प्राचीन भारतीय इतिहास

संगम साहित्य का ऐतिहासिक महत्त्व

भूमिका ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ में दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास हमें जिस साहित्य से ज्ञात होता है उसे ‘संगम साहित्य’ कहते हैं। इसके पहले का कोई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ हमें दक्षिण भारत से प्राप्त नहीं होता है। सुदूर दक्षिण के प्रारम्भिक इतिहास का मुख्य साधन संगम साहित्य ही है। संगम का अर्थ ‘संगम’ शब्द […]

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तृतीय संगम या तृतीय तमिल संगम

भूमिका ८वीं शताब्दी में इरैयनार अगप्पोरुल (Iraiyanar Agappaorul) के भाष्य की भूमिका में हमें तीन संगमों का विवरण मिलता है। इसके अनुसार ये तीनों संगम ९,९९० वर्ष तक चला। इन तीनों संगमों में ८,५९८ कवियों ने भाग लिया। इसे कुल १९७ पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। इन तीन संगमों में से तृतीय संगम (तृतीय

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द्वितीय संगम या द्वितीय तमिल संगम

भूमिका ८वीं शताब्दी में इरैयनार अगप्पोरुल (Iraiyanar Agappaorul) के भाष्य की भूमिका में हमें तीन संगमों का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार ये तीनों संगम ९,९९० वर्ष तक चला, जिसमें ८,५९८ कवियों ने भाग लिया और इसे १९७ पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। इन तीन संगमों में से द्वितीय संगम (द्वितीय तमिल संगम)

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प्रथम संगम या प्रथम तमिल संगम

भूमिका आठवीं शताब्दी में इरैयनार अगप्पोरुल (Iraiyanar Agappaorul) के भाष्य की भूमिका में तीन संगमों का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार तीनों संगम ९,९९० वर्ष तक चला, जिसमें ८,५९८ कवियों ने भाग लिया और इसे १९७ पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त हुआ। इन तीन संगमों में से प्रथम संगम (प्रथम तमिल संगम) का संक्षिप्त

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संगमयुग की तिथि या संगम साहित्य का रचनाकाल

भूमिका मौर्योत्तरकाल में सुदूर दक्षिण में कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में जिस सभ्यता और संस्कृति के हमें दिग्दर्शन होते हैं वह जहाँ एक ओर उत्तर भारतीय संस्कृति से भिन्न थे वहीं वे आर्य संस्कृति के तत्त्वों के लिए ग्रहणशील भी बने हुए थे। परन्तु संगमयुग की तिथि और संगम साहित्य के रचनाकाल के

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सुदूर दक्षिण के इतिहास की भौगोलिक पृष्ठभूमि

भूमिका सभ्यता और संस्कृति भूगोल से प्रभावित होती है। लम्बा समुद्र तट, पूर्वी और पश्चिमी घाट, उपजाऊ नदी घाटियाँ और खनिज संसाधनों ने सुदूर संगम इतिहास को सजाया और सँवारा। इस तरह सुदूर दक्षिण के इतिहास के अध्ययन से पूर्व यहाँ की भौगोलिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात कर लेना समीचीन होगा। भौगोलिक पृष्ठभूमि सुदूर दक्षिण में

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मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था (२०० ई०पू० – ३०० ई०) / Post-Mauryan Economy (200 BC – 300 AD)

भूमिका मौर्योत्तर अर्थव्यवस्था भारतीय आर्थिक इतिहास में सम्पन्नता का युग माना जा सकता है। लौह तकनीक के विकास और कृषि के विस्तार की पूर्व की प्रक्रिया इस समय भी अनवरत चलती रही। परिणामस्वरूप कृषि के अधिशेष उत्पादन ने अनेक शिल्पों व उद्योगों को विकसित स्थिति में ला दिया। मौर्योत्तर कालीन साहित्यिक स्रोतों से शिल्पों, शिल्पकारों,

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मौर्योत्तर कला और स्थापत्य

भूमिका मौयर्योत्तर युग कलात्मक विकास की दृष्टि से बहुआयामी था। कला धर्म से प्रभावित थी वह भी मुख्यतया बौद्ध धर्म से और गौणतया हिन्दू व जैन धर्म से। मौर्योत्तर कला की प्रमुख विशेषता है— विभिन्न शैलियों का विकास; यथा— मथुरा कला, गांधार कला, अमरावती कला इत्यादि। आर्थिक समृद्धि ने स्थापत्य कला और मूर्तिकला के विकास

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मौर्योत्तर साहित्य

भूमिका मौर्योत्तर में प्राकृत, संस्कृत और तमिल भाषाओं में रचनाएँ मिलती हैं। प्राकृत भाषा में अभिलेख लिखवाये जा रहे थे परन्तु संस्कृत भाषा अब धीरे शासनादेश की भाषा बनती जा रही थी। आगे चलकर गुप्तकाल में संस्कृत राजकीय भाषा बनने वाली थी। पूर्व में जहाँ बौद्ध की भाषा पालि थी वहीं महायान शाखा की उत्पत्ति

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मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति

भूमिका धार्मिक क्षेत्र में मौर्योत्तर विशेषता थी ब्राह्मण या वैदिकधर्म की पुनर्स्थापना तथा महायान बौद्धधर्म का उदय और विकास। इस समय जैनधर्म के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन आया। इसी काल में भक्ति भावना का विकास हुआ जिसके धर्म के साथ-साथ कला, व समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ने वाले थे। मौर्योत्तर धार्मिक स्थिति से सम्बन्धित

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