भूमिका
बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उनके सुयोग्य और सुपात्र पुत्र अशोक ‘प्रियदर्शी’ विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठे। अशोक ‘प्रियदर्शी’ विश्व इतिहास के उन महानतम् सम्राटों में अपना सर्वोपरि स्थान रखते हैं जिन्होंने अपने युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी और भावी पीढ़ियाँ जिनका नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं कृतज्ञता के साथ स्मरण करती हैं। निःसन्देह उनका शासनकाल भारतवर्ष के इतिहास के उज्ज्वलतम् पृष्ठ का प्रतिनिधित्व करता है।
संक्षिप्त परिचय
जन्म |
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मृत्यु |
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जन्म व मृत्यु स्थान |
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नाम |
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पिता | बिन्दुसार मौर्य |
माता | कई नाम मिलते हैं –
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पत्नियाँ |
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पुत्रियाँ |
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पुत्र |
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शासनकाल |
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प्रमुख यात्रायें |
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प्रमुख घटनाएँ |
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प्रारम्भिक जीवन
यद्यपि अशोक के बहुत सारे अभिलेख प्राप्त हुए हैं परन्तु हमें उनके प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में इससे जानकारी नहीं मिलती है। सम्राट अशोक के प्रारम्भिक जीवन के लिये हमें मुख्यतः बौद्ध साक्ष्यों पर निर्भर करना पड़ता है जिसमें प्रमुख हैं — दिव्यावदान तथा सिंहली अनुश्रुतियाँ।
परिवार
दिव्यावदान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी मिलता है जो चम्पा के एक ब्राह्मण की कन्या थी। दक्षिणी परम्पराओं में उन्हें ही ‘धम्मा’ अर्थात् ‘धर्मा’ कहा गया है जो प्रधानरानी (अग्रमहिषी या पट्टमहिषी) थीं। कुछ विद्वान् विशेषकर प्रो० रोमिला थापर का कहना है कि अशोक की माँ अथवा दादी यूनानी ( सेल्युकस की कन्या ) थीं। परन्तु इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना कठिन है।
सिंहली परम्पराओं से पता चलता है कि उज्जयिनी जाते हुए अशोक विदिशा में रुके जहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठी की पुत्री ‘देवी’ के साथ विवाह कर लिया। महाबोधिवंश में उसका नाम ‘वेदिशमहादेवी’ मिलता है तथा उसे शाक्य जाति का बताया गया है। उसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ था और वही सम्राट अशोक की पहली पत्नी थीं।
दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम ‘तिष्यरक्षिता’ मिलता। अशोक के अभिलेख में केवल उसकी पत्नी ‘करुवाकि’ का ही नाम है जो तीवरकी माँ थीं। दिव्यावदान में उसके सुसीम तथा विगताशोक नामक दो अन्य भाइयों का उल्लेख मिलता है। सिंहली परम्पराओं में उन्हें सुमन तथा तिष्य कहा गया है। इसके अतिरिक्त अशोक के और भी भाई-बहन रहे होंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि इन राजकुमारों के पारस्परिक सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नहीं थे।
राजकुमार अशोक की उपलब्धियाँ
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बालक अशोक बहुत ही उग्र व उद्दंड थे और कुरूप भी थे। तथापि वे कुशाग्रबुद्धि के थे। शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था राजकुमार सदृश प्राप्त करने के उपरान्त सम्राट बिन्दुसार ने अशोक को उज्जयिनी ( अवन्ति ) का ‘उपराजा’ ( प्रशासक ) नियुक्त किया।
