ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ ( Chalcolithic Cultures )

विषयसूची

भूमिका

इसका नाम ताम्रपाषाण संस्कृति इसलिए कहते हैं क्योंकि मानव ने इस चरण में पाषाण व ताँबे का प्रयोग एक साथ किया अर्थात् ताँबे और पत्थर के उपयोग की अवस्था ( the copper-stone phase )। ताम्रपाषाण को अँग्रेजी में Chalcolithic कहा जाता है; यह दो यूनानी ( Greek ) शब्दों से मिलकर बना है  :- Chalcolithic = khalkos + lithos :  Khalkos  = ‘copper’ और Lithos = ‘stone’। इसको ताम्रकाल ( Copper age ) भी कहते हैं।

नवपाषाणकाल की समाप्ति के बाद भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृतियों का अस्तित्व देखने को मिलता है। एक ओर जहाँ सिंधु-सरस्वती नदी घाटियों में क्रमशः एक पूर्ण विकसित नागर सभ्यता को विकसित होते हुए हम पाते हैं वहीं दूसरी ओर अन्यान्य भूभागों में एक अत्यंत भिन्न तरह की संस्कृति विकसित होते हुए पाते हैं। यद्यपि

भारतीय उप-महाद्वीप के आन्तरिक भू-भागों में विकसित ये ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ धातु का प्रयोग करती थीं, परन्तु वह नागर-संस्कृति के स्तर तक कभी नहीं पहुँची

तकनीकी रूप से नवपाषाणकाल के बाद धातुकाल आता है। इस धातु में क्रमशः ताँबा, काँसा व लौह युग आया। दूसरे शब्दों में कहें तो तकनीकी दृष्टि से ताम्रपाषाण अवस्था हड़प्पा की काँस्ययुगीन संस्कृति से पूर्ववर्ती और नवपाषाणकाल से पश्चातवर्ती है

भारतीय उप-महाद्वीप में इस समयक्रम के पालन में बड़ी विचित्र दशा पायी गयी है। भारतवर्ष अत्यंत विशाल है और यह सांस्कृतिक विकास-क्रम यहाँ पर सरल रेखीय नहीं पाया जाता है। जहाँ पश्चिमोत्तर में नवपाषाणकाल के बाद ताम्रपाषाण युग आया और आगे उसी पर काँस्य युगीन सैन्धव-नागर सभ्यता का विकास हुआ। वहीं भारतीय भू-भाग के आन्तरिक क्षेत्रों में ताम्रकाल तो आया पर काँस्यकाल या तो आया ही नहीं अथवा बहुत सीमित प्रयोग देखने को मिलता है। अर्थात् ये ताम्रपाषाण संस्कृति प्राक्-हड़प्पा भी है, हड़प्पा की समकालीन भी है और कुछ क्षेत्रों में पश्चातवर्ती भी।

ताम्रपाषाण युग के लोग अधिकांशतः पत्थर और ताँबे की वस्तुओं का प्रयोग करते थे, किंतु कभी-कभी वे घटिया तरह के काँसे ( low grade bronze  ) का भी प्रयोग करते और यहाँ तक की लोहे का भी।

वे मुख्यत: ग्रामीण समुदाय बनाकर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियाँ थीं।

इसके विपरीत, हड़प्पाई लोग काँसे का प्रयोग करते थे और सिंधु घाटी के बाढ़ वाले मैदानों में हुई उपज की बदौलत नगर निवासी हो गये थे।

सिन्ध क्षेत्र के बाहर की पशुचारी एवं ग्राम्य संस्कृतियाँ

सैन्धव सभ्यता नागर सभ्यता थी। अतः इसके पतन के साथ मुख्यतः नगरीय तत्त्वों जैसे नगर नियोजन, भव्य भवन, भार-माप के पैमानों, लिपि आदि का ही अन्त हुआ। इसके विपरीत ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित तत्त्व जैसे खेत जोतने की पद्धति, भार ढोने के साधन ( बैलगाड़ियाँ ), लोक विश्वास, प्रथायें आदि अवशिष्ट रही।

हड़प्पा सभ्यता के पतन हो जाने के बाद अनेक क्षेत्रीय ग्रामीण संस्कृतियों का बोलबाला रहा; जैसे :-

  • झूकर संस्कृति ( Jhukar Culture ); सिंधु क्षेत्र – सबसे पहले इसको सिंधु के झूकर ( लरकाना जनपद, सिंध प्रांत, पाकिस्तान ) नामक स्थान पर पहचाना गया।
  • कब्रिस्तान एच० संस्कृति ( Cementtary H Culture ); पश्चिमी पंजाब व बहालपुर क्षेत्र – सर्वप्रथम इसको हड़प्पा स्थल के कब्रिस्तान में एक विशिष्ट मृद्भाण्ड-प्ररूप के आधार पर पहचाना गया।

उपर्युक्त दोनों संस्कृतियों व हड़प्पा सभ्यता में कोई समय-व्यवधान नहीं दिखता है। परन्तु इनके सम्बन्धों के विषय में बहुत कम जानकारी है।

इसी के साथ भारतीय उप-महाद्वीप के आंतरिक भूभागों पर अनेक विकसित ग्रामीण संस्कृतियों के दर्शन होते है। इन ग्रामीण ताम्र-पाषाणिक ( Chalcholithic ) संस्कृतियों को पशुचारी एवं कृषक समुदाय ( Pastoral and agrarian community ) कहा जा सकता है। वे जिन क्षेत्रों में निवास करते थे वहाँ पर्वतीय भूमि एवं नदियाँ थी। ग्रामीण एवं पशुचारी समाज की बस्तियाँ दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिणी-पूर्वी भागों में दिखाई देती है। इनके निवासियों द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्डों के आधार पर इन्हें जाना जाता है।

प्रमुख ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ

भारतीय उप-महाद्वीप पर पायी जानेवाली मुख्य ताँम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ निम्न हैं –

  • अहार संस्कृति – Ahar culture
  • कायथा संस्कृति – Kayatha culture
  • मालवा संस्कृति – Malwa culture
  • सालवदा संस्कृति – Savalda culture
  • जोरवे संस्कृति – Jorwe culture
  • प्रभास संस्कृति – Prabhas culture
  • रंगपुर संस्कृति – Rangpur culture

इन सभी संस्कृतियों की कुछ एक-जैसी विशेषताएँ हैं :-

  • आमतौर पर लाल रंग पर काले रंग से चित्रित मिट्टी के पात्रों प्रयोग
  • सिक्थस्फटिक ( chalcedony ) और चकमक ( chert ) पत्थर जैसे सिलिकामय सामग्री के फलक ( Blade ) और शल्क ( Flake ) बनाने के उद्योग में निपुणता
  • ताँबे और काँसे ( बहुत कम ) के उपकरण
  • जीवन-निर्वाह हेतु कृषि व पशुपालन साथ ही शिकार करते और मछली भी पकड़ते थे।

इन ताम्रपाषाण संस्कृतियों में से अधिकांश संस्कृतियाँ राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के अर्ध-शुष्क भू-भागों में फली फूली थीं जहाँ पर काली मिट्टी पायी जाती है।

ताम्रपाषाण काल - स्थल
ताम्रपाषाण युग – स्थल

प्रमुख संस्कृतियाँ

अहार संस्कृति ( Ahar Culture )

अरावली पर्वतमाला के पूर्व में बनास नदी घाटी में कई ताम्रपाषाण स्थल प्रकाश में आये हैं। इस क्षेत्र का जल बनास और उसकी सहायक नदियाँ बहाकर ले जाती हैं जो अंतत: गंगा नदी तंत्र का हिस्सा बन जाती हैं। यहाँ पर अहार संस्कृति पल्लवित हुई।

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में अहार नदी के किनारे स्थित अहार या अहाड़ नामक स्थान है। अहार नदी बेराच की सहायिक और बनास नदी की उप-सहायिका है। अहार उदयपुर जनपद में है। इसी के नाम पर अहार संस्कृति नाम पड़ा है।

इस संस्कृति से सम्बन्धित अन्य स्थान बनास नदी घाटी में मिलने के कारण अहार संस्कृति को ‘बनास संस्कृति’ भी कहा जाता है।

अहार संस्कृति के प्रमुख स्थल हैं :-

  • अहार या अहाड़ ( Ahar ) – अहार नदी तट पर, उदयपुर जनपद
  • गिलुंद – चित्तौड़गढ़ जनपद
  • बालाथल – उदयपुर जनपद

अहार या बनास संस्कृति इसमें से सबसे प्राचीन ताम्रपाषाण संस्कृति है।

अहाड़ तथा गिलुन्द के उत्खनन से बड़ी बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं।

  • अहाड़ का टीला १,५०० × ८०० फुट ( ४५७.२ × २४३.८ मी० )
  • गिलुंद का टीला १,५०० × ७५० फुट ( ४५७.२ × २२८.६ मी० )

निर्माण कार्य का अधिकांश साक्ष्य अहार या अहार से मिलता है जिसके १५ संरचनात्मक चरण देखे गये हैं। साधारण घर गारे और पत्थर के बने थे। नींवों में पत्थर का प्रयोग होता था। दीवारों को बाँस के पर्दों या पत्थर की पिंडिकाओं से सुदृढ़ बनाया जाता था और सम्भवतः ढलवाँ छतें बनायीं जाती थीं। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद मिलाकर बनाये जाते थे, और कभी-कभी उस पर नदी के पाट की बजरी बिछा दी जाती थी। कोई पूरी गृह-योजना उपलब्ध नहीं है, परंतु अहाड़ में एक मकान ३३ फुट १० इंच ( १०.३०२४ मी० ) लंबा था और एक कच्ची दीवार से उसके दो हिस्से बना दिये गये थे। मकानों में जो तंदूर ( a large earthen oven ) मिले हैं उनके कई मुँह थे और वे एक ऐसा नमूना पेश करते हैं जो इस क्षेत्र में आज भी प्रचलित है।

गिलुंद में भंडार-गर्त ( storage trough ) मिले हैं। गिलुंद में पक्की ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य भी मिला है। गिलुन्द की खुदाई में स्तम्भ-गर्त ( Post-holes ) के प्रमाण भी मिले हैं।

अहार संस्कृति की बस्तियाँ, कायथा बस्तियों के विपरीत काफी बड़ी हैं। उनमें से कम से कम तीन यानी अहार, बालाथल और गिलुंद, कई हेक्टेयर में बसी थीं। खुदाइयों से पता चला है कि बालाथल एक परकोटे ( fortified ) से घिरी बस्ती थी

इस संस्कृति के लोग अपने मकान गीली मिट्टी ( गारा ) तथा पत्थर के बनाते थे। नींव पत्थरों से भरी जाती थी तथा कभी-कभी दीवारों के निर्माण में कच्ची ईंटों ( mud bricks ) का भी प्रयोग होता था।

कुछ मकानों से चूल्हे के अवशेष मिलते है। दीवारों के निर्माण में कभी-कभी लकड़ी और बाँस का प्रयोग किया जाता था तथा उनके ऊपर छप्पर भी बनाये जाते थे।

