भूमिका
मौर्य सम्राट अशोक ‘प्रियदर्शी’ का इतिहास हमें मुख्यतः उनके अभिलेखों से ज्ञात होता है। उसके अभी तक ४७ से भी अधिक स्थलों से अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं जो भारतीय उप-महाद्वीप के एक कोने से दूसरे कोने तक बिखरे पड़े हैं। जहाँ एक ओर ये अभिलेख उसकी साम्राज्य-सीमा के निर्धारण में सहायक हैं, वहीं दूसरी ओर इनसे अशोक के धर्म एवं प्रशासन सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण बातों की सूचना मिलती है।
अशोक के अभिलेख का उद्वाचन
सर्वप्रथम १८३७ ई० में जेम्स प्रिंसेप (James Prinsep) नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेखों का उद्वाचन किया। परन्तु उन्होंने लेखों के ‘देवानांपिय’ की पहचान सिंहल के राजा तिस्स से कर डाली। कालान्तर में यह तथ्य प्रकाश में आया कि सिंहली अनुश्रुतियों – दीपवंश तथा महावंश — में यह उपाधि अशोक के लिये प्रयुक्त की गयी है।
अन्ततः १९१५ ई० में मास्की से प्राप्त लेख में ‘अशोक’ नाम भी पढ़ लिया गया। मास्की अभिलेख में ‘देवानांपियस असोकस’ और गुर्जरा अभिलेख में ‘देवानांपियस पियदसिनो असोकराजस’ का विवरण सुरक्षित।
अशोक के अभिलेख : वर्गीकरण
अशोक के अभिलेखों का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है-
१. शिलालेख
क. बृहद् शिलालेख / चतुर्दश शिला प्रज्ञापन
ख. लघु शिलालेख
२. स्तम्भलेख
क. बृहद् स्तम्भलेख / सप्त स्तम्भलेख
ख. लघु स्तम्भलेख
३. गुहालेख।
इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
बृहद् शिलालेख (Major Rock-Edicts)
अशोक के चतुर्दश बृहद् शिलालेख चौदह विभिन्न राजाज्ञायें (शासनादेश) हैं जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किये गये हैं। संख्या में चौदह होने के कारण इनको ‘चौदह शिलालेख’ या ‘चतुर्दश शिला प्रज्ञापन’ भी कहा जाता है। इनका विवरण इस प्रकार है-
शाहबाजगढ़ी
आधुनिक पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में मरदान जनपद में स्थित है। १८३६ ई० में जरनल कोर्ट ने इसका पता लगाया था। इसमें बारहवें के अतिरिक्त अन्य सभी लेख हैं। इस समूह के बारहवें लेख का पता १८८९ में सर हेरल्ड डीन ने लगाया था जो मुख्य अभिलेख से कुछ दूरी पर एक पृथक् शिलाखण्ड पर खुदा हुआ है। शाहबाजगढ़ी संभवतः अशोक के साम्राज्य में विद्यमान यवन प्रान्त की राजधानी थी।
मानसेहरा
पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के मानसेहरा जिले में स्थित है। यहाँ से प्राप्त तीन शिलाओं में पहली पर प्रथम आठ शिलालेख, दूसरी पर नवें से बारहवाँ तक तथा तीसरी पर, तेरहवाँ और चौदहवाँ लेख उत्कीर्ण हैं। पहली दो शिलायें जनरल कनिंघम द्वारा खोजी गयीं जबकि तीसरी का पता पंजाब पुरातत्त्व विभाग के एक भारतीय अधिकारी ने लगाया था।
अन्य लेखों के विपरीत उपर्युक्त दोनों अभिलेख (शाहबाजगढ़ी व मानसेहरा) खरोष्ठी लिपि में लिखे गये हैं जो ईरानी अरामेइक से उत्पन्न हुई थी। इन लेखों के अक्षर बड़े तथा खुदाई में अधिक सुस्पष्ट हैं। इन स्थानों में बारहवें लेख का अंकन संभवतः विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सामंजस्य बनाये रखने के उद्देश्य से ही किया गया होगा जो अशोक के शासनकाल का एक मान्य सिद्धान्त था।
कालसी
