उपकरण प्ररूप : पाषाणकाल

भूमिका

आदिमानव की सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति प्रस्तर औजारों के रूप में सामने आता है। मानव ने प्रस्तर को कैसे तराशकर उपकरणों का रूप दिया और इसको उपयोगी कैसे बनाया? इनके निर्माण में कौन सी तकनीकी का प्रयोग किया? किन शिलाखण्डों को चुना? जैसे प्रश्न इन उपकरण प्ररूप ( Tool Types ) के अध्ययन से मिलते हैं।

उपकरण बनाने की प्रक्रिया

उपकरण निर्माण
उपकरण प्ररूप बनाना

(१) उपकरण बनाने के लिए एक उपयुक्त प्रस्तर खण्ड का चुनाव किया जाता है। फिर किसी सुविधाजनक बटिकाश्म ( pebble ) से हथौड़े की तरह उस पर चोट किया जाता है। इससे उस पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा अलग हो जाता है। जिस पत्थर को बार-बार चोट करके उसे अभीष्ट रूप में ढाल सकते हैं, उसे क्रोड ( core ) कहते हैं और उससे जो छोटे-छोटे टुकड़े उतारे जाते हैं उन्हें शल्क ( flakes ) कहते हैं। आकृति- विज्ञान की दृष्टि से क्रोड़ को एक या अधिक ऋणात्मक अवनमनों ( depressions ) से पहचाना जाता है जो हथौड़े सदृश बाटिकाश्म की चोट के निशान सूचित करते हैं। इन्हें ऋणात्मक आघात-गोलक ( negative bulbs of percussion ) की कहते हैं। प्रत्येक शल्क में एक उभरा हुआ हिस्सा होता है। यह उन ऋणात्मक गोलकों के जोड़ का होता है जहाँ उसे तोड़कर अलग किया गया था। इसे धनात्मक आघात गोलक ( positive bulbs of percussion ) कहते हैं।

(२) जो प्रक्रिया सरल शल्कन ( flaking ) से आरम्भ होती है उसका अंत गौण शल्कन से होता है और फिर किनारों पर बारीक घिसाई की जाती है ताकि तेज धार बनायी जा सके।

(३) तैयार नमूने की आकृति कैसी है और उसकी धार कैसे बनाई गयी है— इस आधार पर उपकरण प्ररूप ( Tool Types ) निर्धारित किया जाता है।

(४) जब किसी स्थल पर मिलने वाले अधिकांश उपकरण-प्ररूप, शल्कों ( flake ) से तैयार किए गये हों, तब उद्योग को उन्नत प्रौद्योगिकी ( technology ) पर आधारित मानते हैं, क्योंकि इससे प्रागैतिहासिक समुदाय की इस सूझ-बूझ का प्रमाण मिलता है कि परिश्रम के परिणाम का अधिकतम उपयोग कैसे किया जाए। उदाहरणार्थ ३० सेमी तेज किनारे वाले सामान्य आकार का क्रोड़ उपकरण बनाने के लिए बारह प्रहार अपेक्षित हैं। परन्तु यदि ये बारहों प्रहार सुनियोजित ढंग से किए जाएँ तो इनसे जो बारह शल्क उतारे जाएंगे उनमें से प्रत्येक १५-१५ सेमी० का तेज किनारा प्रदान करने में सक्षम होगा। अतः शल्कों पर अधिक ध्यान देने का परिणाम यह होगा कि किसी क्रोड़ पर उतने ही परिश्रम से केवल ३० सेमी० की बजाय १५ × १२ = १८० सेमी० लंबी तेज धार प्राप्त हो सकेगी।

साथ ही यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई भी समुदाय शल्क-विधि के लाभ से परिचित होने के बावजूद कुछ क्रोड़ उपकरणों का प्रयोग जारी रखता है क्योंकि केवल तेज किनारे से सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो जातीं। चीरने फाड़ने के लिए भारी क्रोड़ उपकरण भी महत्त्वपूर्ण होते हैं।

दो महत्त्वपूर्ण तकनीकें : क्लैक्टोनी व लवाल्वाई

क्रोड़ पर बेतरतीब प्रहार करके शल्क उतारने की सामान्य विधि के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण तकनीकें और भी हैं। इन्हें क्लैक्टोनी ( Clactonian ) और लवाल्वाई ( Levalloisean ) तकनीकें कहा जाता है।

