पुरापाषाणकाल : अत्यंतनूतन युग व विभाजन का आधार

भूमिका

पुरापाषाणकाल ( Palaeolithic Age ) के स्थल भारतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न भागों में व्यापक रूप से पाये जाते हैं। पुरापाषाणकाल हिमयुग ( Pleistocene Epoch ) से साम्यता रखता है। दूसरे शब्दों में जब लगभग १०,००० ई०पू० जलवायु में परिवर्तन हुआ और हिमयुग समाप्त हुआ तब मानव के रहन-सहन में भी परिवर्तन आया और पुरापाषाणकाल भी समाप्त हो गया। इस तरह भारतीय उप-महाद्वीप में पुरापाषाणकाल का समय लगभग ६ लाख वर्ष से १०,००० ई०पू० के बीच निर्धारित किया गया है।

अत्यंतनूतन युग व पुरापाषाणकाल

यद्यपि मानव-पूर्वज परम्परा को हम अधिक से अधिक मध्यनूतन युग ( Miocene Epoch ) तक खींच सकते हैं ( भारत में शिवालिक निक्षेपों से रामापिथेकस के आधार पर ), लेकिन मानव ने अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) में आकर ही इस बात के संकेत दिये कि अपनी जैविक क्षमता को जलवायु या वातावरण के अनुरूप बदलने या ढालने का प्रयास किया था।

अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) में तीन बड़े स्तनधारियों के पूर्वजों का आविर्भाव एक प्रमुख घटना थी, ये थे – हाथी, मवेशी और घोड़े के पूर्वज। विद्वानों का कहना है कि इन तीनों में से किसी भी एक का भी आविर्भाव अत्यंतनूतन युग के प्रारंभ का द्योतक है। तीनों पशुओं को सामूहिक रूप से विलाफ्रांसीसी जन्तुसमूह ( Villafranchian Fauna ) कहा जाता है। यह नाम फ्रांस के एक स्थल के नाम पर पड़ा है।

सम्पूर्ण पुरापाषाणकाल या पूर्व पाषाणकाल अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) से साम्यता रखता है। इसे हिमयुग ( Ice Age ) भी कहते हैं। इसकाल में पृथ्वी अत्यंत ठंडी होने लगी और अवक्षेप-वातावरण ( precipitate environment ) का संतृप्त जल ( saturated water ) बढ़ गया था।इसके दो परिणाम हुए :-

  • ध्रुवीय प्रदेशों से हिमनद ( Glacier ) ४५° अक्षांशों तक या उससे भी आगे तक पहुँच गये थे।
  • भूमध्यरेखीय प्रदेशों के आसपास लगभग ३०० से २५० उत्तर व दक्षिण अक्षांशों पर मूसलाधार बारिश प्रारम्भ हो गयी थी।

भू-आकृतीय अध्ययनों ( Geomorphological studies ) से संकेत मिलता है कि अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) में ठंड व बारिश के कई दौर आये। इस ठंड व वर्षा के दौरान —

  • समशीतोष्ण प्रदेशों ( temperate zone ) में सामान्य गर्म के दौर बीच-बीच में गुजरते रहे।
  • उष्णकटिबंधीय प्रदेशों ( tropical zone ) में शुष्क के दौर बीच-बीच में आते रहे।

जलवायु के प्रचंड उतार-चढ़ाव का जीवों पर प्रभाव पड़ा। जिसके फलस्वरूप प्राणियों के भिन्न-भिन्न जातियों-प्रजातियों का बहुशाखीय विकास हुआ।

अत्यंतनूतन युग में क्रमबद्ध तरीके से कई हिमानी व अंतर्हिमानी चरण ( glacial and interglacial phase ) आये जिनका नामकरण एल्पीय जलस्रोतों के आधार पर रखा गया है; जैसे –