उत्तराखंड के देहरादून जनपद में स्थित है। १८६० ई० में फोरेस्ट ने इसे खोज निकाला था। यह स्थान यमुना तथा टोंस नदियों के संगम पर स्थित है।
गिरनार
गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ में जूनागढ़ के समीप गिरनार की पहाड़ी है। यहीं से रुद्दामन तथा स्कंदगुप्त के लेख भी मिले हैं। १८२२ ई० में कर्नल टाड ने इन लेखों का पता लगाया था। अशोक का शिलालेख दो भागों में है जिनके बीच में ऊपर से नीचे तक एक रेखा खींची हुई है। पहले पाँच लेख बायीं ओर तथा सात दायीं ओर उत्कीर्ण किये गये हैं। तीसरा लेख नीचे है जिसके दायी ओर चौदहवाँ लेख है। गिरनार लेख अपेक्षाकृत सबसे (सुरक्षित) अवस्था में हैं।
धौली तथा जौगढ़
ये दोनों ही स्थान वर्तमान उड़ीसा प्रान्त के क्रमशः पुरी तथा गंजाम जनपदों में स्थित हैं। धौली की तीन छोटी पहाड़ियों की एक शृंखला पर लेख खुदे हैं जिनका पता १८३७ ई० में किटो ने लगाया था। जौगढ़ के लेख भी तीन शिलाखण्डों पर खुदे हुए है जिनका पता १८५० ई० में वाल्टर इलियट को चला था।
दोनों प्रज्ञापनों में ग्यारहवें से तेरहवें ( ११, १२ व १३ ) तक लेख नहीं मिलते तथा उनके स्थान पर दो नये लेख खुदे हुए हैं जिनमें अन्तों (सीमान्तवासियों तथा जनपदवासियों) को दिये गये आदेश है। यही कारण है कि इन्हें दो पृथक् कलिंग प्रज्ञापन (two separate Kalinga Edicts) कहा जाता है। इनमें अन्य बातों के अलावा कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में बताया गया है। वह कलिंग के ‘नगर व्यवहारिकों’ को न्याय के मामले में उदार तथा निष्पक्ष होने का आदेश देता है।
एर्रगुडि
आन्ध्र प्रदेश के कर्नूल जिले में स्थित है। यहाँ पत्थरों के छः टीलों पर अशोक के शिलालेख एवं लघु शिलालेख उत्कीर्ण है। इनका पता १९२९ ई० में भूतत्वविद् अनुघोष ने लगाया था। एर्रगुडि लेख में लिपि की दिशा दायें से बायें मिलती है जबकि अन्य सभी में यह वायें से दायें हैं।
सोपारा
महाराष्ट्र प्रान्त के थाना जनपद में स्थित एक खण्डित शिला पर आठवें शिलालेख के कुछ भाग उत्कीर्ण है। अनुमान किया जाता है कि पहले यहाँ सभी चौदह लेख विद्यमान रहे होंगे।
लघु शिलालेख (Minor Rock-Edicts)
पहले इन लेखों की मात्र तीन प्रतियाँ ही प्राप्त हुई जिन्हें ‘उत्तरी प्रतियाँ’ कहा जा सकता है। परन्तु बाद में दक्षिण के कई स्थानों से भी ये प्राप्त हुई। कर्नाटक प्रान्त के ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर तथा जटिंग रामेश्वर से जो लेख प्राप्त हुए हैं उनमें एक संक्षिप्त पूरक प्रज्ञापन है जिसमें ‘धम्म का सारांश’ दिया गया है। कुछ विद्वान् इसे ‘द्वितीय लघु शिलालेख’ (second Minor Rock Edict) कहते हैं। इस दृष्टि से अशोक के लघु शिलालेखों की संख्या दो हुई। इनका विभाजन उत्तरी और दक्षिणी प्रतियों में भी किया जा सकता है।
ये शिलालेख चौदह शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं है और इस कारण इन्हें ‘लघु शिलालेख’ कहा गया है। ये निम्नलिखित स्थानों से प्राप्त हुए हैं —
- रूपनाथ (जबलपुर, मध्य प्रदेश)।
- गुजर्रा (दतिया, मध्य प्रदेश)।
- सहसाराम (बिहार)।
- भबू (बैराट) (जयपुर, राजस्थान)।
- मास्की (रायचूर, कर्नाटक)।
- ब्रह्मगिरि (चित्तलदुर्ग, कर्नाटक)।
- सिद्धपुर (चित्तलदुर्ग, कर्नाटक)।
- जटिंगरामेश्वर (चित्तलदुर्ग, कर्नाटक)।
