पूर्व पुरापाषाणकाल ( Lower Palaeolithic Age )

भूमिका

पूर्व पुरापाषाणकाल या निम्न पूर्व पुरापाषाणकाल ( Early or Lower Palaeolithic Age ) सम्पूर्ण रूप से अत्यंतनूतन युग ( हिम युग ) के अंतर्गत आता है। अफ्रीका में यह लगभग २० लाख वर्ष पहले शुरू हुआ जबकि भारतीय उप-महाद्वीप में यह लगभग ६ लाख वर्ष पुराना निर्धारित किया गया है।

यद्यपि महाराष्ट्र के पुणे जनपद में बोरी नामक पुरास्थल की तिथि १३.८ लाख वर्ष निर्धारित की गयी है। बोरी को भारतीय उप-महाद्वीप का सबसे पुरातन पूर्व पुरापाषाणकालीन स्थल माना जाता है।

पूर्व पुरापाषाणकाल ( Lower Palaeolithic Age ) अवस्था का समय भारत में ६,००,००० से १,५०,००० ई०पू० तक माना जाता है।

पूर्व पुराषाणकाल : औजार

पत्थरों के इन औजारों को बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कच्ची सामग्री ( raw materials ) में विभिन्न किस्मों के पत्थर; जैसे- बिल्लौर ( quartzite ), चर्ट ( chert ) और कई बार स्फटिक ( Quartz ) और बेसाल्ट ( basalt ) आदि शामिल हैं, जैसा कि नदियों और चबूतरों आदि में देखा गया है, ये औजार रेत, गाद आदि से ढके हुए पाये गये हैं।

इस अवस्था में मुख्य प्रकार के औजार थे :

  • हस्तकुठार और विदारणियाँ ( handaxes and cleavers tools )
  • गँड़ासा-खंडक ( chopper-chopping tools )।
  • ये उपकरण / औजार ( Tools ) क्रोड ( Core ) और शल्क ( Flake ) दोनों पर बनाये जाते थे।

भारत के विभिन्न भागों से निम्न पूर्व पाषाणकाल ( Lower Palaeolithic Age ) से संबन्धित उपकरण प्राप्त हुए हैं। इन प्रस्तर उपकरणों को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है :-

  • एक, गँड़ासा-खंडकबाटिकाश्म संस्कृति ( Chopper-Chopping-Pebble Culture ) :— इसके उपकरण सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी ( पाकिस्तान ) से प्राप्त हुए। इसी कारण इसे सोहन-संस्कृति भी कहा गया है। पत्थर के वे टुकड़े, जिनके किनारे पानी के बहाव में रगड़ खाकर चिकने और सपाट हो जाते हैं, बाटिकाश्म कहे जाते हैं। इनका आकार-प्रकार गोल-मटोल होता है। गँड़ासा बड़े आकार वाला वह उपकरण है जो बाटिकाश्म ( pebble ) से बनाया जाता है। इसके ऊपर एक ही ओर फलक निकालकर धार बनायी गयी है। खंडक उपकरण द्विधारा (Bifacial) होते हैं, अर्थात् बाटिकाश्म के ऊपर दोनों किनारों को छीलकर उनमें धार बनायी गयी है।
  • हस्तकुठार संस्कृति ( Hand-Axe Culture ) :— इसके उपकरण सर्वप्रथम चेन्नई के समीप बदमदुरै और अतिरपक्कम से प्राप्त किये गये हैं। साधारण पत्थरों से कोर और फ्लेको प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये है। इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि है।

पूर्व पुरापाषाणकाल : स्थल

पूर्व पुरापाषाणयुगीन स्थल कई प्रकार के हैं :

  • आवास स्थल — शैलाश्रयों के नीचे अथवा खुले में ( habitation sites — either under rock-shelters or in the open )
  • कच्ची सामग्रियों के स्रोतों से संबंधित कारखाना स्थल ( factory sites associated with sources of raw materials )
  • ऐसे स्थल, जो इन दोनों कार्यों का सम्मिश्रण हैं (  sites that combine elements of both these functions )
  • बाद में इनमें से किसी एक श्रेणी के स्थल, खुले स्थान पर ( open air sites in any of these categories subsequently )

प्राकृतिक शैलाश्रय मानव के लिए आवास का कार्य करते थे। विपरीत मौसम में वे यहाँ निवास करते थे। ये ऋतुकालिक आवास ( seasonal camps ) जैसे थे।

मानव निवास के लिए आवश्यक था जलस्रोत और औजार निर्माण के लिए प्रस्तर के रूप में कच्ची सामग्री। अत: जहाँ पर जलस्रोत के साथ-साथ कच्ची सामग्री की उपलब्धता हो वह निम्न पुरापाषाणकालीन ( Lower Palaeolithic ) मानव के निवास की पहली पसंद थे।

ये पूर्व पुरापाषाणयुगीन औजार सिंधु, सरस्वती, ब्रह्मपुत्र और गंगा के मैदानों को छोड़ कर, जहाँ पत्थरों के रूप में कच्ची सामग्री उपलब्ध नहीं थी, वास्तव में भारत भर में काफी बड़े क्षेत्र में पाये गये हैं।

