकों के अनुसार यह समय २,००० ई० पू० से आरम्भ होता है। भाषाविज्ञानी भी भारतीय-आर्य भाषियों का भारत में प्रवेश इसी समय ( २,००० ई० पू० ) के लगभग रखते हैं।
हम रूसी और कई इंडो-आर्यन भाषाओं में भूतकाल के उपयोग में एक उल्लेखनीय समानता भी देखते हैं। रूसी में ‘या चीतल’ ‘मैंने पढ़ा’ और ‘या पिशाल’ ‘मैंने लिखा’ का प्रयोग किया है। बंगाली, असमिया, उड़िया, मैथिली, भोजपुरी और मगही में ‘एल’-अंत भूत काल का उपयोग किया जाता है। इसका प्रयोग मराठी और कभी-कभी राजस्थान में भी होता है। पंजाबी में यह दुर्लभ है। भाषाविद् इंडो-आर्यन भाषाओं के साथ रूसी सम्बन्धों का बेहतर पता लगा सकते हैं, परन्तु भारतीय-आर्य प्रवासन के बारे में आनुवंशिक प्रमाण निर्णायक हैं।
निष्कर्ष
यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि जितने भी लक्षण आर्य संस्कृति के पहचान के लिए बताये गये हैं वे अत्यांतिक नहीं हैं। दूसरे शब्दों में ये विशेषताएँ किसी वर्ग विशेष तक सीमित हों यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा सकता है। साथ ही हम सबको पता है कि सैंधव सभ्यता का व्यापारिक सम्बन्ध दूर-दूर तक था जिसमें कि पश्चिम एशिया, मध्य एशिया भी शामिल थे। उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में तो शोर्तुघोई और मुंडीगाक में हड़प्पा व्यापारिक उप-निवेश की बात भी की जाती है। इस संदर्भ में इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि उपर्युक्त वर्णित लक्षण हड़प्पा में पाये जाये।
जहाँ तक अश्व, आरीदार पहिये, अग्निपूजा का सम्बन्ध है इसको एकबारगी इसलिए नकार देना कि इन एजेंडाधारी इतिहासकारों के सम्बन्ध में ये ठीक नहीं बैठता। ऐसी विचाधारा स्वस्थ्य ऐतिहासिक प्रक्रिया नहीं है। ये इतिहासकार वैदिक ही नहीं सैंधव सभ्यता को भी आयातित घोषित करते हैं। इस सम्बन्ध में नवीन अनुसंधान यह बताते हैं कि सैंधव सभ्यता स्थानीय रूप से विकसित होते हुए नगरीय स्तर तक पहुँची।
ऋग्वेद लेशमात्र भी बाहर से आने का संकेत तक नहीं करता है। सबसे बड़ा साक्ष्य तो यह है कि जिस सरस्वती नदी की प्रशंसा करते वैदिक ऋषि नहीं थकते हैं, उस नदी को ये विद्वान मिथक बताया करते थे। परन्तु बाद में सैटेलाइट मैपिंग ने यह सिद्ध किया कि यह नदी वैदिक काल में बहुत शक्तिशाली थी। क्या यह आश्चर्य की बाद नहीं कि जिस सरस्वती को वैदिक ऋषि ‘नदीतमे’ कहते हैं वहीं पर सैंधव बस्तियों का सर्वाधिक संकेन्दण पाया गया है।
अभी तक किसी भी अंतिम निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा जा सका है। स्वतंत्रता के बाद विगत ७५ वर्षों में बहुत सारे अनुसंधान हुए है। परन्तु हर अनुसंधान के बाद स्थिति और भी उलझ जाती है। हर विचारधारा के लोग अपने-अपने पक्ष में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं।
इसलिए किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना अभी तक की स्थिति यही है कि हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते हैं। हमें अभी और अनुसंधान की प्रतीक्षा करना पड़ेगा।
अश्व और आर्य बहस ( THE HORSE AND THE ARYAN DEBATE )
आर्यों का मूल निवास स्थान कहाँ था?