इस संस्कृति के लोग अपने मृद्भाण्ड चाक पर बनाते थे। कई प्रकार के भाण्ड मिलते हैं। मुख्य भाण्ड काले तथा लाल रंग ( Black and Red Ware ) के हैं। कुछ पर सफेद ज्यामितीय आकृतियाँ बनायीं गयी है। इसके अतिरिक्त कुछ दूसरे प्रकार के मृद्भाण्ड भी मिलते हैं किन्तु इस संस्कृति की विशिष्ट पात्र परम्परा काली तथा लाल ही है जिसका द्वितीय सहस्त्राब्दि की ग्रामीण संस्कृतियों में व्यापक रूप से प्रचलन था।

ताँबे का प्रयोग व्यापक रूप से प्रचलित था। :- अहार से हमको केवल ताँबे की वस्तुओं की प्राप्ति होती है इसलिए इस स्थल का नाम ‘ताम्बवती’ ( ताँबे वाला स्थल ) भी मिलता है।

इस संस्कृति के लोग इस क्षेत्र की ताँबा खानों से कच्चा ताँबा एकत्र करके उसे घर पर पिघलाते और साफ करते थे। अर्थात् वे ताँबें की वस्तुयें तैयार करने में निपुण थे। ताँबे को घर पर पिघलाने की पुष्टि ताँबे के पत्तर और धातु-मल से होती है।

यह भी संभव है कि वे तैयार ताम्र उपकरणों को मध्य प्रदेश तथा दक्कन की समकालीन ताम्रपाषाण संस्कृतियों के पास तथा अन्यत्र भी भेज देते हों। ताँबे की वस्तुओं में अंगूठियाँ, चूड़ियाँ, सुरमे की सलाइयाँ, चाकू के फल और कुल्हाड़ियाँ मिली हैं।

सम्भव है वे अपने तैयार ताम्र उपकरणों का पास-पड़ोस में निर्यात भी करते रहे हैं। तीन हजार ईसा पूर्व में राजस्थान ताँबे का काम करने वाले शिल्पियों का प्रमुख केन्द्र बन गया था।

ताँबा खेत्री ( झुँझनू जनपद ) की खानों से प्राप्त किया जाता था। इसी के पास गणेश्वर ( सीकर जनपद ) नामक पुरास्थल है जिसकी खुदाई में बहुसंख्यक ताँबे के उपकरण मिलते हैं।

प्रस्तुत संदर्भ में यह बात ध्यान देने योग्य है कि ई०पू० तीसरी सहस्राब्दी में और उसके बाद राजस्थान ताम्र धातु कर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण केंद्र था। जिसका साक्ष्य मुख्यतः आधुनिक खेत्री खान-क्षेत्र से मिलता है। इसके निकटवर्ती गणेश्वर नामक स्थल पर प्रचुर मात्रा में ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं।

गिलुंद से हमको ताँबे के साथ-साथ पत्थर की वस्तुओं की भी प्राप्ति होती है।

सूक्ष्मपाषाण उपकरण संभवतः सीमित मात्रा में प्रयुक्त होते थे।

पशुओं की मृण्मूर्तियाँ, मनके, महरें इत्यादि भी मिली हैं। हल्के रत्नों के मनके भी मिले है।

अहाड़ संस्कृति के लोग मूलतः कृषक एवं पशुपालक थे। वे गेहूँ, जौ, धान ( चावल ), चना, मूँग, ज्वार, बाजरा आदि की खेती करते तथा गाय-बैल, भेड़-बकरी, सूअर, भैंस आदि पशुओं को पालते थे। हिरण आदि पशुओं का शिकार भी किया जाता था।

अहाड़ संस्कृति का कालक्रम ई०पू० २,५००-१,५०० के बीच निर्धारित किया गया है।

कायथा संस्कृति ( Kayatha Culture )

मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र पर्याप्त उपजाऊ है। इसका जल पश्चिम की ओर नर्मदा बहाकर ले जाती है और उत्तर की ओर चंबल, सिंद, बेतवा व केन नदियाँ। यह क्षेत्र पुरापाषाणकाल से ही आबाद रहा है। यहाँ पर पल्लवित संस्कृतियाँ हैं – कायथा और मालवा

उज्जैन के निकट, छोटी काली सिंध नदी के तट पर कायथा नामक स्थान के नाम पर इसका नामकरण कायथा संस्कृति रखा गया है। यह सिंधु सभ्यता की ‘कनिष्ठ समकालीन’ ताम्रपाषाण संस्कृति मानी जाती है।

यहाँ के लोग ताँबे और पत्थर दोनों का प्रयोग करते थे। वे कृषि और पशुपालन से परिचित थे। यहाँ पर सेलखड़ी ( steatite or soapstone ) और इंद्रगोप ( carnelian ) जैसे पत्थरों के उपयोग से ज्ञात होता है कि इस संस्कृति के लोग समृद्ध थे। यहाँ की कई बस्तियाँ किलेबंद थीं।

कायथा में उत्खनन कार्य वी०ए० वाकाणकर ने करवाया था।

कायथा से तीन संस्कृतियों के साक्ष्य मिलते हैं :-

  • पहले कालखंड को कायथा संस्कृति कहा गया है। इस कालखंड में चाक-निर्मित मृद्भांड के तीन मुख्य नमूने, ताँबे की अनेक कुल्हाड़ियाँ और चूड़ियाँ सूक्ष्मपाषाण उद्योग, बिल्लौर, गोमेद और सेलखड़ी के मनके प्राप्त हुए हैं। इस कालखंड की तिथि ईसा पूर्व २,२०० और २,००० के बीच निर्धारित की गयी है।
  • इस स्थल के दूसरे कालखंड में अहाड़ संस्कृति का साक्ष्य मिला है जो दक्षिण-पूर्व राजस्थान में पायी गयी है।
  • कायथा का तीसरा कालखंड उस संस्कृति से सम्बन्धित है, जिसे ‘मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति‘ की संज्ञा दी गई है, और इसका सबसे उपयुक्त साक्ष्य नवदातोली स्थल पर पाया गया है।

कायथा संस्कृति की बस्तियाँ संख्या की दृष्टि से बहुत कम हैं और अधिकतर चंबल और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में पायी गयी हैं। ये बस्तियाँ क्षेत्रफल में अपेक्षाकृत छोटी हैं और उनमें से बड़ी से बड़ी बस्ती भी शायद दो हेक्टेयर से अधिक बड़ी न हो।

मालवा संस्कृति ( Malwa Culture )

यह संस्कृति मौलिक रूप से नर्मदा नदी घाटी में फली-फूली थी। इसके कुछ प्रमुख स्थल है –

  • एरण ( Eran ) – सागर जनपद
  • नागदा ( Nagda ) – उज्जैन जनपद
  • नवदाटोली ( Navdatoli ) – खरगोन जनपद
  • महेश्वर ( Maheshwar ) – खरगोन जनपद

मालवा की ताम्रपाषणिक संस्कृति का प्रतिनिधि स्थल नवदाटोली है। यह सबसे विस्तृत स्थल है जिसका उत्खनन एच०डी० संकालिया द्वारा करवाया गया है।

मालवा संस्कृति के मृद्भाण्ड सभी ताम्रपाषाण संस्कृतियों में श्रेष्ठ या उत्कृष्टतम् माने जाते हैं। इसके कुछ मृद्भाण्ड और अन्य संस्कृति सामग्री महाराष्ट्र में भी पायी गयी है।

यहाँ से चरखे, तकलियाँ मिलने से ज्ञात होता है कि ये लोग कताई-बुनाई के कार्य में दक्ष थे।

यहाँ पर ताँबे व पत्थर दोनों की वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

लोग कच्चे मकानों में रहते थे।

वे कृषि व पशुपालन से भी परिचित थे।

इसतरह वे कुल मिलाकर एक ग्रामीण संस्कृति का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।

इनमें से कुछ बस्तियाँ प्राचीरयुक्त थीं और नागदा में तो एक कच्ची ईंटों से बना बुर्ज ( a bastion of mud-bricks ) भी है। एरण के चारों ओर एक खाईं के साथ-साथ परकोटा (fortification wall with a moat )  बना हुआ था।

नवदाटोली :-

  • यह स्थल मोटे तौर पर २ × २ फर्लांग ( Furlong ) या ४०२.२५ × ४०२.२५ मी० या ≈ १६.१८ हेक्टेयर क्षेत्र में फैला है। यह देश की बड़ी ताम्रपाषाण संस्कृतियों में से एक है।
  • मिट्टी, बाँस और फूस से बने हुए घर दो तरह के हैं :
    • चौकोर और
    • वृत्ताकार।
  • वृत्ताकार घरों का व्यास ३ फुट से १५ फुट तक है। छोटे-छोटे वृत्ताकार घर संभवतः अन्न रखने की खत्तियाँ थीं।
  • चौकोर घर साधारणतः १५ से २२ फुट तक लंबे थे।
  • फर्श और दीवारों पर चुने का लेप लगाया जाता था।
  • साक्ष्य से पता चलता है कि घर पास-पास बने होते थे और दो घरों के बीच में रास्ता रखा जाता था।
  • यह अनुमान लगाया गया है कि एक गाँव की जनसंख्या २०० तक हो सकती थी।
  • मूल मृद्भाण्ड लाल-काले रंग के हैं। ये साधारण प्याले से लेकर अलंकृत चषक ( goblets ) तक के आकार में मिलते हैं। चित्रित डिजाइन बहुधा ज्यामितीय ( geometrical ) होते थे। अन्य प्रकार के मुद्भांड भी प्रचलित थे, और इनमें से कुछ तो अंतः सांस्कृतिक संपर्क का संकेत देते हैं।
  • ताँबा परिचित धातु था, हालाँकि इसका प्रयोग प्रकटतः सीमित था। ताँबे की वस्तुओं में चपटी कुल्हाड़ियाँ, अंगूठियाँ, चूडियाँ, मछली-काँटे, छेनियाँ, सुए इत्यादि सम्मिलित थे।
  • मनके पकी मिट्टी और गोमेद, अकीक इत्यादि विभिन्न हल्के रत्नों के बने होते थे।
  • नवदातोली में अनेक फसलें भी मिली हैं : दो तरह के गेहूँ, अलसी, मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर और खेसरी। चावल मिला है, परंतु केवल इस स्थल के दूसरे कालखंड में और उसके बाद, और वह भी सीमित मात्रा में।
  • इस स्थल की तिथि ईसा पूर्व १,६०० से १,३०० के मध्य निर्धारित की गयी है।
  • नवदातोली का उत्खनन दक्कन कॉलेज, पूना के प्रो० एच० डी० सांकलिया के नेतृत्व में हुआ है।
  • नवदाटोली इस महाद्वीप का सबसे विस्तृत उत्खनित ताम्रपाषाण युगीन ग्राम स्थल है।

जोरवे संस्कृति ( Jorwe Culture )

सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में किये हैं। ये सभी पुरास्थल जोरवे संस्कृति के हैं। जोरवे संस्कृति ने मालवा संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया है, किंतु इसमें दक्षिणी नवपाषाण संस्कृति के तत्त्व भी हैं।

जोरवे की बस्तियाँ संख्या की दृष्टि से अधिक हैं। महाराष्ट्र में २०० से अधिक बस्तियों का पता चला है। प्रकाश, दाइमाबाद और इनामगाँव इस संस्कृति की सुप्रसिद्ध बस्तियाँ हैं। इनमें सबसे बड़ी दाइमाबाद है, जिसका क्षेत्रफल लगभग २० हेक्टेयर है।