  • हिमनदन :
    • दोमाउ हिमनदन ( Donou glaciation )
    • गुंज हिमनदन ( Gunz glaciation )
    • मिंडेल हिमनदन ( Mindel glaciation )
    • रिस हिमनदन ( Riss glaciation )
    • वर्म हिमनदन ( Wurm glaciation )
  • अंतरहिमानी चरण :
    • तेग्लियन अंतरा हिमनद या दोनाउ-गुंज अंतरा हिमनद।
    • मॉसबाक अंतरा हिमनद या गुंज-मिंडेल अंतरा हिमनद।
    • हॉल्सटीन अंतरा हिमनद या मिंडेल-रिस अंतरा हिमनद।
    • पेम अंतरा हिमनद या रिस-वर्म अंतरा हिमनद।

इन हिमानी व अंतरहिमानी चरणों ने मानव के उद्विकास को, उसके रहन-सहन आदि को प्रभावित किया।

अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch ) और पुरापाषाणकाल को भारतीय सन्दर्भ में कालविभाजन के यूरोपीय मानकों से तालमेल बिठाने का प्रयास किया तो गया परन्तु अभी तक वैश्विक पंचांग से संतोषजनक रूप से जुड़ नहीं पाया है।

पुरापाषाणकाल व अत्यंतनूतन युग
पुरापाषाणकाल व अत्यंतनूतन युग

भारत का अत्यंतनूतन युग ( Pleistocene Epoch in India) : भारत के अत्यंतनूतन युग के निक्षेपों में से हमारे अधिकांश कालानुक्रम आज भी विश्वव्यापी पंचांग के साथ जुड़ने या स्थिर होने के लिए कठिन संघर्ष कर रहे हैं। देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के आधार पर स्थानीय कालानुक्रमों को समझने के लिए पर्याप्त परिश्रम किया गया है । हिमालय की उत्तर-पश्चिमी तराई में अधिकांश नदियों से वेदिकायुक्त स्तर-विन्यास ( stratification ) प्राप्त होता है और कम-से-कम तीन अतिशय विसर्जन (excessive discharge) वाले कालखंड ज्ञात होते हैं। इन कालखंडों में ढेर सारे गोलाश्म ( boulders ) ऊँचे अग्रांशों से नीचे उतरकर निचले अग्रांशों के तटों पर निक्षिप्त हो गये। ये सब प्राकृतिक क्रम में संयोजित हो गये हैं और इन्हें तलोच्चन निक्षेप (aggravational deposits) कहा जाता है। कश्मीर में हिमालय के जो हिमनदीय हिमोढ (glacial moraines) मिले हैं, उनसे सहसम्बन्ध स्थापित करते हुए विद्वानों में यह राय बनी है कि इन तीनों तलोच्चनों में से पहला दूसरे हिमानी युग से सम्बंधित हो सकता है, अतः शेष दोनों को अंतिम दोनों हिमानी कालखंडों से संबद्ध माना गया है।

भारत की शेष नदियों के सन्दर्भ में ऐसा सहसम्बन्ध स्थापित करना संभव नहीं था क्योंकि उन्हें हिमनदीय घटना के साथ नहीं जोड़ा जा सका है। इनमें से अधिकांश नदियों के केवल दो-दो तलोच्चन निक्षेप बने हैं, अतः यह युक्ति-संगत ही था कि उन्हें अन्तिम दोनों हिमानी कालखंडों का प्रतिनिधि माना गया है। परन्तु अभिनव अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि अधिकांश भारतीय नदियों के सबसे पुराने निक्षेपों को अधिक-से-अधिक अंतिम अंतराहिमानी ( last interglacial ) युग, अर्थात् आरंभिक उत्तर-अत्यंतनूतन ( early upper pleistocene ) काल का प्रतिनिधि मान सकते हैं। दूसरे तलोच्चन की विकिरणमापी ( radiometric ) तिथि ३०,००० से ३६,००० वर्ष तक आती है जिससे वह अंतिम हिमानी कालखंड में आ जाता है।

संक्षेप में, ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में अत्यंतनूतन युग की लगभग ४ से ५ जलवायुगत घटनाओं के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। पश्चिमोत्तर ( North-West ) इनमें सबसे पुराना कालखंड आरंभिक मध्य अत्यंतनूतन युग के अंतर्गत आता है जबकि शेष भारत के संदर्भ में सबसे पुराना काल आरंभिक उत्तर अत्यंतनूतन युग से संबद्ध माना जाता है।