- एर्रगुडि (कुर्नूल, आन्ध्र प्रदेश)।
- गोविमठ (मैसुरू, कर्नाटक)।
- पालकिगुण्डु (मैसुरू, कार्नाटक)।
- राजुल मंडगिरि (कुर्नूल, आन्ध्र प्रदेश)।
- अहरौरा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश)।
- सारो मारो (शहडोल, मध्य प्रदेश)।
- पनगुडरिया (सिहोर, मध्य प्रदेश) तथा
- नेत्तुर (बेलाड़ी, कर्नाटक)।
- उडेगोलम् (बेलाड़ी, कर्नाटक)।
- सन्नाती (गुलबर्गा, कर्नाटक)।
मास्की, गुजर्रा, नेत्तुर तथा उडेगोलम् के लेखों में अशोक का व्यक्तिगत नाम भी मिलता है।
सप्त स्तम्भ लेख (Seven Pillar-Edicts)
इन राजाज्ञाओं अथवा प्रज्ञापनों की संख्या सात है जो छः भिन्न-भिन्न स्थानों में पाषाण-स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। इन सप्त स्तम्भलेखों को ‘बृहद् स्तम्भलेख’ भी कहा जाता है। ये इस प्रकार हैं —
- दिल्ली-टोपरा : यह सर्वाधिक प्रसिद्ध स्तम्भ लेख है। मध्यकालीन इतिहासकार शम्स-ए-सिराज के अनुसार मूलतः यह स्तम्भलेख उत्तर प्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिले में टोपरा नामक स्थान पर स्थापित था। कालान्तर में फिरोज शाह तुगलक (१३५१-८८ ई०) द्वारा दिल्ली लाया गया था। उसने इसे फिरोजाबाद में कोटला के ऊपर स्थापित करवाया था। इसे फिरोजशाह की लाट, भीमसेन की लाट, दिल्ली शिवालिक लाट, सुनहरी लाट आदि नामों से भी जाना जाता है। इस पर अशोक के सातों लेख उत्कीर्ण है जबकि अन्य पर केवल छः ही अंकित मिलते हैं। सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप ने इसका उद्वाचन कर अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया था।
- दिल्ली-मेरठ : यह स्तम्भ भी पहले मेरठ में था तथा बाद में फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली में लाया गया।
- लौरिया-अरराज : बिहार के चम्पारन जिले में स्थित है।
- लौरिया-नन्दनगढ़ : यह भी बिहार के चम्पारन जिले में है।
- रामपुरवा – यह भी बिहार के चम्पारन जिले में है।
- कौशाम्बी-प्रयाग : यह पहले कौशाम्बी में था तथा बाद में अकबर द्वारा लाकर इलाहाबाद के किले में रखवाया गया।
लघु स्तम्भ लेख (Minor Pillar-Edicts)
अशोक की राजकीय घोषणायें जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें सामान्यतः ‘लघु स्तम्भ लेख’ कहा गया है। ये निम्नलिखित स्थलों से मिलते हैं —
- साँची (रायसेन जिला, मध्यप्रदेश)।
- सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश)।
- कौशाम्बी (कौशाम्बी, उ०प्र०)।
- रुम्मिनदेई (नेपाल की तराई में स्थित)।
- निग्लीवा (निगाली सागर) – यह भी नेपाल की तराई में स्थित हैं।
साँची व सारनाथ के लघु स्तम्भ लेख में अशोक अपने महामात्रों को संघ-भेद रोकने का आदेश देते हैं।
कौशाम्बी तथा प्रयाग के स्तम्भों में अशोक की रानी करुवाकी द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख है। इसे ‘रानी का अभिलेख’ भी कहा गया है।
लघु स्तम्भ लेखों में रुम्मिनदेई प्रज्ञापन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस लेख की खोज फ्यूरर ने की तथा जार्ज ब्यूलर ने इसे अनुवाद सहित इपिग्राफिया इण्डिका के पाँचवें खण्ड में प्रकाशित किया। इसके अनुसार अपने अभिषेक के बीस वर्ष पश्चात् देवताओं का प्रिय राजा प्रियदर्शी स्वयं यहाँ आया तथा उसने पूजा की। क्योंकि यहां शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म हुआ था, अतः उसने वहाँ बहुत बड़ी पत्थर की दीवार बनवायी तथा एक स्तम्भ स्थापित किया। क्योंकि यहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, अतः लुम्बिनी गाँव का धार्मिक कर (बलि) माफ कर दिया गया तथा कर मात्र आठवाँ भाग किया गया।
