सामाजिक संस्थाएँ

परिवार या कुटुम्ब ( Family ) का उद्भव और विकास

प्रस्तावना परिवार एक पुरातन सामाजिक संस्था है।  सम्भवतः कुटुम्ब जितनी ‘नैसर्गिक’ अन्य कोई सामाजिक संस्था नहीं है। प्रचीन से लेकर अर्वाचीन संसार की सभी सभ्यताओं में कुटुम्ब का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और रहेगा। इस संस्था का कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता है। यह सामाजिक जीवन की मूलभूत ईकाई है। व्यक्ति और सामाजिक संस्थाएँ एक […]

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जाति-प्रथा का उद्भव और विकास

भूमिका जाति-प्रथा भारतीय समाज की ऐसी विशेषता है जो अन्यत्र इस प्रकार नहीं पायी जाती है। मजे की बात तो यह है यह हिन्दू समाज की विशेषता तो है ही साथ ही इससे मुस्लिम और ईसाई समाज भी अप्रभावित नहीं रहा है। जिस कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की आधारशिला वैदिक काल में पड़ी थी कालान्तर

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भारतीय संस्कार व्यवस्था

भूमिका ’संस्कार’ शब्द का अर्थ है – परिष्कार, पवित्रता या शुद्धता। भारतीय चिंतकों ने संस्कारों की व्यवस्था शरीर को परिष्कृत या संस्कारित करने के उद्देश्य से की है जिससे वह वैयक्तिक और सामाजिक रूप से योग्य बन सके। शबर मुनि के शब्दों में — ‘संस्कार वह क्रिया है जिसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी

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भारतीय पुरुषार्थ व्यवस्था और उसकी सामाजिक उपादेयता एवं महत्त्व

भूमिका ‘पुरुषैर्थ्यते इति पुरुषार्थः’ अर्थात् ‘पुरुषार्थ’ का तात्पर्य पुरुष के लिए जो अर्थपूर्ण है, अभीष्ट है, उसको प्राप्त करने के लिए प्रयास करना ही पुरुषार्थ है। एक विवेकशील मनुष्य इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। इनकी संख्या चार है अतः इन्हें ‘पुरुषार्थचतुष्ट्य’ कहा गया है। पुरुषार्थ दो शब्दों से मिलकर बना है

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आश्रम व्यवस्था

भूमिका आश्रम शब्द की व्युत्पत्ति ‘श्रम’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है – ‘परिश्रम अथवा प्रयास करना।’ अतः आश्रम वह स्थान है जहाँ पर प्रयास किया जाये। ‘इस प्रकार आश्रम व्यवस्था से अभिप्राय एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमें व्यक्ति की जीवनयात्रा में कुछ सोपान या चरण निर्धारित किये गये हैं, जहाँ वह एक

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प्राचीन भारत में ‘दास प्रथा’

परिचय दास विधिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति के स्वामित्व में होता है और अपने स्वामी के लिए काम करने के लिए बाध्य होता है। दास अपने निर्णय स्वयं नहीं ले सकता। दास होने की अवस्था ही ‘दास-प्रथा’ कहलाती है। अब तक जितनी संस्कृति और सभ्यताएँ हुई हैं उन सबमें यह प्रथा रही है। भारतीय

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