ऋग्वैदिक काल या पूर्व-वैदिक काल

विषयसूची

भूमिका

सैन्धव सभ्यता के पश्चात् भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसको वैदिक संस्कृति या आर्य संस्कृति के नाम से जाना जाता है। वैदिक संस्कृति के पहले चरण को ऋग्वैदिक काल या पूर्व-वैदिक काल कहते हैं। भारतीय इतिहास एक प्रकार से आर्यों का इतिहास है। आर्यों का प्रारम्भिक इतिहास हमें मुख्यतः वेदों से ज्ञात होता है जिसमें ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

वेद का अर्थ है – ज्ञान। यह ज्ञान श्रुत परम्परा ( अर्थात् सुनकर ) पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है। इसलिये इसको ‘श्रुति’ कहा जाता है। वेदों को ‘नित्य और अपौरुषेय’ भी कहा जाता है। नित्य का अर्थ है – शाश्वत अर्थात् यह सदैव से अस्तित्व में रहा है। अपौरुषेय का अर्थ है कि यह मानवकृत न होकर स्वयं ईश्वर द्वारा मंत्रों का प्रकाश ऋषियों को प्रदान किया गया है। इसीलिये ऋषि इसके रचयिता नहीं वरन् ‘मंत्रद्रष्टा’ हैं।

वैदिक काल

वैदिक इतिहास और संस्कृति को अध्ययन की सुविधा के लिये दो भागों में विभाजित किया जाता है —

(क) ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक काल (Early Vedic Period)

(ख) उत्तर वैदिक काल (Later Vedic Period)

इसका विभाजन ‘लोहे’ के आधार पर किया गया है। ऋग्वैदिक काल में आर्यों को लोहे का ज्ञान नहीं था। इसको पूर्व वैदिक काल भी कहते हैं। इस काल के अध्ययन का मुख्य स्रोत ऋग्वेद है। साथ ही कुछ पुरातात्त्विक सामग्री भी मिलती है।

इसी काल में आर्यों को १,००० ई०पू० के आसपास लोहे का ज्ञान हुआ। लौह प्रयोक्ता वैदिक काल को उत्तर वैदिक काल की संज्ञा दी गयी है। इस काल को जानने का मुख्य स्रोत उत्तर वैदिक साहित्य है, साथ ही कुछ पुरातात्त्विक साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं।

ऋग्वैदिक संस्कृति के स्रोत

इस काल का इतिहास हमें पूर्णतया ऋग्वेद से ही ज्ञात होता है। ऋग्वेद एक संहिता है जिसमें १० मण्डल है। इसमें २ से ७ तक प्राचीन माने जाते है। इसमें तीन पाठ मिलते है –

(क) साकल — इसमें १०१७ मन्त्र हैं।

(ख) बालखिल्य — इसमें ११ मन्त्र है।

(ग) वाष्कल — इसमें कुल ५६ मन्त्र है।

देखें –

समय निर्धारण

ऋग्वेद की तिथि के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है :-

  • मैक्समूलर ई०पू० १,२०० से १,००० इसकी तिथि मानते हैं।
  • जैकोबी ने इसका रचना काल तृतीय सहस्त्राब्दी ई० पू० बताया है।
  • पं० बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद के प्राचीनतम् अंश को ६,००० ई० पू० के आस-पास लिखा हुआ बताया है।
  • विन्टरनित्स ने वैदिक साहित्य का आरम्भिक काल ई० पू० २,५०० से २,००० तक निर्धारित किया है।

समस्त मतों पर विचार करने के उपरान्त हम सामान्यतः ऋग्वेद को ई० पू० १,५०० से १,००० ई० पू० के बीच रचित मान सकते हैं।

देखें – वेदों का रचनाकाल

ऋग्वैदिक भूगोल

ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आर्यों का प्रसार अफगानिस्तान से गंगा घाटी तक था। ऋग्वेद में यंत्र-तंत्र अनेक नदियों और पर्वतों के नाम मिलते हैं। हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। हिमालय की एक चोटी को ‘मुजवन्त’ कहा गया है जो सोम के लिये प्रसिद्ध थी।

ऋग्वेद के ‘नदी सूक्त’ में २१ नदियों का उल्लेख है। पश्चिम की ओर कुभा (काबुल), क्रमु (कुर्रम), गोमती(गोमल), सुवास्तु(स्वात) नदियों के उल्लेख से यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही अंग था। इसके पश्चात् ‘सप्तसैंधव प्रदेश’ की सात नदियों – सिन्धु, वितस्ता (झेलम), अस्किनी (चिनाब), परुष्णी (रावी), विपासा (व्यास), शतद्रु (सतलुज), सरस्वती का उल्लेख हुआ है। साथ ही यमुना ( ३ बार ) तथा गंगा ( १ बार ) के नाम भी मिलते हैं। इन २१ नदियों में सबसे पश्चिम दिशा में कुभा और सबसे पूर्व दिशा में गंगा नदी प्रवाहित होती थी।

ऐतरेय ब्राह्मण गान्धार क्षेत्र का उल्लेख करता है। इस प्रकार वैदिक भूगोल के अन्तर्गत वर्तमान समय का अफगानिस्तान, पाकिस्तान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर पूर्व राजस्थान, पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश ( मुख्यतः ऊपरी गंगा घाटी अर्थात् गंगा-यमुना दोआब ) आदि सभी सम्मिलित थे। इसी क्षेत्र में सैंन्धव सभ्यता भी पुष्पित और पल्लवित हुई थी।

देखें – वैदिक भूगोल

ऋग्वैदिक संस्कृति के प्रमुख तत्त्व

ऋग्वेद के अध्ययन से आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और यहाँ तक कि धार्मिक जीवन में भी ‘कबायली संगठन’ के चिह्न अधिक दृष्टिगोचर होते हैं। लोग सम्भवतः स्थायी जीवन व्यतीत नहीं कर रहे थे इसकी पुष्टि छिटपुट पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर भी होती है।

राजनीतिक संगठन

पशुचारण अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि तथा युद्धों के सर्वव्यापी वातावरण में यह सर्वथा स्वाभाविक था कि लोग अपेक्षाकृत अस्थायी जीवन बितायें। ऐसी स्थिति में किसी प्रकार के जटिल या विकसित राजनीतिक संगठन के विकास की सम्भावना दुर्बल ही थी। यह सत्य है कि तेजी से बार-बार युद्ध की घटनाओं ने नेता की आवश्यकता को बल प्रदान किया होगा, परन्तु ऋग्वेद में उल्लिखित राजन् को किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र पर स्थायी रूप से शासन करने वाला राजा मानना तर्कसंगत नहीं लगता।

राजनीतिक अवधारणाओं में क्षेत्रीयता के संकेत करने वाले जनपद, राष्ट्र, राज्य जैसे शब्दों का उल्लेख कम ही मिलता है। राजन् की पहचान उसके कबीले से की जाती थी, जैसा कि दैववात को एक ‘सृंजय’ कहने से ज्ञात होता है। अतः ऋग्वैदिक काल का राजन् एक कबायली मुखिया से अधिक कुछ न था। राजन् एक पुरोहित व रणयोद्धा की सहायता से काम करता था। राजन् को जनस्य गोपा अथवा गोपतिजनराजन् कहा गया है क्योंकि जन अथवा कबीले की रक्षा करना और गोसम्पदा प्रदान करना उसी का कर्तव्य था। गणपति, व्रातपः, विशपति, आदि का उल्लेख भी इसी बात का संकेत करते हैं कि राजन् कोई पैतृक शासक न था अपितु कबीले का ही सर्वेसर्वा था।

  • आर० एस० शर्मा कृत ‘From Gopati to Bhupati’।

ऋवैदिक काल में राजनीतिक संगठन के कबायली स्वरूप की पुष्टि सभा, समिति एवं विदथ जैसी संस्थाओं के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली के विवेचन के आधार पर भी की जा सकती है। यद्यपि समिति का उल्लेख केवल परवर्ती मण्डलों में ही हुआ, सभा का वर्णन तो मूल भाग में भी मिलता है। परन्तु सभा, समिति एवं विदथ के सम्बन्ध में जो थोड़े-से भी विवरण प्राप्त हैं, उनसे लगता है कि इन विभिन्न संस्थानों में सम्पूर्ण कबीले के सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक मामलों पर चर्चा होती थी।

राजनीतिक इकाइयाँ

राजनीतिक संगठन की सबसे छोटी इकाई कुल अथवा परिवार होता था। परिवार का स्वामी पिता अथवा बड़ा भाई होता था जिसे ‘कुलप’ या ‘कुलपति’ कहा जाता था। कई कुलों को मिलाकर ग्राम बनता था। ग्राम वस्तुतः आत्म-निर्भर होते थे। ग्राम की सुरक्षा के लिये ऊँचे टीले पर एक पुर (दुर्ग) बना होता था। ग्राम का मुखिया ‘ग्रामिणी (ग्रामणी ) कहा जाता था। ‘ग्रामिणी’ सम्भवत: नागरिक तथा सैनिक दोनों ही प्रकार के दायित्व का निर्वहन करता था। ग्राम से बड़ी संस्था ‘विश्’ होती थी जिसका स्वामी ‘विशपति’ कहलाता था। अनेक विशों का समूह ‘जन’ होता था। जन के अधिपति को ‘जनपति’ या ‘राजन्’ या ‘गोप’ कहा जाता था।

आर्य कई जनों में विभक्त थे। इनमें पाँच जनों के नाम प्रायः मिलते हैं — अनु, द्रुह्य, यदु, पुरु, तुर्वस। इन्हें ‘पञ्चजन’ कहा गया है। जन के अधिपति को राजा (राजन), गोप, गोपति, जनराजन्, जनपति कहा जाता था।

जनों के सन्दर्भ में हमें पंचजनाः और यदु ( यद्वजनाः ) तथा भरत ( भरतजनाः ) लोगों का उल्लेख मिलता है। कई जनों से मिलकर राष्ट्र यानी देश बनता था।

कुल  →    ग्राम    →     विश्       → जन    →  (राष्ट्र )

↓             ↓                ↓              ↓

कुलप → ग्रामिणी → विशपति    → जनपति

देश या राज्य के लिये ‘राष्ट्र’ शब्द आया है। किन्तु यह प्रभुतासम्पन्न राज्य का सूचक नहीं है। एक स्थान पर कई राष्ट्रों के राजा का उल्लेख है। आर्यों के ये विभिन्न जन परस्पर लड़ा करते थे।

उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में सम्राट के अतिरिक्त ‘राजन्’ तथा ‘राजक’ शब्दों का प्रयोग मिलता है तथा उनकी स्थिति में विभेद भी किया गया है। छोटे राजाओं को ‘राजक’ उससे बड़े को ‘राजन्’ तथा सबसे बड़े को ‘सम्राट’ कहा जाता था।

राजक → राजन् → सम्राट

इन राजनीतिक इकाइयों में जन शब्द का प्रयोग सर्वाधिक २७५ बार हुआ है, उसके बाद विश शब्द का प्रयोग १७० बार हुआ है

शासन प्रणाली

राजा का पद सामान्यतः आनुवंशिक होता था, परन्तु कहीं-कहीं चुने हुए राजा का विवरण भी मिलता है। हमें ऐसे गण-प्रमुखों का भी उल्लेख मिलता है जो जन-सभा द्वारा लोकतंत्रात्मक ढंग से चुने जाते थे।

ऋग्वेद काल में सामान्यतः राजतंत्र का ही प्रचलन था। ‘राजन्’ शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। राजा को ‘जन रक्षक’ (गोप्ता जनस्य) तथा ‘दुर्गों का भेदन करने वाला’ (पुरांभेत्ता) कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध के वातावरण में सेना और जन का नेतृत्व करने के लिये राजसंस्था का उदय हुआ।

इस समय राज्य छोटे होते थे तथा एक राज्य में सामान्य तौर से एक ही जन के लोग निवास करते थे। राजा युद्धों में स्वयं जन का नेतृत्व करता था। राजा का पद इस समय दैवी नहीं समझा जाता था। प्रारम्भ में उसकी स्थिति कबायली मुखिया जैसी ही थी। कालान्तर में ‘सम्राट’ शब्द का उल्लेख तथा ‘विश्वस्य भुवनस्य राजा’ (सम्पूर्ण संसार का राजा) की अवधारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजपद अत्यन्त गौरवशाली एवं प्रतिष्ठित समझा जाने लगा था।

शतपथ ब्राह्मण में राज्य तथा साम्राज्य में भेद करते हुए साम्राज्य को राज्य से बड़ा बताया गया है (अवरं हि राज्य परम् साम्राज्यम्)। राजा विशाल एवं भव्य राजमहल में निवास करता था। एक स्थान पर ‘सहस्त्र द्वारों वाले गृह’ (सहस्त्रद्वारं गृहं) तथा दूसरे स्थान पर राजप्रासाद को ‘सहस्त्र स्तम्भों वाला सभा स्थान’ कहा गया है।

प्रारम्भ में राष्ट्र की सारी प्रजा मिलकर राजा का चुनाव करती थी परन्तु बाद में यह पद आनुवंशिक (hereditary) हो गया। जे० पी० शर्मा का विचार है कि इस काल के कुछ जनों में गणराज्यात्मक व्यवस्था भी प्रचलित थी। दसवें मण्डल में ‘गणतन्त्रात्मक समिति’ का उल्लेख है।

  • Ancient Indian Republics : J.P.Sharma
  • यत्रौषधीः समग्मत राजानः समिताविव – ऋग्वेद

बलि/राजस्व

राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना था। रक्षा के बदले प्रजा उसे उपहारादि देती थी। ऋग्वेद में बलि शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है। इसका प्रयोग भेंट तथा देवताओं को चढ़ावा के अर्थ में किया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि प्रजा स्वेच्छया इसे राजा को देती थी अथवा यह अनिवार्य कर था। लगता है कि जन के लोग स्वेच्छा से इसे राजा को प्रदान करते थे किन्तु विजित जातियों से यह अनिवार्य रूप से लिया जाता था। ‘बलि’ मुख्यतः अन्न के रूप में दिया जाता था।

पूर्व-वैदिक काल में कोई कर प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी। आवश्यकता होने पर प्रजा स्वेच्छा से राजा को उपहार देती थी जिसको ‘बलि’ कहा गया है।

सामूहिक स्वामित्व

ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था। वह प्रधानतः युद्ध का नेता होता था। वह व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लेता था।

चल सम्पत्ति का स्वामित्व विशाल परिवार अथवा कबीले के पास होता था। अचल सम्पत्ति के रूप में भूमि और गृह ऋग्वैदिक समाज में स्थान प्राप्त न कर पाये थे। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि देवताओं की प्रार्थना करते समय जहाँ चल सम्पत्ति ( अश्व, गाय इत्यादि ) की बारम्बार कामना की गयी है वहीं अचल सम्पत्ति प्राप्त करने की कोई इच्छा व्यक्त नहीं की गयी है। ये तथ्य इस बात को भी इंगित करते हैं कि जीवन में स्थायित्व पुट कम था। मवेशी, दास-दासियों, रथ, अश्व, आदि के दान के उल्लेख तो मिलते हैं परन्तु भूमिदान के नहीं। राजन् को कर्षित भूमि (क्षेत्र) अथवा सामान्य भूमि का रक्षक न कहना भी इसी बात को प्रमाणित करता है। अतः हम कह सकते हैं कि भूमि का स्वामित्व किसी निजी व्यक्ति अथवा छोटे परिवार के हाथों में नहीं अपितु सम्पूर्ण कबीले के पास होना अधिक सम्भव प्रतीत होता हैयही बात चल सम्पत्ति के सम्बन्ध में कहीं जा सकती है

सभा, समिति व विदथ

सभा और समिति नामक दो संस्थायें राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं।

  • ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर सभा का उल्लेख हुआ है किन्तु उनसे उसके कार्यों पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। ऐसा प्रतीत होता है कि सभा कुलीन अथवा वृद्ध / वरिष्ठ मनुष्यों को संस्था थी जिसमें कुलीन व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसकी तुलना आधुनिक ‘राज्यसभा’ से की जा सकती है। इसमें स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते थे। ऋग्वेद में सभा शब्द का प्रयोग ८ बार हुआ है।
  • इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा होती थी जिसमें जन के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे। दूसरे शब्दों में इसमें सभी वयस्क ‘पुरुष’ भाग लेते थे। इसकी तुलना आधुनिक ‘लोकसभा’ से की जा सकती है। समिति का अध्यक्ष ‘ईशान’ कहलाता था। ऋग्वेद में समिति शब्द का प्रयोग ९ बार हुआ है।
  • इन दोनों ही संस्थाओं का शासन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता था। राजा के अभिषेक के लिये भी इनकी सम्मति आवश्यक समझी जाती थी। ऋग्वेद में न केवल राजा तथा समिति के बीच पूर्ण सहमति अपितु समिति के सदस्यों के बीच परस्पर मतैक्य पर भी बल दिया गया है।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्॥ ऋग्वेद ॥

  • आर्यों या ऋग्वेद की सबसे प्रचीन संस्था विदथ थी। ऋग्वेद में विदथ शब्द का प्रयोग १२२ बार हुआ है। विदथ एक ‘विद्वत परिषद’ थी जिसमें ‘स्त्री और पुरुष’ दोनों भाग लेते थे। विदथ में राजा और जन से सम्बन्धित प्रत्येक पहलुओं पर विचार किया जाता था यहाँ तक की लूटपाट के बँटवारे की भी चर्चा की जाती थी।

शासनाधिकारी

ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामिणी, इन तीनों अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। इसे हम मोटे तौर पर ‘मंत्रिपरिषद’ कह सकते हैं। इनको ‘रत्निन’ कहा जाता था। इन तीनों अधिकारियों में पुरोहित की प्रतिष्ठा सर्वाधिक थी उसके बाद सेनानी का स्थान था। उत्तर वैदिक काल में सेनानी की प्रतिष्ठा पुरोहितों की अपेक्षा अधिक देखने को मिलती है।

  • युद्ध के समय पुरोहित राजा के साथ जाता था तथा उसकी विजय के लिये देवताओं से प्रार्थना करता था। शिक्षक, पथ-प्रदर्शक तथा मित्र के रूप में पुरोहित राजा का मुख्य साथी होता था। राजा पुरोहितों का बड़ा सम्मान करते थे। उनका प्रभाव शासन पर भी था। ऋग्वेद में वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि पुरोहितों के नाम मिलते है जिनकी बहुत अधिक प्रतिष्ठा थी।
  • सेनानी, राजा के आदेशानुसार युद्ध में कार्य करता था। शान्तिकाल में सम्भवतः उसे नागरिक कार्यों को भी करना पड़ता था।
  • ग्रामिणी प्रशासनिक और सैनिक कार्यों के लिये ग्राम का नेता होता था। वह ग्रामीण जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करता था।
  • स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है जिनका उपयोग राजा करता था। इसके अतिरिक्त और भी राजकर्मचारी होंगे परन्तु उनका उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता।

सेना

पूर्व-वैदिक काल में किसी स्थायी सेना के अस्तित्व का विवरण नहीं मिलता है। आवश्यकता होने पर अस्थायी सेना ‘मिलिशिया’ का गठन कर लिया जाता था। मिलिशिया के गठन में स्थानीय कबायली टोलियों ( जैसे – व्रत, गण, ग्राम, शण आदि ) की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। ऋग्वेद में कवच तथा दुर्ग का उल्लेख उच्चस्तरीय सैनिक निपुणता का सूचक है।

विधिक और न्याय व्यवस्था

राजा के वैधानिक तथा न्यायिक कार्यो के विषय में ऋग्वेद से कोई सूचना नहीं मिलती है।

इसलिए ऋग्वैदिक काल की विधि तथा न्याय व्यवस्था के विषय में हमें निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है।