रुम्मिनदेई लेख बुद्ध का जन्म स्थान का अभिलेखीय प्रमाण है। यह भी सूचित होता है कि अशोक ने अपनी यात्रा के उपलक्ष्य में यहाँ का धार्मिक कर माफ किया तथा राजस्व का भाग, जो मौर्य शासन में चतुर्थांश था, घटाकर अष्टांश कर देने की घोषणा की। लेख की तीसरी पंक्ति में उल्लिखित ‘सिला-विगडभी-चा’ के अर्थ पर विद्वानों में मतभेद है। सामान्यतः इसका अर्थ पत्थर की बड़ी दीवार बनवाना तथा शिलास्तम्भ (बाढ़ या रेलिंग) खड़ा करना किया जाता है। डॉ० ए० एल० श्रीवास्तव ‘भीचा’ का भित्या (दीवार सहित) अर्थ करते हुए इसी पंक्ति में उल्लिखित ‘उसपापिते’ को वृषभार्पितः (स्तम्भ को वृष से सुशोभित करना) बताते है। अपने अर्थ की पुष्टि में वे संस्कृत विद्वान् प्रो० श्यामनारायण का संदर्भ देते हुए बताते हैं कि यह स्तम्भ रमपुरवा स्तम्भ के समान वृषभशीर्ष युक्त था।
निग्लीवा के लेख में कनकमुनि के स्तूप के संवर्द्धन की चर्चा हुई है। लुम्बिनि लेख में भगवान बुद्ध को ‘शाक्यमुनि’ कहा गया है। पालि साहित्य तथा भरहुत लेखों में शाक्यमुनि के अतिरिक्त पाँच पूर्व बुद्धों का उल्लेख मिलता है— विपसि (विपश्यिन), वेसभुणा (विश्व भू), ककुसध, ( क्रकच्छन्द) तथता, कोनागमन (कनकमुनि)। अशोक के पहले से ही इनके सम्मान में स्तूप निर्माण की परम्परा थी।
गुहा-लेख ( Cave-Inscriptions)
दक्षिणी बिहार के गया जिले में स्थित ‘बराबर’ नामक पहाड़ी की तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण मिले हैं। इनमें अशोक द्वारा आजीवक सम्प्रदाय के साधुओं के निवास के लिये गुहा-दान में दिये जाने का विवरण सुरक्षित है।
लिपि व भाषा
अशोक के अभिलेख चार भिन्न-भिन्न लिपियों में अंकित किये गये हैं :
- खरोष्ठी लिपि – यह दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। इस लिपि में शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा के अभिलेख अंकित हैं।
- अरामेइक लिपि – लघमान व तक्षशिला का अभिलेख।
- यूनानी लिपि + अरामेइक लिपि – शरेकुना अभिलेख।
- ब्राह्मी लिपि – शेष सभी अभिलेख।
इन अभिलेखों में कुल ३ भाषाओं का प्रयोग किया गया है :
- यूनानी भाषा
- अरामेइक भाषा
- प्राकृत भाषा
शरेकुना (कंधार, अफगानिस्तान) से द्विभाषी और द्विलिपीय अभिलेख मिला है। इसमें प्रयुक्त दो भाषाएँ व लिपियाँ है – यूनानी और अरामेइक।
मानसेहरा व शाहबाजगढ़ी अभिलेख प्राकृत भाषा और खरोष्ठी लिपि में है।
लघमान व तक्षशिला अभिलेख अरामेइक लिपि में हैं।
शेष भारत में मिले सभी अभिलेख ब्राह्मी लिपि व प्राकृत भाषा में हैं।
निष्कर्ष
अशोक के इन अभिलेखों का इतना अधिक महत्त्व है कि डी० आर० भण्डारकर ने केवल अभिलेखों के आधार पर ही सम्राट अशोक का इतिहास लिखने का श्लाघ्य प्रयास किया है। यदि ये अभिलेख प्राप्त नहीं होते तो अशोक जैसे महान सम्राट के विषय में हमारा ज्ञान सर्वथा अपूर्ण रहता।
अशोक ‘प्रियदर्शी’ (२७३-२३२ ई० पू०)
कलिंग युद्ध : कारण और परिणाम (२६१ ई०पू०)