ये स्थल कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की शिवालिक पर्वतमाला, पंजाब, उत्तर प्रदेश की बेलन घाटी, राजस्थान के पहाड़ी क्षेत्र और बेड़ाच बेसिन, और मध्य प्रदेश की नर्मदा और सोन घाटियों, कर्नाटक में ‘मालप्रभा’ और ‘घाटप्रभा’ के बेसिनों, महाराष्ट्र के अनेक क्षेत्रों, तमिलनाडु में चेन्नई के निकट के क्षेत्रों और छोटा नागपुर पठार, और उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश के क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैले हुए हैं।

 

पूर्वपुरापाषाणकालीन स्थल ( Lower or Early Palaeolithic Age )

पाकिस्तान

  • पिन्डी घेब, अडियाल, वडियाल, मलकपुर, चौंतरा, कलार आदि : सोहन नदी घाटी

राजस्थान

  • बागौर ( भीलवाड़ा जनपद )
  • डीडवाना, १६ आर, सिंगी तालाब ( नागौर जनपद )

मध्यप्रदेश

  • नरसिंहपुर ( नर्मदा घाटी)
  • हथनोर ( नर्मदा घाटी, सिहोर जनपद )
  • भीमबेटका ( रायसेन जनपद )
  • आदमगढ़ ( होसंगाबाद जनपद )

महाराष्ट्र

  • नेवासा, चिरकी ( अहमदाबाद जनपद )
  • बोरी, पुणे

ओडिशा

  • मयूरभंज ( बुहारबलंग नदी घाटी )

आंध्र प्रदेश

  • गिद्दलूर ( प्रकाशम् जनपद )
  • करीमपुड़ी ( पलनाडु जनपद )
  • नागार्जुनकोंडा

कर्नाटक

  • अनगवाड़ी ( बागलकोट )
  • हंसगी ( यादगीर जनपद )

तमिलनाडु

  • पल्लवरम् ( चिगलपट्टू जनपद – Chengalpattu )
  • अत्तिरामपक्कम्, बदमदुरै, गुडीयाम की गुफाएँ ( कोर्तलयार नदी घाटी, तमिलनाडु )
पूर्व पुरापाषाणकाल : स्थल
पूर्व पुरापाषाणकाल : स्थल

 

भारतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों से इन दोनों संस्कृतियों के उपकरण प्राप्त किये गये है। इनका विवरण इस प्रकार है :—

सोहन संस्कृति

सोहन, सिन्धु नदी की एक छोटी सहायक नदी है। प्रागैतिहासिक अध्ययन के लिये इस नदी घाटी का विशेष महत्त्व है। १९२८ ई0 में डी० एन० वाडिया ने इस क्षेत्र से पूर्व पाषाणकाल का उपकरण प्राप्त किया। १९३० ई० में के० आर० यू० टॉड ने सोहन घाटी में स्थित पिन्डी घेब नामक स्थल से कई प्रस्तर उपकरण प्राप्त किये।

सोहन नदी घाटी
सोहन नदी घाटी

सोहन घाटी में सबसे महत्त्वपूर्ण अनुसंधान १९३५ ई० में डी० टेरा के नेतृत्व में ऐल कैम्ब्रिज अभियान दल ने किया। इस दल ने कश्मीर घाटी से लेकर साल्ट रेंज तक के विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण किया। उन्होंने हिम और अन्तर्हिम ( Glacial and Interglacial ) कालों के क्रम के आधार पर पाषाणकालीन सभ्यता का विश्लेषण किया।

सोहन नदी घाटी की पाँच वेदिकाओं ( Terraces ) से भिन्न-भिन्न प्रकार के पाषाण उपकरण प्राप्त किये गये हैं। इन्हें सोहन उद्योग ( Sohan Industry ) के अन्तर्गत रखा जाता है। द्वितीय हिम युग में भारी वर्षा के कारण पुष्वल-शिवालिक क्षेत्र में बोल्डर कांग्लोमरेट ( Boulder Conglomerate ) का निर्माण हुआ।

बोल्डर वे पाषाण खण्ड है जिन्हें नदी की धाराओं द्वारा पर्वतों या शिलाओं से तोड़कर बहा लिया जाता है। ऐसे पाषाण खण्डों द्वारा निर्मित सतह को हो ‘बोल्डर कांग्लोरेट‘ की संज्ञा दी जाती है।

डी० टेरा और पीटरसन ने बोल्डर कांग्लोमरेट के स्थलों से ही बड़े-बड़े पेबुल तथा फलक उपकरण प्राप्त किये। इन सभी का निर्माण सेलखड़ी ( Quartzite ) नामक पत्थर द्वारा किया गया है। फलक अत्यंत घिसे हुए हैं। इनका आकार प्रायः कोन ( Cone ) जैसा है। ये उपकरण सोहन घाटी में मिलने वाले उपकरणों से भिन्न है। इसी कारण विद्वानों ने इन्हें प्राक्-सोहन ( Pre-Sohan ) नाम दिया है। ये उपकरण सोहन घाटी में मलकपुर, चौन्तरा, कलार, चौमुख आदि स्थानों से मिले हैं।

सोहन घाटी के उपकरणों को आरम्भिक सोहन, उत्तरकालीन सोहन, चौन्तरा तथा विकसित सोहन नाम दिया गया है।

जलवायु शुष्क होने के कारण सोहन घाटी में अनेक कगार या वेदिकाये बन गयी हैं।

  • जलवायु शुष्क होने से जब नदियों का पानी घट जाता है अथवा उनकी दिशा में बदलाव हो जाता है तब उनके किनारे पर ढालू भूमि निकल आती है। इसी को कगार या वेदिका ( Terrace ) कहते हैं।

