भूमिका
वैदिक भूगोल से तात्पर्य है कि वेदों से हमें किस भारतीय भूमि की जानकारी प्राप्त होती है। उसमें किन-किन नदियों, पर्वतों, जलस्रोतों का विवरण मिलता है। हम वेदों में उल्लिखित भौगोलिक क्षेत्रों की पहचान वर्तमान में किन नदी, पहाड़ों व भू-भाग से करते हैं। दूसरे शब्दों में वैदिक साहित्य से हमें किस भारत का आभास मिलता है? इस प्रश्न का उत्तर हम पूर्व वैदिक एवं उत्तर वैदिक कालों के सन्दर्भ में दे सकते हैं।
वैदिक काल को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बाँटकर अध्ययन किया जाता रहा है – एक; ऋग्वैदिक काल और द्वितीय; उत्तर वैदिक काल। ऋग्वैदिक भूगोल का जानकारी का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है जबकि उत्तर वैदिक भूगोल का जानकारी के कई स्रोत हैं इसमें सर्वप्रमुख है शतपथ ब्राह्मण।
ऋग्वैदिक भूगोल
ऋग्वेद में आर्य निवास स्थल के लिए सर्वत्र ‘सप्तसैन्धवः’ शब्द का प्रयोग किया गया है। यद्यपि इन सात विख्यात नदियों की पहचान के बारे में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है, परन्तु इतना तो निश्चित-सा है कि जिसे आजकल हम पंजाब (वर्तमान भौगोलिक स्थिति में भारत और पाकिस्तान के अंश) के नाम से पुकारते हैं, उसी के लिए और उससे कुछ विस्तृत भूखण्ड को ऋग्वेद में ‘सप्तसिन्धवः’ कहा गया है।
नदियों का विवरण
वैदिक साहित्यों में कुल ३१ नदियों का उल्लेख मिलता है। इन ३१ में से कुल २५ नदियों का विवरण ऋग्वेद से मिलता है। इन २५ में से अकेले ऋग्वेद के नदी सूक्त में ही २१ नदियों का उल्लेख किया गया है।
मज़े की बात यह है कि इनका विवरण मनमाने तरीके से नहीं वरन् नदी सूक्त में क्रमबद्ध रूप से किया गया है।
ऋग्वेद में भारतीय उप-महाद्वीप की पश्चिमोत्तर अर्थात् सिंधु नदी में दायें ओर से मिलने वाली जोकि अफगानिस्तान में प्रवाहित होती की चार नदियों का विवरण मिलता है :
- कुभा – काबुल
- क्रमु – कुर्रम
- गोमती – गोमल
- सुवास्तु – स्वात
ऋग्वेद में सात नदियों से घिरे भू-भाग को ‘सप्त-सैंधव’ कहा गया है। ये सात नदियाँ इस प्रकार हैं :
- सिन्धु
- वितस्ता – झेलम
- अस्किनी – चिनाब
- परुष्णी – रावी
- विपासा – व्यास
- शुतुद्रि – सतलुज
- सरस्वती
‘सिन्धु’ का तो अनेक स्थलों पर इतनी ओजस्वी भाषा में वर्णन किया गया है कि नदी की तुमुल तरंगों का दृश्य नेत्रों के सामने साकार हो जाता है। साथ ही यह भारत की प्राचीनतम् नदी है जिसका ऋग्वेद में सर्वाधिक बार उल्लेख किया गया है।
ऋग्वेद में ‘सरस्वती’ नदी का बड़ा माहात्म्य हैं। आर्य निवास की यह भी एक अति प्रशंसित नदी थी। सिंधु नदी को ‘नदीतमा’ कहा गया है। सरस्वती की प्रशंसा करते ऋषि लोग कभी नहीं अघाते थे। इसी के साथ-साथ ‘दृषद्वती’ का भी उल्लेख अनिवार्य है। दृषद्वती नदी की पहचान वर्तमान चौतांग नदी से की जाती है। ये दोनों नदियाँ वर्तमान राजस्थान मरुभूमि के क्षेत्र में प्रवाहशील थीं।
कालांतर मे प्रसिद्धि प्राप्त करने वाली गंगा तथा यमुना का उल्लेख ऋग्वेद में तो मात्र एक व तीन बार क्रमशः हुआ है।
मरुद्वृद्धा नामक एक नदी का विवरण मिलता है जोकि कश्मीर में बहती थी।
इस तरह मौतेतौर पर कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक आर्यों की पूर्वी सीमा गंगा नदी थी और पश्चिमी सीमा कुभा ( काबुल ) नदी थी।
अन्य भौगोलिक विवरण
ऋग्वेद में हिमालय को ‘हिमवन्त’ कहा गया है। इसमें एक पर्वत चोटी ‘मूजवंत’ का उल्लेख है जो पश्चिमी हिमालय में स्थित है। मूजवंत चोटी से आर्यों का प्रिय पेय सोम-लता प्राप्त होती थी जिसको पीसकर वे सोमरस प्राप्त करते थे।
ऋग्वेद में बहुचर्चित ‘दशराज्ञ युद्ध’ के सन्दर्भ में अज, शिग्रु एवं यक्षु तथा अन्यत्र क्रिवि नामक जिन जनजातियों का उल्लेख मिलता है, वे गंगा-यमुना दोआब की निवासी प्रतीत होती हैं। मोटे तौर पर गंगा को ऋग्वेद-कालीन आर्यों के निवास स्थल की पूर्वी सीमा माना जा सकता है।
क्या ऋग्वैदिक आर्य समुद्र से परिचित थे?