ताम्रपाषाणिक संस्कृति के सबसे अधिक स्थल पश्चिमी महाराष्ट्र में मिलते हैं जिनका उत्खनन कर अनेक सामग्रियाँ प्रकाशित की गयी हैं। इनमें प्रमुख स्थल हैं :-

  • जोरवे ( Jorwe ) – अहमदनगर जनपद
  • नेवासा ( Nevasa ) – अहमदनगर जनपद
  • दायमाबाद ( Daimabad ) – अहमदनगर जिला
  • चन्दोली ( Chandoli ) – पुणे जनपद
  • सोनगाँव ( Songaon ) – पुणे जनपद
  • इनामगाँव ( Inamgaon ) – पुणे जनपद
  • नासिक ( Nasik )
  • प्रकाश ( Prakash ) – नंदुरबार जनपद

गोदावरी की सहायिका प्रवरा नदी के बायें तट पर स्थित जोरवे इस संस्कृति का प्रतिनिध स्थल है इसीलिए इसका नाम जोरवे संस्कृति है। यह मालवा संस्कृति से भी प्रभावित है। यह संस्कृति महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्रों में फैली हुई थी।

ईसा-पूर्व १४०० से १७०० के आसपास की जोरवे संस्कृति विदर्भ के कुछ भाग को तथा कोंकण के तट-प्रदेश को छोड़ सारे महाराष्ट्र में फैली थी।

यों तो जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, फिर भी इसकी कई बस्तियाँ, जैसे दायमाबाद और इनामगाँव नगरीकरण के स्तर तक पहुँच-सी गयी थी

महाराष्ट्र के सभी पुरास्थल अधिकतर काली-भूरी मिट्टी वाले ऐसे अर्धशुष्क क्षेत्रों में हैं जहाँ बेर और बबूल के पेड़ थे, परंतु ये नदी-तट वाले क्षेत्र में पड़ते थे इनके अलावा नवदाटोली पुरास्थल भी है जो नर्मदा के तट पर है।

अधिकांश ताम्रपाषाणिक तत्त्व दक्षिण भारत के नवपाषाण स्थलों में भी घुस गये थे।

दायमाबाद :-

इस संस्कृति का सबसे प्रमुख स्थल है – दायमाबाद। यह सभी ताम्रपाषाण संस्कृतियों में सबसे बड़ा स्थल था ( ≈ २० हेक्टेयर )। यहाँ से ताँबे, काँसे और पत्थर की वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहीं से एक ताँबे का रथ मिला है। महाराष्ट्र का आद्य ऐतिहासिक जीवनयापन का आधारभूत अनुक्रम दायमाबाद से प्राप्त हुआ है। यहाँ से चार सांस्कृतिक चरण मिले हैं:-

  • सबसे आरंभिक काल ऐसे सांस्कृतिक स्तर का प्रतिनिधित्व करता है जिस पर कुछ विद्वानों के अनुसार सिंधु सभ्यता का कुछ प्रभावलक्षित होता है, विशेषतः उसके परवर्ती चरण का जो पश्चिमी भारत में पाया गया है।
  • दूसरे कालखण्ड का सम्बन्ध दक्षिण-पूर्व राजस्थान की अहाड़ संस्कृति से है।
  • तीसरे कालखंड से मध्य भारत की मालवा संस्कृति का संकेत देता है।
  • चौथा कालखंड जोरवे संस्कृति है और यह ठेठ महाराष्ट्र की संस्कृति है।

दायमाबाद में ताँबे की चार वस्तुएँ मिली हैं : रथ चलाते हुए मनुष्य, साँड, गैड़े, और हाथी की आकृतियाँ जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की है और उसका वजन कई किलो है। दुर्भाग्यवश इनमें से कोई भी वस्तु उत्खनित स्तरीकृत सन्दर्भ में प्राप्त नहीं हुई है। इससे इन वस्तुओं के तिथि निर्धारण पर विवाद है।

दायमाबाद की जनसंख्या लगभग ४,००० अनुमानित की गयी है। यह पत्थर और मलबे के बुर्जों वाली कच्ची दीवार से घेर कर गढ़ जैसा बनाया प्रतीत होता है।

दायमाबाद की ख्याति भारी संख्या में काँसे की वस्तुओं की उपलब्धि के लिए है। इनमें से कुछ वस्तुओं पर हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव लक्षित होता है।

इनामगाँव :-

इनामगाँव की आरम्भिक ताम्रपाषाण अवस्था के इनामगाँव से चूल्हों ( ovens ) सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढे वाले मकान मिले हैं।

बाद की अवस्था (१,३०० – १,००० ई०पू० ) में पाँच कमरों वाला एक मकान मिला है जिसमें चार कमरे आयताकार हैं और एक वृत्ताकार। यह मकान बस्ती के केंद्र में है और किसी सरदार का मकान रहा होगा।

इस पाँच कमरों वाले मकान के निकट में ही जो कोठार ( granary ) है उसमें राजस्व के रूप में वसूला गया अनाज जमा किया जाता होगा।

इनामगाँव ताम्रपाषाण युग की बड़ी बस्ती थी। इसमें सौ से अधिक घर और कई कब्रें पायी गयीं हैं। यह बस्ती किलाबंद है और खाईं से घिरी हुई है

उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों आधार पर बताया गया है कि सामाजिक विभेद या दूरी थी क्योंकि शासक वर्ग मध्य में और शिल्पी पश्चिम में निवास करते थे।

इनामगाँव से नारी तथा वृषभ की मृण्मूर्तियाँ मिलती है जिनका समीकरण माता देवी से किया जा सकता है।

नेवासा :-

नेवासा इस संस्कृति का एक अन्य प्रमुख स्थल था। नेवासा से हमको रेशम ( Silk ) के प्राचीनतम प्रमाण मिलते हैं। ये लोग शवों को अपने आँगन में उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाते थे, इनमें से कुछ शवों के पैर मुड़े हुए मिले हैं। नेवासा से बालकों के शवाधान अधिक मिलने से यह ज्ञात होता है कि यहाँ के लोगों की मृत्यु दर अधिक थी अर्थात् जीवन प्रत्याशा कम थी।

जोरवे संस्कृति के लोग एक विशिष्ट प्रकार के मृद्भाण्ड चाक पर तैयार करते थे जिसपर लाल रंग का लेप लगाया गया है तथा काली चित्रकारियाँ हैं। इनमें टोंटीदार जलपात्र एवं गोड़ीदार कटोरा प्रमुख हैं। नैदानिक मृद्भाण्ड ( diagnostic pottery ) लाल तल पर काले डिजाइन वाले चाक-निर्मित बर्तन हैं, और इनका एक विशिष्ट नमुना टोंटीदार तथा नौतली बर्तन है। मृद्भाण्ड के डिजाइन बहुधा ज्यामितीय हैं जिनमें तिरछी समानांतर रेखाओं का प्रयोग किया गया है।

घर वर्गाकार, आयताकार या वृत्ताकार होते थे। दीवारें मिट्टी और गारा मिलाकार बनायी जाती थीं और उनमें लकड़ी के डंडों की टेक दी जाती थी। छत की सामग्री सम्भवतः फूस की होती थी, जिसे गारे से ढक दिया जाता था। नेवासा में घर का सामान्य आकार ३ × ७ फुट था। सबसे बड़े घर की माप ४५ × २० फुट थी।

छोटे प्रस्तर उपकरणों का समृद्ध उद्योग विद्यमान था। ताँबे की वस्तुओं में चूड़ियाँ, मनके, फलक, धनियाँ, सलाइयाँ, कुल्हाड़ियाँ, छुरे और छोटे-छोटे बर्तन इत्यादि शामिल थे।

जोरवे संस्कृति में जो प्रमुख अनाज पहचाने जा सके हैं, वे हैं : जौ, गेहूँ, मसूर, कुलिथ, मटर और कहीं-कहीं चावल भी। बेर की झुलसी हुई गुठलियाँ भी पायी गयी हैं। नेवासा में पटसन का साक्ष्य मिला है।

पालतू बनाये गये पशुओं में गाय-बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सुअर और घोड़ा शामिल थे।

हल्के रत्नों के ढेर सारे मनके मिले हैं।

मृण्मूर्तियों में मातृ देवी के अनेक रूप मिलते हैं। मातृ देवी की एक आकृति साँड की आकृति के साथ जुड़ी हुई मिली है ( दोनों आकृतियाँ कच्ची मिट्टी की हैं )। साथ ही जोरवे संस्कृति से हमको गणेश-पूजा के साक्ष्य भी मिलते हैं।

एक प्रमुख विशेषता यह है कि बहुत सारे शवाधान कलश में किए गए हैं। ये कलश ( अस्थि कलश ) घरों के फर्श के नीचे रखे मिले हैं उदाहरणार्थ नेवासा से।

साधारणतः जोरवे संस्कृति की तिथि ईसा पूर्व १,४०० और १,००० के बीच निर्धारित की जाती है, परन्तु इनामगाँव जैसे स्थलों पर वह संभवतः ईसा पूर्व ७०० तक विद्यमान रही।

अन्य प्रमुख संस्कृतियाँ

प्रभास संस्कृति की आधा दर्जन बस्तियों का ही पता चला है। इसका प्ररूप स्थल है – प्रभास पाटन ( Prabhas Patan ), सोमनाथ जनपद, गुजरात।

रंगपुर संस्कृति के पुरास्थल अधिकतर गुजरात में घेलो ( Ghelo ) और कालूभर ( Kalubhar ) नदियों के क्षेत्र में पाये गये हैं। इसका प्ररूप स्थल है – रंगपुर ( Rangpur ),

सावल्दा संस्कृति मुख्य रूप से ताप्ती घाटी तक सीमित रही। इसका प्ररूप स्थल सावल्दा ( Savalda ), धूले जनपद में, ताप्ती नदी तट पर महाराष्ट्र में स्थित है।

इसके अतिरिक्त गंगाघाटी में पाये गये ताम्रपाषाण संस्कृति के स्थलों का विवरण निम्न प्रकार है :-

उत्तर प्रदेश

प्रयागराज और विंध्य क्षेत्र के आस-पास कई ताम्रपाषाण स्थल मिले है –

  • इमलीडीह खुर्द ( Imlidih Khurd ) – गोरखपुर जनपद, कुवानो नदी तट पर
  • खैराडीह ( Khairadih ) – बलिया जनपद
  • नरहन ( Narhan ) – गोरखपुर जनपद
  • सैपई ( Safai ) – इटावा जनपद
  • लहुरादेव ( Lahuradev ) – संत कबीर नगर जनपद

सैपई से हमें ताम्रपाषाण संस्कृति की वस्तुओं के साथ गैरिक मृद्भाण्ड के साक्ष्य मिले है इसीलिए ताम्रपाषाण संस्कृति का सम्बन्ध गैरिक मृदभाण्ड से भी लगाया जाता है।

बिहार

बिहार के प्रमुख स्थल हैं :-

  • चिराँद ( Chirand ) – छपरा या सारण जनपद
  • सेनुवार ( Senuwar ) – रोहतास जनपद
  • सोनपुर ( Sonpur ) – गया जनपद
  • ताराडीह ( Taradih ) – गया जनपद