न्याय वितरण का कार्य सम्भवतः पुरोहित की सहायता से राजा ही करता था। चोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी आदि अपराधों के उदाहरण मिलते हैं। रात में पशुओं को चोरी एक आम अपराध था। मृत्यु दण्ड की प्रथा नहीं थी। शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे। हत्या करने के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने को प्रथा थी। एक व्यक्ति को ‘शतदाय’ कहा गया है। क्योंकि उसके जान की कीमत सौ गायें थी। अपराधी को खूँटे से बाँधे जाने का भी उल्लेख मिलता है।

यद्यपि कुछ शब्दों का उल्लेख मिलता है जो कि न्याय प्रणाली की आद्य अवस्था की सूचना अवश्य देता है :

  • उग्र – रक्षक / पुलिस
  • जीवगृभ – अपराधी
  • स्पश – गुप्तचर

ऋग्वैदिक राज्य

ऋग्वैदिक काल में गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक दोनों प्रकार के शासन प्रणाली की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ जो प्रमुख जनों के नाम मिलते हैं वे इस प्रकार हैं :

  • पंचजन – पुरू, यदु, अणु, द्रुह्यु, तुर्वस
  • अनिल, पख्त, भालन, शिबि, विशानिन्
  • अजय, सिगरू, यक्षु
  • भरत जन

भरत जन के लोग ऋग्वैदिक काल में सबसे महत्त्वपूर्ण थे। इनके नाम पर ही हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। भरत जन सरस्वती और यमुना के बीच बसे हुए थे।

पुरू कुरुक्षेत्र क्षेत्र के आसपास बसे हुए थे। त्रित्सु रावी के पूर्व में बसे हुए थे। अनिल, पख्त, भालन और शिबि सिंधु नदी के पश्चिम में काबुल नदी तक बसे हुए थे।

यह बात उल्लेखनीय है कि दस राजाओं के युद्ध में जो १० राजा सुदास के विरुध्द लड़े थे उसमें – पञ्चजन ( आर्य ) और पाँच अनार्य राजा ( अनिल, पख्त, भालन, शिबि और विशानिन् ) सम्मिलित हुए थे।

युद्ध

ऋग्वेद का सरसरी तौर पर अध्ययन करने से भी एक बात स्पष्टरूप से उभर कर सामने आती है और वह यह कि तत्कालीन वातावरण में युद्धों, आक्रमणों एवं जनसंहार का बोलबाला था। जातियों के आंतरिक एवं अंतर्जातीय युद्धों के अनेक उदाहरण इस संहिता में यत्र-तत्र बिखरे हुए मिलते हैं। स्वयं ‘दशराज्ञ युद्ध’ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रकीर्ण उल्लेखों ( बिखरे हुए विवरणों ) से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में दस नहीं अपितु तीस से भी अधिक राजाओं ने भाग लिया था। इस प्रकार की सर्वव्यापी युद्धरतता से एक निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि वे लोग कोई विशेष स्थायी जीवन-यापन नहीं कर रहे थे। इसकी पुष्टि जीवन के अन्य पहलुओं के पर्यवेक्षण से भी ही जाती है।

  • सातवाँ मण्डल; ऋग्वेद।

पूर्व-वैदिक काल में युद्ध का बोलबाला था। ऋग्वैदिक जन परस्पर संघर्षरत रहते थे। इसमें से कुछ प्रमुख युद्ध इस प्रकार हैं :

  • हरियूपिया का युद्ध
  • दशराज्ञ युद्ध

हरियूपिया का युद्ध

पूर्व-वैदिक काल का एक प्रमुख युद्ध था – हरियूपिया का युद्ध। यह युद्ध ‘यव्वावती नदी’ के तट पर लड़ा गया था। इस युद्ध में एक तरफ ‘शृंजय जन’ और दूसरी ओर ‘तुर्वसु व व्रीचिवृश’ की संयुक्त सेना थी। पश्चिम से आने वाली शृंजय जन इस युद्ध में विजयी रही थी।

आर्य आक्रमण सिद्धान्त के पैरोकार हरियूपिया का साम्य हड़प्पा करके अपने मत को पुष्ट करने का निरर्थक प्रयास करते रहे हैं। परन्तु अब यह मत बहुत विवादास्पद है।

दशराज्ञ युद्ध

स्थान – परुष्णी नदी ( रावी नदी )

उल्लेख – ऋग्वेद के ७वें मण्डल में

मूल कारण – राज्य विस्तार

तात्कालिक कारण – पुरोहित का बदला जाना

पक्षकार – सुदास ⚔️ दस राजा

ऋग्वेद में एक स्थान पर दस राजाओं के युद्ध (दशराज्ञ युद्ध) का उल्लेख हुआ है जो भरतों के राजा सुदास के साथ हुआ था। सुदास त्रित्सु कुल के भरतवंशी राजा थे। सुदास ने अपने पुरोहित विश्वामित्र को हटाकर वशिष्ठ को अपना पुरोहित नियुक्त किया।

नाराज विश्वामित्र ने दस राजाओं का संघ बनाकर सुदास के विरुध्द युद्ध करवाया था। इस तरह जहाँ इस युद्ध प्रमुख कारण राज्य विस्तार था वहीं दूसरा कारण वशिष्ठ और विश्वामित्र के पौरोहित्य का संघर्ष भी था।

दस राजाओं का सुदास के विरुध्द जो संघ बना उसमें शामिल थे –

  • पाँच आर्य राजा – पुरू, यदु, अणु, द्रुह्यु और तुर्वस। ( इनको पंचजन भी कहा जाता है। )
  • पाँच अनार्य राजा – अनिल, पख्त, भालन, शिबि और विशानिन्।

ऋषि विश्वामित्र इस संघ के पुरोहित थे। यह युद्ध पश्चिमोत्तर प्रदेश में बसे हुए पूर्वकालीन जन तथा ब्रह्मावर्त के उत्तरकालीन आर्यों के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न पर लड़ा गया था। इसमें भरत जन के स्वामी सुदास ने रावी नदी ( परुष्णी ) के तट पर एक भीषण युद्ध में इस राजाओं के इस संघ को परास्त किया और इस प्रकार वह ऋग्वैदिककालीन भारत का सर्वोपरि सम्राट बन गया। भरतवंशी जन सरस्वती व यमुना के बीच बसे हुए थे। इस युद्ध में विजय के बाद उसका साम्राज्य सरस्वती से रावी तक विस्तृत हो गया।

भरत जन के नाम पर ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा। यह ऋग्वैदिक काल का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जन था जो सरस्वती तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश में निवास करता था।

पशुधन और युद्ध

ऋग्वेद में लोगों की युद्धरतता के समान ही एक बात यह भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है कि लोगों के भौतिक जीवन में ‘पशुचारण’ का विशेष महत्त्व था। वस्तुतः जीवन के उपर्युक्त दोनों पहलू एक-दूसरे के इतने अधिक पूरक थे कि ‘गविष्टि’ अर्थात् ‘गायों की गवेषणा’ ही युद्ध का पर्याय माना जाता था। इसी प्रकार गवेषण, गोषु, गव्य, गभ्य, आदि सभी शब्द युद्ध के लिये प्रयुक्त होते थे।

पशुओं के लिये युद्ध करना कबायली संगठनों के सन्दर्भ में काफी तर्कसंगत लगता है और यह उसकी एक विशेषता भी मानी गयी है। पशु ही सम्पत्ति का मुख्य अंग और मूलतः दक्षिणा की वस्तु समझे जाते थे। एक स्थान पर तो स्वयं देवताओं को भी गायों से उत्पन्न हुआ बताया गया है।

ऋग्वेद; चतुर्थ मण्डल, ५०वाँ सूक्त, ११वाँ श्लोक

“ते नो रायो द्युमतो वाजवतो दातारो भूत नृवतः पुरुक्षोः।

दशस्यन्तो दिव्याः पार्थिवासो गोजाता अपर्याप्त मृळता च देवाः॥”

हिन्दी – हे देवों! हमें दीप्तिसम्पन्न, बलयुक्त और संतानसहित एवं बहुतों के द्वारा प्रशंसा-योग्य धन दो। स्वर्ग में रहने वाले, धरती पर रहने वाले, गाय से उत्पन्न और जल से उत्पन्न देवगण हमारी इच्छा पूर्ण करें॥

 

कृषि क्षेत्रों के अतिक्रमण की अपेक्षा मवेशियों का हरण या चोरी कहीं अधिक गम्भीर समस्या थी। लोग पणियों से डरते थे क्योंकि वे मवेशियों के चोरी करने के अतिरिक्त पशु सम्पत्ति की दृष्टि से भी अत्यन्त सम्पन्न थे।

‘रयि’ (सम्पत्ति) की गणना मुख्यतः मवेशियों से ही होती थी। बार-बार मंत्रों में देवताओं की स्तुति करते हुए पशु-सम्पदा पाने की माँग की गयी है। गायों के अतिरिक्त बकरियाँ, भेड़ें एवं घोड़े भी पाले जाते थे। पशुचारण सामूहिक रूप से किया जाता था और ऋग्वेद के मूल भाग में भी ऐसे अनेकों उल्लेख हैं जिसमें पशु-संपदा की सामूहिकता और उसके समान वितरण का वर्णन मिलता है।

सामूहिकता का वर्णन

अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्।

सदावन्भागमीमहे॥

(प्रथम मण्डल, २४वाँ सूक्त, तृतीय श्लोक)

हिन्दी – हे सदा रक्षा करने वाले सूर्य देव ! तुम उत्तम धन के स्वामी हो। इसलिए मैं तुमसे उपभोग करने योग्य धन मांगता हूं।

 

विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ।

सद्यो दाशुषे क्षरसि॥

(प्रथम मण्डल, २७वाँ सूक्त, षष्ठम् श्लोक)

हिन्दी – हे विलक्षण प्रकाश वाले अग्नि देव ! जिस प्रकार सिंधु की लहरें जल को सभी पर्वतों, नालियों आदि में भर देती हैं, उसी प्रकार आप भी लोगों में धन का विभाग करने वाले हो। द्रव्य देने वाले यजमान को आप कर्म का फल शीघ्र दो।

 

वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे।

अस्मभ्यमिन्द्र वरिवः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन्वृष्ण्या रुज॥

(प्रथम मण्डल, १०२वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक)

हिन्दी – हे इंद्र ! आपको सहायक पाकर हम स्तोता शत्रु को विजित कर लेंगे। संग्राम में हमारे भाग की रक्षा करो। हे मघवान् ! हमें धन सुलभ कराओ और शत्रुओं की शक्ति बाधित करो।

 

अस्मभ्यं तद्वसो दानाय राधः समर्थयस्व बहु ते वसव्यम्।

इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

(द्वितीय मण्डल, १४वाँ सूक्त, १२वाँ श्लोक)

हिन्दी – हे निवासदाता इंद्र! हमें दानादि के लिए अपना पर्याप्त, विचित्र एवं शरण लेने योग्य धन प्रदान करो। हम प्रतिदिन उस धन के भोगने के इच्छुक हैं। हम उत्तम पुत्र एवं पौत्र प्राप्त करके इस यज्ञ में बहुत सी स्तुतियों का पाठ करेंगे॥

 

अक्रो न बभिः समिथे महीनां दिदृक्षेयः सूनवे भाऋजीक:।

उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः॥

(तृतीय मण्डल, दूसरा सूक्त, १२वाँ श्लोक )

हिन्दी – संपूर्ण लोक के जनक, जल के गर्भ के समान, मानवों के परम रक्षक, महान्, शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले, संग्राम में अपनी विशाल सेनाओं के रक्षक, परम सुंदर एवं अपनी ज्योति से प्रकाशमान अग्नि ने यजमान के लिए जल पैदा किया है॥

 

वपुर्नु तच्चिकितुषे चिदस्तु समानं नाम धेनु पत्यमानम्

मर्तेष्वन्यद्दोहसे पीपाय सकृच्छुक्रं दुदुहे पृश्निरूधः॥

(षष्ठम् मण्डल, ६६वाँ सूक्त, प्रथम श्लोक)

हिन्दी – विद्वान् स्तोता के सामने मरुतों का परस्पर समान, अतिशय स्थिर, प्रसन्न करने वाला एवं सर्वदा गतिशीलरूप शीघ्र प्रकट हो। वह रूप मर्त्यलोक में वनस्पति के रूप में अभिलाषा पूरी करने को प्रकट होता है एवं वर्ष में एक बार आकाश से सफेद रंग का जल टपकाता है॥

 

तुरण्यवोऽङ्गिरसो नक्षन्त रत्नं देवस्य सवितुरियानाः।

पिता च तन्नो महान् यजत्रो विश्वे देवाः समनसो जुषन्त॥

(सप्तम् मण्डल, ५२वाँ सूक्त, तृतीय श्लोक )

हिन्दी – शीघ्रता करने वाले अंगिराओं ने सविता देव से याचना करके उनका जो रमणीय धन प्राप्त किया था, वसिष्ठ के पिता महान् यज्ञशील वरुण एवं अन्य समस्त देव समान रूप से प्रसन्न होकर वही धन हमें दें॥

 

मा वो दात्रान्मरुतो निरराम मा पश्चाद्दघ्म रथ्यो विभागे।

आ नः स्पार्हे भजतना वसव्ये३ यदीं सुजातं वृषणो वो अस्ति॥

(सप्तम् मण्डल, ५६वाँ सूक्त, २१वाँ श्लोक )

हिन्दी – हे मरुतो ! हम तुम्हारे दान की सीमा से बाहर न रहें. हे रथस्वामी मरुतो ! धन बांटते समय हमें पीछे मत रखना एवं चाहने योग्य धनों का स्वामी बनाना। हे अभिलाषापूरक मरुतो! तुम हमें अपने शोभन उत्पत्ति वाले धन का भागी बनाना॥

 

अन्तिवामा दूरे अमित्रमुच्छोर्वी गव्यूतिमभयं कृधी नः।

यावय द्वेष आ भरा वसूनि चोदय राधो गृणते मघोनि॥

(सप्तम् मण्डल, ७७वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक )

हिन्दी – हे उषा ! तुम हमारे समीप धनयुक्त एवं शत्रु को दूर करती हुई प्रकाश करो . हमारी विस्तृत गोचर धरती को भयरहित बनाओ। शत्रुओं को अलग करो एवं शत्रुओं के धन हमें दो. हे धनस्वामिनी उषा! स्तोता के पास आने के लिए धन को प्रेरणा दो॥

 

सामाजिक व्यवस्था

परिवार

ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार था। परिवार पितृसत्तात्मक ( patriarchal ) होता था जिसमें पिता अथवा बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था। परन्तु यह भी ध्यान रखने की बात है कि महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी थी, यहाँ तक कि भारतीय इतिहास में सबसे अच्छी मानी जाती है। ऋग्वेद में एक स्थान पर ‘जायेदस्तम्’ शब्द का प्रयोग मिलता है जिसका अर्थ है –“पत्नी ही गृह है।”

ऋग्वेद में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि पिता के अधिकार असीमित होते थे। वह परिवार के सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था। एक स्थान पर ऋग्वेद में ऋज्रास्व का उल्लेख है जिसके पिता ने उसे अन्धा बना दिया था। ऋग्वेद के वरुण सूक्त के शुनःशेप के आख्यान से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पिता अपनी सन्तान को बेच सकता था। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता और पारिवारिक सदस्यों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण होते थे। ऐसे उद्धरणों को अपवादस्वरूप ही समझना चाहिए। पिता परिवार के सदस्यों के सुख-दुःख का पूरा ख्याल रखता था। हाँ, इतना अवश्य था कि राज्य पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था

संयुक्त परिवार की प्रथा थी। परिवार बहुत बड़े होते थे जिसमें मातृ और पितृ दोनों पक्षों के लोग साथ-साथ रहते थे। ‘नप्तृ’ शब्द चाचा-चाची, नाना-नानी आदि सम्बन्धों के लिए प्रयुक्त होता था। परिवार में वधू की विशेष महत्ता थी। वर-वधू को सम्मिलित रूप से ‘अर्ध्य’ कहा जाता था।

ऋग्वेद के ‘विवाह सूक्त’ से ज्ञात होता है कि नवविवाहिता वधू अपने पति के घर में सास, ससुर, देवर, ननद के ऊपर अधिकार रखने वाली साम्राज्ञी बन जाती थी।

  • दशम् मण्डल; ८५वाँ सूक्त।

समाज में दो तरह के विवाह प्रचलित थे :-

  • अनुलोम विवाह – इसमें पुरुष उच्चवर्णीय और स्त्री निम्नवर्णीय होती थी।
  • प्रतिलोम विवाह – इसमें पुरुष निम्नवर्णीय और महिला उच्चवर्णीय होती थी।

जो महिलाएँ आजीवन अविवाहित रहती थीं उनको ‘अमाजू’ कहा जाता था।

ब्राह्मण अपने को किसी न किसी आदि ऋषि को सन्तान मानते थे। इनमें कल्पित वंश की ‘गोत्र’ कहा जाता था जिनकी संख्या मूलत सातमिलती है – भार्गव, आंगिरस, अत्रिय, काश्यप, वशिष्ठ, आगस्त्य तथा कौशिक।

पिता के अधिकार

जैसे निर्वाह अर्थव्यवस्था ने काफी हद तक कबायली सामंजस्य को बढ़ावा दिया, उसी प्रकार पशुचारण की प्रधानता ने पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के निर्माण में सहायता दी। ऐसी मान्यता है कि कृषिप्रधान समाजों में मातृत्व का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, जबकि पशुचारण के बल पर जीवन-यापन करने वाले समाजों में पुरुषों को अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त होता है। शुनःशेप, ऋजाश्व१० एवं दिवालिए जुआरी११ के दृष्टांतों से स्पष्ट हो जाता है कि परिवार में पुरुष मुखिया का पूर्ण नियंत्रण था।

  • शुनःशेप आख्यान : प्रथम मण्डल, २४वाँ सूक्त, १२ से १५ श्लोक।
  • ऋजाश्व आख्यान : प्रथम मण्डल, ११६वाँ सूक्त, १८वाँ श्लोक।१०
  • दीवालिआ जुआरी की कथा : दशम् मण्डल, ३४वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक।११

दशम् मण्डल, ३४वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक : दिवालिये जुआरी का वर्णन

 

१.    प्रावेपामा बृहतो मादयन्ति प्रवातेजा इरिणे वर्वृतानाः।

सोमस्येव मौजवतस्य भक्षो विभीदको जागृविर्मह्यमच्छान्॥

हिन्दी – प्रवण देश में उत्पन्न बड़े-बड़े पासे जुआ खेलने के तख्ते पर इधर-उधर बिखरते हुए मुझे आनंदित करते हैं। जीत-हार में हर्ष-शोक जगाने वाला पासा मुझे उसी प्रकार सुख देता है, जिस प्रकार मुंजवान् पर्वत पर उत्पन्न सोमलता का रस पीकर सुख मिलता है॥

 

२.    न मा मिमेथ न जिहीळ एषा शिवा सखिभ्य उत मह्यमासीत्।

अक्षस्याहमेकपरस्य हेतोरनुव्रतामप जायामरोधम्॥

हिन्दी – यह पत्नी न मुझसे कभी अप्रसन्न हुई और न इसने कभी मुझसे लज्जा की। यह मेरे मित्रों और मेरे प्रति सुखकारी थी। इस प्रकार सर्वथा अनुकूल पत्नी को भी मैंने एकमात्र पासों के कारण त्याग दिया॥

 

३.    वारुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितारम्।

अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम्॥

हिन्दी – सास जुआ खेलने वाले की निंदा करती है एवं पत्नी उसे छोड़ जाती है। यदि वह धन माँगे तो उसे कोई देने वाला नहीं मिलता। जिस प्रकार बूढ़े घोड़े का कुछ भी मूल्य नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ जुआरी का कहीं आदर नहीं होता॥

 