ऋग्वेद में समुद्र शब्द का तो प्रयोग मिलता है परन्तु विद्वानों का इस बात पर मतभेद है कि पूर्व-वैदिक आर्य वास्तविक समुद्र से परिचित थे अथवा नहीं?
- मैक्समूलर के विचार से पूर्व-वैदिक आर्य वास्तविक समुद्र से परिचित थे।
- रामशरण शर्मा और कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक आर्य वास्तविक समुद्र से अपरिचित थे। इनके अनुसार ऋग्वेद में उल्लिखित समुद्र शब्द विशाल जल राशि का द्योतक है न कि वास्तविक समुद्र का।
उत्तर वैदिककालीन भूगोल
उत्तर वैदिक काल में आर्यों की भौगोलिक सीमा का विस्तार पूर्वी प्रदेशों में होने लगा। इस प्रकार के विषय में एक सुंदर प्राचीन आख्यायिका शतपथ ब्राह्मण (१.४.१.१०-१७) में दी गयी है, जिसका सारांश है :
“विदेघ माथव ने वैश्वानर अग्नि को मुख में धारण किया था। घृत का नाम लेते ही वह अग्नि माथव के मुख से निकलकर पृथ्वी पर आ पहुँचा। उस समय विदेध माथव सरस्वती के तट पर निवास करते थे। वह अग्नि सब कुछ जलाता हुआ पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे विदेध माथव तथा उनके पुरोहित गौतम राहूगुण १ चले। वह नदियों को जलाता चला गया, अकस्मात् वह ‘सदानीरा’ (बिहार की वर्तमान गंडकी नदी) नदी को नहीं जला पाया, जो उत्तर गिरि (हिमालय) से बहती है। अग्नि द्वारा दग्ध न होने के कारण ब्राह्मण लोग पुराने समय में उसके पार नहीं जाते थे, परंतु आजकल उसके पूर्व की ओर ब्राह्मणों का निवास है। विदेध माथव ने अग्नि से पूछा कि अब मैं कहाँ निवास करूँ? अग्नि ने उत्तर दिया – इस नदी के पूर्व की ओर। सदानीरा ही कोसल तथा विदेह देशों की आज भी मर्यादा बनी हुई है।”
- गौतम राहूगण कोई साधारण पुरोहित नहीं थे। ऋग्वेद में भी इनके द्वारा दृष्ट अनेक सूक्त (१. ७५-७८ आदि) उपलब्ध होते हैं, जिनमें विशेषतः अग्नि से प्रार्थना की गयी है। शतपथ ब्राह्मण में (९. ४.३.२०) इन्हें विदेह के महाराज जनक तथा ऋषि याज्ञवल्क्य का भी समकालीन बताया गया है तथा अथर्व संहिता में भी इनके नाम का उल्लेख दो बार किया गया है (४. २९.६; १८. ३.१६)।१
उत्तर वैदिक काल के साहित्य के परिशीलन से स्पष्ट होता है कि सप्तसैंन्धव प्रदेश से पूर्व की ओर बढ़ते हुए आर्यों ने लगभग सम्पूर्ण गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व जमा लिया। इस प्रक्रिया के दौरान कुरु-पंचाल प्रदेशों ने अत्यधिक महत्ता प्राप्त कर ली। इनके अतिरिक्त विदेह, कोसल, काशी, मगध तथा अंग देशों का भी उल्लेख अनेक ब्राह्मण ग्रंथों में होने लगा।
उत्तर वैदिक काल में आर्य हिमवंत ( हिमालय ) के मध्य और पूर्वी भाग से भी परिचित हो चुके थे। हमें मध्य व पूर्वी हिमालय के अनेक चोटियों / श्रेणियों के नाम मिलते हैं; यथा – त्रिककुट, कौच्च, मैनाक इत्यादि।
शतपथ ब्राह्मण में ही सदानीरा नदी ( गंडक ) का तो उल्लेख मिलता ही है साथ ही रेवा नदी ( नर्मदा नदी ) का भी विवरण मिलता है।
उत्तर वैदिक आर्यों को पूर्वी और पश्चिमी समुद्र ( बंगाल की खाड़ी व अरब सागर क्रमशः ) की जानकारी मिल चुकी थी।
सम्भवतः दक्षिण में आंध्र, शबर, पुलिन्द आदि जातियों की सत्ता बनी हुई थी, जो वैदिक सभ्यता से अछूती थीं। विन्ध्य प्रदेश को उत्तर वैदिककालीन साहित्य पर आधारित भौगोलिक पृष्ठभूमि की दक्षिणी सीमा माना जा सकता है। कुल मिलाकर सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि वैदिक साहित्य के भारत से तात्पर्य उत्तरी भारत से है। आगे चलकर मनुस्मृति में उत्तरी भारत के लिए ‘आर्यावर्त’ नाम का प्रयोग मिलता है।
निष्कर्ष
वैदिक काल की भौगोलिक पृष्ठभूमि का सार संक्षेपण यह है कि ऋग्वैदिक आर्य पूर्व में गंगा से लेकर पश्चिम में काबुल नदी तक बसे हुए थे। यहीं पर पूर्व-वैदिक संस्कृति पुष्पित व पल्लवित हुई। ऋग्वैदिक संस्कृति का केन्द्र सप्तसैंधव भू-क्षेत्र था। उत्तर वैदिक काल में वैदिक सभ्यता का केन्द्र गंगा घाटी बनी। कुरु व पांचाल वैदिक सभ्यता के केन्द्र थे। इस तरह उत्तर वैदिक काल तक आर्य उत्तर भारत पूर्णतया परिचित हो चुके थे। दक्षिण भारत अभी वैदिक सभ्यता से अछूता था।