गैर-नदीय मूल के निक्षेपों में पायी गयी सांस्कृतिक सामग्री, सूचक जीवाश्मों ( index fossils ) के अभाव में तिथि निर्धारण की समस्या प्रस्तुत करती हैं।
दुर्भाग्यवश अभी तक भारत के अत्यंतनूतन युग के जीवाश्मों की कोई स्पष्ट जानकारी अभी तक प्राप्त नहीं हुई है, अतः यह समस्या आज अनसुलझी पहेली बनी हुई है।

पुरापाषाणकाल का आरम्भ

अफ्रीका में मानव ने औजारों/उपकरणों का प्रयोग लगभग २६ लाख वर्ष पहले प्रारम्भ कर दिया था। ये उपकरण वहाँ पर मानव जीवाश्मों के साथ पाये गये हैं।

इंडोनेशिया के संदर्भ में मानवीय अवशेषों का समय लगभग १६ से १८ लाख वर्ष निश्चित किया गया है।

चीन के सन्दर्भ में प्रस्तर उपकरणों का समय १७ से १९ लाख वर्ष पुराने मानव जीवाश्मों के साथ पाये गये हैं।

भारतीय सन्दर्भ में समय निर्धारण की समस्या विचित्र हो जाती है क्योंकि पुरापाषाणकालीन औजारों के साथ मानव जीवश्म अभी तक नहीं मिले हैं। फिरभी औजरों की प्राप्ति से हमें मानव गतिविधियों की पुरातनता का पता अवश्य चलता है। शिवालिक की पहाड़ियों में पाये गये प्रस्तर उपकरणों का समय २० से १२ लाख वर्ष तक पुरातन बताया गया है।

महाराष्ट्र के पुणे जनपद में स्थित बोरी नामक पुरास्थल के औजारों की वैज्ञानिक तिथि १३.८ लाख वर्ष तक पुरानी बतायी गयी है।

‘अधिकांश पूर्व पुरापाषाणकाल हिमयुग में गुजरा है। अफ्रीका में पूर्व पुरापाषाणकाल सम्भवतः २० लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ। परन्तु भारत में यह ६ लाख वर्ष पहले प्रारम्भ हुआ। यह तिथि महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान को दिया गया है जो भारत में किसी भी आरम्भिक पुरापाषाण स्थल के लिए प्राचीनतम् तिथि है।’

‘The Lower Palaeolithic or the Early Old Stone Age covers the greater part of the ice age. The Early Old Stone Age may have begun in Africa around two million years ago, but in India it is not older than 600,000 years. This date is given to Bori in Maharashtra, and this site is considered to be the earliest Lower Palaeolithic site.

Source : India’s Ancient Past – R.S. Sharma.

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि — ‘जब हम भारत में प्रारम्भिक मानवीय गतिविधियों या उपस्थिति के साक्ष्य पर विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि इसका समय अफ़्रीका के बाद का है, परन्तु एशिया के अन्य देशों के समकालीन ही ठहरता है।’

पुरापाषाणकाल : काल विभाजन व आधार

पुरापाषाणकाल ( Palaeolithic Age ) को विद्वानों ने सुविधा के लिए ३ कालखण्डों में बाँटा है। इस विभाजन का आधार :-

  • औजार प्रौद्योगिकी ( tool technology ) या प्रस्तर औजारों का स्वरूप ( types of stone tools ) [ मुख्य आधार ]।
  • जलवायु परिवर्तन ( climate change ) [ गौण आधार ]

पुरापाषाणकाल के तीन कालखण्ड निम्न हैं :-

नाम औजार प्रौद्योगिकी या प्रस्तर उपकरण प्रकार
पूर्व पुरापाषाणकाल

( Early or lower Palaeolithic Age )

( ६,००,००० ई०पू० से १,५०,००० ई०पू० )