चिराँद में कोई ऐसा धातुरहित नवपाषाण स्तर दिखायी नहीं देता जो शायद ईसा पूर्व २,००० वर्ष जितना पुराना हो। अर्थात् चिराँद का नवपाषाणकाल का समय ई०पू० २,००० के बाद की है। इस स्तर से अस्थि एवं प्रस्तर उपकरणों, गारे और सरकण्डे के घरों के अवशेषों तथा चावल और मूँग सहित तरह-तरह की फसलों का समृद्ध संग्रह देखने को मिलता है। चिराँद का अगला स्तर ताम्रपाषाण-युगीन है जिसमें काले-लाल मृद्भाण्ड मिलते हैं

पश्चिम बंगाल

पश्चिमी बंगाल में ताम्र-पाषाणकालीन जीवन-यापन का साक्ष्य इस राज्य के पश्चिमी जिलों, जैसे कि बीरभूमि, बर्दवान, मिदनापुर और बाँकुरा से मिला है। कुछेक स्थलों का उत्खनन हुआ है जैसे :-

  • पाण्डु राजार ढीबी ( Pandu Rajar Dhibi ) – पूर्वी बर्धमान जनपद, अजय नदी के तट पर
  • महिषदल ( Mahishdal ) – पूर्वी मेदिनीपुर जनपद

सम्पूर्ण साक्ष्य से चावल पर आधारित एक विस्तृत ताम्रपाषाणयुगीन ग्राम्य-संस्कृति का पता चला है जो लगभग ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के मध्य जितनी पुरानी है।

यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय कि पूर्वी बंगाल का डेल्टा क्षेत्र या आधुनिक बाँग्ला देश आरम्भिक ऐतिहासिक काल से पहले बसा हुआ नहीं था। इस क्षेत्र में मुख्य बस्ती संभवतः गुप्त युग में जाकर बसनी शुरू हुई थी।

ओडिशा

ओडिशा के अनेक इलाक़ों से नवपाषाण उपकरण मिले है, परंतु वहाँ न तो नवपाषाण स्तर की कोई तिथि निर्धारित की गई है, न ही ढंग से उत्खनन हुआ है। कुचाई ( मयूरभंज जनपद ) स्थल का उत्खनन तो हुआ है, जो कि स्पष्टतः नवपाषाणयुगीन स्थल है, परंतु उसका भी तिथि निर्धारण नहीं हुआ है। फिर आद्य ऐतिहासिक ताम्र उपकरण तो मिले हैं परन्तु किसी निश्चित ताम्रपाषाणयुगीन स्थल का न तो विवरण मिला है, न उत्खनन ही हुआ है। व्यवस्थित अनुसंधान के अभाव में उड़ीसा का आद्य ऐतिहासिक चित्र सर्वथा अनिश्चित है।

दक्षिण भारत

दक्षिण भारत स्थिर ग्राम्य जन-जीवन की आधार-रेखा नवपाषाण संस्कृति से प्राप्त होती है जिसके परवर्ती चरणों में कुछ ताम्रपाषाण तत्त्वों के संकेत मिलते हैं। कर्नाटक, आ.प्र., तमिलनाडु आदि क्षेत्रों से इस संस्कृति प्रमाण मिले है जैसे –

  • कर्नाटक के मस्की, ब्रह्मगिरी, संगनकल्लू, हम्मिगे, पिकलीहल, कोडेकल आदि;
  • तेलंगाना से उतनूर;
  • आंध्र प्रदेश से नागार्जुनकोंडा;
  • तमिलनाडु से पैयमपल्ली इत्यादि

इस सांस्कृतिक चरण से अनेक रेडियो कार्बन तिथियाँ प्राप्त की गई है; मोटेतौर पर ये ईसा पूर्व २,३०० और ९०० के बीच पड़ती हैं।

कुछ विद्वानों ने सांस्कृतिक विकास के तीन चरण बताये हैं, जिसमें पहला चरण धातुरहित है अर्थात् नवपाषाणकाल और परवर्ती दो चरण धातुकाल का है :-

  • पहले चरण में घर्षित प्रस्तर ( ground stone ), कुल्हाड़ियाँ, अविकसित शल्क फलक परम्परा तथा मुख्यतः हस्तनिर्मित बर्तनों का सीधा-सादा संग्रह देखने को मिलता है; बर्तनों में धातु का प्रयोग बिलकुल नहीं हुआ है
  • परवर्ती चरणों की मुख्य विशेषताएँ है — चाक पर निर्मित चित्रित मुद्भांडों की बढ़ती हुई संख्या और धातु का प्रयोग। इससे इस संस्कृति पर उत्तर ताम्रपाषाण-युगीन प्रभाव लक्षित होता है।

उत्खनित मकान गोल या चौकोर थे। दीवारें बाँस के पदों की थीं जिनपर मिट्टी बिछा दी गयी थी और जिन्हें लकड़ी के डंडो की टेक दी गयी थी। फर्श आमतौर पर चूने से लीपे गये थे। गोल घरों की छते संभवत: शंक्वाकार ( conical ) थीं, जो घास या फूस से बनी थीं।

मृद्भाण्ड और पॉलिशदार पत्थर के उद्योग मे पर्याप्त विविधता देखने को मिलती है। ताँबा कभी प्रचुर मात्रा में नहीं था। अन्य वस्तुओं में गोमेद तथा अन्य हल्के रत्नों के मनके, लंबे सींग वाले मवेशियों की मृण्मूतियाँ, पकी मिट्टी के तकिए। तेक्कलकोटा से सोने की एक लटकन मिली है। यह सम्भव है कि दक्षिण भारत के स्वर्ण-क्षेत्र का उपयोग इसी काल से होने लगा हो

खेती की फसलों में बाजरा और चना मिला है। मवेशियों, भेड़-बकरियों के विस्तृत अवशेष तथा अन्य पशुओं की अस्थियाँ मिली हैं, जिनसे अर्थव्यवस्था में पालतू पशुओं के महत्त्व का संकेत मिलता है।

यह तर्क दिया गया है कि इस संस्कृति के सबसे आरंभिक चरण के लोग किसान कम चरवाहे अधिक थे। वे अपने मवेशियों को संभवतः प्रत्येक वर्ष की किसी कालावधि में अपने घरों के बाहर बाँध देते थे। जिस इलाके में मवेशी रखे जाते थे, उसमें लकड़ी के डंडों की बाड़ लगा दी जाती थी। बाड़ के भीतर जो गोबर इकट्ठा होता था उसे प्रतिवर्ष बाड़ के डंडों के साथ ही जला दिया जाता था। यह जलाने का कार्य संभवतः आधुनिक पोंगल समारोह के आसपास किया जाता था जो मकर संक्रांति को पड़ता है। प्रतिवर्ष इस प्रक्रिया की लगातार पुनरावृत्ति का परिणाम यह हुआ है कि जिस जगह वह होलिका जलायी जाती थी, वहाँ राख का एक टीला बन गया है। दक्षिण भारतीय पुरातत्त्व में इन टीलों को भस्म टीले ( ash mounds ) कहा जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इन टीलों की अलग-अलग व्याख्या देने का प्रयत्न किया है। यह मत भी उसी में से एक है।

आंध्र क्षेत्र में भी अनेक स्थलों से ताम्रपाषाणकालीन जीवन-यापन के संकेत मिले हैं, परन्तु पूरी स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं है।

ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना दोआब

हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने सहारनपुर, मेरठ इत्यादि जनपदों में कुछ बस्तियाँ बसायीं थीं। सर्वाधिक पूर्व का स्थल मेरठ जिले में आलमगीरपुर है। परंतु अभी तक इस बात की स्पष्ट जानकारी नहीं है कि हड़प्पा सभ्यता इस इलाके के परवर्ती सांस्कृतिक चरणों के साथ किस तरह संबंधित है?

दोआब की सांस्कृतिक परंपरा संभवतः उस संस्कृति के साथ शुरू होती है, जिसे अपने अत्यंत विशिष्ट मृद्भाण्ड के नमूने के कारण ‘गेरूवर्णी मृद्भाण्ड संस्कृति’ कहा गया है। इसके साक्ष्य अनेक स्थलों पर मिला है, विशेषतः हस्तिनापुर और अतरंजीखेड़ा से।

यह संस्कृति ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के पूर्वार्द्ध में आती है। अतः यह आंशिक रूप से हड़प्पा सभ्यता की समकालीन थी

इस संस्कृति की कोई अपनी विशेषता नहीं है, केवल इसके मुद्भाण्ड तथा अतरंजीखेड़ा में इस स्तर पर चावल का पाया जाना उल्लेखनीय है

संदर्भवश कुछ नव अन्वेषणों से ज्ञात हुआ है कि राजस्थान में इस संस्कृति के कई और भी पुराने स्थल हैं, परन्तु राजस्थान और दोआब में इसी प्रकार के मृद्भाण्ड मिलने से दोनों में क्या सम्बन्ध रहा होगा—यह स्पष्ट नहीं है।

गंगा घाटी में समय-समय पर कुल्हाड़ियाँ, मत्स्यभाले भाले, शृंगिकायुक्त तलवारें ( swords with antennae ) इत्यादि जैसे कुछ ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनका किसी संस्कृति के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सका है। इन्हें साधारणतः गंगा घाटी ताम्र निधि ( Gangetic valley copper hoards ) कहा गया है और उपर्युक्त सांस्कृतिक चरण के साथ इनका सम्बंध जोड़ा गया है।

सैफई ( इटावा जनपद ) नामक एक स्थान पर एक तलवार और एक मत्स्यभाले का सिरा मिला है, जिनका गेरूवर्णी मृद्भाण्ड से सीधा सम्बन्ध देखा गया है। इससे प्रस्तावित सम्बन्ध निर्धारण की स्पष्ट पुष्टि होती है।

दोआब की सांस्कृतिक परंपरा की अगली अवस्था पर काले-लाल मृदुभांड चरण की छाप देखने को मिलती है। इसके बारे में अभी बहुत ही कम प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। अतरंजीखेड़ा एक महत्त्वपूर्ण स्थल है जहाँ दोआब के पुरातत्त्वीय अनुक्रम में इस मृद्भाण्ड-प्ररूप की सामान्य स्थिति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।

अगले चरण की विशेषता चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति है। इसमें लोहे का संकेत मिलता है; अतः यह लौह युग संस्कृतियों की श्रेणी में आती है। परन्तु हरियाणा और पंजाब में दधेरी, भगवानपुरा, इत्यादि जैसे कुछ स्थलों से सिंधु सभ्यता के तुरंत बाद लौह-विहीन काल से इस मृद्भाण्ड का सम्बंध प्रतीत होता है।