क्लैक्टोनी तकनीक

क्लैक्टोनी तकनीक ( Clactonian Technique ) के प्रयोग का पहला पहला विवरण लगभग ४,००,००० वर्ष पूर्व इंग्लैंड के क्लैक्टोन-ऑन-सी नामक स्थान पर मिलता है। इस तकनीक के अंतर्गत किसी क्रोड से एक बड़ा-सा शल्क ( flake ) उतारते हैं और फिर पहले शल्क के चिह्न को दूसरा शल्क उतारने का आधार-तल बना लेते हैं। यही प्रक्रिया तीसरे और बाद के शल्कों के सन्दर्भ में भी दोहरायी जाती है। क्लेक्टोनी शल्क बड़े और मोटे होते हैं और उनमें बहुत स्पष्ट धनात्मक आघात गोलक ( positive bulbs of percussion )  देखने को मिलता है। आधार-तल पर शल्क-चिह्न से जो कोण बनता है वह सामान्यतः ९०° से बड़ा ( अधिक कोण – Obtuse Angle ) होता है।

लवाल्वाई तकनीक

लवाल्वाई तकनीक ( Levalloisean Technique ) के प्रयोग का विवरण अपेक्षाकृत परवर्ती समय का है। यह लगभग २,००,००० वर्ष पूर्व फ्रांस में पेरिस के निकट लवाल्वाई नामक स्थान पर मिलता है। इस विधि के अंतर्गत पहले क्रोड़ के एक तल से अनेक केंद्रोन्मुख शल्क उतार कर कोड़ को तैयार किया जाता है, और फिर तैयार तल के शीर्ष पर प्रहार करते है ताकि ऐसा शल्क उतार सकें जिसके बाह्य या पृष्ठीय तल से और शल्क उतारे जा सकेँ अतः इस विधि को निर्मित क्रोड़ तकनीक ( prepared core technique ) भी कहते हैं। शल्क प्रायः छोटे से लेकर मध्यम आकार के होते हैं जिनके पृष्ठीय तल पर शल्कों के निशान बने होते हैं। प्रहार का आधार-तल बहुधा यह दर्शाता है कि उसे जान-बूझकर बराबर करने का प्रयास किया गया है। इस प्रक्रिया को फलकन ( facetting ) कहते हैं और इससे शल्क-तल के साथ लगभग ९०° का कोण ( समकोण – Right Angle ) बनता है।

प्रमुख उपकरण प्ररूप

कुछ आधारभूत उपकरण-प्ररूप :- प्रागैतिहासिक पुरातत्त्व में इनका प्रयोग सांस्कृतिक विशेषकों के रूप में किया जाता है —

गँड़ासा और खंडक उपकरण

गँड़ासा और खंडक उपकरण ( Chopper and Chopping Tool ) : ये क्रोड़ उपकरण ( Core Tool ) हैं। इनको बनाने के लिए बाटिकाश्म ( Pebble ) के एक सिरे से बहुत थोड़े परंतु गहरे शल्क उतार लेते हैं ताकि काम करने वाली चौड़ी धार बन जाए। जब ये शल्क एक ही तल से उतारे जाते हैं, अर्थात् जब उनकी धार एक ओर बनायी जाती है तो ऐसे प्ररूप को गँड़ासा ( Chopper ) कहते है। जब धार दोनों ओर बनायी जाती है तो उसे खंडक ( Chopping ) उपकरण कहा जाता है।

हस्तकुठार और विदारणी

हस्तकुठार और विदारणी ( Handaxe and Cleaver ) : ये अतीत काल के सबसे पुराने परिचित उपकरण हैं। जितनी बार ये उपकरण मिले हैं उतनी बार और कोई उपकरण नहीं मिले हैं। मोटे तौर पर ये तिकोने क्रोड़ उपकरण होते हैं जिनमें दोनों ओर इस तरह धार बनायी जाती है कि दो प्रखर पार्श्व एक जगह मिलकर काम करने वाला तंग सिरा बना देते हैं। जब पार्श्व एक जगह मिलने के बजाय समानांतर होते हैं और काम करने वाला चौड़ा सिरा बनाते हैं तो ऐसे उपकरण को विदारणी ( Cleaver ) कहते हैं।

हमारी अधिकांश भारतीय और अफ्रीकी विदारणियाँ केवल एक ओर धार वाली हैं और ये बड़े-बड़े शल्कों से बनी हैं। पृष्ठीय तल से एक ढलवाँ शल्क उतारा जाता है ताकि उसका चिह्न तल के नीचे की पट्टी का प्रतिच्छेदन करते हुए छैनी जैसा चौड़ा काम करने वाला सिरा बना दे। विदारणी का कुंदा यदि चौड़ा हो तो उसे ‘यू’ ( U ) आकारवाली कहते हैं और यदि वह नुकीला हो तो उसे ‘वी’ ( V ) आकारवाली कहा जाता है।