हस्तकुठार और विदारणी उद्योग

( Handaxe and Cleaver Technology )

मध्य पुरापाषाणकाल

( Middle Palaeolithic Age )

( १,५०,००० ई०पू० से ३५,००० ई०पू० )

शल्क निर्मित औजार

( Tools made on Flakes )

उत्तर पुरापाषाणकाल

( Upper or Late Palaeolithic Age )

( ३५,००० ई०पू० से १०,००० ई०पू० )

शल्कों व फलकों पर बने उपकरण

( Tools made on flakes and blades )

पुरापाषाणकाल : मानव का रहन-सहन

ये प्रस्तर युगीन स्थल आमतौर पर जल स्रोतों के पास स्थित होते हैं। इस कालखण्ड में मानव प्राकृतिक आवासों में ( शैलाश्रय और गुफाओं ) में रहता था। ये शैलाश्रय और गुफा भारतीय उप-महाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इस समय के मानव कृत्रिम आवास का निर्माण करना नहीं सीख पाया था अर्थात् घास-फूस की झोंपड़ियों में भी विरले ही रहते थे। पुरापाषाण युग के कुछ प्रसिद्ध स्थल हैं —

  • उत्तर पश्चिम भारत में सोहन घाटी और पोटवार पठार।
  • उत्तर भारत में शिवालिक पहाड़ियाँ।
  • उत्तर प्रदेश में बेलन नदी घाटी
  • मध्य प्रदेश नर्मदा घाटी में भीमबेटका, आदमगढ़, नरसिंहपुर, हथनोरा।
  • आंध्र प्रदेश में कुर्नूल।
  • चेन्नई के पास कोर्तलयार नदी घाटी में अत्तिरपक्कम्, गुड्डियाम की गुफाएँ।

पुरापाषाण युगीन मानव शिकारी और खाद्य संग्राहक ( वनोत्पाद ) था। उन्होंने जानवरों के शिकार के लिए विभिन्न आकार-प्रकार के प्रस्तर के औजारों और बड़े-बड़े कंकड़ों ( pebbles ) का प्रयोग किया। पत्थर के औजार एक कठोर चट्टान से बने होते हैं; जैसे  — क्वार्टजाइट। बड़े कंकड़ या बाटिकाश्म ( pebbles ) सामान्यतः नदी की वेदिकाओं में पाये जाते हैं। बड़े जानवरों के आखेट के लिए प्रस्तर औजारों के साथ-साथ समूहिक प्रयास की आवश्यकता होती थी। हमें उनकी भाषा और संचार के बारे में बहुत कम जानकारी है। पुरापाषाण युग के चित्र भीमबेटका और अन्य स्थानों के गुफा की चट्टानों पर पाए गए हैं। मानव संस्कृति की शुरुआत से १०,००० ई॰पू॰ तक की अवधि सामान्यतः पुरापाषाण काल के अन्तर्गत समाहित किया जाता है।

क्षेत्रीय स्वरूप ( Regional Character )

यदि हम अपने पुरापाषाणकाल पर समग्ररूप से दृष्टिपात करें तो पता चलेगा कि क्षेत्रीय और सांस्कृतिक इतिहास तैयार करना कोई सरल कार्य नहीं है। सांस्कृतिक अवशेषों को ही देखा जाए तो कोई विशिष्टता निर्दिष्ट करना कठिन है। परन्तु आंध्र-ओडिशा क्षेत्र से तुलना करने पर महाराष्ट्र-कर्नाटक के सहवर्ती क्षेत्र में पूर्व और मध्यपुरापाषाण काल में थोड़ी-थोड़ी अलग अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, अर्थात् एक ऐसे सांस्कृतिक क्षेत्र की कल्पना करना कठिन नहीं है, जो शायद पश्चिम में सौराष्ट्र और राजस्थान तक फैला हुआ था और पूर्व में विंध्याचल और छोटा नागपुर तक चला गया था।