४.    अन्ये जायां परि मृशन्त्यस्य यस्यागृधद्वेदने वाज्य१क्षः।

पिता माता भ्रातर एनमाहुर्न जानीमो नयता बद्धमेतम्॥

हिन्दी – शक्तिशाली पासे जिस जुआरी के धन को लालच की दृष्टि से देखते है, उसकी व्याभिचारिणी पत्नी का दूसरे लोग स्पर्श करते हैं। जुआरी के माता, पिता एवं भाई कर्ज माँगने वालों से कहते हैं — “हम इसे नहीं जानते। इसे बाँधकर ले जाओ॥”

 

५.    यदादीध्ये न दविषाण्येभिः परायद्भ्योऽव हीये सखिभ्यः।

न्युप्ताश्च बभ्रवो वाचमक्रतँ एमीदेषां निष्कृतं जारिणीव॥

हिन्दी – जब मैं निश्चय कर लेता हूँ कि जुआ न खेलूँगा, तब मैं आए हुए जुआरी मित्रों को त्याग देता हूँ। परन्तु जब जुआ खेलने के पर फेंके हुए पीले रंग वाले पासे शब्द करते हैं,तब मैं उस स्थान की ओर ऐसे चला जाता हूँ, जैसे व्याभिचारिणी स्त्री संकेत स्थान पर पहुँच जाती है॥

 

६.    सभामेति कितवः पृच्छमानो जेष्यामीति तन्वा३ शूशुजानः।

अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीव्ने दधत आ कृतानि॥

हिन्दी – जुआरी शरीर से दीप्त होकर एवं यह कहता हुआ जुआघर में जाता है कि कौन धन वाला आया है? मैं उसे जीतूंगा। कभी-कभी पासे जुआरी की कामना पूरी करते हैं और कभी उसके विरोधी जुआरी के अनुकूल कर्म धारण करके उसकी इच्छा पूरी करते हैं॥

 

७.    अक्षास इदङ्कुशिनो नितोदिनो निकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णवः।

कुमारदेष्णा जयतः पुनर्हणो मध्वा सम्पृक्ताः कितवस्य बर्हणा॥

हिन्दी – कभी-कभी पासे अंकुश के समान चुभने वाले, हृदय को टुकड़े-टुकड़े करने वाले एवं गरम पदार्थ के समान जलाने वाले बन जाते हैं। पासे जीतने वाले जुआरी के लिए पुत्रजन्म के समान आनंददाता एवं मधु से लिपटे हुए लगते हैं, पर हारने वाले की तो जान निकाल लेते हैं॥

 

८.    त्रिपञ्चाशः क्रीळति व्रात एषां देवइव सविता सत्यधर्मा।

उग्रस्य चिन्मन्यवे ना नमन्ते राजा चिदेभ्यो नम इत्कृणोति॥

हिन्दी – सच्चे धर्म वाले सविता देव जिस प्रकार आकाश में विचरण करते हैं, उसी प्रकार तिरेपन पासे जुआ खेलने के तख्ते पर क्रीड़ा करते हैं। ये पासे उग्र एवं क्रोधी के भी वश में नहीं आते। राजा तक इन पासों के सामने झुकता है॥

 

९.    नीचा वर्तन्त उपरि स्फुरन्त्यहस्तासो हस्तवन्तं सहन्ते।

दिव्या अङ्गारा इरिणे न्युप्ताः शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति॥

हिन्दी – पासे कभी नीचे गिरते हैं और कभी ऊपर उछलते हैं। ये बिना हाथ के होकर भी हाथवालों को पराजित करते हैं। ये दिव्य पासे जुआ खेलने के तख्ते पर फेंके जाते समय अंगार बन जाते हैं। ये छूने में ठंडे हैं, पर हारने वाले के मन को जलाते हैं॥

 

१०. जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्व स्वित्।

ऋणावा बिभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुप नक्तमेति॥

हिन्दी – अनिश्चित स्थान में घूमने वाले जुआरी की पत्नी उसके बिना दुःखी होती है एवं माता परेशान रहती है। दूसरों का कर्ज चढ़ जाने से जुआरी डरता है। वह दूसरों के धन को चुराने की इच्छा करता है। रात में घर आता है॥

 

११. स्त्रियं दृष्ट्वाय कितवं ततापान्येषां जायां सुकृतं च योनिम्।

पूर्वाह्णे अश्वान्युयुजे हि बभ्रून्त्सो अग्नेरन्ते वृषलः पपाद॥

हिन्दी – जुआरी दूसरों की सुखी पत्नियों और अच्छी प्रकार बने हुए घरों को देखकर दुःखी होता है। जो जुआरी सवेरे के समय पीले रंग के घोड़े पर बैठता है, वही शाम को कपड़ों के अभाव में शीत से व्याकुल होकर आग पास सोता है॥

 

१२. यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो बभूव।

तस्मै कृणोमि न धना रुणध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि॥

हिन्दी – हे पासो ! तुम्हारे समूह का जो सेनापति राजा एवं प्रमुख है, मैं उसके लिए नमस्कार करता हूं। मैं दसों उंगलियों से हाथ जोड़कर सत्य कहता हूँ कि भविष्य में मैं जुए से धन नहीं कमाऊंगा॥

 

१३. अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः।

तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः॥

हिन्दी – हे जुआरी ! मेरी बात को महत्त्वपूर्ण समझकर तुम पासों से मत खेलो। खेती से जो धन मिले, उसीको बहुत मानकर प्रसन्न रहो। खेती से बहुत सी गाएँ एवं पत्नी प्राप्त होगी, सविता स्वामी ने मुझसे ऐसा कहा है॥

 

१४. मित्रं कृणुध्वं खलु मृळता नो मा नो घोरेण चरताभि धृष्णु।

नि वो नु मन्युर्विशतामरातिरन्यो बभ्रूणां प्रसितौ न्वस्तु॥

हिन्दी – हे पासो ! हमें अपना मित्र बना लो एवं हमें सुखी करो तुम हमारे ऊपर अपने भयंकर तथा असह्य प्रभाव का प्रयोग मत करो। तुम्हारा क्रोध हमारे शत्रुओं में प्रवेश करे। शत्रु तुम पीले रंग वाले पासों के बंधन में शीघ्र आ जावें॥

इसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि स्त्रियों का आदर नहीं होता था वस्तुतः विश्पला तथा मुद्गलानी जैसी तत्कालीन प्रसिद्ध नारियों के तो नामों का भी उल्लेख है। परन्तु फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि पुत्रजन्म एक वरदान माना जाता था। वीर-पुत्र की कामना तत्कालीन युद्धरत समाज में स्वाभाविक भी था।

कुल, नप्तृ और चल-अचल सम्पत्ति

एक पत्नी वाले पितृात्मक परिवार की अवधारणा के चिह्न भी कम ही दृष्टिगोचर होते है – कुल शब्द का कोई उल्लेख नहीं है जबकि, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कबायली एवं सामूहिक जीवन इंगित करने वाले जन ( २७५ ) एवं विश ( १७१ ) शब्दों का प्रयोग सैकड़ों बार हुआ है।

परिवार की परिकल्पना अत्यन्त विशद प्रतीत होती है। अनेक आर्य बोलियों में केवल माता, पिता, भाई, बहन तथा पुत्र और पुत्री के लिए ही स्वतन्त्र शब्द मिलते हैं; जबकि भतीजे, प्रपौत्र, चचेरे भाई-बहिन, आदि सभी के लिए नप्तृ शब्द का प्रयोग मिलता है।

इसका अर्थ यह हुआ कि एक पत्नी विवाह पर आधारित कुल सामान्य बात नहीं थी। परिवार में कई पीढ़ियों और समपार्श्विक शाखाएँ भी सम्मिलित थीं। नाना, दादा, नाती, पोते, आदि सभी के लिए नप्तृ के प्रयोग से लगता है कि सभी एक साथ रहते थे

चल सम्पत्ति का जो स्वरूप था वह इसी विशाल परिवार अथवा कबीले के पास था। अचल सम्पत्ति के रूप में भूमि एवं गृह अभी स्थान प्राप्त न कर पाये थे। देवताओं की स्तुति करते समय इस प्रकार की सम्पदा प्राप्त करने की कोई इच्छा व्यक्त नहीं की गयी है। ये तथ्य भी इस ओर संकेत करते हैं कि जीवन में स्थायित्व का पुट कम था। मवेशी, दास, रथ, अश्व, आदि के दान के उल्लेख तो मिलते हैं परन्तु भूमिदान के नहीं। न ही राजन् को कर्षित भूमि (क्षेत्र) अथवा सामान्य भूमि का रक्षक बताया गया है। अतः भूमि का स्वामित्व किसी निजी व्यक्ति अथवा छोटे परिवार के हाथों में नहीं अपितु सम्पूर्ण कबीले के पास होना अधिक सम्भव प्रतीत होता है।

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वैदिक समाज प्रारम्भ में वर्ग-विभेद से रहित था। सभी व्यक्ति ‘जन’ के सदस्य समझे जाते थे तथा सबकी समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी।

जन के निर्माण के पूर्व के लोगों को ‘अर्य’ तथा ‘कृष्टि’ अथवा ‘चर्षणि’ कहा गया है।

  • अर्य का शाब्दिक अर्थ उत्पादन सामर्थ्य होता है किन्तु भारतीय संदर्भ में इससे तात्पर्य सामान्य जन से है।
  • चर्षणि शब्द प्रारम्भ में यायावर या घुमक्कड़ प्रजा का द्योतक था।
  • जब स्थायी निवास प्रारम्भ हो गया तब प्रजा को कृष्टि कहा गया।
  • इस प्रकार जब आर्य संचरणशील थे तो उन्हें ‘चर्षणि’ तथा जब वे कर्षणशील बने तो उनके लिये ‘कृष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया। इसमें सभी प्रकार के लोग सम्मिलित थे।

ऋग्वेद में वर्ण शब्द रंग के अर्थ में तथा कहीं-कहीं व्यवसाय चयन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आर्यों को गौर वर्ण तथा दासों को कृष्ण वर्ण का कहा गया है। प्रारम्भ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते हैं –

  • ब्रह्म,
  • क्षत्र तथा
  • विश।

जब आर्य भारत में आये तब उन्हें अनार्यों से संघर्ष करना पड़ा। इसके लिये कुछ ऐसे योद्धाओं को आवश्यकता हुई जो असुरों से उनकी रक्षा कर सकें। इस कार्य के लिये उन्होंने अपने में से कुछ उत्साही वीरों को चुना और उन्हें ‘क्षत्र’ नाम दिया। क्षत्र का अर्थ है – ‘क्षत् अर्थात् हानि से रक्षा करने वाला।’

ऋग्वेद में क्षत्र शब्द का प्रयोग ‘सैन्य बल’ तथा ‘राज्य क्षेत्र’ जबकि ‘क्षत्रिय’ का प्रयोग उसमें निवास करने वालों के लिये हुआ है। नायक तथा योद्धाओं को भी क्षत्रिय कहा गया है।

इसी तरह यज्ञों को कराने के लिये जो व्यक्ति चुने गये उन्हें ‘ब्रह्म’ कहा गया। यह विद्वान् तथा गुणवान् लोगों का वर्ग था। कहीं-कहीं ब्राह्मण शब्द का प्रयोग ‘पुरोहित’ के लिये भी मिलता है।

शेष जनता को ‘विश’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। ऋग्वेद में ‘विश्’ शब्द का उल्लेख विविध अर्थों, जैसे – जनजातीय समुदाय, सन्निवेश, मनुष्यों के समूह, सामान्य प्रजा आदि में किया गया है। आर० एस० शर्मा का विचार है कि इससे ( विश ) तात्पर्य संचरणशील जनजाति से है जो चारागाहों की खोज में सदा भ्रमण करती रहती थी। कालान्तर में यह उत्पादन की प्रक्रिया से सम्बद्ध हो गयी।

परन्तु यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि इन तीनों वर्णों में कोई कठोरता नहीं थी। एक ही परिवार के लोग ब्रह्म, क्षत्र या विश हो सकते थे।

ऐसा प्रतीत होता कि आर्यों ने अनार्यों को परास्त कर अपने सामाजिक संगठन में उन्हें स्थान दिया और इस प्रकार कालान्तर में एक चौथा वर्ण ‘शूद्र’ नाम से समाज में उत्पन्न हो गया। प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि शूद्र वर्ण के अन्तर्गत केवल अनार्य वर्ण के लोग ही सम्मिलित थे। किन्तु इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है।

आर० एस० शर्मा ने अपनी कृति ‘शुद्रों का प्राचीन इतिहास’ में शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के ऊपर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हुए यह प्रतिपादित किया है कि वस्तुतः इस वर्ग में आर्य तथा अनार्य दोनों ही वर्गों के लोग सम्मिलित थे। आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के फलस्वरूप दोनों ही वर्णों में श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। बाद में सभी श्रमिकों की सामान्य संज्ञा ‘शूद्र’ हो गयी। आर्य शिल्पियों के वंशज भी, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में लगे रहे, शूद्र समझे गये।

ऋग्वेद में उल्लिखित दास-दस्युओं की स्थिति भी इसी प्रकार की रही होगी। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुषसूक्त में हमें सर्वप्रथम ‘शूद्र’ शब्द मिलता है। यहाँ चारों वर्णों को उत्पत्ति एक ‘विराट’ पुरुष के विभिन्न अङ्गों से बतायी गयी है। यह कहा गया है कि जब देवताओं ने विराट पुरुष की बलि दी तो –

“उसके मुख भाग से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय), उरु भाग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुये।”१२ यह वर्ण व्यवस्था का प्राचीनतम्उल्लेख है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद् बाहु राजन्यः कृत।

उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्याम् शूद्रो अजायत्॥१२

दशम् मण्डल, पुरुषसूक्त; ऋग्वेद।

परन्तु इस समय भी वर्णों में जटिलता नहीं आयी थी और वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित होते थे। व्यवसाय परिवर्तन सम्भव था। ऋग्वेद के एक स्थान पर एक ऋषि कहते हैं –

“मैं कवि हूँ। मेरा पिता वैद्य है तथा मेरी माता अन्न पीसने वाली है। साधन भिन्न हैं परन्तु सभी धन की कामना करते हैं।” १३

कारुरहं ततोभिषगुलपल प्रक्षिणी नना।

ननाधियो वसूयवोऽनु गा इव तस्थिमेन्द्रायेन्द्रो परिस्रव॥१३

नवम् मण्डल, ऋग्वेद।

अतः स्पष्ट है कि व्यवसाय आनुवंशिक नहीं थे तथा जाति-व्यवस्था का जो संकीर्ण रूप हमें कालान्तर में देखने को मिलता है उससे ऋग्वैदिक समाज निश्चय ही अछूता था।

निर्वाह अर्थव्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, सामाजिक विभेद, अधिशेष उत्पादन का अभाव

ऋग्वेद के अनुशीलन से केवल ‘निर्वाह अर्थव्यवस्था’ का ही आभास मिलता है, अतः उसकी तार्किक परिणति सुगठित कबायली सामाजिक संगठन ही था। समाज का ऐसा विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता कि एक विशेष वर्ग उत्पादक हो और दूसरा उत्पादन का नियंत्रणकर्ता। परवर्तीकालीन पुरुष सूक्त१४ के आधार पर ऋग्वैदिक काल के आरम्भ से ही ब्राह्मण, राजन्य (क्षत्रिय), वैश्य एवं शूद्र रूपी चातुर्वण्य समाज की कल्पना भी की गयी। इस सूक्त में इन चारों वर्णों की उत्पत्ति आदि पुरुष के भिन्न-भिन्न अंगों से बतायी गयी है। यह तो हुई वर्ण-व्यवस्था की तथाकथित दैविक उत्पत्ति।

वर्ण व्यवस्था का दैवी सिद्धान्त१४

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥

(दशम् मण्डल, ९०वाँ सूक्त, १२वाँ श्लोक)

हिन्दी – ब्राह्मण इनका मुख हुआ. क्षत्रिय को भुजाएँ बनाया गया। इनकी दोनों जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए॥

परन्तु यदि वर्ण-व्यवस्था का अर्थ उत्पादन-पद्धति द्वारा सर्जित एक ऐसी सामाजिक संरचना से लगाया जाये, जिसमें पुरोहित एवं कुलीन वर्गीय योद्धाओं के रूप में ऊँची श्रेणियों के लोग उत्पादन के नियंत्रणकर्ता तथा अधिशेष उत्पादन के संग्रहकर्ता थे, तथा निम्न श्रेणी में आने वाले किसान, कारीगर, कृषि श्रमिक आदि ही उत्पादन का कार्य करते थे, तो इस प्रकार का चित्र ऋग्वेद में दृष्टिगोचर नहीं होता।

कबायली समाजों में भोजन के उत्पादक अथवा संग्रहकर्ता ही उसके भोक्ता भी होते हैं। इन समाजों में बिचौलियों का कोई स्थान नहीं होता। ऋग्वेद में जन, विश्, गण, व्रात, सार्ध, आदि जिन इकाइयों का उल्लेख है, वे सभी ‘भाईचारा वाले सिद्धांत’ पर आधारित थी और कबायली संगठन की ओर संकेत करती हैं। जन एवं विश् की तुलना में गृह कोई महत्त्वपूर्ण उत्पादक इकाई नहीं थी

ऋग्वैदिक लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते थे और इस प्रवासी प्रक्रिया में वे अपनी पशु-संपदा को भी लेकर चलते होंगे। यही कारण है कि विश् को आधार मानकर अनेक उपसर्ग जोड़कर; यथा – आ-विश्, उप-विश्, नि-विश्, प्र-विश्, पुनर-विश् आदि अभिव्यक्तियों के द्वारा लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवेश, पुनः प्रवेश, संस्थापन, आदि का उल्लेख ऋग्वेद में प्रायः मिलता है।

परवर्तीकालीन वर्ण-व्यवस्था के चिह्न भी दृष्टिगोचर नहीं होते१५ — यह बात इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि केवल इतना ही नहीं है कि तथाकथित निम्न वर्ग अर्थात् शूद्रों पर किसी तरह की अपात्रताएँ नहीं लगायी गयी थीं, अपितु समाज के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया था। कोई भी विशेषाधिकार संपन्न वर्ग न था — यहाँ तक कि राजन् भी संपूर्ण कबीले में अन्य लोगों के समान ही था — ‘यो वः सेनानी महतो गणस्य राजा वातस्य प्रथमो बभूव।’१६

  • रामशरण शर्मा कृत ‘Conflict, Distribution and Differntiation in Rigvedic Society’, Indian Historical Review, Volume -४, खंड – १, जुलाई १९७७ ।१५
  • ‘यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य प्रथमो बभूय। तस्मै कृस्णोमि न धना रुणाध्मि दशाहं प्राचीस्तदृतं वदामि॥१०वाँ मण्डल, ३४वाँ सूक्त, १२वाँ श्लोक॥१६

परन्तु इसका या कतई अर्थ नहीं है कि ऋग्वैदिक समाज एक समतावादी अथवा वर्णविहीन समाज था। इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि युद्ध में लूट का बड़ा भाग कबीले के मुखिया व उनके पुरोहितों को मिलता था — क्योंकि एक तो वे विशिष्ट गुण सम्पन्न होते थे और फिर कबीले के प्रतिनिधि भी माने जाते थे।

परवर्ती-कालीन वर्ण समाज की तुलना में मुख्य अन्तर यह था कि अधिशेष उत्पादन के अभाव में कबायली समाज में वर्ग-भेद की परिस्थितियों का उदय न हो सका। कबीले के मुखिओं की जनस्य गोप, विशाम्पति, गणस्य राजा, गणानां गणपति, ग्रामिणी आदि उपाधियों से ओहदों/पदों ( Positions ) की विभिन्नता का आभास तो होता है। परन्तु कबीलों के सामान्य लोगों के श्रम पर रहने वाले उच्च वर्गों का उल्लेख विशद स्तर पर दृष्टिगोचर नहीं होता। सम्भवतः ऐसे वर्ण-समाज की पृष्ठभूमि ऋग्वेद काल के अन्तिम चरण में तैयार हो रही थी जिसका आभास पुरुष सूक्त जैसे क्षेपकों में देखने को मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस उल्लेख के माध्यम से वर्ण-समाज को कर्मकाण्डी एवं सैद्धान्तिक अनुसमर्थन ( ratification ) प्रदान किया जा रहा था।