द्वितीय अन्तर्हिम काल ( Second Interglacial Age ) में पहली वेदिका ( Terrace ) का निर्माण हुआ। इससे मिले हुए पाषाणोपकरणों को ‘आरम्भिक सोहन’ ( Early Sohan ) कहा गया है। ये निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित है और इनमें गँड़ासा ( chopper ) और हस्तकुठार ( hand-axe ) दोनों ही परम्पराओं के उपकरण सम्मिलित है। खंडक ( chopping ) उपकरण बाटिकाश्म ( pebble ) तथा शल्क ( flake ) पर बने है। इनके लिये चिपटे तथा गोल दोनों ही आकार के बाटिकाश्म प्रयोग में लाये गये हैं। इन प्रारम्भिक उपकरणों को अ, ब और स तीन कोटियों में विभाजित किया गया है।

  • ‘अ’ कोटि के उपकरण अत्यधिक टूटे-फूटे और घिसे हुए हैं। इनके ऊपर काई व मिट्टी जमी हुई है।
  • ‘ब’ कोटि के उपकरणों के ऊपर भी काई व मिट्टी जमी हुई है फिरभी ये कम घिसे हुए हैं और टूटे-फूटे नहीं है। इनमें कुछ फलक उपकरण भी है।
  • ‘ग’ कोटि के अन्तर्गत अपेक्षाकृत नये उपकरण है जिनके ऊपर काई व मिट्टी बहुत कम लगी है। इनमें फलक ( blade ) की अधिक संख्या में है। कुछ फलक उपकरण बड़े और कुछ छोटे है।

गँड़ासे व खंडक उपकरणों की विविधता में प्रयुक्त बाटिकाश्मों के वैविध्य की झलक देखने को मिलती है। शल्कों से लवाल्वाई तकनीक के विकास की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है परन्तु इस अवस्था में सचमुच के लवाल्वाई तकनीक के शल्क का विवरण नहीं मिलता है।

बाटिकाश्म तथा फलक उपकरणों के साथ ही साथ सोहन घाटी की प्रथम वेदिका ( terrace ) से ही कुछ हस्तकुठार ( hand-axe ) परम्परा के उपकरण भी मिले हैं। ये हस्तकुठार निकटवर्ती चौंतरा से मिलते है। चौंतरा से शल्क के साथ-साथ हस्तकुठार प्राप्त होते हैं। ये दक्षिण की चेन्नई ( मद्रास ) परम्परा के समकालीन है। विद्वानों ने इनकी तुलना युरोप के पाषाणकालीन उपकरणों से की है जिनका निर्माण एबीबेली-एशुली प्रणाली के अन्तर्गत किया गया था। कुछ हस्तकुठार तो इतने बढ़िया तरीके से तैयार किये गये हैं और वे पश्चिमी युरोप के परवर्ती ‘रिस काल’ के ‘एशुली’ रूपों से काफ़ी मिलते जुलते हैं।

एबीबेली हस्तकुठार

यदि हस्तकुठार लंबा-चौड़ा, भारी-भरकम और अनगढ़ हो तो उसे एबीवेली हस्तकुठार ( Abbevillin handaxe) भी कह सकते हैं।

यह नाम ( एबीबेली ) मिंडेल युग की पश्चिम यूरोपीय पूर्व पुरापाषाणकालीन परम्परा के अनुसार रखा गया है।

इसे तैयार करने के लिए, गहरे प्राथमिक शुल्कों की केवल एक शृंखला उतारी जाती है। परिणामतः इसका काम करने वाला किनारा बड़ा ऊबड़-खाबड़ होता है और प्रायः वह बेडौल भी होता है।

ऐशूली हस्तकुठार

ऐशूली हस्तकुठार ( Acheulion handaxe ) का प्रारूप एबीबेली प्रारूप के एकदम विपरीत होता है।

इसका नामकरण रिस युग ( Riss period ) की एक अन्य पश्चिम यूरोपीय पूर्व पुरापाषाणकालीन परम्परा के आधार पर रखा गया है।

यह हस्तकुठार से काफी छोटा और सुडौल होता है और इसे तैयार करने में अनेक बार द्वितीयक शल्क ( flake ) उतारे जाते हैं और किनारों का व्यापक परिष्कार किया जाता है। यह परिष्कार ऐसे करते हैं जैसे नरम-नरम सब्जियों को चाकू से काट दिया गया हो।

प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि खोखली अस्थि और शृंग को हथौड़े के रूप में प्रयोग करने पर ऐसे नियंत्रित परिणाम उत्पन्न किए जा सकते हैं।

एक अत्यंत परिष्कृत ऐशूली हस्तकुठार अंडाकार हस्तकुठार है। यह लंबे खींचे गये बिंब की तरह का होता है और चपटा रखकर देखने से इसका पार्श्व प्रायः ‘एस’ ( S ) के आकार में मुड़ा हुआ लगता है।

रिस युग : यह अत्यंत नूतन युग ( Pleistocene Age ) का तीसरा चरण है जिसका नामकरण दक्षिण-पश्चिम जर्मनी की रिस ( Riss ) नदी के आधार पर किया गया है।

 