गंगा घाटी के ताम्रपाषाण युगीन स्थल
ताम्रपाषाण काल – गंगा घाटी

ताम्रपाषाण युग : विश्लेषण

ताँबे का बढ़ता प्रयोग

इस संस्कृति के लोग पत्थर के छोटे-छोटे औज़ारों ( tiny tools ) और हथियारों ( weapons ) का इस्तेमाल करते थे, जिनमें पत्थर के फलकों और फलकियों ( stone blades & bladelets ) का महत्त्वपूर्ण स्थान था। अनेक स्थानों में, खासकर दक्षिण भारत में, प्रस्तरफलक उद्योग ( stone-blade industry ) पल्लवित हुआ और पत्थर की कुल्हाड़ी ( stone axes ) भी चलती रही। जाहिर है कि ऐसे क्षेत्र पहाड़ियों से अधिक दूर नहीं थे।

कई बस्तियों में ताँबे की वस्तुएँ बहुतायत से मिली हैं। यही हाल अहार और गिलुंद का भी प्रतीत होता है, जो राजस्थान की बनास घाटी के कमोबेश शुष्क इलाकों में पड़ते हैं। अन्यान्य समकालिक ताम्रपाषाणिक कृषक संस्कृतियों के विपरीत, अहार में वास्तव में सूक्ष्मपाषाण औजारों का इस्तेमाल नहीं होता था; यहाँ पत्थर की कुल्हाड़ियों या फलकों का लगभग अभाव ही है यहाँ कई सपाट कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ और पत्तों मिली हैं, जो सभी तांबे की हैं, हालाँकि एक चादर काँसे की भी पायी गयी है। तांबा पास ही उपलब्ध था। अहार के लोग शुरू से ही धातुकर्म जानते थे। अहार का प्राचीन नाम ताम्बवती ( Tambavati ) अर्थात् ताँबावाली जगह है। अहार संस्कृति का काल २,१०० और १,५०० ई०पू० के बीच कहीं रखा जाता है और गिलुंद उस संस्कृति का स्थानीय केंद्र माना जाता है। गिलुंद में तांबे के टुकड़े ही मिलते हैं। यहाँ एक प्रस्तर-फलक उद्योग ( stone blade industry ) भी पाया गया है। महाराष्ट्र के जोरवे और चंदोली में सपाट आयताकार ताम्र-कुठार पाये गये हैं और चंदोली में ताँबे की छेनी भी मिली है।

मृद्भाण्ड

ताम्रपाषाण काल के लोग विभिन्न प्रकार के मृद्भाण्डों का व्यवहार करते थे। इनके एक किस्म के बरतन काले-व-लाल ( black & red pottery  ) रंग के हैं और लगता है इनका प्रयोग लगभग २,००० ई०पू० से व्यापक तौर पर होता आया है। ये चाकों पर बनते थे और कभी-कभी इन पर सफेद रैखिक आकृतियाँ बनी रहती थीं। यह बात केवल राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बारे में ही नहीं है, बल्कि बिहार और पश्चिम बंगाल में पायी गयी बस्तियों के बारे में भी है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और बिहार में रहने वाले लोग टोंटी वाले जलपात्र, गोड़ीदार तश्तरियाँ और गोड़ीदार कटोरे बनाते थे। ऐसा समझना गलत होगा कि काले-व-लाल मृद्भांड का व्यवहार करने वाले सभी लोग एक ही संस्कृति के हैं। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान वाले मृद्भांड चित्रित हैं, पर पूर्वी भारत में ऐसे मृद्भांड बहुत कम हैं।

इन ताम्रपाषाण संस्कृतियों की सबसे प्रमुख विशेषता है उनके विशिष्ट प्रकार के चित्रित मृद्भाण्ड। इन्हीं के आधार पर इनको पहचाना व वर्गीकृत किया गया है :-

  • अहार संस्कृति :- ये लोग काले-लाल रंग के मिट्टी के पात्र बनाते थे, जो सफेद डिजाइनों से सजाये गये थे। ( a distinctive black-and-red ware decorated with white designs. )
  • कायथा संस्कृति :- यह अपने उन लाल लेप वाले मिट्टी के पात्रों लिए प्रसिद्ध है, जिसपर तरह-तरह के चाकलेटी रंग से चित्र बने हुए हैं। साथ ही एक अन्य विशेषता है लाल रंग से चित्रित पाण्डुभाण्ड और उत्कीर्ण नमूनों वाले कंकतिभाण्ड। ( a sturdy red-slipped ware painted with designs in chocolate colour, a red painted buff ware and a combed ware bearing incised patterns. )
  • मालवा संस्कृति :- इस संस्कृति के पात्र कुछ अनघड़ हैं, फिरभी उनपर मोटा लेप लगा है, जिसकी सतह पर काले या लाल रंग से डिजाइन बनाये गये हैं। ( The Malwa ware is rather coarse in fabric, but has a thick buff surface over which designs are made either in red or black. )
  • प्रभास व रंगपुर संस्कृति :- यहाँ के पात्र हड़प्पा सभ्यता से प्रभावित हैं, फिरभी उनकी सतह चमकदार है, जिसके कारण इन पात्रों को ‘चमकीले लालभाण्ड’ ( Lustrous Red Ware ) भी कहा जाता है।
  • जोरवे संस्कृति :- इस संस्कृति के मृद्भाण्ड लाल रंग पर काले रंग से रंजित हैं परन्तु उसकी सतह धुँधली अथवा खुरदरी है, जिसपर पतला जलरंग किया गया है। ( Jorwe ware is painted black-on-red but has a matt surface treated with a wash.)

ये मृद्भाण्ड विविध प्रकार के हैं; जैसे –

  • साधार तश्तरियाँ ( dishes-on-stand ),
  • टोंटीदार कलश ( spouted vases ),
  • डंडीदार चषक या प्याले ( stemmed cups ),
  • साधार कटोरे ( pedestalled bowls ),
  • बड़े संचय पात्र ( big storage jars ),
  • टोंटीदार पात्र ( spouted basins ),
  • कटोरे ( bowls ) इत्यादि।

पशुपालन

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्यत्र रहने वाले ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी पालते और खेती करते थे। वे गाय, भेड़, बकरी, सुअर और भैंस रखते थे, और हरिण का शिकार करते थे। ऊँट के भी अवशेष मिले हैं। सामान्यतः वे घोड़े से भी परिचित नहीं थे। कुछ अवशेषों की पहचान घोड़े या गधे या जंगली गधे के अंग के रूप में की गयी है। लोग गोमांस ( beef ) व सुअर का मांस ( pork ) तो अवश्य खाते थे, किंतु सुअर का मांस अधिक नहीं खाते थे(?)

कृषि

लोग बारी-बारी से ‘खरीफ और रबी‘ दोनों फसलें उगाते थे। गेहूँ और जौ की खेती मालवा क्षेत्र में की जाती थी। चावल इनामगाँव और अहार के खुदाई स्थलों में पाया गया बताया गया है। ये लोग ज्वार और बाजरा भी उगाते थे और कुल्थी, रागी, हरे मटर, मसूर और हरे व काले चनोंकी खेती करते थे। मसूर, उड़द, और मूँग आदि कई तरह की दलहन और मटर भी पैदा करते थे।

लगभग ये सभी अनाज महाराष्ट्र में नर्मदा नदी के तट पर स्थित नवदाटोली में भी पाये गये हैं। खुदाई के परिणामस्वरूप इतने सारे अनाज भारत में अन्य किसी भी स्थान में शायद नहीं मिले हैं। नवदाटोली के लोग बेर और अलसी भी उपजाते थे।

दक्कन की काली मिट्टी में कपास की पैदावार होती थी।

नेवासा से रेशम का प्राचीनतम प्रमाण मिलता है।

निचले दकन में रागी, बाजरा और इस तरह के अन्य अनाजों की खेती होती थी।

पूर्वी भारत में, बिहार और पश्चिम बंगाल में मछली पकड़ने के काँटे ( fish hooks ) मिले हैं, जहाँ हम चावल भी पाते हैं। इससे मालूम होता है कि मछली और चावल पूर्वांचल के लोगों का आहार था, जो देश के उस भाग में आज भी प्रचलित भोजन है।

लगभग ये सभी ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ ‘काली मिट्टी’ वाले प्रदेश में पनपीं और फली फूली थीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि तत्कालीन लोगों ने उपलब्ध प्रौद्योगिकी ज्ञान और साधनों के संदर्भ में अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लिया था। खेती के तरीकों के बारे में ऐसी ही समानता आज भी इन क्षेत्रों में पायी जाती है, जहाँ हम नमी बनाये रखने की क्षमता वाली मिट्टी को देखकर शुष्क खेती की प्रणाली अपना रहे हैं।

भवन निर्माण

राजस्थान की बनास घाटी की अधिकांश बस्तियाँ छोटी हैं, किंतु अहार और गिलुंद लगभग चार हेक्टर क्षेत्र में फैली हैं।

ताम्रपाषाण युग के लोग प्रायः पकी ईंटों से परिचित नहीं थे, जिनका इस्तेमाल कभी-कभी ही होता था, जैसे गिलुंद में १,५०० ई० पू० के आसपास पकी ईंटों का इस्तेमाल हुआ। यदा-कदा वे अपना घर कच्ची ईंटों से बनाते, पर अधिकतर गीली मिट्टी थोप कर बनाते और लगता है घरों पर छप्पर भी दिये जाते थे। लेकिन अहार के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे

ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग नरकुल ( reed ) और मिट्टी के गारे से आयताकार और वृत्ताकार घर बनाते थे। वृत्ताकार घर अधिकतर एक साथ समूहों में बने होते थे। इन घरों और झोंपड़ियों की छतें घास-फूस की बनी होती थीं और बाँस तथा शहतीरों के सहारे खड़ी रहती थीं। फर्श कूट-कूटकर चिकनी मिट्टी से बनाये जाते थे और झोंपड़ियों को भण्डारगृह के रूप में भी काम में लिया जाता था।

कला और शिल्पकारी

ताम्रपाषाण युग के लोगों की कला और शिल्प के बारे में बहुत से तथ्य ज्ञात हैं। वे ताँबे के शिल्पकर्म में निस्संदेह बड़े दक्ष थे और पत्थर का काम भी अच्छा करते थे। हमें ताँबे के औजार, हथियार और कंकण मिले है।

वे कार्नेलियन, स्टेटाइट और क्वार्टज क्रिस्टल जैसे अच्छे पत्थरों के मनके या गुटिकाएँ ( beads ) भी बनाते थे।

वे लोग कताई और बुनाई जानते थे, क्योंकि मालवा में चरखे और तकलियाँ मिली हैं। महाराष्ट्र में कपास, सन और रेशम की रूई से बने धागे भी मिले हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वे लोग वस्त्र निर्माण से सुपरिचित थे।

अनेक स्थलों पर प्राप्त इन वस्तुओं के शिल्पियों के अतिरिक्त हमें इनामगाँव में कुम्भकार, धातुकार, हाथी दाँत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूरतें ( terracotta ) बनाने वाले कारीगर या शिल्पकार ( artisans ) भी दिखायी देते हैं।

क्षेत्रीय विविधता

ताम्रपाषाण अवस्था में अनाज, भवन, मृद्भाण्ड आदि में क्षेत्रीय अंतर ( regional differences ) भी दिखायी देते हैं।

कृषिगत अंतर :- पूर्वी भारत चावल उपजाता था, तो पश्चिमी भारत जौ और गेहूँ।

तिथिक्रम :-  कालक्रम की दृष्टि से देखें तो मालवा और मध्य भारत की कई बस्तियाँ, जैसे कायथा एवं एरण पहले की प्रतीत होती हैं, जबकि पश्चिमी महाराष्ट्र और पूर्वी भारत की बस्तियाँ बहुत बाद की।

