धर्म और दर्शन

जैन धर्म

जैन धर्म जैन धर्म के अन्य नाम भी मिलते हैं :— निर्ग्रंथ, श्वेतपट, कुरूचक, यापनीय आदि। गौतम बुद्ध के समकालीन आविर्भूत होने वाले अरूढ़िवादी सम्प्रदायों में महावीर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। बौद्ध साहित्य में इन्हें निगंठनाथपुत्त कहा गया है। बुद्ध के बाद भारतीय नास्तिक आचार्यों में महावीर सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महावीर जैन धर्म के […]

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सूर्य-पूजा

सूर्य-पूजा उद्भव और विकास   सूर्य-पूजा की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। सम्भवतः सूर्य प्रकृति के उन शक्तियों में से एक है जिसे सर्वप्रथम देवत्व प्रदान किया गया। विश्व की अनेक प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य-पूजा का प्रचलन था ( मिश्र, पारसी सभ्यता आदि )।   प्रागैतिहासिक संस्कृतियों से कुछ प्रतीकात्मक मांगलिक चिह्न ( स्वास्तिक,

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नास्तिक सम्प्रदायों का उद्भव और विकास

नास्तिक सम्प्रदायों का उद्भव और विकास   ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में उत्तरी भारत के मध्य गंगा घाटी में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। बौद्ध ग्रंथ ‘ब्रह्मजाल सूत्र’ में इनकी संख्या ६२ बतायी गयी है जबकि जैन ग्रंथ ‘सूत्रकृतांग’ में यह संख्या ३६८ बतायी गयी है। वैश्विक स्तर पर भी यह समय बौद्धिक रूप

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शाक्त-धर्म की तान्त्रिक विचारधारा

शाक्त-धर्म की तान्त्रिक विचारधारा   परिचय पूर्व-मध्यकाल तक आते-आते शाक्त-धर्म पर तान्त्रिक विचारधारा का व्यापक प्रभाव पड़ा। मात्र शाक्त सम्प्रदाय ही नहीं अपितु तत्कालीन सभी धर्मों और मत-मतान्तरों पर तन्त्रवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है; यथा — वैष्णव, शैव, बौद्ध और जैन धर्म आदि। जैन धर्म में ‘सचिवा देवी’ की उपासना शाक्त

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शाक्तधर्म : सिद्धान्त और आचार

शाक्तधर्म : सिद्धान्त और आचार शाक्तधर्म के सिद्धान्त त्रिपुरा रहस्य, मालिनी विजय, महानिर्वाण, डाकार्णव, कुलार्णव आदि ताँन्त्रिक ग्रन्थों में उल्लिखित है। शाक्त धर्मानुयायियों की विशेषताएँ निम्न हैं :— मातृदेवी को आदिशक्ति मानकर आराधना की जाती है। यही आदि शक्ति सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करती है। शक्ति को शिव का क्रियाशील रूप माना गया

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शाक्त धर्म

शाक्त धर्म   उद्भव और विकास शक्ति को इष्टदेव मानकर पूजा करने वालों का समुदाय ‘शाक्त सम्प्रदाय’ कहलाता है। शक्ति–उपासना के उद्भव में वैदिक और अवैदिक दोनों प्रवृत्तियों का योगदान है। शाक्त और शैव धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध है। शाक्त धर्म की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। लोहदा नाला, उत्तर प्रदेश से पूर्व–पुरापाषाण काल

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जैन संगीति या सभा

परिचय महावीर स्वामी की शिक्षाओं को संकलित करने और धर्म विषयक विधि-निषेधों के निर्धारण करने के लिए समय-समय पर जैन संगीति या सभाओं ( councils ) का आयोजन किया गया :–  प्रथम जैन संगीति या सभा समय – ३०० ई० पू० शासनकाल – चन्द्रगुप्त मौर्य स्थान – पाटलिपुत्र अध्यक्ष – स्थूलभद्र कार्य – जैन धर्म के १२ अंगों का सम्पादन

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जैन दर्शन

भूमिका जैन दर्शन अनीश्वरवादी है परन्तु अनात्मवादी नहीं है अर्थात् जैन दर्शन में ईश्वर की मान्यता नहीं है जबकि आत्माएँ अनन्त हैं। महावीर कर्मवाद और पुनर्जन्म विश्वास रखते हैं। जैन मत दार्शनिक दृष्टि से वस्तुतः ‘वस्तुवादी’ और ‘बहुसत्तावदी’ हैं। अर्थात् जितने प्रकार के द्रव्य हम देखते हैं वे सभी सत्य हैं। संसार में दो प्रकार के

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महाकाव्य युगीन धार्मिक दशा

कर्मकाण्डीय और ज्ञानमार्गीय धर्मों के सामंजस्य से महाकाव्यों ने एक लोकधर्म का विकास किया जो सर्वजन सुलभ था। इसमें वैदिक और अवैदिक विश्वासों का समावेश दिखता है।

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