तक्षशिला का उपराजा ( प्रशासक ) अशोक के अग्रज ( बड़े भाई ) सुशीम को बनाया गया था। तक्षशिला में विद्रोह हुआ तो सुशीम उसे नियंत्रित करने में असफल रहे। तब सम्राट बिन्दुसार ने राजकुमार अशोक को वहाँ भेंजा जोकि उस समय उज्जयिनी के प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। कहा जाता है कि राजकुमार अशोक ने बिना शस्त्र उठाये ही विद्रोह को शान्त कर दिया। वहाँ की प्रजा ने अमात्यों और अधिकारियों से तंग आकर विद्रोह किया था जिसकी शिकायत उन्होंने राजकुमार अशोक से की। अशोक ने तक्षशिला में सुव्यवस्था स्थापित की।
बताया गया है कि राजकुमार के ही रूप में अशोक ने खस और नेपाल की विजय की थी अथवा विद्रोह को शान्त किया था।
अशोक के विभिन्न नाम
अशोक २७३ ईसा पूर्व के लगभग मगध साम्राज्य के राजसिंहासन पर बैठे। उनके अभिलेखों में सर्वत्र उनके लिये ‘देवानंपिय’, ‘देवानंपियदसि (देवताओं का प्रिय अथवा देखने में सुन्दर) तथा ‘राजा’ आदि की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। इन उपाधियों से उसकी महत्ता सूचित होती है।
अशोक का व्यक्तिगत नाम केवल लघु शिलालेख प्रथम की प्रतिकृतियों में ही पाया जाता है। यह प्रतिकृति कर्नाटक के तीन स्थलों और मध्य प्रदेश के एक स्थल से मिला है। कर्नाटक के ये तीन स्थान हैं – मास्की, नेत्तूर और उडेगोलम। मध्य प्रदेश का स्थल है – गुर्जरा। इसके साथ ही रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में अशोक नाम का उल्लेख उनके पितामह चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ मिलता है।
पुराणों में अशोक को ‘अशोकवर्धन’ कहा गया है।
सम्राट अशोक के प्रति दुर्भावना तो देखिये कि कालान्तर में ‘संस्कृत शब्द कोश’ में “देवानंपिय” को मूर्ख के पर्याय में प्रयोग किया गया। हालाँकि पालि साहित्य में सर्वत्र इस शब्द के प्रयोग अच्छे अर्थों में देखने को मिलता है। हिन्दी शब्दकोश में दोनों अर्थों को ग्रहण किया गया है।
उत्तराधिकार युद्ध
राजकुमार अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवन्ति (उज्जयिनी) के उपराजा (वायसराय) थे। सम्राट बिन्दुसार की बीमारी का समाचार सुनकर वे पाटलिपुत्र आये। सिंहली अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि अशोक ने अपने ९९ भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था। मंत्री राधागुप्त की सहायता अशोक के उत्तराधिकार युद्ध में सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण रही थी।
परन्तु उत्तराधिकार के इस युद्ध का समर्थन स्वतन्त्र प्रमाणों से नहीं होता है। सिंहली अनुश्रुतियों में दी गयी कथायें प्रामाणिक नहीं हैं तथा अशोक के अभिलेखों के साक्ष्य से उनमें से अधिकांश का खंडन हो जाता है। उदाहरण के लिये इनमें अशोक को उसके ९९ भाइयों का हत्यारा बताया गया है परन्तु अशोक के पाँचवें बृहद् अभिलेख में उसके जीवित भाइयों का उल्लेख मिलता है। अभिलेखीय साक्ष्य से यह भी ज्ञात होता है कि अशोक के शासन के तेरहवें वर्ष में उसके अनेक भाई तथा बहन जीवित थे जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में निवास करते थे। उसके कुछ भाई विभिन्न प्रदेशों के प्राशासक ( वायसराय ) भी थे।
पुनः बौद्ध ग्रन्थ अशोक के बौद्ध होने के पूर्व के जीवन को हिंसा, अत्याचार तथा निर्दयता से युक्त बताते हैं और उसे ‘चण्ड अशोक’ कहते हैं। परन्तु ऐसे विवरणों की सत्यपरता संदेहास्पद है। सम्भव है कि बौद्ध लेखकों ने अपने धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये अशोक के प्रारम्भिक जीवन के विषय में ऐसी अनर्गल बातें गढ़ी हों।