अन्त्येष्टि संस्कार :- उनके शव संस्कारों ( burial practices ) और पूजा पद्धति ( religious cult ) का कुछ आभास मिलता है। महाराष्ट्र में लोग मृतक को कलश में रखकर अपने घर में फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण स्थिति में गाड़ते थे। हड़प्पाई लोगों की तरह अलग-अलग कब्रिस्तान नहीं होते थे। कब्र में मिट्टी की हंडियाँ और ताँबे की कुछ वस्तुएँ भी रखी जाती थीं, जो जाहिर है कि परलोक में मृतक के प्रयोगार्थ के लिए होती थीं अर्थात् उनके लोकोत्तर जीवन में विश्वास का द्योतक है।

मिट्टी की स्त्री-मूर्तियों से प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के लोग मातृदेवी ( mother goddess ) की पूजा करते थे। कई कच्ची मिट्टी की नग्न मूर्तिकाएँ भी पूजी जाती थीं। इनामगाँव में मातृदेवी की प्रतिमा मिली है जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमा से मिलती है। मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली में बनी मिट्टी की वृषभ-मूर्तिकाएँ ( bull terracottas ) यह सूचित करती हैं कि वृषभ (साँड़) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।

सामाजिक असमानता

बस्ती के ढाँचा और शव संस्कार विधि दोनों से पता चलता है कि ताम्रपाषाण में समाजिक असमानता ( social inequalities ) आरम्भ हो चुकी थी।

महाराष्ट्र में पायी गयी कई जोरवे बस्तियों में एक तरह का निवासगत अधिक्रम ( settlement hierarchy ) दिखायी देती है। कुछ बस्तियाँ तो बीस हेक्टर तक की बड़ी-बड़ी हैं, जबकि कुछ केवल पाँच हेक्टर या उससे भी छोटी हैं। इससे द्विस्तरीय निवास ( two-tier habitation  ) का आभास होता है।

बस्तियों के विस्तार में अंतर का अर्थ है कि बड़ी-बड़ी बस्तियों का दबदबा छोटी-छोटी बस्तियों पर रहता था। लेकिन बड़ी और छोटी दोनों तरह की बस्तियों में सरदार और उनके नातेदार आयताकार मकानों में रहते थे और गोल झोंपड़ियों में रहने वाले पर प्रभुत्व रखते थे।

इनामगाँव में शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिमी छोर पर रहते थे, जबकि सरदार प्रायः केंद्रस्थल में रहता था। इससे निवासियों के बीच सामाजिक दूरी स्पष्ट होती है।

पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में पाया गया है कि कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहनाकर उन्हें दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान्य के तौर पर कुछ बरतन मात्र हैं।

इनामगाँव में एक व्यस्क आदमी मृद्भाण्डों और कुछ तांबे के साथ दफनाया गया है।

कायथा के एक घर में ताँबे के २९ कंगन और दो अनोखे ढंग की कुल्हाड़ियाँ पायी गयी हैं। इसी स्थान में स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गुरियों ( beads ) के हार पात्रों में जमा पाये गये हैं। यह स्पष्ट है कि जिनके पास ये वस्तुएँ थीं वे समृद्ध थे।

व्यापार और वाणिज्य

इस बात के प्रमाण मिले हैं कि ताम्रपाषाणयुगीन जनसमुदाय समकालीन अन्य समुदायों के साथ ‘व्यापार’ करते थे और सामग्रियों का आदान-प्रदान करते थे। अहार, गिलुंद, नागदा, नवदाटोली, एरण, प्रभास, रंगपुर, प्रकाश, दाइमाबाद और इनामगाँव जैसी बड़ी-बड़ी बस्तियाँ व्यापार और वस्तु-विनिमय की प्रमुख मंडियाँ थीं।

ऐसा प्रतीत होता है कि अहार के लोग ताँबे के स्रोतों ( खानों ) के पास बसे हुए थे और मालवा तथा गुजरात के समकालीन समुदायों को ताँबे के औजार तथा अन्य वस्तुएँ देते थे। यह अनुमान लगाया गया है कि मालवा, जोरवे और प्रभास संस्कृति क्षेत्रों में पाये गये अधिकांश ताँबे के कुल्हाड़ों पर कुछ पहचान-चिह्न अंकित हैं, जो एक जैसे हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे उन शिल्पियों के ‘व्यापार चिह्न’ ( trademark ) थे, जिन्होंने उन औजारों का निर्माण किया था।

कंगन-चूड़ियाँ बनाने के लिए सीपियाँ व कौड़ियाँ सौराष्ट्र के समुद्र-तट से व्यापार के जरिए अन्य ताम्रपाषाणीय क्षेत्रों को भेजी जाती थीं।

इसी प्रकार, सोना और हाथी दाँत भी टेक्कलकोट्टा ( कनार्टक ) से जोरवे संस्कृति वाले लोगों के पास आया होगा, जिन्होंने बदले में उपर्युक्त औजार अपनी समकालीन अन्य संस्कृति के लोगों को बेचे होंगे।

इसी तरह, राजपिपला ( गुजरात ) से उपरत्नों का व्यापार भी विभिन्न क्षेत्रों के साथ होता था। यह जान लेना भी रुचिकर होगा कि जोरवे संस्कृति के लोग अपने मृद्भाण्डों का व्यापार भी दूर-दूर तक करते थे, क्योंकि इनामगाँव के मृद्भाण्ड वहाँ से काफी दूरी पर स्थित अनेक पुरास्थलों पर पाये गये हैं। प्रसंगवश हमारा ध्यान एक बार फिर उत्तरी काली पालिश वाले मृद्भाण्डों की ओर जाता है जो प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल में, गंगा के मैदान से दूर-दूर के क्षेत्रों में निर्यात किये जाते थे। अनेक मृद्भाण्डों पर ‘पहियेदार बैलगाड़ियों के रेखाचित्र’ मिले हैं, इससे पता चलता है कि लंबी दूरी वाले व्यापार के लिए, नदी मार्ग से परिवहन के अलावा, इन गाड़ियों का भी इस्तेमाल किया जाता था।

धार्मिक विश्वास

धर्म एक ऐसा पक्ष था जिसने सभी ताम्रपाषाण संस्कृतियों को आपस में जोड़ रखा था। उनमें मातृ-देवी ( mother goddess ) और वृषभ की पूजा प्रचलित थी। अहार में, मालवा में, संभवतः वृषभ पूजा का प्रचलन ( vogue ) था।

ऐसे अनेक प्रकृतवादी (naturalistic ) और रीतिबद्ध ( stylised ) लिंग ( phallus ) अधिकांश पुरास्थलों में पाये गये हैं। प्रकृतवादी लिंग संभवतः मनौती के चढ़ावे ( votive offerings ) के रूप में होंगे; लेकिन छोटे रीतिबद्ध लिंग शायद गर्दन के चारों ओर लटकाये जाते होंगे, जैसा कि आज भी लिंगायत पंथ के लोग लटकाते हैं।

मालवा संस्कृति के एक विशाल संचय पात्र पर मातृ-देवी की आकृति जड़ाऊ डिजाइन में अंकित है। उसके दाहिनी ओर एक स्त्री की और बाईं ओर एक मगरमच्छ की आकृति अंकित है तथा पास में एक पूजास्थल चित्रित है। इसी प्रकार बेला की आकृति ( fiddle-shaped ) वाली शायद श्रीवत्स जैसी है, जो कि धन की देवी लक्ष्मी का प्रतीक है; जिसकी, आगे चलकर ऐतिहासिक काल में मातृदेवी के रूप में पूजा की जाने लगी थी।

एक पात्र पर चित्रित डिजाइन में एक देवता को उसके अस्त-व्यस्त बालों के साथ दिखाया गया है, जिससे परवर्ती काल के रुद्र का स्मरण हो आता है।

दाइमाबाद से प्राप्त एक पात्र पर की गयी चित्रकारी में एक देवता को बाघों जैसे जंतुओं और मोर जैसे पक्षियों से घिरा हुआ दिखाया गया है। कुछ विद्वान इसकी तुलना मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित शिव पशुपति के साथ करते हैं।

उत्तरकालीन जोरवे संस्कृति के स्थल ( इनामगाँव ) से प्राप्त दो छोटी मूर्तियों ( figurines ) को गणेश का ‘आद्यरूप’ माना गया है, जिसकी पूजा किसी भी उपक्रम को प्रारंभ करने से पहले सफलता के लिए की जाती है।

इनामगाँव के पुरास्थल पर अनेक सिरकटी छोटी-छोटी मूर्तियाँ मिली हैं, उनकी तुलना महाभारत की देवी विशिरा से की गयी है।

ऐसा प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाणयुगीन लोगों में अग्नि पूजा का व्यापक रूप से प्रचार था। अनेक ताम्रपाषाण स्थलों की खुदाई के दौरान अग्निकुंड बड़ी संख्या में मिले हैं।

मालवा और जोरवे संस्कृति के लोगों के शवाधानों के साथ बर्तन एवं अन्य अंत्येष्टि वस्तुएँ पायी गयी हैं, जिनसे पता चलता है कि वे लोग मरणोपरांत जीवन में भी विश्वास करते थे।

प्रौद्योगिकी

ताम्रपाषाणयुगीन कृषकों ने मिट्टी और धातु की प्रौद्योगिकी ( शिल्प ) में पर्याप्त प्रगति कर ली थी।

उनके द्वारा चित्रित भाण्ड बहुत अच्छे बनाये और आग में पकाये जाते थे। उनके भट्ठे ( Kiln ) की आग का तापमान ५००° से ७००°C तक होता था।

धातु के औजारों में हम कुल्हाड़ियाँ ( axes ), छेनियाँ ( chisels ), कड़े या वलय ( bangles ), मनके ( beads ), कांटे ( hooks ) आदि पाते हैं, जो अधिकतर ताँबे के बने होते थे। ताँबा सम्भवतः राजस्थान के खेतड़ी क्षेत्र की खानों से निकाला जाता था।

सोने के आभूषण बहुत ही दुर्लभ थे और केवल जोरवे संस्कृति में ही पाये गये हैं। एक कान का आभूषण प्रभास स्थल पर भी मिला है।

इनामगाँव के पुरास्थल में ताँबे के चिमटों ( tongs ) और कुठाली या मूषा* ( crucibles ) का मिलना यह दर्शाता है कि वहाँ सोने के आभूषण बनाने का काम भी होता था।

  • स्वर्ण आदि को गलाने का पात्र या घरिया*

उपरत्नों के मनकों में छेद करने के लिए सिक्थस्फटिक ( chalcedony ) की वेधनियों ( drills ) का प्रयोग किया जाता था।

कंकड़ चूना तैयार किया जाता था जो घरों की पुताई और अन्न की धानियों की लेपाई आदि के काम आता था।