सोहन की पहली वेदिका से कोई जीवाश्म (fossil) नहीं प्राप्त हुआ है।

सोहन घाटी की दूसरी वेदिका ( terrace ) का निर्माण तीसरे हिमकाल में हुआ। इस वेदिका के उपकरणों को उत्तरकालीन सोहन ( Later Sohan ) कहा गया है। इन्हें ‘अ’ तथा ‘ब’ दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

  • ‘अ’ श्रेणी के बाटिकाश्म ( pebble ) उपकरण आरम्भिक सोहन के बाटिकाश्म उपकरणों की अपेक्षा अधिक सुन्दर और विकसित हैं। उनमें फलकों ( blades ) की संख्या ही अधिक है। उपकरणों में पुनर्गठन बहुत कम मिलता है। फलकन ( facetting ) लवाल्वाई प्रकार की है।
  • ‘ब’ श्रेणी के उपकरण नये तथा अच्छी अवस्था में है। इनमें फलक तथा ब्लेड अधिक संख्या में मिलते हैं। कुछ अत्यन्त पतले फलक भी मिलते है। इस स्तर से कोई हल्तकुठार नहीं प्राप्त होता है। समय को दृष्टि से उत्तर कालीन सोहन उपकरण मध्य पूर्व पाषाणकालिकहै।

क्लाक्टोनी और लवाल्वाई तकनीक

क्रोड़ ( core ) पर बेतरतीब प्रहार करके शल्क ( flake ) उतारने की सामान्य विधि के अलावा दो महत्त्वपूर्ण तरीके और भी हैं :— क्लाक्टोनी ( Clactonian ) और लवाल्वाई ( Levalloisean ) तकनीकें कहा जाता है।

क्लेक्टोनी तकनीक के प्रयोग का पहला पहला विवरण लगभग ४,००,००० वर्ष पूर्व इंग्लैंड के क्लैक्टोन-ऑन-सी नामक स्थान से मिलता है। इस तकनीक के अंतर्गत किसी क्रोड़ से एक बड़ा-सा शल्क उतारते हैं और फिर पहले शल्क के चिह्न को दूसरे शल्क उतारने का आधार-तल बना लेते हैं। यही प्रक्रिया तीसरे और बाद के शल्कों के संदर्भ में भी दोहरायी जाती है। क्लेक्टोनी शल्क बड़े और मोटे होते हैं और उनमें बहुत स्पष्ट धनात्मक आघात गोलक ( positive bulbs of percussion ) देखने को मिलता है। आधार-तल पर शल्क-चिह्न से जो कोण बनता है वह प्रायः ९० से बड़ा होता है।

लवाल्वाई तकनीक के प्रयोग का विवरण अपेक्षाकृत परवर्ती काल, अर्थात् लगभग २,००,००० वर्ष पूर्व फ्रांस में पेरिस के पास लवाल्वाई नामक स्थान पर मिलता है। इस विधि के अन्तर्गत पहले क्रोड़ के एक तल से अनेक केंद्रोन्मुख शुल्क उतार कर कोड़ को तैयार किया जाता है, और फिर तैयार तल के शीर्ष पर प्रहार करते है ताकि ऐसा शल्क उतार सकें जिसके बाह्य या पृष्ठीय तल से और शल्क उतारे जा सकें। अतः इस विधि को निर्मित क्रोड़ तकनीक ( prepared core technique ) भी कहते हैं। शल्क प्राय: छोटे से लेकर मध्यम आकार के होते हैं जिनके पृष्ठीय तल पर शल्कों के चिह्न बने होते हैं। प्रहार का आधार-तल प्रायः यह दर्शाता है कि उसे जान-बूझकर या प्रयासपूर्वक बराबर करने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रक्रिया को फलकन (facetting ) कहते हैं और इससे शल्क-तल के साथ लगभग ९० का कोण बनता है।

सोहन घाटी की तीसरी वेदिका ( terrace ) का निर्माण तृतीय अन्तर्हिम काल में हुआ उससे कोई भी उपकरण नहीं मिलता है।

उत्तरकालीन सोहन के अन्तर्गत चौन्तरा से प्राप्त उपकरणों का विशेष महत्त्व है। इन उपकरणों में प्राक्-सोहन के कुछ फलक, सोहन परम्परा के बाटिकाश्म व फलक और चेन्नई ( मद्रास ) परम्परा के हस्तकुठार आदि सभी मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि चौन्तरा उत्तर और दक्षिण की परम्पराओं का संगम स्थल था। डी० टेरा का विचार है कि आदि मानव पंजाब में दक्षिण से हो आया और उसी के साथ हस्तकुठार ( handaxe )परम्परा भी यहाँ पहुँची थी। चौन्तरा उद्योग का समय तीसरा अन्तर्हिम काल ( third inter-glacial period ) माना गया है।

सोहन को चौथी वेदिका का निर्माण चौथे हिमकाल ( fourth glacial period ) में हुआ। इससे मिले हुए उपकरणों को ‘विकसित सोहन’ ( Evolved Sohan ) की संज्ञा दी गयी है। १९३२ ई० में टाड ने पिन्डी घेब के समीप ढोक पठार से इन उपकरणों को खोज की थी। इनमें फलक ( blade ) पर निर्मित उपकरण ही अधिक है। आकार-प्रकार में ये पूर्ववर्ती उपकरणों से छोटे है।