विवाह तथा स्त्रियों की दशा

ऋग्वैदिक समाज में विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धाङ्गिनी कहा गया है। वह पति के साथ यज्ञीय कार्यों में भाग लेती थी। पत्नी से रहित व्यक्ति यज्ञ करने का अधिकारी नहीं था। ऋग्वेद में ‘जायेदस्तम्‘ अर्थात् पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्त्व को स्पष्टतः स्वीकार किया गया है।

परिवार में एकपत्नीत्व विवाह ही सामान्यतः प्रचलित थे यद्यपि कुलीन वर्ग के कुछ लोग कई पत्नियाँ रखते थे। ‘बाल विवाह’ एवं ‘विधवा विवाह’ नहीं होते थे। विवाह में कन्यायें अपना मत दे सकती थीं तथा कभी-कभी अपने पतियों का चुनाव स्वयं करती थीं।

भाई-बहन एवं पिता-पुत्री का विवाह वर्जित था। अन्तर्जातीय विवाह होते थे, परन्तु आर्यवर्ण का दासवर्ण के साथ विवाह निषिद्ध था। कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे जिसे ‘वहतु’ कहते थे।

विधिवत् सम्पन्न हुए विवाह को स्त्री-पुरुष किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं कर सकते थे। ‘पुनर्विवाह’ एवं ‘नियोग’ प्रथा प्रचलित थी।

विवाह का मुख्य उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति करना था। पुत्रों की बहुलता के लिये निरंतर प्रार्थना की जाती थी। एक मन्त्र में कहा गया है- हे इन्द्रदेव इस स्त्री को दश पुत्र प्रदान करो ताकि इसका पति ग्यारहवाँ होवे (दशास्यां पुत्रानाचेहि प्रतिमेकादशं कृधि)।

कन्याओं का जन्म अभीष्ट नहीं था। युद्ध के वातावरण और पितृसत्तात्मक समाज में पुत्रों की चाह अधिक होना स्वाभाविक ही था। पुत्र ही पिता की अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न कर सकता था तथा उसी से वंश-परम्परा चलती थी।

निःसन्तान व्यक्ति समाज में घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे। एक स्थान पर सन्तानहीनता को दरिद्रता के समान निन्दनीय बताया गया है। पिता, पुत्र के अभाव में किसी अन्य को गोद ले सकता था।

समाज में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उदाहरण नहीं मिलता। दशम् मण्डल के एक सूक्त से पता चलता है कि इस प्रागैतिहासिक प्रथा की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिये स्त्री अपने मृत पति के साथ चिता पर लेटती थी तथा फिर उसके सम्बन्धी उससे उठने के लिये आग्रह करते थे।१७

उदीर्ष्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुपशेष एहि।

हस्ताग्रभागस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभिसंवभूथ॥१७

दशम् मण्डल, ऋग्वेद।

नियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है जिसके अन्तर्गत पुत्र विहीन विधवा पुत्र-प्राप्ति के निमित्त अपने देवर के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करती थी।

समाज में स्त्रियों को दशा काफी अच्छी थी। उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता थी। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। उनकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था थी। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिकता, शाश्वती, इंद्राणी, निवावरी आदि स्त्रियों के नाम आते हैं जो पर्याप्त शिक्षिता थीं तथा जिन्होंने कुछ मन्त्रों की रचना भी की थी।

स्त्रियों के सामाजिक और धार्मिक अधिकार पुरुषों जैसे ही थे। परन्तु दो दृष्टियों से ऋग्वैदिक समाज उन्हें अयोग्य समझता था –

  • उन्हें सीमित राजनीति अधिकार प्राप्त था। क्योंकि वे विदथ और सभा में भाग ले सकती थी। परन्तु यह बाद ध्यान देने वाली है कि उनके अधिकार धीरे-धीरे कम होते जा रहे थे जिसका संकेत इस बात से मिलता है कि उन्हें समिति में भाग लेने का अधिकार नहीं था।
  • उन्हें सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार नहीं प्राप्त थे।

संक्षेप में यदि कहा जाये तो स्त्रियों निम्न अधिकार प्राप्त थे :-

  • सीमित राजनीतिक अधिकार।
  • बालकों की तरह कन्याओं का भी ‘उपनयन संस्कार’ होता था। ऋग्वेद में अनेक ‘मंत्रद्रष्ट्री’ महिलाओं का उल्लेख है; यथा – अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, शिकता, निवावरी आदि।
  • कन्या के विवाह की आयु १६ वर्ष थी। यह विवाह आयु सम्पूर्ण भारतीय इतिहास उच्चतम् मानी जाती है। यहाँ तक की आधुनिक काल में शारदा एक्ट, १९२९ से अनुसार विवाह की आयु को १४ वर्ष निश्चित किया गया था।
  • कुछ लड़कियाँ ऐसी थीं जो आजीवन अविवाहित रहती थीं और उनको ‘अमाजू’ कहा जाता था।
  • विधवा पुनर्विवाह होते थे जिसे ‘पुनर्भू’ कहा गया और इस विवाहोपरान्त उत्पन्न संतान को ‘पौनर्भव’ कहा जाता था।
  • स्त्रियों में ‘बहुपति प्रथा’ और ‘नियोग प्रथा’ के प्रमाण मिलते हैं।
  • नियोग प्रथा में पति के न होने पर संतानहीना को देवर से संतान उत्पन्न करने की अनुमति थी। ऐसी संतान को ‘क्षेत्रज’ कहा जाता था। कालान्तर में कुछ संतानों के निम्न प्रकार मिलते हैं :-
    • कानीन – बिना विवाह के उत्पन्न संतान।
    • दत्तक पुत्र – गोद लिया हुआ पुत्र।
    • औरस – सामान्य विवाह से उत्पन्न संतान।
  • स्त्रियाँ युद्धों में भाग लेती थीं।
  • महिलाएँ पति के साथ यज्ञादिक धर्मिक क्रिया-कलापों में भाग लेती थीं।
  • ऋग्वैदिक समाज में निम्न कुरीतियाँ नहीं थीं –
    • बालविवाह नहीं होते थे।
    • पर्दा प्रथा नहीं था।
    • सती* प्रथा नहीं था।
    • वैधव्यता जैसी कुरीति नहीं थी।
  • सीमित अर्थों में दहेज प्रथा स्वीकार की जा सकती है।
  • यद्यपि सती प्रथा समाज में नहीं थी, परन्तु सांकेतिक अर्थ में इसके प्रमाण मिलते हैं जो आदिम परम्परा के अवशेष को औपचारिक रूप से मात्र किया जाता था। इसमें पत्नी पति की चिता पर लेटती थी और परिवार के अनुरोध पर वह चिता से उठकर अलग हो जाती थी।

शेष दृष्टियों से वे पुरुषों के ही समान होती थीं।

कुल मिलाकर पूर्ववैदिक काल में महिलाओं की स्थिति प्रचीन भारतीय इतिहास में सबसे अच्छी थी। उनके अधिकार की दो सीमाएँ थी एक, सम्पत्ति का अधिकार नहीं था और द्वितीय, सीमित राजनीतिक अधिकार। महिलाओं को सम्पत्ति सम्बन्धित अधिकार सबसे पहले गुप्तकाल में प्राप्त हुए जिसका उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में सर्वप्रथम मिलता है

दास और दस्यु

ऋग्वैदिक समाज की चर्चा में ‘दास’ एवं ‘दस्यु’ का उल्लेख भी अनिवार्य है। इनके साथ आर्यों के संघर्ष के पर्याप्त वर्णन मिलते हैं। आर्य एवं दास वर्ण की भी बात कही गयी है। वस्तुतः ये लोग कौन थे?

पाश्चात्य विद्वानों की धारणा रही है कि ये अनार्य जातियाँ इस भू-भाग की आदिम निवासी थीं, जिनके घोर विरोध तथा अदम्य उत्साह की वजह से आर्यों को अनेक अवसरों पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और दैवी सहायता से ही वे उनका मुकाबला करने में सफल हो सके।

इन पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार जिन विदेशी आक्रान्ताओं ने सैन्धव नगरों को ध्वस्त किया था, वे आर्य ही थे। स्वयं ऋग्वेद में इस संघर्ष का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख मिलता है।

  • कुछ विद्वान् आर्य को ‘अर’ शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं जिसका अर्थ है – उत्पादन सामर्थ्य। ‘अर’ से सम्पन्न लोग ‘अर्य’ तथा उनका समूह ‘आर्य’ कहा गया। ( देखिये – एस० एन० मिश्र : प्राचीन भारत में ग्राम एवं ग्राम्य जीवन’ में वी० एस० पाठक की व्याख्या )।१८

अपने मत के समर्थन में ये पश्चिमी विद्वान ऋग्वेद में वर्णित निम्न तथ्यों का सहारा लेते हैं :

  • ऋग्वेद में इन्द्र को दास-दस्युओं का विनाश करने वाला (दस्युहन्) कहा गया है।
  • इस ग्रन्थ में दास-दस्युओं के पुरों का भी वर्णन आया है। ये पुर चौड़े (उर्वी), पाषाण-निर्मित (अश्ममयी), धातुनिर्मित (आयसी), कच्ची ईंटों के बने हुए (आमा) और सौ दीवारों वाले (शतभुजी) आदि कहे गये हैं। ये वर्णन सैन्धव नगरों से भिन्न नहीं थे।
  • इन पुरों/दुर्गों को विनष्ट करने के कारण इन्द्र को ‘पुरन्दर’ कहा गया है।

इसके साथ ही दास-दस्युओं की जो विशेषताएँ ऋग्वेद में वर्णित हैं वे सब सैन्धव निवासियों में देखी जा सकती है। सम्भवतः हड़प्पा में दास-दस्यु अधिक संख्या में थे। ऋग्वेद में दास-दस्युओं निम्न प्रकार सम्बोधित किया गया है –

  • ‘अकर्मन्’ (वैदिक क्रियाओं को न करने वाले),
  • ‘अदेवयु’ (वैदिक देवताओं को न मानने वाले),
  • ‘अयज्वन्’ (यज्ञ न करने वाले),
  • ‘अन्यव्रत’ (वैदिकेतर व्रतों का अनुसरण करने वाले),
  • ‘मृद्धवाक्’ (अपरिचित भाषा बोलने वाले),
  • ‘अब्रह्मन्’ (श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित),
  • ‘अव्रत’ (व्रतों से रहित) एवं
  • ‘शिश्न देवाः’ (लिङ्गपूजक)।

दास-दस्युओं की संस्कृति के इन वैदिक उल्लेखों में कोई भी बात ऐसी नहीं है जो सैन्धव सभ्यता के लोगों पर लागू न होती हो।

यह एक महत्त्वपूर्ण बात है कि सैन्धव निवासियों के धार्मिक आचार में लिंग-पूजा को विशेष स्थान प्राप्त था और उनकी भाषा, जो अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, वैदिक संस्कृत से भिन्न थी। इस आधार पर कुछ विद्वान यह निष्कर्ष निकालते है कि सैंधव नगरों का विनाश अन्ततोगत्वा आर्यों के आक्रमण से ही सम्भव हुआ था।

परन्तु अब आर्य आक्रमण का सिद्धान्त खोखला सिद्ध हो चुका है।

  • शिश्न देवा:‘ का अर्थ भाष्यकार सायण भिन्न प्रकार से करते हुए कामाशक्त अथवा विलासी (शिश्नेन दिव्यन्ति क्रीडन्ति वा) के अर्थ में प्रयुक्त कहते हैं।
  • के० सी० चट्टोपाध्याय का विचार है कि ऋग्वेद में वर्णित दास-दस्यु संघर्ष पौराणिक देवासुर संग्राम का ही रूपान्तर है न कि मानव जातियों के संघर्ष का इस प्रकार वैदिक-सैन्धव सभ्यता में विभेद सूचक बातें अधिकांशतः कल्पना पर ही आधारित है, वास्तविकता पर नहीं।

आर्य आक्रमण के समर्थन में ये पश्चिमी विद्वान पुरातत्त्व का भी साक्ष्य देते हैं : मार्टीमर ह्वीलर ने हड़प्पा में अपने उत्खनन के दौरान एक टीले (Mound AB) के चारों और सुरक्षा भित्ति (Fortification Wall) का पता लगाया। साथ ही ऋग्वेद में उल्लिखित ‘पुरन्दर‘ तथा ‘हरियूपीया’ शब्दों की जानकारी उन्हें प्राप्त हुई। इस आधार पर आर्य आक्रमण का सिद्धान्त गढ़ने में उन्हें सफलता मिली क्योंकि पुरन्दर का अर्थ होता है ‘दुर्गो का विनाशक’।

ह्वीलर फौरन यह घोषणा कर दी कि सरसरी तौर पर ‘इन्द्र (आर्यों के प्रतीक) सैन्धव पुरों के विनाश के लिये दोषी ठहराया जा सकता है’।१९‘हरियूपिया’ का तादात्म्य हड़प्पा से स्थापित करते हुए उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि आर्यों ने ई० पू० १,५०० के लगभग अचानक आक्रमण करके सैन्धव नगरों को ध्वस्त कर दिया तथा वहाँ के नागरिकों को मार डाला।

  • On circumstantial evidence, Indra stands accused of destroying the non and pre-Aryan Harappan culture – Wheeler, 2.

किन्तु अब आर्य आक्रमण का सिद्धान्त कल्पना की उपज सिद्ध हो गया है :

  • मोहेनजोदड़ो के जिन नर कंकालों का विद्वानों ने उल्लेख किया है वे न तो एक ही स्तर के हैं और न ही वह इस सभ्यता का अन्तिम स्तर है। ये कंकाल ऊपरी स्तर से भी नहीं मिलते।
  • इन पर शारीरिक घाव के चिह्न बहुत कम है। कुछ के मस्तक पर कटने के ऐसे निशान है जो अंशतः भर गये हैं। इससे सूचित होता है कि चोट लगने तथा मृत्यु के बीच काफी अन्तराल था।
  • पुनश्च जिस स्तर से ये कंकाल मिलते हैं, वहाँ अथवा उसके बाद के स्तरों से युद्ध में प्रयुक्त होने वाली कोई भी सामग्री-वाण, भाला, फरसा, कवच आदि-नहीं प्राप्त होती है।
  • कहीं भी इस बात का प्रमाण नहीं मिलता कि इतने बड़े पैमाने पर आक्रमण हुआ था।

कुछ विद्वानों के अनुसार इनमें से अधिकांश की मृत्यु प्लेग, मलेरिया जैसी बीमारियों से हुई जान पड़ती है। अतः आर्यों द्वारा सैन्धववासियों पर आक्रमण कर उनको सामूहिक हत्या किये जाने की बात पुष्ट नहीं होती।

जहाँ तक ‘हरियूपीया’ के हड़प्पा से तादात्म्य का प्रश्न है, इसके लिये दोनों शब्दों में मात्र ध्वनिसाम्य के अतिरिक्त अन्य कोई आधार नहीं है। अतः अब आर्यों को सैन्धव सभ्यता के विनाश के लिये उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

अमेरिकी पुराविद् रिचर्ड एच० मीडो ने भी स्वीकार किया है कि १९२१ ई० से आज तक मोहनजोदड़ो तथा हडप्पा से एक भी ऐसा साक्ष्य नहीं मिलता जिससे सिद्ध हो सके कि ये नगर आक्रमणकारियों द्वारा विनष्ट किये गये थे।

ये तो हुई तथाकथित आर्य आक्रमण की बात। परन्तु मूलभूत प्रश्न कि दास, दस्यु और पणि कौन थे? ये अनार्य थे अथवा नहीं? स्वयं इनका आपस से क्या सम्बन्ध था?

पश्चिमी विद्वानों ने जब आर्य आक्रमण की सिद्धान्त प्रतिपादित किया तो सैन्धव लोगों को अनार्य मानकर दास, दस्यु व पणि वर्ग में रखा। परन्तु उनकी यह औपनिवेशिक कुत्सित धारणा की कलई खुल चुकी है। फिरभी हमें एक विचारशील प्राणी होने के कारण इसको सूक्ष्मता से जाँचना और समझना चाहिए।

दास एवं दस्युओं को ‘अनार्य’ श्रेणी में रखना समस्या का अत्यन्त सरलीकरण करना प्रतीत होता है। हो सकता है कि ये लोग आर्यों के विभिन्न दलों के प्रतिनिधि हों और कुछ सांस्कृतिक एवं सैद्धान्तिक मतभेदों के कारण दास करार दिये गये हों। उदाहरणार्थ –

  • ‘यदु’ एवं ‘तुर्वश’ जातियाँ निस्सन्देह आर्य पंचजनों में गिनी जाती थीं किंतु इन्हें भी एक जगह ‘दास’ कहा गया है।
  • ऋग्वेद के दो महत्त्वपूर्ण नायकों – ‘दिवोदास’ एवं ‘सुदास’ के नामों की ध्वनियाँ भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
  • भाषाशास्त्र की दृष्टि से शम्बर, शुष्ण, तुग्र, वेतसु, चुमुरि, अर्बुद जैसे दास नेताओं के नाम अनार्य नहीं लगते हैं।

दास लोगों के बारे में कहा गया है कि वे न अग्नि में हविर्दान करते थे और न ही इन्द्र-वरुण के पक्षपाती थे। दस्यु भी अदेवयुः (देवताओं में श्रद्धा न रखने वाले), अब्रह्मन् (वेदों को न मानने वाले), अयज्वन् (यज्ञ न करने वाले) बताये गये हैं।

इसी प्रकार अनासः (नासिका रहित अर्थात् चपटी नाक वाले) एवं मृध्रवाचः (कटु-वाणी वाले इसका प्रयोग आर्यों के एक अन्य शत्रु, अर्थात् पणियों के लिए भी किया गया है) जैसे विशेषणों के आधार पर दस्युओं को आर्यों से भिन्न जाति एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का बताया गया है।

कुल मिलाकर ऋग्वेद में दासों की तुलना में दस्युओं को आर्यों का बड़ा शत्रु बताया गया है। ‘दस्यु हत्या’ का उल्लेख कहीं अधिक हुआ है। आर्यों के हृदय इनके प्रति भय तथा घृणा के भाव से आच्छादित रहते थे। एक स्थल पर तो इन्हें ‘अमानुष’ भी कह दिया गया है।

संक्षेप में यह कह सकते हैं कि दास एवं दस्यु भारत की आदिम अनार्य जाति ही नहीं अपितु आर्य के ही वे अंश हो सकते हैं, जो विभिन्न समयों में भारत आये और जो सांस्कृतिक भिन्नताएँ रखते थे। अथवा दास और दस्यु अनार्य ही नहीं अपितु आर्य भी हो सकते हैं जो किसी कारणवश सांस्कृतिक भिन्नताएँ रखते थे।

ऋग्वैदिक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों प्रकार के दासत्व का प्रचलन था। इस सम्पूर्ण संदर्भ में एक उल्लेखनीय एवं अत्यंत रोचक तथ्य यह है कि ऋग्वेद में ‘दान’ के लिए पुरुष दास का उल्लेख बहुत कम मिलता है जबकि नारी दासियों को ‘दान’ की वस्तु के रूप में स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह हुआ धनी वर्ग में संभवतः घरेलू दास प्रथा ऐश्वर्य के एक स्रोत के रूप में विद्यमान थी किंतु आर्थिक उत्पादन में दास प्रथा के प्रयोग की प्रथा प्रचलित न थी

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि संगमकालीन समाज को छोड़कर दास प्रथा भारतीय इतिहास के प्रत्येक कालखंड में प्रचलित रही है। इससे सम्बन्धित कुछ प्रमुख तथ्य इस तरह हैं :