ताम्रपाषाण संस्कृतियों का पतन

ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ ईसापूर्व तीसरी और दूसरी सहस्राब्दियों में फली फूलीं। बाद में कायथा, प्रभास, अहार, बालाथल, प्रकाश और नेवासा जैसी बहुत-सी बस्तियाँ उजड़ गयीं, लेकिन आगे चलकर चार-छः शताब्दियों के बाद फिर से बस गयीं। ऐसा समझा जाता है कि ये संस्कृतियाँ वर्षा की कमी या बार-बार सूखा पड़ने के कारण उजड़ गयी थीं, क्योंकि बिना वर्षा के खेतिहर समुदायों का जीवन दूभर हो गया था।

हड़प्पा सभ्यता का अन्य ताम्रपाषाण सभ्यता से सम्बन्ध

तिथिक्रमिक दृष्टि से गणेश्वर स्थल विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह राजस्थान में खेत्री ताम्र-पट्टी के सीकर-झुँझनू क्षेत्र के ताँबे की समृद्ध खानों के निकट पड़ता है। इस क्षेत्र से खुदाई में निकली ताँबे की वस्तुएँ हैं – तीर के नोंक, बरछे के फल, मछली पकड़ने के काँटें, सेल्ट, कंगन, छेनी आदि। इनमें से कुछ की आकृतियाँ सिंधु स्थलों में मिली इन वस्तुओं की आकृतियों से मिलती हैं। एक पकी मिट्टी पिंडिका ( a terracotta cake ) मिली है जो सिंधु-टाईप से मिलती-जुलती है। इस स्थान में बहुत पत्थर के छोटे-छोटे औजार ( microliths ) मिले हैं जो ताम्रपाषाण संस्कृति के परिचायक हैं। यहाँ गैरिक मृद्भांड ( ochre coloured pottery – OCP ) भी पाया गया है। यह लाल अनुलेपित मृद्भाण्ड है जो अक्सर काले रंग से रंगा रहता है और मुख्यतः कलश ( vase ) की शक्लों में होता हैं।

चूँकि गणेश्वर के जमाव को २,८०० से २,२०० ई०पू० का माना जाता है, इसलिए इसकी बहुत-सी वस्तुएँ परिपक्व हड़प्पा संस्कृति से पूर्व की हैं। गणेश्वर मुख्यत: हड़प्पा को ताँबे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था, पर उससे उसने कोई खास तत्त्व प्राप्त नहीं किया है। गणेश्वर के लोग अंशत: कृषि-जीवी और मुख्यतः शिकार-जीवी थे। यद्यपि उनका मुख्य शिल्प ताँबे की वस्तुएँ बनाना था, तथापि वे वैसे नगरीय तत्त्वों को विकसित नहीं कर पाये जो बाढ़- सिंचित मैदानों की उपज पर आश्रित हड़प्पाई अर्थव्यवस्था में दिखायी देते हैं। अतः गणेश्वर की पुरावस्तुओं को न तो नागर सभ्यता ( हड़प्पा सभ्यता ) में की कोटि में और न ही वास्तविक गैरिक-मृद्भाण्ड या ताम्र-निधि संस्कृति ( OCP or Copper Hoards  Culture ) की कोटि में ही रखा जा सकता है। इसकी सूक्ष्मपाषाण वस्तुओं तथा अन्य पाषाण उपकरणों को देखते हुए गणेश्वर संस्कृति को प्राक्-हड़प्पाई ताम्रपाषाण संस्कृति कहा जा सकता है; जिसने परिपक्व हड़प्पा सभ्यता विकसित होने में योगदान दिया

तिथिक्रम की दृष्टि से भारत में ताम्रपाषाण बस्तियों की कई शृंखलाएँ हैं; जैसे :-

  • कुछ प्राक्-हड़प्पीय हैं,
  • कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं तथा
  • कुछ हड़प्पोत्तर हैं।

हड़प्पा अंचल के कुछ स्थलों के प्राक्-हड़प्पीय स्तरों को आरंभिक हड़प्पा संस्कृति भी कहते हैं ताकि इसे परिपक्व नगरीय सिंधु सभ्यता से पृथक किया जा सके। इस तरह राजस्थान के कालीबंगा और हरियाणा की बनावली की प्राक्-हड़प्पीय अवस्था स्पष्टतः ताम्रपाषाणिक है। यही बात पाकिस्तान के सिंध राज्य के कोटदीजी स्थल के बारे में भी है।

प्राक्-हड़प्पीय और हड़प्पोत्तर ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ तथा हड़प्पा संस्कृति की समकालीन ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ भी उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भारत में पायी जाती हैं। एक उदाहरण है कायथा संस्कृति ( लगभग २,००० से १,८०० ई०पू० ) जो हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है। इसके मुद्भांडों में कुछ प्राक्-हड़प्पीय लक्षण हैं, पर साथ ही इस पर हड़प्पाई प्रभाव भी दिखायी देता है। इस क्षेत्र में कई हड़प्पाई ताम्रपाषाणीय संस्कृतियाँ हड़प्पा संस्कृति की नगरोत्तर अवस्था से प्रभावित हैं।

कई अन्य ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ परिपक्व हड़प्पा संस्कृति से उम्र में छोटी होते हुए भी सिंधु सभ्यता से जुड़ी नहीं हैं, जैसे नवदाटोली, एरण और नागदा में पायी गयी मालवा संस्कृति ( १,७०० – १,२०० ई०पू० ) हड़प्पा संस्कृति से पृथक मानी जाती है। जोरवे संस्कृति ( १,४०० -७०० ई०पू० ) जो अंशत: विदर्भ और कोंकण को छोड़ सारे महाराष्ट्र में छायी हुई थीं, उसके बारे में भी यही बात है। देश के दक्षिणी और पूर्वी भागों में ताम्रपाषाण बस्तियाँ हड़प्पा संस्कृति से स्वतंत्र रही हैं। दक्षिण भारत में ऐसी बस्तियाँ हमेशा नवपाषाणयुगीन बस्तियों के बाद लगातार चलती रही हैं। विंध्य क्षेत्र, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की ताम्रपाषाण बस्तियाँ भी हड़प्पा संस्कृति से असंबद्ध थीं।

यह स्पष्ट है कि कई प्रकार की प्राक्-हड़प्पीय ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ सिंध, बलूचिस्तान, राजस्थान आदि प्रदेशों में कृषक समुदायों के प्रसार में प्रेरक हुईं और उनसे हड़प्पा की नगर सभ्यता के उदय के लिए अनुकूल अवसर बनाया। इस प्रसंग में सिंध के अमरी और कोटदीजी तथा राजस्थान के कालीबंगा और गणेश्वर का भी नाम लिया जा सकता है। प्रतीत होता है कि ताम्रपाषाण युग के कुछ कृषक समुदाय सिंधु के बाढ़ वाले मैदानों की ओर बढ़े, काँसे का तकनीकी ज्ञान प्राप्त किया और नगरों की स्थापना में सफल हुए

मध्य-गंगा घाटी में १३८ ताम्रपाषाण स्थल पाये गये हैं। मध्य-गंगा घाटी के विस्तृत क्षेत्र को देखते हुए यहाँ बसावट स्थलों की संख्या अपेक्षाकृत है या अधिक नहीं नहीं कही जा सकती क्योंकि जब हम दक्षिण भारत पर दृष्टिपात करते हैं तो ये संख्या वहाँ पर ८५४ नवपाषाणकालीन स्थल हैं। इन १३८ स्थलों में से अब तक उ०प्र० व बिहार में उत्खनित १४ स्थलों पर भी ताँबे का प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है। यद्यपि लोग बड़े पैमाने पर कृषि करते थे। ये बस्तियाँ पहाड़ियों के पास नदियों के संगम स्थलों, ऊपरी भूमियों तक ही सीमित थीं। बड़े आकार की विशुद्ध मैदानी बस्तियाँ अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पायी थीं। बड़े आकार की विशुद्ध मैदानी बस्तियों का अस्तित्व लौहकाल में आकर सम्भव हुआ। मध्य-गंगा घाटी और पश्चिमी बंगाल की ताम्रपाषाण बस्तियाँ १,५०० से ७०० ई०पू या इसके बाद की भी हैं। पांडु राजार ढिबी ( Pandu Rajar Dhibi ) और महिषदल ( Mahishdal ) पश्चिमी बंगाल के दो प्रमुख इस काल की बस्तियाँ हैं। मध्य और निचली गंगा घाटी की प्रमुख विशेषता है प्रभूत प्रस्तर उपकरणों का प्रयोग और कम ताँबे का प्रयोग यद्यपि कुछ मछली के काँटे ( Fish hooks ) अवश्य मिलते हैं।

भारत के मध्य और पश्चिमी भागों में ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ १,२०० ई०पू० में या १,००० ई०पू० आते-आते लुप्त हो गयीं; केवल जोरवे संस्कृति ७०० ई०पू० तक जीवित रही। फिरभी देश के कई भागों में ताम्रपाषाणयुगीन काले-व-लाल मृद्भाण्ड का बनना ऐतिहासिक काल में भी ई०पू० दूसरी सदी तक जारी रही।

परन्तु कुल मिलाकर मध्य तथा पश्चिमी भारत की आरम्भिक ऐतिहासिक संस्कृति तथा उनकी ताम्रपाषाण संस्कृति के बीच लगभग चार से छह शताब्दियों का व्यवधान रहा होगा। पश्चिमी भारत और पश्चिम मध्य प्रदेश में ताम्रपाषाण बस्तियों के लुप्त होने का कारण लगभग १,२००ई०पू० के बाद से वर्षा की कमी मानी जाती है। परन्तु मध्य गंगा क्षेत्र और पश्चिम बंगाल में ये बस्तियाँ बाद तक चलती रहीं। ऐसा लगता है कि पश्चिमी भारत में ताम्रपाषाणयुग के लोग ऐसी काली चिकनी मिट्टी ( black clayey soil ) वाले क्षेत्र में थे जहाँ सूखे मौसम में जमीन गोड़ना कठिन होता है। अतः वे अपने जमीन खोदने वाले डंडे के सहारे ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं सके। परन्तु लाल मिट्टी ( red soil ) वाले क्षेत्रों में, खासकर पूर्वी भारत में ताम्रपाषाण अवस्था के तुरन्त बाद, बिना किसी व्यवधान के, लौह अवस्था प्रारम्भ हो गयी और उसने धीरे-धीरे लोगों को पूरा खेतिहर ( full-fledged agriculturalists ) बना दिया। यही बात मध्य गंगा के मैदान में स्थित ताम्रपाषाण संस्कृतियों पर लागू होती है। इसी तरह दक्षिणी भारत के कई स्थलों पर ताम्रपाषाण संस्कृति ने लोहे का इस्तेमाल करने वाली महापाषाण संस्कृति ( Megalithic Culture ) का रूप ले लिया।