हस्तकुठार या कुल्हाड़ी बनाने के तरीके के आधार पर दो तरह के होते हैं – एक, एबीवेली हस्तकुठार और दूसरा, ऐशूली हस्तकुठार।

एबीवेली हस्तकुठार

यदि हस्तकुठार ( कुल्हाड़ी ) लंबा-चौड़ा, भारी-भरकम और अनगढ़ हो तो उसे एबीवेली हस्तकुठार ( Abbevillin Handaxe ) भी कहते सकते हैं। यह नाम ( एबीवेली ) मिंडेल युग की पश्चिम यूरोपीय पूर्व पुरापाषाणकालीन परंपरा के अनुसार रखा गया है। इसको तैयार करने के लिए, गहरे प्राथमिक शल्कों की केवल एक शृंखला उतारी जाती है। परिणामतः इसका काम करने वाला किनारा बड़ा उबड़-खाबड़ होता है और प्रायः वह अनगढ़ व बेडौल भी होता है।

ऐशूली हस्तकुठार

ऐशूली हस्तकुठार ( Acheulion handaxe ) : यह एबीवेली प्ररूप के एकदम विपरीत होता है। इसका नाम रिस युग ( Riss period ) की एक अन्य पश्चिम यूरोपीय पूर्व पुरापाषाणकालीन परंपरा के आधार पर रखा गया है। यह हस्तकुठार से काफी छोटा और सुडौल होता है और इसे तैयार करने में अनेक बार द्वतीयक शल्क उतारे जाते हैं और किनारों का व्यापक परिष्कार किया जाता है। यह परिष्कार ऐसे करते हैं जैसे नरम-नरम सब्जियों को चाकू से काट दिया हो। प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि खोखली अस्थि और शृंग को हथौड़े के रूप में प्रयोग करने पर ऐसे नियंत्रित परिणाम उत्पन्न प्राप्त किये जा सकते हैं। एक अत्यंत परिष्कृत ऐशूली हस्तकुठार अंडाकार हस्तकुठार है। यह लंबे खींचे गए बिब की तरह का होता है और चपटा रखकर देखने से इसका पार्श्व सामान्यतया ‘एस’ ( S ) के आकार सदृश लगता है।

  • अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) का तीसरा चरण जिसका नाम दक्षिण-पश्चिम जर्मन को रिस (Riss) नदी के आधार पर रखा गया है।

खुरचनी

खुरचनी (Scraper) : इनमें शल्क उपकरणों की दो भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ आ जाती हैं—पार्श्व खुरचनी और अंत्य खुरचनी। इनमें किसी मोटे शल्क के एक या अनेक किनारों की घिसाई की जाती है ताकि एक तेज और मजबूत किनारा बन जाए। जब काम करने वाला किनारा लंबे खींचे गए शल्क के सिरे पर होता है तब इस उपकरण को अंत्य खुरचनी कहते है और जब वह बड़े किनारे के साथ-साथ बना होता है, तब उसे पाश्वं खुरचनी कहते हैं।

वेधनी

वेधनी (Point) : किसी भी ऐसे शल्क या फलक के प्ररूप को वेधनी कहते हैं जिसमें एक जगह मिलने वाले दोनों किनारों के साथ-साथ घिसाई कर दी जाती है ताकि एक पतला नुकीला, काम करने वाला सिरा बन जाये।

तक्षणी

तक्षणी ( Burin ) : यह शल्क या फलक से बनने वाला उपकरण है। इसमें दो ऐसे झुके हुए तल बनाए जाते हैं जो हू-ब-हू आधुनिक पेचकस की तरह एक-दूसरे के साथ जुड़े होते हैं।

वेधक

वेधक ( Borer ) : यह कुछ-कुछ मोटे किंतु छोटे शल्कों और फलकों से इस तरह तैयार किया जाता है कि इसमें बाहर निकले हुए हिस्से के कंधे पर एक या दो दाँते बनाकर एक मोटी नोक निकल आये।

इसके अतिरिक्त भी बहुत सारे उपकरण प्ररूप हैं जिनका अध्ययन पुरातत्त्ववेत्ताओं का पूर्णकालिक व्यवसाय है।

आरम्भिक मानव ( The Earliest People )

पाषाणकाल : काल विभाजन

मानव उद्विकास ( Human Evolution )

पूर्व पुरापाषाणकाल ( Lower Palaeolithic Age )

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age )

उत्तर पुरापाषाणकाल ( Upper or Late Palaeolithic Age )

मध्यपाषाणकाल ( Mesolithic Age )

नवपाषाणकाल ( Neolithic Age )

ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ

 

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