  • दास बाज़ार की स्थापना अलाउद्दीन ख़िलजी ने की थी।
  • दास विक्रय पर रोक फिरोजशाह तुग़लक़ ने लगायी थी।
  • आधुनिक काल में १७८९ ई० में दास प्रथा को कार्नवालिस ने रोका था।
  • चार्टर एक्ट, १८३३ के नियम – ५ द्वारा इसपर रोकने की बात की गयी। अंततः एलनबरो के समय में इस एक्ट के तहत १८४३ में पूर्णरूप से दास प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

दास प्रथा की अधिक जानकारी के लिए देखें – प्राचीन भारत में दास प्रथा।

भोजन

आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्त्व था। ऋग्वेद में एकमात्र अनाज ‘यव’ का उल्लेख मिलता है जिसका शाब्दिक अर्थ जौ से लगाया गया है। ऋग्वेद में नमक, चावल, मछली और अन्य अनाज का उल्लेख नहीं मिलता है

ऋग्वैदिक आर्यों के भोजन में दूध और उससे बनी हुई सामग्रियों का विशेष महत्त्व था। ऋग्वेद में एक स्थान पर दूध में पकी हुई खीर ( क्षीर पाकमोदनम् ) का उल्लेख हुआ है। एक अन्य स्थान पर दही में बनने वाले पनीर का उल्लेख मिलता है। घी में पके हुए मालपूवे ( अपूपं घृतवंतम्) का भी वर्णन हुआ है। जौ के सत्तू को दही में मिलाकर ‘करम्भ’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था। ‘यवागू’ का उल्लेख मिलता है जो जौ की दलिया लगता है। भोजन को मीठा बनाने के लिये मधु का भी प्रयोग किया जाता था। मधु देवताओं को भी चढ़ाया जाता था।

ऋग्वैदिक आर्य विभिन्न प्रकार के खिचड़ियों को तैयार करते थे जिसके लिये हमें एक शब्द ‘पेलसेती’ का प्रयोग देखने को मिलता है। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि मुगल सम्राट जहाँगीर के समय आये डच यात्री ‘पेल्सार्ट’ ने भारतीय व्यंजनों में खिचड़ी की प्रशंसा की है।

मांसाहार में प्रायः भेड़, बकरी आदि पशुओं का मांस खाया जाता था। गाय के लिये ‘अध्न्या‘ (न मारने योग्य) शब्द मिलता है। ए० एल० बाशम के अनुसार इस शब्द से गाय को आर्थिक महत्ता सूचित होती है क्योंकि गायें ही विनिमय का माध्यम बनती थीं।२०

The Aryan followed a mixed pastoral and agricultural economy, in which cattle played a predominant part. The farmer prayed for increase of cattle; the warrior expected cattle as booty; the sacrificial priest was rewarded for his services with cattle. Cattle were in fact a sort of currency, and values were reckoned in his heads of cattle. There is no evidence that they were held sacred at that time — the cow is in one or two places given the epithet “not to be killed”, but this may only imply her economic importance. In any case it is quite clear that both oxen and cows were slaughtered for food.२०

The wonder That was India : A L Basham.

ऐसा प्रतीत होता है कि विवाह एवं सम्मानित अतिथि के आगमन आदि के अवसरों पर ही गाय की हत्या होती थी। शतपथ ब्राह्मण अतिथि के सम्मान में विशाल वृषभ अथवा बकरी को मांसाहार के लिये मारे जाने का विधान करता है। परन्तु ऐसा लगता है कि मांस के लिये गाय की हत्या धीरे-धीरे बन्द होने लगी थी तथा उसकी पवित्रता बढ़ने लगी।

कुछ विद्वानों का विचार है कि पशु बलि के निषेध के पीछे कृषि कार्यों के लिये उनकी उपयोगिता थी परन्तु यह उचित नहीं है। यह दया के कारण था, न कि कृषि व व्यापार में उनकी उपयोगिता के कारण; क्योंकि यूरोप, चीन आदि में भी कृषि का प्रचार था किन्तु वहाँ गाय-बैल मारकर खाये जाते थे।

सोम आर्यों के मुख्य पेय थे। सोम अपनी मादकता के लिये प्रख्यात था जिसे मूजवन्त पर्वत पर प्राप्त किया था। यज्ञों के अवसर पर सोमरस पान करने तथा देवताओं को पीने के लिये उसे समर्पित करने की प्रथा थी। इसका पान करने से शरीर में उत्साह भर जाता था और मन में मोहक मस्ती छा जाती थी। ऋग्वेद का सम्पूर्ण नवम् मण्डल सोम के देवता को समर्पित है। एक स्थान पर कण्व ऋषि दावा करते हैं कि सोम रस पीने के बाद उन्होंने अमरत्व प्राप्त कर लिया है तथा देवताओं को जान लिया है।२१

अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्।२१

अष्टम् मण्डल – ऋग्वेद।

ऋग्वेद में सुरा के दुष्परिणामों का उल्लेख हुआ है तथा बताया गया है कि लोग इसे पीकर दुर्मद हो जाते थे और सभा-समितियों में लड़ने-झगड़ने लगते थे। सुरा की गणना क्रोध, द्यूत, अज्ञान आदि अनिष्टकारी वस्तुओं के साथ की गयी है। इसे निन्दनीय तथा त्याज्य बताया गया है। महादेवन का विचार है कि ‘सोम’ वस्तुतः सैधव निवासियों का पेय था और आर्यों ने उन्हीं से इसे ग्रहण कर लिया था।

वस्त्राभूषण

ऋग्वेद में यद्यपि कपास का उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु वस्त्र का उल्लेख है। वस्त्रों में सूती और ऊनी कपड़ों का विवरण मिलता है। ऋग्वेद में ‘रेशमी वस्त्रों’ का उल्लेख नहीं है।

आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृगचर्म से बनाये जाते थे। भेड़ की ऊन का ही वस्त्र प्रायः प्रयुक्त होता था। गान्धार प्रदेश की भेड़ें प्रसिद्ध थीं

वस्त्र तीन प्रकार के होते थे —

  • नीवी – अंतःवस्त्र या जो कमर के नीचे पहना जाता था।
  • वासस् – सामान्य वस्त्र अथवा जो कमर के ऊपर पहना जाने वाला प्रमुख वस्त्र था।
  • अधिवासस् – जो ऊपर से धारण किया जाने वाला चादर या ओढ़नी होती थी।

इसके अतिरिक्त उष्णीय ( पगड़ी ) और पंतसंगनी ( पनही/चप्पल ) जैसे शब्द मिलते हैं।

स्त्री और पुरुष दोनों आभूषण प्रेमी थे। हमको स्वर्ण और उससे बने हुए आभूषणों के उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद में हमें चाँदी का उल्लेख नहीं मिलता है। ऋग्वेद में आभूषणों से सम्बन्धित कुछ शब्द मिलते हैं :—

  • निष्क ( Nishka ) – यह स्वर्ण धातु थी जिसका प्रयोग वस्तु विनिमय और गले के आभूषण में किया जाता था। कालान्तर में निष्क भारत की प्राचीनतम् स्वर्ण मुद्रा बनी।
  • मन ( Mana ) – यह भी स्वर्ण धातु थी जिसका प्रयोग आभूषण एवं वस्तु विनिमय में किया जाता था।
  • रुक्म ( Rukma ) – यह सोने का गले का हार था।

लोग वस्त्रों को काटने तथा सीने की कला से परिचित थे। कभी-कभी वस्त्रों पर सोने की तारों से कढ़ाई की जाती थी। स्त्री-पुरुष दोनों पगड़ी धारण करते थे। दोनों आभूषण पहनते थे। कानों में कर्णफूल, गले में निष्क, हाथों में कड़े, पैरों में खड़ुए, छाती पर सुनहले पदक तथा गले में मणियों का हार (मणि-ग्रीवा) आदि आभूषण पहने जाते थे। लोग केश प्रसाधन की कला से भी परिचित थे। स्त्रियाँ बालों का जूड़ा बनाती तथा पुरुष दाढ़ी एवं जटा रखते थे। कुछ लोग छूरे से दाढ़ी मूंछ भी बनवाते थे। ऋग्वेद में नाई को ‘वप्ता‘ कहा गया है।

मनोरंजन

ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे। जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण पूर्णतया उपयोगितावादी था। वे नृत्य एवं संगीत का आनन्द लेते थे। रथ-दौड़, घुड़-दौड़, नृत्य, गायन, वादन तथा पासा खेलना भी उनके आमोद-प्रमोद के साधन थे। जुआ (द्यूत) भी खेला जाता था। द्यूतक्रीड़ा के समय लोग हार-जीत के दाँव लगाते थे। एक स्थान पर जुआरी पुत्र को पिता द्वारा डाँटने का उल्लेख है।२२

पितेव कितवं शशात्य। २२

द्वितीय मंडल – ऋग्वेद।

स्त्री तथा पुरुष दोनों झाँझ-मँजीरे के बाजों के साथ नृत्य में भाग लेते थे। अन्य वादों में दुन्दुभि, कर्करि, वीणा, बाँसुरी आदि का उल्लेख मिलता है। भारतीय वाद्ययंत्रों में वीणा को प्राचीनतम् माना जाता है

इसके अतिरिक्त मनोरंजन के लिये विविध उत्सव और समारोह भी प्रचलित थे। कीथ का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में धार्मिक नाटकों का प्रदर्शन भी होता था।

आर्थिक जन-जीवन

ऋग्वेद के अध्ययन से आर्यों के आर्थिक जनजीवन की जानकारी प्राप्त होती है। आर्यों के घूमन्तू कबायली जीवन में कृषि की अपेक्षा पशुचारण का अधिक महत्त्व था।

सामूहिकता और व्यक्तिगत सम्पत्ति

‘रयि’ (सम्पत्ति) की गणना मुख्यतः मवेशियों से ही होती थी। बार-बार मंत्रों में देवताओं की स्तुति करते हुए पशु-सम्पदा पाने की माँग की गयी है। गायों के अतिरिक्त बकरियाँ, भेड़ें एवं घोड़े भी पाले जाते थे। पशुचारण सामूहिक रूप से किया जाता था और ऋग्वेद के मूल भाग में भी ऐसे अनेकों उल्लेख हैं जिसमें पशु-संपदा की सामूहिकता और उसके समान वितरण का वर्णन मिलता है।२३

सामूहिकता का वर्णन२३

अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्। सदावन्भागमीमहे॥

(प्रथम मण्डल, २४वाँ सूक्त, तृतीय श्लोक)

हिन्दी – हे सदा रक्षा करने वाले सूर्य देव ! तुम उत्तम धन के स्वामी हो। इसलिए मैं तुमसे उपभोग करने योग्य धन मांगता हूं।

 

विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि॥

(प्रथम मण्डल, २७वाँ सूक्त, षष्ठम् श्लोक)

 

हिन्दी – हे विलक्षण प्रकाश वाले अग्नि देव ! जिस प्रकार सिंधु की लहरें जल को सभी पर्वतों, नालियों आदि में भर देती हैं, उसी प्रकार आप भी लोगों में धन का विभाग करने वाले हो। द्रव्य देने वाले यजमान को आप कर्म का फल शीघ्र दो।

 

वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे।

अस्मभ्यमिन्द्र वरिवः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन्वृष्ण्या रुज॥

(प्रथम मण्डल, १०२वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक)

हिन्दी – हे इंद्र ! आपको सहायक पाकर हम स्तोता शत्रु को विजित कर लेंगे। संग्राम में हमारे भाग की रक्षा करो। हे मघवान् ! हमें धन सुलभ कराओ और शत्रुओं की शक्ति बाधित करो।

 

अस्मभ्यं तद्वसो दानाय राधः समर्थयस्व बहु ते वसव्यम्।

इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून्बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

(द्वितीय मण्डल, १४वाँ सूक्त, १२वाँ श्लोक)

हिन्दी – हे निवासदाता इंद्र! हमें दानादि के लिए अपना पर्याप्त, विचित्र एवं शरण लेने योग्य धन प्रदान करो। हम प्रतिदिन उस धन के भोगने के इच्छुक हैं। हम उत्तम पुत्र एवं पौत्र प्राप्त करके इस यज्ञ में बहुत सी स्तुतियों का पाठ करेंगे॥

 

अक्रो न बभिः समिथे महीनां दिदृक्षेयः सूनवे भाऋजीक:।

उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः॥

(तृतीय मण्डल, दूसरा सूक्त, १२वाँ श्लोक)

हिन्दी – संपूर्ण लोक के जनक, जल के गर्भ के समान, मानवों के परम रक्षक, महान्, शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले, संग्राम में अपनी विशाल सेनाओं के रक्षक, परम सुंदर एवं अपनी ज्योति से प्रकाशमान अग्नि ने यजमान के लिए जल पैदा किया है॥

 

वपुर्नु तच्चिकितुषे चिदस्तु समानं नाम धेनु पत्यमानम्

मर्तेष्वन्यद्दोहसे पीपाय सकृच्छुक्रं दुदुहे पृश्निरूधः॥

(षष्ठम् मण्डल, ६६वाँ सूक्त, प्रथम श्लोक)

हिन्दी – विद्वान् स्तोता के सामने मरुतों का परस्पर समान, अतिशय स्थिर, प्रसन्न करने वाला एवं सर्वदा गतिशीलरूप शीघ्र प्रकट हो। वह रूप मर्त्यलोक में वनस्पति के रूप में अभिलाषा पूरी करने को प्रकट होता है एवं वर्ष में एक बार आकाश से सफेद रंग का जल टपकाता है॥

 

तुरण्यवोऽङ्गिरसो नक्षन्त रत्नं देवस्य सवितुरियानाः।

पिता च तन्नो महान् यजत्रो विश्वे देवाः समनसो जुषन्त॥

(सप्तम् मण्डल, ५२वाँ सूक्त, तृतीय श्लोक)

 

शीघ्रता करने वाले अंगिराओं ने सविता देव से याचना करके उनका जो रमणीय धन प्राप्त किया था, वसिष्ठ के पिता महान् यज्ञशील वरुण एवं अन्य समस्त देव समान रूप से प्रसन्न होकर वही धन हमें दें॥

 

मा वो दात्रान्मरुतो निरराम मा पश्चाद्दघ्म रथ्यो विभागे।

आ नः स्पार्हे भजतना वसव्ये३ यदीं सुजातं वृषणो वो अस्ति॥

(सप्तम् मण्डल, ५६वाँ सूक्त, २१वाँ श्लोक)

हिन्दी – हे मरुतो ! हम तुम्हारे दान की सीमा से बाहर न रहें. हे रथस्वामी मरुतो ! धन बांटते समय हमें पीछे मत रखना एवं चाहने योग्य धनों का स्वामी बनाना। हे अभिलाषापूरक मरुतो! तुम हमें अपने शोभन उत्पत्ति वाले धन का भागी बनाना॥

 

अन्तिवामा दूरे अमित्रमुच्छोर्वी गव्यूतिमभयं कृधी नः।

यावय द्वेष आ भरा वसूनि चोदय राधो गृणते मघोनि॥

(सप्तम् मण्डल, ७७वाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक)

हिन्दी – हे उषा ! तुम हमारे समीप धनयुक्त एवं शत्रु को दूर करती हुई प्रकाश करो . हमारी विस्तृत गोचर धरती को भयरहित बनाओ। शत्रुओं को अलग करो एवं शत्रुओं के धन हमें दो. हे धनस्वामिनी उषा! स्तोता के पास आने के लिए धन को प्रेरणा दो॥

सहकारिता

देवा भागं यथापूर्वे संजानना उपासते२४ जैसी अभिव्यक्तियाँ भी इसी बात की साक्षी हैं कि उस समय की याद लोगों को भूली नहीं थी, जब स्वयं देवगण भी एक साथ बैठकर अपने हिस्सों का बँटवारा बराबरी से करते थे।

सहकारिता२४

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते॥

(दशम् मण्डल, १९१वाँ सूक्त, द्वितीय श्लोक)

हिन्दी – हे स्तोताओं ! आप लोग आपस में मिलो, एक साथ स्तोत्र बोलो। आपके मन समान बात को जानें। प्राचीन देव जिस प्रकार सम्मिलित होकर यज्ञादि भाग प्राप्त करते थे, उसी प्रकार आप भी मिलकर सम्पत्ति का भोग करो॥

पशुचारण बनाम कृषि

पशुचारण की तुलना में कृषि कर्म नगण्य सा था। वास्तव में ऋग्वेद के कुल १०,४६२ श्लोकों में से केवल २४ में ही कृषि का उल्लेख मिलता है। इनमें से भी अधिकांश उल्लेख क्षेपक माने जाते हैं। संहिता के मूल भाग में तो कृषि के महत्त्व के केवल तीन ही शब्द प्राप्त होते हैं- उर्वर, धान्य, एवं वपन्ति२५

 

कृषि महत्त्व के शब्द२५

येन तोकाय तनयाय धान्यं१ बीजं वहध्वे अक्षितम्।

अस्मभ्यं तद्धत्तन यद्व ईमहे राधो विश्वायु सौभगम्॥

(पंचम् मण्डल, ५३वाँ सूक्त, १३वाँ श्लोक)

हिन्दी – हे मरुतो! तुम जिस कृपालु मन से हमारे पुत्र-पौत्रों के लिए नष्ट न होने वाले अन्नों के देते हो, उसी मन से हमें भी अन्नों के बीज दो। हम तुमसे पूर्ण आयु एवं सौभाग्ययुक्त धन माँगते हैं॥

 

ये ते शुक्रासः शुचयः शुचिष्मः क्षां वपन्ति विषितासो अश्वाः।

अध भ्रमस्त उर्विया वि भाति यातयमानो अधि सानु पृश्ने:॥

(षष्ठम् मण्डल, छठवाँ सूक्त, चतुर्थ श्लोक)

हिन्दी – हे दीप्तिशाली अग्नि ! तुम्हारी तेजपूर्ण ज्वालाएँ धरती से घासरूपी बालों को मूंड़ती हैं एवं स्वच्छंद घोड़ों के समान इधर-उधर जाती हैं। इस समय तुम्हारी भ्रमणशील ज्वालाएँ नानारूप वाली धरती के पर्वत पर चढ़ती हुई विशेषरूप से शोभा पाती हैं॥

‘कृष्’ (अर्थात् खेती करना) शब्द भी इन मूल खण्डों में अत्यंत दुर्लभ है। ‘कृष्टि’ शब्द का उल्लेख यद्यपि ३३ बार हुआ है, परन्तु लोगों के अर्थ में, जैसे पंचकृष्टयः। इसी प्रकार सिचाईं से सम्बंधित सभी उल्लेख भी परवर्ती काल के मण्डलों में ही मिलते हैं। ऋग्वेद में एक ही अनाज अर्थात् यव का उल्लेख है, जो या तो विभिन्न प्रकार के अनाजों के सामान्य नाम का द्योतक है या फिर जैसा कि अधिक संभव है — परवर्तीकालीन संहिताओं की तरह जौ का सूचक माना जा सकता है। परन्तु ऋग्वेद में इसके कुल १५ उल्लेखों में से तीन ही मूल पाठ में मिलते हैं।

सम्पूर्ण पंजाब एवं गंगा की ऊपरी घाटी के पुरातात्त्विक साक्ष्यों में केवल अतरंजीखेड़ा के तृतीय चरण से ही एक प्रकार के जौ एवं चावल के अवशेष मिले है। किंतु उत्खननकर्ता द्वारा प्रस्तुत इस चरण का तिथिक्रम इतना बड़ा (ईसा पूर्व लगभग १,२०० से ६००) है कि इन अनाजों की निश्चित प्राचीनता निर्धारित नहीं की जा सकती। चावल तो वस्तुतः उत्तर वैदिक काल का ही हो सकता है क्योंकि ऋग्वेद में इसका कोई भी उल्लेख नहीं है।

