जाति-प्रथा का उद्भव और विकास

भूमिका जाति-प्रथा भारतीय समाज की ऐसी विशेषता है जो अन्यत्र इस प्रकार नहीं पायी जाती है। मजे की बात तो यह है यह हिन्दू समाज की विशेषता तो है ही साथ ही इससे मुस्लिम और ईसाई समाज भी अप्रभावित नहीं रहा है। जिस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की आधारशिला वैदिक काल में पड़ी थी कालान्तर […]

जाति-प्रथा का उद्भव और विकास Read More »

भारतीय धर्म और दर्शन में ईश्वर की अवधारणा या ईश्वर-विचार ( The concept of God in Indian Religion and Philosophy )

परिचय भारतीय दर्शन पर धर्म की अमिट छाप है इसलिए ईश्वर का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्यतः ईश्वर में विश्वास को धर्म कहा जाता है। धर्म-प्रभावित भारतीय दर्शन में ईश्वर की चर्चा पर्याप्त रूप से मिलती है। चाहे वे ईश्वरवादी दर्शन हों या अनीश्वरवादी अपनी-अपनी बातों को प्रमाणित करने हेतु वे अनेकानेक युक्तियों का प्रयोग करते

भारतीय धर्म और दर्शन में ईश्वर की अवधारणा या ईश्वर-विचार ( The concept of God in Indian Religion and Philosophy ) Read More »

भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ

भूमिका भारतीय दर्शनों को सामान्यतः दो वर्गों में रखा गया है — आस्तिक और नास्तिक। चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन को छोड़कर शेष छः दर्शन आस्तिक वर्ग में रखे गये हैं। इन दर्शनों में परस्पर विभिन्नताएँ होते हुए भी सर्व-निष्ठता पायी जाती है। कुछ सिद्धान्तों की प्रामाणिकता को सभी मान्यता देते हैं। एक जैसी भौगोलिक

भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ Read More »

भारतीय सभ्यता और संस्कृति के स्रोत । प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

भूमिका सभ्यता और संस्कृति को प्रायः समानार्थी रूप में प्रयुक्त कर दिया जाता है। परन्तु इसमें भेद है। सभ्यता ( सभ्य + तल् + टाप् ) का शाब्दिक अर्थ है सभ्य होने का भाव या नम्रता और शिष्टता। सभ्यता का सम्बन्ध सामाजिकता से है और इसके अन्तर्गत कुछ विधि-निषेधों का पालन किया जाता है। आँग्ल

भारतीय सभ्यता और संस्कृति के स्रोत । प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत Read More »

भारतीय संस्कार व्यवस्था

भूमिका ’संस्कार’ शब्द का अर्थ है – परिष्कार, पवित्रता या शुद्धता। भारतीय चिंतकों ने संस्कारों की व्यवस्था शरीर को परिष्कृत या संस्कारित करने के उद्देश्य से की है जिससे वह वैयक्तिक और सामाजिक रूप से योग्य बन सके। शबर मुनि के शब्दों में — ‘संस्कार वह क्रिया है जिसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी

भारतीय संस्कार व्यवस्था Read More »

भारतीय पुरुषार्थ व्यवस्था और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं महत्त्व

भूमिका ‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’ अर्थात् ‘पुरुषार्थ’ का तात्पर्य पुरुष के लिए जो अर्थपूर्ण है, अभीष्ट है, उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करना ही पुरुषार्थ है। एक विवेकशील मनुष्य इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। इनकी संख्या चार है अतः इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्ट्य’ कहा गया है। पुरुषार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है

भारतीय पुरुषार्थ व्यवस्था और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं महत्त्व Read More »

आश्रम व्यवस्था

भूमिका आश्रम शब्द की व्युत्पत्ति ‘श्रम’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है – ‘परिश्रम अथवा प्रयास करना।’ अतः आश्रम वह स्थान है जहाँ पर प्रयास किया जाये। ‘इस प्रकार आश्रम व्यवस्था से अभिप्राय एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमें व्यक्ति की जीवनयात्रा में कुछ सोपान या चरण निर्धारित किये गये हैं, जहाँ वह एक

आश्रम व्यवस्था Read More »

प्राचीन भारत में ‘दास प्रथा’

परिचय दास विधिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति के स्वामित्व में होता है और अपने स्वामी के लिए काम करने के लिए बाध्य होता है। दास अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकता। दास होने की अवस्था ही ‘दास-प्रथा’ कहलाती है। अब तक जितनी संस्कृति और सभ्यताएँ हुई हैं उन सबमें यह प्रथा रही है। भारतीय

प्राचीन भारत में ‘दास प्रथा’ Read More »

प्राचीन भारतीय सम्वत्

प्राचीन भारतीय सम्वत् भारत में अति प्राचीन काल से ही सम्वत् का प्रचलन था। प्राचीन अभिलेख और साहित्यों में इसका उल्लेख है। प्राचीन भारतीय सम्वतों में विक्रम और शक सम्वत् सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। कुछ प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय सम्वत् निम्न हैं :— सम्वत् का नाम समय प्रणेता विक्रम सम्वत् ५७ ई॰पू॰ उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य शक

प्राचीन भारतीय सम्वत् Read More »

भारतवर्ष का नामकरण

भूमिका हमारे देश का नाम ऋग्वैदिक जन ‘भरत’ के नाम पर भारतवर्ष पड़ा है। यद्यपि भारतीय संविधान के अनुच्छेद – १ में इसे ‘भारत अर्थात् इंडिया’ कहा गया है। भारतवर्ष शब्द के प्रयोग का अभिलेखीय साक्ष्य सर्वप्रथम कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलता है। यहाँ पर यह शब्द गंगा घाटी या उत्तरी भारत के सन्दर्भ

भारतवर्ष का नामकरण Read More »

Scroll to Top