सोहन की पाँचवी तथा अन्तिम वेदिका से मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिलते हैं।

सोहन संस्कृति : विशेषताएँ

चौंतरा को छोड़ दें तो सोहन संस्कृति की निम्न विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं :-

(१)   बाटिकाश्म उपकरणों ( Pebble tools ) की प्रधानता है जिन्हें प्रायः गँड़ासे व खंडक ( Chopper & Chopping ) उपकरणों का रूप दिया गया है। अर्थात् सोहन संस्कृति में मूलतः हस्तकुठार ( Hand-axe ) या विदारणी ( Cleaver ) का अस्तित्व नहीं है

(२)   सोहन पुरापाषाण अपने उद्भव से लेकर लगभग अपनी समाप्ति के समय तक प्रारूप की दृष्टि से मुख्य रूप से अपरिवर्तित रही, हालाँकि यह हो सकता है कि उनकी तकनीक क्रमबद्ध रूप से परिष्कृत होती गयी हो। यह एक ऐसी विशेषता है जो विश्व में और कहीं देखने को नहीं मिलती है

(३)   चौंतरा संस्कृति इसमें घुसपैठ की तरह जान पड़ती है जो कि सोहन की मुख्य सांस्कृतिक धारा से अलग-थलग ही बनी रही और सोहन संस्कृति को बदल नहीं पायी।

सोहन संस्कृति के उपकरण भारत के कुछ अन्य भागों से भी मिलते हैं। सिरसा, व्यास, वानगंगा, नर्मदा आदि नदी घाटियों की वेदिकाओं से ये उपकरण प्रकाश में आये है।

आरम्भिक सोहन प्रकार के बाटिकाश्म ( pebble ) उपकरण निम्न स्थानों से प्राप्त किये गये हैं :—

  • चित्तौड़ ( राजस्थान ),
  • सिंगरौली ( मिर्जापुर, उ० प्र० ) और बेलन नदी घाटी ( उ० प्र० ),
  • मयूरभंज ( ओडिशा ),
  • साबरमती और माही नदी घाटियों ( गुजरात ) एवं
  • गिद्दलूर ( प्रकाशम या आँगोले जनपद, आन्ध्र प्रदेश ) तथा नेल्लोर ( आन्ध्र प्रदेश )।

डी० टेरा और पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने कश्मीर घाटी में भी अनुसंधान किया। उन्होंने यहाँ प्रातिनूतन काल ( Pleistocene age ) के जमावों का अध्ययन किया किन्तु इस क्षेत्र से उन्हें मानव आवास का कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ।

१९६९ ई० में एच० डी० संकालिया ने श्रीनगर से कुछ दूरी पर स्थित लिद्दर नदी ( झेलम नदी की सहायिका ) के तट पर बसे हुए पहलगाम से एक बड़ा फलक उपकरण और बिना गढ़ा हुआ हस्तकुठार प्राप्त किया।

१९७० ई० में एच० डी० संकालिया और आर० वी० जोशी ने कश्मीर घाटी में पुनः अनुसंधान के परिणामस्वरूप ९ पाषाण उपकरणों का खोज किये। इनमें खुरचनी ( Scraper ), वेधक ( Borer ), आयताकार क्रोड़ तथा हस्तकुठार ( Handaxe ) वाला गँड़ासा ( Chopper ) आदि शामिल हैं।

इसी तरह पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित शिवालिक क्षेत्र से भी पूर्व पाषाणकाल के कई स्थलों का पता चला है।

१९५१ ई० में ओलफ रुफर नामक विद्वान ने सतलुज की सहायक नदी सिरसा की घाटी में अनुसंधान करके निम्न पूर्व पाषाण काल के उपकरण प्राप्त किये। तदुपरान्त डी० सेन को इसी नदी घाटी ( सिरसा नदी घाटी ) की वेदिकाओं से क्वार्टजाइट पत्थर के बने बाटिकाश्म तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए।

१९५५ ई० में बी० बी० लाल ने हिमाचल के कांगड़ा जिले में स्थित व्यास-बानगंगा की घाटी में अनुसन्धान किया। उन्हें यहाँ के विभिन्न पुरास्थलों से गँड़ासा-खंडक ( Chopper-Chopping ), बाटिकाश्म ( Pebble ), हस्तकुठार ( Handaxe ) आदि पूर्व पाषाणकालिक उपकरण ( Tool )प्राप्त हुए हैं।

राजस्थान और गुजरात के पुरास्थलों से भी कई पाषाण उपकरण मिलते है।

नर्मदा नदी घाटी में अत्यंत नूतनयुगीन ( Pleistocene ) अवसादों के विशाल निक्षेप देखे गये हैं। उदाहरण के लिए, नरसिंहपुर में निम्नतम बजरी से पूर्व पुरापाषाणकालीन औजारों के साथ-साथ ठेठ मध्य अत्यंतनूतनयुगीन लुप्त जीवाश्म प्राप्त हुए हैं। इनमें आद्य सोहन प्रकार के गँड़ासे और खंडक उपकरण तथा चौंतरा प्रकार के हस्तकुठार और विदारणियाँ भी शामिल है। सर्वथा अपरिष्कृत हस्तकुठार — जिन्हें एबीवेली प्रारूप कहते हैं — अत्यंत उन्नत महीन उत्तर-एशूली प्रारूप के साथ मिले-जुले पाये गये हैं। इससे अनेक विद्वानों की यह राय बनी है कि इन निक्षेपों में विभिन्न कालखंडों की सांस्कृतिक सामग्री सम्मिलित हो सकती है और ये काल-खंड बजरी के निक्षेपण के समय से पुराने रहे होंगे। दूसरे शब्दों में, यदि इस बजरी की तिथि अंतिम अंतराहिमानी मानी जाय तो एबीवेली प्रारूप और नर्मदा क्षेत्र की आद्य सोहन प्रारूप संस्कृति निश्चय ही उत्तर अत्यंतनूतन युग से पुरानी तिथि की होनी चाहिए।

