जैन धर्म

जैन धर्म

जैन धर्म के अन्य नाम भी मिलते हैं :— निर्ग्रंथ, श्वेतपट, कुरूचक, यापनीय आदि।

गौतम बुद्ध के समकालीन आविर्भूत होने वाले अरूढ़िवादी सम्प्रदायों में महावीर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। बौद्ध साहित्य में इन्हें निगंठनाथपुत्त कहा गया है। बुद्ध के बाद भारतीय नास्तिक आचार्यों में महावीर सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं बल्कि परम्परा उन्हें २४वाँ तीर्थंकर मानती है। २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध है।

उद्भव और विकास

जैन शब्द संस्कृत भाषा के ‘जिन्’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है ‘विजेता’ ( जितेन्द्रिय )। जैन महात्माओं को निर्ग्रंथ ( बंधनरहित ) और जैन संस्थापकों को ‘तीर्थंकर’ कहा जाता है। तीर्थंकर दो शब्दों तीर्थ और कर शब्स से बना है। ‘तीर्थ’ का अर्थ उन विविध नियमों और उपनियमों से है जो मनुष्य को इस भवसागर से पार लगा दें। ‘कर’ का अर्थ करने वाला अथवा बनाने वाला है। अर्थात् तीर्थंकर वो महापुरुष हैं जो मानुष्य के भवसागर पार करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं अथवा नियम बनाते हैं।

जैन धर्म में कुल २४ तीर्थंकर की कल्पना की गयी है। जिनमें से २२ तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में मिलता है। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और २४वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे। जैन घर्म में शलाका पुरुष ( महान पुरुष ) की कल्पना की गयी है।

ऋषभनाथ

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव / आदिनाथ थे। ऋषभदेव एक राजा थे और उनके दो पुत्र भरत और बाहुबली थे। उन्होंने अपने पुत्र भरत के पक्ष में राज्य त्याग दिया और स्वयं ‘यति’ बन गये थे। कुछ जगह इन्हीं भरत के नाम पर हमारे देश का भारतवर्ष नाम पड़ा, की बात कही गयी है। वायु पुराण, विष्णु पुराण और भागवत् पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख नारायण के अवतार के रूप में किया गया है। बाहुबली जिन्हें गोमतेश्वर बाहुबली भी कहा जाता है की एक प्रतिमा का निर्माण १०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में चामुण्डराय ने कराया। चामुण्डराय गंग वंशी नरेश रायमल चतुर्थ के मंत्री थे। यह प्रतिमा ५७ फुट की है। यह ग्रेनाइट प्रस्तर की एकाश्मक प्रतिमा है। यह प्रतिमा कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में स्थित है।

 

मल्लिनाथ एकमात्र महिला तीर्थंकर थीं।

 

अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण का समकालीन और उनका चचेरा भाई बताया गया है।

 

पार्श्वनाथ 

पिता – अश्वसेन ( काशी के राजा )

माता – वामा ( कौशस्थल के राजा नरवर्मन की पुत्री )

पत्नी – प्रभावती

पार्श्वनाथ २३वें तीर्थंकर थे और ये ऐतिहासिक माने जाते हैं। इनका समय महावीर स्वामी से २५० वर्ष पहले का माना जाता है अर्थात् ये ८ठवीं शताब्दी ई०पू० में थे। ३० वर्ष की आयु में इन्होंने गृहत्याग दिया और इनको सम्मेद पर्वत पर ज्ञान मिला था। जैन साहित्य में इनको पुरुषादनीयम् कहा गया है। पार्श्वनाथ के अनुयायी निर्ग्रंथ कहलाते थे। पार्श्वनाथ के समय निर्ग्रंथ सम्प्रदाय चार गणों ( संघों ) में विभक्त था। प्रत्येक गण का एक अध्यक्ष होता था जिसे गणधर कहा जाता था। पार्श्वनाथ ने संघ में स्त्रियों भी स्थान दिया क्योंकि जैन साहित्य स्त्री संघ की अध्यक्षा पुष्पचूला का उल्लेख करते हैं। पार्श्वनाथ ने चातुर्याम शिक्षा या चार आचरण का विधान किया था :—

  • सत्य
  • अहिंसा
  • अस्तेय ( चोरी न करना )
  • अपरिग्रह ( सम्पत्ति का संग्रहण न करना )

महावीर स्वामी के पिता अश्वसेन पार्श्वनाथ के अनुयायी थे।

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