विपरीत मत

हाल ही में एक शोध प्रबन्ध (Tuk-Tuk Ghosh, ‘History of Rice in India : Mythology, Culture, and Agriculture) में यह दर्शाने का प्रयास किया गया है कि ऋग्वेद काल में सामान्य रूप से कृषि आधार सुचारु रूप से स्थापित हो चुका था। इसके पक्ष में चतुर्थ मण्डल का वही ५७वाँ सूक्त उद्धृत किया गया है, जिसको हम क्षेपक बताया गया है। इसी प्रकार कर्मकांडों में अनाजों के प्रयोग के संदर्भ में ऋग्वेद, प्रथम मण्डल, १३५वाँ सूक्त, ८वाँ श्लोक का उल्लेख करते समय भी इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि प्रथम मंडल भी सामान्यतया परवर्तीकालीन माना जाता है। यद्यपि धान शब्द का प्रयोग कुछ मूल (४. २४.७; ५.५३.१३) में हुआ है परन्तु इनके सन्दर्भ इतने अस्पष्ट है कि उसकी पहचान किसी विशेष अनाज से निश्चित रूप से नहीं की जा सकती। उत्तर वैदिक साहित्य में चावल के विशद उल्लेखों के आधार पर यह कहना कि ऋग्वेद काल में भी लोगों को इसका ज्ञान था, एक जबरदस्ती वाला तर्क प्रतीत होता है।

कुल मिलाकर ऋग्वेद से प्राप्त आर्थिक जीवन के चित्र में कम-से-कम प्रारंभिक चरणों में कृषि का महत्त्व पशुचारण की तुलना बहुत कम था।

कृषि और देवियाँ

ऋग्वेद के काल की अर्थव्यवस्था के कम-से-कम प्रारम्भिक चरणों में कृषि का गौण स्थान ही था। इस बात की पुष्टि ऋग्वैदिक देवकुल में देवियों के स्थान से भी हो जाती है क्योंकि इससे देवताओं की तुलना में उन्हें नगण्य ही माना गया है। इन्द्राणि, रोदसी, श्रद्धा, धृति आदि सभी को कोई विशेष महत्ता नहीं दी गयी है। यहाँ तक कि अदिति एवं ऊषा जैसी तथाकथित महत्त्वपूर्ण देवियों का उल्लेख भी आदर से नहीं हुआ है। उदाहरणार्थ, अदिति के लिए कोई अलग सूक्त नहीं है तथा इन्द्र द्वारा उषा का बलात्कार अनेक स्थलों पर वर्णित है। क्या यह संयोग ही है कि जिन स्थलों पर इन्द्र एवं उषा का द्वन्द्व वर्णित है, वहाँ अ-वैदिक मुखियों के विरुद्ध इन्द्र की सफलता का भी वर्णन है? कोसाम्बी२६ का कहना कि उन में आर्यों एवं अनार्यों के संघर्ष की झलक मिलती है, यदि सत्य न भी हो तो भी इस बात की ओर तो संकेत करता ही है कि ऋग्वैदिक देवकुल में देवियों का अधिक सम्मान न था, जो कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था पर आधारित लोगों की सैद्धांतिक मान्यताओं के विरुद्ध है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि पशुचारण ही लोगों का प्रधान धंधा था और इस काल के अंत में कृषि का आगमन हो चुका था, जो संभवतः अनार्य लोगों से संपर्क के कारण हुआ होगा। शायद इसी कारण ऋग्वैदिक आर्य उसे विजित लोगों का धंधा कहकर पुकारते थे।२७

  • डी० डी० कोसांबी कृत ‘Urvashi and Pururavas’, जर्नल ग्रॉफ दि बॉम्बे ब्रांच ऑफ दि रॉयल एशियाटिक सोसायटी (न्यू सीरीज), खंड २७, भाग १ – १९५१। बाद में लेखक के ग्रंथ ‘Mith and Reality : Studies In The Formation Of Indian Culture’ (1962) में पुनः प्रकाशित।२६
  • तुलनीय Robert Briffault कृत ‘The mothers : the Matriarchal Theory of Social Origins; Volume – ३ ( १९६२ )।२७

पशुपालन

ऋग्वैदिक समाज में पशुपालन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। पशु आर्यों की सम्पत्ति समझे जाते थे। कृषक पशुओं की वृद्धि के लिये प्रार्थना करते थे। सैनिक पशुओं को लूट के धन में पाने की आशा रखते थे तथा पुरोहित पशुओं से ही पुरष्कृत किये जाते थे। मुख्यतः गायें विनिमय का माध्यम होती थीं। ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में गाय को देवता के रूप में कल्पित किया गया है।

प्रमुख पशुओं में गाय और अश्व सर्वप्रमुख थे। अन्य पशुओं में बैल, भेड़, बकरी, गधा, कुत्ता आदि प्रमुख थे। बैलों से हल जोतने तथा गाड़ी खींचने का काम लिया जाता था।

गाय :-

  • पशुओं में गाय की महत्ता सर्वाधिक थी।
  • ऋग्वेद में गाय शब्द का उल्लेख १७६ बार आया है।
  • एक स्थान पर देवताओं को भी गाय से उत्पन्न बताया गया है।
  • रयि* ( सम्पत्ति ) की गणना पशुधन/मवेशियों से की जाती थी, जिसमें गाय प्रमुख थी। ( राई* – Rai शब्द का प्रयोग शेरशाह की राजस्व व्यवस्था में मिलता है। )
  • गोमत शब्द का अर्थ अधिक गायों वाला से है अर्थात् धन से ही है।
  • गाय के लिए ‘अध्न्या’ ( न मारी जाने वाली ) शब्द का प्रयोग किया गया है।
  • गविष्टि, गवेषणा आदि के शाब्दिक अर्थ हैं गायों की खोज जबकि ये शब्द अधिकतर युद्ध के पर्याय बन गये क्योंकि ज़्यादातर युद्ध पशुधन के लिए ( विशेषकर गायों के लिए ) होते थे।
  • पणि नामक अनार्य व्यापारी गायों की चोरी के लिए विख्यात थे और वे अत्यंत धनी हो गये थे।
  • गाय के लिये गोषु, गवेषण, गभ्य इत्यादि शब्दों का प्रयोग मिलता है।
  • ऋग्वैदिक आर्य समाज में गाय से गोदोहन का कार्य मुख्यतया पुत्रियाँ करती थीं। अतः लोग अपनी कन्याओं का नाम दुहिता रखने लगे। यह भी उल्लेखनीय है कि पुत्री के पर्याय के रूप में दुहिता शब्द भी मिलता है।
  • अष्टकर्णी शब्द भी गाय के लिए प्रयुक्त हुआ है।

अश्व :-

  • घोड़ा आर्यों का प्रिय पशु था जिसकी सहायता से वे युद्धों में विजय प्राप्त करते थे।
  • कुछ सूक्तों में ‘दधिक्रा’ नामक एक दैवी अश्व की प्रशंसा की गयी है।
  • ऋग्वेद में अश्व शब्द २१५ बार आया है।

अन्य पशु :-

  • वृषभ ( बैल ) शब्द का प्रयोग १७० बार मिलता है।
  • इन्द्र के पास एक पवित्र ‘सरामा’ नामक कुतिया थी जिससे वे जासूसी कराते थे।
  • ऋग्वेद में ऊँट, बैल, भैंस-भैंसा, भेंड़-बकरी आदि का भी उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद में शेर का भी उल्लेख मिलता है।
  • आर्य हाथी व बाघ से परिचित नहीं थे। हाथी सम्भवतः जंगली पशु था।

पशु : हड़प्पा बनाम ऋग्वैदिक आर्य :-

  • ऋग्वैदिक आर्य शेर से परिचित थे जबकि हड़प्पा सभ्यता के लोग इससे अपरिचित थे।
  • ऋग्वैदिक आर्य बाघ और हाथी से अपरिचित थे जबकि हड़प्पावासी इससे परिचित थे।
  • अश्व के बारे में बहुत विवाद है। अकादमिक स्तर पर अब भी यही पढ़ाया जा रहा है कि हड़प्पावासियों को घोड़े ज्ञान नहीं था। दूसरी ओर यह आर्यों का प्रिय पशु था।

पशुओं के कानों पर स्वामित्व सूचक चिह्न बना दिये जाते थे। गाय को ‘अष्टकर्णी’ (छेदी हुई कानों वाली अथवा कानों पर ८ के चिह्न से अंकित) कहा गया है।

आर० एस० शर्मा का मत है कि ऋग्वैदिक आर्य मुख्यतः पशुचारी थे तथा कृषि का उनके जीवन में गौण स्थान था। यही कारण है कि ऋग्वेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है। इसके १०,४६२ मंत्रों में से केवल २४ में ही कृषि का उल्लेख प्राप्त होता है।

परन्तु हम देख चुके है कि ऋग्वेद में राष्ट्र, राज्य, राजा जैसे शब्द, संसद, सभा, समिति जैसी संस्थायें तथा अध्यक्ष, सेनानी, दूत, राष्ट्रपति जैसे पदाधिकारियों के नाम मिलते है। इनसे सूचित होता है कि समाज पूर्णतया ग्रामीण नहीं था अपितु इसमें ग्रामीण तथा शहरों, दोनों ही तत्त्व साथ-साथ विद्यमान थे।

ग्रामों का विवरण सूचित करता है कि उनमें काफी बड़ी बस्तियाँ भी थीं जिनमें अनेक घोड़ों के रथ पर बैठकर लोग अपने घर से उत्सव आदि में जा सकते थे। अतः ऋग्वैदिक समाज को पूर्णतया पशुचारी अथवा घुमक्कड़ कहना समीचीन नहीं होगा। सिन्धु तथा वैदिक समाज के सांस्कृतिक स्तर में बहुत अधिक विभिन्नता नहीं है।

वैदिक काल में भी संगठित प्रशासन, दुर्गीकृत भवन तथा थल और जल व्यापार के उदाहरण मिलते है। न तो सिन्धु सभ्यता मात्र नागरिक थी और न ही वैदिक सभ्यता मात्र पशुपालक अथवा घुमक्कड़ दोनों में ही नागर तथा ग्राम्य तत्त्व विद्यमान थे।

कृषि

आर्यों की संस्कृति मूलतः ग्रामीण थी। अतः उनके आर्थिक जीवन के मूलभूत आधार कृषि और पशुपालन थे। कृषि योग्य भूमि को ‘उर्वरा‘ अथवा ‘क्षेत्र‘ कहा जाता था। ऋग्वेद में ‘लांगल’ तथा ‘सीर’ (हल के लिये), ‘फाल’, ‘सीता’ (हल के फाल से जुती हुई भूमि – कूँड़) आदि का उल्लेख है।

फाल सम्भवतः लकड़ी का बना होता था। हल में ६, ८ या १२ तक बैल जोते जाते थे। ‘अर‘ शब्द का भी उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय है कि आज भी ग्रामीण भाषा में हल को ‘हर’ कहा जाता है। इसके तात्पर्य ‘हर’ से हो सकता है।

बुआई, कटाई, मड़ाई आदि क्रियाओं से लोग परिचित थे। खेत को हल-बैल की सहायता से जोतकर उसमें बीज बोया जाता था। पकी हुई फसलों को काटने के लिये हँसिये (दात्र, सृणि) का प्रयोग किया जाता था।

सिंचाई प्रायः नहरों द्वारा होती थी। ‘कूप’ तथा ‘अवट’ (खोदकर बने हुए गड्ढे), ‘कुल्या’ (नहर), ‘अश्मचक्र’ (रहट की चर्बी) आदि का उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है। चक्र (रहट) की सहायता से कूप से पानी निकाला जाता था तथा नालियों द्वारा उसे खेतों तक पहुँचाया जाता था। इस तरह सिंचाई के लिए वर्षा जल और कुएँ का प्रयोग किया जाता था। सिंचाई के लिए दो प्रकार के शब्दों का प्रयोग मिलता है – स्वयंजा और खनित्रमा। स्वयंजा का अर्थ वर्षा से एकत्रित जल से था; जैसे – तालाब। खनित्रमा अर्थ खोदकर निकाले गये जल से था; जैसे – कुँआ या अवट।

लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे।

खेती से उत्पन्न होने वाले अन्नों में यव एवं धान्य का उल्लेख हुआ है। परन्तु इन दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है। बाद में इनका अर्थ क्रमशः जौ तथा चावल हो गया। परन्तु ऋग्वेदिक आर्य चावल से परिचित नहीं थे। ऋग्वेद में कृषि सम्बन्धी विविध उल्लेख सुविकसित कृषि कर्म को प्रमाणित करते है।

ऋग्वेद में प्रयुक्त कृषि सम्बन्धित शब्दावलियाँ
क्षेत्र जुता हुआ खेत
उर्वरा कृषि योग्य भूमि या उपजाऊ भूमि
खिल्य दो खेतों के बीच की पट्टी या ऊसर भूमि
सीता हलों से बने हुए कूँड़।

मौर्यकाल में अर्थशास्त्र के अनुसार इसका अर्थ राजकीय भूमि के अर्थ में प्रयोग किया गया है। राजकीय भूमि से प्राप्त आय को सीता कहा गया है।

वृक बैल
लाँगल हल
कीवाश हलवाहे
यव जौ

ऋग्वेद में एकमात्र इसी अनाज या धान्य का उल्लेख मिलता है।

शाकम/शाकृत, करीष खाद ( गोबर की खाद )
खल खलिहान
सूक्त सूप
तितऊ चलनी
दात्र या स्रणि हँसिया
कूप या अवट कुँआ
ऊर्दर अनाज मापने का पात्र
स्वयंजा वर्षा से प्राप्त जल; जैसे – तालाब आदि
खनित्रमा खोदकर निकाला गया जल; जैसे – कुँआ या अवट

व्यापारी वर्ग – पणि

कृषक एवं पशुपालक होते हुए भी आर्य व्यापार और वाणिज्य के प्रति उदासीन नहीं थे। व्यापार वाणिज्य प्रधानतः ‘पणि‘ वर्ग के लोग करते थे। ‘पणि‘ शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है। इसके समीकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद है। जिमर तथा लुडविग इस शब्द का अर्थ व्यापारी बताते हैं। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है। इस आधार पर लुडविग का विचार है कि वे आदिम व्यापारी (aboriginal traders) थे जो अरब तथा उत्तरी अफ्रीका के व्यापारियों की भाँतिकाफिलों में चलते थे। अपने जान माल की सुरक्षा के लिए निमित्त उनके पास सेना होती थी। वे आवश्यकता पड़ने पर अपनी वस्तुओं की रक्षा के लिये आर्य आक्रमणकारियों से युद्ध करने को तैयार रहते थे।२८

  • वैदिक इन्डेक्स, खण्ड – १ २८

ए० सी० दास की मान्यता है कि पणि आर्य व्यापारी ही थे जो सप्तसिन्धु से निष्कासित होने के उपरान्त फोनेशिया में जाकर बस गये थे।२९कुछ अन्य विद्वान ‘पणि’ का समीकरण बेबीलोनियनों, पाण्डवों आदि से करते हैं।

  • Rig-Vedic India – Abinas Chandra Das२९

लगता है कि वे आर्य व्यापारी ही थे जो अपने कार्य के कारण वैदिक ऋषियों की निन्दा के पात्र बन गये। कालान्तर में वे वैश्य वर्ण के साथ संयुक्त हो गये। पणि अपनी कृपणता के लिये प्रसिद्ध थे। वे ऋण देते थे तथा व्याज बहुत अधिक लेते थे। उन्हें ‘वेकनाट‘ (सूदखोर) कहा गया है।

व्यापार

व्यापार अदल-बदल (Barter) प्रणाली पर आधारित था। अनेक स्थानों पर वस्तुओं को खरीदते समय मोलभाव किये जाने का उल्लेख मिलता है। एक ऐसा प्रसंग आया है जहाँ ‘इंद्र की प्रतिमा’ का मूल्य १० गायें बतायी गयी हैं। विनिमय के माध्यम के रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है परन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है। संभवतः प्रारम्भ में यह हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था परन्तु बाद में सिक्के के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। हाँ एक स्थान पर १०० निष्क दान का उल्लेख है जिसमें मुद्रा की संकल्पना के बीज खोजे जा सकते हैं।

साहूकारी यानी ब्याज पर धन उधार देने की प्रणाली भी प्रचलित थी। एक प्रसंग में यह विवरण मिलता है कि ब्याज के रूप में मूलधन का ८वाँ या १६वाँ भाग चुकाना है।

व्यापार के संदर्भ में समुद्र का और समुद्र से निकलने वाले मोतियों, मूँगों, कौड़ियों आदि का विवरण मिलता है। कपड़ा, चादर तथा चमड़े का व्यापार होता था।

स्थल का व्यापार मुख्यतः रथों एवं बैलगाड़ियों द्वारा होता था। ऋग्वेद में समुद्र शब्द आया है। कुछ विद्वान् ‘समुद्र‘ का अर्थ ‘विशाल जल-समूह’ लगाते हैं। राधा कुमुद मुकर्जी३० के मतानुसार ऋग्वेद में समुद्र का प्रयोग निश्चित रूप से सागर के लिये हुआ है।

  • Hindu Civilisation – Radha Kumud Mukherjee ३०

समुद्र की विशालता, गर्जन तथा तरंगों का उल्लेख मिलता है जहाँ नदियाँ समाहित होती थीं। एक स्थान पर ‘भुज्यु’ की समुद्र यात्रा का वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान के नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिये अश्विन् कुमारों से प्रार्थना की। अश्विन् कुमारों ने उसकी रक्षा के लिये सौ पतवारों वाला जहाज (शतारित्रा) भेजा। यह उल्लेख समुद्री यात्रा की ओर संकेत करता है। एक अन्य स्थल पर समुद्र से प्राप्त होने वाले धन (वसूनि समुद्रात्) का उल्लेख मिलता है तथा उसे प्रदान करने के निमित्त सोम का आह्वान् किया गया है।३१ पतवार को ‘अरित्र‘ तथा नाविक को ‘अरितृ‘ कहा गया है। इन उल्लेखों से विकसित सामुद्रिक व्यापार का परिचय मिलता है।

रायः समुद्रांश्चतुरो उस्मम्यम् सोम विश्वतः, आ पवस्व सहस्त्रिणः।३१

ऋग्वेद में हमें दो प्रकार के व्यापारियों का विवरण मिलता है – एक, पणि और द्वितीय, बृबु ( वृभु )। पणि अनार्य व्यापारी थे, जबकि बृबु आर्य व्यापारी थे। इससे व्यापारिक क्रियाकलापों का संकेत तो मिलता है परन्तु यह बात उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में न तो सिक्के का, न बंदरगाहों का, न नगरों का और न ही बाह्य देश का विवरण मिलता है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापार आपसी लेन-देन या वस्तु-विनिमय ( Barter system ) पर आधृत था। इस लेनदेन का मुख्य माध्यम गाय और निष्क था।

उद्योग-धन्धे एवं व्यवसाय

ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय (Hereditary) आनुवंशिक नहीं थे। तथापि ब्राह्मण मुख्यतः याज्ञिक क्रियाओं को सम्पन्न कराते थे, क्षत्रिय युद्ध सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त रहते थे, वैश्य कृषि, पशुपालन तथा धन उधार देने का काम करते। ऋग्वैदिक कवियों में अनेक राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के हैं। ब्राह्मण भी यदा-कदा धन उधार देने का कार्य करते थे।

परवर्ती काल में होने वाली शूद्रों से सम्बन्धित व्यवस्था — तीनों वर्णों की सेवा करना; व्यवसाय परिवर्तन व चयन — ऋग्वैदिक समाज का हिस्सा नहीं थी।

परन्तु हमें यह बात ध्यान में रखना होगा कि ऋग्वैदिक समाज चातुर्वर्ण्य पर आधारित नहीं था। क्योंकि वर्ण व्यवस्था सम्बन्धित जो उल्लेख १०वें मण्डल के पुरुष सूक्त में मिलता है वह क्षेपक बताया गया है। साथ ही ऋग्वेद में मात्र एक बार शुद्र शब्द आया है।

