भूमिका
सातवाहन काल में दकन की भौतिक संस्कृति में स्थानीय और उत्तर भारतीय तत्त्वों दोनों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है।
लोहे का प्रयोग
दकन के महापाषाण संस्कृति के निर्माता लोहे का प्रयोग और कृषि कार्य दोनों से भलीभाँति परिचित थे। यद्यपि लगभग २०० ई०पू० के पहले हम लौह निर्मित कुछ फावड़े मिलते हैं, तथापि, ऐसे उपकरणों की संख्या ईसा की प्रारम्भिक दो-तीन शताब्दियों में काफी बढ़ी। महापाषाण अवस्था से सातवाहन अवस्था तक फावड़े के आकार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखायी देता है। अंतर मात्र इतना ही है कि फावड़ों में मूठ अच्छी और पूरी तरह लगायी गयी थी। मूठ वाले फावड़े के अतिरिक्त हँसिये, कुदाले, हल के फाल, कुल्हाड़ियाँ, बसूले, उस्तरे आदि उत्खनित स्थलों के सातवाहन स्तरों में पाये गये हैं। चूलदार और मूठ वाले बाणाग्र और कटारें भी प्राप्त हुए हैं।
करीमनगर जनपद (तेलंगाना) में उत्खनित एक स्थल पर लोहार की एक दुकान भी मिली है। सातवाहनों ने करीमनगर और वारंगल (दोनों वर्तमान तेलंगाना में स्थित हैं।) के लौह अयस्कों का उपयोग किया होगा, क्योंकि यह ज्ञात होता है कि इन दोनों जनपदों में महापाषाण काल में लोहे की खदानें थीं।
सिक्के
ईसा से पूर्व की और बाद की सदियों में कर्नाटक के कोलार क्षेत्रों में प्राचीन स्वर्ण खदानें होने के साक्ष्य मिलते हैं। विद्वानों का विचार है कि सातवाहनों ने स्वर्ण का प्रयोग बहुमूल्य धातु के रूप में किया होगा क्योंकि उन्होंने कुषाणों की भाँति सुवर्ण सिक्के नहीं चलाये।
सातवाहनों के सिक्के अधिकांश सीसे के हैं जो दकन में पाये जाते हैं। उन्होंने पोटीन, ताँबे और काँसे की मुद्राएँ भी चलायी। पोटीन में ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन को मिलाकर मिश्रित धातु की मुद्राओं को ढाला गया था। उत्तरी दकन में ईसा की आरम्भिक सदियों में सातवाहनों की जगह आने वाले इक्ष्वाकु राजाओं ने भी सिक्के चलाये। सातवाहन और इक्ष्वाकु दोनों राजवंशों ने दकन के खनिज स्रोतों का उपयोग किया था।
कृषि
दकन के लोग धान रोपने की कला (the art of paddy transplantation) से परिचित थे। शुरू की दो सदियों में कृष्णा और गोदावरी के बीच का क्षेत्र विशेषकर निचली घाटी का क्षेत्र से प्रभूत चावल उत्पादन होता था।
दकन के लोग कपास के उत्पादन से भी परिचित थे। विदेशियों के विवरणों में आन्ध्र कपास के उत्पादन में मशहूर बताया गया है।
इस तरह दकन के बड़े हिस्से में परम उन्नत ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकसित हुई। प्लिनी के अनुसार आन्ध्र राज्य की सेना में १,००,००० पदाति सैनिक; २,००० अश्वारोही और १,००० गजसेना थी। इससे कम से कम यह ज्ञात होता हि कि पर्याप्त ग्रामीण जनसंख्या रही होगी और वह इतनी बड़ी सेना के भरण-पोषण के योग्य पर्याप्त अनाज पैदा करती रही होगी।
उत्तर से सम्पर्क का प्रभाव
उत्तर के सम्पर्क से दकन के लोगो ने सिक्के, पकी ईंट, मंडलाकार कूप, लेखन कला, आदि का प्रयोग सीखा। भौतिक जीवन के ये अंग ३०० ई०पू० तक उत्तर भारत में काफी महत्त्वपूर्ण हो चुके थे, परन्तु दक्षिण में इनका महत्त्व दो सदी के बाद बढ़ा। यह भौतिक प्रगति मौर्य साम्राज्य के दक्षिण विस्तार से प्रारम्भ हुआ और सातवाहन काल में यह गति निर्बाध रूप से चलती रही।
करीमनगर जनपद के पेड्डबंकुर (Peddabankur) (२०० ई०पू०-२०० ई०) में पकी ईंट और छत में लगने वाले चिपटे छेददार खपड़े (tiles) का प्रयोग पाते हैं। इन सबके प्रयोग से निर्माण में टिकाऊपन आया होगा। प्रमुख बात यह है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी के ईटों के बने २२ कुएँ भी इस स्थल पर पाये गये हैं। इन भौतिक अवशेषों से घनी आबादी के विकास में सुविधा हुई होगी। हम जमीन के अन्दर बनी ढकी हुई नालियाँ भी पाते हैं जिससे गंदा पानी गड्ढों में जाता था।
महाराष्ट्र में नगरों का अस्तित्व हमें ईसा पूर्व पहली सदी से दिखायी देने लगता है, जब हम कई प्रकार के शिल्पों को फलते-फूलते हुए पाते हैं। इनका प्रसार पूर्वी दकन में एक शताब्दी के बाद हुआ। प्लिनी ने लिखा है कि पूर्वी दकन में आन्ध्र देश में बहुत सारे गाँवों के अलावा दीवार से घिरे ३० नगर थे। इस क्षेत्र में दूसरी और तीसरी सदियों में कई नगर थे। इसकी जानकारी अभिलेखों और उत्खननों में मिली है। भारी संख्या में मिले रोमन और सातवाहन सिक्कों से बढ़ते हुए व्यापार का संकेत मिलता है। ये सभी पूर्वी दकन में गोदावरी-कृष्णा क्षेत्र में लगभग एक सदी बाद दिखायी देते हैं।