कुछ कथाओं के अनुसार बिन्दुसार स्वयं अशोक को राजा न बनाकर सुसीम को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। बौद्ध परम्परायें इस बात की पुष्टि करती हैं कि अशोक ने बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अमात्यों की सहायता से राजगद्दी हथिया लिया तथा उत्तराधिकार के युद्ध में अन्य सभी राजकुमारों की हत्या कर दी।
उत्तरी बौद्ध परम्पाओं में यह युद्ध केवल अशोक तथा उसके बड़े भाई सुसीम के बीच बताया गया है। किन्तु दक्षिणी बौद्ध परम्पराओं के अनुसार अशोक ने अपने ९९ भाइयों की हत्या की थी।
९९ भाइयों की हत्या निश्चित ही अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण है। हाँ यह तर्कसंगत प्रतीत होता है कि उत्तराधिकार का युद्ध स्वयं अशोक और उनके बड़े भाई सुशीम के बीच हुआ होगा। राजगद्दी प्राप्त होने के पश्चात् अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्षों का समय लग गया। इसी कारण राज्यारोहण के चार वर्षों बाद (२६९ ई० पू० में) अशोक का विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। उसके अभिलेखों में अभिषेक के काल से ही राज्यगणना की गयी है।
सम्राट अशोक का शासनकाल
अशोक के शासनकाल को चार भागों में बाँटकर अध्ययन किया जाता है –
- उत्तराधिकार युद्ध का समय : २७३ से २६९ ई० पू० तक = ४ वर्ष
- राज्याभिषेक से कलिंग युद्ध तक का समय : २६९ से २६२ ई० पू० तक = ७ वर्ष
- कलिंग विजय से २७वें राज्यवर्ष तक : २६१ से २४२ ई० पू० तक = १९ वर्ष
- २८वें राज्यवर्ष से सैंतीसवें राज्यवर्ष तक : २४३ से २३२ ई० पू० तक = ११ वर्ष
इस तरह सम्राट अशोक ने कुल ४१ वर्षों तक शासन किया। जिसमें से ४ वर्ष उत्तराधिकार युद्ध में निकल गये। अतः अशोक का राज्यभिषेक से शासनकाल ३७ वर्ष का ठहरता है। सम्राट अशोक के अभिलेखों में सर्वत्र समय की गणना उनके राज्याभिषेक ( २६९ ई० पू० ) से की गयी है।
सम्बन्धित लेख
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सम्राट अशोक का अन्त
अशोक के जीवन के अन्तिम दिनों के ज्ञान के लिए हमें एकमात्र बौद्ध ग्रन्थों पर निर्भर करना पड़ता है। दिव्यावदान में जो विवरण प्राप्त होता है उससे पता चलता है कि अशोक का शासन काल जितना ही गौरवशाली था उनका अन्त उतना ही हृदय-विदारक रहा।
ज्ञात होता है कि सम्राट राजकीय कोष से बहुत अधिक धन बौद्ध संघ को देने लगे थे जिसका उनके अमात्यों ने विरोध किया। एक बार जब वह कुक्कुटाराम विहार को कोई बड़ा उपहार देने वाले थे, उसके अमात्यों ने राजकुमार सम्प्रति को उसके विरुद्ध भड़काया। सम्प्रति ने भाण्डागारिक को सम्राट की आज्ञानुसार कोई भी धनराशि संघ को न देने का आदेश दिया।
सम्राट के निर्वाह के लिये दी जाने वाली धनराशि में भी भारी कटौती कर दी गयी तथा अन्ततोगत्वा उसके निर्वाह के लिए केवल आधा आंवला दिया जाने लगा।
सम्राट अशोक का प्रशासन के ऊपर वास्तविक नियन्त्रण न रहा तथा अत्यन्त दुर्भाग्यवश परिस्थितियों में इस महान् सम्राट का अन्त हुआ।
दिव्यावदान के इस कथा की पुष्टि थोड़े-बहुत संशोधन के साथ तिब्बती लेखक तारानाथ तथा चीनी यात्री हुएनसांग ने भी किया है। पुराणों के अनुसार अशोक ‘प्रियदर्शी’ ने कुल ३७ वर्षों तक शासन किया। इतिहास प्रसिद्ध भारतवर्ष के सबसे महानतम् सम्राट और विश्व के महान सम्राटों के तारेनुमा झुरमुटों में चंद्रमा सदृश्य एकमेय चमकते इस सम्राट की मृत्यु लगभग २३२ ईसा पूर्व में हुई।
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चन्द्रगुप्त मौर्य ( ३२२/३२१ — २९८ ई०पू० ) : जीवन व कार्य
मौर्य इतिहास के स्रोत ( Sources for the History of the Mauryas )