नरसिंहपुर में जैसी सांस्कृतिक सामग्री मिली है, लगभग वैसी ही सामग्री नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के साथ-साथ आधे दर्जन अन्य स्थलों में भी प्राप्त हुई है। नर्मदा के निकट भीमबेटका  ( रायसेन, मध्यप्रदेश ) की गुफाओं से सुस्पष्ट निवास स्थलों की एक श्रेणी का पता चला है। यहाँ से नर्मदा के पूर्वपुरापाषाण काल की मिली-जुली प्रकृति का और भी विस्तृत प्रमाण मिलता है । भीमबेटका से एशूली लोगों की भारी जनसंख्या का संकेत मिलता है जो विदारणियों के निर्माण में अत्यंत कुशल और अनुभवी थे। उनके शल्क उपकरण बहुत सारे और तरह-तरह के हैं और वे पश्चिमी यूरोपीय मध्य पुरापाषाण काल के उपकरणों से भी खूब मिलते-जुलते है। हस्तकुठार बहुत बढ़िया ढंग से बनाये गये हैं जो कि छोटे-छोटे और चिपटे हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इन स्तरों पर यथार्थ परवर्ती एशूली लोगों का समूह आबाद था। परन्तु यहाँ कोई एक भी गंडासा या एबीवेली हस्तकुठार नहीं मिला है। इससे इस बात का पर्याप्त संकेत मिल जाना चाहिए कि नर्मदा निक्षेप पुराने समय की विविध संस्कृतियों के प्रतिनिधि हो सकते हैं जिनके साथ नये समूह भी मिले हुए है। एशूली उपकरणों की विकसित प्रकृति इस संस्कृति की परवर्ती कालानुक्रमिक स्थिति के साथ बहुत मेल खाती है और यहाँ इसकी तुलना पश्चिमी युरोप से किया जा सकता है।

महाराष्ट्र की प्रवरा नदी ( गोदावरी की सहायिका ) के साथ-साथ नेवासा में, आंध्रप्रदेश के गिद्दलूर और करीमपुडी में, और तमिलनाडु के अनेक स्थलों पर वादमदुराई, अत्तिरंपक्कम, मानाजानकारन इत्यादि मिश्रित एबीवेली और ऐशूली उद्योग वाली उसी सामान्य स्थिति का विवरण प्राप्त हुआ है, जिसमें गंडासा और खंडक उपकरण पाये जाते है।

कर्नाटक में, विशेषतः कृष्णा की दो सहायक नदियों ( मालप्रभा और घाटप्रभा ) के आस-पास अनेक पूर्वपुरापाषाण युगीन स्थलों का विवरण मिला है। इन स्थलों पर बटिकाश्म गँड़ासों (pebble choppers ) और खंडक उपकरणों में सोहन तत्त्व सर्वथा नगण्य प्रतीत होता है।

अब पूर्वपुरापाषाण भारत के प्रायः सभी भागों से मिले हैं जिनमें असम की घाटियाँ भी सम्मिलित हैं। इन प्रतिलब्धियों से इस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि इस काल में भारत छिटपुट क्षेत्रों के रूप में नहीं बसा था। फिर, इस संस्कृति के अंतर्गत उष्णकटिबंधीय वनों के मुकाबले उप-हिमालयी क्षेत्रों में बटिकाश्म उपकरणों की प्रधानता दिखाई देती है

बेलनघाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी० आर० शर्मा के निर्देशन में अनुसन्धान किया गया। बेलन टोंस नदी की सहायिका, टोंस अंततः गंगा नदी में मिल जाती है। यह उ० प्र० के सोनभद्र व मिर्जापुर और म० प्र० के रीवा जनपद से बहते हुए अंततः टोंस में मिल जाती है।

बेलन नदी घाटी के विभिन्न पुरास्थलों से पाषाणकाल के सभी युगों से संबन्धित उपकरण तथा पशुओं के जीवाश्म मिले है। निम्न पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित यहाँ ४४ पुरास्थल मिलते हैं।

बेलन नदी घाटी के प्रथम जमाव से निम्न पूर्व पाषाणकाल के उपकरण प्राप्त हुए हैं। इनमें सभी प्रकार के हस्तकुठार ( Handaxe ), विदारणी ( Cleaver ), खुरचनी ( Scraper ), बाटिकाश्म ( Pebble ) पर बने हुए गँड़ासा ( Chopper ) उपकरण आदि सम्मिलित हैं। हस्तकुठार ९ सेमी० से लेकर ३८.५ सेमी तक के हैं। कुछ उपकरणों में मुठिया ( Butt ) लगाने का स्थान भी मिलता है। ये उपकरण क्वार्टजाइट पत्थरों से निर्मित हैं।