ताम्रपाषाण अवस्था का महत्त्व

  • जलोढ़ मिट्टी वाले मैदानों और घने जंगल वाले क्षेत्रों को छोड़ प्राय: देश भर में ताम्रपाषाण संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। जलोढ़ मिट्टी वाले मैदानों में भी जलाशय के किनारे कई ताम्रपाषाण बस्तियाँ मिली हैं। पर सामान्यतः ताम्रपाषाणिक लोगों ने अधिकतर नदी-तटों पर पहाड़ियों से कम दूरी पर गाँव बसाये।
  • ये लोग सूक्ष्मपाषाणों ( microliths ) और पत्थर के अन्य औजारों के साथ-साथ ताँबे के भी कुछ औजारों का प्रयोग करते थे। ऐसा जान पड़ता है कि इनमें से अधिकतर लोग ताँबे को पिघलाने की कला जानते थे। परन्तु मध्य गंगा क्षेत्र की ताम्रपाषाण संस्कृति में तांबे के औजार बहुत कम मिलते हैं; पश्चिमी भारत और मध्य भारत की संस्कृतियों में ताम्र औजार अधिक मिलते हैं।
  • लगभग सभी ताम्रपाषाण समुदाय चाकों पर बने काले-व-लाल मृद्भाण्ड का प्रयोग करते थे। उनके विकास की प्राक्-काँस्य अवस्था को देखते हुए हम पाते हैं कि चित्रित मृद्भाण्डों का सबसे पहले इस्तेमाल करने वाले वे ही हैं। वे पकाने, खाने, पीने और सामान रखने के लिए इन भाण्डो का प्रयोग करते थे। वे लोटा और थाली दोनों का प्रयोग करते थे।
  • दक्षिण भारत में नवपाषाण अवस्था अगोचरता या सूक्ष्मता ( imperceptibly ) से ही ताम्रपाषाण अवस्था में परिणत हो गयी, अतः इन संस्कृतियों को नवपाषाणीय ताम्रपाषाण संस्कृति ( Neolithic-chalcolithic Culture ) का नाम दे दिया गया।
  • अन्य भागों में, विशेषकर पश्चिमी महाराष्ट्र और राजस्थान में ताम्रपाषाण संस्कृति के लोग बाहर से आकर बसे प्रतीत होते हैं। उनकी सबसे पुरानी बस्तियाँ संभवतः मालवा और मध्य भारत में थीं, जैसे कायथा और एरण की बस्तियाँ। पश्चिमी महाराष्ट्र की बस्तियाँ बाद की मालूम होती हैं, और बिहार तथा पश्चिम बंगाल की बस्तियाँ तो और भी बाद में बसी हैं।
  • सर्वप्रथम ताम्रपाषाण जनों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में बड़े-बड़े गाँव बसाये और वे नवपाषाण जनों से अपेक्षाकृत अधिक अनाज उपजाते थे। विशेषकर वे पश्चिमी भारत में जौ, गेहूँ और मसूर ( lentil ) तथा दक्षिणी और पूर्वी भारत में चावल पैदा करते थे। वे अन्न के साथ-साथ मछली भी खाते थे। पश्चिम भारत में पशुओं का मांस अधिक चलता था, पर पूर्वी भारत के भोजन में मछली और चावल का प्रमुख स्थान था
  • पश्चिमी महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश और दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में बस्तियों के और भी अवशेष मिले हैं। मध्य प्रदेश में कायथा और एरण की और पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगाँव की बस्तियाँ किलाबंद ( fortified ) हैं। इसके विपरीत, पूर्वी भारत के चिराँद और पांडु राजार ढिबि की सरंचना के अवशेष कम हैं; उनसे सिर्फ खंभों, खाइयों और गोलाकार घरों की जानकारी मिलती है।
  • शव संस्कार विधियाँ भिन्न थीं। महाराष्ट्र में मृतक उत्तर-दक्षिण सीध में रखा जाता था, किंतु दक्षिण भारत में पूरब-पश्चिम सीध में। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान ( complete extended burial ) प्रचलित था, जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (fractional burial ) चलता था।
  • परवर्ती काल के भारतीय संस्कृति के विकास में ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों का विशेष महत्त्व है। वास्तव में सम्पूर्ण भारत में ग्रामीण कृषक समुदाय का उदय इसी काल में हुआ। इसी काल में आधुनिक भारतीय समाज की नींव पड़ी। ये ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ इस बात का भी द्योतक हैं कि सैन्धव नगरीय संस्कृति धीरे-धीरे ग्रामीण संस्कृतियों में परिवर्तित होती जा रही थी। इस संस्कृति के समापन के बाद हमें प्राप्त होती है उत्तर भारत में लिखित वैदिक संस्कृति

इस प्रकार ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का वितरण सिन्धु क्षेत्र के बाहर भारतीय भूभाग के अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र में मिलता है। इनके कुछ समान अभिलक्षण दिखायी देते हैं; जैसे :-

  • सभी ग्रामीण हैं।
  • इनके निवासियों का मुख्य उद्यम कृषि एवं पशुपालन था।
  • वे अपने मकान मिट्टी के गारे, घास-फूस, बांस-बल्ली आदि की सहायता से बनाते थे। मकान प्रायः आयताकार, वर्गाकार अथवा गोलाकार बनते थे। साथ की कुछ विविधता भी मिलती है; यथा –
    • अहार में पत्थर के घरों तथा गिलुंद में पकी ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य मिलते हैं।
  • इन स्थलों से मिली पुरातात्त्विक सामग्री से उनकी धार्मिक भावनाओं का पता चलता है; जैसे –
    • इनामगाँव से मिली मिट्टी की नारी मूर्तियों से पता चलता है कि संभवतः वे माता देवी की पूजा करते थे।
    • राजस्थान और मालवा क्षेत्र से वृषभ मूर्तियाँ मिली हैं। इनसे सूचित होता है कि इसे भी धार्मिक मान्यता प्राप्त थी।
  • ई०पू० २,००० से इन संस्कृतियों में काले और लाल रंग के मृद्भाण्डों का निर्माण व्यापक रूप से होने लगा था। मालवा संस्कृतियों के काले रंग से चित्रित लाल रंग के मृदभाण्ड सर्वोत्कृष्ट माने जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के भाण्ड भी मिलते हैं। प्रमुख पात्रों में टोटीदार एवं गोड़ीदार लोटें, कटोरे, थालियाँ आदि है। ये बर्तन चाक पर बनाये जाते थे।
  • राजस्थान के स्थलों से विकसित ताम्रधातु उद्योग का पता चलता है। अन्य स्थलों के लोग पत्थर के छोटे-छोटे उपकरणों एवं अस्त्रों का प्रयोग करते थे। कुछ स्थानों से ताम्र उपकरण भी मिलते है।
  • दायमाबाद से काँसे के उपकरण प्राप्त होते हैं। कुछ इतिहासकार इस संस्कृति पर सैन्धव प्रभाव मानते हैं। यहाँ से बस्ती के दुर्गीकरण एवं परिखा से आवृत्त होने के भी साक्ष्य मिले हैं।
  • ताम्रपाषाणकाल के निवासी पत्थर तथा तांबे के उपकरण बनाने में निपुण लगते हैं।
  • मालवा तथा जोरवे संस्कृति के लोग वस्त्रों की कताई बुनाई भी करते थे।
  • वे अपने मृतकों को अस्थि कलश में रखकर घरों के भीतर गाड़ते थे तथा उनके साथ दैनिक उपयोग की कुछ वस्तुयें भी रखते थे। इससे पारलौकिक जीवन में आस्था सूचित होती है।

भारत के मध्य तथा पश्चिमी क्षेत्रों में ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ ई०पू० १,२०० तक विद्यमान रही जबकि जोरवे संस्कृति ( महाराष्ट्र ) सातवीं शती ईसा पूर्व तक अस्तित्व में रही।

ताम्रपाषाण संस्कृति की सीमाएँ

  • ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी, भेड़, बकरी पालते थे और उन्हें अपने आँगन में ही बाँध कर रखते थे। शायद वे पशुपालन मांस के लिए करते थे, दूध पीने के लिए या घी आदि बनाने के लिए उनको दुहते नहीं थे। कई जनजातियों के लोग, जैसे बस्तर के गोंड मानते हैं कि पशुओं का दूध केवल पशुओं के बच्चों के लिए है, इसलिए वे दुहते नहीं हैं। इस कारण ताम्रपाषाण युग के लोग पशुओं से पूरा फायदा नहीं उठा सके
  • ताम्रपाषाण युग के जो लोग मध्य और पश्चिमी भारत के काली कपास-मिट्टी वाले क्षेत्र में रहते थे, गहन या विस्तृत पैमाने पर खेती नहीं कर पाये। ताम्रपाषाण स्थलों में न हल ( hoe ) और न कुदाल ( plough ) ही पाया गया है। वे अपने जमीन खोदने वाले डंडे ( digging stick ) में पत्थर का छिद्रित चक्का दबाव के लिए लटका देते थे और इससे केवल झूम खेती कर पाते थे। ऐसी खनन-यष्टि( digging stick )  से तो केवल राख में ही खेती करनी सम्भव थी। काली मिट्टी में गहन और व्यापक खेती करने के लिए लोहे के उपकरणों का प्रयोग आवश्यक था, जिनका स्थान ताम्रपाषाण संस्कृति में था ही नहीं। पूर्वी भारत में लाल मिट्टी वाले इलाकों में रहने वाले ताम्रपाषाणिक लोगों की भी यही कठिनाई थी।
  • पश्चिमी महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बच्चों के शवाधानों से ताम्रपाषाण संस्कृतियों की आम दुर्बलता प्रकट होती है। खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था के होते हुए भी बच्चों के मरने की दर बहुत ऊँची थी। पोषाहार की कमी, चिकित्सा के ज्ञान का अभाव या महामारी का प्रकोप इसका कारण हो सकता है। जो भी हो, ताम्रपाषाण संस्कृति का सामाजिक और आर्थिक ढाँचा आयु-वर्धक ( longevity )नहीं था।
  • ताम्रपाषाण संस्कृति तत्त्वत: ग्रामीण पृष्ठभूमि पर खड़ी थी। इसके जीवन की सारी अवधि में ताँबा सीमित मात्रा में ही उपलब्ध रहा और धातु के रूप में ताँबा कुछ सीमित ही काम दे सकता था। यद्यपि पूर्वी भारत में ताँबा उपलब्ध था तबभी बिहार व उसके आस-पास के क्षेत्रों में इस काल में ताँबे का सीमित उपयोग ही दिखायी देता है। कुछ ताम्रपाषाण लोग अब भी मुख्य रूप से लघुपाषाण या छोटे प्रस्तर औजारों ( microliths or small stone tools ) का प्रयोग कर रहे थे। ताँबा एक लचीली ( pliant ) धातु है और इसके बने औजार लचीले होते था। लोग ताँबे में टिन को मिलाकर काँसा बनाना नहीं जानते थे जो ताँबे से अधिक मजबूत और उपयोगी होता हैकाँसे के औजारों के इस्तेमाल से क्रीट, मिस्र और मेसोपोटामिया और सिंधु घाटी में भी प्राचीनतम सभ्यताओं के विकास में बड़ी सुविधा मिली थी
  • ताम्रपाषाण युग के लोग लिखने की कला नहीं जानते थे और न ही वे नगरों में रहते थे, जबकि काँस्य युग के लोग नगरवासी हो गये थे। सभ्यता के ये सभी तत्त्व हमें भारतीय उपमहादेश के सिंधु क्षेत्र के अधिकतर भाग में विद्यमान दिखायी पड़ते हैं। अधिकांश ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ उम्र में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद की हैं। फिर भी ये संस्कृतियाँ सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के उन्नत तकनीकी ज्ञान से कोई ठोस फायदा नहीं उठा पायीं

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