इन चार वर्णों के अतिरिक्त ऋग्वेद में कुछ अन्य व्यवसायियों के भी नाम मिलते है। इनमें ‘तक्षा’ (बढ़ई), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे), कुम्भकार आदि प्रमुख है।

बढ़ई (तक्षा) संभवतः शिल्पियों का मुखिया होता था। वह सभी प्रकार की लकड़ी की वस्तुओं, विशेषकर रथ तथा गाड़ियों का निर्माण करता था। आर्यों के सामरिक जीवन में रथों का अधिक महत्त्व होने के कारण ‘तक्षा’ की सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक बढ़ी हुई थी।

कुछ लोग धातुओं को गलाने तथा उन्हें पीटकर विविध वस्तुएँ बनाने के कार्य में भी कुशल थे। ‘अयस्’ नामक धातु का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है जिसकी सहायता से घरेलू उपयोग के बर्तनादि बनाये जाते थे। ‘अयस्’ की पहचान असंदिग्ध रूप से नहीं की जा सकती। कुछ विद्वान् इसे ताँबा, काँसा या लोहा बताते हैं। किन्तु ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।

कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों ही करते थे। सूत तथा ऊन से वस्त्र बनाये जाते थे। ऋग्वेद से पता चलता है कि सिन्ध तथा गान्धार प्रदेश सुन्दर ऊनी वस्त्रों के लिये विख्यात था। परुष्णी (रावी) नदी के तट पर बढ़िया किस्म के रंगीन ऊनी वस्त्र बनाये जाते थे। गान्धार प्रदेश की भेंड़े अपने चिकने ऊन के लिये सर्वत्र विख्यात थीं।

चर्म उद्योग भी ज्ञात था। बैल आदि पशुओं के चमड़े से कोड़े, लगाम, डोरी, थैले आदि बनाये जाते थे। भट्ठों में धातु गलाने वाले को ‘ध्याता‘ तथा ‘द्रविता‘ एवं मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को ‘कुलाल‘ कहा गया है। इसके अतिरिक्त वैद्य (भिषक), नर्तक-नर्तकी, नाई (वाप्तृ), गायक, वादक, नर्तक तथा सुरा बेचने वालों का भी अलग वर्ग था।

ऋग्वैदिक काल में इनमें कोई भी व्यवसायी तुच्छ नहीं समझा जाता था, बल्कि सभी को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा थी।

पशुचारी ऋग्वैदिक समाज में किसी विशेष उद्योग की कल्पना नहीं की जा सकती है परन्तु कुछ प्रारम्भिक शिल्पों का उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है। ऋग्वेद में दो धातुओं का उल्लेख किया गया है – अयस ( ताँबा ) और सुवर्ण ( सोना )।

पूर्व वैदिक काल के प्रमुख शिल्प व सम्बन्धित शब्दावलियाँ निम्नलिखित हैं :-

  • वस्त्र :- यद्यपि ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु सूती और ऊनी वस्त्रों का विवरण प्राप्त होता है। वस्त्रों का निर्माण कर्घा ( तशर ) पर किया जाता था। ताना के लिये ‘ओतु’ और बाना के लिये ‘तन्तु’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘वशोवाय’ नामक वर्ग कपड़ा बुनने का कार्य करता था। वैसे बुनाई का कार्य मुख्यतः स्त्रियाँ करती थीं। कढ़ाई-बुनाई के लिए ‘शिरी-पेशसकारी’ शब्दों का प्रयोग किया गया है।
  • कर्मार :- धातुओं पर कार्य करनेवाला वर्ग।
  • ऋभु ( रिभु ) :– एक तरह के बौने जो धातुओं का उत्खनन या गुफाओं से निकालते थे।
  • तक्षन :- यह बढ़ई के लिए प्रयुक्त हुआ है जो रथों का निर्माण करते थे।
  • चर्मकार :– चमड़े पर कार्य करने वाला वर्ग।
  • स्वर्णकार :– स्वर्ण धातु पर कार्य करने वाला वर्ग। तत्कालीन समय में कुछ सोना सिन्धु नदी से प्राप्त होता था। स्वर्ण के लिए एक शब्द ‘हिरण्य’ का प्रयोग किया गया है। इसीलिए सिन्धु नदी को ‘हिरण्यी’ भी कहा गया है।
  • कुलाल :– ये कुम्भकार ( कुम्हार ) वर्ग था। ऋग्वैदिक समय की समय सीमा के अंदर लाल-काले और गेरुवर्णी पात्र परम्परा आती है। लाल-काले पात्रों की पहचान ऋग्वैदिक नील-लोहित मृद्भाण्ड से की जाती है। गेरुवर्णी पात्रों को ताम्र संचय संस्कृति से जोड़ा जाता है जोकि मुख्यरूप से गंगा-यमुना दोआब में पाये गये हैं।

धर्म तथा धार्मिक विश्वास

ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक तथा आर्थिक जीवन जितना ही सरल था, धार्मिक जीवन उतना ही अधिक विशद तथा जटिल। यहाँ हमें प्रारम्भ में ‘बहुदेववाद’ के दर्शन मिलते हैं और पूर्व वैदिक काल की अंतिम अवस्था तक ‘एकवाद’ के संकेत मिलने लगते हैं।

ऋग्वैदिक धार्मिक जीवन तथा उस समय के लोगों की सैद्धान्तिक मान्यताएँ तत्कालीन भौतिक जीवन से अत्यधिक प्रभावित थीं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि इस क्षेत्र में भी कबायली विशेषताएँ दृष्टिगोचर हों। ऊपर आर्थिक एवं सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में कहा गया था कि पशुचारण उनका प्रमुख व्यवसाय था और पितृ-प्रधान समाज था। इसी सन्दर्भ में एक पहलू और इंगित किया गया था – ऋग्वैदिक देवकुल में देवियों की नगण्यता।

चूँकि पशुचारण के लिए लोगों को जगह-जगह जाना पड़ता था, अतः उनके ये अभियान प्राकृतिक शक्तियों से अत्यधिक प्रभावित थे। सम्भवतः यही कारण है कि जहाँ ऋग्वैदिक देवकुल में अनेक देवताओं को स्थान मिला है, वहाँ ये सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक भी हैं। सूर्य, अग्नि, द्यौस, मरुत्, वायु और यहाँ तक कि इन्द्र, वरुण, मित्र, विष्णु, रुद्र आदि भी प्राकृतिक शक्तियों से सम्बंधित है। कभी-कभी किसी विशेष प्राकृतिक शक्ति के गुणों को भी स्वतंत्र देवत्व प्रदान कर दिया जाता था। उदाहरणार्थ, सवितृ एवं विवस्वान मूलतः सूर्य के विशेषण थे परन्तु बाद में स्वयं सूर्य देवता बना दिये गये।

देवताओं की संख्या और वर्गीकरण

ऋग्वेद में देवताओं की संख्या को लेकर बड़ी विचित्र स्थिति है और उनके वर्गीकरण के संदर्भ में स्वयं ऋग्वेद में मत वैभिन्य पाया जाता है :

  • ऋग्वेद के एक श्लोक ( १०/१५८/१ ) के आधार पर यास्क के निरुक्त में देवताओं की संख्या मात्र तीन बतायी गयी है— पृथ्वी में अग्नि, अन्तरिक्ष में इन्द्र या वायु तथा आकाश में सूर्य। ये तीन देवता तीन लोकों के स्वामी थे।
  • ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर प्रत्येक लोक में ग्यारह देवताओं का निवास मानकर उनकी संख्या तैंतीस कही गयी है ( १/१३९/११ )।

त्रिवर्गीय वर्गीकरण : ऋग्वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन भागों में किया है (वैदिक एज) –

(१) पृथ्वी के देवता – पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति, अपांनपात् मातरिश्वन् तथा नदियों के देवता आदि।

(२) अंतरिक्ष के देवता – इन्द्र, रुद्र, वायु-वात, पर्जन्य, आप:, यम, प्रजापति, अदिति आदि।

(३) द्युस्थान (आकाश) के देवता – द्यौस, वरुण, मित्र, सूर्य, सवितृ, पूषन, विष्णु, आदित्य, उषा, अश्विन् आदि।

इसके अतिरिक्त कुछ अमूर्त भावनाओं के द्योतक देवता भी है जैसे- श्रद्धा, मन्यु, धातृ, विधातृ आदि।

प्रमुख देवताओं का विवरण

ऋग्वैदिक मण्डल में पुरुष देवताओं की संख्या ही अधिक है। कुछ देवियों के भी नाम मिलते हैं। सिन्धु नदी को देवी के रूप में मान्यता दी गयी है। जंगल की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा गया है। ‘वाग्देवी सरस्वती’ की भी स्तुति की गयी है।

समस्त देव समूह में इन्द्र, वरुण तथा अग्नि का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था।

इन्द्र से सम्बन्धित मुख्य बातें निम्न हैं :-

  • इन्द्र को विश्व का स्वामी कहा गया है। ऋग्वेद में लगभग एक चौथाई सूक्त ( २५० सूक्त ) इन्द्र को समर्पित है।
  • वह मेघों को रोककर जल की वर्षा करते थे। अतः इन्द्र को मुख्यतः ‘वर्षा और झंझावत’ का देवता था।
  • परन्तु इन्द्र प्रधानतः युद्ध के देवता हैं। आर्यों का विचार था कि उसी ने असुरों पर विजय दिलायी। इन्द्र की प्रमुख संज्ञा ‘पुरन्दर’ थी।
  • अत्यधिक सोम का पान करने के कारण इसका एक नाम ‘सोमापा’ पड़ गया।
  • वृत्तासुर का वध करने के कारण इसे ‘वृत्तासुरहंता’, ‘वृतहंता’ और ‘वृत्तहन’ कहा गया है।
  • बादलों को भेदकर वर्षा कराने के कारण इन्द्र को ‘पुरभिद्’ कहा गया है।
  • अत्यधिक दानी होने के कारण उसे ‘मधवा’, ‘मधवान’ कहा गया है।
  • इन्द्र के अन्य नाम भी मिलते हैं – रथेष्ट ( सक्षम रथ योद्धा ), शतक्रति ( एक सौ शक्तियों का स्वामी ), सूत्रामन ( एक अच्छा रक्षक ) आदि।

अग्नि से सम्बन्धित प्रमुख बातें निम्न हैं :-

  • ऋग्वैदिक काल में अग्नि का मह्त्त्व इन्द्र का बाद द्वितीय स्थान पर था जबकि पृथ्वी के देवताओं में अग्नि का महत्त्व सबसे अधिक था।
  • ऋग्वेद में अग्नि को समर्पित २०० सूक्त ( ऋग्वेद का लगभग पाँचवाँ हिस्सा ) हैं।
  • ऋग्वेद की पहली ऋचा ही अग्नि को समर्पित है। यहाँ तक की ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल की शुरुआत अग्नि की स्तुति से की गयी है।
  • अग्नि आर्यों और देवताओं के बीच मध्यस्थ देवता थे।
  • अग्नि आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी तीनों श्रेणियों के देवता थे।
  • कुछ स्थानों पर उसे द्यौस तथा पृथ्वी का पुत्र कह गया है।
  • अग्नि का विभिन्न कार्य हैं –
    • इसी के द्वारा यज्ञ सम्पन्न होते थे तथा यह आहुतियों को देवताओं तक पहुँचाता था।
    • दैनिक कार्यों में अग्नि का उपयोग था। इसी के द्वारा दाहकर्म किया जाता था।
    • शीत, रोग, अंधकार, हिंसक पशु सभी उसके भय से दूर भागते थे।
    • इस प्रकार अग्नि का महत्त्व विविध प्रकार का था।
  • अग्नि का सम्बंध विभिन्न देवताओं से जोड़ा गया है। अग्नि को सूर्य का ही रूप कहा गया है। वह चर-अचर का ज्ञाता है, इसीलिए इसे ‘जाति वेदस्‘ कहा गया। सूर्य के समान सर्वद्रष्टा होने के कारण उसका नाम ‘भुवनचक्षु‘ है।
  • वह राक्षसों, पिशाचों आदि का विनाशक तथा मनुष्यों का मित्र एवं रक्षक था जिसके कारण उसे पिता, बन्धु, मित्र भी कहा गया है।

वरुण देवता सम्बन्धित मुख्य बातें निम्नलिखित हैं :-

  • यह ऋग्वैदिक काल का इन्द्र और अग्नि के बाद तृतीय प्रमुख देवता थे।
  • वरुण जगत् का नियन्ता, देवताओं का पोषक तथा ऋतु का नियामक था। वह आकाश, पृथ्वी तथा सूर्य का भी निर्माता था। ‘वायु’ उसका श्वास था तथा वह ऋतुओं को नियमित करता था। वह सभी मनुष्यों के कार्यों का निरीक्षण सूर्यरूपी नेत्र से करता है तथा पापियों को अपने पाश में आबद्ध कर लेता है। उसे जल का भी स्वामी कहा गया है।
  • वरुण की प्रसिद्धि ‘ऋत्’ का प्रमुख होने के कारण थी। इसीलिए वरुण को ‘ऋतस्य गोपा’ कहा गया। ऋत् वे भौतिक व नैतिक नियम हैं जिनसे सम्पूर्ण संसार संचालित होते हैं।
  • ऋत् का प्रमुख होने के कारण वरुण का एक अन्य कार्य ‘अपराधियों को दण्ड देना था।’
  • एक हजार स्तम्भों वाले महल में रहते हुए उसे दर्शाया गया है।
  • वरुण देवता की तुलना ईरानी देवता ‘अहुरमज्दा’ से की जाती है।
  • वैदिक काल के बाद वरुण का महत्त्व घट गया तथा वह एकमात्र जल का देवता रह गया।

सोम देवता सम्बन्धित प्रमुख बातें निम्न हैं :-

  • अग्नि के बाद पृथ्वीवासी देवताओं में सोम महत्त्वपूर्ण था।
  • सोम देवताओं का प्रमुख पेय भी था जिसमें देवत्व का आरोपण किया गया। वह आनन्द तथा प्रफुल्लता का देवता बन गया।
  • सोम को पश्चिमी हिमालय की ‘मूजवंत’ चोटी से प्राप्त होता था।
  • ऋग्वेद का पूरा ९वाँ मण्डल इसी देवता को समर्पित है।

सूर्य – आकाश के देवताओं में सूर्य सर्वप्रमुख थे जिनकी स्तुति पूरे दस सूक्तों में की गयी है। उन्हें सर्वदर्शी एवं स्पश् कहा गया है। ऋग्वेद में सूर्य को रक्षक और अच्छे-बुरे कार्मों का द्रष्ट्रा कहा गया है। सूर्य का सिंहासन ‘रिक्त’ रहता है। इसके रथ को घोड़े द्वारा खींचते हुए दिखाया गया है।

सविता या सवितृ – जब सूर्य पूरी तरह से चमकने लगता था तब उसे सविता / सवितृ कहा जाता है। इस तरह सवितृ सूर्य का ही एक रूप है। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में उल्लिखित ‘गायत्री मंत्र’ इन्हीं ( सवितृ ) को समर्पित है। इस मंत्र के द्रष्ट्रा ऋषि विश्वामित्र हैं।

मित्र – उगता हुआ सूर्य मित्र कहा गया है। मित्र को हजार स्तम्भों वाले महलों में निवास करते हुए कहा गया है।

अश्विन् – यह युगल / युग्म देवता हैं। ये देवों के कुशल चिकित्सक है। ये सुबह और शाम के जुड़वा तारे हैं। इन्हें ‘नासत्य‘ भी कहा जाता है।इन्होंने आर्यों के पैरों को जोड़ने का कार्य किया और उनके नावों की मरम्मत ( भुज्यु ) भी की थी। च्यवन ऋषि को अश्विन् कुमारों ने ही यौवन प्रदान किया था। इन्द्र, अग्नि और सोम के पश्चात् सर्वाधिक सूक्त इन्हीं को समर्पित है।

द्यौस – आकाश को ही द्यौ / द्यौस कहा गया है। यह आर्यों का सबसे प्राचीन देवता था। यह सभी देवताओं के लिये पिता तुल्य था।

विष्णु – इन्होंने ही आकाश को स्थिर करने का श्रेय है।

उषा – प्रातः काल की देवी, यह आर्यों की सबसे प्रमुख देवी मानी जाती हैं।

अदिति – यह आर्यों की प्रमुख देवी हैं जो सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त है। यह देवताओं और आर्यों के माँ सदृश हैं।

पूषन् – यह वनस्पतियों और पशुओं के देवता थे। इनके रथ को बकरों द्वारा खींचते हुए दिखाया गया है।

रूद्र – ऋग्वेद में इनके केवल क्रोधी स्वरूप का उल्लेख मिलता है। मात्र तीन सूक्तों में इनका उल्लेख मिलता है।

अन्य देवता :-

  • वयु – हवा का देवता
  • पर्जन्य – बादल
  • मरुत् – आँधी का देवता
  • आप – सृष्टि का देवता
  • आरण्यानी – जंगल की देवी
  • सरस्वती – ज्ञान की देवी
  • वृहस्पति – यज्ञ का देवता

देवताओं का स्वरूप

आर्यों के प्रधान देवता ‘प्राकृतिक शक्तियों’ के प्रतिनिधि है जिनका ‘मानवीकरण’ किया गया है। ऋग्वैदिक आर्यों ने अपने देवताओं की कल्पना मनुष्य रूप में ही किया तथा उनमें समस्त मानवोचित गुणों को आरोपित कर दिया

देवता तथा मनुष्य में मुख्य अन्तर यह था कि देवता अमर माने गये जबकि मनुष्य मर्त्य था। देवता मनुष्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते थे तथा उनमें मनुष्यों जैसी दुर्बलताएँ भी नहीं थीं। दूसरे शब्दों में देवताओं की उत्पत्ति तो मानी गयी गयी है परन्तु वे अमर हैं, दूसरी ओर मनुष्य का जन्म और मृत्यु दोनों होती है। देवताओं में मानवोचित दुर्बलताओं का अभाव होता है।

तेज, बल, ज्ञान, स्वत्व, सत्य इत्यादि देवताओं के गुण बताये गये हैं। देवता हितकारी और उपकारी होते थे, लेकिन कुछ देवता; यथा – रुद्र और मरुत् में अपकारी और अहितकारी प्रवृत्ति भी होती है।

‘सोमरस’ देवताओं का मुख्य पेय कहा गया है। ‘रुद्र’ और ‘मरुत्’ के सिवाय अन्य देवताओं का स्वरूप मंगलकारी बताया गया है। वे आसुरी शक्तियों का दमन करते हैं तथा प्रकृति की व्यवस्था के नियामक है। सज्जनों को पुरस्कृत एवं दुर्जनों को दण्डित करना उनका कार्य है। उनका निवास-स्थान स्वर्ग या विष्णु का तृतीय पद बताया गया है जहाँ सोमरस पान करते हुए वे सुखपूर्वक निवास करते हैं।

इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन है? यह निर्धारित करना कठिन है। ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की है उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का आरोपण कर दिया है। मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को ‘एकाएकात्मवाद’ [ हेनोथीज्म (Henatheism)] कहा है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि ऋग्वैदिक देवता प्रधानतः पुरुष देवता हैं। कभी-कभी देवताओं की कल्पना पशु-रूप में भी मिलती है, जैसे- इन्द्र या द्यौस को वृषभ एवं सूर्य को अश्व के रूप में कल्पित किया गया है। परन्तु इससे ऐसा समझ लेना कि ऋग्वैदिक आर्य पशुओं की भी पूजा करते थे, समीचीन नहीं होगा। किसी पशु को पूर्वज मानकर उसे पवित्र और देवता मानने का विश्वास भी ऋग्वेद में नहीं मिलता। कहीं-कहीं इन्द्र की मूर्ति को ‘शत्रुओं से रक्षा करने वाली’ कहा गया है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ऋग्वैदिक आर्य मूर्तिपूजा करते थे। फिरभी इससे गंडे-ताबीज में विश्वास (Fetishism) की कुछ झलक तो मिलती ही है।’३२