बेलन घाटी से मध्य तथा उच्च पूर्व पाषाणकाल के उपकरण भी प्राप्त होते हैं। मध्यकाल के उपकरण शल्क ( Flake ) पर बने हैं। इनमें बेधक ( Borer ), खुरचनी ( Scraper ), फलक ( Blade ) आदि है। इनका निर्माण महीन कण वाले बढ़िया ‘क्वार्टजाइट पत्थर’ से किया गया है।

यहाँ के उच्च पूर्व पाषाणकालिक उपकरण फलक ( Blade ), बेधक ( Borer ), तक्षणी ( Burin ), खुरचनी ( Scraper ) आदि प्रमुख है। फलक बेलनाकार क्रोड़ के बने हैं। कुछ १५ सेमी० तक लम्बे है। उपकरणों के अतिरिक्त बेलन के लोंहदा नाला क्षेत्र से इस काल ( उत्तर / उच्च पुरापाषाणकाल ) की अस्थि निर्मित ‘मातृदेवी’ की एक प्रतिमा मिली है जो सम्प्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सुरक्षित है। बेलन घाटी की उच्च पूर्व पाषाणकालीन संस्कृति का समय ई०पू० ३०,००० से १०,००० के बीच निर्धारित किया गया है।

गोदावरी, नर्मदा, बेलन आदि नदी घाटियों से विभिन्न पशुओं के जीवाश्मों के साक्ष्य भी मिलते हैं जो निम्न पूर्व पाषाणकाल के हैं। इनके आधार पर विद्वानों ने इस काल का समय प्रातिनूतन काल ( Pleistocene Age ) में निर्धारित किया है।

दक्षिण भारत की हस्तकुठार परम्परा

इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम चेन्नई ( मद्रास ) के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुये। इसी कारण इसे ‘चेन्नई संस्कृति’ ( ‘मद्रासीय संस्कृति’ ) भी कहा जाता है। सर्वप्रथम १८६३ ई० में राबर्ट ब्रूस फूट ने चेन्नई के पास पल्लवरम नामक स्थान से पहला हस्तकुठार ( Handaxe ) प्राप्त किया था। उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोज निकाले। इसके बाद डी० टेरा और पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारम्भ किया। वी० डी० कृष्णास्वामी, आर० वी० जोशी और के० डी० बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसन्धानात्मक कार्य किये।

कोर्तलयार नदी घाटी
कोर्तलयार नदी घाटी

दक्षिण भारत की कोर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिये महत्वपूर्ण है। इसकी घाटी में स्थित वदमदुरै ( Vadamadurai ) नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले हैं जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है।

वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकायें मिली हैं। इन्हीं से उपकरण एकत्र किये गये है। इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है।

  • प्रथम वर्ग, सबसे नीचे की वेदिका को बोल्डर काग्लोमीरेट कहा जाता है। इससे कई औजार-हथियार मिलते है। इन्हें भी विद्वानों ने दो श्रेणियों में रखा है।
    • प्रथम श्रेणी में भारी तथा लम्बे हस्तकुठार ( Handaxe ) और क्रोड़ ( Core ) उपकरण है। इन पर सफेद रंग की काई जमी हुई है। इन उपकरणों के निर्माण के लिये काफी मोटे फलक निकाले गये है हस्तकुठारों की मुठियों के सिरे ( Butt ends ) काफी मोटे हैं। क्रोड़ उपकरणों के किनारे टेढ़े-मेढ़े है और उनपर गहरी शल्कन ( Flaking ) के चिह्न दिखायी देते हैं। हस्तकुठार फ्रांस के एबीबेली ( Abbevillin ) परम्परा के हस्तकुठार के समान है।
    • द्वितीय श्रेणी में भी हस्तकुठार तथा क्रोड़ उपकरण ही आते हैं परन्तु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे है। इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है। कहीं-कहीं सोपान पर फलकीकरण ( Step Flaking ) के प्रमाण भी मिलते हैं। इस श्रेणी के हस्तकुठार एशूली ( Acheulean ) प्रकार के हैं।
  • दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकसित और सुन्दर है। चूँकि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों ( Laterite ) से निर्मित है, इस कारण इनके सम्पर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है। इस कोटि के हस्तकुठार चौड़े व सुडौल है। इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक है तथा पुनर्गठन के भी प्रमाण मिलते है। इन्हें मध्य एशूली कोटि में रखा गया है।
  • तीसरे वर्ग के उपकरणों का रंग न तो लाल है और न उनके ऊपर काई लगी हुई है। तकनीकी दृष्टि से ये अत्यन्त विकसित हैं। अत्यन्त पतले फलक निकालकर इनको सावधानी पूर्वक गढ़ा गया है। हस्तकुठार अण्डाकार तथा नुकीले दोनों प्रकार के है। बदमदुरै से कुछ विदारणी ( Cleaver ) तथा क्रोड उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।

कोर्तलयार घाटी का दूसरा महत्वपूर्ण पूर्व पाषाणिक स्थल अत्तिरामपक्कम् है। यहाँ से भी बड़ी संख्या में हस्तकुठार, विदारणी और फलक उपकरण प्राप्त हुए हैं जो पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित है। हस्तकुठार पतले, लम्बे, चौड़े तथा फलक निकालकर तैयार किये गये हैं। यहाँ के हैन्डएक्स एशूली ( Acheulion ) प्रकार के है।