तमिलनाडु का जितना निकट सम्बन्ध पूर्वी विस्तार के साथ प्रतीत होता है उतना पश्चिम विस्तार के साथ प्रतीत नहीं होता। क्या यह इस देश की इन दोनों चरम स्थितियों से भिन्न वातावरण के साथ अनुकूलन का परिणाम था? या यह किसी सर्वथा भिन्न परिवर्तन का द्योतक है — यह सिद्ध नहीं किया जा सकता। एक प्रागैतिहासिक पुरातत्त्ववेत्ताओं ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है :-

  • भारत में मनुष्य का अस्तित्त्व उपहिमालयी क्षेत्रों में तथा वर्तमान पाकिस्तान में सिंधु नदी के दोनों ओर तीसरे हिमानी युग से अवश्य है, चाहे वह दूसरे अंतराहिमानी ( second interglacial ) से भी न रहा हो।
  • अन्य नदी घाटियाँ अंतिम अंतराहिमानी युग में बस गयी थीं।
  • दरियाई घोड़े ( Hippopotamus ) और गैंड़ा ( Rhinoceros ) वंश के अवशेषों की प्रचुरता को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर अत्यंतनूतन युग में ( ६० – ७० हजार वर्ष ) गंगा के मैदान सहित अधिकांश प्रायद्वीपीय क्षेत्र में जलवायु आर्द्र रही और वातावरण ( sub- tropical ) उपोषण से लेकर उष्ण ( tropical ) तक रहा।
  • पश्चिमी क्षेत्र में जलवायु शुष्क रही और तेज हवाएँ चलती थीं। परिणामस्वरूप कुछ विशेष स्तनधारियों ने यह क्षेत्र अपने रहने के लिए चुना जो इस परिवर्तित वातावरण के साथ अनुकूलित हो गये। अतः मनुष्य के सांस्कृतिक अनुकूलन के साथ-साथ उसकी आखेट और संग्रह गतिविधियों को भी इस परिवर्तन के साथ समायोजित करना पड़ा।
  • भारत के बाहर यदि किसी देश से संपर्क हुआ होगा तो वह बहुत तेजी से हुआ होगा। यह जितना पश्चिम की ओर बढ़ा, उतना पूर्व की ओर नहीं बढ़ा।
  • मनुष्य मूलतः घाटियों के भीतर और पहाड़ी ढलानों पर किसी छोटी नदी अथवा मौसमी जलस्रोत के निर्गम स्थल पर रहता था। जहाँ कहीं गुफाएँ थीं, वे भी बसी हुई थीं। इन दोनों तरह की आवादियों की जीवन-पद्धति में कोई मूलभूत अंतर नहीं था।
  • भीमबेटका में हमें दीवार जैसी बनावट का निश्चित साक्ष्य मिलता है। जो इस सांस्कृतिक युग में गुफा के प्रवेश द्वार पर खड़ी की गयी थी हालाँकि वह इस संस्कृति का अंतिम चरण ( उत्तर पुरापाषाणकाल ) था। अतः मनुष्य की कृत्रिम आवास-निर्माण क्षमता की संभावना इसी कालखंड से स्वीकार करनी होगी। युरोप और एशियाई रूस में कहीं ज्यादा पुराने समय से ऐसे आवासों का अधिक स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त होते हैं।

निष्कर्ष

पूर्व पाषाणकालीन मनुष्य का जीवन पूर्णतया प्राकृतिक था। वे प्रधानतः आखेट पर निर्भर करते थे। उनका भोजन मांस अथवा कन्दमूल हुआ करता था। अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे मांस कच्चा खाते थे। उनके पास कोई निश्चित निवास स्थान भी नहीं था तथा उनका जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ था। सभ्यता के इस आदिमयुग में मनुष्य कृषि कर्म अथवा पशुपालन से परिचित नहीं था और न ही वह बर्तनों का निर्माण करना जानता था। इस काल का मानव केवल खाद्य पदार्थों का उपभोक्ता ही था। वह अभी तक उत्पादक नहीं बन सका था। मनुष्य तथा जंगली जीवों के रहन-सहन में कोई विशेष अन्तर नहीं था।

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