आर्य कौन हैं?

भूमिका

वैदिक संस्कृति के वाहक आर्य हैं। परन्तु वास्तव में ये आर्य कौन हैं? यह बहुत ही विवाद का प्रश्न रहा है। औपनिवेशिक दौर में पाश्चात्य विद्वानों ने आर्यों को आक्रांता कहकर प्राजातीय वैभिन्यता का ठप्पा लगाकर भारतीय समाज को विभाजित करने का प्रयास किया।

स्वतंत्रता के बाद भी वर्तमान में राजनीतिक हितों के लिए कुछ लोग यह छुनछुना बजा रहे हैं। ‘मूनिवासी बनाम बाहरी’ कहकर राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाती हैं। अभी हाल ही में तथाकथित हमारे एक नामी-गिरानी शिक्षण संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ये नारे लिखे हुए मिले : ‘ब्राह्मणों भारत छोड़ो’, ‘ब्रह्मण कैंपस छोड़ो’, ‘ब्राह्मणों-बनियों हम आ रहे हैं, बदला लेंगे’ आदि।

खैर यह तो हो गयी राजनीति की बात। आइये विचार करते हैं कि ये आर्य कौन थे? आर्य शब्द को विभिन्न विद्वानों ने समय-समय पर विभिन्न प्रकार से व्याख्यायित और परिभाषित करने का प्रयास किया जाता रहा और यह सिलसिला अभी तक थमा नहीं है। आर्य शब्द को लेकर अनेकानेक भ्रामक धारणाएँ प्रचलित हो चली हैं।

प्रजातीय अवधारणा

प्राच्यविद्या के प्रारम्भिक दौर में आर्य शब्द को एक प्रजाति के रूप में व्याख्यायित किया गया। लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से आर्य नामक किसी जाति की निश्चित पहचान करना असम्भव है जो किसी समय विशेष पर विश्व के किसी भी भू-भाग पर निवासित रही हो। ध्यान से देखा जाये तो स्वयं जाति का निर्धारण ही बहुत दुष्कर कार्य है। वर्तमान में विश्व की कोई भी जाति ऐसी नहीं है जिसे शुद्ध कहा जा सके और उस जाति विशेष के सदस्यों का उनकी भौतिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकरण किया जा सके। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आर्यों को जाति विशेष से सम्बन्धित करना अब कोई गम्भीर मत माना ही नहीं जाता है।

भाषाई अवधारणा

सामान्य पूर्वजों के निर्धारण के लिये भाषाई समानता एक आधार हो सकता है। परन्तु इस दृष्टिकोण में भी समस्याएँ कम नहीं हैं। कारण यह है कि भाषाई शुद्धता का वहन निरन्तर होता रहे यह सम्भव ही नहीं है। कैसे एक भाषा दूसरे से शब्दों को आत्मसात् करके स्वयं समृद्ध करती है और दूसरे को भी शब्द देती है यह सर्वविदित है। अर्थात् कोई भी भाषा ऐसी नहीं है जो कि सम्पर्क में आने वाली अन्य भाषाओं से शब्दावली के साथ-साथ मूल धारणाओं को भी ग्रहण करती हुई अपनी ऐतिहासिक विकास यात्रा निरन्तर गतिशील रहती है। अब तो स्वयं में भारोपीय व सामी भाषाओं के पूर्णरूपेण स्वतंत्रत भाषा होने जैसी अवधारणाओं को भी तिलांजलि दे दी गयी है।

हाँ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आर्यों की पहचान जाति की अपेक्षा ‘भाषाई समूह’ से करना अधिक तार्किक है। भारत के सन्दर्भ में आर्य लोग एक से अधिक जातीय वर्ग के थे, जो सामूहिक रूप से ‘वैदिक संस्कृति’ नामक भाषा बोलते थे और यह भाषा भारोपीय भाषा समूह की अनेक भाषाओं में से एक थी।

परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि आर्यों की पहचान भाषा से जोड़ने सम्बन्धित अवधारणा मोटेतौर पर ही मान्य होनी चाहिए क्योंकि वैदिक साहित्य में द्रविड़ भाषा के शब्दों का पाया जाना भाषाओं के आदान-प्रदान का साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

वैदिक संस्कृति को भारोपीय भाषा समूह की भाषा मान लेने पर भी इस प्रश्न का समाधान नहीं हो पाता है कि आर्यों का मूल निवास स्थान कहाँ था? क्योंकि स्वयं भारोपीय भाषा स्वयं कहाँ जन्मी यह कहना कठिन है। साथ ही इस सम्भावना से भी नहीं इंकार किया जा सकता है कि हो सकता है भारोपीय भाषा स्वयं में कई भाषाओं के पारस्परिक आदान-प्रदान का परिणाम हो।

निष्कर्ष

आर्य का शाब्दिक अर्थ है – उत्तम, श्रेष्ठ। परन्तु यह श्रेष्ठता प्रजातीय नहीं वरन् ‘भाषाई श्रेष्ठता’ थी। आर्य एक विशेष प्रकार की भाषा बोलते थे। यह भाषा भारोपीय समूह में से एक थी जिसका नाम ‘वैदिक संस्कृति’ है। वर्तमान क्लासिकल संस्कृति भाषा अलग है। क्लासिकल संस्कृति का प्राचीनतम् ग्रंथ यास्क कृत ‘निरुक्त’ है।

वैदिक साहित्य क्या है?

वेदों के रचयिता कौन हैं?

वेदों का रचनाकाल क्या है?

वैदिक भूगोल

वेद और पुरातत्त्व

अश्व और आर्य बहस ( THE HORSE AND THE ARYAN DEBATE )

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Index
Scroll to Top