भारत के अन्य भागों से भी मद्रासीय ( चेन्नई ) परम्परा के उपकरणों की खोज की गयी है। नर्मदा घाटी, मध्यप्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र की गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा-तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही नदी घाटी, राजस्थान की चम्बल घाटी, उ०प्र० की सिंगरौली बेसिन, बेलनघाटी आदि से ये उपकरण मिलते हैं। ये सभी पूर्व पाषाणकाल की प्रारम्भिक अवस्था के है।

जीवन-यापन

पूर्व पुरापाषाणकालीन मानव को कृषि का ज्ञान नहीं था, इस कारण से वह वनों से प्राप्त फलफूल, आखेट में मारे गये पशु, नदियों एवं झीलों से पकड़ी गई मछलियों आदि पर निर्भर था अर्थात् इस काल का मानव आखेटक और खाद्यसंग्राहक था।

पूर्व पुरापाषाणयुगीन बस्तियों में भारतीय और विदेशी मूल के जानवरों के अवशेष बड़ी मात्रा में प्राप्त हुये हैं।

  • स्वदेशी मूल के पशु :- नर-वानर, नीलगाय, जिराफ, कस्तूरी मृग, बकरी, भैंस, चिंकारा, गाय, सुअर आदि स्वदेशी मूल के पशु प्रतीत होते हैं।
  • विदेशी मूल के पशु :-
    • ऊँट एवं घोड़े का सम्बन्ध उत्तरी अमेरिका से स्थापित किया जाता है।
    • दरियायी घोड़ा एवं हाथी मध्य अफ्रीका से भारत पहुंचे होंगे।
    • अधिकांश पशु उत्तर भारत की पश्चिमी सीमा से प्रविष्ट हुये होंगे। उस समय अफ्रीका एवं भारत के मध्य परस्पर सम्बन्ध अवश्य रहे होंगे।

पूर्व पुरापाषाणकालीन मानव पशुपालन से अनभिज्ञ था अर्थात् वह पशुपालन की कला नहीं जानता था।

मानव को अग्नि का ज्ञान तो हो गया था, परन्तु वह उसके उपयोग से परिचित नहीं था। अतः वह कच्चे मांस का भक्षण करता था। कन्दमूल फल एवं पशुओं के शिकार पर निर्भरता ऋतु चक्र पर आधारित रही होगी।

आत्मरक्षा मनुष्य का सर्वोपरि लक्ष्य था, अत: पर्वत कन्दरायें, नदियों के कगार उसकी शरण स्थली बने।

मानव वास्तुकला, मृद्भाण्ड कला का विकास नहीं कर पाया था, अतः उसकी सृजनात्मकता हथियारों एवं औजारों के निर्माण में प्रकट हुई। इस प्रकार पाषाण निर्मित औजार इस काल की क्रान्तिकारी घटना थी। आयुध या उपकरण निर्माण में क्वार्टजाइट, बलुआ पत्थर, लैटराइट एवं चेल्सीडनी का उपयोग विशेष रूप से किया गया। विद्वानों ने औजार निर्माण की दो प्रणालियों का उल्लेख किया है –

  • उत्तरी भारत की फ्लेक प्रधान सोहन प्रणाली तथा
  • दक्षिण भारत की कुठार प्रधान प्रणाली।

जीवन की इस प्रारम्भिक अवस्था में धार्मिक लोकोत्तर भावना का उदय नहीं हो पाया था। उस समय के मानव के रहन-सहन तथा सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति आदिमानव द्वारा बनाये गये चित्रों से होती है। सर्वाधिक प्राचीन चित्रकारी पूर्वपुरापाषाण युगीन भीमबेटका ( रायसेन, म०प्र० ) में देखने को मिली है। जिनमें ( २४३ ) प्रागैतिहासिक शैलाश्रय हैं।

प्रारम्भिक चित्रों में हरे और गहरे लाल रंगों का उपयोग हुआ है। भैंसे, हाथी, बाघ, गैंडे और सुअर के चित्र विशेष रूप से देखे गये हैं। कुछ चित्रों की लम्बाई दो से तीन मीटर तक है। उनकी विशालता को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि आदि मानव इन जंगली जानवरों को न केवल भयावह मानता रहा होगा, अपितु उनकी क्रूरता भी उनकी विशाल आकृतियों में प्रतिध्वनित होती है।

खुदाई और चित्रकारी से ज्ञात होता है कि शिकार ही जीवन-यापन का मुख्य साधन था। इन चित्रों में बनी शारीरिक सरंचना के आधार पर पुरुष और स्त्री में सरलता से भेद किया जा सकता है। इन चित्रों से यह भी पता चलता है कि पूर्व पुरापाषाणयुग के लोग छोटे-छोटे समूहों में रहते थे और उनका जीवन निर्वाह पशुओं एवं पेड़ पौधों पर निर्भर था।

मानव उद्विकास ( Human Evolution )

आरम्भिक मानव ( The Earliest People )

पुरापाषाणकाल : अत्यंतनूतन युग व विभाजन का आधार

उपकरण प्ररूप : पाषाणकाल

पाषाणकाल : काल विभाजन

मध्य पुरापाषाणकाल ( Middle Palaeolithic Age )

उत्तर पुरापाषाणकाल ( Upper or Late Palaeolithic Age )

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