  • Hindu Civilisation – Radha Kumud Mukherjee ३२

देवताओं को ‘असुर’ (असु अर्थात् प्राणशक्ति सम्पन्न) कहा गया है। कालान्तर में यह शब्द राक्षसों का सूचक हो गया।

उपासना पद्धति

ऋग्वैदिक आर्यों की उपासना रीति में सम्मिलित था – देवताओं की स्तुति करना, मंत्रोच्चार द्वारा देवताओं का आह्वान करना और यज्ञ करना। देवताओं की उपासना जब यज्ञों द्वारा की जाती थी तब यज्ञ में शाक-जौ, दूध, अन्न, घृत, मांस तथा सोम की आहुतियाँ दी जाती थीं। कभी-कभी पशुओं की बलि भी दी जाती थी। पशु बलि से पहले पशु को यज्ञ-वेदी के समीप बने ‘यूप’ ( स्तम्भ ) से बाँधा जाता था। यज्ञीय विधि-विधान अत्यन्त जटिल थे।

ऋत् की संकल्पना

ऋग्वेद में प्राप्त ऋत् की अवधारणा तत्कालीन समय के लोगों की सैद्धान्तिक मान्यताओं की ओर संकेत करती है। जी० सी० पाण्डेय ‘ऋत्’ की व्युत्पत्ति ‘ऋ’ धातु से मानते हुए इसका अर्थ गति और गति का मार्ग, हेतु और लक्ष्य करते हैं।

प्राच्य-विद्या के आरम्भिक चरणों में विन्टरनिट्ज, मैकडॉनल, कीथ आदि विद्वानों ने ऋत् की व्याख्या ‘सृष्टि की नियमितता’; ‘भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था’; ‘अंतरिक्षीय एवं नैतिक व्यवस्था’ आदि रूपों में की है।

परन्तु यह तो इस ऋत् की अवधारणा का एक पक्ष है। इस सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ऋग्वेद के मंत्र द्रष्ट्राओं ने ऋत् के ह्रास पर आँसू बहाये हैं और उसके पुनरुत्थान की कामनाएँ व्यक्त की हैं।

उत्तर वैदिक काल के साहित्य में तो ऋत् पूर्ण रूप से लुप्त ही हो चुका था। अतः यदि ऋत् का अर्थ केवल भौतिक, नैतिक अथवा अंतरिक्षीय व्यवस्था मात्र होता तो उसके ह्रास पर निराशा व दुःख न व्यक्त किये जाते।

ऋग्वेद में २४ श्लोक ऐसे हैं, जिनमें यह कहा गया है कि ऋत् के द्वारा लोगों को गाएँ, जल, उनका भोजन, उनकी भौतिक समृद्धि तथा जीवनयापन के अन्य साधन प्राप्त होते थे।

सभी देवताओं का सम्बम्ध ‘ऋत्’ (विश्व की नैतिक एवं भौतिक व्यवस्था) से माना गया है। ‘ऋत्’ का अर्थ है — ‘सत्य तथा अविनाशी सत्ता।’वरुण को ऋतस्य गोपा कहा गया है। उसके आदेशों के उल्लंघन पर उसके आक्रोश का पर्याप्त वर्णन है।

ऋग्वेद में ‘ऋत्’ की बड़ी ही सुन्दर कल्पना मिलती है। बताया गया है कि सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ऋत् की ही उत्पत्ति हुई थी।३३ फिर रात्रि जन्मी, फिर तरंगित समुद्र, तरंगित समुद्र से संवत्सर का जन्म हुआ। जंगम विश्व के स्वामी ने दिन तथा रात्रि बनायी। विधाता ने सूर्य और चन्द्र को पूर्ववत् संकल्पित किया, आकाश और पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा सूर्य को इस प्रकार ऋत् के द्वारा विश्व में सुव्यवस्था तथा प्रतिष्ठा स्थापित होती है। यह विश्व की व्यवस्था का नियामक है। देवता ऋत् के स्वरूप हैं अथवा ऋत् से उत्पन्न होते हैं तथा वे अपनी दैवी शक्तियों के द्वारा ऋत् की रक्षा करते हैं।

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत।३३

(१०/१९० – ऋग्वेद।)

दशम मण्डल, सूक्त – १९०वाँ : ऋत् का वर्णन

ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥१॥

हिन्दी – प्रज्वलित तप से यज्ञ और सत्य उत्पन्न हुए। इसके बाद रात तथा दिन उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् जलपूर्ण सागर उत्पन्न हुए॥

 

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥२॥

हिन्दी – पूर्ण सागर से संवत्सर उत्पन्न हुए। पलक झपकाने में संसार के स्वामी ईश्वर ने दिन एवं रात बनाए॥२॥

 

सूर्याचन्द्रमस धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥३॥

हिन्दी – ईश्वर ने पूर्वकाल के अनुसार सूर्य और चंद्रमा को बनाया। उसने इसके बाद द्युलोक, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष को बनाया॥३॥

ऋत् के वास्तविक अर्थ को समझने के लिये अक्ष (पासा) के साथ उसके सम्बन्ध की चर्चा भी अनुचित न होगी। इस सम्बन्ध में यह कहा गया है कि ‘पासा खेल कर ऋत् की रक्षा एवं स्थापना होती है।’ यहाँ प्रतीक के माध्यम से इस बात पर बल दिया गया है कि जिस प्रकार पासे को मुट्ठी में बंद करके नहीं रखा जा सकता और सभी के सामने खुले हाथों से फेंका जाता है, उसी प्रकार सम्पत्ति की सामूहिकता के द्वारा न्याय एवं ऋत् की स्थापना होती है।

सारांश यह है कि ऋग्वेद में प्राप्त ऋत् की अवधारणा तत्कालीन प्राक्-वर्गीय (pre-class) समाज और कबायली जीवन के अनुरूप थी और जब कालांतर में समाज वर्णों एवं वर्गों में विभाजित हो गया और लोगों में लालच, ईर्ष्या, स्वार्थ या लूट की भावना ने घर कर लिया तो ऋत् का ह्रास हो गया — तभी वरुण की महत्ता का भी पतन हुआ।

ऋग्वेद में धर्म शब्द विधि (Laws) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका सम्बन्ध नैतिकता से नहीं है। डॉ० राधाकृष्णन ने ऋत् को सदाचार का मार्ग तथा बुराइयों से रहित यथार्थ पथ बताया है। धर्म तथा ऋत् का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं हैकालान्तर में दोनों परस्पर संयुक्त हो गये तथा धर्म का स्वरूप नैतिक हो गया

देव उपासना का उद्देश्य

देव-उपासना मुख्यतः भौतिक कल्याण, जैसे – युद्ध में विजय, अच्छी खेती, सन्तान प्राप्ति आदि के लिये की जाती थी। उपासना का लक्ष्य पारमार्थिक सुख नहीं था। देवता आहुतियों द्वारा प्रसन्न होते तथा फल प्रदान करते थे। दूसरे शब्दों में आर्यों की उपासना का मुख्य उद्देश्य ‘लौकिक’ था क्योंकि अभी तक पुनर्जन्म की कल्पना या अवधारणा साकार नहीं हुई थी। पुनर्जन्म का प्रथम उल्लेख ‘शतपथ ब्राह्मण’ और ‘उपनिषदों’ में मिलता है। आर्य वर्तमान जीवन में ही धन-धान्य, संतति, पशुधन आदि प्राप्त करना चाहते थे।

यज्ञों की जटिलता व अपव्ययिता

कुछ यज्ञ अत्यन्त विस्तृत एवं खर्चीले होते थे जिनका अनुष्ठान सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं थी। सोमयज्ञ ऋग्वैदिक आर्यों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रसिद्ध यज्ञ था जिसका विस्तृत विवरण मिलता है। यह एक दिन (एकाह), दो दिन से बारह दिन (अहीन) तथा तेरह दिनों से लेकर एक हजार वर्ष तक सम्पन्न होने वाला यज्ञ था। इसके लिये तीन-तीन वेदियों तथा अस्तियों, बहुसंख्यक पुजारियों (जिसमें चार प्रधान होते थे) की आवश्यकता पड़ती थी। चूँकि इसमें सोमलता के रस की आहुति दी जाती थी, अतः इसका नाम ‘सोमयज्ञ’ अथवा ‘सामयाग’ पड़ गया। इसको व्यय साध्यता के कारण केवल राजन्य और सम्पन्न वर्ग के लोग ही इसे कर पाते थे। ऋग्वेद का धार्मिक दृष्टिकोण स्पष्टतः कुलीनतन्त्रीय था जिसमें जनता के लिये उपयुक्त लोकप्रिय धर्म बहुत कम मिलता है।३४

  • The Rigveda is thus distinctly aristocratic in its outlook and has very little of popular religion suitable for the masses. -Hindu Civilisation : Radha Kumud Mukherjee.३४

अंधविश्वास, पशुपूजा व मूर्तिपूजा

ऋग्वेद में प्राप्त भूत-प्रेत, राक्षसों, अर्द्ध-देवताओं, अप्सराओं, पिशाचों, आदि के जो उल्लेख हैं, उनसे भी तत्कालीन धार्मिक जीवन के कबायली चरण की छाप दृष्टिगोचर होती हैं। कृत्या, निऋऋति, यातुधान, ससरपरी, आदि इसी प्रकार की अपकारी शक्तियाँ थीं। अनेकों जादू-टोनों का भी वर्णन मिलता है।

अज, शिग्रु, काश्यप, गोतम, कौशिक, माण्डूक्य, मत्स्य आदि जाति एवं व्यक्तियों के नामों से गणचिन्हात्मक (टोटम सम्बंधी) आस्थाओं के प्रचलन का आभास मिलता है। एक स्थान पर तो स्वयं प्रजापति की कल्पना भी कूर्म के रूप में की गयी है। अथर्ववेद में भी इस प्रकार के अनेकों उल्लेख हैं।३५

  • देखिए, जे० आर० जोशी कृत ‘Some minor Divinities in Vedic Mythology and Rituals’। चंद्रा चक्रवर्ती कृत ‘Common life in the Rigveda and Atharvaveda : an account of the folklore in the Vedic Period’। तथा एन० जे० शेंडे कृत ‘The Religion and the Philosophy of the Athervaveda’।३५

यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि कबायली धार्मिक जीवन की विशेषताओं में टोटमी विश्वास, पूर्वज पूजा, भूत-प्रेत आदि में विश्वास, जादू-टोना, प्रतीक-पूजा, आदि प्रमुख हैं।

यदा-कदा देवताओं की कल्पना पशु-रूप में भी की है; यथा – इन्द्र या द्यौस को वृषभ एवं सूर्य को अश्व के रूप में। परन्तु इससे यह समझनाकि ऋग्वैदिक आर्य पशुओं की भी पूजा करते थे, सही नहीं है। किसी पशु को पूर्वज मानकर उसे पवित्र और देवता मानने का विश्वास भी ऋग्वेद में नहीं मिलता।

कहीं-कहीं इन्द्र की मूर्ति को ‘शत्रुओं से रक्षा करने वाली‘ बताया गया है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ऋग्वैदिक आर्य मूर्तिपूजक थे।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि ऋग्वैदिक आर्य न तो मूर्तिपूजक थे और न ही पशुपूजा करते थे। हाँ गंडे-गाबीज में विश्वास ( fetishism ) के संकेत अवश्य मिलते हैं।

बहुदेववाद, एकेश्वरवाद व एकवाद

परन्तु देवताओं की बहुलता एवं कर्मकाण्डों की जटिलता बहुत दिनों तक नहीं चल सकी। शीघ्र ही ऋग्वैदिक ऋषियों ने बहुदेववाद को चुनौतीदे दी। देवताओं की संख्या कम करने के लिये कुछ को मिलाकर एक ही श्रेणी में कर दिया गया। पृथ्वी तथा आकाश को मिलाकर ‘द्यावापृथ्वी’नाम दिया गया। मित्र-वरुण, ऊषा-रात्रि को संयुक्त किया गया। मरुतों, आदित्यों तथा अश्विनों की भी एक ही श्रेणी मानी गयी।

किन्तु उन्हें इतने से ही संतोष नहीं हुआ। वे तो सर्वोच्च देवता की खोज करना चाहते थे। उनकी जिज्ञासा बढ़ती गयी तथा अपने चिंतन के अंतिम स्तर पर उन्होंने यह जान लिया कि ‘सत्’ एक है, ज्ञानी लोग उसे अनेक नामों से पुकारते हैं— अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि।३६ यह एकेश्वरवादकी अभिव्यक्ति थी।

एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः।३६

दशम् मण्डल – ऋग्वेद।

प्रसिद्ध पुरुषसूक्त में वैदिक ऋषि सम्पूर्ण जगत् को एक रूप में देखते हैं। सृष्टि को ‘विराट पुरुष’ के आत्मयज्ञ का परिणाम बताया गया है। उसे विश्वकर्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, अदिति आदि नाम दिये गये हैं। मानव चिन्तन के इतिहास में यह अद्वैतवाद की प्रथम अनुभूति है

इसके अनुसार ‘विराट पुरुष सहस्त्र सिर, नेत्र तथा सहस्त्र पैरों से युक्त है। वह सम्पूर्ण पृथ्वी में व्याप्त है तथा उससे दश अंगुल भी परे नहीं है। जो कुछ भी है तथा होने वाला है वह सब पुरुष ही है। वही अमरत्व का स्वामी है। अन्न से पोषित होने वाले समस्त प्राणियों में उसी की सत्ता है। उसकी इतनी बड़ी महिमा थी और उससे भी महान् वह पुरुष था। समस्त विश्व उसका एक पाद है तथा उसका तीन पाद बाहर अन्तरिक्ष में है। उसके एक पाद से समस्त भूत व्याप्त है तथा तीन पाद द्युलोक स्थित अमृत है। यही चारों ओर चराचर जगत् में व्याप्त है।३७

सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।

स भूमिं विश्वतो वृत्वा त्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥

पुरषवेदं सर्वं यद् भूतं यच्चभव्यम्।

उतामृतत्वस्थेशानो यदन्नेनातिरोहति॥

एतावानस्य मोहमतो ज्यायांश्च पुरुषः।

पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतंदिविः॥३७

पुरुष सूक्त; दशम् मण्डल – ऋग्वेद।

इसी प्रकार एक अन्य सूक्त में बताया गया है कि समस्त देवताओं के भीतर वर्तमान सामर्थ्य एक ही है (महत् देवामामसुरत्वमेकम्)। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है।

 

आक्षित्पूर्वास्वपरा अनूरुत्सद्यो जातासु तरुणीष्वन्तः।

अन्तर्वतीः सुवते अप्रवीता महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

तृतीय मण्डल, ५५वाँ सूक्त, ५वाँ श्लोक – ऋग्वेद।

हिन्दी – अग्नि सूखे प्राचीन वृक्षों में वर्तमान हैं, नए वृक्षों में उत्पत्ति क्रम से रहते हैं तथा इसी समय उत्पन्न पल्लवित वनस्पतियों में अंतर्भूत होते हैं, ओषधियाँ किसी अन्य के गर्भाधान के बिना केवल अग्नि के संसर्ग से गर्भवती होकर पुष्प, फल आदि को जन्म देती हैं। देवों का प्रमुख बल एक ही है॥

 

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥

प्रथम मण्डल, १६४वाँ सूक्त, ४६वाँ श्लोक – ऋग्वेद।

हिन्दी – बुद्धिमान् लोग इस आदित्य को ही इंद्र, मित्र, वरुण और अग्नि कहते हैं। वह सुंदर पंखों और शोभन गति वाला है। एक होने पर भी ये विद्वानों द्वारा अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि अनेक नामों से पुकारे जाते हैं॥

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक काल की प्रारम्भिक अवस्था में ‘बहुदेववाद’ मिलता है। उसके बाद ‘हीनोथीज्म’ की अवस्था आती है जहाँ विभिन्न देवताओं को बारी-बारी से सर्वोच्च स्थान दिया गया। इसी प्रक्रिया में देवताओं की श्रेणियाँ बनीं और युगल देवता भी बनाये गये। फिर अभिव्यक्तियाँ आयी “महद्देवाना-मसुरत्वेकम्’ तथा ‘एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’। यह ‘एकेश्वरवाद’ की अभिव्यक्ति थी। परन्तु वैदिक ऋषि यहीं नहीं रुके और ऋग्वेद में हमको ‘एकवाद/अद्वैतवाद’ की संकल्पना भी पाते हैं जिसका पूर्ण विकास उपनिषदों में होने वाला था और भारतीय दर्शन की पराकाष्ठा का परिचायक होने के साथ-साथ विश्व को अपने ‘तत्त्व-दर्शन’ को चमत्कृत करने वाला था।

बहुदेववाद से एकेश्वरवाद और अंततः एकवाद की यात्रा जो कि उत्तर वैदिक काल में पूर्णता को प्राप्त करने वाली थी; इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक निहितार्थ क्या थे? इस पिपासा के पीछे शायद कबायली जीवन में आये तनाव एवं दरार हो सकती है। साथ-साथछोटे-छोटे कबीले बड़ी इकाइयों में विलीन होकर जन से जनपद, जनपद से महाजनपद और अंततः एक बड़े साम्राज्य की पृष्ठभूमि का परिचायक तो नहीं? क्या यही सबकुछ धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी तो अभिव्यक्त नहीं हो रहा था। यह प्रश्न प्रासंगिक भी है और इस पर विचार करने से एक नयी अंतर्दृष्टि भी मिलती है।

परलोक विचार

ऋग्वैदिक आर्यों के परलोक विषयक विचार अधिक स्पष्ट नहीं है। एक स्थान पर मृतात्मा को यम द्वारा शासित लोक में शांतिपूर्वक सुख के साथ निवास करने वाला कहा गया है। स्वर्ग की बड़ी सुन्दर एवं मनोरम कल्पना की गयी है। बताया गया है कि ‘वहाँ दिन, रात तथा जल सभी सुन्दर और आनन्ददायक होते हैं। वहाँ व्यक्ति बलिष्ठ तथा सुन्दर शरीर को प्राप्त करता है और उसका शरीर सभी प्रकार की दुर्बलताओं, आधि-व्याधि आदि से मुक्त हो जाता है। पुण्यकर्मी प्राणी अपने यज्ञादि कर्मों का फल वहाँ प्राप्त करते हैं। वहाँ अश्वत्थ वृक्ष है जिसके नीचे यम देवताओं के साथ पान करते हैं। नरक की कल्पना दुष्कर्मियों के लिये दण्ड स्थान के रूप में की गयी है। ऐसा लगता है कि लोग पापकर्म के दुष्परिणामों से डरते थे। पाप, ऋत् के उल्लंघन से पैदा होता था। ‘ऋत्’ के मार्ग को श्रेष्ठ कहा गया है (सुगाऋतस्य पन्थाः)।

देवताओं की उपासना, यज्ञीय विधि-विधानों का अनुष्ठान तथा ईश्वर की इच्छा के अनुकूल आचरण करना — ये ही नैतिक जीवन के आदर्श थे।

आशावादी दृष्टिकोण

ऋग्वैदिक ऋषियों के विचार पूर्णतया आशावादी थे जिसमें निराशावाद की कोई झलक नहीं मिलती है। जीवन चाहे सत्य रहा हो या झूठ, वे उसका पूर्ण उपभोग करना चाहते थे। ऋग्वेद दीर्घ आयु, रोगों से मुक्ति, वीर-सन्तति, धन, शक्ति, खानपान की अधिकता, शत्रुओं पर विजय आदि की प्रार्थनाओं से भरा हुआ है। ऋग्वैदिक ऋषि ने जीवन को बन्धन मानकर उसके सुखों की उपेक्षा करने का कभी प्रयास नहीं किया और न ही कायाक्लेश आदि में ही विश्वास किया।

उत्तर वैदिक काल

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